भोपाल में कोवाक्सिन के परीक्षण में शामिल स्वयंसेवियों ने लगाया जानकारी छिपाने और उपचार में अनियमितता का आरोप

7 दिसंबर 2020 को भोपाल के पीपुल्स मेडिकल कॉलेज में तीसरे चरण के परीक्षण के दौरान भारत बायोटेक द्वारा विकसित किए जा रहे कोविड-19 वैक्सीन कोवाक्सिन के लिए एक ट्रायल में शामिल स्वयंसेवी को टीका लगाते हुए. संजीव गुप्ता/ईपीए
09 January, 2021

भोपाल के कई निवासियों के अनुसार पीपुल्स कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च सेंटर ने उन्हें बिना आवश्यक जानकारी दिए कोविड-19 वैक्सीन के एक नैदानिक ​​परीक्षण में शामिल किया. हैदराबाद में वैक्सीन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटेक द्वारा विकसित कोविड-19 वैक्सीन कोवाक्सिन का तीसरा चरण, मानव परीक्षण भारत भर में चल रहा है. कारवां ने भोपाल में परीक्षण में शामिल कई प्रतिभागियों से बात की. उन्होंने कहा कि केंद्र के प्रतिनिधियों ने वालंटियर्स की तलाश में उनके इलाके का दौरा किया था. इनमें से कुछ निवासियों ने कहा कि उन्हें बताया गया था कि उन्हें अपना समय देने और भागीदारी देने के लिए 750 रुपए मिलेंगे. कुछ ने कहा कि उन्हें यह नहीं बताया गया था कि यह एक नैदानिक ​​परीक्षण है और न ही इसके संभावित दुष्प्रभावों की जानकारी दी थी. सात लोगों ने मुझे बताया कि उन्होंने परीक्षण में भाग लेने के बाद गंभीर प्रतिकूल असर हुआ. उनमें से ज्यादातर उन परिवारों से हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और यूनियन कार्बाइड संयंत्र के करीब रहते हैं, जहां 1984 में एक घातक गैस रिसाव हुआ था. परीक्षण में शामिल कई प्रतिभागी इस औद्योगिक दुर्घटना में जीवित बचे लोग भी हैं.

भाग लेने वालों में शंकर नगर इलाके के निवासी 36 वर्षीय जितेंद्र भी थे. जितेंद्र ने कहा कि वह 10 दिसंबर 2020 को पीपुल्स कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च सेंटर गए थे. उन्होंने कहा कि उसी दिन की शुरुआत में कॉलेज के लोग उनके पड़ोस में आए थे और घोषणा की थी कि लोगों को एक टीका लगाया जाएगा और कुछ पैसे दिए जाएंगे. उन्होंने कहा, "उस समय, मुझे पता था कि वे कोविड-19 से बचाव के लिए लोगों का टीकाकरण कर रहे हैं और प्रत्येक प्रतिभागी को 750 रुपए का भुगतान करेंगे, इसलिए मैंने सोचा कि जाने में क्या नुकसान है? उन्होंने अस्पताल से आने-जाने के लिए वाहन की भी व्यवस्था की थी.

जब वह अस्पताल पहुंचे, तो उन्हें बताया गया कि दिया जा रहा टीका परीक्षण के लिए है. जितेंद्र कोवाक्सिन के तीसरे चरण के परीक्षण के लिए नामांकित थे. 3 जनवरी को भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल, वीजी सोमानी ने कोवाक्सिन को आपातकालीन स्थिति में सीमित उपयोग के लिए मंजूरी दे दी. कई सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं ने इस अनुमोदन पर सवाल उठाया क्योंकि इसका तीसरे चरण का परीक्षण पूरा नहीं हुआ था और न ही इसके तीसरे चरण का कोई अंतरिम डेटा प्रकाशित किया गया था.

जितेंद्र ने बताया कि अपना नामांकन कराते वक्त उन्होंने परीक्षण जांचकर्ताओं को यह जानकारी दी थी कि वह हाल ही में टाइफाइड से उभरे थे और पिछले साल उन्हें लगातार सर्दी और खांसी हुई थी. जांचकर्ताओं ने उन्हें आश्वासन दिया कि टीका लेने से कोई नुकसान नहीं होगा. उनके अनुसार, जांचकर्ताओं ने कहा, "इससे खून साफ होगा और बीमारी नहीं होगी. अस्पताल ने जितेंद्र को एक इंजेक्शन दिया जो या तो वैक्सीन का था या एक प्लेसिबो था. कोवाक्सिन का तीसरा परीक्षण एक डबल ब्लाइंड और प्लेसिबो नियंत्रित है, जिसका अर्थ है कि न तो प्रतिभागियों और न ही जांचकर्ताओं को पता होता है कि किसे टीका दिया जा रहा है और किसे प्लेसिबो. तीसरे चरण के परीक्षण के बाद वैक्सीन का विश्लेषण होता है. भारत के क्लिनिकल परीक्षण रजिस्ट्री पर बताए गए परीक्षण प्रोटोकॉल के अनुसार, कोवाक्सिन के तीसरे चरण के परीक्षण का उद्देश्य 25800 लोगों को प्लेसिबो दिए जाने वाले और वैक्सीन दिए जाने वाले समूहों में विभाजित करना है.

12 दिसंबर को जितेंद्र जब उठे तो उन्हें बुखार और सिरदर्द था. वह दो दिन बाद जांच के लिए वापस अस्पताल गए. परीक्षण से जुड़े डॉक्टरों ने कुछ परीक्षणों के साथ-साथ दवा भी लिखी, हालांकि अस्पताल ने इन परीक्षणों और दवा के लिए भुगतान नहीं किया. जितेंद्र ने कुछ जांचों के लिए खुद भुगतान किया. उन्हें भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर से दवाइयां मिलीं, जहां 1984 के गैस रिसाव में बचे लोगों को मुफ्त इलाज दिया जाता है.

परीक्षण स्थल पर चिकित्सक ने उन्हें बताया कि उन्हें पीलिया हो गया है. चिकित्सक ने उन्हें और दवा लेने तथा नैदानिक ​​परीक्षण कराने को कहा. जितेंद्र ने कहा, "मैं यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकता. मैं दिहाड़ी कमाने वाला हूं और परिवार का एकमात्र कमाने वाला हूं." वह अपने माता-पिता, अपने नौ साल के बेटे और पांच साल की बेटी का खर्च चलाने के लिए पैसे उधार ले रहा थे क्योंकि वह अपनी बीमारी के कारण लगभग एक महीने तक दिहाड़ी नहीं कमा पाए. जितेंद्र को तीन हफ्ते से बुखार है और वह कमजोर महसूस कर रहे हैं. उन्हें मिचली आती है और खाना नहीं खा पाते. उन्होंने मुझे बताया, "मैं काम करने के लिए अब बहुत कमजोर हूं. हम उधार के पैसे पर जी रहे हैं." दिसंबर के आखिर से परीक्षण स्थल के डॉक्टरों ने उनका फोन उठाना बंद कर दिया है.

नए दवा और नैदानिक परीक्षण कानून 2019 के मुताबिक नैदानिक परीक्षण करने वालों को परीक्षण के दौरान बीमार हो जाने वाले परीक्षण में शामिल स्वयंसेवकों का तब तक मेडिकल प्रबंध सुनिश्चित करना चाहिए, जब तक कि जांचकर्ता यह साबित नहीं कर देते कि बीमारी परीक्षण के कारण नहीं है. नियम चिकित्सा प्रबंधन को "उपचार के पूरक उपचार और अन्य चिकित्सा देखभाल के लिए आवश्यक गतिविधियों के रूप में” परिभाषित करते हैं. जितेंद्र ने कहा कि जैसे ही उन्हें दिक्कत महसूस होने लगी वह अस्पताल गए जहां उन्हें और दवाएं तथा जांचें लिख दी गईं. उन्हें यह नहीं बताया गया कि परीक्षण के कारण उन्हें ऐसा हुआ था या नहीं. मैंने पीपुल्स अस्पताल के मुख्य जांचकर्ता डॉ. राघवेंद्र गुमाश्ता से संपर्क किया, जिन्होंने प्रतिभागियों की खास शिकायतों पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. गुमाश्ता अस्पताल के सामुदायिक चिकित्सा विभाग में शिक्षक हैं. मुख्य जांचकर्ता के तौर पर वह भोपाल में कोवाक्सिन परीक्षण के सभी पहलुओं के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार हैं. उन्होंने कहा, "मैं केवल यह कह सकता हूं कि हम भारत बायोटेक द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार काम कर रहे हैं और आपको इन आरोपों के संबंध में उनसे बात करनी चाहिए." भारत बायोटेक ने इस ईमेल का जवाब नहीं दिया है कि क्या वे भोपाल में स्वयंसेवकों के बीमार होने के बारे में जानते थे?

19 साल के बिजली मिस्त्री दीपक बोध ने भी कहा कि उन्होंने भोपाल के पीपुल्स अस्पताल में कोवाक्सिन परीक्षण में भाग लिया था. दिसंबर की शुरुआत में अस्पताल में परीक्षण भर्ती के लिए भेजी गई वैन में उन्हें भी ले जाया गया था. उन्होंने मुझे बताया कि खुराक लेने के अगले दिन उन्हें कमजोरी और थकान महसूस हुई. दस दिनों तकयही हाल रहा. इस दौरान वह कामभी नहीं कर सकते थे. उन्होंने कहा, "अब भी मैं कमजोर महसूस करता हूं, मैं ठीक महसूस नहीं करता, इसलिए मैंने अगली खुराक नहीं लेने का फैसला किया है." उनके 40 वर्षीय पिता और 37 वर्षीय मां ने भी इस परीक्षण में भाग लिया था.

शंकर नगर के निवासी 50 वर्षीय हरि सिंह गोंड भी अस्पताल की वैन में परीक्षण के लिए गए थे. उन्होंने कहा कि 7 दिसंबर को पहली खुराक पाने के बाद उनकी बहुत तबीयत खराब हो गई. उन्होंने मुझे अपना दवा का पर्चा दिखाया. 10 दिसंबर को उन्हें दस्त, उल्टी, बदन में दर्द और सिरदर्द" जैसे लक्षण थे, जिसके लिए उन्हें परीक्षण स्थल के एक डॉक्टर ने कुछ दवाएं लिखकर दी थीं. हालांकि, जितेंद्रकी तरह गोंड से दवा के लिए भुगतान करने के लिए नहीं कहा गया था.

1984 की भोपाल गैस त्रासदी से बचे लोगों के साथ काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता रचना ढींगरा ने कहा कि 1984 में गैस रिसाव के स्रोत, यूनियन कार्बाइड संयंत्र के पीछे स्थानीय इलाकों से काम करने वाले दो सौ से अधिक लोगों को ले जाया गया था. 2011 में गैस त्रासदी से बचे इन इलाकों के लोगों पर एक गैरकानूनी परीक्षण किया गया था जिसमें 10 लोगों की मौत हो गई थी. परीक्षण के लिए परीक्षण करने वाले वैनों में आए और कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अस्पताल जाने पर 750 रुपए मिलेंगे.

ढींगरा ने कहा, "750 रुपए इन लोगों के लिए एक बड़ी राशि है." उन्होंने यह भी कहा कि कई स्वयंसेवकों के पास परीक्षण में नामांकित होने से पहले कोई उचित जानकारी नहीं थी. "वैनों में ले जाए गए कई स्वयंसेवको को यह पता ही नहीं था कि यह एक परीक्षण था और बाकियों के पास उनके सहमति फॉर्म की एक प्रति नहीं है." सड़क पर बिरयानी बेचने वाले 24 साल के मुकेश ने कहा, "हर कोई जा रहा था, इसलिए मेरी पत्नी और मां भी साथ गए. वे बस यह जानते थे कि 750 रुपए मिलेंगे और कोविड-19 का टीका लगेगा." उन्होंने बताया वह खुद इसलिए नहीं गए क्योंकि काम पर जाना था.

शंकर नगर की रहने वाली 40 वर्षीय संगीता जायसवाल अपने 45 वर्षीय पति, 22 वर्षीय बेटे और लगभग परिवार के सभी लोगों के साथ अस्पताल गईं. उन्होंने बताया, “हमें बताया गया कि यह टीका हमें कोरोना से बचाएगा. हमें किसी भी परीक्षण के बारे में जानकारी नहीं दी गई थी."

नैदानिक ​​परीक्षणों के नियमों के अनुसार, "जांचकर्ता को अध्ययन के विषय में व्यक्ति को मौखिक रूप से सूचना देने के साथ-साथ जानकारी के लिए गैर तकनीकी भाषा में लिख कर देना चाहिए जो आसानी से समझ आ जाए." जांचकर्ताओं को सभी स्वयंसेवकों को उनके हस्ताक्षर किए हुए इकरारनामे की एक कॉपी भी देनी होगी. जायसवाल ने मुझे बताया कि न तो वह इकरारनामा पढ़ पा रही थीं और न ही किसी ने बोलकर उन्हें बताया कि इकरारनामे में क्या लिखा है.

उन्होंने बताया, "उन्होंने मुझे दस्तखत किए फॉर्म की कॉपी नहीं दी. उन्होंने हमें कागज दिए और साथ ही कुछ कोरे कागज भी. उन्होंने कहा कि अगर हमें सिरदर्द या कमजोरी महसूस होती है तो हम उन कागजों पर लिख दें." जायसवाल जिन कागजों का जिक्र कर रहीं थी, वह एक डायरी कार्ड होते हैं, जिसमें परीक्षण स्वयंसेवकों को परीक्षण करने वाली दवाई या टीका लेने के बाद सामने आने वाले किसी भी लक्षण को लिखना होता है.
50 वर्षीय स्वयंसेवी गोंड को भी 7 दिसंबर को अस्पताल में टिका लगवाने पर सहमति फॉर्म की हस्ताक्षरित प्रति नहीं मिली थी. जनवरी को अपनी दूसरी खुराक के लिए जाने पर उन्हें केवल सहमति फॉर्म की एक प्रति दी गई थी. जो जनवरी 2021 की थी लेकिन दिसंबर वाली नहीं दी गई. उनकी भी परीक्षण के बाद तबीयत बिगड़ गई थी.

इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स की परामर्श संपादक संध्या श्रीनिवासन ने कहा, "ऐसे उदाहरण न सिर्फ नैदानिक ​​परीक्षणों के नियमों का गंभीर उल्लंघन हैं, बल्कि अनुसंधान के नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन भी हैं. प्रतिभागी की स्वेच्छापूर्णता और लिखित सहमति नैतिक अनुसंधान का केंद्र बिंदु है. शोधकर्ताओं को प्रतिभागियों की कमजोरियों का फायदा नहीं उठाना चाहिए. ऐसा करना भविष्य में स्वेच्छिक रूप सहमति देने की उनकी इच्छा को कम कर सकता है. जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं, जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है, जो पढ़ नहीं सकते हैं या जो कम पढ़े लिखे हैं. ये सभी ऐसे समूह हैं जिन्हें बिना किसी ठोस कारण के परीक्षण में शामिल नहीं किया जाना चाहिए."

(यह रिपोर्टिंग ठाकुर फैमिली फाउंडेशन के अनुदान द्वारा समर्थित है. ठाकुर फैमिली फाउंडेशन का इस रिपोर्ट पर कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं है.)