भारत में कोरोनावायरस संकट दशकों की गलत नीतियों का परिणाम

विप्लव भुयान/हिंदुस्तान टाइम्स/ गैटी इमेजिस

वैश्विक कोरोनावायरस संकट के बारे में कई सारी बातें कही जा रही हैं. इसको एक महामारी, एक अभूतपूर्व संकट और एक सदी पहले मानव आबादी को तबाह कर देने वाले स्पेनिश बुखार की वापसी तक कहा जा रहा है. 

भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य का अध्ययन करनेवालों की नजरों में यह संकट दशकों से जारी या शायद आजादी के वक्त से ही जारी तबाही की निरंतरता है.

भारत में कोविड-19 के पहले मामले के सामने आने के बाद के हफ्तों में रिपोर्टिंग करते हुए मैं अभी तक ऐसे एक भी महामारी विशेषज्ञ या संक्रामक रोग विशेषज्ञ से नहीं मिली जिसे इस बात की हैरानी हो रही है कि हमारा देश तैयारी के लिहाज से आने वाले दिनों में संक्रमण के फैलने और उससे होने वाली मौतों की भयावय स्थिति का सामना करने वाला है.

जनवरी में एक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक आकलन के अनुसार, भारत में प्रति 100000 (एक लाख) लोगों पर 2.3 आईसीयू बेड हैं. ईरान के लिए यह अनुपात 4.6 प्रति एक लाख लोग है. वहां का चिकित्सातंत्र कोविड-19 के मामलों से भर गया है. संयुक्त राज्य में, जहां आईसीयू बेड का अनुपात छह गुना से अधिक होने का अनुमान लगाया गया था, वहां भी विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि जल्द ही आईसीयू बेड कम पड़ जाएंगे. भारत में प्रति हजार लोगों में एक से भी कम एलोपैथिक डॉक्टर है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा का न्यूनतम है. 2016 तक इंडियन मेडिकल एसोसिएशन दसियों हजारों क्रिटिकलकेयर विशेषज्ञों की कमी दर्शा रहा था. डॉक्टर और बिस्तर मुख्य रूप से निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में हैं, जिसके सामने अपने स्वयं के मूल्य निर्धारित करने और अपने स्वयं के नियम बनाने और साथ ही मरीजों की बजाय मुनाफे को ध्यान में रख कर दोनों का शोषण करने का रास्ता खुला है.

नरेन्द्र मोदी प्रशासन की प्रतिक्रिया की विशेषता रही है कि इसमें पारदर्शिता में कमी और सार्वजनिक आवश्यकता से अधिक पीआर को तवज्जो दी जाती है. स्वास्थ्य मंत्रालय, जिसने वायरस के लिए जैसे-तैसे कुछ परीक्षण किए, ने अनुचित रूप से लंबे समय तक इस धारणा को बनाए रखा है कि भारत में केवल "आयातित" संक्रमण के मामले देखे जा रहे हैं और अपनी प्रतिक्रिया में इसी के मुताबिक कांट-छांट की. जबकि अन्य देशों ने पता लगाने, अलग-थलग करने और जिस किसी के भी संक्रमति होने की संभावना हो उसका परीक्षण करने के आक्रामक रवैये को प्राथमिकता दी, हमारे अधिकारी इसी बात से चिपके रहे कि भारत में "समुदाय" संक्रमण नहीं है. जैसा कि एक डॉक्टर ने चिन्हित किया कि यह विचार गैरमौजूदगी के सबूतों की बजाय सबूतों की गैरमौजूदगी पर आधारित है.

19 मार्च को राष्ट्र के नाम संबोधन में मोदी ने स्वैच्छिक आत्मअलगाव (सेल्फ क्वारंटीन) का ढोल पीटा, लेकिन सरकार ने कोविड-19 के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए चिकित्सा या आर्थिक मोर्चे पर कुछ नहीं कहा. आयुष मंत्रालय ने वायरस का मुकाबला करने के लिए होम्योपैथिक की काल्पनिक रोगनिरोधक का समर्थन किया. कुछ हिंदू समूहों और एक बीजेपी कार्यकर्ता ने अपना पसंदीदा रोग रोधी पेय गोमूत्र “पार्टियों” का आयोजन किया है.

महामारी बीमारी के साथ-साथ अज्ञानता का उत्पाद होती है. कोरोनावायरस नया हो सकता है लेकिन अज्ञानता हम सभी में है. मोदी, उनके मंत्रियों और उनकी पार्टी ने बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों का तिरस्कार किया और वैज्ञानिक सोच की अवमानना की. एक टूटी हुई सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली आग में ईंधन का काम करती है. अज्ञानता के साथ चीजों को नजरअंदाज करने की परंपरा भी है. ऐसा करने में वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें भारत के स्वास्थ्यतंत्र की हालत, पिछली सभी सरकारों की उदासीनता और आबादी पर पहले से जारी बीमारी के प्रकोप का पता होना चाहिए. ये तमाम बातें तपेदिक के जारी प्रकोप से बहुत साफ हो जाता है.

भारत वैश्विक तपेदिक संकट का केंद्र है. जितनी भी संक्रामक बीमारियां हैं, तपेदिक दुनिया में सबसे बड़ी हत्यारी बीमारी है. भारत में हर दिन लगभग 1400 लोग तपेदिक से मरते हैं. अधिकांश मामलों के लिए, तपेदिक का एक ही इलाज है और वह महीनों तक कड़ी निगरानी में दवा करना. लेकिन देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली तपेदिक के मरीज का पता लगाने और पूरी तरह से उसका इलाज करने में विफल रही है. रोग का अधिक अड़ियल होना या दवा प्रतिरोधी हो जाना  अनियंत्रित और बाधित उपचार का परिणाम होता है और भारत में यह एक चौंकाने वाले पैमाने पर मौजूद है. दशकों से देश ने इन लक्षणों के पीछे काम कर रही प्रणालीगत समस्याओं को ठीक करने के लिए कुछ नहीं किया.

आधुनिक भारतीय इतिहास में देखें तो सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सरकार का दृष्टिकोण काफी हद तक क्षति नियंत्रण तक सीमित रहा है. इसका एक उदाहरण कुष्ठ रोग प्रकोप है. भारत के संस्थापकों ने स्वास्थ्य और शिक्षा की कीमत पर औद्योगिक विकास और कृषि आत्मनिर्भरता जैसी चीजों को प्राथमिकता दी. यह उपेक्षा के उस इतिहास को शुरू करता है जिसे हम आज देख रहे हैं. भारत सरकार का स्वास्थ्य पर परिव्यय देश के सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत से भी कम है जो वैश्विक औसत से बहुत कम है.

भारत ने 1978 में विश्व स्वास्थ्य सभा में सन 2000 तक "सभी के लिए स्वास्थ्य" का वादा करते हुए अल्मा अता घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे. इसकी आगे की प्रक्रिया के तौर पर देश ने 1983 में अपनी पहली औपचारिक स्वास्थ्य नीति बनाई यानी आजादी के छत्तीस साल बाद. आजादी के बाद के सभी दशकों में स्वास्थ्य क्षेत्र की अनदेखी करने के बाद, सरकार ने महसूस किया कि उसके पास तेजी से बढ़ती हुई आबादी के लिए अस्पताल नहीं हैं. 1979 और 1980 की शुरुआत में चेन्नई के डॉक्टर प्रताप सी रेड्डी ने अपने एक नीजि प्रोजेक्ट के तहत अपने शहर में अस्पताल बनाने के लिए चरण सिंह की मंजूरी लेने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के चक्कर लगाए. इस अस्पताल को अब अपोलो कहा जाता है. इसने देश में निजी अस्पतालों की पहली लहर की शरुआत की. बाद में निजी अस्पतालों को संख्या पहले सैकड़ों और फिर हजारों तक बढ़ गई.

सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में निवेश करने के बजाय, सरकार ने बार-बार निजी स्वास्थ्य प्रदाताओं के साथ सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्राथमिकता दी. रेड्डी, नरेश त्रेहन और देवी शेट्टी जैसे चिकित्सा उद्यमियों की बढ़ती जमात ने इस मार्ग पर चलने के लिए सरकार को प्रोत्साहन दिया. अब सार्वजनिक स्वास्थ्य "समाधान", भारी मात्रा में राज्य की निजी अस्पतालों से सेवाओं की खरीद और सरकारी बीमा योजनाओं के कवर को बढ़ने पर निर्भर है. सरकार ने निजी अस्पतालों को जमीन खरीद पर भारी छूट के साथ अन्य सब्सिीडी तथा करों में छूट की पेशकश की.

वास्तव में, भारतीय करदाताओं ने निजी अस्पतालों का नि:शुल्क वित्त पोषण किया जबकि भारतीय करदाताओं को उपचार की कीमत चुकानी पड़ती है. अब मोदी सरकार निजी क्षेत्र को सरकारी जिला अस्पतालों को संभालने की अनुमति देने की तैयारी में है. हाल के नीति आयोग दस्तावेज में इसे शामिल किया गया है.

निजी क्षेत्र से सिर्फ "स्व-नियमन" की आशा की जाती है. सरकार निजी क्लीनिक, लैब और अस्पतालों को अपना संचालन स्वयं करने देती है. संसद ने नैदानिक प्रतिष्ठान (पंजीकरण और विनियमन) कानून पारित किया है लेकिन आधे राज्यों तक ने इसे अपने क्षेत्रों में लागू करने के लिए इसकी पुष्टि नहीं की है. कई राज्य ने तो अभी भी उन नियमों को निर्धारित ही नहीं किया है जिनका पालन नैदानिक प्रतिष्ठानों को करना होता है. मोदी सरकार, जिसने बिना किसी चेतावनी के चार बटा पांच भाग से भी ज्यादा मुद्रा को मंसूख कर दिया, एकतरफा रूप से जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा छीन लिया, बिना परामर्श किए नागरिकता के कानूनों को बदल दिया, ने बड़ी विनम्रता से निजी क्षेत्र से कोविड-19 का निःशुल्क परीक्षण करने की "अपील" की है. भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र अब गैरजवाबदेह निजी कंपनियों के लगभग पूरे कब्जे में है.

जनता को बताया जा रहा है कि यह सब भारत की ध्वस्त हुई स्वास्थ्य प्रणाली को ठीक करने के लिए है. चार दशक के सबूत उजागर करते हैं कि ऐसा होता नहीं है. मरीज छोटे-छोटे निजी क्लीनिकों और खचाखच भरे सरकारी अस्पतालों, जहां उन्हें बहुत लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है और उनको आर्थिक रूप से तबाह कर देने वाले खर्चीले निजी अस्पतालों में भटक रहे हैं. देश में संक्रामक रोगों का बड़ा बोझ है, जिनमें तपेदिक सहित हृदय संबंधी रोग, मधुमेह और अस्वास्थ्यकर जीवनशैली से होने वाली अन्य बीमारियों हैं. निजी क्षेत्र इन रोगियों का इलाज तो करते है लेकिन इन बीमारियों को रोकने वाले शोधों में निवेश नहीं करता. यह कार्य सार्वजनिक क्षेत्र के जिम्मे आता है, जिसके पास आवश्यक धनराशि की भयानक कमी है. निजी स्वास्थ्य सेवा किसी महामारी के फैलने को न तो ट्रैक करेगी न ही रोकथाम करेगी.

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ दशकों से उपरोक्त के संबंध में सरकार को चेतावनी देते रहे हैं. इन दिनों, उनके साथ मेरी बातचीत इसी सवाल के इर्दगिर्द होती है कि कोरोनोवायरस के मामलों में वृद्धि को देखते हुए किस तरह बीमार स्वास्थ्य प्रणाली को तैयार किया जा सकता है. भयानक परिस्थितियों में वे बस यही कर सकते हैं कि सबसे बेहतर करने के लिए छोटी-छोटी बातों पर काम करें. पीढ़ियों से की जा रही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की उपेक्षा को कुछ हफ्तों में ठीक कर देने का कोई तरीका नहीं है.

कोविड-19 महामारी को बेअसर करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को एक बड़ी जिम्मेदारी निभानी होगी. चीन, जो वायरस के प्रसार को नियंत्रण में करता हुआ प्रतीत हो रहा है, ने सरकार द्वारा संचालित स्वास्थ्य प्रणाली पर बहुत अधिक भरोसा किया है. स्पेन ने देश में कोरोनावायरस के मामलों में हुई विस्फोटक वृद्धि के बाद सभी निजी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को सार्वजनिक नियंत्रण में लाने का कड़ा कदम उठाया है. भारत को निजी स्वास्थ्य सेवा पर अपनी निर्भरता के साथ इस सवाल का भी सामना करना होगा कि निजी हित के बरअक्स सार्वजनिक हितों को कैसे तरजीह दी जाए. निजी क्षेत्र को अपनी भूमिका निभानी होगी. अपनी कुछ शानदार सुविधाओं और उपलब्धियों के साथ वह निस्संदेह अच्छी सेवा प्रदान करने में सक्षम है.

सरकार के लिए कोविड-19 संकट में निजी क्षेत्र को बंधक न बनाने का एक तरीका यह होगा कि इसे तर्कसंगत नियमों के तहत लाया जाएगा, जिसका पालन पहले से ही कई क्षेत्र कर रहे हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने के लिए निजी क्षेत्र पर इसकी निर्भरता को युद्ध स्तर पर कम करना होगा, भले ही यहां सरकार को स्वयं की ऐतिहासिक बाधाओं का सामना करना पड़े. लेकिन निजी और सार्वजनिक दोनों स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों में सरकार क्या करती है अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कोरोनावायरस ने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को नंगा कर देने का खतरा पैदा कर दिया है और जो है उसकी खराबी को जगजाहिर कर दिया है. जिन सभी देशों में कोविड-19 का कहर बरपा है उनमें सबसे खराब स्थिति भारत की है. यह वायरस करीबी मानव संपर्क के जरिए फैलता है. भारत के करोड़ों लोग इस ग्रह पर सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व में रहते हैं. वायरस श्वसन प्रणाली पर हमला करता है, भारत में वायु प्रदूषण और तपेदिक से किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक फेफड़े खराब होते हैं. वायरस विशेष रूप से बुनियादी बीमारियों वाले लोगों को शिकार बनाता है, भारत में मधुमेह और दिल की बीमारी के शिकार लोगों की संख्या लाखों में है. वायरस ने दुनिया की कुछ सबसे विकसित स्वास्थ्य प्रणालियों को चिंता में डाल दिया है, भारत की स्वास्थ्य प्रणाली सबसे खराब प्रणालियों में से एक है.

कोविड-19 हमारे जीने के तरीके को हमेशा के लिए बदलने वाला है. सवाल यह नहीं है कि कितने लोग संक्रमित होंगे या मरेंगे बल्कि सवाल यह है कि एक समाज के रूप में हम इस महामारी का मुकाबला कैसे करेंगे. हो सकता है कि इसके अंत में भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली अपनी बुनियादी कमजोरियों का इलाज कर पाए और जीवन को मजबूत बना सके. त्रासदी यह है कि बहुत से भारतीयों को यह मौका नहीं मिलेगा.