17 अप्रैल की सुबह पश्चिम बंगाल के आसनसोल शहर में एक चुनाव सभा को संबोधित करने नरेन्द्र मोदी भारी हर्ष ध्वनि के बीच मंच पर पहुंचे. मंच पर व्यवस्थित होने के बाद प्रधानमंत्री ने अपना मास्क हटाया, चेहरे को हथेली से पोछा और अपनी लहराती सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरा. कुछ पल तक जय जयकार करती भीड़ को उदासीन नजरों से देखते हुए नमस्कार की मुद्रा में जुड़े अपने दोनों हाथों को वह सिर के ऊपर तक ले गए. चुनाव सभा शुरू हो गई थी.
आसनसोल के नीघा एयरबेस के मैदान में भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हजारों की संख्या में जुटे थे. आम तौर पर अधिकांश राजनीतिक सभाएं आसनसोल के पोलो ग्राउंड में होती हैं लेकिन मोदी की सभा के लिए नीघा एयर बेस स्थल इसलिए चुना गया था क्योंकि इस मैदान में ज्यादा लोग समा सकते थे. बीजेपी कार्यकर्ताओं को पक्का यकीन था कि भारी संख्या में लोग आएंगे लिहाजा उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कोविड-19 महामारी के मद्देनजर सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने के लिए एयरवेज के मैदान की जरूरत है. सवेरे 10:00 बजे तक जैसे-जैसे भीड़ बढ़ने लगी, प्लास्टिक की कुर्सियों पर लोग एक दूसरे से सट कर बैठने लगे या पीछे की ओर एक दूसरे से सटे खड़े हो गए-- सोशल डिस्टेंसिंग का कोई मतलब ही नहीं रहा.
मोदी ने पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल पार्टी और इसकी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर जमकर प्रहार किया और लोग उन्हें सुनते रहे. सभा में मौजूद कुछ लोगों के चेहरे पर ढीले ढाले ढंग से लगे मास्क थे जिन पर प्रायः कमल का चिन्ह बना हुआ था. कुछ की गर्दन से सर्जिकल मास्क लटक रहा था या खुली नाक से नीचे चेहरे पर फंसा हुआ था. बहुत सारे ऐसे लोग थे जो पूरी तरह मास्क विहीन थे. वे मुंह पर हाथ लगाकर खांसते और फिर ऊपर देखते या कैमरे की ओर हाथ हिलाते.
पांच मिनट भाषण देने और कुछ शुरुआती टिप्पणियां करने के बाद मोदी ने एक बार फिर एक छोर से दूसरे छोर तक बैठे लोगों पर नजर फेरी और कहा कि उन्हें एक शिकायत है. उन्होंने कहा कि "मैं यहां पहले भी दो बार आ चुका हूं, लोकसभा चुनावों से पहले दो बार, आपका वोट मांगने... लेकिन उस समय आज के मुकाबले एक चौथाई भीड़ भी यहां नहीं थी." फिर उन्होंने आगे कहा, "आज आपने ऐसा दम दिखाया है, ऐसी ताकत दिखाई है. मैं जहां देखता हूं वहां मुझे लोग ही दिख रहे हैं, बाकी कुछ दिखता ही नहीं.”
उसी दिन तकरीबन 1000 किलोमीटर दूर, दिल्ली के एक युवा डॉक्टर मनीष जांगरा अपनी जिंदगी के सबसे खौफनाक लम्हों से गुजर रहे थे. 26 वर्षीय जांगरा केंद्र सरकार द्वारा संचालित राम मनोहर लोहिया अस्पताल में काम करते हैं और कुछ ही दिन पहले कोविड-19 की उनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी. 17 अप्रैल को उनके शरीर में रोग के गंभीर लक्षण प्रकट होने लगे. उन्हें सांस लेने में बहुत दिक्कत हो रही थी और उनका ऑक्सीजन लेवल न्यूनतम से काफी नीचे आ गया था-- एक स्वस्थ युवा के लिए जरूरी स्तर से काफी नीचे. जांगरा ने मुझे बताया, "यह देखकर तनिक भी देर किए बिना मैं अपने दोस्त के साथ स्कूटर से राम मनोहर लोहिया अस्पताल के लिए रवाना हुआ. मुझे पता था कि अगर समय रहते मुझे आक्सीजन का सहारा नहीं मिला तो मैं मर सकता हूं."
अस्पताल के ट्रामा सेंटर के बाहर पहुंच कर जांगरा हैरान रह गए. बाहर खड़े गार्ड ने उन्हें यह कह कर अंदर जाने से रोक दिया कि अंदर कोई भी बेड खाली नहीं है. उन्होंने कहा, "मैंने उसे बताया कि मैं यहां काम करता हूं. वे मुझे जानते थे... कुछ ने तो मुझे पहचाना भी. बाहर खड़े होकर उनसे अंदर जाने की भीख मांगना मेरे लिए अत्यंत हृदय विदारक था." जांगरा का मित्र भी डॉक्टर था. वह उन्हें वहीं छोड़कर वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों से बात करने गया. इस बीच जांगरा कोविड-19 के लिए खास तौर पर बनाए गए वार्ड के बाहर उन हताश परिवारों के साथ बैठकर इंतजार करते रहे जो अपने प्रियजनों को अस्पताल में भर्ती कराने की हसरत में वहां बैठे थे. कुछ मिनट के अंदर जांगरा को लगा कि वह अब अपना होश खो देंगे. उन्होंने बताया, "मुझे लगा मेरे चारों तरफ अंधेरा घिर रहा है... और मैं अब और अधिक इंतजार नहीं कर सकता. मैं बेहद घबरा गया था और मेरे आसपास बैठा हर व्यक्ति वैसी ही हालत में था." उन्होंने आगे बताया, "एक डॉक्टर के रूप में मैंने कभी इतनी लाचारी नहीं महसूस की थी. मेरे आसपास परेशानहाल बैठे लोगों की तो बात दूर, एक डॉक्टर के रूप में मैं अपनी ही मदद नहीं कर सकता था."
एक घंटे के इंतजार के बाद अंततः जांगरा को गंभीर रोगियों के लिए बने ट्राइएज वार्ड में दाखिल कर लिया गया. यहां रोगियों को कोविड-19 वार्ड में बेड मिलने तक प्राथमिक चिकित्सा दी जाती थी. यह वार्ड अत्यंत बीमार मरीजों से भरा था- उन सब को ऑक्सीजन के सहारे की जरूरत थी. जांगरा को एक मरीज के साथ बेड पर लिटा दिया गया और दोनों मरीज बारी-बारी उसी ऑक्सीजन मास्क का इस्तेमाल करते रहे. उन्होंने बताया, "हर बेड पर दो मरीज थे जो एक ही ऑक्सीजन मास्क को बारी-बारी लगाते थे." अब इसके बाद कोविड-19 वार्ड में जगह पाने की एक और लंबे इंतजार की घड़ी शुरू हुई. इस वार्ड से वह अच्छी तरह परिचित थे-- पिछला वर्ष उन्होंने मरीजों को बचाने के अथक प्रयास में इस वार्ड में समय गुजारा था.
दिल्ली में अन्य स्थानों में हताशा और बेबसी के ऐसे ही दृश्य देखने को मिले. एक पेशेवर स्वास्थ्यकर्मी होने की वजह से जांगरा उन गिने चुने खुशकिस्मत लोगों में थे जिन्हें ऑक्सीजनयुक्त बेड मिल सका. अप्रैल के उत्तरार्ध से लेकर मई के पहले सप्ताह तक हजारों की संख्या में ऐसे लोग थे जो अपने प्रियजनों के इलाज के लिए अस्पतालों के बाहर पड़े हुए थे या एंबुलेंसों में बीमार को लेकर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल के चक्कर लगा रहे थे. उस समय दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में कुछ हजार बेड उपलब्ध हैं लेकिन ऑक्सीजन की सप्लाई सहित कोई बेड पाना या आईसीयू में बेड पाना एकदम असंभव था.
देश के अन्य हिस्सों में कोविड-19 से ग्रस्त लोगों की जबरदस्त संख्या और मौतों की वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पहले से ही चरमराने लगी थी. मोदी के गृह राज्य गुजरात में अस्पताल की सुविधा पाने से पहले ही मरीज या तो एंबुलेंस के अंदर या अस्पताल के बाहर दम तोड़ रहे थे. गैस चालित एक शवदाह गृह में एक भट्ठी की धातु की चौखट इसलिए पिघल गई क्योंकि वहां रात दिन लाशें जल रही थीं. आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की हालत यह थी कि शवदाह गृहों के बाहर अंतिम संस्कार के लिए अपनी बारी आने के लंबे इंतजार से ऊब कर परिवारजनों ने अपने मृत संबंधियों के शवों को खुले मैदान में ही जलाना शुरू कर दिया था. ऑक्सीजन, दवाओं और जांच के काम आने वाली किट सहित महत्वपूर्ण संसाधनों की देश भर में कमी होने की वजह से परेशानहाल परिवारों ने काला बाजार का रुख किया और बेहद महंगे दामों में ऐसी दवाइयां आदि खरीदीं जो बेअसर साबित हुईं. सरकारी हेल्प लाइनें काम नहीं कर रही थीं और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पूरी तरह विफल हो गई थी-- ऐसे में मजबूर होकर लोगों ने अस्पताल के विस्तरों, ऑक्सीजन सिलिंडरों और दवाओं आदि के लिए सोशल मीडिया के माध्यम से गुहार लगाई. विफल प्रशासन की वजह से खाली स्थान को भरने के लिए नागरिक समाज और स्वयंसेवी समूहों ने कदम बढ़ाए.
एक तरफ भारत तेजी से कोविड-19 महामारी का वैश्विक केंद्र बनता जा रहा था और दूसरी तरफ राजनीतिक नेता बड़ी-बड़ी चुनावी सभाएं करने और कुंभ मेला में लाखों तीर्थयात्रियों को जुटाने में लगे थे. उत्तराखंड के नवनियुक्त मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने कोविड-19 के मामलों के बावजूद अपने राज्य में इस विशाल धार्मिक जमावड़े के फैसले के पक्ष में दलीलें दीं. उन्होंने कहा, "सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कुंभ का आयोजन गंगा नदी के तट पर हो रहा है और वहां जल के प्रवाह में गंगा मां का आशीर्वाद है इसलिए कोरोना नहीं होना चाहिए." मोदी सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपए कुंभ पर खर्च किए जिसमें 35 लाख लोग शामिल थे.
देश के नागरिकों ने इसकी बहुत भारी कीमत चुकाई. सारे प्रमाण इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि कोविड-19 की शुरुआत से इस वर्ष मई के अंत तक हुई मौतों का तीन लाख का सरकारी आंकड़ा बेहद कम करके बताया गया है. न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में मरने वालों की सही संख्या कम से कम 24 मई को सरकारी तौर पर बताई गई संख्या से दो गुनी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे यह भी मोटे तौर पर किया गया अनुमान है. ज्यादा संभावना इस बात की है कि यह संख्या सरकारी तौर पर बताई गई संख्या से पांच गुनी से भी ज्यादा हो जो 16 लाख तक पहुंचती है. रिपोर्ट के अनुसार संभावित ‘और भी बुरे परिदृश्य’ को ध्यान में रखें तो कुल संख्या अनुमानतः 42 लाख हो सकती है.
कोविड-19 से होने वाली अनदेखी और अस्वीकृत मौतों की तादाद कितनी ज्यादा थी, इसकी एक झलक गंगा में बहती और इसके तटों पर रेत के नीचे दफनाई गई लाशों से मिलती है. उत्तर प्रदेश में श्मशानों में जगह न होने की वजह से लोगों ने मृतकों के शवों को नदी में फेंकना शुरू किया. मृतकों के अंतिम संस्कार को संपन्न कराने में मदद पहुंचाने की बजाय, अधिकारियों का सारा ध्यान कम गहराई में दफनाए गए शवों पर पड़े कफन को हटाने में और उन्हें रेत से ढकने में लगा था ताकि पत्रकारों के लिए इनकी तस्वीरें लेना मुश्किल हो जाए.
उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में कोविड-19 के मरीज लगातार ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ते रहे और तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय को अपनी टिप्पणी में यह कहना पड़ा कि उनकी मौतें "किसी नरसंहार से कम नहीं हैं". अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने मोदी प्रशासन की इस बात के लिए आलोचना की कि वह जनता की तकलीफों का समाधान करने की बजाय अपनी छवि को बचाने का प्रयास कर रही है. वाशिंगटन पोस्ट के एक संपादकीय ने लिखा- "आलोचना करने वाले अखबारों का मुंह बंद करने के प्रयासों के बावजूद हर व्यक्ति को पता है कि आज जो जानलेवा विपदा फैली हुई है उसके लिए कौन दोषी है." दुनिया के विख्यात मेडिकल जर्नल्स में से एक दि लैंसेट के संपादकों ने लिखा कि -"ऐसा लगता है कि महामारी पर नियंत्रण पाने की कोशिश की बजाय मोदी सरकार ट्विटर पर आलोचनाओं से निपटने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किए हुए है."
चार प्रमुख मुद्दों पर मोदी सरकार की जो निष्क्रियता दिखाई दी है उसे आपराधिक लापरवाही कहा जा सकता है. प्रथमतः, इसने ऐतिहासिक बुद्धिमत्ता और वैज्ञानिकों की उन चेतावनियों की अवहेलना की जिसमें दूसरी लहर और इस वायरस के उत्परिवर्ती स्वरूप (म्यूटैंट स्ट्रेंस) के आने की चेतावनी दी थी. दूसरे, महामारी की दूसरी लहर के आने के बाद भी कोविड-19 के प्रबंधन में लगे राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स की कोई बैठक नहीं बुलाई गई और सरकार लगातार वैज्ञानिक सलाह की उपेक्षा करती रही. तीसरे, इसने टीकाकरण के मामले में ढिलाई बरती और आबादी को वायरस के खिलाफ अरक्षित छोड़ दिया. अंतिम बात यह कि दूसरी लहर के आने की आशंका को ध्यान में रखते हुए यह पर्याप्त संख्या में स्वास्थ्यकर्मियों को नियुक्त करने में और ऑक्सीजन की तथा जीवन रक्षक दवाओं की पर्याप्त आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए अपनी स्वास्थ्य संरचना को उन्नत बनाने में विफल रही. इनमें से अगर एक भी पहलू पर ध्यान दिया गया होता तो मरने वालों की संख्या में उल्लेखनीय कमी होती. इसकी बजाय सरकार ने अपनी सारी ताकत हर उस व्यक्ति के खिलाफ लगा दी जिसने जाने-अनजाने में इसकी गलतियों का पर्दाफाश किया.
जांगरा ने कहा, "इसे केवल लापरवाही और उदासीनता नहीं कहेंगे. हमें सच बोलने में हिचकिचाना नहीं चाहिए." डॉ॰ जांगरा अब तक ठीक हो गए थे और अस्पताल में कोविड-19 के मरीजों की देखभाल में लगे थे. उन्होंने कहा, "हमारी सरकार ने हमें मरने के लिए छोड़ दिया. ये मौतें नहीं बल्कि हत्याएं हैं."
2021 के शुरुआती महीनों में भारत में कोविड-19 के मामले और इससे होने वाली मौतों की दर में इससे पहले के वर्ष की तुलना में काफी कमी आई थी. फरवरी के प्रारंभिक दिनों में देश में प्रतिदिन कोविड के लगभग 10 हजार नए मामले दर्ज किए गए जबकि इससे पहले के वर्ष के सितंबर माह में, जिस समय पहली लहर अपने चरम पर थी, प्रतिदिन तकरीबन एक लाख मामले दर्ज किए गए थे. संक्रमित लोगों की संख्या में कमी ने आत्ममुग्धता और अनियंत्रित आशावाद पैदा किया और इसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक नेताओं द्वारा दिए गए वक्तव्यों में दिखाई देती है जो विजय की मुद्रा से भरे थे.
जनवरी के उत्तरार्द्ध में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के डावोस डायलॉग को संबोधित करते हुए मोदी ने ऐलान किया कि भारत इस महामारी से छुटकारा पाने में सफल हो गया है. उन्होंने कहा, "इस लड़ाई में भारत में प्रत्येक व्यक्ति ने धैर्य के साथ अपने कर्तव्यों का पालन किया और कोरोना के खिलाफ संघर्ष को एक जनआंदोलन का रूप दे दिया. आज भारत उन देशों में से एक है जिसने सफलतापूर्वक ज्यादा से ज्यादा संख्या में अपने नागरिकों के जीवन को बचाया." इसके कुछ महीने बाद मार्च के प्रारंभ में, जब संक्रमित लोगों के मामले पूरे देश में चिंताजनक ढंग से बढ़ रहे थे, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने घोषणा की कि भारत में इस महामारी का "खेल खत्म हो गया". सरकार द्वारा प्रदर्शित यह अज्ञानता इसकी पहली सबसे बड़ी विफलता थी- खासतौर से इसलिए क्योंकि इसे वैज्ञानिक समुदाय की यह चेतावनी पहले ही मिल चुकी थी कि महामारी की दूसरी लहर आने वाली है.
मिशिगन विश्वविद्यालय के महामारी विज्ञान और जैव सांख्यिकी के प्रोफेसर डॉक्टर भ्रमर मुखर्जी ने मुझसे कहा कि "जनवरी-फरवरी तक खतरे के संकेतों की अनदेखी करना एक बात है लेकिन अगर मार्च में भी सरकार ने यह नहीं सोचा कि यह खतरा आ रहा है तो यह निश्चित रूप से आपराधिक कृत्य है." डॉ. मुखर्जी मार्च 2020 से ही महामारी से संबंधित भारत के आंकड़ों पर बारीक निगाह रखे हुई हैं. उन्होंने बताया कि, "जब से इस महामारी का प्रकोप शुरू हुआ मैं इस पर इतनी बारीकी के साथ नजर रखती रही हूं कि मेरे परिवार के लोग कहने लगे हैं कि मुझे इसका जुनून हो गया है."
14 फरवरी को डॉ॰ मुखर्जी रोज की अपनी सुबह की दिनचर्या की तरह कॉफी पीते हुए अपने फोन पर कोविड19 डॉट ओआरजी वेबसाइट को देख रही थीं. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें यह तारीख इसलिए याद है क्योंकि उस दिन वेलेन्टाइन डे था. इस वेबसाइट पर भारत में कोविड-19 से संबंधित सरकारी और गैर सरकारी आंकड़े पर्याप्त मात्रा में मिल जाते थे और इस रोग के अध्ययन के लिए डॉ॰ मुखर्जी और उनके छात्र काफी हद तक इस वेबसाइट पर निर्भर रहते थे.
उस सुबह मुखर्जी दो बातों को देखकर बहुत हैरान रह गईं : पहली तो यह कि भारत में रहने वाले उनके मित्रगण और उनके परिवार के सदस्य लोगों से खूब घुलना मिलना, एक दूसरे के यहां पार्टियां आयोजित करना और छुट्टियों में बाहर जाने की योजनाएं तैयार करने में ऐसे लग गए थे जैसे कभी यहां महामारी का कोई नामोनिशान न हो. दूसरे यह कि भारत के तीन राज्यों में कोविड-19 के मामले तेजी से बढ़ने लगे थे. उन्होंने कहा कि, "कोविड के मामलों का बढ़ना ही चिंता का कारण नहीं था, मुख्य चिंता इस बात से थी कि बढ़ने की दर जबर्दस्त थी. इससे साफतौर पर कुछ खतरों का संकेत मिल रहा था... महामारी से पैदा थकान, सरकार की मिली जुली प्रतिक्रियाएं और तेजी से बढ़ते मामले, इन तीनों के मिश्रण ने मुझे सही अर्थों में डरा दिया."
जिन तीन राज्यों में कोविड-19 के मामले रोजाना की दर पर तेजी से बढ़ रहे थे वे थे महाराष्ट्र, पंजाब और छत्तीसगढ़. उस समय सरकार ने यह नहीं महसूस किया कि किसी एक राज्य में इन मामलों का बढ़ना समूचे देश के लिए चिंता का सबब है. यहां तक कि अप्रैल के महीने तक भी केंद्र सरकार अलग अलग राज्यों के स्तर पर इससे निपट रही थी. वह इन राज्यों की सरकारों को पत्र लिख रही थी और जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों की टीमों को जमीनी हालात की जांच के लिए इन राज्यों में भेज रही थी. मुखर्जी ने कहा कि, "यह बात मुझे बहुत हास्यास्पद लगी कि वे इस तरह काम कर रहे थे जैसे महामारी का प्रकोप कुछ राज्यों तक सीमित है, जैसे इसका वायरस राज्य की सीमाओं का सम्मान करेगा."
28 फरवरी को मुखर्जी ने देश भर में तेजी से बढ़ रहे मामलों पर अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए ट्वीटर का सहारा लिया. उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि कोविड-19 की प्रभावकारी प्रजनन संख्या (यह एक पैमाना है जिससे पता किया जाता है कि कोविड से संक्रमित एक व्यक्ति अन्य कितने व्यक्तियों को प्रभावित कर रहा है) एक से ज्यादा हो गई है. अगर प्रभावकारी ‘आर’ एक से कम है तो यह संक्रमित मामलों की संख्या में कमी का संकेत देता है लेकिन इससे बढ़ा हुआ ‘आर’ बताता है कि संक्रमण बहुत बड़े पैमाने पर फैल रहा है. मुखर्जी ने कहा, "इसके बाद के सारे आंकड़े सबके सामने हैं. लेकिन उनके आगे इन आंकड़ों को रखने के बाद भी सरकार इनसे इनकार करने में ही लगी रही." बेशक, सभी लोगों के पास सांख्यिकी तथा महामारी विज्ञान की वह विशेषज्ञता नहीं होती कि वे आंकड़ों को देखकर महामारी की आसन्न लहर की भविष्यवाणी कर सकें लेकिन इस चेतावनी को प्रकट करने वाले कुछ और संकेत भी थे जिन्हें नीति निर्माता आसानी से समझ सकते थे. इस तरह का एक संकेत महामारियों के इतिहास के साथ जुड़ा है जिससे हमें पता चलता है कि अगर सभी नहीं तो अधिकांश महामारियों के मामले में संक्रमण की कई लहरें देखने को मिली हैं. जाहिर सी बात है कि भारत में दूसरी लहर अवश्यंभावी थी.
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के टी. एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रोपफेसर डॉ॰ विक्रम पटेल ने मुझसे कहा, "विज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण इतिहास है जिस पर हम ध्यान नहीं देते. यह लहर अभी आएगी इसका अनुमान हम अतीत की दो ऐतिहासिक घटनाओं से लगा सकते थे : 1918 का इंफ्लुएंजा और अभी हाल में खुद कोविड की पहली लहर."
एक शताब्दी से भी अधिक समय पहले 1918 के इंफ्लुएंजा नामक महामारी के दौरान इस बीमारी से प्रभावित देशों में सबसे ज्यादा मौतें भारत में हुईं. मई 1918 में इसकी पहली लहर ने भारत में प्रवेश किया जो अपेक्षाकृत हल्की थी लेकिन उसी वर्ष सितंबर के आसपास जो दूसरी लहर आई वह अपेक्षाकृत ज्यादा गंभीर किस्म की थी और उसमें असंख्य लोग मारे गए. पटेल ने कहा, "इतिहास अपने आपको इस तरीके से भी दुहराता है कि 1918 में इंफ्लुएंजा नामक महामारी पूरे भारत में फैली- ठीक वैसे ही जैसे कोविड की पहली लहर यहां आई थी और अब उसी तरह दूसरी लहर भी आई. इसने अपनी शुरुआत मुंबई जैसे शहर से की और फिर इसने ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने से पहले दिल्ली तथा अन्य महानगरों को अपना केंद्र बनाया. मुझे हैरानी है कि हमारे नीति निर्माताओं और वैज्ञानिक सलाहकारों ने एक क्षण भी यह कहने में नहीं लगाया कि अरे देखो, किस तरह पिछले वर्ष बिलकुल ऐसे ही यह संक्रमण फैला था."
पटेल ने यह स्वीकार किया कि सरकार से यह उम्मीद करना उचित नहीं है कि वह कोविड-19 की दूसरी लहर की गंभीरता का सही सही अनुमान लगा सके या सही तौर पर वह तारीख बता सके कि कब उसका देश में आगमन होगा. "लेकिन सरकारों और नीति-निर्माताओं को आने वाले दिनों में बुरे से बुरे हालात का अनुमान लगाना चाहिए था और उसके लिए खुद को तैयार करना चाहिए था." उन्होंने आगे कहा, "वे अपनी तैयारियों को सर्वाधिक आशावादी परिदृश्य के आधार पर सीमित नहीं कर सकते. वास्तविकता यह है कि उन्होंने कुछ भी नहीं किया और ऊपर से चुनावी रैलियों का आयोजन करके इस समस्या को और गंभीर बना दिया. इसमें कोई संदेह ही नहीं है कि उन्होंने गलती की. भले ही उन्होंने खुद आग न जलाई हो लेकिन आग पर पेट्रोल डालने का काम तो किया ही."
फरवरी आते आते वह आग, जिसका उल्लेख पटेल ने किया था, महाराष्ट्र में धधक गई थी. राज्य में मई के अंत तक 50 लाख से भी अधिक संक्रमित मामले सामने आ गए थे और मध्य मार्च में केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने कहा था कि देश के अंदर कोविड-19 के जितने भी सक्रिय मामले हैं उनमें से 60 प्रतिशत अकेले महाराष्ट्र से हैं. देश के किसी भी राज्य में 10 जिलों में से ऐसे 5 जिले जहां सबसे ज्यादा संक्रमित लोगों की संख्या हो, वे महाराष्ट्र में थे और इन जिलों में से अधिकांश महामारी के समूचे दौर में इस वायरस के हॉट स्पॉट बने रहे. महाराष्ट्र कोविड-19 टॉस्क फोर्स के सदस्य और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में कार्यरत डॉ॰ सुभाष सालुंके ने मुझे बताया कि "इस बार मामला थोड़ा अलग था. जिस तरह से यह बीमारी फैल रही थी उसमें कुछ अटपटापन था.’
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने महाराष्ट्र की स्थिति का जाएजा लेने के लिए विशेषज्ञों की एक टीम भेजी. मार्च के प्रारंभ में इस टीम की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया गया. इस रिपोर्ट में संक्रमण के मामलों में वृद्धि के जो संभावित कारण बताए गए थे वे थे- कोविड से बचने के उपायों के लिए तय व्यवहार के पालन में कमी, महामारी से पैदा ऊब, बड़ी बड़ी सामाजिक बैठकें और रोग के प्रति जनता के अंदर डर का कम होते जाना. लेकिन सालुंके को, जो अमरावती जिले की स्थिति की जांच के लिए प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में गए थे, पता था कि बात केवल इतनी ही नहीं है. उनका कहना था, "महामारी की वजह से ऊब देश में हर जगह थी, सामाजिक बैठकें हर जगह हो रही थीं फिर कैसे इन कारणों की वजह से अकेले महाराष्ट्र में ही संक्रमण के मामलों में वृद्धि हुई? यह बात समझ में नहीं आती."
फरवरी में अमरावती जिले में संक्रमण के नए मामले प्रतिदिन औसतन 100 से बढ़कर 1000 हो गए. संक्रमण पर रोक लगाने के लिए जिले में 14 दिन का लॉक डाउन घोषित किया गया. सालुंके ने मुझे बताया, "जिले में संक्रमण की दर किसी की भी कल्पना से परे थी. पूरा का पूरा परिवार बीमार पड़ रहा था, समूचा मुहल्ला वायरस की चपेट में आ जाता था. पहली लहर में वायरस का ऐसा व्यवहार नहीं था. इस बार तो यह और भी डरावने रूप में सामने था." इसके अलावा जिले में जो रैंडम सैंपलिंग की गई उससे पता चला कि यहां पॉजिटिविटी की दर 50 प्रतिशत से ज्यादा है. उन्होंने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, "इसका अर्थ यह हुआ कि हम लोगों ने जो 650 नमूने इकट्ठे किए थे उनमें से कम से कम 50 प्रतिशत पॉजिटिव पाए गए." इस परिप्रेक्ष्य में विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि अगर किसी आबादी में पॉजिविटी रेट 5 प्रतिशत से कम है तो माना जा सकता है कि महामारी नियंत्रण में है.
इस स्थिति से चिंतित होकर और हालात को और भी बेहतर ढंग से समझने के लिए सालुंके ने पुणे के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के अपने साथियों को बुलाया ताकि उनकी टीम द्वारा की गई खोजों पर विचार विमर्श किया जा सके. जब सालुंके और उनकी टीम ने राज्य के तथा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों को और साथ ही नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के सदस्यों को इस स्थिति से सचेत रहने के लिए कहा तो इन लोगों ने सालुंके की टीम से कहा कि वे पॉजिटिव पाए गए रोगियों के सैंपुल भेजें ताकि उनका जीनोम सिक्वेंसिंग कराया जा सके. उन्होंने इन सैंपुल्स को इंडियन सार्स-कोव-टू जीनोमिक्स कंसोर्टीयम (इंसाकाग) की प्रयोगशालाओं में भेजा. यह कंसोर्टीयम 10 प्रयोगशालाओं का एक नेटवर्क है जिसका गठन स्वास्थ्य मंत्रालय ने दिसंबर 2020 में इस मकसद से किया था ताकि वायरस के जीनोम सिक्वेंसिंग का विस्तार किया जा सके. सरकार ने ‘यूके वैरिएंट’ के फैलने से चिंतित होकर यह कदम उठाया था. ‘यूके वैरिएंट’ वायरस का और भी ज्यादा संक्रामक स्वरूप था जिसने पिछले वर्ष के अंतिम दिनों में ब्रिटेन में संक्रमण की दूसरी लहर की शुरुआत की थी.
जैसा कि सालुंके को आशंका थी, इंसाकाग प्रयोगशालाओं ने उन सैंपुल्स में एक नया वैरिएंट देखा. काफी पहले 18 फरवरी को ही इंडियन एक्सप्रेस ने यह खबर प्रकाशित की कि अमरावती और उसके पड़ोस के यवतमाल जिले से मिले नमूनों में वायरस के स्पाइक प्रोटीन पर दो महत्वपूर्ण उत्परिवर्तित रूप (म्यूटेशन्स) मिले हैं. इनमें से एक म्यूटेशन 'ई484के' को, जिसे अमरावती के नमूनों में पाया गया, ब्रिटेन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में भी जबर्दस्त संक्रमण फैलाने वाले तत्व के रूप में पाया गया था. 'एन440के' नामक एक अन्य म्यूटेशन यवतमाल के नमूनों में पाया गया जिसे आंध्र प्रदेश से आए नमूनों में भी पहले देखा गया था और जिसे इम्यून रिस्पांस से बच निकलने वाला पाया गया.
किसी वायरस में म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) हमेशा चिंता का कारण नहीं होता. सभी जैविक क्रियाओं की तरह वायरसों का निर्माण लंबे समय तक इन उत्परिवर्तनों के जमा होने से होता है. तो भी अधिकांश अन्य जैविक क्रियाओं के मुकाबले वायरसों की जेनेटिक वेरिएंट को इकट्ठा करने की दर ज्यादा ऊंची होती है. दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ जेनोमिक्स ऐंड इंटिग्रेटिव बायोलॉजी के मुख्य वैज्ञानिक विनोद स्कारिया ने मुझे बताया, " सार्स-कोव-2 में जेनेटिक वैरिएंट को इकट्ठा करने की दर काफी स्थिर रही इसलिए इसकी एक निश्चित अवधि भी रही. महामारी की अवधि को हम जितने ही लंबे समय तक बने रहने देते हैं उतनी ही ज्यादा संभावना इस बात की होती है कि यह वायरस और भी ज्यादा जेनेटिक वेरिएंट को इकट्ठा रखेगा." इस वायरस के खास इलाकों में होने वाले उत्परिवर्तन इसे अलग विशिष्टताएं प्रदान करते हैं जिसकी वजह से यह चिंता का कारण बन जाता है. इसके अंदर इम्यून रिस्पांस को कम करने और डायगोनेस्टिक उपकरणों के जरिए इसका पता करने की संभावना कम हो जाती है, कारगर इलाज से भी इसका असर कम नहीं होता और इसकी संक्रमण की क्षमता बढ़ जाती है.
24 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह रहस्योदघाटन किया कि महाराष्ट्र से इंसाकाग द्वारा जो सैंपुल इकट्ठे किए गए थे उनमें से 15 से 20 प्रतिशत नमूनों में वायरस का एक नया स्वरूप देखने को मिला है और इस स्वरूप को बाद में बी॰1॰617 स्ट्रेन कहा गया. इसमें दो विशिष्ट किस्म के उत्परिवर्तित स्वरूप देखने को मिले जिन्हें ई484क्यू और एल452आर के रूप में चिन्हित किया गया. ई484क्यू बिलकुल वैसा ही था जैसा शुरुआती दिनों में ई484के के रूप में अमरावती में पाया गया था. एल452आर एक नया स्वरूप था जो प्रतिरोध क्षमता कम करने के लिए जाना जाता है. इन दोनों के मिश्रण से एक खास स्वरूप का जन्म हुआ जिसे ‘डबल म्यूटेंट’ कहा गया. दरअसल इस स्ट्रेन के और भी कई उत्परिवर्तित स्वरूप हैं लेकिन इन दो स्वरूपों ने ही इसे बहुत ज्यादा खतरनाक बना दिया. मंत्रालय से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि इनकी वजह से प्रतिरोध क्षमता कम होती है और दवाएं बेअसर साबित होती हैं. लेकिन इसके साथ ही इस नई खोज के महत्व को कम करके आंकने का भी प्रयास हुआः "इन्हें इतनी संख्या में नहीं पाया गया जिससे कुछ राज्यों में संक्रमण के मामलों में आई तेजी के साथ इनका सीधा संबंध स्थापित किया जा सके या उसकी व्याख्या की जा सके." सरकारी आंकड़े के अनुसार मार्च से कोविड-19 की वजह से 15 लाख से ज्यादा भारतीय मारे गए जो भारत में इस बीमारी से हुई मौतों का मोटे तौर पर किया गया अनुमान है. केंद्र सरकार आबादी पर इस नए वायरस के चिकित्सकीय प्रभावों के संदर्भ में अस्पष्ट है. स्कारिया और उनके इंसाकाग के सहकर्मियों को उपलब्ध सिक्वेंसिंग डाटा के अनुसार बी.1.1.7 वैरिएंट जिसे बोलचाल की भाषा में 'यूके वैरिएंट' कहा जाता है और बी॰1॰617, जो भारत में प्राप्त तथाकथित डबल म्यूटेंट वायरस है- इन दोनों ने ही फिलहाल देश के अधिकांश राज्यों में संक्रमण फैलाया है. अप्रैल के मध्य में यह खबर आई कि बी॰1॰617 उन 61 प्रतिशत नमूनों में पाया गया जिन्हें जनवरी से मार्च के बीच नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वायरोलॉजी ने महाराष्ट्र से इकट्ठा किए थे. 10 मई को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आधिकारिक तौर पर बी॰1॰617 को चिंता पैदा करने वाला वैरिएंट कहा. भारत सरकार अभी भी इस मामले में खामोश है.
इंसाकाग के एक सदस्य ने मुझे बताया, "सरकार शुरू से ही इस वैरिएंट को आधिकरिक तौर पर ‘चिंता पैदा करने वाले वैरिएंट’ के रूप में चिन्हित करने से हिचकिचा रही है. लेकिन जिस तरीके से और जितनी तेजी से यह भारत में फैल रहा है, मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि यह चिंता पैदा करने वाला वैरिएंट है."
उस सदस्य ने मुझसे कहा कि मार्च आते आते यह स्पष्ट हो गया था कि भारत की दूसरी लहर लाने में इस वैरिएंट की बड़ी भूमिका होगी. उन्होंने कहा कि "उस समय भी इसे लेकर चिंता थी. मार्च के पहले सप्ताह में एनसीडीसी ने स्वास्थ्य मंत्रालय को एक रिपोर्ट भेजी और रिपोर्ट मिलने के दो हफ्ते बाद सरकार ने मीडिया को इसके बारे में जानकारी दी." इंसाकाग के सदस्य तथा अन्य वैज्ञानिकों ने इस तथ्य के रहस्य का भी उद्घाटन किया कि नीति निर्माताओं या प्रधानमंत्री के कार्यालय तक उनकी सीधी पहुंच नहीं है. उनके निष्कर्षों को नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल को भेजा जाता है और फिर यह संस्था स्वास्थ्य मंत्रालय के सदस्यों तथा कोविड-19 के प्रबंधन के लिए बने 21 सदस्यीय राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स तक पहुंचाती है.
24 मार्च के प्रेस वक्तव्य में बी॰1॰617 से संबद्ध बढ़ते मामलों की जानकारी को लेकर इंसाकाग के सदस्यों ने अपनी चिंता पहले ही दर्ज करा दी थी लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह नहीं बताया कि ऐसी कोई बात है जिससे चिंता पैदा हो रही है. 1 मई को प्रकाशित रॉयटर्स की एक रिपोर्ट ने जानकारी दी कि सरकार ने वैज्ञानिकों द्वारा दी गई चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया. 10 मार्च को इंसाकाग के सदस्यों ने एनसीबीसी को एक रिपोर्ट दी जिसमें साफ तौर पर कहा गया था कि यह नया वैरिएंट और भी ज्यादा संक्रामक है और इसके अंदर ऐंटी बॉडी रेस्पांस को खत्म करने की क्षमता है. इस रिपोर्ट में सरकार को यह भी चेतावनी दी गई थी कि इस नए वैरिएंट की वजह से तेजी से कोरोना के मामलों में वृद्धि होगी. एनसीडीसी ने यह रिपोर्ट स्वास्थ्य मंत्रालय को भेज दी थी.
इंसाकाग के एक अन्य सदस्य राकेश मिश्रा ने रॉयटर्स की रिपोर्ट में कही गई बातों की पुष्टि की. राकेश मिश्रा ने, जिन्होंने हाल ही में सेंटर फॉर सेल्युलर ऐंड मालिक्युलर बायोलॉजी के निदेशक पद से अवकाश प्राप्त किया है, कहा कि इस नए स्ट्रेन से होने वाले गंभीर खतरे की जानकारी कंसोर्टियम को काफी पहले फरवरी के मध्य में हो गई थी. उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि अक्टूबर 2020 में ही इस उत्परिवर्तित स्वरूप का पहला सैंपुल महाराष्ट्र से लिया गया था और दिसंबर तक इसका अनुक्रमण (सिक्वेंसिंग) कर लिया गया था. उन्होंने आगे कहा, "लेकिन दिसंबर में हम पक्के तौर पर नहीं कह सकते थे कि इस नए स्ट्रेन को लेकर परेशान होने की कोई जरूरत है. इसके कुछ महीनों बाद हमने इकट्ठा किए गए नमूनों में इस स्ट्रेन की उच्चतर फ्रिक्वेंसी देखी तब हमें महसूस हुआ कि यह उत्परिवर्तित स्वरूप बहुत ज्यादा संक्रामक है. यह आबादी में अन्य स्ट्रेंस की मौजूदगी को कम कर रहा था."
रॉयटर्स की रिपोर्ट प्रकाशित होने के दो दिनों बाद 3 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय ने दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन किया. पहले की ही तरह इस बार भी अधिकारियों ने वैरिएंट से संबद्ध सवालों को टालने की कोशिश की, और स्पष्ट जवाब दिया और वादा किया कि आगे होने वाले संवाददाता सम्मेलनों में वे इस वैरिएंट की क्लीनिकल प्रॉपर्टीज के बारे में कुछ और जानकारी देंगे. यह पूछे जाने पर कि क्या मौजूदा स्ट्रेन वायरस के मूल स्ट्रेन से ज्यादा संक्रामक है, स्वास्थ्य मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने कहाः "जिन सभी वैरिएंट्स के बारे में हम चर्चा कर रहे हैं, बीमारी के प्रबंधन के संदर्भ में और संक्रमण के प्रसार के प्रबंधन के संबंध में जो काम हैं वे सभी पहले की ही तरह हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य के नजरिए से हम इस उत्परिवर्ती स्वरूप का महामारी संबंधी अध्ययन करते हैं, इसका विश्लेषण करते हैं और राज्यों को सलाह देते हैं. इनमें से कुछ ऐसे हैं जो एक से दूसरे तक पहुंचने की क्षमता बढ़ाते है और कुछ अन्य कारक भी हैं जिनके बारे में हम आपको बताएंगे. लेकिन मैं हर व्यक्ति से एक अनुरोध करना चाहता हूं. कोई उत्परिवर्तित स्वरूप हो या न हो, यह तय है कि कोविड-19 को नियंत्रित करने के संदर्भ में जो हमारे कदम हैं वे पहले की ही तरह हैं." इस संवाददाता सम्मेलन में एम्स के निदेशक डॉ॰ रणदीप गुलेरिया भी मौजूद थे और उन्होंने भी कहा कि "स्वरूप चाहे जो हो प्रबंधन के सिद्धांत एक जैसे ही हैं."
मैंने सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र के जिन विशेषज्ञों से बात की उन्हें अग्रवाल और गुलेरिया दोनों के नजरिए में जबर्दस्त खामी दिखाई दी. कोई भी नया स्ट्रेन किस तरह आबादी के माध्यम से प्रगति करता है, इसे समझने के लिए अनुक्रमण के विस्तार और अध्ययन को और गंभीरता से संचालित करने के जरिए समय पर हस्तक्षेप करने में मदद मिल सकती है. इस संदर्भ में पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ॰ के श्रीनाथ रेड्डी ने एक बातचीत में कहा, "किसी उत्परिवर्तित स्वरूप के बारे में तीन प्रमुख बातें होती हैं जिसका अध्ययन करना बहुत जरूरी है- पहला तो यह कि क्या यह स्ट्रेन और भी ज्यादा संक्रामक है? दूसरे, क्या यह ज्यादा घातक है और तीसरी बात यह कि क्या टीकाकरण से पैदा प्रतिरोध क्षमता को यह बेअसर कर देता है?" दूसरी लहर का प्रबंधन कैसे किया जाए इस संदर्भ में सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय पर पर्याप्त ध्यान देने में सरकार ने जो कोताही की वह उसकी सबसे बड़ी गड़बड़ी थी.
रेड्डी के अनुसार जब हमें यह पता चल जाता है कि अमुक वायरस ज्यादा संक्रामक है तो हम पहले से कड़े उपाय अपना लेते हैं और उस जगह पर, जहां खास तौर पर इस खतरनाक वायरस की मौजूदगी है, स्थानीय तौर पर लॉकडाउन लागू करने की व्यवस्था करते हैं. जब यह पता चल जाता है कि यह वायरस कितना खतरनाक है तो सरकार को अस्पतालों में गंभीर रूप से बीमार मरीजों की चिकित्सा के लिए संसाधनों की तैयारी का अवसर मिल जाता है क्योंकि जितना ही खतरनाक वायरस होगा उतना ही ज्यादा वह एक बड़ी आबादी को गंभीर रूप से बीमार करेगा. रेड्डी ने आगे कहा, "अंतिम बात यह है कि अगर हमें यह जानकारी हो जाए कि अमुक स्ट्रेन टीकाकरण से पैदा प्रतिरोध को प्रभावहीन कर रहा है जो मौजूदा टीका की क्षमता को कम करने जैसा है तो हम उपलब्ध टीका को ज्यादा प्रभावकारी बना सकते हैं या इस बात का अध्ययन कर सकते हैं कि कौन से स्ट्रेन पर कौन सा टीका ज्यादा कारगर साबित होगा. अगर हम खुद को बेहतर ढंग से तैयार रखना और ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाना चाहते हैं तो यह सारी जानकारियां बहुत महत्वपूर्ण हैं."
भारत की आबादी में जो अलग अलग तरह के वैरिएंट का प्रकोप है उनकी क्लीनिकल विशिष्टताओं पर उपलब्ध सीमित अनुसंधान और सीमित जेनोमिक सिक्वेंसिंग की वजह से हमारे सामने कोई स्पष्टता नहीं है कि कोई खास वैरिएंट संक्रमण को किस तरह से आगे बढ़ा रहा है. इस संदर्भ में रेड्डी ने कहा कि, "बस इतना ही कहा जा सकता है कि यह अपेक्षाकृत ज्यादा संक्रमण बढ़ाने वाला स्ट्रेन है और इस तरह का निष्कर्ष भी घटनाओं से प्राप्त साक्ष्य पर आधारित है. अभी के लिए हमारे पास जो भी साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत है ताकि हम पर्याप्त सावधानी बरत सकें."
रेड्डी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा कोविड-19 के लिए गठित 21 सदस्यीय राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के सदस्य हैं. इस टॉस्क फोर्स में देश भर के प्रमुख वैज्ञानिक हैं और इसका मकसद महामारी से निपटने के मोदी सरकार के प्रयासों को सलाह देना है. लेकिन जब से इसका गठन हुआ सरकार ने इन वैज्ञानिकों और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के सलाह की पूरी तरह अवहेलना की और छद्म वैज्ञानिक उपायों को बढ़ावा दिया तथा महामारी प्रबंधन की दिशा में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया. एक पूर्व स्वास्थ्य सचिव के॰ सुजाता राव ने मुझे बताया, "मैं यह महसूस करने के लिए विवश हूं कि हम आज ऐसी हालत में इसलिए फंस गए हैं क्योंकि सत्ता में जो राजनीतिक पार्टी बैठी है उसका बुनियादी तौर पर विज्ञान विरोधी और बौद्धिकता विरोधी नजरिया है और इस तरह का दृष्टिकोण हमेशा आंकड़ों तथा ज्ञान को कम करके आंकता है."
अप्रैल 2020 में कारवां ने यह खबर दी कि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने से पहले मोदी प्रशासन ने आईसीएमआर के टॉस्क फोर्स के सदस्यों से सलाह मश्विरा नहीं किया. इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि यह निर्णय लेने से पहले वाले सप्ताह में टॉस्क फोर्स की बैठक तक नहीं हुई. इसी वर्ष मार्च में बीबीसी ने खबर दी कि "इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि लॉकडाउन लागू करते समय प्रमुख विशेषज्ञों अथवा सरकारी विभागों से किसी तरह का सलाह मश्विरा किया गया." यह जानकारी हासिल करने के लिए बीबीसी के पत्रकारों ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत 240 आवेदन दिए थे. महामारी प्रबंधन और निगरानी के बारे में गठित आईसीएमआर की 12 सदस्यों वाली उपसमिति के दो सदस्यों ने इस बात की पुष्टि की कि मार्च 2020 में राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू करने से पहले उन लोगों के साथ किसी तरह का विचार विमर्श नहीं किया गया. यह उपसमिति खासतौर पर इसलिए बनाई गई थी कि वह सरकार को सलाह दे कि कब आंशिक अथवा पूर्ण लॉकडाउन लागू किया जाए. इस उपसमिति से जुड़े एक डॉक्टर और संक्रामक रोगों के विशेषज्ञ ने मुझसे कहा कि, "हम लोगों को बुनियादी तौर पर महज इस दिखावे के लिए रखा गया है कि सरकार वैज्ञानिक सलाह ले रही है. हमारी भूमिका कुछ भी नहीं है. ज्यादातर मामलों में हम अनुसंधान की योजनाओं को लेकर आते हैं लेकिन शुरू से ही यह स्पष्ट हो गया था कि हमारी सलाह का स्वागत नहीं किया जा रहा है."
महामारी की दूसरी लहर से पहले भी कुछ इसी तरह की घटनाएं देखने में आईं. अप्रैल में कारवां ने खबर दी कि कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे थे फिर भी पूरे फरवरी और मार्च के महीने में राष्ट्रीय टास्क फोर्स की एक बार भी बैठक नहीं हुई. फरवरी के मध्य तक साफ तौर पर यह दिखाई दे रहा था कि दूसरी लहर अवश्यंभावी है, बावजूद इसके 15 अप्रैल तक टीम की बैठक नहीं हुई.
"यह बहुत परेशान करने वाली बात है," टॉस्क फोर्स के एक सदस्य ने, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं, कहा, "बहुत सारे ऐसे कार्यक्रम हैं जिनका सरोकार सार्वजनिक स्वास्थ्य से है जिन्हें हम लागू करना चाहते हैं और जिन पर इन बैठकों में बातचीत करना चाहते हैं लेकिन आप चाहे अधिकारियों से कितनी भी गुहार क्यों न लगाएं, आपकी बातों का वे जवाब नहीं देते. संक्रमित मरीजों के मामले में वृद्धि से लेकर रोग के बढ़ने की प्रवृत्तियों की हर जानकारी इन लोगों को दी गई लेकिन इन्होंने क्या किया?"
मैंने राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के दो सदस्यों और महामारी विज्ञान से संबंधित उप समिति के दो सदस्यों से बातचीत की और इन सबने यह स्वीकार किया कि टॉस्क फोर्स और इसकी उपसमितियां मोदी सरकार के लिए महज प्रतीकात्मक भूमिका निभाने का काम करती हैं. इस बीच निर्णय लेने का कार्य वैज्ञानिक सलाहों से अलग स्वतंत्र रूप से चलता रहा. टॉस्क फोर्स के एक अन्य सदस्य और महामारी विज्ञान के विशेषज्ञ ने बताया कि, "वे लोग पहले से तय एजेंडा लेकर विचार विमर्श के लिए आते हैं. अगर आप उससे कुछ अधिक कहना चाहते हैं या उनके एजेंडा से थोड़ा अलग हटकर विचार विमर्श करना चाहते हैं तो इसे बैठक खत्म होने के बाद रखा जा सकता है. लेकिन सबको यह पता है कि बैठक के बाद आपकी किसी भी सिफारिश पर कहीं कोई सुनवाई नहीं है."
महामारी विज्ञान विशेषज्ञ जब ‘वे’ कह रहा था तो उसका संदर्भ टॉस्क फोर्स के महत्वपूर्ण सदस्यों और वास्तविक अर्थों में इसके नेताओं से था जो इन सलाहकार समितियों और सरकार के बीच काम कर रहे थे. इन नेताओं में शामिल हैं एम्स के निदेशक डॉ॰ गुलेरिया, आईसीएमआर के महानिदेशक बलराम भार्गव, और मोदी सरकार द्वारा 2014 में गठित नीतिआयोग के सदस्य विनोद के॰ पॉल. टॉस्क फोर्स के सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने कहा कि ये नेतागण "विशेषज्ञ क्लीनीशियन हैं, अच्छे वैज्ञानिक हैं लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ नहीं हैं. उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि जमीनी स्तर पर कैसे काम होता है. क्या उन्हें पता है कि ग्रामीण भारत में क्या कुछ घटित हो रहा है? क्या उन्हें पता है कि जिला स्वास्थ्य अधिकारी को किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है? क्या उन्हें पता है कि सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी के रूप में प्रशिक्षित स्थानीय महिलाएं हर रोज किन स्थितियों का सामना कर रही हैं? ये ऐसे लोग हैं जो हाथी दांत की मीनारों में बैठकर फैसले लेते हैं और इन फैसलों का जमीनी यथार्थ से कोई संबंध नहीं होता."
इस महामारी से निपटने में भारत के जो प्रयास थे उनकी छानबीन विनोद के॰ पॉल की भूमिका के अध्ययन के बिना नहीं की जा सकती. राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स का नेतृत्व करने के अलावा पॉल नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप आन वैक्सिन एडमिनिस्ट्रेशन के भी अध्यक्ष हैं. यह ग्रुप देश में कोविड-19 के टीकाकरण कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करता है और देशभर में टीके की व्यवस्था करने से संबंधित निर्णय लेता है. नीति आयोग के सदस्य के रूप में पॉल की भूमिका नेशनल हेल्थ स्टैक के लिए रणनीतिक दस्तावेज तैयार करने में भी रही है. ‘नेशनल हेल्थ स्टैक' भारत में स्वास्थ्य प्रणाली को डिजिटल स्वरूप देने का एक प्रस्ताव है. सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने बताया कि "समूचे तामझाम के केंद्र में डॉ॰ पॉल हैं, हर मामले में उनकी ही चलती है."
पॉल एक बाल रोग विशेषज्ञ हैं और वह दिल्ली में एम्स की फैकल्टी के सदस्य थे. नीति आयोग में आने से पहले और एम्स से रिटायर होने से पहले उन्होंने अनेक वर्षों तक एम्स के बाल रोग विभाग की अध्यक्षता की. 2017 में वह रिटायर हुए लेकिन रिटायर होने से पहले वह गुलेरिया और भार्गव के साथ एम्स का निदेशक पद पाने की होड़ में शामिल थे. एक पूर्व नौकरशाह ने, जो स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ काम कर चुका था, मुझसे कहा कि, "सबने सोचा था कि उन्हें बगैर किसी संदेह के एम्स के निदेशक का पद मिल जाएगा. लेकिन जब उनके स्थान पर यह पद गुलेरिया को मिला तो सरकार ने उन्हें पुरस्कार स्वरूप नीति आयोग का पद दे दिया जो संभवतः उनके लिए बेहतर साबित हुआ."
पूर्व नौकरशाह ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में नीति आयोग एक ऐसा ‘गोपनीय कक्ष’ बन गया है जहां उन सारी नीतियों को तैयार किया जाता है जिसके बारे में प्रधानमंत्री का कार्यालय सोचता है. उन्होंने बताया कि नीति आयोग इतना शक्तिशाली है कि अगर यहां के थिंक टैंक द्वारा कोई फैसला ले लिया गया तो किसी भी मंत्रालय के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह उस फैसले पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि, "नीति बनाने का यह एक अस्वस्थ ढांचा है. पहले की सरकारों के साथ कम से कम यह बात तो जुड़ी थी कि देश की सभी समस्याओं के लिए उनके पास ऐसे मंत्रालय थे जिनके पास कुछ ताकत थी जो प्रेस, नागरिक समाज और अदालत के प्रति कुछ हद तक जवाबदेह थे." पूर्व नौकरशाह ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय की भूमिका निरंतर घटती चली गई है. स्वास्थ्य नीति से संबंधित सभी बड़े फैसले- यहां तक कि सरकार की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना भी नीति आयोग की पहल से शुरू की गई. यह भारी धनराशि से तैयार राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य बीमा योजना है.
देश के अंदर सभी स्वास्थ्य संबंधी नीति निर्माण के केंद्र में विनोद के॰ पॉल हैं. और अब महामारी से संबंधित कार्यों में निर्णय लेने के भी वही सर्वेसर्वा हैं. राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के सदस्य और साथ ही एम्स के एक पूर्व वरिष्ठ सलाहकार, जिन्होंने पॉल के साथ काफी निकट रहकर काम किया है, उन्हें एक सज्जन और गर्मजोशी से भरा व्यक्ति बताया है जो सबकी बातें ध्यान से सुनता है और जो एक सफल वक्ता है. एम्स के पूर्व कंसल्टेंट का कहना है कि, "लेकिन इन सारी विशेषताओं से जरूरी नहीं कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य के भी विशेषज्ञ हों. निश्चित तौर पर वह अत्यंत योग्य और सक्षम व्यक्ति हैं लेकिन केवल एक व्यक्ति द्वारा फैसले नहीं लिए जा सकते."
संक्रामक रोगों के अध्ययन के एक विशेषज्ञ ने, जो इस विषय पर बनी उपसमिति के अंग हैं, मुझसे बताया कि पॉल ने इस संगठन की बैठकों में आना पहले से ही बंद कर दिया था. उनका कहना है कि, "जाहिर सी बात है कि हम लोग उन बैठकों में जो भी विचार विमर्श करते थे वह उच्च अधिकरियों तक नहीं पहुंचती थी... और अगर पहुंचती भी थी तो बेशक हमारे राजनीतिज्ञों द्वारा उसकी अवहेलना कर दी जाती थी. शुरू से ही यह जाहिर हो गया था कि हमें जो कहना है उसमें राजनीतिक वर्ग की कोई दिलचस्पी नहीं थी. जो भी हो, सार्वजनिक स्वास्थ्य का मामला भी राजनीति का ही मामला है. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप एक अच्छी राजनीति का ही परिणाम होता है. और अभी जो राजनीतिक परिदृश्य सामने दिखाई दे रहा है उसमें मुझे बहुत उम्मीद नहीं है. पॉल को उनके ई मेल पर कुछ सवाल भेजे गए थे जिनका उन्होंने उत्तर नहीं दिया.
राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ की यह धारणा थी कि बाबुओं और उनके चमचों द्वारा जो फैसले लिए जाते हैं, उन्हीं फैसलों ने आज हमें मौजूदा मानवीय संकट के बीच खड़ा कर दिया है. उन्होंने कहा कि, "ऐसी हालत में अगर आप इस सरकार के चमचे नहीं हैं तो सत्ता के उस पद पर पहुंचेंगे कैसे? राष्ट्रीय टॉस्क फोर्स के पॉल तथा अन्य नेताओं का उल्लेख करते हुए, जिनकी पहुंच के अंदर प्रधानमंत्री कार्यालय है, कहा, "अगर आपने प्रधनमंत्री को खुश करने की बजाय वैज्ञानिक सोच और सार्वजनिक क्षेत्र में समय रहते हस्तक्षेप के बारे में सोचा तो इस सरकार के लिए आपकी राय पूरी तरह बकवास है."
हरियाणा की सोनीपत जिले की 41 वर्षीय सुनीता रानी पुरानी आशा कार्यकर्ता हैं जो एक अजीब दुःस्वप्न के दौर से गुजर रही थीं. मई के मध्य में उन्होंने फोन पर मुझसे कहा, "दहशत है, मैडम, दहशत. जीने का मतलब क्या है समझ नहीं आता." सुनीता ने बताया कि उसके अपने गांव और सोनीपत के हलालपुर इलाके के आसपास के गांवों में लोग जब तक यह समझें कि वे बीमार हैं, मौत के शिकार हुए जा रहे हैं. अस्पताल जाने की नौबत ही नहीं आ रही है. उन्होंने कहा कि, "हम यह जान भी नहीं पाते हैं कि यह कोविड है. हमारी जांच करने से पहले ही वे मर जाते हैं." इस अफरातफरी और निराशा के बीच बहुत सारे लोग टीका लगवाने के लिए उत्सुक हैं और वे हर रोज उनसे कहते हैं कि वह पता करे कि उन्हें कब टीके की दूसरी खुराक मिल सकती है. "लेकिन मैं उनसे क्या कहूं- टीका है ही नहीं. हमारे उपकेंद्र के बाहर लोग लाइन लगा कर खड़े होते हैं और हमें वापस उन्हें घर भेजना पड़ता है क्योंकि टीके की पर्याप्त सप्लाई नहीं है."
सुनीता ने मुझे बताया कि मार्च की समाप्ति तक टीके की पर्याप्त सप्लाई थी और उसका काम गांव वालों को टीका लगवाने के लिए राजी कराना था. उसने कहा कि, "टीके के साइड इफेक्ट के बारे में लोगों ने बहुत सारी अफवाहें सुनी थीं... और साफ साफ कहूं तो कई लोगों को ऐसा महसूस भी हुआ था लेकिन सीधी बात यह थी कि अगर वे सुरक्षित रहना चाहते हैं तो उन्हें टीका लगवाना ही होगा. इसलिए हम रात दिन घर घर जाकर सर्वेक्षण करते थे और परिवार के उन सदस्यों को टीका लगवाने के लिए कहते थे जो इसके योग्य थे."
एक आशा वर्कर के रूप में सुनीता की जिम्मेदारी श्रीराम कालोनी को सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करनी थी. सुनीता ने बताया कि, "हमें लोगों को अप्रैल के मध्य में टीके की दूसरी खुराक देनी थी लेकिन यह काम 12 मई तक पूरा हुआ- एक महीने बाद तक. हमें केवल 100 लोगों के लिए ही दूसरी खुराक मिली जबकि 140 लोग इंतजार कर रहे थे. अगर लोगों को समय से टीका मिल जाता तो हो सकता है उनके जीवित रहने की संभावना बढ़ जाती." खुद सुनीता का भाई कोविड-19 की चपेट में आकर मर गया जबकि कुछ ही दिन पहले उसे टीके की दूसरी खुराक लगनी थी. सुनीता ने कहा कि, "अब जान बचाने के लिए टीके का सहारा लेने का भी कोई मतलब नहीं... किसी भी चीज का कोई मतलब नहीं."
सरकार की तीसरी बड़ी विफलता इसके टीकाकरण कार्यक्रम से संबंधित है. आज हालत यह है कि भारत इस टीके का सबसे बड़ा निर्माता होने के बावजूद इसकी जबर्दस्त कमी झेल रहा है. स्वास्थ्य मंत्री बराबर यह कह रहे हैं कि टीकों की कोई कमी नहीं है जबकि पूरे देश में आपूर्ति न होने की वजह से बीच बीच में टीका स्थलों पर काम रोकना पड़ रहा है. जरूरत की खुराक हासिल करने की होड़ में कम से कम 9 राज्यों ने ऐलान किया है कि वे अपने नागरिकों के लिए टीका खरीदने के मकसद से ग्लोबल टेंडर देने जा रहे हैं. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सोशल मेडिसिन ऐंड कम्युनिटी हेल्थ के प्रोफेसर डॉ॰ राजीव दास गुप्ता का कहना है कि, "जहां तक मेरी जानकारी है किसी भी और देश में उस देश के अंदर के राज्य राष्ट्रीय अथवा वैश्विक स्तर पर टीके की खरीदारी नहीं कर रहे हैं." मई में टीका बनाने वाली दो कंपनियों फाइजर और मॉडर्ना ने सीधे पंजाब को टीका बेचने से इनकार कर दिया क्योंकि जैसी कि उनकी नीति है उसके अनुसार वे केवल किसी देश की सरकार के साथ ही व्यापार कर सकते हैं.
अब तक भारत में जो भी रोग प्रतिरक्षण कार्यक्रम चले हैं उनमें यह नीति रही है कि केंद्र सरकार सभी तरह के टीकों को हासिल करने और फिर उन्हें राज्यों में वितरित करने की जिम्मेदार है. राज्यों को बस इस बात पर नियंत्रण रखना है कि वे किस तरह अपने नागरिकों के बीच टीका लगाने का कार्यक्रम चलाते हैं. भारत के सर्व टीकाकरण कार्यक्रम (यूआईपी) के अंतर्गत तकरीबन प्रतिवर्ष टीकों की 39 करोड़ खुराक गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं को दी जाती है. यूआईपी पूरी तरह उस सप्लाई चेन पर निर्भर है जिसने वर्षों में अपने को सुदृढ़ किया है और राष्ट्रीय आबादी के 62 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को टीकाकरण का लाभ पहुंचाया है. पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले के सामुदायिक स्वास्थ्य क्षेत्र के एक डॉक्टर प्रवीण चटर्जी का कहना है कि "कोविड-19 के टीकाकरण कार्यक्रम के लिए इस प्रणाली को उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन केंद्र सरकार ने शायद पर्याप्त टीके हासिल करने की अपनी विफलता को छुपाने के लिए एक बकवास नीति तैयार की और राज्यों पर जिम्मेदारी थोप दी." डॉ॰ प्रवीण चटर्जी यूनिसेफ के लिए बतौर सलाहकार काम कर चुके हैं.
भारत में कोविड टीकाकरण कार्यक्रम के पहले दो चरणों मे केंद्र सरकार ही टीका जुटाने का काम देखती रही. सभी वयस्कों के लिए टीकाकरण का द्वार खोलने से पहले 21 अप्रैल को केंद्र सरकार ने एक नई रणनीति जारी की जिसे "उदारीकृत मूल्य प्रणाली और संवर्धित राष्ट्रीय कोविड-19 टीकाकरण रणनीति' नाम दिया गया. इस रणनीति में कहा गया कि घरेलू निर्माता अपने कुल स्टॉक का 50 प्रतिशत केंद्र सरकार को बेचेंगे जबकि बाकी बचे टीके को सीधे तौर पर राज्य सरकारें अथवा निजी हॉस्पिटल पा सकते हैं. इसने निजी अस्पतालों और उद्योगों को इस बात की इजाजत दे दी कि वे निर्माताओं से सीधे खरीद सकते हैं और साथ ही व्यापारिक तौर पर बेचे गए टीकों के लिए 250 रुपए की जो निर्धारित दर थी उसे भी समाप्त कर निर्माताओं को यह छूट दी कि वे अपनी पसंद के हिसाब से टीके की दर तय करें. सरकार ने रणनीति से संबंधित अपने दस्तावेज में टीकाकरण कार्यक्रम के बारे में कहा कि "इस उदारीकरण से एक तरफ तो टीका निर्माताओं को बड़े पैमाने पर उत्पादन करने की प्रेरणा मिलेगी और दूसरी तरफ इससे आकर्षित होकर कुछ नए निर्माता टीका बनाना शुरू कर देंगे."
इस नीति के नतीजे के तौर पर विभिन्न राज्यों में मांग तो बढ़ गई लेकिन केंद्र से टीकों की सप्लाई में कमी बनी रही लिहाजा वे वयस्क जो टीका लगवाने योग्य हो चुके थे सरकार द्वारा विकसित 'कोविन' साइट पर अपने लिए स्लॉट ढूंढने लगे लेकिन इसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली. राज्यों ने न केवल टीके की सप्लाई के लिए वैश्विक निर्माताओं की ओर रुख किया बल्कि उन्होंने ग्लोबल वैक्सिन एलायंस की पहल से बने कोवैक्स से भी इस बात की कोशिश की कि सारी दुनिया में समान ढंग से टीकों का वितरण सुनिश्चित किया जाए.
मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में स्कूल आफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफेसर आर॰ रामकुमार ने मुझे बताया कि "सरकार ने बाजार को पूरी तरह खंडित कर दिया है, इसे बहुत अपारदर्शी और अक्षम बना दिया है और पूरी तरह जनता की स्वास्थ्य सेवा संबंधी जरूरतों की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया है." प्रो॰ रामकुमार भारत की विकासशील टीका नीति का बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं और उनका कहना है कि चूंकि ये टीके जनता के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए निर्मित किए गए हैं इसलिए इसे समान रूप से जनता के बीच पहुंचाने में सरकार की विफलता सीधे तौर पर स्वास्थ्य के संवैधानिक अधिकार कर उल्लंघन है.
उन्होंने आगे कहा कि जनता की मांग का अनुमान लगाने और पहले से ही उस मांग के अनुरूप टीकों की व्यवस्था करने में सरकार विफल रही है और उसकी अब यह ‘उदारवादी’ रणनीति अपनी विफलता पर पैबंद लगाने जैसी है. मई तक की जानकारी यह है कि मोदी सरकार सभी टीके पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक से ले रही थी. सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड का और भारत बायोटेक ने आईएमआर के साथ मिलकर देशज टीका कोवैक्सिन का निर्माण किया है. इन दोनों टीकों को जनवरी 2021 में इस्तेमाल करने की स्वीकृति दी गयी. इस संदर्भ में पिछले वर्ष स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जो दिशानिर्देश जारी किए गए उसमें सरकार ने कहा था कि इसका इरादा टीकाकरण अभियान के पहले चरण में 30 करोड़ लोगों को टीका लगाना है. 27 मई तक 20 करोड़ से कुछ ज्यादा लोगों को टीका लगाया गया जिसमें से 4 करोड़ 40 लाख से भी कम ऐसे लोग थे जिन्हें दूसरी खुराक लग चुकी था. इसका अर्थ यह हुआ कि जिनका टीकाकरण हुआ था उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनकी प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं हुई थी.
टीकाकरण की इस धीमी रफ्तार के बीच केंद्र सरकार ने 13 मई को एक पत्रकार सम्मेलन में वैक्सिन की खुराक प्राप्त करने की अपनी योजना के बारे में एक आशावादी तस्वीर प्रस्तुत की और दावा किया कि अगस्त से लेकर दिसंबर के बीच भारत के पास दो बिलियन खुराक की भरपूर मात्रा होगी. सरकार की ओर से यह व्याख्या की गई कि इस लक्ष्य को मौजूदा दो घरेलू निर्माताओं की क्षमता को बढ़ाकर और इसके साथ ही रूस द्वारा निर्मित स्पुतनिक वैक्सिन को हासिल कर पूरा किया जाएगा. यह भी बताया गया कि कुछ और वैक्सिन भी मिल सकते हैं जो अभी विकसित किए जा रहे हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और टीकाकरण के क्षेत्र में काम कर रहे डॉ॰ चंद्रकांत लाहेरिया ने बताया कि "यह सबसे अच्छा परिदृश्य है. यथार्थ में उत्पादन बढ़ाने के मामले में अनेक जटिल चुनौतियां हैं. अगर यह काम इतना आसान होता तो हम पहले ही इसे पूरा कर चुके होते. इसके अलावा अभी सरकार जिन टीकों पर निर्भर कर रही है उनमें से अधिकांश विकास के चरण में हैं. यह कैसे कहा जा सकता है कि इन्हें कब स्वीकृति मिलेगी?"
पत्रकार वार्ता में जो दावे किए गए थे वे 10 मई को सुप्रिम कोर्ट में केंद्र सरकार के एक हलफनामे में भी दिखाई दिए. यह हलफनामा महामारी के प्रबंधन की दिशा में सरकार के प्रयासों पर जजों द्वारा उठाये गए सवाल के जवाब में था. सरकार ने यह जानकारी दी कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की क्षमता प्रतिमाह 5 करोड़ खुराक के उत्पादन की है जिसे बढ़ाकर साढ़े छह करोड़ कर दिया गया है. इसी प्रकार प्रतिमाह 90 लाख खुराक की क्षमता वाले भारत बायोटेक की क्षमता को बढ़ाकर दो करोड़ कर दिया गया है और इसे और भी बढ़ाकर साढ़े पांच करोड़ कर दिया जाएगा. सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया अगर केंद्र सरकार के लिए पूरी तरह साढ़े छह करोड़ खुराक का निर्माण कर ले तो भी 75 करोड़ कोविशील्ड की खुराक के निर्माण के लिए एक वर्ष का समय लगेगा जिसके बारे में सरकार दावा कर रही है कि वह इस वर्ष अगस्त से दिसंबर के बीच उपलब्ध हो जाएगा. जिस रफ्तार से भारत बायोटेक कोवैक्सिन का उत्पादन कर रहा है उस हिसाब से 55 करोड़ खुराक के सरकार के लक्ष्य को प्राप्त करने में उसे कम से कम 10 महीने लगेंगे.
"ये सब बातें गणित की नहीं हैं- ये पूर्वानुमान बिलकुल आधरहीन हैं," प्रो॰ रामकुमार ने कहा. उन्होंने यह भी कहा कि आपूर्ति के प्रयासों में सरकार की ढिलाई साफतौर पर देखी गई है. उन्होंने कहा कि "अगर आप 2021 के अंत तक 18 वर्ष की आयु से ऊपर की समूची आबादी का टीकाकरण करना चाहते हैं तो हमें कम से कम 54 लाख खुराक प्रतिदिन के हिसाब से व्यवस्था करनी होगी जबकि अभी हम 20 लाख से कुछ अधिक की ही व्यवस्था कर पाए हैं."
सरकार को यह अच्छी तरह पता है कि एसआईआई और भारत बायोटेक की सम्मिलित उत्पादन क्षमता क्या है, फिर भी वह टीकाकरण के बारे में ऐसे दावे पेश कर रही है जिन्हें हासिल ही नहीं किया जा सकता. इसने देश के अंदर सभी वयस्कों के लिए टीकाकरण की घोषणा कर दी जबकि इसे अच्छी तरह पता था कि सप्लाई की जो स्थिति है उसे देखते हुए इतनी बड़ी आबादी को टीकाकरण के दायरे में लाना संभव ही नहीं है. नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप आन वैक्सीन्स के अध्यक्ष एन के अरोड़ा ने बताया कि इस ग्रुप ने सरकार को सलाह दी थी कि वह कोविड-19 टीकाकरण अभियान को फिलहाल 45 वर्ष से अधिक की आयु के लोगों तक ही सीमित रखे. अरोड़ा ने बताया कि सरकार को भी पता था कि उसके पास 45 वर्ष की आयु से ऊपर के वरीयता समूहों के लिए ही टीका उपलब्ध है.
काफी पहले नवंबर 2020 में यानी भारत में टीकाकरण की स्वीकृति पर विचार करने से भी पहले स्वास्थ्य पर बनी संसदीय स्थायी समिति ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें इसने सरकार को सलाह दी कि वह टीकों की उपलब्ध्ता को ध्यान में रखकर कोई योजना बनाए. इस रिपोर्ट में कहा गया था- "देश के अंदर वैक्सिन उत्पादन क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि करनी होगी ताकि सभी नागरिकों को इसे उपलब्ध कराया जा सके." समिति ने सरकार से यह भी कहा कि वह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित ‘स्ट्रेटजिक एलोकेशन’ योजना के अनुसार ही टीका लगाने का काम शुरू करे. इस योजना में जब तक सबके लिए टीका उपलब्ध न हो जाए केवल उन्हीं समूहों को प्राथमिकता दी जाए जिनके लिए जोखिम सबसे ज्यादा है. लाहेरिया का कहना है कि, "बिलकुल इसी तरह की योजना बनाई जानी चाहिए थी. किसी भी टीकाकरण कार्यक्रम के लिए जरूरी है कि कार्यक्रम शुरू करने से पहले टीके की सप्लाई सुनिश्चित हो. इसलिए मौजूदा तरीका पूरी तरह विध्वंसक है क्योंकि हमने टीकाकरण कार्यक्रम शुरू तो कर दिया जबकि हमारे पास जो सप्लाई थी उससे तीन गुना ज्यादा आबादी थी."
प्रो॰ रामकुमार ने बताया कि वैक्सिन हासिल करने की रणनीति में तीन तरीकों से सरकार असफल साबित हुई. पहली बात तो यह कि इसने समय रहते विदेशी वैक्सिन को स्वीकृति देने से इनकार किया. उन्होंने कहा कि "सरकार ने फाइजर वैक्सिन को परीक्षण पूरा न होने की वजह से स्वीकृति देने से मना किया जबकि एसआईआई को तभी स्वीकृति दे दी गई जब उसका परीक्षण अभी पूरा नहीं हुआ था. इसके पीछे रणनीति यह दिखाने की थी कि केवल वही वैक्सिन उपलब्ध हैं जो भारत में निर्मित हैं... मतलब यह दिखाना कि भारत कितना आत्मनिर्भर है." दूसरी विफलता यह है कि सरकार ने वैक्सिन बनाने वाली कंपनियों में पर्याप्त निवेश नहीं किया और इस प्रकार अत्यंत रियायती दर पर भारतीय बाजार को उनकी सारी सप्लाई देने के लिए कहा जिसमें उन कंपनियों का कम फायदा था.
एसआईआई के सीईओ अडर पूनावाला ने दावा किया कि भारतीय बाजार की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय बाजार को उन्होंने कम मूल्य पर कोविशील्ड की सप्लाई की क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों ने काफी पहले अपना आर्डर दिया और ‘जोखिम उठाते हुए पूंजी निवेश किया’ जबकि, जैसा कि उनका दावा है, भारत सरकार ने ऐसा करने से इनकार किया. रामकुमार का कहना है कि, "मिसाल के तौर पर अमेरिका ने उस समय ही वैक्सिन के लिए दो बिलियन डॉलर का निवेश किया जब अभी इसके उत्पादन की प्रक्रिया शुरू भी नहीं हुई थी. भारत ने ऐसा नहीं किया और इसी वजह से उसके पास इस बात कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि वह इन कंपनियों से अपनी मनचाही कीमत पर वैक्सिन देने को कहे." रामकुमार के अनुसार यह सरकार की तीसरी विफलता थी- अग्रिम ऑर्डर देने में विफलता. अंत में सरकार ने जब वैक्सिन का ऑर्डर दिया तो उत्पादन का अधिकांश हिस्सा दूसरे खरीदारों के लिए पहले से ही तय हो चुका था.
वैक्सिन बनाने वाली कंपनियों में पूंजी निवेश किए बिना या खरीद के लिए अग्रिम ऑर्डर देने में पैसे खर्च किए बिना ही सरकार आसानी से कोवैक्सिन के उत्पादन में वृद्धि कर सकती थी क्योंकि भारत बायोटेक के साथ वैक्सिन के मामले में बौद्धिक संपदा अधिकार में भारत सरकार साझीदार है. इस अधिकार पर स्वामित्व की वजह से सरकार के पास यह गुंजाइश रहती है कि वह अन्य स्थानीय वैक्सिन निर्माताओं के साथ अपनी टेक्नॉलॉजी को साझा कर सके. रामकुमार का सवाल है कि, "अगर आपके पास ये अधिकार थे तो क्यों नहीं आपने साथ साथ और कंपनियों को भी वैक्सिन बनाने की इजाजत दी? क्यों केवल भारत बायोटेक को ही अकेले यह अधिकार दिया गया?" एक माह पूर्व केंद्र सरकार ने मुंबई स्थित हाफ्किन इंस्टीट्यूट को कोवैक्सिन बनाने की इजाजत दी. इंस्टीट्यूट के प्रबंध निदेशक ने कहा कि वैक्सिन की खुराक का उत्पादन शुरू करने में कंपनी को कम से कम 8 से 10 महीने लगेंगे. इसके अलावा भारत बायोटेक की योजना है कि वह कुछ अन्य निर्माता इकाइयों को कोवैक्सिन का उत्पादन शुरू करने के लिए अपने साथ जोड़े और इसका दावा है कि उस हालत में यह प्रतिवर्ष दो बिलियन खुराक का उत्पादन करने में सक्षम हो जाएगा. लेकिन इसकी संभावना नहीं दिखाई देती कि वर्ष के अंत तक कंपनी इस क्षमता को हासिल कर सकेगी. वैक्सिन निर्माताओं ने भी वैक्सिन हासिल करने के सरकार के आशावादी लक्ष्य पर संदेह व्यक्त किया है.
वैक्सिन सप्लाई को उदार बनाने के सरकार के फैसले ने भी वैक्सिन असमानता की स्थिति पैदा कर दी है जिससे उन लोगों के बीच कुहराम मच गया है जो सुविधासंपन्न नहीं हैं और हाशिए पर हैं. लाहेरिया का कहना है कि, "भारत को छोड़कर दुनिया के सभी देश केंद्रीय स्तर पर वैक्सिन हासिल कर रहे हैं- सभी देश. प्रतिस्पर्धात्मक कीमतें और साथ में वैक्सिन की कमी तथा वैक्सिन के लिए कोई निश्चित मूल्य सीमा का निर्धारण न किया जाना यह बताता है कि अधिकांश लोगों के लिए वैक्सिन का लाभ लेना उनकी हैसियत से बाहर की बात होगी क्योंकि भारी कीमत देने में समर्थ समृद्ध लोग इसे निजी कंपनियों से अपने लिए हासिल कर लेंगे.
जरूरी नहीं कि टीकाकरण से कोरोना की मौजूदा लहर में जीवन बच ही जाए लेकिन इतना तो तय है कि भविष्य में आने वाली लहरों के प्रभाव को इससे कम किया जा सकता है. बीमारी की किसी नई लहर से पूरी तरह बचाव के लिए आबादी के कम से कम 60 से 70 प्रतिशत लोगों का टीकाकरण होना जरूरी है. टीकाकरण की जो मौजूदा रफ्तार है उसे देखते हुए इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि इतनी बड़ी आबादी को यानी 80 करोड़ से लेकर 1 बिलियन लोगों को भारत में 2021 के अंत तक पूरी तरह टीका लगा दिया जाएगा. तो भी भले ही टीका लगाने से रोग के संक्रमण पर पूरी रोक न लगाई जा सके लेकिन महामारी के दौरान जीवन बचाने में इन टीकों का महत्वपूर्ण योगदान है. कारवां ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि टीका लगाने के बाद भी अनेक स्वास्थ्यकर्मियों को पॉजिटिव पाया गया लेकिन टीकाकरण की वजह से वे गंभीर लक्षणों के प्रकट होने से बचे रहे और उन्हें अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा.
जहां तक टीके से बी॰1.617 वायरस के वेरिएंट से बचाव का सवाल है, आईसीएमआर और एनआईबी द्वारा संचालित एक प्रारंभिक अध्ययन में बताया गया है कि कोवैक्सिन इस वेरीएंट और साथ ही यूके तथा ब्राजील वेरिएंट को भी न्यूट्रलाइज करने के लिए शरीर में काफी मात्रा में एंटीबॉडी पैदा करते हैं. राकेश मिश्रा ने मुझे बताया कि सेंटर फॉर सेल्यूलर ऐंड मॉलिक्युलर बायोलॉजी के उनके खुद के लैब में जो अध्ययन किए गए उन से पता चलता है कि कोवीशील्ड भी बड़े कारगर ढंग से इन तीनों स्ट्रेंस को न्यूट्रलाइज करता है. वैसे, अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी स्कूल ऑफ बायोसाइंसेज के डायरेक्टर और वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील का कहना है कि इन अध्ययनों से जो नतीजे आए हैं उनसे भी थोड़ा चौकन्ने हैं. उनका कहना है कि "ये प्रारंभिक अध्ययन हैं जिन्हें एक लैब में किया गया है. वास्तविक जीवन में इनका प्रभाव किस तरह पड़ता है, यह एक अलग सवाल है." जमील 17 मई को इस्तीफा देने से पहले तक इंसाकाग की वैज्ञानिक सलाहकार समूह की अध्यक्षता कर रहे थे. उनका मानना है कि "बेशक ये वैक्सिंस इन स्टेंस के खिलाफ अभी भी कारगर हैं लेकिन निश्चित तौर पर इस प्रभाव में कमी आएगी."
इन अध्ययनों के अलावा मिश्रा की प्रयोगशाला में एक और महत्वपूर्ण अध्ययन हुआ जिसके नतीजे थोड़ा कम आशावादी हैं. मिश्रा और उनकी टीम के सदस्यों ने उन 9 व्यक्तियों के शरीर से लिए गए सीरम पर बी॰1.617 वैरीएंट का परीक्षण किया जिन्हें फाइजर वैक्सिन की पहली खुराक दी गई थी और पाया कि इस वैक्सिन के बाद जो एंटीबॉडी पैदा हुई हैं वह प्रारंभिक स्ट्रेंस की तुलना में बी॰1.617 के प्रभाव को कम करने में ज्यादा कारगर नहीं हैं. ध्यान देने की बात है कि इसी अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दिल्ली के 33 स्वास्थ्यकर्मियों को हुए संक्रमण की पड़ताल की और इन सभी को कोविशील्ड की दोनों खुराकें दी जा चुकी थी. इन स्वास्थ्यकर्मियों से लिए गए सीरम की जांच से शोधकर्ताओं को पता चला कि इन में से अधिकांश को या तो बी॰1.617 या बी श्रेणी के अन्य वैरिएंट्स मसलन बी॰1.7 का संक्रमण हुआ था. फाइजर ने दावा किया है कि उसका टीका बी॰1.617 वैरीएंट के खिलाफ बहुत असरदार है और इस आधार पर वह फिलहाल भारत सरकार के साथ कोई समझौता कर रहा है ताकि उसके टीके को भारत में पहले ही झटके में स्वीकृति मिल जाए. अमेरिका की एक दवा कंपनी ने भारत सरकार से कहा है कि खरीद से संबंधित समझौते को मुकम्मल रूप देने से पहले इसे वित्तीय दायित्वों से छूट दी जाए.
जितने तरह के नए स्ट्रेन आ रहे हैं उनकी चिकित्सकीय विशिष्टता को तय करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. जमील का कहना है कि इंसाकाग इस समय पूरी क्षमता के साथ काम कर रहा है, सीक्वेंसिंग की प्रक्रिया ज़ोरशोर के साथ कर रहा है और इसके साथ ही अपनी क्षमता बढ़ाने में लगा है. इस संगठन ने वायरस के और भी छोटे-मोटे वेरिएंट्स का पता लगाना शुरू कर दिया है. इन वेरिएंट्स की खोज और इन पर किए जा रहे चिकित्सकीय अनुसंधान से भारत को महामारी की आने वाली लहरों का मुकाबला करने में मदद मिल सकती है.
1 मई का दिन दिल्ली के बत्रा हॉस्पिटल के डायरेक्टर डॉ एस एल सी गुप्ता के लिए पिछले सप्ताह गुजरे दिनों की तरह ही तनावपूर्ण था. 500 बेड वाले उनके प्राइवेट हॉस्पिटल में अब ऑक्सीजन समाप्त होने वाला था.
अस्पताल में कोविड-19 के 315 मरीज थे जिनमें से 250 की हालत ऐसी थी कि वे बिना ऑक्सीजन के जिंदा नहीं रह सकते थे. पिछले कुछ दिनों से अस्पताल इसी जद्दोजहद में लगा रहा कि किसी तरह प्रतिदिन अपने यहां 8000 लीटर की मेडिकल ऑक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित कर सके हालांकि उसे अधिक से अधिक महज 5000 लीटर ही प्रतिदिन ऑक्सीजन मिल सका. गुप्ता अपनी टीम के सदस्यों के साथ हर रोज सुबह मीटिंग करते और पता करते कि ऑक्सीजन का भंडार कितना बचा हुआ है और इसके बाद अधिकारियों को लगातार फोन करते ताकि ऑक्सीजन के पूरा समाप्त होने से पहले कुछ पहुंचना सुनिश्चित हो सके. गुप्ता ने बताया कि "हम एक ऑक्सीजन सिलेंडर से दूसरे ऑक्सीजन सिलेंडर के मिलने के भरोसे पर काम कर रहे थे और हमारा सारा काम मिनट दर मिनट ऑक्सीजन की डिलिवरी पर निर्भर कर रहा था. किसी तरह हम इतने ऑक्सीजन का ही जुगाड़ कर पाते थे कि समय पर लोगों की जिंदगी बचा सकें." लेकिन 1 मई के दिन वह घड़ी आ गई जिसको लगातार हम टालने की कोशिश में लगे हुए थे. ऑक्सीजन की सप्लाई पूरी तरह समाप्त हो गई और अस्पताल में काम करने वाले एक डॉक्टर सहित 12 मरीजों की मौत हो गई.
गुप्ता ने मुझे बताया, "आप उस खौफनाक मंजर की कल्पना भी नहीं कर सकते जब हर मिनट हम लोग इस बात के लिए परेशान रहते थे कि किसी तरह समय पर सिलेंडर मिल जाए और साथ ही योजना बनाने में लगे रहते थे कि अगर ऑक्सीजन नहीं मिला तो हम आगे कैसे काम करें." 1 मई को दिन में 11 बजते बजते अस्पताल को यह पता चल गया कि हालत आम दिनों से भी बदतर हो गई है क्योंकि गुजरे हुए दिनों में इतना तो हम कर ही पाते थे कि सवेरे 11 बजे तक कम से कम कुछ मात्रा में ऑक्सीजन की व्यवस्था कर लें. ऑक्सीजन की जो बची खुची सप्लाई थी उसका उचित इस्तेमाल करने के लिए अस्पताल के स्टाफ ने उन मरीजों को छांटना शुरू किया जिन्हें ऑक्सीजन की सबसे ज्यादा जरूरत थी और अन्य मरीजों को उस वार्ड में भेजने लगे जहां ऑक्सीजन की सप्लाई नहीं थी. गुप्ता ने बताया कि "इस तरह का फैसला लेना बहुत कठिन था. किसी को ऐसी हालत में नहीं रखा जाना चाहिए था लेकिन हमें ऐसा करना पड़ा. हमने सभी वार्डों का चक्कर लगाया, हर वार्ड से दो तीन मरीजों को चुना और उन्हें एक दूसरी बिल्डिंग में भेजना शुरू किया."
गुप्ता ने अनुमान लगाया कि दोपहर में 12.30 से 12.45 के बीच अस्पताल में ऑक्सीजन की सप्लाई पूरी तरह समाप्त हो जाएगी. लिक्विड ऑक्सीजन सप्लाई के समाप्त हो जाने के साथ ही अस्पताल ने अपने आखिरी ऑक्सीजन सिलेंडरों का भी इस्तेमाल कर लिया था. अस्पताल ने पहले ही सभी संबंधित अधिकारियों से बात करने की कोशिश की थी और मुख्यमंत्री से भी लिख कर गुहार लगाई थी कि कुछ और सिलेंडरों का इंतजाम कर दिया जाए. उस दिन की घटना को याद करते हुए गुप्ता ने बताया, "हमारे टैंकर बुरारी के पास फंसे हुए थे इसलिए इस बीच हम यह उम्मीद कर रहे थे कि हमारे आसपास अगर कोई ऑक्सीजन टैंकर या सिलेंडर हो तो उसे हमारी तरफ भेज दिया जाए." डॉ गुप्ता जिस समय यह बता रहे थे उनकी आवाज फोन पर थरथरा रही थी. अस्पताल के अधिकारियों ने मीडिया से भी गुहार लगाई. दोपहर 1 बजे से पहले एनडीटीवी द्वारा चलाए गए एक न्यूज़ क्लिप में अस्पताल के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉ सुधांशु बनकटा ने ऐलान किया कि 10 मिनट के अंदर उनके अस्पताल की ऑक्सीजन सप्लाई समाप्त हो जाएगी. उस क्लिप में उन्होंने कहा था कि "दिल्ली सरकार हमें मदद पहुंचाने की कोशिश कर रही है लेकिन मैं समझता हूं कि ऑक्सीजन का टैंकर हमसे अभी काफी दूर है." इस बीच ऑक्सीजन पूरी तरह समाप्त हो गया, मरीजों का दम घुटने लगा और हॉस्पिटल के स्टाफ के लोग बेबसी भरी निगाहों से मरीजों को देखते रहे. डॉ गुप्ता ने कहा, "क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हमारे युवा डॉक्टरों और कर्मचारियों को उस समय किस यंत्रणा से गुजारना पड़ा होगा? वर्षों तक उन्होंने इस बात का प्रशिक्षण लिया कि किस तरह भयानक से भयानक परिस्थितियों में भी काम किया जाए लेकिन ऐसी हालत के लिए वे कभी तैयार नहीं थे. हमारा समूचा स्टाफ पूरी तरह टूट चुका था."
अप्रैल के उत्तरार्ध और मई के पहले सप्ताह में अनेक अस्पतालों ने सोशल मीडिया को एस ओ एस संदेश भेजें कि उनके यहां ऑक्सीजन की सप्लाई समाप्त होने वाली है और सभी संबद्ध अधिकारियों के पास गुहार लगाने के बावजूद उन्हें समय रहते ऑक्सीजन की सप्लाई नहीं की जा सकी. राज्य के अधिकारियों की मदद से अधिकांश अस्पतालों ने इस संकट को टालने के लिए कुछ हद तक ऑक्सीजन हासिल करने में सफलता पा ली पर बहुत सारे अस्पताल ऐसे थे जो इतने खुशकिस्मत नहीं थे. 23 अप्रैल को दिल्ली के जयपुर गोल्डन हॉस्पिटल में ऑक्सीजन की कमी की वजह से 25 मरीजों की मौत हुई. कर्नाटक के चामराजनगर जिले में डिस्ट्रिक्ट सिविल हॉस्पिटल में ऑक्सीजन की कमी से 24 लोग मारे गए. एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता योगेश जैन ने मुझसे कहा कि "ये मौतें ऐसी थीं जिन्हें टाला जा सकता था.100 मरीजों में तकरीबन 15 संक्रमित मरीज ऐसे थे जिन्हें ऑक्सीजन के सहारे की जरूरत थी और इनमें भी 12 को हाई फ्लो ऑक्सीजन की मदद से बचाया जा सकता था और शायद तीन ऐसे होंगे जिन्हें इंटेंसिव केयर यूनिट में रखना जरूरी होता. इसलिए अगर हमारे पास पर्याप्त ऑक्सीजन होता तो जाहिर सी बात है हमारे अधिकांश मरीज मरने से बच जाते." सरकार की चौथी सबसे बड़ी गलती यह थी कि दूसरी लहर आने से पहले उसने न तो ऑक्सीजन की पर्याप्त सप्लाई सुनिश्चित की और न जीवनरक्षक दवाओं की कोई व्यवस्था की और न पर्याप्त संख्या में इन कामों के लिए लोगों को तैनात किया.
राजधानी में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करने में केंद्र सरकार की विफलता से खीझ कर दिल्ली उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि "केंद्र भले ही शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ा ले लेकिन अदालत ऐसा नहीं कर सकती." विपिन संघी और रेखा पल्ली की डिवीजन बेंच ने ऑक्सीजन की कमी और महामारी से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई करते समय केंद्र सरकार से कहा कि "क्या वे लोग हाथी दांत की मीनारों में रह रहे हैं" और उन्हें इसकी बिल्कुल जानकारी नहीं है कि शहर की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी चरमरा चुकी है और कितने बड़े पैमाने पर लोगों की मौतें हो रही हैं.
कोविड-19 से पहले लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन की देश भर में मांग मोटे तौर पर प्रतिदिन 1000 टन थी. मई आने तक अकेले दिल्ली में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग 700 टन से ज्यादा हो गई. केंद्र सरकार द्वारा सुप्रिम कोर्ट में सौंपी गई एक जानकारी के अनुसार कोविड-19 की दूसरी लहर जब काफी तेजी पर थी तो यह मांग बढ़ कर प्रतिदिन 8000 टन से ज्यादा हो गई. पिछले वर्ष महामारी की पहली लहर की चरम स्थिति के दौरान भी सितंबर में मेडिकल ऑक्सीजन की देश भर में दैनिक खपत लगभग 3000 टन थी.
उस दौरान कारवां ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि कैसे महाराष्ट्र के अस्पतालों में ऑक्सीजन समाप्त हो रहा है, वे ऑक्सीजन की अंतिम क्षण पर हो रही सप्लाई पर काम कर रहे हैं और लगभग उसी तरह के खतरों से जूझ रहे हैं जैसा इस वर्ष अप्रैल और मई के महीने में बत्रा अस्पताल तथा देश के अन्य अस्पतालों को झेलना पड़ा. उस समय भी जब ऑक्सीजन की जरूरत कुछ राज्यों तक ही सीमित थी और ऑक्सीजन की मांग आज के मुकाबले लगभग तीन गुना कम थी, सरकार ऑक्सीजन सप्लाई को व्यवस्थित करने के लिए संघर्ष कर रही थी. महामारी की पहली लहर के दौरान भी सरकार ऑक्सीजन के मूल्यों को सुव्यवस्थित करने में विफल रही. नासिक के एक डॉक्टर समीर चंद्राते का कहना है- "यह युद्ध अब ऑक्सीजन से लड़ा जाएगा और जब तक ऑक्सीजन की सप्लाई सुव्यवस्थित करने के लिए सरकार हस्तक्षेप नहीं करती, मैं नहीं समझता कि कैसे हम लोग इसी तरह काम चलाते रहेंगे." यह बात उन्होंने मुझसे पिछले सितंबर में कही थी जब उनके शहर में कोविड-19 के मामले बहुत बड़े पैमाने पर सामने आने लगे थे.
सितंबर 2020 से लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन (एलएमओ) की मांग में लगभग तीन गुना इजाफा हुआ है. औसतन भारत प्रतिदिन 7000 से 8000 टन लिक्विड ऑक्सीजन का उत्पादन करता रहा है लेकिन इस उत्पादन का 80 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा औद्योगिक इस्तेमाल के लिए आरक्षित था. अब चूंकि यह सारा ऑक्सीजन चिकित्सा संबंधी जरूरतों के काम आ रहा है, प्रदूषित ऑक्सीजन सिलेंडरों को लेकर चिंताएं बढ़ गईं हैं क्योंकि अब तक जो सिलेंडर औद्योगिक ऑक्सीजन के लिए इस्तेमाल होते थे उन्हीं का इस्तेमाल चिकित्सा से संबंधित कार्यों के लिए किया जा रहा है. संदेह किया जाता है कि म्यूकरमाइकॉसिस या ‘ब्लैक फंगस’ संक्रमण के फैलने के पीछे एक कारण यह भी है.
भारत के सबसे बड़े एलएमओ उत्पादकों में से एक के वरिष्ठ प्रबंधक ने मुझसे बताया कि, "उत्पादन हमारे लिए अपने आप में कभी कोई समस्या नहीं रही- हम पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं और इस उत्पादन को तेजी से बढ़ाने में भी समर्थ हैं." उन्होंने बताया कि अकेले उनकी ही कंपनी ने अप्रैल के महीने में अपना उत्पादन 2400 टन से बढ़ा कर 3400 टन कर दिया. "अब समस्या यह है कि, जैसा कि सितंबर में देखा गया, कैसे उन राज्यों से जहां इसका उत्पादन होता है ऑक्सीजन को उन राज्यों तक पहुंचाया जाए जहां इसकी जरूरत है? और वह भी समय रहते ताकि लोगों का जीवन बचाया जा सके."
लिक्विड ऑक्सीजन को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए बड़ी बड़ी क्रायोजेनिक टंकियों की जरूरत होती है. इन टंकियों को अपेक्षाकृत बड़े अस्पतालों में रखा जाता है जिसमें लिक्विड ऑक्सीजन का भंडार होता है और उत्पादकों तथा बिचौलियों द्वारा लिक्विड ऑक्सीजन की बड़ी मात्रा को कहीं पहुंचाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा भारत में मेडिकल ऑक्सीजन की जो डेलीवरी प्रणाली है उसे ऑक्सीजन सिलेंडरों द्वारा संचालित किया जाता है जिसमें गैस के रूप में ऑक्सीजन मौजूद होती है और इनका इस्तेमाल प्रायः छोटे अस्पतालों और यहां तक कि लोगों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर घरों में भी इस्तेमाल किया जाता है. उस वरिष्ठ प्रबंधक ने बताया कि, "चूंकि हर तरह की ऑक्सीजन की मांग में वृद्धि हुई है, हमें इसके लिए हर तरह के इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है. इस मामले में हम अच्छी स्थिति में नहीं हैं. यहां तक कि खाली टैंकरों को भरने के लिए हम उन्हें विमान के जरिए अपने उत्पादन स्थल तक लाते हैं और सड़क मार्ग द्वारा वापस दिल्ली भेजते हैं. अगर हमने पहले से अनुमान लगाया होता कि आने वाले दिनों में मांग की ऐसी स्थिति आ जाएगी और उसके अनुसार अपनी डेलीवरी प्रणाली को सुव्यवस्थित किया होता तो पिछले कुछ महीनों के दौरान बहुत सारी जिंदगियां बचाई जा सकती थीं."
ऑक्सीजन के परिवहन को लेकर जो समस्या है उसका एक समाधान यह हो सकता था कि पर्याप्त संख्या में हम उन सरकारी अस्पतालों के निकट प्रेशर-स्विंग-एब्जॉर्बसन संयंत्र (पीएसए) लगाते जहां मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा होती है. पीएसए संयंत्र वातावरण में मौजूद गैसों को अलग अलग कर सकते हैं ताकि एक पाइप लाइन के जरिए सघन ऑक्सीजन की सप्लाई अस्पताल के बिस्तरों तक की जा सके. ऐसा करके सीधे ऑक्सीजन बनाने वाले संयंत्रों से ऑक्सीजन लेने की जरूरत को हम खत्म कर सकते थे क्योंकि इस तरह के संयंत्र अस्पतालों से काफी दूर स्थित होते हैं. अप्रैल में स्क्रोल ने खबर दी की केंद्र सरकार ने देश भर के जिला अस्पतालों में इस तरह के 162 पीएसए संयंत्रों की स्थापना की प्रक्रिया में विलंब कर दिया है. सरकार के अधीन चलने वाली एक सवायत्त संस्था सेंट्रल मेडिकल सर्विसेज सोसाइटी ने काफी पहले अक्टूबर 2020 में ही ऐसी यूनिटें लगाने के लिए टेंडर जारी किया था. इन यूनिटों का खर्च वहन करने के लिए पैसा ‘प्राइम मिनिस्टर्स सिटिजन्स असिस्टेंट ऐंड रिलीफ ऐंड इमरजेंसी सिचुएशन फंड’ (पीएम-केयर्स) से आना था जो मार्च 2020 तक जुटा भी लिया गया था. पीएम-केयर्स फंड में उस माह इसके गठन के कुछ ही दिनों के अंदर 3000 करोड़ रुपए की राशि दान के रूप में आ गई थी. 162 पीएसए संयंत्रों को लगाने में तकरीबन 201 करोड़ रुपए का ही खर्च आता.
स्क्रोल की रिपोर्ट से पता चलता है कि अप्रैल 2021 तक उन 60 अस्पतालों में से, जिनकी इस मीडिया संगठन ने छानबीन की, केवल 11 में इस तरह की यूनिटें लगाई गईं और उनमें से भी महज 5 यूनिटें काम करने योग्य थीं. इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के कुछ ही घंटों बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने ट्वीट किया कि इसने 33 पीएसए संयंत्रों की स्थापना की और मई के अंत तक इसी तरह के और 80 संयंत्र लगाने की योजना है. मंत्रालय ने अभी भी यह नहीं बताया कि आने वाले दिनों में ऑक्सीजन की भारी मांग का अनुमान लगाते हुए क्यों नहीं समय रहते इन संयंत्रों को तैयार किया गया. के॰ सुजाता राव ने मुझे बताया, "इसका कोई भी बहाना नहीं चलेगा कि क्यों 163 ऑक्सीजन प्लांट्स नहीं लगाये गए या प्रमुख अस्पतालों को निर्देश नहीं दिया गया कि वे अपना खुद का ऑक्सीजन प्लांट लगाएं."
जैन ने मुझे बताया, "यह पूरी तरह तैयारी में कमी थी- इसके अलावा और इसे क्या कहा जा सकता है? ऑक्सीजन, दवाओं, बिस्तरों आदि के मामले में तैयारी में कमी. इससे जो विपदा दिखाई दे रही है उसका सरोकार महज मौतों से ही नहीं है - इसका सरोकार इस बात से है कि देश ने अपनी व्यवस्था में विश्वास खो दिया है. यह विनाशकारी है और निराशाजनक है. लोगों को यह नहीं समझ में आ रहा है कि अब वे सहारे के लिए किस तरफ देखें."
मध्य अप्रैल में कारवां ने गुजरात के भरुच जिले के एक अस्पताल की रिपोर्टिंग की जहां एक छब्बीस वर्षीय रेजिडेंट डॉक्टर अकेले कोविड-19 के 17 मरीजों के वार्ड की देखभाल में लगा था और उसकी मदद के लिए महज पांच नर्सें थीं. चिकित्सा सहयोगियों के अभाव में वार्ड के अंदर जो मरीज थे वे खुद ही अपनी जरूरत के मुताबिक ऑक्सीजन की मात्रा तय करने के लिए सिलेंडर पर लगे डॉयल को घुमा कर सेट करते थे. हमने देखा कि किस तरह उस डॉक्टर और उसके सीमित स्टाफ को यह कड़ा फैसला लेना पड़ता था कि जो बहुत ज्यादा बीमार मरीज हैं उन्हें पहले ऑक्सीजन दिया जाए जबकि वार्ड के लगभग सभी मरीज दम घुटने की हालत में थे और मौत के करीब पहुंच रहे थे.
भारत आज जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जिस गंभीर संकट का सामना कर रहा है उससे निपटने के लिए किसी तरह के विशिष्ट आधुनिक अस्पताल-व्यवस्था की जरूरत नहीं है. हॉर्वर्ड के प्रोफेसर विक्रम पटेल ने मुझे बताया, "कोई भी देश, यहां तक कि अत्यंत संपन्न देश भी, इस महामारी के लिए तैयार नहीं था लेकिन संभावित दूसरी लहर का आकलन करते हुए जरूरत इस बात की थी कि हम तंबुओं में चलने वाले बहुत सारे बिस्तरों वाले अस्पताल की व्यवस्था करें और ऑक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करें. बेशक, इसके लिए भी बड़ी संख्या में स्वास्थ्यकर्मियों की जरूरत पड़ती जो मरीजों की देखभाल कर सकें. ऑक्सीजन और बेड के अलावा इन मरीजों को देखभाल की भी जरूरत होती जिसके लिए ऐसे स्वास्थ्यकर्मियों को तैयार किया जाता जो उनकी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वहां स्थित मशीनों को चला सकें. मैं यकीन नहीं कर सकता कि वह सरकार, जो रिकार्ड समय में वैक्सिन बना सकती है, लोगों का जीवन बचाने के लिए इस तरह की अस्थायी अस्पतालों की व्यवस्था नहीं कर सकती."
भारत में स्वास्थ्यकर्मियों की जबर्दस्त कमी है. महामारी से पहले की स्थिति को भी देखें तो प्रत्येक 1404 व्यक्ति पर देश के अंदर महज एक डॉक्टर था और 1000 लोगों पर 1॰7 नर्सें थीं. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के अनुसार यह अनुपात 1000 लोगों पर तीन नर्सों और एक डॉक्टर का होना चाहिए. महामारी जैसी मुसीबत आने के बाद इस कमी को और भी गंभीरता से महसूस किया गया. वार्डों के अंदर डॉक्टरों और नर्सों की बहुत जरूरत होती है ताकि वे ऑक्सीजन का स्तर देख सकें, शारीरिक अवस्था पर निगाह रख सकें, जांच के लिए समय समय पर सैंपुल इकट्ठा कर सकें और मरीज के शरीर में ऑक्सीजन का स्तर बनाये रखने के लिए उन्हें पेट के बल लिटा कर प्रोनिंग जैसे अभ्यास कराने के कठिन काम को अंजाम दे सकें. वार्ड के बाहर सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी और पैरामेडिकल स्टाफ निगरानी का काम संभाल सकें, सैंपुल की जांच करा सकें, और संभावित कोविड मरीजों का पता कर सकें.
प्रॉग्रेसिव मेडिकोज ऐंड साइंटिस्ट्स फोरम के राष्ट्रीय अध्यक्ष हरजीत सिंह भट्टी ने मुझे बताया, "हम लोग इस महामारी से जुड़ी हर गतिविधियां संचालित कर रहे हैं- मरीजों की जांच कराने से लेकर मृतकों को शवदाह गृह पहुंचाने तक. बावजूद इसके सरकार के अंदर वह दूरदृष्टि नहीं है कि वह बड़े पैमाने पर इन कामों के लिए लोगों की भर्ती करे." भट्टी ने बताया कि पर्याप्त संख्या में स्वास्थ्यकर्मियों के न होंने से जो मौजूदा स्टाफ है उसे जरूरत से ज्यादा काम करना पड़ रहा है, उसे पैसे कम मिल रहे हैं, और उसका शोषण हो रहा है. सोनीपत की आशा वर्कर सुनीता रानी का कहना है- "हम लोगों के पास न तो पीपीई है और न मास्क है. सेनेटाइजर के रूप में हमारे पास जो आधा लीटर है उसी से हम पांच आशा वर्कर अपना काम चलाती हैं."
कोविड-19 की ड्यूटी करते हुए वायरस की चपेट में आकर अनेक डॉक्टरों और नर्सों की मृत्यु हुई. स्थायी समिति की रिपोर्ट में दिए गए सरकारी आंकड़े के अनुसार अक्टूबर 2020 तक कम से कम 573 स्वास्थ्यकर्मियों की जानें गई थी. यह इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा लगाया गया महज एक मोटा अनुमान है. इसके बाद से भी अनेक डॉक्टरों और नर्सों की मृत्यु हुई है लेकिन इन मौतों का कोई सरकारी आंकड़ा नहीं उपलब्ध है. जनवरी में कारवां ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया गया था कि किस तरह स्वास्थ्यकर्मियों को अपने सहयोगियों की मृत्यु का रिकॉर्ड तैयार करना पड़ रहा है क्योंकि केंद्र ने यह करने की जिम्मेदारी से अपने को अलग कर लिया है. इस महामारी ने डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य को भी बुरी तरह प्रभावित किया जिसकी वजह से अनेक डॉक्टरों ने आत्महत्या की.
वडोदरा के सर सयाजीराव जनरल हॉस्पिटल ऐंड मेडिकल कॉलेज के 26 वर्षीय रेजिडेंट डॉक्टर सतीश गुर्जर ने मुझे बताया, "हम पूरी तरह झुलस जाते हैं... आठ घंटों तक पीपीई किट्स पहने रहना और हर मिनट लोगों को मरते देखना हमारे लिए असह्य है." गुर्जर ने बताया कि इस हॉस्पिटल के 25 रेजिडेंट डॉक्टरों की टीम सरकार द्वारा संचालित कोविड-19 के तीन केंद्रों की देखभाल कर रही है जिनमें कुल 1200 बेड हैं. इन रेजिडेंट डॉक्टरों के साथ कुछ नर्सें और स्टाफ के लोग हैं तथा वरिष्ठ परामर्शदाता हैं जो वार्ड का बीच-बीच में चक्कर लगा जाते हैं. उन्होंने बताया- "लेकिन इतना पर्याप्त नहीं होता. हमें और भी रेजिडेंट डॉक्टरों और नर्सों की जरूरत है क्योंकि इनके जरिए ही मुख्य काम होता है." उन्होंने आगे बताया कि दूसरी लहर आने के बाद एसजीएच हॉस्पिटल ने कॉन्ट्रैक्ट पर 15 और मेडिकल ऑफिसरों की नियुक्ति की. "लेकिन यह अप्रैल में हुआ और आज हमें और भी स्टाफ की जरूरत है ताकि हममें से कुछ को आराम करने के लिए थोड़ा समय मिले. हम भी आखिरकार मनुष्य हैं, हम मशीन की तरह काम नहीं कर सकते."
जैसा कि भट्टी ने बताया महामारी की पहली और दूसरी लहर के बीच की अवधि में बड़े पैमाने पर स्वास्थ्यकर्मियों की नियुक्ति का कोई प्रयास नहीं किया गया. बेशक, कुछ राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों ने अंतिम क्षण में कुछ नए लोगों की नियुक्ति की कोशिश की लेकिन इन सभी रिक्तियों को भरने में विफल रहे. भट्टी का कहना है कि जब महामारी का प्रकोप शुरू हो गया हो उस समय स्वास्थ्यकर्मी के रूप में नए लोगों को पाना कहीं ज्यादा कठिन होता है. यह ऐसा समय है कि जिसमें खाली जगह को भरना और भी ज्यादा मुश्किल है. यूनाइटेड नर्सेज एसोसिएशन के महासचिव जोल्डिन फ्रांसिस ने मुझे बताया कि इन खाली स्थानों पर नियुक्तियां इसलिए नहीं हो पाती हैं क्योंकि नर्सें कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी नहीं करना चाहतीं. उन्होंने कहा कि जिस बुरे दौर से हम गुजर चुके हैं उसमें युवा पीढ़ी के लोग इस तरह की नौकरियों में नहीं आना चाहते.
जैसे-जैसे महामारी का प्रकोप तेज होता जाएगा, स्वास्थ्यकर्मियों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति में विफल होने का बहुत बुरा असर संक्रमित लोगों के जीवन पर पड़ेगा.
पिछले वर्ष सितंबर में विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ॰ तेद्रोस अदनाम गेब्रेसस ने एक प्रेस वक्तव्य के जरिए इस सिलसिले में चेतावनी भी दी थीः "कोई भी देश, अस्पताल या क्लीनिक अपने मरीजों को सुरक्षित नहीं रख सकता जब तक वह अपने स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षित न रखे."
अल्जीरिया के लेखक अल्बेयर कामू ने 1948 में लिखे अपने उपन्यास दि प्लेग में अल्जीरिया के काल्पनिक शहर ओरोन का जिक्र किया है जो गिल्टीयुक्त प्लेग की चपेट में आ चुका है. इस उपन्यास का नायक बर्नाल्ड रियो नाम का एक डॉक्टर है जो आसन्न महामारी का अनुमान लगाने के बाद स्थानीय अधिकारियों को समझाना चाहता है कि वे इससे बचने के आवश्यक उपाय करें. अधिकारियों ने डॉक्टर के बताए सुझावों को पसंद नहीं किया और कहा कि अगर इस तरह के उपाय लागू किए गए तो इसका अर्थ यह होगा कि हम स्वीकार कर रहे हैं कि सचमुच भीषण प्लेग आने वाला है. रियो ने जोर देकर कहा कि उसे इस बात की चिंता नहीं है कि स्थिति का वर्णन करने के लिए कोई किस तरह का लेबुल चस्पा कर दे. "मेरा मतलब बस इतना है कि हमें इस तरह का काम नहीं करना चाहिए गोया हम मान रहे हों कि आधी आबादी के साफ हो जाने की कोई आशंका नहीं है क्योंकि ऐसा होने जा रहा है."
उस काल्पनिक शहर ओरोन के अधिकारियों की ही तरह हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय यह मानने से इनकार करता रहा कि भारत महामारी के सामुदायिक संक्रमण की अवस्था में पहुंच गया है. महामारी विज्ञान में इस शब्दावली का इस्तेमाल महामारी की उस अवस्था के लिए किया जाता है जहां संक्रमण इस सीमा तक बढ़ जाए कि प्रत्येक संक्रमण के स्रोत का पता लगाना ही संभव न हो सके. बहुत सारे ऐसे देशों ने भी, जिनके यहां संक्रमित मरीजों की संख्या भारत की तुलना में कम थी, खुद की शिनाख्त सामुदायिक संक्रमण की अवस्था वाले देश के रूप में की. भारत खुद को लगातार ‘संक्रमित लोगों के समूह’ जैसे हल्के चरण में रखता रहा जिसका निहितार्थ यह हुआ कि संक्रमित लोगों के स्रोत का निश्चित पता लगाया जा सकता है.
अब इस संकट के आने के एक वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने के बाद मोदी सरकार अभी भी सामुदायिक संक्रमण के लेबुल का विरोध करने पर अड़ी है और इसका कोई नतीजा नहीं निकला है. सभी देख सकते हैं कि इस महामारी का कितना भयानक प्रभाव हुआ और संक्रमण कितनी तेजी से चारो तरफ फैल गया. मिशिगन यूनिवर्सिटी के महामारी रोग विशेषज्ञ डॉ॰ भ्रमर मुखर्जी का कहना है कि "आप संख्याओं से धेखाधड़ी कर सकते हैं लेकिन मृतकों के शवों को नहीं छिपा सकते." जैसा कि मुखर्जी ने कहा ‘आंकड़ों को झुठलाना’ महामारी से सरकार के निबटने का अनोखा तरीका हैः सफलता की झूठी कहानियां प्रचारित करना, साथ ही आधिकारिक आंकड़ों को दबाना और वैज्ञानिक सलाह की अनदेखी करना.
महामारी के आंकड़ों का गहराई से विश्लेषण करने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और सांख्यकीय के जानकारों ने भारत के सरकारी आंकड़ों पर अफसोस जाहिर किया है. मिडिलसेक्स यूनिवर्सिटी के गणितज्ञ मुराद बानाजी ने, जिनकी रोगों के निरूपण में दिलचस्पी है, कोविड-19 के मुंबई के आंकड़ों की छानबीन की और पाया कि मरीजों और मृतकों के अनुपात में ऐसी गड़बड़ी है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती. बानाजी ने मुझे बताया कि, "यद्यपि बीमारी के प्रसार में तेजी से वृद्धि हुई लेकिन मृत्युदर में गिरावट आई और जितनी आशंका थी उससे कम लोग मरे. बहुत सारे लोग अभी भी मर रहे हैं लेकिन महामारी के प्रसार की जो अवस्था है उसे देखते हुए मरने वालों की संख्या कम पाई जा रही है." जून में बंबई नगर निगम ने शहर में मृतकों की आधिकरिक संख्या में 1700 मौतों को और जोड़ा जिससे बानाजी के इस संदेह की पुष्टि हुई कि पिछले कुछ महीनों के दौरान हुई मौतों की संख्या को कम करके बताया गया था. उन्होंने कहा कि आंकड़ों में इस सुधार के बाद ऐसा लगता है कि कोविड-19 से शहर में मरने वालों की संख्या में सचमुच वृद्धि हुई है.
अंतर्राष्ट्रीय आंकड़ों और मुंबई के आंकड़ों के अपने व्यापक अध्ययन के बाद बानाजी ने अनुमान लगाया कि देश में मरने वालों की कुल संख्या सरकार द्वारा बताई गई संख्या से तीन गुना से लेकर आठ गुना तक ज्यादा हो सकती है. "और यह आकलन मैंने महामारी की पहली लहर के बारे में किया है. दूसरी लहर के समय मरने वालों की संख्या और भी ज्यादा हो सकती है." इस गणितज्ञ का अनुमान मुखर्जी के अनुमान के काफी करीब है जिन्होंने अप्रैल के उत्तरार्द्ध में कहा था कि कोविड से हुई मौतों के बारे में भारत दो से पांच गुना कम आंकड़े बता रहा है.
महामारी की दूसरी लहर के दौरान पूरे देश में मृतकों की संख्या कम बताने की खबरें आने लगीं. चूंकि शवदाह गृहों में दिन रात लाशें जलाई जा रही थीं इसलिए श्मशानों के आंकड़ों और सरकारी आंकड़ों में फर्क दिखाई दिया जिससे पता चला कि मृतकों की संख्या काफी कम करके बताई जा रही है. गुजरात के बारे में बानाजी का कहना था कि यहां सरकारी तौर पर सबसे ज्यादा अविश्वसनीय आंकड़े प्रस्तुत किए गए. कारवां को पता चला कि कोविड-19 से अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई है और उसे कोई और भी बीमारी थी तो सरकारी तौर पर मृतकों की संख्या में उसे कोविड से मरा हुआ न दिखा कर उसकी किसी पुरानी बीमारी से मृत्यु दिखाया गया है. पिछली मई के उत्तरार्द्ध में न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित आंकड़ों को देखने से भी सरकारी संख्या पर संदेह पैदा होता है.
मामलों की गिनती कम करना अवश्यंभावी है क्योंकि कोविड संक्रमित एक बड़ी आबादी में ऐसा कोई लक्षण नहीं दिखाई देता जिसकी वजह से वह अपनी जांच कराए. केरल के एक स्वास्थ्य अर्थशास्त्री रीजो एम जॉन ने मुझे बताया कि, "हमारी जांच प्रणाली भी बहुत अपर्याप्त है- खासतौर पर इस महामारी के समय." जॉन ने कहा कि पिछली लहर के सबसे तेज होने के समय पॉजिटिव पाए लोगों और इस लहर के सबसे तेज होने के समय पॉजिटिव पाए गए लोगों के बीच फर्क की तुलना करें तो पता चलता है कि इस लहर के दौरान हमारी जांच प्रणाली कितनी अपर्याप्त थी जबकि इस बार देश के पास पहले के मुकाबले ज्यादा संसाधन मौजूद थे. जॉन ने कहा कि पिछली लहर के सबसे तेज होने के समय भी राष्ट्रीय स्तर पर पॉजिटिव पाए जाने वालों की संख्या आठ से दस प्रतिशत के बीच थी लेकिन इस बार यह बीस प्रतिशत से भी ज्यादा हो गई.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस दिशानिर्देश का उल्लेख करते हुए कि 5 प्रतिशत से ज्यादा होना यह संकेत देता है कि महामारी नियंत्रण से बाहर चली गई है, जॉन ने कहा, "इस तर्क के अनुसार चूंकि हम औसतन लगभग दो लाख मामले दर्ज कर रहे हैं और लगभग बीस लाख लोगों की जांच कर रहे हैं हमें 5 प्रतिशत से नीचे की दर रखने के लिए कम से कम जांच की संख्या दुगनी करनी पड़ेगी." उन्होंने यह भी संकेत दिया कि चूंकि भारत ने पिछली लहर के मुकाबले इस लहर के चरम बिंदु तक पहुंचने के दौरान चार गुना अधिक मामले दर्ज किए, जांच में महज लगभग 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यह भी इस तथ्य का संकेत है कि जिस गति से संक्रमण में वृद्धि हुई उस गति से हमने जांच की अपनी क्षमता को नहीं बढ़ाया.
जांच में तेजी लाने की बात हो, नए स्ट्रेंस के खतरे को स्वीकार करने की बात हो, ऑक्सीजन की सप्लाई और जीवन रक्षक दवाओं की सप्लाई को दुरुस्त करने का मामला हो या मानव संसाधन में निवेश की बात हो- ये सारे ऐसे कदम हैं जिन्हें हजारों जिंदगियों को बचाने के लिए मोदी सरकार समय से उठा सकती थी. इंसाकाग के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार पद से इस्तीफा देने से कुछ ही दिन पहले न्यूयार्क टाइम्स में अपने कालम में शाहिद जमील ने लिखा था कि, "इन सभी उपायों को भारत में हमारे साथी वैज्ञानिकों का भरपूर समर्थन प्राप्त था लेकिन साक्ष्य आधारित नीति निर्माण के मामले में वे जबर्दस्त विरोध का सामना कर रहे हैं."
मई के मध्य में एक बार फिर कोविड-19 के मामलों में रोजाना के स्तर पर सरकारी तौर पर कमी आई जिससे और भी आशावादी विश्लेषण की गुंजाइश पैदा हो गई और ऐलान किया जाने लगा कि देश दूसरी लहर की चरम अवस्था को पार कर गया. इस कथन के पीछे यह अर्थ छिपा था कि अब संक्रमण के मामलों में लगातार गिरावट आएगी. इस तरह की आशावादी गणना आधिकारिक आंकड़ों पर आधरित थी- उन आंकड़ों पर जिनके बारे में वैज्ञानिकों को पता है कि उनपर कितना भरोसा किया जा सकता है. इसके अलावा अगर यह मान भी लें कि मौजूदा लहर सचमुच नीचे की तरफ जा रही थी तो यह कतई नहीं कहा जा सकता कि अगले कुछ महीनों में महामारी की गति कैसी होगी. सरकारी अधिकारी पहले ही ऐलान कर चुके थे कि महामारी की तीसरी लहर आने वाली है.
अगली लहर जल्दी आती है या देर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर इस मानवीय संकट को हल करने के रुख में नेताओं ने कोई तब्दीली नहीं की तो और भी बहुत सी जानें जा सकती हैं. फिलहाल अगर कोई टीकाकरण की नीति पर सवाल उठाता है तो सरकार जवाब में उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करती है. अगर कोई अपने मर रहे किसी संबंधी के लिए सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन की गुहार लगाता है तो इस अपील की वजह से उसके परिवार के सदस्यों को परेशान किया जा रहा है. और काम के बोझ से दबे जो स्वास्थ्यकर्मी अपने पदों से इस्तीफा दे रहे हैं उन्हें भी तरह तरह से परेशान किया जा रहा है. पटेल का कहना है कि, "आप अपने मूल्यवान संसाधनों का इस्तेमाल सूचनाओं को नियंत्रित करने और धारणा गढ़ने में कर रहे हैं. यह निंदनीय है. सरकारी व्यवस्थाओं और संस्थाओं में जनता के विश्वास के साथ यह जो खेल चल रहा है उसे लोग कभी नहीं भूलेंगे."
एक पूर्व स्वास्थ्य सचिव के रूप में, जिसने भारत में स्वास्थ्य प्रणाली के काम करने के तरीके को बारीकी से देखा है, राव ने कहा कि मोदी सरकार के लिए अभी भी देर नहीं हुई है जब वह अपनी गलतियों को सुधार ले और उस प्रणाली पर वापस जाए जिसका पालन अतीत में एड्स और पोलियो जैसी बीमारियों के समय किया गया. उन्होंने कहा कि, "बड़ी साफ रेखाएं खींची गई हैं कि संक्रामक रोगों के मामले में कहां तक केंद्र को जाना है और राज्यों को क्या काम करना है." उनका मानना है कि हर काम का श्रेय खुद लेने के लिए समूची प्रक्रिया का केंद्रीकरण करना और समूचे क्रम में हेरफेर करने की बजाय मोदी सरकार को उन्हीं पुराने दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए. राव ने यह भी कहा कि "जहां तक श्रेय लेने की बात है प्रधनमंत्री को टीकाकरण के सर्टिफिकेट पर अपना फोटो लगाने की कोई जरूरत नहीं है. अगर लोगों की जान की रक्षा होती है और उन्हें महसूस होता है कि उनकी देखभाल अच्छे ढंग से की जा रही है तो इस तरह के बाहरी दिखावे की कोई जरूरत नहीं. जनता खुद ब खुद जान जाती है."
महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक विकास मंत्री नवाब मलिक ने एक दिलचस्प बात कही- "जिस तरह टीकाकरण के सर्टिफिकेट पर प्रधनमंत्री मोदी की फोटो लगाई गई है उसी तरह मृत्यु प्रमाणपत्र पर भी मोदी की फोटो लगाई जाए... अगर ये लोग कोविड-19 के टीकाकरण का श्रेय ले रहे हैं तो इन्हें मौतों की भी जिम्मेदारी लेनी चाहिए."
(कारवां के जून अंक की इस कवर स्टोरी का अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)