बीमा केंद्रित निजी स्वास्थ्य सेवा को अपने से कमजोर हुई कोविड-19 से मुकाबला करने की भारत की क्षमता

23 सितंबर 2018 को गुवाहाटी में आयुष्मान भारत योजना के आरंभ के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करते लोग. सार्वजनिक-स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया कि व्यवहार में यह योजना कई दलितों और ग्रामीण समुदायों की स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को रोक देती है. यह महामारी का जवाब देने के देश के प्रयास को भी कमजोर करती है. डेविड तालुकेदार / नूरफोटो / गैटी इमेजिस

29 मार्च को शाम 5 बजे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट ने बताया कि भारत में 26 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कोविड-19 के कुल 869 सकारात्मक मामले थे. सात दिन पहले प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने महामारी के प्रसार को रोकने के अपने मुख्य प्रयास के बतौर 21 दिन के अप्रत्याशित देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की. महामारी से निपटने वाले अ​​ग्रिम मोर्चे के कर्मचारियों के लिए सार्वजनिक अस्पतालों में आवश्यक उपकरणों और सेवाओं की कमी की बढ़ती चिंताओं के बीच अचानक हुए लॉकडाउन ने अन्य दोषों को भी उजागर किया. इसने हजारों प्रवासी मजदूरों को उनके गृहनगर और गांवों तक सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर किया. शुरुआती दिनों में निजी अस्पतालों द्वारा कोविड-19 के लक्षणों को दर्शाने वाले रोगियों का इलाज न करने की कई रिपोर्टें सामने आईं जिसमें देश में बीमारी के पहले शिकार लोग भी थे. हालांकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक सलाह जारी की कि किसी भी संदिग्ध कोविड​​-19 रोगी को इलाज से मना नहीं किया जा सकता है फिर भी मरीजों का इलाज करने से इनकार करने वाले निजी अस्पतालों की रिपोर्टें आती रहीं. जिन विशेषज्ञों से मैंने बात की उन्होंने एक और चिंताजनक पहलू के बारे बताया. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ दशकों में देश में निजी स्वास्थ्य बीमा मॉडल को अपने का परिणाम अब यह निकलेगा कि गरीब लोग महामारी में मुफ्त स्वास्थ्य सेवा नहीं प्राप्त कर पाएंगे.

डॉ. टी. सुंदररमन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में स्कूल ऑफ हेल्थ सिस्टम स्टडीज के पूर्व डीन हैं और पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट के वैश्विक समन्वयक हैं. यह मूवमेंट जमीनी स्तर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का वैश्विक नेटवर्क है. उन्होंने कहा, "भारत का कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए तैयार नहीं है." सुंदररमन ने कहा कि आपूर्ति की कमी इस बात को दर्शाती है कि "निजीकृत बीमा वाली स्वास्थ्य सेवा को बल देने के लिए सार्वजनिक-स्वास्थ्य प्रणाली की उपेक्षा ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल से निपटने की भारत की क्षमता को कमजोर किया है."

सितंबर 2018 में सरकार ने प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना या आयुष्मान भारत योजना शुरू की. यह दुनिया की सबसे बड़ी राज्य-प्रायोजित स्वास्थ्य आश्वासन योजना है. गरीब और सबसे कमजोर लोगों पर ध्यान केंद्रित करते हुए आयुष्मान भारत देश की 40 प्रतिशत आबादी को कवर करती है. योजना की आधिकारिक वेबसाइट 10.74 करोड़ ग्रामीण और शहरी परिवारों को चिकित्सा कवर प्रदान करने का दावा करती है. यह पैनल में आने वाले सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के अस्पतालों में चिकित्सा उपचार के लिए प्रति परिवार 5 लाख रुपए सालाना का चिकित्सा कवर प्रदान करता है. पीएम-जेएवाई वेबसाइट खुद इस बात को चिन्हित करती है कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पताल "कर्मचारियों, चिकित्सकों और अन्य चिकित्सा स्टाफ की कमी का सामना करते हैं और दवाओं और उपकरणों की कमी की समस्या का भी सामना करते हैं जो उनके कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं." कारण बतौर यह चिन्हित करता है कि स्वास्थ्य पर भारत का सरकारी खर्च पिछले दो दशकों में सकल घरेलू उत्पाद के 1.2 प्रतिशत के करीब स्थिर रहा है. बीमा योजना के लिए तर्क यह है कि जहां स्वास्थ्य सेवाओं की मांग में विस्फोटक रूप से वृद्धि हुई है, वहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की आपूर्ति में तेजी नहीं आई है.

सिद्धांत में, आयुष्मान भारत का कवरेज जनसंख्या और सेवाओं दोनों के संदर्भ में व्यापक है. आयुष्मान भारत के लाभार्थियों की पहचान सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना के आंकड़ों के उपयोग से की जाती है. इसके अतिरिक्त, इस योजना में मानदंड-आधारित अभाव बिंदु भी शामिल हैं जो बीमा के दायरे में व्यक्तियों को शामिल या बाहर करते हैं. उदाहरण के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन परिवार, हाथ से मैला ढोने वाले या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोग शामिल हैं. शहरी क्षेत्रों में योजना के तहत अलग मानदंड हैं.

राज्य सरकारों के बीच क्रियान्वयन के दो मॉडल हैं. पहला आश्वासन मॉडल है, जहां राज्य बीमा कंपनियों की मध्यस्थता के बिना एक राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण स्थापित करता है. सरकार एसएचए के माध्यम से अस्पतालों को पैसा देती है. दूसरा मॉडल बीमा मॉडल है, जहां एसएचए एक निविदा प्रक्रिया के माध्यम से एक बीमा कंपनी का चयन करता है और उसे आवश्यक प्रीमियम का भुगतान करता है. बीमा कंपनी दावों का निपटारा करती है. दोनों मॉडल में खामियां हैं. यह बताया गया है कि आश्वासन मॉडल में सूचीबद्ध अस्पतालों ने अतीत में धोखाधड़ी के दावों के आधार पर धन एकत्र किया है, जबकि बीमा मॉडल में, कंपनियों के पास वैध दावों को अस्वीकार करने का मौका होता है.

हालांकि कई सार्वजनिक-स्वास्थ्य प्रशासक एक निजी बीमा वाली हेल्थकेयर प्रणाली की ओर नीति बदलाव से असहमत थे. सुंदररामन ने कहा, "पैदल घर लौट रहे लाखों लोगों में से ज्यादातर में कोरोना जैसे लक्षण मिलें तो दरवाजे पर से ही उन्हें वापस हो जाना पड़ेगा." उन्होंने कहा, “मैंने ऐसी रिपोर्टें भी सुनी हैं कि झारखंड में कई निजी अस्पताल अपनी सेवाओं को बंद कर रहे हैं या घटा रहे हैं, क्योंकि उन्हें कोविड-19 रोगियों की देखभाल करने के लिए मजबूर किया जा सकता है. इस स्थिति में बीमा पूरी तरह से व्यर्थ है. ” उन्होंने कहा कि, बीमा आधारित प्रणाली में, समझ यह है कि बाजार की मांग और आपूर्ति स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता को परिभाषित करेगी. "लेकिन अब जैसे स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान, यह गिरावट साफ उजागर हो जाती है," उन्होंने कहा.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के एक पूर्व सचिव केशव देसिराजू ने बताया कि निजी अस्पतालों पर निर्भरता से वंचित वर्ग और जातियों के लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवा सुलभ होना चुनौतीपूर्ण हो जाता है. देसिराजू ने कहा, "जब मैं कहता हूं कि निजी अस्पतालों से दलित और अन्य पिछड़े वर्गों का एक बड़ा हिस्सा इससे बाहर ही रहता है. न केवल उनके आय स्तर के कारण बल्कि पूरी प्रणाली उनके खिलाफ खड़ी है. उत्तराखंड में हमारे पास गर्भवती महिलाओं को वाउचर देने की व्यवस्था थी और वे प्रसव कराने के लिए कई अस्पतालों में जाने के लिए स्वतंत्र थीं और उन्होंने वापस आकर कहा, 'नर्स हमसे अच्छे से बात नहीं करती हैं या हमें ठीक से नहीं छूतीं.' जाति कपटपूर्ण तरीकों से काम करती है और इसीलिए आपको एक अच्छी और बेहतर ढंग से काम करने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की आवश्यकता है. "

1993 में "इंवेस्टमेंट इन हेल्थ" नामक एक रिपोर्ट में व्यक्त की गई विश्व बैंक की नीति के अनुसार, भारत और अन्य निम्न और मध्यम-आय वाले देशों से उम्मीद की गई थी कि वे स्वास्थ्य सेवा के प्रावधान को कुछ प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में सीमित कर सकते हैं. सुंदररमन ने मुझे बताया कि विश्व बैंक की नीति में कहा गया है कि स्वास्थ्य सेवा में सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी और क्षय रोग और अन्य वेक्टर जनित रोगों के उन्मूलन तक सीमित होनी चाहिए. स्वास्थ्य सेवा के अन्य सभी पहलुओं को निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि निजी बाजार बढ़ें और इन अंतरों को पाट दे. सुंदररमन ने कहा, “यह विचार कि निजी क्षेत्र इस खाई को पाट देगा पूरी तरह से अप्रासंगिक है, विशेष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान. बाजार की प्रकृति यह है कि निजी क्षेत्र वहीं कार्य करेगा जहां उसे लाभ होगा और यह लाभ उसे केवल शहरी क्षेत्रों में ही मिलेगा, यहां तक ​​कि शहरी मलिन बस्तियों मे भी नहीं. खुद पीएम-जेएवाई वेबसाइट खुद निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के बीच शहरी पूर्वाग्रह की ओर इशारा करती है. इसमें कहा गया है, "निजी क्षेत्र में अधिकांश प्रदाता बहुत छोटे (25 बेड से कम), और अनियमित हैं, जिनके देखभाल की गुणवत्ता को लेकर विभिन्न मानक हैं, और ज्यादातर बड़े महानगरों या शहरी इलाकों में स्थित हैं."

24 मार्च को मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि पुष्टि किए गए कोविड-19 मामलों के साथ-साथ बुखार, निमोनिया और सांस लेने में दिक्कत जैसे लक्षण आयुष्मान भारत के लाभार्थियों के लिए मुफ्त उपलब्ध होंगे. "यह काफी उचित है. लोग अपोलो में भर्ती हो जाएंगे और उनकी प्रतिपूर्ति की जाएगी. मुझे उससे कोई समस्या नहीं है. लेकिन यह सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति का आधार नहीं हो सकता है,'' सुंदररमण ने मुझसे कहा.

जुलाई 2018 में प्रकाशित स्वास्थ्य मंत्रालय की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, भारत में 1003 जिला अस्पताल हैं. इसके नीचे 5568 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 29899 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं. यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली मजबूत होती, तो पीएचसी महामारी नियंत्रण की अग्रिम पंक्ति पर हो सकती थी, जो मामले का पता लगाने और सार्वजनिक शिक्षा से संबंधित विषयों पर काम करती. "देश के बड़े हिस्सों में पीएचसी की स्थिति, विशेष रूप से उत्तर भारत में, दयनीय है," देसीराजू ने कहा. उन्होंने कहा, “हो सकता है कोई इमारत तो हो लेकिन डॉक्टर हो भी सकते हैं और नहीं भी. प्रत्येक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक आधा सक्षम एमबीबीएस डॉक्टर, दो नर्स और दवाओं की आवश्यक सूची पर दर्ज हर दवा प्रत्येक राज्य में होनी चाहिए. यदि आप यह सुनिश्चित कर सकते हैं तभी आपके पास वास्तव में बहुत अच्छी स्वास्थ्य प्रणाली होगी. ”

2016 में सुंदररमन ने पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के एक शोधकर्ता इंद्रनील मुखोपाध्याय और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास में सामाजिक विज्ञान संकाय के वीआर मुरलीधरन के साथ मिलकर इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में "नो रिसिप्ट फॉर पब्लिक हेल्थ" शीर्षक से एक पेपर प्रकाशित किया. शोधपत्र में तर्क दिया गया था कि, "पश्चिमी अफ्रीका के इबोला संकट से राष्ट्रों को जो सबक सीखने की जरूरत है, उनमें से एक यह है कि जब राष्ट्र सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों में निवेश करने में विफल होते हैं, तो वे खुद को घातक महामारियों के लिए खोल देते हैं जिससे किसी राष्ट की स्वास्थ्य सुरक्षा और अर्थव्यवस्था को खतरा हो सकता है. इस महामारी के चलते उद्योग और विकास दर को हुआ नुकसान विचलित करने वाला होगा. ”

स्वास्थ्य वित्तपोषण का विश्लेषण करने वाले शोधपत्र ने उल्लेख किया कि केंद्रीय स्वास्थ्य बजट संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन शासन के तहत, 2010-11 से लगभग स्थिर था, जिसमें नरेन्द्र मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद 2015-16 में भारी कटौती हुई. 2010-11 में स्वास्थ्य पर वास्तविक व्यय 15256 करोड़ रुपए था. अगले वित्त वर्ष में यह 2.6 प्रतिशत बढ़कर 15655 करोड़ रुपए हो गया. वित्तीय वर्ष 2014-15 में, स्वास्थ्य पर वास्तविक व्यय तीन साल पहले की तुलना में 7.3 प्रतिशत घटकर 14620 करोड़ रुपए रहा. इस बीच 2014-15 और 2015-16 के बीच स्वास्थ्य बजट का आवंटन 17247 करोड़ रुपए से घटकर 14068 करोड़ रुपए रह गया. सभी उद्धृत आंकड़ों की गणना कीमतों को स्थिर रखकर वर्ष 2004-05 को आधार बनाकर की गई है.

सुंदररमण ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का जिक्र करते हुए कहा, "हालांकि यूपीए के वर्षों के दौरान निजी क्षेत्र के साथ जुड़ाव की शुरुआत हुई, सार्वजनिक क्षेत्र की उपेक्षा एनडीए शासन के दौरान बढ़ गई. 2004 से 2012 तक, यूपीए ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को काफी हद तक मजबूत किया था. लेकिन 2014 के बाद, सार्वजनिक सेवाओं में निवेश रुक गया और नीति आयोग सार्वजनिक-निजी भागीदारी के विभिन्न रूपों पर नजरें टिका रहा था.”

बजट का विश्लेषण करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन, सेंटर फॉर बजट गवर्नेंस एंड अकाउंटब्लिटी द्वारा 2019 में किया गया एनडीए सरकार के यूनियन बजट का विश्लेषण ​सार्वजनिक स्वास्थ्य की उपेक्षा को रेखांकित करता है. स्वास्थ्य संबंधी अध्याय में कहा गया है, "सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण और सुदृढ़ीकरण में निवेश की स्पष्ट आवश्यकता के बावजूद, भारत में स्वास्थ्य नीति का प्रक्षेपवक्र अनैतिक रूप से स्वास्थ्य सेवा के एक बीमा-आधारित मॉडल की ओर जा रहा है, जो अनिवार्य रूप से निजी स्वास्थ्य सेवा उद्योग को मजबूत करता है." बीमा मॉडल के पक्ष में सार्वजनिक स्वास्थ्य के कमजोर पड़ने पर विश्लेषण में कहा गया है, “2019-20 में कुल स्वास्थ्य बजट में 2018-19 (आधार वर्ष) की तुलना में लगभग 8500 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई है और इस वृद्धि का लगभग 74 प्रतिशत स्वास्थ्य बीमा योजना आयुष्मान भारत के लिए आवंटन के कारण हुआ है. नीति प्रक्षेपवक्र में इस बदलाव का खामियाजा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) द्वारा वहन किया जाता है, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) और राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) के माध्यम से देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करना है.”

सीबीजीए के अनुसंधान प्रमुख निलाचला आचार्य ने कहा कि भले ही सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय की मात्रा बढ़ गई हो, खर्च करने की प्रकृति निजी भागीदारों को लाभ पहुंचा रही है. “सार्वजनिक व्यय हो रहा है लेकिन इसका प्रावधान भले ही कितना भी सीमित सुविधा वाला निजी भागीदार हो, बीमा मॉडल के जरिए कर रहा है. निजीकृत (व्यवस्था) अधिकांश लोगों को बाहर कर देगी, जो इस समय एक भारी आपदा होगी,” आचार्य ने मुझे बताया. महामारी जैसी स्थिति में, यह संभव है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ लोगों का स्वास्थ्य बीमा हो, लेकिन स्वास्थ्य सेवा प्रदाता नहीं होने के कारण वे उपचार के अभाव में रह सकते हैं. उन्होंने कहा, "किसी दूरदराज की आदिवासी बस्ती में भी, लोगों का बीमा हो सकता है, लेकिन वे सेवाओं तक नहीं पहुंच सकते हैं क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं और निजी स्वास्थ्य प्रदाता शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं."

स्वास्थ्य के लिए केंद्र सरकार का बजटीय आवंटन 2014-15 के वित्तीय वर्ष के बाद से जीडीपी के 0.3 प्रतिशत पर स्थिर है. राज्यों के व्यय के साथ-साथ, भारत का कुल स्वास्थ्य व्यय उसके सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.14 प्रतिशत है. यह भारत के कुछ पड़ोसियों और भारत जैसे ही अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है. “सामान्य समझ यह है कि उचित और व्यापक स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करने के लिए निम्न और मध्यम आय वाले देशों को जीडीपी के 4 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच खर्च करने की आवश्यकता है. सुंदररमण ने कहा कि श्रीलंका, कोस्टा रिका और ब्राजील जीडीपी का लगभग 5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं जबकि थाईलैंड 3 प्रतिशत से 4 प्रतिशत तक खर्च करता है. उम्मीद की किरण यह है कि कुछ राज्यों ने कदम बढ़ाए हैं. सीबीजीए ने पाया कि असम, बिहार, मिजोरम और हिमाचल प्रदेश उन राज्यों में से हैं, जिन्होंने स्वास्थ्य खर्च को प्राथमिकता दी थी.

सुंदररमण ने कहा, “अतीत में हर महामारी ने हमें दिखाया है कि हमारी क्षमता बेहद कमजोर है. किसी महामारी के आने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की कमजोरी बहुत बड़ा मामला हो सकता है. हम कोविड-19 का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते थे लेकिन महामारी पुर्वानुमान तो लगाना ही चाहिए था.”


तुषार धारा कारवां में रिपोर्टिंग फेलो हैं. तुषार ने ब्लूमबर्ग न्यूज, इंडियन एक्सप्रेस और फर्स्टपोस्ट के साथ काम किया है और राजस्थान में मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ रहे हैं.