बनारस हिंदू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष एवं समता पार्टी के प्रवक्ता रहे शिवकुमार सिंह कहते हैं, “किसी बनारसी ने सोचा भी नहीं रहा होगा कि इतना खौफनाक मंजर एक दिन उसकी आंखों के सामने आएगा कि श्मशान घाटों पर शवों को जलाने के लिए लाइन लगेगी, दफनाने के लिए जमीन कम पड़ जाएगी. आखिर कोरोना की लहर क्यों बेलगाम हो गई है? शमशान घाट और क्रबिस्तान में भारी संख्या में शवों को लाने का सिलसिला जारी है. यह हाल उस शहर का है जिसके सांसद नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं.”
कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में इस शहर में दवाओं, ऑक्सीजन, अस्पतालों में बेड एवं इलाज करने वाले डाक्टरों की भारी कमी है. कोविड रोगियों का हाल यह है कि पहले उन्हें जांच के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है, फिर अस्पतालों में बेड ढूंढने के लिए आपाधापी और आखिर में श्मशानों और कब्रिस्तानों में जगह के लिए ठेलाठेली. बनारस के श्मशान घाटों पर चौबीसों घंटे चिताएं जल रही हैं जिनकी परेशान करने वाली तस्वीरों ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनाई हैं.
बनारस के व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद कहते हैं, “कब्रिस्तानों की बात की जाए तो यहां दो गज जमीन के लिए अब प्रशासन की मदद लेने की जरूरत पड़ रही है. लाशों को दफनाने के लिए खुदाई करते-करते मजदूरों के हाथों में छाले पड़ गए हैं. कुछ इलाकों में अब जेसीबी तक की मदद लेनी पड़ रही है.”
बनारस शहर का हाल यह है कि कई रिहायशी इलाकों में अघोषित श्मशान घाट बनाए जा रहे हैं. यहां पहले मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर लाशें जलाई जाती थीं. हालात बिगड़े तो घाट के समीप रिहायशी इलाके में एक और नया श्मशान घाट खोल दिया गया. बनारस के जाने-माने पत्रकार विश्वनाथ गोकर्ण बताते हैं, “श्मशान घाटों पर जगह न होने के कारण लोगों को वरुणा नदी के संगम स्थित सराय मोहाना में भी कोविड के मृतकों के शवों को जलाना पड़ रहा है. कुछ लोग रामनगर में लाशें जलाने के लिए विवश हो गए हैं. कितना भयावह और दर्दनाक मंजर है यह.”
गोकर्ण कहते हैं, “हरिश्चंद्र घाट का हाल ही मत पूछिए. मजबूरी में घाट के ऊपरी चबूतरों पर भी लाशें जलाने के लिए लोगों को विवश होना पड़ रहा है. हरिश्चंद्र घाट से लगे बंगालीटोला, अस्सी और लंका तक के लोग दहशत में हैं. यही नहीं, लाशों को जलाने के लिए लकड़ियों की भारी किल्लत है. अंतिम संस्कार के लिए लोगों को घाटों पर घंटों इंतजार करना पड़ रहा है.”
कोरोना से मरने वालों के प्रशासन के आंकड़े चाहे जो भी हों, लेकिन श्मशान घाटों पर लगी चिताओं की लाइन कुछ अलग कहानी कह रही हैं.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में कुल 88 घाट हैं. ज्यादातर घाटों पर ध्यान, स्नान और पूजा-पाठ होता है. सिर्फ मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र पर अस्थियां जलाई जाती रही हैं. अब घाटों पर सन्नाटा पसर गया है. पूजा-पाठ बंद हो चला है. 20 मार्च 2021 को मैंने हरिश्चंद्र घाट पर बेकाबू होते कोरोनावायरस का भयावह मंजर देखा. यहां लाशों की लंबी कतारें लगी थीं. मिन्नतों और कई घंटों की प्रतीक्षा के बाद लकड़ियां मिल पा रही थीं. जो लकड़ियां मिल रही हैं उनमें ज्यादातर गीली हैं. श्मशान घाटों पर कोरोना मृतकों के शवों के अंतिम संस्कार के लिए लूट-खसोट का सिलसिला तेज हुआ तो प्रशासन ने जगह-जगह शवों के अंतिम संस्कार के लिए पीड़ितों के परिजनों से अंतिम संस्कार के लिए शवों से होने वाली वसूली का रेट चार्ट जारी कर दिया. जगह-जगह बोर्ड तक लगवा दिए गए. लेकिन हालात में कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ है.
बनारस के चर्चित अधिवक्ता नित्यानंद राय कहते हैं, “बिगड़ते हालात को कैसे संभाला जाए क्योंकि जिस तरह से मौतों के आंकड़े बढ़ रहे हैं उससे यह तो साफ हो गया है कि काशी में हालात बेकाबू हो चले हैं. कोरोना का कितना भयावह मंजर है बनारस में? बनारस के जिस हरिश्चंद्र घाट पर जहां दिन में सिर्फ चार-छह लाशें आती थीं, अब गिन पाना मुश्किल हो गया है. कोई चालीस बता रहा है तो कोई पचास. वाराणसी प्रशासन या स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी हर दिन जो आंकड़े जारी कर रहे हैं, श्मशान घाटों पर होने वाले दाह संस्कारों और अस्पतालों में होने वाली मौतों से वह कहीं से मेल ही नहीं खाते. आंकड़ों में जमीन और आसमान का फर्क है.”
वाराणसी के भोजूवीर निवासी विमल कपूर की मां की मौत 9 अप्रैल को कोरोना से हुई. काफी जद्दोजहद के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया था. फेफड़े में इंफेक्शन था. बाद में जांच रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव आई. फिर भी मां की जिंदगी नहीं बच सकी. मौत के बाद एम्बुलेंस के लिए घंटों भाग-दौड़ करते रहे. हरिश्चंद्र घाट पहुंचे तो वहां का नजारा दिल दहला देने वाला था. एक के ऊपर एक लाशें जालाई जा रही थीं.
हरिश्चंद्र घाट के कर्मचारी बताते हैं, “अब भी बहुत ही भयावह मंजर है घाटों का. लाशें गिनते-गिनते थक जा रहे हैं. हम लोगों ने ऐसा दृश्य जिंदगी में कभी नहीं देखा था. घंटों इंतजार के बाद शवों को जलाने के लिए नंबर लग पाता है. सिफारिश के बाद जो लकड़ियां मिल रही हैं वे गीली हैं. 10-15 लोगों की वेटिंग चल रही है. जो लाशें सील होकर आ रही हैं उनके आधार पर हमें अंदाजा हो जाता है कि वे कोरोना पीड़ितों की हैं. कहा जा सकता है कि स्थिति बहुत अधिक भयावह है.”
हरिश्चंद्र घाट के पास रहने वाले दिनेश विश्वकर्मा कहते हैं, “हरिश्चंद्र घाट पर एम्बुलेंस की लाइनें कभी नहीं देखी थी, लेकिन अब दिख रही हैं. प्रशासन झूठे आंकड़े पेश कर रहा है. ऐसा आंकड़ा जो किसी के गले से नीचे ही नहीं उतर पा रहा है. कोविड से मरने वालों के क्रिमेशन के लिए आठ-आठ घंटे का इंतजार कितना डरावना और दर्दनाक है.” शमशान घाटों की हालत यह है कि कई लोग मुर्दों को घाटों पर ही छोड़कर चले जा रहे हैं.
पिछले तीन हफ्तों से बनारस की एक भयावह तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. यह तस्वीर जौनपुर के मड़ियाहूं के विनय सिंह के भतीजे विनीत सिंह की है. वह मुंबई में काम करता था. घर आया तो तबीयत खराब हो गई. विनीत को लेकर परिवार वाले बीएचयू गए लेकिन किसी डाक्टर ने नहीं देखा. बाद में चंद्रकला बेटे को ककरमत्ता स्थित एक प्राइवेट अस्पताल में ले गईं. वहां भी उसे भर्ती नहीं किया गया. तिपहिया टेंपो पर मां चंद्रकला के कदमों में युवक विनीत की तड़प-तड़पकर जान चली गई. चंद्रकला आंसू बहाती रह गईं.
यह कहानी इलाज के अभाव में सिर्फ एक युवक के दम तोड़ने की नहीं है. पिशाचमोचन निवासी अर्पित अपनी 65 साल की दादी आशा श्रीवास्तव को नहीं बचा सका. बीएचयू में संगीत विभाग की शिक्षिका एवं ख्यातलब्ध वायलिन वादक डॉ. स्वर्ण खुटिया, होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ. आशीष सिंह, आजादी के पुरोधा परशुराम राय समेत कई मीडियाकर्मी कोरोना की भेंट चढ़ गए. ये वे लोग थे, जिन्होंने बनारस को गढ़ने में अपनी अहम भूमिका अदा की है. मोदी की काशी में कोविड से न जाने कितनों की जानें सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों में बेड न मिल पाने की वजह से चली गई. वाराणसी के पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह तंज कसते हुए कहते हैं, “बनारस में विकास के लंपटीकरण की लस्सी पीते रहिए. शमशान पर लकड़ियों का रेट बढ़ गया है. अस्पताल में बेड नहीं, वेंटिलेटर नहीं, दवा नहीं. जनता को मूर्ख बनाने का नतीजा है यह.”
बनारस में पंचायत चुनाव के एक दिन पहले मोदी ने पश्चिम बंगाल चुनावों में अपनी व्यस्तता के बावजूद वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बनारस का हाल लिया था और हेल्पलाइन बनाने का निर्देश दिया था. मोदी के आदेश पर लोगों की मदद के लिए उनके संसदीय कार्यालय में हेल्पलाइन नंबर 0542-2314000 और 9415914000 की भी शुरुआत की गई, जहां लोग अस्पताल, बेड, ऑक्सीजन, एम्बुलेंस संबंधी मदद ले सकते हैं. लेकिन ये हेल्पलाइन सिर्फ कोरोना पीड़ितों के आंसुओं को सुनने भर के लिए हैं. बनारस के मोहनलाल श्रीवास्तव और उनके परिजन ने कोविड पीड़ित पिता के उपचार के लिए पीएम हेल्पलाइन पर न जाने कितनी मर्तबा फोन किया. अफसरों के बंगलों की घंटियां बजाईं. किस-किस से ऑक्सीजन और इलाज के लिए नहीं गिड़गिड़ाया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
बनारस में पहले आरटीपीसीआर की रिपोर्ट चौबीस घंटे में आ जाती थी. अब बड़ी संख्या में मरीजों के सेंपल के नजीते अपडेट नहीं किए जा रहे हैं. बनारस में ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है. कुछ लोगों की रिपोर्ट छह-सात दिन में आ रही हैं तो कुछ को कोरोना से चंगा होने के बाद मिल रही है. आरजे मनीषा सिंह के 60 वर्षीय पिता नवीन प्रकाश सिंह को शहर के एक अस्पताल में तब भर्ती किया गया जब बनारस की समूची मीडिया ने घोड़े खोल दिए. ऑक्सीजन और रेमेडिसविर न मिल पाने के कारण इनकी हालत गंभीर हो गई.
मनीषा बताती हैं, “पापा की हालत गंभीर हो रही थी और और डॉक्टर कोरोना रिपोर्ट के बिना अस्पताल में भर्ती नहीं कर रहे थे. उन्हें देखने तक के लिए तैयार नहीं थे. यह जरूर बता रहे थे कि मरीज में सभी लक्षण कोरोना के हैं. ऑक्सीजन सैचुरेशन तेजी से गिर रहा है और हम ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं हैं. अगर मेरे पापा छह दिन पहले ही अस्पताल में भर्ती हो गए होते तो उनकी हालत इतनी खराब नहीं हुई होती."
मनीषा कहती हैं, “जिला प्रशासन के अलावा पीएम दफ्तर के हेल्पलाइन नंबरों पर न जाने कितनी मर्तबा फोन किए. विधायकों और शहर के मंत्रियों से भी गुहार लगाई, लेकिन हर जगह निराशा ही हाथ लगी. हमें पहली मर्तबा अफसोस हुआ कि हमने सिर्फ नाकारे जनप्रतिनिधियों को चुना है. चाहे वे सांसद हों या विधायक या फिर मेयर-सभासद. हमें तो बस यही लगता है कि बनारस में सिर्फ बाबा विश्वनाथ ही लोगों का इलाज कर रहे हैं. तारने वाले वही हैं और मारने वाले वही. हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का नारा यहां फरेब साबित हो रहा है. बनारस का हाल यह है कि यहां व्यवस्था को नियंत्रित करने वाला ही कोई रह ही नहीं गया है. कुछ रोज पहले तक जो लोग घर-घर आकर राम मंदिर के लिए चंदा जुटा रहे थे और अच्छे दिन के सब्जबाग दिखाते थे, इन दिनों वे सभी लापता हैं.”
बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष हाजी अनवर अंसारी भी कोरोना उपचार की कुव्यवस्था से काफी खिन्न हैं. पिछले साल इन्होंने कोरोना पीड़ित मरीजों की खूब आवभगत की थी. इनकी भाभी के लिए प्रशासन एक अदद बेड की व्यवस्था तक नहीं कर सका. 17 अप्रैल 2021 को उनकी मौत हो गई. पिछले साल हाजी साहब ने लोगों को लंच पैकेट, दस्ताने, मास्क से लेकर दवाइयां तक बांटी थीं. नरेन्द्र मोदी ने 9 जुलाई 2020 को वर्चुवल संवाद में हाजी अनवर की तारीफों के पुल बांधे थे. हजारों लोगों को मदद करने वाले हाजी अनवर इस बार अपने परिजन की मदद नहीं कर सके. सीएमओ, डीएम, और बीजेपी के सभी नेताओं को फोन किया पर कोई एक बेड तक नहीं दिला सका.
बनारस में राकेश श्रीवास्तव की पत्नी की बीते 15 अप्रैल को कोरोना से मौत हो गई. पिछले साल ही उनके इकलौते बेटे की मौत हुए थी. मदद नहीं मिली तो राकेश श्रीवास्तव के पिता भी चल बसे. घर में अब सिर्फ वह और उनकी एक छोटी बेटी रह गए हैं. राकेश कहते हैं, “अगर उन्हें कोविड पॉजिटिव की रिपोर्ट भर मिल गई होती तो हम अपनी पत्नी को किसी न किसी अस्पताल में दाखिला जरूर करा देते. उनकी पत्नी का ऑक्सीजन सैचुरेशन लगातार गिरता जा रहा था. ऑक्सीजन लगा रखा था. वेंटिलेटर नहीं मिला. 'रेमेडिसविर इंजेक्शन लगाने के बावजूद उनकी जान नहीं बची. कोरोना की जांच रिपोर्ट तब आई जब वह दुनिया से रुखसत कर गईं. रिपोर्ट आने के बावजूद हमें नहीं दी गई. अब बहाने गढ़े जा रहे हैं.”
पीएम हेल्पलाइन के पास इस बात का कोई रिकार्ड नहीं है कि उनके पास कितने फोन आए और कितनों को बेड व दवाओं का इंतजाम कराया? यह स्थिति तब है जब बीजेपी के वाराणसी में मोदी के संसदीय इलाके में बीजेपी के सह प्रभारी सुनील ओझा दावा करते हैं, “प्रधानमंत्रीजी के निर्देश पर हम लोगों ने 19 अप्रैल से कोविड नियंत्रण कक्ष शुरू किया. इसका मकसद सरकारी विभागों का कोऑर्डिनेशन करना है ताकि संक्रमित लोगों को जल्द से जल्द इलाज और जरूरी सुविधाएं हासिल हों. 30 लोगों की टीम चौबीस घंटे काम कर रही है. एक दर्जन से ज्यादा डाक्टर भी तैनात किए गए हैं. सभी को सहायता दी जा रही और सुझाव भी दिया जा रहा है. हालांकि इस नियंत्रण कक्ष के फेल हो जाने पर प्रशासन ने प्राइवेट अस्पतालों पर मजिस्ट्रेटों का पहरा बैठा दिया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.
प्रधानमंत्री मोदी के समर्थक मनबोध लाल श्रीवास्तव का भी कहना है कि नियंत्रण कक्ष में भले ही बड़ी संख्या में लोगों के फोन आ रहे हैं लेकिन मदद अभी उतनी कारगर नहीं दिख रही है. हेल्पलाइन से फौरी तौर पर किसी को राहत नहीं मिल रहा है, लेकिन भीड़ इतनी अधिक है कि वहां नियंत्रण कक्ष में काम करने वाले संभाल नहीं पा रहे हैं. हालांकि गरीब और असहाय लोगों के लिए ये हेल्पलाइन बहुत बड़ा सहारा है जिनकी अस्पतालों तक कोई पहुंच नहीं है."
बनारस से कांग्रेसी नेता हरीश मिश्र, जिन्हें लोग बनारस के मिश्रा जी के नाम से जानते हैं, कहते हैं, “बनारस का कोई ऐसा इलाका नहीं हैं जहां से लाशें नहीं उठी हैं, जो कोरोना की पीड़ा से गुजरे हैं, जिन्होंने अपने लोगों को चिताओं पर जलते हुए दूर से देखा है. जिन्होंने कतारों में लाशें देखी है, उनके दिल से पूछिए. शमशान घाटों पर जिन लाशों को लोहे के बाड़े में जालाया जाता था, वे भी पिघलने लगे हैं लेकिन अफसरों और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के दिल नहीं पिघल रहे हैं. ईद सिर पर है. लॉकडाउन के चलते बाजार बंद हैं. नए कपड़ों से ज्यादा बनारस में कफन बिक रहे हैं.”
मिश्र कहते हैं, “बनारस में सिर्फ झूठी कहानियां गढ़ी जा रहा रही हैं. आंकड़ा देखिए. बनारस में पिछले बीस सालों से ज्यादातर सांसद, विधायक, मेयर व सभासद बीजेपी के रहे हैं. इन नेताओं ने रामजी के मंदिर के लिए अपराधियों, गुंडों और मवालियों तक से लाखों-लाखों रुपए वसूल डाले लेकिन भगवान के नाम पर एक अस्पताल बनवाने की जरूरत नहीं समझी. बनारस के पड़ाव पर एक हिंदूवादी नेता की मूर्ति संजाने में जितना धन और समय बर्बाद कर डाला, उतने में कोविड पीड़ितों के इलाज के लिए बनारस और चंदौली में कई अस्पताल खुल गए होते.”
मिश्र यहां तक कहते हैं कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं के लिए बनारस की जनता सिर्फ भेड़ बकरियां भर हैं, जब चाहे हलाल कर दो, कभी कोरोना के नाम पर, कभी नोटबंदी के लिए लाइन में लगवाकर.” मिश्र ने आगे पूछा, “बनारस के सांसद मोदी ने बनारसियों की बीमारी पर चिंता जरूर जताई पर उपचार का उपाय कुछ भी नहीं बताया. जनता सवाल पूछ रही है कि पिछले साल कोविड के नाम पर कोरोना केयर फंड में जो धन जुटाया गया था वह कहां गया? बनारस बीजेपी का आलीशान दफ्तर बनवाने के लिए दस करोड़ रुपए कहां से आ गए? बनारस के लोग मर रहे हैं और भक्त कह रहे हैं कि यह प्रसाद है. आखिर यह कैसा प्रसाद है?”
प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र में कोविड के उपचार में घोर लापरवाही के मामलों ने बीजेपी सरकार की कार्यप्रणाली की कलई खोलकर रख दी है. सरकार के खराब स्वास्थ्य ढांचे को सुर्खियों में ला दिया है. मरीजों में सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उनकी कैबिनेट के कई सहयोगी, दर्जनों सरकारी अधिकारी और सैकड़ों डॉक्टर, नर्स और अन्य स्वास्थ्य कार्यकर्ता शामिल हैं. बनारस के सीएमओ तक कोरोना की चपेट में आ गए.
बनारस में जितने लोगों से बात कीजिए, सभी के पास दिल दहला देने वाली कहानियां हैं. बनारस के कबीरचौरा स्थित मंडलीय अस्पताल में कई कोविड के मरीज ऐसे दिख जाते हैं जिन्हें बेड के अभाव में सिलेंडर लगाकर कुर्सियों पर ही बैठा दिया गया है. डाक्टरों का जवाब यह है कि उनके पास बेड नहीं हैं.
सपा नेता राजकुमार जायसवाल की मंडलीय अस्पताल कबीरचौरा से सटी लोहटिया में दुकान है. वह कहते हैं, “हम हर रोज मरीजों को लौटाए जाते हुए देख रहे हैं, जबकि बनारस के आला सभी हुक्मरान दावे कर रहे हैं कि हमारे पास बेड की कमी नहीं है. अगर सब कुछ है तो रोगियों का इलाज क्यों नहीं हो पा रहा है? बनारस में अब तो सिर्फ लाइन लगाने की नई रवायत शुरू हुई है. कभी सिम के लिए लाइन, कभी नोट बदलने के लिए लाइन, कभी बस-ट्रेन की लाइन और अब शव जलाने के लिए लाइनें लग रही हैं. इसे बेशर्मी नहीं तो क्या कहा जाए?"
सरकारी आंकड़ों पर यकीन करें तो बनारस में इस साल छह मई तक कोरोना से मरने वालों की संख्या सिर्फ 625 थी और 13306 लोग होम आइसोलेशन व अस्पतालों में इलाज करा रहे हैं. जिला प्रशासन का दावा है कि इस समय करीब 14 हजार सक्रिय मरीज हैं. स्वास्थ्य महकमे के अफसरों ने शासन से तीन लाख टैबलेट और पांच लाख फेस मास्क के अलावा अन्य सामानों की मांग की है. युवाओं का टीकाकरण नहीं हो पा रहा है. आपाधापी मची हुई है. जिला महिला अस्पताल और चौकाघाट स्थित आयुर्वेद कालेज में सात मई को युवाओं की कई टोलियां भटकती मिलीं.
विपक्षी दलों का आरोप है कि बनारस में हालात ज्यादा बिगड़ने पर जांचें बंद कर दी गईं ताकि आंकड़े घट जाएं. यह स्थिति तब है जब सरकारी अस्पतालों में पहुंच रहे सैकड़ों में से कुछ गिने-चुने लोगों का ही कोविड टेस्ट हो पा रहा है. वाराणसी प्रशासन ने शहर के सभी छोटे-बड़े, सरकारी-गैर सरकारी अस्पतालों को कोविड अस्पताल बना दिया गया है लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए एम्बुलेंस की कौन कहे, एक अदद बिस्तर, ऑक्सीजन और जरूरी दवाएं तक नहीं हैं. कोविड पीड़ितों के परिजन दिन-रात ऑक्सीजन और रेमेडिसविर इंजेक्शन की तलाश में भटक रहे हैं.
वाराणसी के एक निजी अस्पताल हेरिटेज हॉस्पिटल्स के निदेशक अंशुमान राय कहते हैं, “मौजूदा हालात साधारण नहीं हैं. स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने के कई कारण हैं. कोरोना से डॉक्टर, नर्स, वार्ड बॉय और लैब टेक्नीशियन जैसे स्वास्थ्य विभाग के ढेरों कार्यकर्ता बीमार हो रहे हैं. मौजूदा दौर में हमें 200 फीसदी काम करना चाहिए लेकिन पचास फीसदी योगदान भी नहीं दे पा रहे हैं.
बनारस के स्वास्थ्य विभाग के मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. वीबी सिंह के अनुसार, जिले में 2000 से अधिक बिस्तर हैं और भर्ती योग्य मरीजों की तादाद 1500 से ज्यादा नहीं है. फिर बिस्तर और दवाएं क्यों नहीं मिल पा रही हैं? उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है? सीएमओ सिंह के मुताबिक, बनारस के सरकारी अस्पतालों में 750 से अधिक बेड हैं. बीएचयू में 366, बीएचयू ट्रामा में 50, दीनदयाल जिला अस्पताल-पांडेयपुर, ईएसआईसी-पांडेयपुर और बरेका अस्पताल में 40-40 बेड हैं. कोरोना पीड़ितों के लिए होमी भाभा कैंसर इंस्टीट्यूट कैंट में 100 बिस्तरों वाला अस्पताल खोला गया है. प्राइवेट अस्पतालों की संख्या 45 है, लेकिन वहां मरीजों के तीमारदारों से मोलतोल किया जा रहा है. जो ज्यादा पैसा दे रहा है उसे बिस्तर दिए जा रहे हैं, जो सक्षम नहीं हैं उन्हें सीरियस बताकर लौटा दिया जा रहा है. इस बात की पुष्टी बनारस में ज्यातातर लोग कर रहे हैं.
बनारस के शिक्षक एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने आदित्यानाथ को एक चिट्ठी भेजी है, जिसमें उन्होंने इस बात का विस्तार से हवाला दिया है कि प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों की जेबें देखकर भर्तियां की जा रही हैं. सामान्य रूप से रोजोना 40000-50000 रुपए वसूले जा रहे हैं. 300 रुपए वाले ऑक्सीजन सिलेंडर 3000 रुपए में बेचे जा रहे हैं और वह भी नहीं मिल रहे हैं. रेमेडिसविर इंजेक्शन 50000 रुपए में ब्लैक में बेचा जा रहा है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टर नहीं, दवाएं नहीं. डीएम, एसडीएम के दफ्तरों में फोन करने के बावजूद जवाब नहीं मिल रहा है. बस एक ही रिकार्ड हर जगह बजाया जा रहा है, “साहब बहुत व्यस्त हैं या फिर मीटिंग में हैं.”
बनारस में कोरोना के ज्यादातर मरीज इसलिए दम तोड़ रहे हैं कि उनकी जांचें ही पेंडिंग हैं. बनारस के बीएचयू में रोजाना पीएसआर जांच की क्षमता 7000 है. गाजीपुर, चंदैली, जौनपुर, भदोही, गाजीपुर समेत कई जिलों की सरकारी सैंपलों की जांचें यहीं हो रही हैं. कुछ दिनों पहले कार्यकारी सीएमओ रहे डॉ. एनपी सिंह बताते हैं, “बनारस में कोरोना के इतने अधिक मरीज हैं कि अगर साढ़े छह हजार बनारस के लोगों की जांचें हों तब चौबीस घंटों में रिपोर्ट मिल पाएगी. कबीरचौरा के मंडलीय अस्पताल में कोविड जांच की क्षमता 600 और प्राइवेट अस्पतालों में 500 से ज्यादा नहीं है. सरकारी अस्पतालों में 11 से 12 हजार कोरोना के सैंपल पहुंच रहे है. जांचों की कुल क्षमता जब 8200 से ज्यादा नहीं है, बैकलॉग तो आएगा ही.”
बनारस में कोरोना के मरीज पिछले साल के मुकाबले अबकी कई गुना अधिक हैं. पिछले साल एक दिन में सर्वाधिक 321 पॉजिटिव रोगी मिले थे. इस बार रोजाना 2200 से 2500 के बीच रोगी आ रहे हैं. कांटेक्ट ट्रेसिंग तो सिर्फ कागजों पर चल रही है. किसी के पास कोई पुख्ता आंकड़ा नहीं है. ईएसआई अस्पताल पांडेयपुर का हाल बहुत बुरा है. सुबह 7 बजे यहां मरीजों की लाइनें लग रही हैं. लोग अस्पताल में पहुंचकर चॉक से गोला बनाकर अपना नाम और संख्या लिख रहे हैं. दोपहर में जांच करने वाले आते हैं और 100 लोगों का सैंपल लेने के बाद बाकियों को लौटा देते हैं. यह रोज का सिलसला है. लोगों को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे अपनी जांच कहां और किससे कराएं. मनमाना पैसा देने के बावजूद कोरोना जांच की शहर में कहीं कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है. अस्पताल के डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें जांच किट ही नहीं दिया जा रहा है. इसकी वजह यह है कि अगर बैकलॉग ज्यादा हो गया तो बनारस की लैबों में रोगियों की जांच मुश्किल हो जाएगी. बेहतर है कि लोग मर जाए, जांच की नौबत ही न आ पाए. कोई समझ ही न पाए कि अमुक व्यक्ति बीमारी से मरा या फिर कोरोना से. यही वजह है कि श्मशान घाटों पर मृतकों की कतारें अखबारों की सुर्खियां बनती जा रही हैं.
कोविड से जूझ रहे देश के जाने माने एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन रघुवंशी की पत्नी श्रुति नागवंशी कहती हैं, “कोरोना में घिरे देश को करीब 1000 करोड़ रुपए के नए संसद भवन की जरूरत थी क्या? क्या बनारस में दस करोड़ रुपए के नए बीजेपी दफ्तर की क्या जरूरत थी? राम मंदिर के लिए 1100 करोड़ रुपए के लिए बनारस में घर-घर वसूली की क्या आवश्यक्ता थी? मंदिर के लिए चंदा मांगा जा सकता है तो बनारस समेत यूपी के प्रमुख शहरों में नए कोविड अस्पताल बनाने के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं किया गया? क्या कोविड अस्पताल बनाने की जरूरत नहीं थी? मूर्तियों के लिए पैसा है. कुंभ सजाने और चुनाव कराने के लिए पैसा है. रैलियां करने के लिए पैसा है. भारत में बने टीके को विदेशों में भेजने के लिए दरियादिली दिखाने का हौसला है लेकिन अपने देश में कोविड से मर रहे लोगों के लिए कुछ भी नहीं है. आखिर क्यों? बनारस कौन कहे, यूपी में एक भी पैनडमिक स्पेशलिस्ट नहीं हैं.”
वाराणसी में कोरोना को मात देने के लिए योगी सरकार ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में करीब 1000 बेड का जो अस्थायी अस्पताल बनवाना शुरू किया था वह लेकिन ऑक्सीजन के अभाव में अभी तक चालू नहीं किया जा सका है. अब तक करीब 750 बेड लगाए जा चुके है. डीआरडीओ के अफसर अभी तैयारियों और मीटिंगों में ही व्यस्त हैं. एडिशन सीएमओ डॉ. एके मौर्य का दावा है कि स्वास्थ्य कर्मियों की तैनाती की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है. 10 मई के बाद इस अस्पताल को चालू कर दिया जाएगा.
अस्थायी अस्पताल बीएचयू के स्टेडियम में बनाया जा रहा है. जर्मन हैंगर से निर्मित इस अस्पताल को पिछले महीने ही चालू करने का दावा किया गया था. डीआरडीओ के अफसरों ने यह भी कहा था कि फार्मेसी, ऑक्सीजन सप्लाई, मॉरचरी आदि सभी आवश्यक चीजों की भी व्यवस्था शीघ्र कर ली जाएगी. डीआरडीओ ने लिक्विड ऑक्सीजन का प्लांट भी लगाने का ऐलान किया था लेकिन इस अस्पताल के अभी तक चालू न होने से पूर्वांचल को कोरोना मरीज और उनके तीमारदार मुश्किल में हैं.
अस्थायी अस्पताल में मैन पावर का इंतजाम बीएचयू व स्थानीय प्रशासन को करना है. अस्पताल का संचालन बीएचयू करेगा. रखरखाव का काम डीआरडीओ करेगा. इस अस्पताल के बन जाने से एक ही स्थान पर अधिक से अधिक मरीजों का इलाज आसानी से होने की उम्मीद जगाई गई थी.
वाराणसी के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा कहते हैं कि प्रधानमंत्री के निर्देश पर अस्थायी अस्पताल बनाने का निर्णय लिया गया है. एमएलसी ए. के. शर्मा की अध्यक्षता में मंडलायुक्त दीपक अग्रवाल, जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा, नगर आयुक्त गौरांग राठी सहित डीआरडीओ, बीएचयू, सीपीडब्ल्यूडी,बिजली विभाग के अधिकारियों के साथ लगातार बैठकें कर रहे हैं और मरीज दम तोड़ते जा रहे हैं.
बीएचयू के ट्रॉमा सेंटर में लेवल-तीन के मरीजों के उपचार के लिए जिला प्रशासन की ओर से मिले 27 वेंटिलेटरों में से 15 ने इन दिनों काम करना बंद कर दिया है. ट्रॉमा सेंटर के इंचार्ज प्रोफेसर एस. के. गुप्ता कहते हैं कि बड़ी संख्या में वेंटिलेटरों के खराब होने का ब्योरा जिला प्रशासन और कंपनी को दिया जा चुका है. बड़ा सवाल यह है कि प्रशासन ने आखिर कैसी वेंटिलेटर खरीद की है जिसने चंद दिनों में ही काम करना बंद कर दिया? ट्रॉमा सेंटर के चिकित्सक एक हफ्ते से कंपनी के इंजीनियरों की बाट जोह रहे हैं और वेंटिलेटर की कमी के चलते गंभीर रोगी दम तोड़ते जा रहे हैं.
“मोदी ने हमें पोलिटकल क्वारंटीन कर दिया”, पूर्व मंत्री शतरुद्र प्रकाश
बनारस से पूर्व मंत्री और सपा के कद्दावर नेता एमएलसी शतरुद्र प्रकाश इस बात से आहत है कि सरकार ने उन्हें “पोलिटकल क्वारंटीन” कर दिया है. वह कहते हैं, “उद्घाटन और सरकारी कार्यक्रमों में तो हमें बुलाया ही नहीं जाता. आपदा में भी हमें नहीं पूछा जाता. बीते दिनों मोदी ने बनारस के जनप्रतिनिधियों से बातचीत की. हमारे अलावा एमएलसी आशुतोष सिन्हा और लाल विहारी यादव को पूछा ही नहीं गया. हमने डीएम से शिकायत की तो उन्होंने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि पीएम से बात करने वालों की सूची ऊपर से आती है. हम तो आपदा में अवसर नहीं, कर्तव्य खोजते हैं. कोरोनाकाल में पीएम मोदी और इनकी पार्टी के नेता घूमते रहे और हमें राजनीतिक तौर पर आइसोलेट करा दिया.”
शतरुद्र कहते हैं कि सत्तारूढ़ दल के नेता काम के बजाय पाखंड में ज्यादा भरोसा करते हैं. बीमारी में अवसर ढूंढने के लिए ताली-थाली बजवाकर वाहवाही लूटने का नतीजा है कि लोग बेमौत मर रहे हैं. उस शहर में लाशों का गिनना कठिन हो गया है जहां के सांसद पीएम नरेन्द्र मोदी खुद हैं. हम चाहते हैं कि इस समय तो आंकड़े न छुपाए जाएं. सब कुछ सच-सच बताया जाए. ऑक्सीजन प्लांट लगाए जाएं. बीमारी को कानून नहीं, व्यवस्था का सवाल बनाया जाए. सरकारी की कौन कहें, प्राइवेट अस्पतालों में मेडिकल आफिसर तैनात नहीं. रिपोर्टिंग डाक्टरों को करनी चाहिए, पर कर रहे हैं प्रशासनिक अफसर. डेली बुलेटिन तक जारी नहीं की जा रही है.
सरकारी जांचों की पोल खोलते हुए शतरुद्र प्रकाश कहते हैं, “ये कैसी जांच, जिसमें कोई ब्योरा ही न हो. सिर्फ नेगेटिव और पॉजिटिव लिख भर देने से मरीज की स्थिति का पता नहीं चलता. बीमारी और जांच का पूरा डेटा क्यों नहीं दिया जा रहा है. यह क्यों नहीं बताया जा रहा है कि किस वजह से बीमारी हुई? जिला पंचायत का चुनाव आया तो मोदी जी टीवी चैनलों पर दिख गए. इससे पहले चुप्पी साधे बैठे थे. बिरदोपुर के मोहनलाल कपूर और उनकी पत्नी मीना कपूर को बनारस में बेड नहीं मिला. अस्पताल नहीं मिला. दिल्ली के लिए निकले, दोनों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. सरकारी और गैर-सरकारी अस्पतालों में बेडों का आनलाइन रिकार्ड क्यों नहीं प्रदर्शित कराया जा रहा है? खाली बेडों का बुलेटिन क्यों नहीं जारी कराया जा रहा है. जिन मेडिकल कालेजों को 500 बेड होने पर सरकार लाइसेंस देती है, उन कालेजों में 100 बिस्तरों पर ही मरीज क्यों भर्ती किए जा रहे हैं? बनारस शहर को डाक्टर की जरूरत है और सरकार व प्रशासन अफसर भेज रहे हैं. सरकारी विभाग साझा जिम्मेदारी ओढ़ने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं, यह सवाल अभी तक अनुत्तरित है.”