15 मार्च को भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य विशेषज्ञों के साथ कोविड-19 के बढ़ते मामलों के संबंध में एक बैठक की. उस बैठक में मौजूद एक जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, “यह एक सच्चाई है कि भारत के पास इस वायरस को जांचने वाली किटों (उपकरणों) का आभाव हैं. वे लोग जानबूझ कर जांच के मानदंडों का विस्तार नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि यदि वे ऐसे मरीजों को भी जांच के दायरे में ले आते हैं जिन्होंने यात्राएं नहीं की हैं तो बहुत जल्दी जांच का भट्ठा बैठ जाएगा.” केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जांच को सरकारी अस्पतालों और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त केंद्रों तक अंतर्राष्ट्रीय यात्रा करने वालों या ऐसे यात्रियों के संपर्क में आने वाले लोगों तक सीमित रखा है. फिलहाल केवल 100 से कुछ अधिक ही मामले सामने आए हैं लेकिन भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था की दरारें दिखाई पड़ने लगी हैं.
कोविड-19 से भारत में हुई पहली मौत के बाद ही ये दरारें स्पष्ट हो गई थीं. 11 मार्च को कर्नाटक के कलबुर्गी शहर में 76 साल के आदमी की मौत हो गई, जो 29 फरवरी को साऊदी अरब से लौटा था. दो निजी अस्पतालों ने उसका इलाज करने से इनकार कर दिया था. कोविड-19 संक्रमण की उस आदमी की रिपोर्ट मौत के एक दिन बाद आई. स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने मुझे बताया कि कोविड-19 से हुई पहली मौत से भारत के उस गंभीर स्वास्थ्य संकट को समझा जा सकता है जिसमें हो यह रहा है कि सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त व्यवस्था नहीं है और निजी अस्पताल किसी के लिए जवाबदेह नहीं हैं.
अगले दिन डर और पुख्ता हो गया. कोविड-19 के लक्षण वाले लोगों की जांच में अनावश्यक देरी से परेशान होकर छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टी. एस. सिंह देव ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन को एक पत्र भेजा. उस खत में देव ने लिखा, “जांच के वर्तमान नियम बहुत अधिक रोक लगाने वाले हें... अन्य राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी केवल एक केंद्र है जहां कोविड-19 की जांच हो रही है. हमें चिंता है कि क्या सरकार पर्याप्त किट मुहैया कराएगी यदि हम जांच को विस्तार करने की अनुमति देते हैं.” केरल ने भी जांच के दिशानिर्देशों को विस्तारित किया है. वहां अब गंभीर लक्षणों वाले या फेफड़ों, दिल, लिवर और किडनी, गर्भवति महिलाएं और 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की जांच तब भी की जाएगी जबकि उनका यात्रा का कोई इतिहास नहीं होगा. संशोधित दिशानिर्देश रिस्क असेसमेंट के आधार पर कोविड-19 के मरीजों के क्वारंटीन और अस्पताल में भर्ती करने के लिए हैं.
जारी संकट से निबटने में केंद्र की पूर्ण विफलता इस हद तक पहुंच गई है कि न केवल राज्य सरकारें बल्कि सरकारी चिकित्सकों ने भी सार्वजनिक रूप से स्थिति को लेकर अपनी चिंता जताई है. 14 मार्च को महाराष्ट्र के सेवाग्राम में स्थित कस्तूरबा अस्पताल में औषधि और चिकित्सा के महानिरीक्षक डॉ. एस. पी. कालांतरी ने मरीजों का उपचार न कर पाने की अपनी विवश्ता को ट्विटर पर साझा किया. उन्होंने ट्वीट किया, “गंभीर प्रकार के निमोनिया के मरीज का उपचार आईसीयू में कर रहा हूं. मैं जान नहीं पा रहा हूं कि कौन जिम्मेदार है : बैक्टीरिया या वायरस. इलाके की प्रयोगशाला ने मरीज के सैंपल की कोविड-19 जांच करने से इनकार कर दिया है क्योंकि मरीज का यात्रा इतिहास नहीं है. क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि परीक्षण का मानदंड अत्याधिक सीमित है.” उसी शाम उन्होंने एक बार फिर ट्वीट कर कहा, “कोविड-19 के लिए केवल 10 प्रतिशत लैब क्षमता का अब तक इस्तेमाल किया गया है, सरकारी लैबें निमोनिया के गंभीर रोगियां की जांच करने से मना कर रही हैं बस लिए कि उनका यात्रा का इतिहास नहीं है.”
छत्तीसगढ़ में सामुदायिक डॉक्टर और कार्यकर्ता डॉ. योगेश जैन के अनुसार कर्नाटक के मरीज की मौत इसलिए हुई क्योंकि अस्पतालों और उसके परिवार ने हाथ खड़े कर लिए थे. जैन ने आगे कहा, “अब तक यह बात सही-सही नहीं बताई गई है कि क्यों सैंपल लेने के बाद भी उसे घर जाने दिया गया जबकि मरीज का उपचार सुनिश्चित किया जाना चाहिए था. उसके परिवार को एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक धक्के खाने पड़े.” उस मरीज की बेटी में भी कोविड-19 संक्रमण पाया गया. जैन ग्रमीण छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य उपचार प्रदान करने वाले जन स्वास्थ्य सहयोग नाम के गैर-सरकारी संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं.
जैन जैसे डॉक्टर सालों से उन परिस्थितियों की चेतावनी देते रहे हैं जिसका आज हम सामना कर रहे हैं यानी कि हम जब एक महामारी का सामना कर रहे हैं तो देश के अस्पतालों में बैड, वैंटिलेटर, डॉक्टरों, नर्सों और प्रयोगशालाओं की कमी है. 2019 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल के अनुसार, देश में 1154686 रजिस्टर्ड एलोपैथिक डॉक्टर हैं और इनमें सरकारी डॉक्टरों की संख्या 115756 है जो नोवेल कोरोनावायरस की जांच और इलाज कर रहे हैं. इसका मतलब है कि प्रत्येक 10926 लोगों के लिए मात्र एक डॉक्टर उपलब्ध है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश के तहत प्रत्येक 1000 व्यक्तियों में एक डॉक्टर होना चाहिए. 2016 में प्रकाशित समाचार एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत को 50000 गंभीर रोग विशेषज्ञों की आवश्यकता है जबकि उसके पास केवल 8350 हैं.
संक्षिप्त में कहें तो भारतीय अस्पताल खुद बेहद बीमार हैं और चीन और इटली के स्तर पर संक्रामक रेस्पिरेटरी इंफैक्शन से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं हैं. 15 मार्च तक देश में नोवेल कोरोनावायरस मामलों की संख्या 107 हो गई थी. इसके बावजूद जांच को अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों और उनके संपर्क में आने वाले लोगों तक ही सीमित रखा जा रहा है. जांच इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे संक्रमित व्यक्तियों द्वारा अन्य लोगों में होने वाले संक्रमण से बचाव किया जा सकता है और जिनको जरूरत है उनका जल्द से जल्द इलाज किया जा सकता है. आउर वर्ल्ड इन डेटा के अनुसार पुष्ट कोविड मामलों वाले देशों में भारत सबसे कम जांच करने वाला देश है. यहां प्रत्येक 10 लाख लोगों में केवल तीन की जांच हो रही है.
आईसीएमआर की बैठक में भाग लेने वाले एक सरकारी अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि विशेषज्ञों ने दक्षिण कोरिया की तर्ज पर सभी लोगों की जांच करने की संभावना पर चर्चा की थी लेकिन उस विचार को खारिज कर दिया गया. अधिकारी ने बताया कि उस विचार को प्रभावशाली नहीं माना गया. उन्होंने बताया, “हम निजी अस्पतालों को जांच करने के लिए प्रोत्साहसित करेंगे लेकिन तभी जब वे हमारी शर्तों को मानते हुए ऐसा करेंगे.” अधिकारी ने बताया कि स्वास्थ्य मंत्रालय और आईसीएमआर 16 मार्च को तय करेंगे कि कोविड-19 की टेस्टिंग किट पर मूल्य का अंकुश लगाया जाए या नहीं. फिलहाल ऐसे प्रत्येक जांच का मूल्य 5000 रुपए से अधिक पड़ता है. जब मैंने पूछा कि क्या इटली की तरह भारत में भी यह महामारी विकराल रूप धारण कर सकती है, तो अधिकारी ने कहा, “हां, ऐसा हो सकता है.”
आईसीएमआर के महानिदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव के अनुसार, आईसीएमआर के विज्ञानिकों ने भारतीय मरीजों में पाए जाने वाले वायरस की जांच कर बताया है कि “यह वुहान के वायरस से 99.99 प्रतिशत मिलता है.” आउर वर्ल्ड इन डेटा के अनुसार युरोप में मामलों की संख्या हर 5 दिन में दुगनी हो रही है.
जांच को जल्दी विस्तार देने से एक परेशानी पैदा हो सकती है. निजी अस्पताल सभी निमोनिया के मरीजो को, फिर चाहे वे कोविड-19 हों या न हों, वापस भेज सकते हैं इस डर से कि वे वायरस की जांच नहीं कर सकते और अन्य मरीजों के संक्रमित हो जाने का खतरा भी नहीं उठा सकते. जैन कहते हैं, “मुझे पक्का भरोसा है कि आने वाले दिनों में निमोनिया के मरीजों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा. सरकार संक्रमण की हद को अस्वीकार कर सकती है लेकिन इससे मरीजों का बचाव नहीं होगा. निजी अस्पताल उन्हें वापस भेज देंगे. ठीक वैसे ही जैसा उन्होंने कलबुर्गी के मरीज के साथ किया था.”
फिलहाल जो संकेच मिल रहे हैं उनसे लगता है कि कोरोनावायरस के चलते भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र देश की स्वास्थ्य व्यवस्था के सारभूत मूल्यांकन के लिए मजबूर होगा.