उचित व्यवस्था के अभाव में प्लाज्मा पाने के लिए जद्दोजहद करते कोविड-19 रोगी

नई दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलीरी साइंसेज (आईएलबीएस) अस्पताल दिल्ली में प्लाज्मा बैंक में कोविड-19 मरीजों को प्लाज्मा दान करते हुए दाता. टी. नारायण / ब्लूमबर्ग / गैटी इमेजिस
20 August, 2020

जुलाई के मध्य में पटना के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में कोविड-19 के एक 74 वर्षीय रोगी का परिवार उहापोह की हालत में था. मरीज पहले से ही गंभीर रूप से बीमार था और उसे वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखा गया था. उसकी हालत और बिगड़ने के साथ, उसके डॉक्टरों ने कहा कि उसे तत्काल प्लाज्मा थेरेपी की जरूरत है. परिवार ने पहले मान लिया था कि अस्पताल खुद इस चिकित्सकीय रूप से निर्धारित प्लाज्मा का बंदोबस्त करेगा. मरीज के दामाद ने मुंबई से फोन पर कहा, "हमने पहले सोचा था कि ब्लड बैंक खुद प्लाज्मा का बंदोबस्त करेगा और हमें इसके लिए भुगतान करना होगा." यह जानकर उन्हें गहरा सदमा लगा कि अस्पताल उनसे ही प्लाज्मा प्राप्त करने की अपेक्षा कर रहा था.

भारत भर के ज्यादा से ज्यादा डॉक्टरों ने गंभीर रूप से बीमार कोविड-19 रोगियों के लिए, आमतौर पर प्लाज्मा थेरेपी के रूप में जाना जाने वाली सामान्य प्लाज्मा थेरेपी निर्धारित करना शुरू कर दिया है. प्लाज्मा एक ऐसे व्यक्ति से लिया जाता है जो बीमारी से उबर गया हो क्योंकि उसमें रोग से लड़ने वाला एंटीबॉडी होते हैं. फिर इसे उसी बीमारी से ग्रस्त रोगी में प्रत्यारोपित किया जाता है जिसकी अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली एंटीबॉडी का उत्पादन नहीं कर रही है. सैद्धांतिक रूप से इससे रोगी में एंटीबॉडी प्रतिक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. भले ही अतीत में अन्य संक्रामक रोगों के इलाज के लिए इस प्रणाली को एक चिकित्सा हस्तक्षेप के रूप में इस्तेमाल किया गया हो, लेकिन यह दर्शाने के लिए बहुत कम वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि यह कोविड-19 रोगियों की मदद करता है. भारत में प्लाज्मा उपचार प्रणाली के लिए अधिकांश नैदानिक परीक्षणों के परिणाम अभी तक जारी नहीं किए गए हैं, लेकिन चीन में एक प्रमुख परीक्षण से पता चला है कि प्लाज्मा उपचार प्रणाली का रोगियों पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ा था.

चूंकि दुनिया को इस बीमारी के बारे में पता चले अभी महज आठ ही महीने हुए हैं, इसलिए डॉक्टर अपने मरीजों को जीवित रखने के लिए प्लाज्मा और कई अन्य दवाओं को प्रायोगिक उपकरणों के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं.

दिल्ली के मैक्स सुपर स्पेशलिटी अस्पताल में आंतरिक चिकित्सा के निदेशक और वरिष्ठ सलाहकार डॉ. आरएस मिश्रा ने कहा, “हमारा अनुभव है कि अगर सही समय पर इसका इस्तेमाल किया जाए तो प्लाज्मा थेरेपी काम करती है. यदि इसका उपयोग देर से किया जाता है जब सिस्टम में पहले से ही एंटीबॉडी हैं, तो थेरेपी काम नहीं करेगी. यदि आप 15 से 16 दिनों के बाद प्लाज्मा देते हैं, तो रोगी पहले से ही एंटीबॉडी बना रहा है. समय बहुत ही महत्वपूर्ण बात है.”

अस्पष्ट दिशानिर्देशों और नियमों की कमी के कारण मरीजों और उनके परिजनों को महामारी के बीच प्लाज्मा की खरीद के लिए अतिरिक्त और अनुचित बोझ का सामना करना पड़ रहा है. सभी रोगियों को जिन्हें प्लाज्मा थेरेपी की जरूरत होती है, उनकी विशिष्ट आवश्यकताएं होती हैं. पटना के मरीज को एक ऐसे डोनर से प्लाज्मा की जरूरत थी, जो कम से कम 14 दिन पहले कोविड-19 से उबरा हो और उसका ब्लड ग्रुप ओ पॉजिटिव हो. न तो उनकी पत्नी और न ही उनकी पुत्रवधू, जो उनके साथ रहती थीं, यह पता लगा सकती थीं कि स्रोत प्लाज्मा कहां है. परिवार प्लाज्मा दाताओं को खोजने के लिए मुंबई में रिश्तेदारों और दोस्तों के पास गया. उनके दामाद ने बताया कि उन्होंने रिश्तेदारों और दोस्तों को मिलाकर 100 से अधिक लोगों को फोन किया.

मरीज के दामाद ने कहा, "हमने बेचैन होकर सभी सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों के ग्रुपों पर पोस्ट किया और ज्यादा से ज्यादा लोगों से संपर्क किया. हमें दो लोग मिले जो हमारे लिए पूरी तरह अनजान थे और प्लाज्मा दान करना चाहते थे." परिवार को इन दो अजनबियों को मनाने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ी, जो महसूस करते थे कि प्लाज्मा दान करने से उनकी खुद की प्रतिरक्षण क्षमता कम हो सकती है. कई लंबी बातचीत के बाद, परिवार उन्हें कुछ प्लाज्मा के देने के लिए राजी कर सका. फिर से पता चला कि उनमें से एक व्यक्ति प्लाज्मा दान करने के लिए चिकित्सकीय रूप से अयोग्य है.

प्लाज्मा थेरेपी को ऐतिहासिक रूप से प्रायोगिक चिकित्सा के रूप में इस्तेमाल किया गया है. इसकी क्षमता की पहचान सबसे पहले 1918 से 1920 के बीच दुनिया भर में फैली स्पेनिश इन्फ्लूएंजा के इलाज में की गई थी. तब इसे खसरा, गलसुआ, चेचक और विभिन्न प्रकार के इन्फ्लूएंजा के उपचार के रूप में आजमाया गया था. हाल ही में इसका उपयोग पश्चिम अफ्रीका में इबोला के रोगियों के इलाज के लिए किया गया था. इबोला की भी कोविड-19 की तरह कोई प्रामाणिक दवा या वैक्सीन नहीं थी. कोविड-19 महामारी के दौरान भी कई देशों में प्लाज्मा थेरेपी का प्रयोग प्रायोगिक आधार पर किया जा रहा है.

कोविड-19 से ग्रस्त दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन के प्लाज्मा थेरेपी से उबरने के बाद सार्वजनिक सोच में इस उपचार को वैधता मिली. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तब शहर में कोविड-19 मौतों की संख्या में गिरावट का श्रेय इस तथ्य को दिया कि दिल्ली के लोक नायक अस्पताल ने प्लाज्मा थेरेपी का उपयोग शुरू किया है. कुछ दिनों के बाद दिल्ली सरकार ने इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बायिलरी साइंसेज में देश के पहले प्लाज्मा बैंक की शुरुआत की जिसके बाद लोक नायक अस्पताल में दूसरा बैंक खोला गया.

प्लाज्मा एक रक्त उत्पाद है और सभी रक्त उत्पाद आवश्यक दवाएं होती हैं जो नियमित और आपातकालीन चिकित्सा स्थितियों में लाखों लोगों को बचा सकती हैं, खासकर सर्जिकल स्थिति के दौरान. ये थैलेसीमिया और सिकल कोशिका रोग जैसे रक्त-विकार वाले लोगों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें जीवित रहने के लिए नियमित रक्त आधान की आवश्यकता होती है. डेंगू बुखार वाले उन मरीजों को ब्लड प्लेटलेट्स दिए जाते हैं जिनके प्लेटलेट्स खतरनाक स्तर तक कम हो जाते हैं. इसलिए प्रत्येक देश को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती कि रक्त और रक्त उत्पाद वहां उपलब्ध हों जहां उनकी आवश्यकता है. भारत में राष्ट्रीय रक्त आधान परिषद केंद्रीय निकाय है जो रक्तदान और रक्त भंडारण के लिए नीतियां और कार्यक्रम विकसित करती है. लेकिन परिषद और उसके दिशानिर्देश रक्तदान में अनैतिक प्रथाओं पर अंकुश लगाने में विफल रहे हैं.

उदाहरण के लिए भारत में प्रतिस्थापन रक्तदान व्यापक रूप से प्रचलित है. यहां रक्त की आवश्यकता वाले किसी मरीज को एक रक्त दाता की तलाश कर उससे रक्त या रक्त के उत्पाद बदलने के लिए कहा जाता है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की उन अनुशंसाओं के खिलाफ है जिनके अनुसार रक्तदान स्वैच्छिक और गैर-पारिश्रमिक होना चाहिए. इसका मतलब है कि किसी दाता को दान करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.

डब्लूएचओ ने माना है कि प्रतिस्थापन दान में अक्सर भुगतान प्रणाली छिपी होती है या इसमें जोर-जबरदस्ती शामिल होती है और आधान-संक्रामक संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है. हालांकि भारत की राष्ट्रीय रक्त नीति प्रतिस्थापन दान को हतोत्साहित करती है लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं है जो इसे रोकता हो. परिणामस्वरूप, भारत में रक्तदान का प्रतिस्थापन सभी दान किए गए रक्त का चालीस प्रतिशत है और राष्ट्रीय रक्त आधान परिषद के निदेशक डॉ. सुनील गुप्ता के अनुसार, केवल 60 प्रतिशत रक्तदान ही स्वैच्छिक होता है. इसने अस्पतालों को यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी मुक्त कर दिया है कि उनके पास स्वैच्छिक दान के जरिए प्राप्त रक्त पर्याप्त मात्रा में हो. यह रोगियों और उनके परिवारों पर दाताओं को खोजने की पूरी जिम्मेदारी डालता है और उन्हें गंभीर तनाव में डाल देता है.

प्रतिस्थापन रक्त दान की समस्याओं को अब कोविड-19 के लिए प्लाज्मा दान में दोहराया जा रहा है. यहां तक कि कुछ शहरों में समर्पित प्लाज्मा बैंकों की स्थापना से भी मरीजों पर दबाव कम नहीं हुआ है. उदाहरण के लिए दिल्ली में प्लाज्मा बैंक प्रतिस्थापन दान भी चाहते हैं. 11 अगस्त को दिल्ली सरकार ने कोविड-19 रोगियों को मुफ्त प्लाज्मा के वादे का विज्ञापन अखबारों के एक पूरे पेज पर छापा लेकिन साथ ही अस्पतालों और रोगियों से अनुरोध भी किया कि वे प्रतिस्थापन दाताओं की व्यवस्था करें या जल्द से जल्द ऐसा प्रतिस्थापन प्रदान करने के लिए एक वचन पत्र पर हस्ताक्षर करें. यहां राहत की बात सिर्फ यह है कि मरीजों के परिवार किसी भी रक्त समूह के बदले, जरूरी नहीं कि वह मरीज से मेल खाता हो, दाता से प्लाज्मा की एक इकाई प्राप्त कर सकते हैं.

मैंने दिल्ली, हैदराबाद, पटना और कानपुर में 12 रोगियों के परिवारों से बात की और उन सभी से कहा गया कि वे स्वयं रोगियों के लिए दाता की तलाश कर रहे हैं या बैंक से प्लाज्मा प्राप्त करने से पहले प्रतिस्थापन प्लाज्मा प्रदान कर रहे हैं. जब मरीज को मानक एक इकाई के बजाय प्लाज्मा की दो या तीन इकाइयां दी गई थीं तब अधिकांश को एक से अधिक या उससे भी ज्यादा दाता तलाशने के लिए कहा गया था. यह सब एक ऐसे चिकित्सा उपचार के लिए है जो प्रयोगात्मक है और अभी तक कोविड-19 के खिलाफ कारगर साबित नहीं हुआ है.

गुप्ता ने कहा कि राष्ट्रीय रक्त आधान परिषद में रक्तदान से जुड़ी प्रक्रियाओं को विनियमित करने की बहुत कम शक्ति है. उन्होंने कहा, उदाहरण के लिए, "डीसीजीआई (ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया, सरकारी निकाय जो दवा, टीके और रक्त उत्पादों के लिए लाइसेंस को मंजूरी देता है) के पास ब्लड बैंक के लाइसेंस को निलंबित करने की शक्तियां हैं. हम केवल उन्हें सलाह दे सकते हैं और उनसे दिशानिर्देशों का पालन करने का अनुरोध कर सकते हैं.”

स्वैच्छिक रक्तदान की खराब संस्कृति के कारण भारत में रक्त की आपूर्ति में हमेशा ही कमी रही है. विशेषकर मार्च और अप्रैल में लॉकडाउन के कारण महामारी में रक्त और प्लाज्मा की कमी हो गई है. दान के लिए कई शर्तें हैं जिसने प्लाज्मा प्राप्त करने को कठिन बना दिया है. दाता को कोविड-19 से उबरा हुआ होना चाहिए जिसकी कम से कम दो सप्ताह पहले तक कोविड-19 जांच नकारात्मक हो, जो कम वजन का नहीं हो, जो कुछ खास किस्म की दवाएं न ले रहा हो, जिसका रक्तचाप सामान्य हो और जिसे कैंसर नहीं हुआ हो. जो महिलाएं गर्भवती हुई हैं वे प्लाज्मा दान नहीं कर सकती हैं क्योंकि उनके पास आमतौर पर हानिकारक एंटीजन होते हैं. इसके अलावा, प्लाज्मा को कोविड-19 एंटीबॉडी की पर्याप्त मात्रा की आवश्यकता होती है, जो सभी दाताओं के पास नहीं हो सकती है. इसने कोविड-19 रोगियों और उनके परिवारों को हताश किया है, यहां तक कि कथित तौर पर काला बाजार का सहारा लिया जा रहा है और लोगों को दाता बता कर ठगा जा रहा है.

कोविड-19 महामारी शुरू होने के बाद राष्ट्रीय रक्त आधान परिषद ने सुरक्षित रक्त दान से संबंधित दिशानिर्देशों के दो सेट जारी तो किए लेकिन स्वस्थ्य हुए व्यक्ति के प्लाज्मा दान के बारे में विशेष रूप से कुछ भी नहीं कहा. 25 जून को जारी दिशानिर्देशों में कहा गया है कि यदि उपचार की प्रभावकारिता स्थापित की जाती है तो परिषद प्लाज्मा थेरेपी के लिए दिशानिर्देश जारी करेगी.

नियामक शून्यता के चलते कई रोगियों को प्लाज्मा के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. हालांकि कोई राज्य सरकार कोविड-19 से उबरे किसी मरीज से संपर्क कर प्लाज्मा प्राप्त करने का बंदोबस्त कर सकती है या संक्रमण से उबरने पर उन्हें परामर्श दे कर प्राप्त कर सकती है लेकिन किसी मरीज के परिवार के पास परिवार और दोस्तों से पूछने के अलावा प्लाज्मा पाने का का कोई रास्ता नहीं है.

गुड़गांव में रहने वाली एक वकील, जिनके पति गंभीर रूप से कोविड-19 से बीमार थे, ने कहा कि उनके वे दोस्त भी जो बीमारी से उबरे थे, प्लाज्मा दान करने की इच्छा व्यक्त नहीं की. "जब मैंने उनसे संपर्क किया, तो कुछ ने मुझसे कहा कि अगर मुझे कोई और दान करने के लिए नहीं मिलता तब वे मदद करेंगे," उन्होंने बताया. "इसी वजह से मैंने ऐसे लोगों की तलाश करनी चाही जिनका मुझसे कोई संबंध नहीं था." कोविड-19 रोगियों को प्लाज्मा दाताओं से जोड़ने का दावा करने वाली वेबसाइट ढूंढ के जरिए उन्हें तीन दाता मिले.

कानपुर में कोविड-19 से संक्रमित एक 57 वर्षीय कारोबारी के परिवार ने एक सरकारी अस्पताल से कोविड-19 रोगियों की एक सूची प्राप्त की और दान दाता की तलाश में उन लोगों को फोन किया. व्यवसायी के बहनोई ने कहा, "मेरे परिवार और दोस्तों के घेरे के लगभग 10 से 15 लोगों ने सूची में शामिल लोगों को कॉल करना शुरू किया. कुछ ने कहा कि वे बहुत कमजोर हैं या यह कि किसी प्रयोगशाला में नहीं जाना चाहते हैं. कुछ जो हमारी मदद करने के लिए तैयार थे लेकिन उनके परिजनों ने मना कर दिया.” व्यवसायी ने 3 अगस्त को बीमारी के चलते दम तोड़ दिया. एक अन्य मरीज के रिश्तेदार ने मुझे बताया कि उन्होंने एक सरकारी अधिकारी से कोविड-19 रोगियों की एक सूची खरीदी. ये गुप्त प्रथाएं कोविड-19 रोगियों की गोपनीयता और गोपनीयता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं.

हैदराबाद के व्यापारी पीयूष मेहता ने कहा कि उनकी 46 वर्षीय बहन के लिए दो दानदाताओं की व्यवस्था करने में लगभग चार दिन लग गए. वह वेंटिलेटर पर थीं और उन्हें पहले से ही स्टेरॉइड डेक्सामेथासोन, जो कोविड-19 रोगियों के लिए एकमात्र फायदेमंद दवा है- और अन्य प्रायोगिक दवाएं जैसे कि रेमेडिसविर और टोसीलिजुमाब दिया जा रहा था. उनकी हालत में कोई सुधार नहीं होने से डॉक्टरों ने प्लाज्मा थेरेपी का रुख किया. "हमने कम से कम 4000 लोगों से बात की होगी," उन्होंने कहा. उनकी बहन का अगस्त के पहले सप्ताह में निधन हो गया. मेहता ने कहा, "मैं कभी-कभी सोचता हूं कि मेरी बहन के मामले में क्या गलत हुआ और मैंने महसूस किया कि हमें प्लाज्मा मिलने में देरी हुई."

अक्सर जांच और प्लाज्मा निकालने की औपचारिकता को पूरा करने में ब्लड बैंकों को कई घंटे लगते हैं. पटना के मरीज को रक्तदाताओं का प्लाज्मा निकालने के लिए दो दिनों तक इंतजार करना पड़ा क्योंकि कथित तौर पर कर्मचारियों की भारी कमी थी.

सर्जिकल गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट और इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के एडिटोरियल बोर्ड के सदस्य डॉ. संजय नागराल ने कहा, "नैतिक रूप से सबसे बड़े मुद्दों में से एक यह है कि मेडिकल बिरादरी एक ऐसी थेरेपी के लिए दान मांग रही है, जिसकी प्रामाणिकता बहुत कम है."

इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बायरी साइंसेस में ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन विभाग की प्रभारी डॉ. मीनू बाजपेयी ने कहा कि संस्थान को हर रोज 25 से 30 दानदाता मिलते हैं, जिनमें से कम से कम आधे प्रतिस्थापन दाता होते हैं. "महामारी के शुरुआती दिनों में, मेरी टीम ने शहर में कोविड संक्रमण से उबर चुके रोगियों की सूची बरामद कर 900 से अधिक को फोन किया," उन्होंने बताया. “केवल 30 दाता राजी हुए, जिनमें से 15 योग्य थे और अंत में उन्होंने दान किया. कुछ प्लाज्मा दान के लिए बार-बार आने वाली कॉल से बेहद परेशान थे."

बाजपेयी का मानना है कि कुछ प्रकार के प्रतिस्थापन दान के बिना प्लाज्मा की मांग का प्रबंधन करना मुश्किल है, हालांकि बढ़ी हुई जागरूकता के साथ प्रतिक्रिया बेहतर हो रही है. उदाहरण के लिए, दिल्ली के लोक नायक अस्पताल में लगभग पांच से दस स्वैच्छिक प्लाज्मा दाता आ जाते हैं, ब्लड बैंक के प्रभारी डॉ. सुनील कुमार ने बताया.

देश में स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ाने की दिशा में काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने कहा कि संक्रमण से उबरे रोगियों से प्लाज्मा के प्रतिस्थापन की मांग अस्वीकार्य है. मुंबई में थैलेसीमिया के रोगियों को रक्त आधान प्राप्त करने में मदद करने के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन थिंक फाउंडेशन के उपाध्यक्ष विनय शेट्टी ने कहा कि "संक्षेप में, सरकार और अस्पताल कह रहे हैं कि वे तब तक इलाज की कोशिश नहीं करेंगे, जब तक कि आपको दाता नहीं मिल जाता. यह दबाव ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है."

कुछ मामलों में राज्य सरकारों ने प्लाज्मा दाताओं को आमंत्रित करने के लिए नीतियां पेश की हैं, हालांकि ऐसी नीतियों की नैतिकता संदिग्ध है. जुलाई में, कर्नाटक सरकार ने प्लाज्मा दान करने वाले किसी व्यक्ति को 5000 रुपए की प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की, जो ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स अधिनियम, 1940 के नियम 122-पी के खिलाफ है, जो स्पष्ट रूप से किसी भुगतान या पेशेवर दाता से रक्त या रक्त उत्पादों के संग्रह पर प्रतिबंध लगाता है. हालांकि महामारी की शुरुआत के बाद से, राज्य में केवल 15 लोग प्लाज्मा दान करने के लिए आगे आए हैं, जिनमें से केवल नौ पात्र थे. बेंगलुरु के विक्टोरिया अस्पताल में इम्युनो-हेमेटोलॉजी और रक्त आधान की प्रोफेसर डॉ. आर श्रीलेथा ने कहा कि यह घोषणा गलत थी. "मुझे चिंता है कि घोषणा के कारण रक्तदान को स्वैच्छिक नहीं माना जाएगा," उन्होंने कहा. उन्होंने कहा कि घोषणा के बावजूद, दाताओं को पारिश्रमिक नहीं मिला है और कुछ दाताओं ने स्पष्ट रूप से इसके बारे में कहा है.

डॉ. गुप्ता ने कर्नाटक सरकार की नीति से राष्ट्रीय रक्त आधान परिषद को यह कहते हुए विचलित कर दिया कि चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, इसलिए परिषद की ज्यादा भूमिका नहीं है. आंध्र प्रदेश ने भी दानदाताओं को प्रोत्साहित करने के लिए एक योजना शुरू की है और बिहार कथित तौर पर एक समान नीति पर विचार कर रहा है.

जब कर्नाटक दाताओं को भुगतान कर रहा है, अन्य राज्य प्लाज्मा के लिए रोगियों को वसूली कर रहे हैं. पंजाब सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि वह निजी अस्पतालों में मरीजों के लिए प्रति यूनिट 20000 रुपए का शुल्क लेगी. यह देश के अन्य हिस्सों में निजी अस्पतालों की लागत से भी अधिक है, जो प्रति यूनिट लगभग 16000 रुपए है. नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन बोर्ड ने 2017 में अपने दिशानिर्देशों में कहा था कि प्लाज्मा एकत्र करने के लिए प्रोसेसिंग शुल्क 500 रुपए तक हो सकता है. यह प्लाज्मा के लिए है जो इसे दान किए गए रक्त से अलग करके प्राप्त किया जाता है. कोविड-19 को एफेरेसिस नामक प्लाज्मा प्राप्त करने के लिए डॉक्टर एक अलग प्रक्रिया का उपयोग कर रहे हैं, जहां एक दाता के रक्त को एक मशीन के माध्यम से परिचालित किया जाता है जो प्लाज्मा को अलग करता है, और शेष रक्त दाता के शरीर में वापस आ जाता है. यह प्रयोग की जाने वाली तकनीक की वजह से एक महंगी प्रक्रिया है. लेकिन किसी भी दिशा-निर्देश या नियमन के अभाव में निजी अस्पताल और राज्य सरकार दोनों प्लाज्मा की लागत तय करने के लिए स्वतंत्र हैं.

एक्टिविस्टों के अनुसार, ये राज्य-स्तरीय नीतियां कोविड-19 रोगियों के लिए संक्रमण से उबरे प्लाज्मा दान में नियामक शून्यता को उजागर करती हैं. बेंगलुरु में स्वैच्छिक रक्तदान की दिशा में काम करने वाले संकल्प इंडिया फाउंडेशन के रजत अग्रवाल ने कहा कि सरकार को प्लाज्मा दान करने के लिए अस्पताल से छुट्टी पाए कोविड-19 रोगियों को सलाह देनी चाहिए और शायद प्लाज्मा दान में मदद के लिए कॉल सेंटर भी स्थापित करना चाहिए. पटना के मरीज के दामाद ने एक ही लाइन में समस्या और समाधान दोनों को सारांशित करते हुए कहा, “सरकार को प्लाज्मा की व्यवस्था करनी चाहिए और इसे व्यवस्थित करने के लिए मरीजों के रिश्तेदारों का इंतजार नहीं करना चाहिए.”

उनके परिवार के प्रयासों और प्लाज्मा थेरेपी के बावजूद पटना के रोगी की इस महीने की शुरुआत में मृत्यु हो गई.