17 मई को तीसरी बार नरेन्द्र मोदी प्रशासन ने भारत में लॉकडाउन को बढ़ा दिया. भारत में लॉकडाउन को कठोरता के साथ लागू किया गया है. वैज्ञानिकों की टीम के सदस्यों के अनुसार, लॉकडाउन बढ़ाने से पहले सरकार ने कोविड-19 राष्ट्रीय कार्यबल से इनपुट नहीं लिया. कार्यबल के जिन सदस्यों से हमने बात की उनमें आम सहमति थी कि परीक्षण क्षमता और चिकित्सा बुनियादी ढांचे को विकासित करने में भारत सरकार की असफलता के चलते लॉकडाउन अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सका. 130 करोड़ की आबादी को लॉकडाउन में रखने के बावजूद भारत में 100000 पुष्ट मामले सामने आ चुके हैं जो एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत को इस महामारी का केंद्र बनाते हैं. अब भारत इस रोग के मरीजों की संख्या के हिसाब से चीन से आगे निकल गया है.
"मेरे दिमाग में इसे लेकर कोई संदेह नहीं है कि लॉकडाउन विफल हो गया है," कार्यबल के महामारीविद एक सदस्य ने नाम ना लिखने की शर्त पर हमें बताया. “शारीरिक दूरी बनाना, मास्क पहनना और हाथ साफ करना कारगर हैं. साथ ही ये उपाय संक्रमण की दर को कम करते हैं. फिर भी अभी तक ऐसे सबूत नहीं मिले हैं जो बताते हों कि लॉकडाउन से संक्रमण कम फैलता है.” कई लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया कि व्यापक ट्रेसिंग करने, जांच की दर बढ़ाने और महामारी के लिए भारत के चिकित्सा ढांचे को तैयार करने में सरकार समय का सदउपयोग नहीं कर सकी. महामारी की प्रतिक्रिया पर सरकार के साथ परामर्श कर रहे सामुदायिक दवा के विशेषज ने बताया, "लॉकडाउन तब कारगर होता जब लॉजिस्टिक्स के मामले में खुद को तैयार करने के लिए, हमारे अस्पतालों को तैयार करने, हमारी श्रम शक्ति तैयार करने, दिशानिर्देश तैयार करने, मानक संचालन प्रक्रियाओं के लिए समय दिया जाता."
एड्स से मुकाबला करने के लिए बने संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम, यूनएनएड्स के क्षेत्रीय सलाहकार डॉ. सलिल पनाकडन बताते हैं कि "लॉकडाउन के साथ सबसे बड़ा समस्या इसे नियंत्रण का मुख्य या एकमात्र उपाय मान लिया जाता है जबकि ऐसा नहीं है." यूनएनएड्स की ओर से पनाकडन एशिया प्रशांत क्षेत्र में कोविड-19 रेस्पोंस को देख कर रहे हैं. "लॉकडाउन असल में एक समग्र रणनीति का हिस्सा है जिसके वक्त को स्वास्थ्य प्रणालियों, आबादी और आपूर्ति चेन को तैयार करने के लिए उपयोग में लाना चाहिए."
कार्यबल के एक अन्य सदस्य ने उन कारणों के बारे में बताया जिनकी वजह से केंद्र सरकार की महामारी प्रतिक्रिया ने स्थिति को बदतर बना दिया. उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार वायरस को "फैलने को रोकने में असफल रही है और वह लॉकडाउन के दौरान प्रवासी लोगों को सामाजिक सेवाएं प्रदान करने के राजनीतिक और प्रशासनिक मोर्चे पर विफल होने के साथ ही जोखिम के बारे आगाह करने और वायरस से जुड़े स्टिग्म (कलंक) के प्रति लोगों को जागरुक करने में भी विफल रही है." दूसरे सदस्य ने "पुलिस की मनमानी" और "केरल के उलट संपर्क ट्रेसिंग में देरी" की भी निंदा की.
कार्यबल के महामारी विशेषज्ञ ने भी यही चिंता जाहिर की. उन्होंने कहा, "जबरन सामाजिक दूरियां सुनिश्चित करने के अलावा लॉकडाउन कोई मूल्य नहीं है. यह पहली दुनिया में, जहां आबादी का घनत्व हमारे जैसे देश की तुलना में बहुत कम है, परिणाम दिखा रहा है. लोगों को दोष देने का कोई फायदा नहीं है, खासकर उन शहरों में जहां बहुत से लोग बेघर हैं. आप बेघर परिवारों को कहां लॉकडाउन करने जा रहे थे? किसी भी बड़े शहर में लगभग 20 प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है.” महामारीविद ने बताया कि महामारी से लड़ने के लिए अन्य उपायों और नीतियों के बिना केवल लॉकडाउन से "शायद ही कुछ हासिल हो सकता है."
24 अप्रैल को एक प्रेस वार्ता में कार्यबल के अध्यक्ष और नीति आयोग के सदस्य विनोद पॉल द्वारा पेश किए गए गणितीय मॉडल को लेकर कार्यबल के महामारीविद का रवैया भी बहुत आलोचनात्मक था. पॉल की प्रेस ब्रीफिंग में एक ग्राफ को दिखा कर दावा किया गया कि देश में 16 मई से नया कोविड-19 मामला नहीं आएगा. जाहिर है कि ग्राफ पूरी तरह से गलत था और भारत में हर दिन नए संक्रमण देखने को मिल रहे हैं. 19 मई तक भारत ने 101139 मामलों की पुष्टि की है और इससे 3163 मौतें हो चुकी हैं.
महामारीविद ने कहा, "ऐसे मॉडल कुछ मान्यताओं के आधार पर बनाए जाते हैं और जब धारणाएं बदल जाती हैं, उदाहरण के लिए नए सबूतों के आने से, वे बेकार और पुराना हो जाता है. किसी ने मॉडल के उस गणित को नहीं देखा जिसके आधार उसे तैयार किया गया था. उस पर किसी ने काम नहीं किया. यदि आप सरकारी अधिकारियों से उस मॉडल को समझाने के लिए कहें, तो वे नहीं समझा सकेंगे. फिर भी उन्होंने मॉडल को कसौटी मान लिया.”
कार्यबल के दो सदस्यों और कई अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार, सरकार लॉकडाउन को सफल दर्शाने के लिए इस मॉडल में पेश किए गए अनुमानों को भारत की सच्चाई के तौर पर फिट करने की कोशिश कर रही है जो सिवाय राजनीति कुछ नहीं है. इस गंभीर रूप से गलत ग्राफ को पेश करते हुए, पॉल ने कहा था, “आज हम कह सकते हैं कि इस महामारी को दूर करने के लिए इस देश द्वारा उठाए गए कदम समयानुकूल, अच्छे और पूरे हुए और पूरी ताकत के साथ हम इस बीमारी को पूरी तरह से नियंत्रित करने और हराने के लिए तैयार हैं."
सरकार के साथ परामर्श कर रहे सामुदायिक चिकित्सा विशेषज्ञ ने कहा कि केंद्र सरकार के पास यह बताने वाला सबूत नहीं था कि लॉकडाउन सफल रहा इसलिए वह इसे सही ठहराने के लिए थ्योरी बना रही थी. "लॉकडाउन हटाना भी एक राजनीतिक निर्णय होगा, जिसे छद्म विज्ञान या अर्ध-वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर उचित ठहराया जाएग," उन्होंने कहा.
जिन वैज्ञानिकों से हमने बात उनके बीच एक स्पष्ट सहमति थी कि लॉकडाउन का पहला चरण वायरस के प्रसार के बारे में डेटा प्राप्त करने और भारत की स्वास्थ्य प्रणालियों की सुरक्षित कर लेने के लिए आवश्यक था. "वह वक्र को समतल करने के लिए आवश्यक था," कार्यबल के सदस्य महामारीविद ने कहा. “लेकिन हमारे जैसे देश के लिए भी तीन-चार हफ्तों का समय पर्याप्त है. इस वक्त में हम निर्णय लेने के लिए पर्याप्त डेटा इकट्ठा कर लेते.” लेकिन भारत सरकार, विशेषज्ञों से परामर्श किए बिना निर्णय लेने के बाद, नए एकत्रित सबूतों को अपने फैसलों का आधार बनाने में विफल रही है.
"एक उपाय के रूप में लॉकडाउन केवल तभी समझ में आता है जब आपके पास प्रयोगशालाओं का बैकअप होता है और जब यह परीक्षण में मदद देता है," महामारीविद ने कहा. “परीक्षण के बिना यह बगैर गोली की बंदूक जैसा है. जो कोई भी समझदार नीतिनिर्माता डेटा को देखता, समय लगा कर इस पर विचार करता, प्रभावी ढंग से योजना बनाता कि पहला लॉकडउान लागू करने से पहले हमें क्या, क्यों, और कैसे करना चाहिए. ”
विज्ञान पत्रिका के साथ एक साक्षात्कार में, महामारीविद और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के टीएच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रोफेसर मार्क लिप्सिच ने महामारी की प्रतिक्रिया के रूप में लॉकडाउन की तुलना एक बड़ी समस्या को हल किए बिना "जीवन रक्षक बेड़ा" प्राप्त करने से की है. पनाकडन के अनुसार, संकट को हल करने का कोई एक सूत्र नहीं था ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर केंद्रित एक लॉकडाउन एक देश की नाव को किनारे लगाने की अधिक संभावना रखता था. "हम हर जगह लॉकडाउन नहीं लागू कर सकते हैं," उन्होंने कहा. “लॉकडाउन के कई संस्करण हैं- दक्षिण एशिया की तरह कुल लॉकडाउन और दक्षिण पूर्व एशिया की तरह आंशिक लॉकडाउन. अंतर यह है कि लॉकडाउन कैसे लागू किया जाता है. एक सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय के रूप में या कानून और व्यवस्था के मुद्दे के रूप में. एक सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय के रूप में इसे अपनाने वाले देशों ने अच्छा प्रदर्शन किया है. ”
एशिया प्रशांत क्षेत्र में, वियतनाम और थाईलैंड कोविड-19 संक्रमण के वक्र को समतल करने में काफी हद तक सफल रहे हैं. 17 मई को थाईलैंड ने दो महीने के बाद मॉल और डिपार्टमेंट स्टोर खोले, जबकि वियतनाम में सख्त संपर्क-ट्रेसिंग उपायों की सफलता के कारण कोविड-19 से एक भी मौत नहीं हुई. न्यूजीलैंड में लॉकडाउन का एक कुशल उपयोग भी देखा गया, जिसमें प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने राष्ट्र के स्वास्थ्य विशेषज्ञों से परामर्श कर रणनीति विकसित की और अपनी परीक्षण क्षमता को बढ़ाने के लिए लॉकडाउन का उपयोग किया.
इस बीच, भारत में सरकार ने कोविड-19 संक्रमणों को बढ़ने दिया क्योंकि यह समय-समय पर महामारी विज्ञानियों से उन उपचारात्मक उपायों के बारे में परामर्श करने के लिए जिन्हें लॉकडाउन के दौरान लिया जाना था, विफल रही. 25 मार्च को लॉकडाउन के पहले दिन अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा, “महाभारत युद्ध 18 दिनों में जीता गया था. पूरा देश जो अब कोरोना के खिलाफ लड़ रहा है, उसमें 21 दिन लगेंगे. हमारा उद्देश्य इस युद्ध को 21 दिनों में जीतना है.” इसके बाद केंद्र सरकार ने अगला गलत दावा किया कि भारत में 16 मई से कोई नया संक्रमण नहीं आएगा.
इस अवधि में 3000 से अधिक कोविड-19 मौतों के अलावा, लॉकडाउन के चलते पलायन संकट में सड़क दुर्घटनाओं में कम से कम 134 मजदूर मारे गए हैं. लॉकडाउन के इन 50 दिनों में हजारों लोग अभी भी सैकड़ों पर पैदल चल कर अपने घरों को लौट रहे हैं. "वे इसे आगे क्यों बढ़ा रहे हैं?," महामारी विज्ञानी ने सवाल किया, “मैं सोच भी नहीं सकता कि ये फैसले कैसे लिए जा रहे हैं. इसमें कोई विज्ञान नहीं है.”
महामारी विज्ञानी ने कहा, "वे लकवाग्रस्त हैं. कोई शक नहीं कि लॉकडाउन को हताशा में बढ़ाया जा रहा है. एक महामारी विज्ञानी के रूप में जीवन में पहली बार मेरे सामने एक अदूरदर्शी सरकार है. वे केवल दो सप्ताह का हिसाब कर रहे हैं. यह हमारे जैसे देश के लिए समस्यामूलक है.” उनके अनुसार, नोवेल कोरोनावायरस तीन साल तक भी रह सकता था.
हमने भारत के लॉकडाउन की विफलता के बारे में कार्यबल के सदस्यों द्वारा लगाए गए आरोपों के जवाब गृह मंत्रालय, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के महानिदेशक बलराम भार्गव, स्वास्थ्य सचिव प्रीति सूदन और राष्ट्रीय कार्यबल के अध्यक्ष पॉल के आधिकारिक ईमेलों पर भेजे हैं. यह रिपोर्ट प्रकाशित होने तक हमें उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिली.
भारत के वैज्ञानिक समुदाय के कई लोगों ने भविष्य में महामारी को फैलने ना देने के लिए दीर्घकालिक योजना की कमी पर चिंता जाहिर की. महामारी विज्ञानी ने कहा, "हमें बेहतर, व्यापक और दीर्घकालिक उपायों को सीखने की जरूरत है. हमने एचआईवी महामारी से सीखा कि हमें चीजों को अपनाने और बदलने के लिए एक राष्ट्रीय योजना की आवश्यकता होती है ताकि हम धीरे-धीरे इस न्यू नॉर्मल के आदी हो जाएं. यह आसान काम नहीं है. हमने एचआईवी में देखा है कि हमें उसी व्यवहार-परिवर्तन की रणनीति को अपनाने की जरूरत है, जिसमें सभी पक्षों के लोगों को शामिल किया जाना चाहिए. इसे पुलिस से लागू नहीं कराया जा सकता है.”