क्या कोरोना की लड़ाई हार रहा है मध्य प्रदेश?

भोपाल के एक बाजार में कोविड-19 परीक्षण के लिए श्रमिकों के नमूने एकत्र करते हुए डॉक्टर. कोरोनोवायरस महामारी पर मध्य प्रदेश सरकार की प्रतिक्रिया में नियो​जन में खामियां नजर आती हैं, जिसने अपने निवासियों, विशेष रूप से भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को संक्रमण के आगे लाचार छोड़ दिया है. संजीव गुप्ता / ईपीए-ईएफई

2 अप्रैल को रात लगभग 2 बजे 60 साल के नरेंद्र खटीक ने घबराहट और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत की तो बेटे गौरव उन्हें लेकर 1984 के गैस हादसे के पीड़ितों के लिए बनेे भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर पहुंचे. यह भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए समर्पित सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल है. नरेंद्र और गौरव के पास गैस त्रासदी पीड़ित को दिया गया हैल्थ कार्ड है जिससे अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती होने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. लेकिन उस दिन उन्हें अस्पताल ने वापस भेज दिया. ऐसा इसलिए हुआ गया क्योंकि 23 मार्च को सरकार ने इस अस्पताल को कोविड-19 अस्पताल घोषित कर दिया था.

गौरव ने मुझे बताया कि इसके बाद वह अपने पिता को स्कूटर में इब्राहिमगंज इलाके के दो अस्पतालों में लेकर गए लेकिन दोनों अस्पतालों ने पिता को भर्ती करने से यह कह कर इनकार कर दिया कि उनके पास भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों का इलाज करने की सुविधा नहीं है. एक घंटे बाद नरेंद्र के परिवार ने उन्हें नर्मदा ट्रॉमा सेंटर, जो एक महंगा अस्पताल है, में भर्ती करा दिया. उस रात उनकी हालत में सुधार आ गया और दूसरे दिन शाम को उन्हें वहां से सरकारी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया ताकि उनका कोरोना का इलाज हो सके.

4 अप्रैल को रात 10 बजे गौरव को अस्पताल से फोन आया कि उनके पिता कोरोना पॉजिटिव हैं और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान भोपाल में शिफ्ट किया जाएगा. इसके थोड़ी देर बाद अस्पताल के प्रशासन ने उन्हें एक चेंबर में बुलाया और उन पर अपने पिता की जानकारी छिपाने का आरोप लगाया. गौरव ने बताया, “उन्होंने कहा कि मेरे पिता की हालत तेजी से खराब होती जा रही है. फिर रात करीब 11 बजे उन्होंने मुझे बताया कि वे लोग मेरे पिता को नहीं बचा सके.”

गौरव ने मुझे बताया, “जब मेरे पिता ने कोरोनावायरस और उसके प्रसार को रोकने के लिए लॉकडाउन के बारे में सुना था तो उन्होंने मुझे चेतावनी दी थी कि इससे गैस त्रासदी के पीड़ितों को बड़ा खतरा होगा क्योंकि अधिकांश गैस त्रासदी पीड़ित सांस की समस्या से ग्रस्त हैं और भारी काम नहीं कर सकते.” नरेंद्र खटीक कमजोर श्वास प्रणाली के मरीज थे और 2015 में उन्हें निमोनिया हुआ था. वह कोविड-19 से मरने वाले गैस त्रासदी के पहले पीड़ित हैं. 15 अप्रैल तक गैस त्रासदी के अन्य पांच पीड़ितों की मौत हो गई. मरने वालों के नाम इस प्रकार हैं : जगन्नाथ मैथिल, रामप्रकाश यादव, अशफाक नदवी, इमरान खान और यूनिस खान. भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति के सहसंयोजक एन. डी. जयप्रकाश के अनुसार, मरने वाले सभी हृदय और फेफड़ों से संबंधित रोग से ग्रस्त थे और उन्हें इलाज के लिए बार-बार बीएमएचआरसी अस्पताल आना पड़ता था.

15 अप्रैल को राज्य सरकार ने बीएमएचआरसी को कोरोना अस्पताल बनाने के अपने फैसले को वापस ले लिया लेकिन तब तक यह संक्रमण शहर में फैल चुका था. दो सप्ताह के अंदर ही 1984 के गैस त्रासदी के 8 अन्य पीड़ितों की मौत इससे हो गई. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन की सचिव मोहिनी देवी के अनुसार, “23 मार्च का ऑर्डर वापस लेने में सरकार की देरी की वजह से 8 गैस त्रासदी पीड़ितों की मौत हुई है क्योंकि बीएमएचआरसी ने उनका इलाज करना बंद कर दिया था. जिन लोगों ने भी गैस पीड़ितों को अनावश्यक रूप से परेशान किया है उन के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए और इस आपराधिक नजरअंदाजी से जिनकी मौत हुई है उनको क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिए.”

उपरोक्त बातें गैस त्रासदी के पीड़ितों के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता की ओर इशारा करती हैं. यदि ऐसा नहीं भी है तो कम से कम बीएमएचआरसी को बंद करने से होने वाले परिणाम का अनुमान लगा पाने में सरकार विफल तो निश्चित ही हुई है. यह फैसला यह भी दिखाता है कि राज्य में लोक स्वास्थ्य की हालत इतनी खराब है कि यहां जनता को महंगे निजी अस्पतालों और पहुंच से बाहर वाले सरकारी अस्पतालों में से किसी एक का चुनाव करना पड़ रहा है. इसके अलावा यह महामारी के प्रति सरकार की खराब योजना और बगैर सोची-समझी प्रतिक्रिया को भी बयान करता है. नरेंद्र ने जो चेतावनी दी थी उससे स्पष्ट है कि हजारों गैस पीड़ित कोविड-19 महामारी में सबसे ज्यादा खतरे का सामना कर रहे हैं और राज्य ने उनके बचाव की तैयारी ठीक से नहीं की है.

बीएमएचआरसी अस्पताल भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद या आईसीएमआर के अंतर्गत संचालित है. आईसीएमआर महामारी प्रतिक्रिया की नोडल एजेंसी है. 2004 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद आईसीएमआर ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को मिल रही स्वास्थ्य सेवा की समीक्षा के लिए एक परामर्श समिति का गठन किया था. उस परामर्श समिति की जून 2016 में हुई 14वीं बैठक के मिनट्स के अनुसार, बीएमएचआरसी ने तीन लाख 76 हजार गैस पीड़ितों का पंजीकरण किया है और एक लाख 70 हजार पीड़ित नियमित रूप से अस्पताल में उपचार के लिए आते हैं. इसका मतलब है कि राज्य सरकार ने लोक स्वास्थ्य संकट की घड़ी में इन पीड़ितों के लिए उपचार के द्वार बंद कर दिए थे.

बीएमएचआरसी को कोरोनावायरस के मरीजों के लिए समर्पित अस्पताल बनाए जाने के खिलाफ 68 साल की गैस पीड़िता मुन्नी बी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. जिस समय राज्य ने इस अस्पताल को कोरोना अस्पताल बनाने का निर्णय लिया था, उस वक्त मुन्नी अस्पताल के आईसीयू में भर्ती थीं. उन्हें अस्पताल छोड़ने को कहा गया. उन्होंने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. लेकिन 7 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी और उन्हें मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील करने को कहा. 2 दिन बाद मुन्नी की मौत स्वास्थ्य उपचार ना मिलने की वजह से हो गई. देवी ने मुझे कहा, “यह बहुत दुख की बात है कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट को इतने गंभीर मामले में हस्तक्षेप करने और गैस पीड़ितों के पक्ष में तुरंत कदम उठाने की जरूरत महसूस नहीं हुई.”

प्रत्येक सप्ताह इलाज के लिए बीएमएचआरसी जाने वाले गैस त्रासदी पीड़ित अकील अहमद ने मुझे कहा, “यह जानते हुए कि अन्य लोगों की तुलना में गैस पीड़ितों की लाइफ एक्सपेक्टेंसी या जीवन प्रत्याशा कम होती है, तो भी हमें हमसे बार-बार बुरा व्यवहार किया जाता है. इस बार भी बीएमएचआरसी को अचानक बंद कर दिया गया और हमें इसकी जानकारी तक नहीं दी गई. यह हमारी परेशानियों का अंत नहीं है. गैस त्रासदी पीड़ितों के लिए चीजें ठीक होने की बजाय दिन ब दिन खराब होती जा रही हैं.”

जयप्रकाश ने आईसीएमआर, बीएमएचआरसी और राज्य सरकार पर उपेक्षा करने और नजरअंदाजी का आरोप लगाया. "आईसीएमआर और मध्य प्रदेश सरकार ने गैस त्रासदी के पीड़ितों की स्वास्थ्य स्थिति की निगरानी में निरंतर रूप से कमजोर प्रदर्शन किया है. चौंकाने वाली बात यह है कि इन लोगों ने अस्पतालों और क्लिनिकों के मेडिकल रिकॉर्डों को अब तक डिजिटल नहीं किया और गैस त्रासदी के पीड़ितों को उनके पूर्ण मेडिकल रिकॉर्ड से संबंधित स्वास्थ्य बुकलेट भी नहीं दी है. गैस त्रासदी से संबंधित बीमारियों के उपचार का उपयुक्त प्रोटोकॉल त्रासदी के 35 साल बाद भी नहीं बन पाया है. यह संबंधित प्राधिकरण के असंवेदनशील रवैया का बयान हैं. लक्षणों का उपचार करने से और खराब दर्जे की दवाइयां देने से गैस पीड़ितों में रिनल फैलियर बढ़ा है."

मैंने भोपाल में आईसीएमआर की स्थाई संस्थान के संयोजक आर. एस. धलीवाल और बीएमएचआरसी की निदेशक प्रभा देशिकन को फोन, मैसेज और ईमेल से संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन दोनों ने जवाब नहीं दिया. मैंने राज्य के स्वास्थ्य आयुक्त फैज अहमद किदवई और मुख्यमंत्री कार्यालय से भी फोन और संदेश के माध्यम से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन वहां से भी जवाब नहीं मिला.

बीएमएचआरसी को कोरोना अस्पताल बनाने के राज्य सरकार के आदेश के बाद सूचना और कार्रवाई के लिए भोपाल समूह नाम के संगठन ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ याचिका डाली थी लेकिन जब वह मामला हाई कोर्ट में लंबित चल ही रहा था कि तभी सरकार ने अपना आदेश वापस ले लिया. सरकार ने अपना फैसला 21 दिनों के बाद वापस लिया था. उन 21 दिनों में गैस पीड़ित उपचार से वंचित रहे.

15 अप्रैल से बीएमएचआरसी कोविड-19 के नमूने लेने के साथ-साथ गैस त्रासदी के पीड़ितों का उपचार कर रहा है. लेकिन अब वह संक्रमित लोगों का उपचार नहीं कर रहा है. 11 मई को मैंने अस्पताल का दौरा किया और पाया कि वहां बहुत कम मरीज हैं. मई के आरंभ में किडनी डायलिसिस के लिए अस्पताल आए एक गैस त्रासदी पीड़ित ने मुझे बताया, “दुबारा खुलने के बाद बीएमएचआरसी केवल उन गैस त्रासदी हैल्थ कार्डधारकों को भर्ती कर रहा है जिनकी हालक बहुत गंभीर है. करोनावायरस संकट के गहराने की स्थिति में खराब प्रदर्शन से बचने के लिए अस्पताल केवल गंभीर मरीजों को ही भर्ती कर रहा है.”

25 मई तक स्थिति यह थी कि राज्य में कोरोनावायरस के पुष्ट 6859 मामले थे और इस महामारी से तब तक 300 लोगों की मौत हो चुकी थी. केवल भोपाल में 1271 पुष्ट मामले थे और यहां 48 लोगों की जान जा चुकी है. जयप्रकाश के अनुसार मरने वालों में कम से कम एक दर्जन लोग गैस त्रासदी पीड़ित हैं.

लोक स्वास्थ्य आंदोलन की भारतीय शाखा जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय सहसंयोजक अमूल्य निधि ने बताया कि महामारी से निपटने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कोशिश की एक प्रमुख समस्या यह है कि राज्य सरकार बहुत कम टेस्ट करवा रही है. 25 मई तक राज्य में कुल 138584 जांचें हुई थीं. आईसीएमआर के डेटा के अनुसार, राज्य में केवल 13 सरकारी और 7 निजी जांच लैबें हैं जबकि राज्य की आबादी 7 करोड़ से अधिक है. इसकी तुलना में महाराष्ट्र में, जिसकी आबादी 11 करोड़ है, 70 लैबें हैं. यानी वहां मध्य प्रदेश की तुलना में 3 गुना अधिक लैब हैं. जबकि आबादी सिर्फ 2 गुना अधिक है. केरल की आबादी 4 करोड से कम है लेकिन वहां 22 लैब हैं. इसी प्रकार कर्नाटक और गुजरात में जहां आबादी 7 करोड़ से कम है वहां क्रमशः 56 और 37 लैबें हैं. दिल्ली की आबादी 2 करोड़ से कम है और यहां 32 लैब हैं.

राज्य में जन स्वास्थ्य अभियान की कोर समिति के सदस्य एस. आर. आजाद के अनुसार राज्य सरकार ने सार्वजनिक और निजी लैबों के निर्माण की की दिशा में बहुत कम काम किया है. मिसाल के लिए राज्य में एक ऐसी लैब नहीं है जो सीबी नेट जांच करती हो. महामारी के फैलने से पहले तक टीबी रोग की पहचान करने के लिए यह जांच की जाती थी. आजाद ने बताया, “19 अप्रैल को आईसीएमआर ने इस बारे परामर्श जारी किया था और हमने इस जांच का सुझाव मध्य प्रदेश सरकार को दिया था. उस परामर्श में बताई गई सीबी नेट जांच राज्य सरकार ने अब तक शुरू नहीं की है जबकि यह तीव्र और सस्ती जांच है.”

इस संकट से निपटने की राज्य सरकार की कोशिश की दूसरी प्रमुख कमजोरी है कोविड-19 नमूनों की जांच में विलंब. 6 मई को जन स्वास्थ्य अभियान ने मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखा था जिसमें उसने नमूनों की संख्या और नमूनों के परिणाम की संख्या के अंतर का हवाला दिया था. इससे अंतर से बैकलॉग का पता चलता है. अभियान ने कहा था कि राज्य सरकार द्वारा जारी डेटा के अनुसार 1 अप्रैल को जांच के लंबित मामलों की संख्या 497 थी और 15 अप्रैल तक यह संख्या बढ़कर 4501 हो गई थी. 25 अप्रैल तक यह संख्या 9021 थी. 27 अप्रैल से राज्य सरकार ने लंबित जांच की संख्या का डेटा उपलब्ध कराना बंद कर दिया.

निधि ने बताया, “राज्य सरकार ना केवल बैकलॉग की समस्या का सामना कर रही है बल्कि नमूनों का बड़ी संख्या में अस्वीकार हो जाना भी चिंता का विषय है. 13 अप्रैल को किदवई ने उन सभी जिलों के अधिकारियों को पत्र लिखा था जहां कोविड-19 के नमूनों की जांच हो रही है. किदवई ने लिखा था कि वायरोलॉजी लैब को मजबूरन बहुत सारे नमूनों को सिर्फ इसलिए अस्वीकार करना पड़ रहा है क्योंकि उनमें उचित जानकारी नहीं भरी गई है.

किदवई के पत्र में नमूनों के प्रबंधन में की जा रही लापरवाही और बेतरतीबी की ओर इशारा है. उस पत्र में ऐसे कई कारण गिनाए गए हैं जिसके चलते प्रयोगशालाओं को मजबूरन नमूनों को अस्वीकार करना पड़ रहा है. कारणों को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बांटा गया है. एक है आईसीएमआर के रिक्विजिशन फॉर्म की गलतियां. इस फार्म को नमूने के साथ जमा करना पड़ता है. दूसरा कारण है टेस्ट में होने वाली गड़बड़ी. किदवई ने इन गल्तियों को इस प्रकार नोट किया है : “कैटेगरी नॉट मेंशंड”, “मोर देन वन कैटेगरी मेंशंड”, “इनकंप्लीट फॉर्म्स/फोटो कॉपी ऑफ फॉर्म्स”, नॉट इन लेजिबल हैंडराइटिंग” और “डॉक्टर सील साइन मिसिंग”. साथ ही किदवई ने, "सैंपल लीकेज”, “नेम मिसमैच”, “अनलेबल्ड सैंपल वाइअल (बोतल).” किदवई ने नमूनों के गुम हो जाने की बात का उल्लेख भी पत्र में किया है.

ऐसा नहीं है कि उस पत्र में ही पहली बार इन समस्याओं को इंगित किया गया था. 2 अप्रैल को कोविड-19 की स्थिति की जांच करने के लिए इंदौर पहुंची त्वरित प्रतिक्रिया टीम ने भी ऐसे ही अपेशेवर रवैया की रिपोर्ट की है. त्वरित प्रतिक्रिया टीम की 11 अप्रैल की रिपोर्ट के जवाब में राज्य स्वास्थ्य सेवा निदेशालय ने एक प्रेस वार्ता में कहा था, "अपूर्ण प्रयोगशाला फॉर्म और कुछ घटनाओं में अपात्र नमूनों के चलते नमूनों के अस्वीकार होने से संबंधित चिंताएं उसे हैं."

इस बीच निधि ने बताया है कि अब भी राज्य का स्वास्थ्य विभाग एक तरह की लापरवाही दिखा रहा है. 18 मई से दैनिक स्वास्थ्य बुलेटिन में कुल टेस्ट संख्या और दैनिक टेस्ट रिपोर्ट में अनियमितताएं देखी जा रही हैं. उदाहरण के लिए 17 मई को राज्य के स्वास्थ्य बुलेटिन में बताया गया था कि कुल 103898 टेस्ट हुए हैं. अगले दिन बुलेटिन में बताया गया कि राज्य ने 112168 टेस्ट किए हैं यानी उसने उस दिन 5373 टेस्ट किए थे. लेकिन दो दिनों के कुल टेस्टों की तुलना करने से पता चलता है कि कुल 8270 नए टेस्ट हुए. "तो बताइए कि उन 2897 टेस्टों की रिपोर्टें कहां गईं," निधि ने पूछा.

18 मई से पहले तक किए गए टेस्टों और जांच रिपोर्टों की संख्या मेल खाती थी. लेकिन उसके बाद से अनियमितता बरकरार है. 19 मई को राज्य सरकार ने रिपोर्ट दी थी कि कुल 116473 जांच की गई हैं जो पिछले दिन के मुकाबले 4305 अधिक हैं लेकिन उसने नई जांचों की संख्या 4233 बताई थी जो 4305 अधिक जांच के दावे से 72 काम है. 20 मई को राज्य ने बताया था कि उसने 4903 नए जांच किए हैं. जबकि उस दिन तक हुई कुल जांच में केवल 4264 की वृद्धि दिखाई गई है यानी 639 टेस्टों की गिनती ही नहीं हुई. अगले दिन एक बार फिर 420 कम नए जांच बताए गए. 22 से 24 मई तक क्रमशः 625 और 368 और 690 अधिक जांच होने की बता कही गई थी. 25 मई को राज्य सरकार ने ऐसी 1217 अतिरिक्त जांच की घोषणा की जिनकी गिनती नहीं हुई थी.

महामारी के खिलाफ राज्य की कमजोर प्रतिक्रिया के चलते मध्यप्रदेश में महामारी की स्थिति खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है. राज्य के 52 जिलों में से 50 जिलों में कोरोनावायरस फैल चुका है. 25 मई तक राज्य में इस वायरस से होने वाली मृत्यु की दर 4.37 फीसदी थी जो 2.86 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है.