भारत सरकार द्वारा अपने सभी नागरिकों को निशुल्क कोविड-19 वैक्सीन न देने से देश में टीकाकरण में ऊंच-नीच पैदा हो गई है. इस असमानता के चलते महामारी की चपेट से बाहर निकल आने की संभावना कमजोर पड़ रही है. भारत उन देशों में है जो कोविड-19 से सबसे बुरी तरह से प्रभावित होने के बावजूद अपने नागरिकों के लिए निशुल्क टीकाकरण सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं.
23 मई तक अमेरिका और ब्राजील आधिकारिक रूप से कोविड-19 मौतों के मामले में भारत से आगे थे. अमेरिकी सरकार देश में रहने वाले सभी लोगों का निशुल्क टीकाकरण कर रही है. आव्रजन और स्वास्थ्य बीमा स्टेटस टीकाकरण में बाधक नहीं हैं. अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र ने कहा है कि टीकाकरण केंद्रों में टीकाकरण से संबंधित कोई शुल्क लोगों से नहीं लिया जा सकता.
टीके की फीस लोगों के निजी स्वास्थ्य बीमा या कल्याणकारी कार्यक्रमों की मद से (जिनके बीमा नहीं हैं) सीधा काटा जा रहा है. ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो ने पहले तो कोविड-19 को एक मामूली फ्लू बताया था लेकिन दिसंबर में घोषणा की कि उनकी सरकार सभी लोगों का निशुल्क टीकाकरण करेगी. ब्रिटेन ने अपनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा के तहत सभी के लिए टीकाकरण निशुल्क रखा है. इटली, फ्रांस और जर्मनी में भी टीकाकरण की फीस और खर्च स्वास्थ्य बीमा योजनाओं से काटा जा रहा है. नवंबर में रूस ने घोषणा की थी कि उसका टीका स्पुटनिक-पांच नागरिकों को निशुल्क लगाया जाएगा. मेक्सिको ने दिसंबर में नागरिकों के लिए निशुल्क टीकाकरण योजना की घोषणा की और कोलंबिया ने निजी स्वास्थ्य कंपनियों को टीका आयात का काम दिया है लेकिन जोर देकर बताया है कि टीकाकरण निशुल्क रहेगा.
भारत का टीकाकरण कार्यक्रम आरंभ में उपरोक्त देशों के जैसा ही था. जनवरी 2020 में फ्रंटलाइन वर्करों और स्वास्थ्य कर्मियों को सरकार द्वारा संचालित केंद्रों में निशुल्क टीका लगाया गया. 1 मार्च से शुरू हुए दूसरे चरण में सरकार ने 60 साल और अधिक के सभी नागरिकों को और 45 साल के उन नागरिकों को जिनमें कोमोरबिडिटी है, सरकारी केंद्रों में निशुल्क टीकाकरण की घोषणा की. साथ ही सरकार ने निजी क्षेत्र को 250 से 150 रुपए प्रति टीका की दर से टीका लगाने और टीका लगाने की फीस 100 रुपए रखी. यह मामूली मूल्य तब तीसरे चरण में भी जारी रहा जिसमें 45 साल के ऊपर के सभी लोगों को टीका लगाने की बात थी. लेकिन अंतिम चरण में, जब दूसरी लहर चरम पर थी, सरकार ने 18 साल से ऊपर के सभी लोगों को खुले बाजार में टीकाकरण की घोषणा की.
भारत ने अब तक अपनी आबादी के केवल 10 प्रतिशत हिस्से को टीके का कम से कम एक डोज दिया है. लेकिन दूसरी लहर जब बढ़ने लगी तो टीकाकरण की गति जिसे तीव्र होना चाहिए था वह धीमी हो गई. अप्रैल के मध्य तक टीकाकरण की दर 40 लाख डोज प्रतिदिन थी लेकिन मई महीने के मध्य तक आते-आते यह दर घटकर 10 लाख प्रति दिन रह गई. यह गिरावट वैक्सीन की कमी के साथ-साथ लोगों के अंदर इस चिंता के चलते भी थी कि टीकाकरण केंद्रों में भीड़ के कारण कोरोना हो सकता है. इसके अलावा राज्य द्वारा लगाए गए लॉकडाउन के कारण भी टीकाकरण केंद्रों में उपस्थिति सीमित हो गई थी.
लेकिन इन तीनों बाधाओं से अलग सबसे बड़ी बाधा टीके की कीमत और इसे लगाने के लिए डिजिटल रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता के चलते खड़ी हो रही है.
1 मई से शुरू इस छूट वाली नई नीति के तहत वैक्सीन निर्माताओं को अपने उत्पाद का 50 प्रतिशत केंद्र सरकार को देना होगा और बाकी का 50 प्रतिशत वह राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को बेच सकते हैं. सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने घोषणा की है कि वह केंद्र सरकार, राज्य सरकार और निजी अस्पतालों को क्रमशः 150, 400 और 600 रुपए प्रति टीका की दर से आपूर्ति करेगी. इसी प्रकार भारत बायोटेक ने कोवैक्सीन की प्रति यूनिट दर केंद्र, राज्य और निजी अस्पतालों के लिए क्रमशः 150, 600 और 1200 रुपए लगाई है. जब इन महंगी दरों की खूब आलोचना हुई तो सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने कोविडशील्ड की कीमत राज्य सरकारों के लिए 300 रुपए प्रति यूनिट कर दी और भारत बायोटेक ने कोवैक्सीन का मूल्य राज्य सरकारों के लिए घटा कर 400 रुपए प्रति टीका कर दिया.
1 मई से सार्वजनिक अस्पतालों में टीका निशुल्क लगाया जा रहा है लेकिन निजी अस्पतालों में इसकी दर 2000 रुपए प्रति डोज तक पहुंच गई है. यह कीमत दुनिया में सबसे अधिक है. स्वास्थ्य अर्थशास्त्री और ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इंद्रनिल ने इस बारे में कहा कि वैक्सीन कंपनियों और निजी अस्पतालों को महामारी में मुनाफा कमाने की छूट नहीं होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि सरकार ने बजट में 35000 करोड रुपए टीकाकरण के लिए आवंटित किए हैं जो भारत के सभी लोगों को निशुल्क टीका लगाने के लिए पर्याप्त धन है. उन्होंने कहा, “सरकार चाहती तो वह निजी अस्पतालों द्वारा वसूली जा रही टीके की कीमत का भी भार उठा सकती थी ताकि लोगों को टीका निशुल्क मिल जाए.”
इसके अलावा एक और बात यह थी कि कई शहरों में चौथे चरण में केवल निजी अस्पतालों में टीके उपलब्ध थे. मिसाल के लिए बेंगलुरु में 18 से 44 साल के लोगों के लिए 1 और 7 मई के बीच केवल मणिपाल, अपोलो, बीजीएस ग्लैनइगल्स जैसे बड़े कारपोरेट अस्पतालों में टीके उपलब्ध थे. अपोलो अस्पताल में कोविडशील्ड प्रति डोज 850 रुपए में मिल रहा था. मणिपाल अपने दो अस्पतालों में कोवैक्सीन की एक डोज 1350 रुपए में और एक अस्पताल में 1000 रुपए प्रति डोज लगा रहा था. बीजीएस ग्लैनइगल्स अस्पताल कोवैक्सीन का एक शॉट 1500 में दे रहा था. उसी तरह कोलकाता का बीपी पोद्दार हॉस्पिटल टीके लगाने का 2000 रुपए ले रहा था. कोविन वेबसाइट के मुताबिक 7 मई को बेंगलुरु में केवल एक ही सार्वजनिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 18 या उससे अधिक उम्र के लोगों को वैक्सीन लग रही थी.
एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ में सामुदायिक चिकित्सक डॉ. हेमंत शिवाड़े का कहना है, “टीकाकरण के काम को निजी हाथों में सौंपना सबसे बड़ी गलती है क्योंकि जो लोग महंगी दरों में टीके लगा सकते हैं वे निजी अस्पतालों में पहुंचने लगे हैं और सरकार पर अतिरिक्त वैक्सीन खरीदने का दबाव पड़ रहा है. निजी अस्पतालों को टीके लगाने की छूट देने से असमानता बढ़ी है.”
एक बड़ी समस्या यह भी है कि टीका लगाने के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना पड़ रहा है. टीका लगाने के स्लॉट के लिए, जो कि एप या वेबसाइट से लिया जाता है, अंग्रेजी आना जरूरी है और कंप्यूटर और स्मार्टफोन का कनेक्शन तथा आधार, पैन कार्ड, पासपोर्ट एवं ड्राइविंग लाइसेंस होना चाहिए. स्वास्ती हेल्थ कैटालिस्ट की एंजिला चौधरी ने कहा कि सभी के पास ऐसी जानकारियां नहीं होतीं. “हर व्यक्ति के पास स्मार्टफोन नहीं होता और वह इंटरनेट चलाने में सक्षम या तकनीक का जानकार नहीं होता. तो फिर कैसे वह रजिस्ट्रेशन कराएगा?”
इस बीच फ्रंटलाइन वर्करों का काम बहुत बढ़ गया है और पंजीकरण के अलावा लोगों को यह भी पता नहीं है कि क्या हो रहा है या वैक्सीन क्या चीज है? टीके की कमी और डिजिटल जानकारी के आभाव से हो रही परेशानी के चलते शहरी इलाकों में रहने वाले लोग ग्रामीण या आदिवासी इलाकों में जाकर टीके लगवा रहे हैं जिससे वहां के स्थानीय लोगों को टीके नहीं मिल पा रहे हैं. लेकिन सरकार ने इस बात को मानने से इनकार किया है कि ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया लोगों के लिए समस्या है. उसने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया कि वह नागरिक जिनके पास इंटरनेट संसाधन नहीं है वह अपने परिजनों, दोस्तों, एनजीओ आदि की मदद से पंजिकरण करा सकते हैं. इस तरह का बयान यह बताता है कि सरकार नहीं समझती कि ऐसी मदद मांगने में जिस तरह की झिझक लोगों को होती है उससे वह टीका लगाने से वंचित रह सकते हैं.
सरकार ने यह दावा डी. वाई. जस्टिस चंद्रचूड़, नागेश्वर राय और रविंद्र भट्ट की पीठ द्वारा 30 अप्रैल को पारित एक विस्तृत आदेश के जवाब में किया था. उस आदेश में केंद्र सरकार की टीकाकरण नीति पर गंभीर सवाल उठाए गए थे. उस आदेश में अदालत ने पूछा है कि जब टीकाकरण 18 साल से ऊपर के सभी लोगों के लिए खोल ही दिया गया है तो ऐसे में राज्य सरकारों को कहना कि वे 18 से 44 आयु वर्ग के लोगों के टीकाकरण के लिए स्वयं टीकों की व्यवस्था करे तार्किक नहीं होगा. दोनों श्रेणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने लायक वैक्सीन का पर्याप्त स्टॉक नहीं है. कीमत के सवाल पर बेंच ने कहा कि प्रथम दृष्टा केंद्र सरकार द्वारा अपनाई गई कीमत नीति की समीक्षा की आवश्यकता है. प्रथम दृष्टा, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के पालन के लिए यह तार्किक होगा कि केंद्र सरकार वैक्सीन की खरीद करे और मूल्य को लेकर वैक्सीन निर्माताओं से बातचीत करे. एक बार प्रत्येक राज्य के लिए टीके की संख्या निर्धारित हो जाने के बाद राज्य आवंटित संख्या के अनुसार टीके लेकर वितरण का काम कर सकते हैं.
उस आदेश में केंद्र सरकार की टीका नीति पर कई सवाल उठाए गए थे जिसमें कोविन प्लेटफार्म में इसकी उपलब्धता से संबंधित सवाल भी था. 9 मई को केंद्र सरकार ने इन सवालों के जवाब में हलफनामा दायर कर कहा कि टीकाकरण नीति संवैधानिक है और सुप्रीम कोर्ट को इस पर दखल नहीं देना चाहिए. हलफनामे में कहा गया है कि सरकार ने विस्तृत परामर्श के बाद उच्च कार्यकारी स्तर पर यह फैसले किए हैं और न्यायपालिका को उसके कर्तव्य में दखल नहीं देना चाहिए. “अति उत्साहजनक दखल गैर इरादतन और अप्रत्याशित परिणाम ला सकते हैं.”
चौधरी ने बताया कि महामारी के दौरान उनके संगठन ने कर्नाटक के चिकबल्लापुर जिले के ग्रामीण इलाकों में वैक्सीन पूर्व काउंसलिंग करवाई तो पता चला कि बहुत कम लोगों को कोविड-19 वैक्सीन की जानकारी है और उन्हें यह भी नहीं पता था कि वह टीकाकरण के लिए पात्र हैं अथवा नहीं. चौधरी ने कहा, “उन्हें वैक्सीन लगाने में झिझक हो रही है क्योंकि उन्होंने अफवाहें सुनीं थी कि वैक्सीन लगाने के बाद लोग बीमार पड़ रहे हैं. परेशानी यह है कि सिस्टम इस पूर्वाग्रह के साथ काम करता है कि सभी लोग जागरुक हैं और टीका लगवाने के लिए उत्साहित हैं.
इस तरह सरकार की वैक्सीन नीति शहरी मध्यम वर्ग के लिए फायदेमंद है. इंद्रनिल ने कहा, “सरकार ने शहरी मध्यम वर्ग के गुस्से को शांत करने के लिए यह नीति बनाई है. सरकार दिखा रही है कि ‘देखिए हम लोग टीकाकरण कार्यक्रम आप सभी के लिए खोल रहे हैं और इसलिए आपको असुरक्षित महसूस करने की कोई जरूरत नहीं है.’ सरकार को अच्छी तरह से पता है कि ऐसा करने से मांग और आपूर्ति का संतुलन गड़बड़ा जाएगा.”
18 साल से ऊपर के सभी लोगों के लिए टीकाकरण खोलने की घोषणा से पहले आईसीएमआर के महामारी विभाग के पूर्व अध्यक्ष ललित कांत ने कारवां को बताया था कि हमें पता है कि बुजुर्ग लोगों में संक्रमण और मौतों का खतरा अधिक है. केंद्र सरकार ने जो डेटा जारी किया है उससे पता चलता है कि मरने वाले 88 प्रतिशत से अधिक लोग 45 साल से अधिक के हैं. हमारे पास पर्याप्त टीके नहीं हैं और इसीलिए उम्र में बड़े लोगों को प्राथमिकता देना सही फैसला होगा. अभी जो टीकाकरण अभियान चल रहा है उसका असर चार से छह हफ्तों में दिखेगा और सभी के लिए टीकाकरण का फैसला लहर को नहीं थाम पाएगा. इससे सिर्फ मांग-आपूर्ति चेन गड़बड़ा जाएगी.”
कांत की यह बात देश भर से आ रही खबरों से सही साबित होती है. कई स्वास्थ्य जानकारों ने कहा है है कि सरकार को बच्चों के लिए चलाए जाने वाले यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम के मॉडल को अपनाना चाहिए. इस मॉडल में तीन चरण होते हैं : रूटीन, अभियान और पहुंच. इसे मुख्य रूप से मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता अथवा आशा कार्यकर्ता और एक्जिलेरी नर्स मिडवाइफ अथवा एएनएम चलाते हैं. कई अपीलों के बावजूद सरकार ने घर-घर जाकर कोविड-19 टीकाकरण की बात नहीं मानी है. 12 मई को बॉम्बे हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस स्टैंड की यह कह कर आलोचना की थी कि यदि घर-घर जाकर बुजुर्गों का टीकाकरण किया गया होता तो इससे कई जानें बचाई जा सकती थीं.
लेकिन छूट की नीति से जो दूसरी परेशानी खड़ी हो गई है वह यह है कि इसने हाशिए के लोगों को टीकाकरण से मोहताज कर दिया है. इंद्रनिल ने मुझसे कहा, “इस तरह से टीकाकरण करने से 45 साल से ऊपर के लोग टीके से मोहताज हो गए हैं. सरकार चाहती तो 45 साल से ऊपर के लोगों को टीका लगाने के लिए अतिरिक्त खरीद कर सकती थी.”
अब हालत यह है कि इसके बारे में राज्यों को खुद तय करना पड़ रहा है. 7 मई को कर्नाटक सरकार ने 18 से 44 साल के लोगों के टीकाकरण कार्यक्रम को रोक कर सीधे खरीदे गए टीकों को 45 से ऊपर के लोगों के पूर्ण टीकाकरण के लिए इस्तेमाल करने का फैसला किया है.