वैज्ञानिक भ्रांतियां, कमजोर संस्थान और राष्ट्रवाद कोविड-19 तबाही के जिम्मेदार

26 मार्च 2021 को दिल्ली में होली के त्योहार से पहले थोक खरीदारी बाजार में मौजूद लोग. रजत गुप्ता/ईपीए

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2020 बीतते-बीतते भारत के शहरों के साथ-साथ दुनिया भर के कई देशों में कोविड-19 मामलों में वृद्धि देखी जा रही थी. कुछ देशों में यह उछाल 2021 तक जारी रहा और विनाशकारी साबित हो रहा था. बीमारी के लिए जिम्मेदार वायरस एसएआरएस-कोव-2 के नए और अधिक खतरनाक वेरिएंट ब्रिटेन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में सामने आ रहे थे. विश्व स्तर पर महामारी खत्म होने से अभी बहुत दूर थी. लेकिन भारत में मामलों में लगातार गिरावट देखी जा रही थी. गिरावट एक समान नहीं थी : दिल्ली में नवंबर में वृद्धि देखी गई और केरल में कोविड के मामले साल के अंत तक अधिक ही रहे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति एक हद तक उत्साहजनक थी.

लेकिन फरवरी तक काले बादल मंडराने लगे थे. तब मैंने लिखा था कि एक नई लहर आ सकती है लेकिन त्वरित प्रतिक्रिया से इसे अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर फैलने से रोका जा सकता है. इंडियास्पेंड में पत्रकार रुक्मिणी एस ने महाराष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय स्थिति और वायरस के नए वेरिएंट के बारे में लिखते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि “नए सबूतों के आधार पर कहना मुश्किल है कि भारत महामारी की गिरफ्त से बाहर आ गया है.” मार्च की शुरुआत तक जोखिम और भी स्पष्ट हो गया. भारतीय एसएआरएस-कोव-2 जेनेटिक्स कंसोर्टियम (आईएनएसएसीओजी) द्वारा एकत्र किए गए डेटा के आधार पर आईएनएसएसीओजी ने शीर्ष अधिकारियों को नए किस्म के वेरिएंट के विकसित होने की चेतावनी दी थी. अब हमारे पास इस बात के काफी सबूत हैं कि आईएनएसएसीओजी सही कह रहा था.

लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है कि सरकार सुन रही थी या आंकड़ों पर ध्यान दे रही थी या अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर नजर रख रही थी. सरकार की वैज्ञानिक टास्कफोर्स ने फरवरी और मार्च में बैठक ही नहीं की और इस टास्कफोर्स के कई सदस्य, जो नई लहर के बारे में चिंतित थे, अपनी बात नहीं रख सके. इसके बजाय 2021 के पहले चार महीनों में वैक्सीनेशन की गति धीमी रही, जबकि पूर्ण कुंभ और विशाल चुनावी रैलियां होती रहीं. 7 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने घोषणा की कि भारत “कोविड-19 महामारी के अंत तक पहुंच गया है.” दो दिन बाद कोविड-19 प्रक्षेपवक्र को मॉडल करने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा गठित पैनल के सदस्य और सरकार समर्थित “भारतीय सुपर मॉडल” के लेखक मनिंद्र अग्रवाल ने विश्वास के साथ ट्वीट किया कि कोई “दूसरी लहर” नहीं आएगी. राजनीतिक विचारों से इतर ऐसा लगता है कि कोविड-19 पर सरकार की निष्क्रियता त्रुटिपूर्ण वैज्ञानिक सलाह और नेरे​टिवों से प्रेरित थी. ये नेरेटिव क्या थे?

कोविड-19 की जानकारी तेजी से बढ़ी है. रोग की उत्पत्ति, इसके फैलने के तरीके, प्रतिरक्षा की प्रकृति, मृत्यु दर और नए वेरिएंटों के गुणधर्मों के बारे में अलग-अलग सिद्धांत हैं. कुछ सिद्धांत कयासबाजी भर हैं लेकिन उन्हें भारी-भरकम समर्थन प्राप्त है. इस बदलते परिदृश्य से कदमताल करना आसान नहीं है और सार्वजनिक स्वास्थ्य निकायों से गलतियां हुई हैं. डब्ल्यूएचओ द्वारा फेस मास्क के खिलाफ शुरुआती सिफारिशें और अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्रों द्वारा कोविड-19 के हवा से फैलने की बात को मानने में देरी ऐसी ही गलतियां थीं.

वैज्ञानिक भ्रांतियां वैश्विक हैं लेकिन भारत में कई अन्य कारणों ने भी कोविड-19 की समझ को कमजोर किया. मिसाल के लिए, सलाहकार निकायों में स्वतंत्रता की कमी है, सीमित डेटा एवं डेटा में हेरफेर और सबसे अहम बात कि सभी समस्याओं को राष्ट्रवाद और इक्सेप्शनलिज्म (अपवादवाद या असाधारणता) के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति.

इक्सेप्शनलिज्म की प्रवृत्ति को शेखर गुप्ता द्वारा अप्रैल 2020 में द प्रिंट में प्रकाशित एक कुख्यात संपादकीय में अच्छी तरह से देखा जा सकता है. उस संपादकीय का शीर्षक है “कोविड अभी तक भारत में वायरल नहीं हुआ है लेकिन दुनिया और हमारे देश के लोग इस सच्चाई को मानने को तैयार नहीं हैं”. इसमें लिखा है, “हमारे श्मशानों और कब्रिस्तानों में लकड़ी या जगह की कमी नहीं है.” हम यहां एक ऐसी प्रवृत्ति देखते हैं जो महामारी को लेकर उतनी चिंतित नहीं है जितनी इस बात को लेकर कि सरकार के महामारी से बचाव के काम को कैसे देखा जा रहा है, खासकर अंतर्राष्ट्रीय फलक पर.

अगर सरकार और उसके नचनिए-बजनियों का मुख्य लक्ष्य नेरेटिव को साधना है तो ज्ञान और डेटा के बीच का अंतर उनकी चिंता का विषय नहीं होंगे. इसके उलट कमजोर डेटा सुविधाजनक नेरेटिव गढ़ने का मौका देते हैं.

जब बीमारी की पहली लहर समाप्त हुई तो ऐसी कुछ चीजें थीं जो अनजानी थीं. पहली तो यह कि देश के विभिन्न हिस्सों में यह बीमारी कितनी व्यापक रूप से फैली है. अत्यधिक अनिश्चित जांचें और मृत्यु दर का मतलब था कि मामले और मृत्यु डेटा का आकलन करना मुश्किल होगा. सेरोप्रवलेंस सर्वेक्षणों के डेटा (आबादी में रोगजनक का स्तर, जिसे रक्त सीरम में मापा जाता है) ने अंतर्दृष्टि प्रदान की लेकिन यह एक पूर्ण राष्ट्रीय चित्र बनाने के लिए बहुत ही कम था.

दूसरी अनजानी चीज यह थी कि देश के विभिन्न हिस्सों में इस बीमारी से कितने लोग मारे गए. खराब निगरानी और जानबूझकर की गई हेराफेरी ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां वास्तविक मौत का अनुमान लगाना मुश्किल था. यह आज पहले से कहीं ज्यादा सच है.

तीसरी अनजानी बात वह थी कि किस कारण से पहली लहर खत्म हुई थी. किन कारणों से संक्रमण कम हुआ और और इसके कम होने में आबादी की रोग प्रतिरोधक क्षमता का क्या योगदान था? क्या लॉकडाउन के चलते ग्रामीण भारत के हिस्सों में संक्रमण कम हुआ था? क्या मलिन बस्तियों में संक्रमण की उच्च दर के कारण पहली लहर कमजोर हुई या फिर गैर झुग्गी-झोपड़ी वाले क्षेत्रों में लोगों की चलहकदमी को कम करना इसकी मुख्य वजह थी?

भारत में कोविड-19 की दो लहरों के बीच सांस लेने की जो फुर्सत मिली उसका इस्तेमाल इनमें से कुछ सवालों पर प्रकाश डालने की कोशिश में किया जा सकता था. लेकिन इसके बजाय खुद की पीठ थपथपाने और फर्जी विश्लेषणों में वक्त बर्बाद हो गया.

जनवरी 2021 में जारी इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण का पहला अध्याय सरकार द्वारा कोविड-19 संकट से निपटने के बारे में है. जो यह भ्रामक दावा करता है कि “भारत कोविड-19 के प्रसार और इससे होने वाली मृत्यु को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में सक्षम है.” फिर राज्यों को उनके संक्रमित मामलों और मृत्यु दर के आधार पर नंबर दिया गया. महाराष्ट्र को एक विफलता के रूप में चिन्हित किया गया. इसलिए नेरेटिव के प्रबंधन में सीमित डेटा मददगार होता है.

लेकिन तो भी आधिकारिक नेरेटिव महत्वपूर्ण तरीकों से बदल रहे थे. जून 2020 के अंत तक सरकारी प्रवक्ताओं ने बीमारी के प्रसार को सीमित करने के बारे में कम और मौतों को सीमित करने के बारे में ज्यादा बात की. शुरुआती ब्रीफिंग में “कोई सामुदायिक प्रसार नहीं हो रहा है” बार-बार दोहराया गया. तथ्य यह है कि यह बार-बार सुझाया गया था कि उद्देश्य संक्रमण को कम रखना है. लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा आधिकारिक लाइन यह होने लगी कि देश में अपेक्षाकृत कम मौतें हुई हैं भले ही यह बीमारी कुछ हद तक फैल रही है. अधिकारी संकेत दे रहे थे कि रोग नियंत्रण अब इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है.

जब मौत के आंकड़े हद दर्जे तक अपूर्ण हों तो मृत्यु दर पर जोर देना ठीक नहीं होता. अगर मृत्यु दर सफलता या विफलता का पैमाना हो जाती है तो राज्यों और स्थानीय अधिकारियों पर कोविड-19 मौतों की रिपोर्ट कम करने का दबाव बनने की आशंका रहती है.

तब सिर्फ सरकार ही मृत्यु दर जोर नहीं दे रही थी बल्कि अगस्त 2020 में इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन के सदस्यों सहित सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने एक बयान जारी कर तर्क दिया कि बीमारी को रोकने के बजाय मौतों को रोकने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. बयान में लॉकडाउन के कठोर दुष्परिणामों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताई गईं लेकिन बयान यह समझाने में विफल रहा कि बिना रोग नियंत्रण के मौतों को कैसे सीमित किया जा सकता है.

ऐसा लगता है कि सरकार और कुछ सार्वजनिक स्वास्थ्य निकाय दोनों सुझाव दे रहे थे कि संक्रमण के कम होने पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. इस तरह के विचार भारत तक ही सीमित नहीं थे. आईपीएचए के बयान के कुछ समय बाद कई वैज्ञानिकों ने ग्रेट बैरिंगटन घोषणापत्र नामक एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर किए जिसमें उन्होंने "कमजोर लोगों की रक्षा" के उपायों को अपनाने के दौरान "जो कमजोर नहीं हैं" उनके बीच बीमारी फैलने देने की अनुमति देने का तर्क दिया. इस घोषणापत्र को दक्षिणपंथी अमेरिकी थिंक-टैंक ने प्रायोजित किया था. इसका अर्थ निकलता था कि बीमारी फैलने के जोखिम को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है.

ग्रेट बैरिंगटन घोषणापत्र बढ़ते संक्रमण को कम करके आंकता था. लेकिन उस स्तर पर जब कोई टीके उपलब्ध नहीं थे तब क्या चीज थी जो महामारी को समाप्त करने वाली थी? घोषणापत्र के लेखकों का जवाब था : प्राकृतिक संक्रमण द्वारा निर्मित हर्ड इम्युनिटी (झुंड रोग प्रतिरक्षा). भारत की कोविड-19 प्रतिक्रिया, विशेष रूप से दूसरी लहर के शुरुआती महीनों तक, झुंड प्रतिरक्षा के बारे में गलत धारणाओं द्वारा निर्देशित थी.

हर्ड इम्युनिटी से आशय है कि एक बार जब लोगों का पर्याप्त हिस्सा या तो संक्रमण या टीकाकरण के माध्यम से किसी बीमारी से प्रतिरक्षित हो जाता है, तो वह बीमारी स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाती है. प्रकोप को खत्म होने के लिए जिस हिस्से को प्रतिरक्षा की आवश्यकता होती है, उसे झुंड प्रतिरक्षा सीमा (हर्ड इम्युनिटी थ्रैशहोल्ड) या संक्षेप में एचआईटी कहा जाता है. कई अध्ययनों में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 का एचआईटी लगभग 60 प्रतिशत है. लेकिन यह मान निश्चित नहीं है क्योंकि यह वायरस और उसके वातावरण पर निर्भर करता है. अधिक संक्रामक वेरिएंट और अधिक भीड़भाड़ वाली जगहें थ्रैशहोल्ड को बढ़ा देते हैं.

हर्ड इम्युनिटी एक आदर्श गणितीय धारणा है जिसे प्रचुर सावधानी के साथ लागू किया जाना चाहिए. भारत में, जहां मलिन बस्तियां, ऊंची इमारतें और अलग-अलग रूप का ग्रामीण विकास है, उसे एक इकाई मान कर इस सिद्धांत को लागू करना जोखिम भरा है.

यह सिद्धांत यह भी मानता है कि पुन: संक्रमण को नजरअंदाज किया जा सकता है. यह एक लोकप्रिय दृष्टिकोण था. उदाहरण के लिए पिछले साल अक्टूबर में न्यूयॉर्क टाइम्स ने "कोरोनावायरस रीइन्फेक्शन्स आर रियल बट वेरी, वेरी रेयर" (कोरोना वायरस का पुन: संक्रमण वास्तविक है लेकिन बहुत, बहुत दुर्लभ मामला है) शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था. पुन: संक्रमण पर कई अध्ययनों से संकेत मिलता है कि पुन: संक्रमण इतना दुर्लभ नहीं है और यह शीर्षक वास्तव में भ्रामक है.

कई समूहों ने झुंड प्रतिरक्षा सिद्धांत की कुछ सीमाओं को संबोधित करने का प्रयास किया है. कुछ का निष्कर्ष है कि झुंड की प्रतिरक्षा का विचार जितना आसान सोचा गया था उसे प्राप्त करना उतना आसान नहीं है. लेकिन सिद्धांत में संशोधन भी हुए जो आशावादी निष्कर्ष पर पहुंचे जैसे कुछ शोधों ने सुझाव दिया कि एक आबादी संक्रमण के अपेक्षाकृत निम्न स्तर पर प्रभावी रूप से झुंड प्रतिरक्षा तक पहुंच सकती है, संभवत: जो केवल 10-20 प्रतिशत जितनी कम हो.

वास्तविक दुनिया में इस विश्लेषण की प्रासंगिकता स्पष्ट नहीं थी. भारत में मलिन बस्तियों में कुछ सीरोसर्वेक्षण कम एचआईटी के साथ उच्च स्तर के संक्रमण की रिपोर्ट कर रहे थे. लेकिन यह धारणा प्रबल हो गई कि भारत में थ्रैशहोल्ड अनुमानित से कम होगा यानी कम लोगों के संक्रमित होने से भी हर्ड इम्युनिटी निर्मित हो जाएगी. सितंबर 2020 में दो सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने द हिंदू में एक लेख लिखा, जिसमें दावा किया गया था कि "चूंकि लगभग 30 प्रतिशत झुंड प्रतिरक्षा महामारी वक्र के चरम पर पहुंचने के लिए पर्याप्त है, हम आश्वस्त हो सकते हैं कि भारत वास्तव में कोविड-19 महामारी के चरम पर पहुंच गया है." अगले महीने दैनिक भास्कर में एक लेख में दावा किया गया कि एक बार 40 प्रतिशत आबादी में इस बीमारी के प्रति एंटीबॉडी होने के बाद खतरे कम हो जाते हैं.

वास्तव में, दूसरे राष्ट्रीय सीरोसर्वे पर आधारित एक शोधपत्र में, जिसके सह लेखकों में से एक इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के प्रमुख हैं, दो प्रीप्रिंटों (अकादमिक शोध में प्रीप्रिंट शोध पत्र के उस संस्करण को कहा जाता है जिसे समीक्षार्थ सहयोगियों को भेजा जाता है. यह किसी शोधपत्र में प्रकाशित होने से पूर्व का संस्करण होता है) का हवाला दिया गया, जिनमें कम थ्रैशहोल्ड के पक्ष में दावा किया गया है. प्रीपिंटों के दोनों लेखक ग्रेट बैरिंगटन घोषणापत्र के हस्ताक्षरकर्ता थे. बेशक इन हवालों का मतलब यह नहीं है कि "भारत का उम्मीद से कम एचआईटी" एक आधिकारिक लाइन थी. लेकिन यह शोधपत्र निश्चित रूप से रडार पर था.

जब पहली लहर समाप्त हो गई थी तब तक कई समूह दावा कर रहे थे कि भारत झुंड प्रतिरक्षा पर या उसके करीब इसलिए है क्योंकि या तो एचआईटी अनुमान से कम था या प्रसार बहुत व्यापक था. जनवरी में नीति आयोग के सदस्य और वैक्सीन रणनीति पर राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष वीके पॉल ने कहा कि, "हमारे ज्यादातर काफी घनी आबादी वाले जिलों और शहरों में अब तक महामारी का प्रकोप हो चुका है ... और हो सकता है कि जिसे आप हर्ड इम्युनिटी कहना पसंद करते हैं वह एक हद तक पहुंच चुकी हो." सरकार समर्थित मॉडलिंग प्रोजेक्ट के शोधकर्ता अग्रवाल ने आगे बढ़कर फरवरी में दावा किया कि झुंड प्रतिरक्षा राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गई है. यह दावा इस गणना पर आधारित था कि इस समय देश भर में 60 प्रतिशत संक्रमित हो चुके हैं. लेकिन तीसरे राष्ट्रीय सेरोसर्वे ने अनुमान लगाया था कि भारत में अब तक केवल 20 प्रतिशत वयस्क ही संक्रमित हुए हैं.

यह देखते हुए कि झुंड प्रतिरक्षा के इन लापरवाह दावों में से कुछ विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा गठित एक पैनल के सदस्यों से आ रहे थे, ऐसा लगता है कि उन्होंने आधिकारिक आत्मतुष्टि में योगदान ही दिया. जैसा कि एक बायोफिजिसिस्ट गौतम मेनन ने अक्टूबर 2020 में लिखा था, “सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों को दोषपूर्ण मॉडल पर आधारित करना खतरनाक है क्योंकि लोगों का जीवन दांव पर है और झूठा आशावाद जोखिम भरा है. विज्ञान को राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करनी चाहिए."

संक्षेप में, ऐसा लगता है कि पहली लहर के बीतते-बीतते यह व्यापक रूप से माना गया कि भारत झुंड प्रतिरक्षा थ्रैशहोल्ड के करीब है. साथ ही, कम दर्ज की गई मौतों को सबूत के रूप में इस्तेमाल किया गया.

इस संभावना को नजरअंदाज किया गया कि कम मृत्यु दर मृत्यु की कम गणना से भी हो सकती है. इस बात का भी खतरा था कि बीमारी के व्यापक प्रसार से वायरस के खतरनाक वेरिएंट पैदा हो सकते हैं. सरकार और उसके समर्थकों ने बिना सोचे-समझे लगाए गए राष्ट्रीय लॉकडाउन की खूब प्रशंसा की लेकिन संक्रमण के और फैलने के जोखिम को कम करके दिखाया गया.

पहली लहर के बाद जो बीच का वक्त मिला था उसमें सरकार से जुड़े वैज्ञानिक कोविड-19 के प्रसार और मृत्यु के देशव्यापी सर्वेक्षण की बात उठा सकते थे. इससे हमें यह पता चल गया होता कि क्या वास्तव में मृत्यु दर कम थी, लहर क्यों कम हो गई और हमारी मुख्य कमजोरियां क्या थीं. वह भविष्य में संभावित लहरों से बचाव के लिए तेजी से टीकाकरण और स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने में तेजी की वकालत कर सकते थे. लेकिन ऐसी कोई बात नहीं हुई.

कमजोर विज्ञान और समझौतावादी वैज्ञानिक संस्थान आंशिक रूप से आत्मतुष्टि और गलतियों के लिए जिम्मेदार हैं. इन्होंने दूसरी लहर को इतनी नाटकीय और दुखद रूप से बढ़ने दिया है. स्वतंत्र और विशेषज्ञ वैज्ञानिक सलाहकार संकट को टालने के लिए शीघ्र कार्रवाई करने में सक्षम हो सकते हैं. इस तरह की कार्रवाई से कम से कम हम कुछ मौहतल हासिल कर सकते थे और मौतों को कम कर सकते थे.