बिहार के गांवों में तेजी से फैल रहा कोरोना, प्रवासी कामगारों की जांच में ढिलाई के चलते हालात गंभीर

10 अप्रैल 2021 को पटना स्टेशन के बाहर महाराष्ट्र से लौटे मजदूर. पहली लहर की तुलना में अबकी बिहार में तैयारी ज्यादा खराब है. संतोष कुमार / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस

40 साल के राजेश पंडित 20 अप्रैल को रेलगाड़ी में सवार होकर लुधियाना से पटना आए थे. लुधियाना में उनकी गोश्त की दुकान थी. जब वह पटना आए तो उन्हें तेज बुखार था. उन्होंने रात पटना रेलवे स्टेशन पर काटी क्योंकि देर रात घर जाने का साधन नहीं मिला. लेकिन राज्य सरकार ने स्टेशन में उनकी कोविड-19 जांच नहीं की. फिर अगले दिन उन्होंने पटना के मीठापुर बस स्टैंड से अपने गांव बारूना रसलपुर की बस पकड़ी.

बीमार राजेश को परिवार वाले स्थानीय दवा की दुकान से दवाई लाकर देते रहे लेकिन उनकी हालत नहीं सुधरी. राजेश के छोटे भाई राम उदेश पंडित ने मुझे बताया, “24 अप्रैल को हम भैया को समस्तीपुर ले गए और उनका कोविड टेस्ट कराया.” जांच के बाद पता चला कि राजेश को कोविड-19 है. फिर अगले दिन एक निजी केंद्र से कराए गए सीटी स्कैन से यह भी पता चला की उनके 35 फीसदी फेफड़ों में संक्रमण है. इसके बाद भी जब उनका बुखार नहीं उतरा और उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी, तो उन्हें समस्तीपुर के एक निजी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया. तीन दिन बाद राजेश को दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल ले जाया गया जहां 4 मई को उनकी मौत हो गई.

राम उदेश ने मुझे बताया कि राजेश तगड़े आदमी थे और अगर उनका टेस्ट पहले हो जाता तो शायद वह बच जाते. उन्होंने मुझसे कहा कि कोविड-19 की दूसरी लहर में उनके गांव में मरने वालों में भैया पहले व्यक्ति थे. राम उदेश ने बताया, “गांव से हम लोग आइसोलेट हैं लेकिन फिर भी गांव के अन्य लोगों में कोविड-19 के लक्षण नजर आ रहे हैं.” जिस दवा की दुकान से राम अपने भैया के लिए दवा लाते थे उसके मालिक को पिछले सप्ताह से बुखार और खांसी है. राम उदेश ने मुझे बताया कि उनके गांव में कई लोगों में ऐसे ही लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन किसी तरह की टेस्टिंग या स्क्रीनिंग की व्यवस्था नहीं है.

दिल्ली और मुंबई में कोविड की दूसरी लहर से मची तबाही से डरे बिहार के प्रवासी मजदूर वापस लौटने लगे हैं लेकिन पहली लहर की तुलना में, जब अचानक लगा दिए गए लॉकडाउन के बाद प्रवासी मजदूरों को बिहार लौटना पड़ा था, अबकी बिहार में तैयारी की स्थिति अधिक खराब है.

इसके बावजूद कि महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में कोविड-19 की दूसरी लहर में ढेरों लोगों की जानें जा रही हैं, बिहार सरकार ने पहली लहर जितनी भी तैयारी नहीं की है. राज्य में बहुत कम ऐसे बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन हैं जहां लौट रहे लोगों की जांच की जा रही हो और और जहां कहीं जांच की सुविधा है वहां लापरवाही हो रही है जिसके चलते ग्रामीण बिहार में वायरस का प्रसार हुआ है. गांव में स्वास्थ्य कर्मियों को लौट रहे प्रवासी मजदूरों की जांच या उन्हें क्वारंटीन करने के निर्देश नहीं दिए गए हैं. पंचायतों के नेता और ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मियों ने मुझे बताया कि अपने गांवों में कोविड लक्षणों के प्रसार की सूचना देने के बावजूद राज्य सरकार ने इससे लड़ने के लिए उन्हें किसी तरह का आदेश या संसाधन मुहैया नहीं कराए हैं. इसके साथ ही शहर के मुख्य अस्पतालों में बेड और ऑक्सीजन की गंभीर कमी है.

पिछले साल जब देशव्यापी लॉकडाउन लगा दिया गया था और प्रवासी मजदूर वापस लौटने लगे थे, तब रेल मंत्रालय ने अन्य शहरों में फंसे प्रवासी मजदूरों को बिहार भेजने के लिए श्रमिक स्पेशल रेलें शुरू की थीं और 2 मई 2020 तक बिहार सरकार ने राज्य की लगभग सभी पंचायतों में क्वारंटीन सेंटर बना लिए थे. मई और जून में राज्य लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए दो सप्ताह का क्वारंटीन अनिवार्य कर दिया गया था. आशा वर्कर समेत अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को लौट रहे प्रवासी मजदूरों की जांच के लिए रेलवे स्टेशन, बस स्टेंडन और गांव-गांव में तैनात किया गया था. ऐसी सतर्कता होने से गांव में कोविड की पहली लहर के दौरान संक्रमण का खतरा कम हो गया था.

30 मई 2020 बिहार लौटे 2310 प्रवासी मजदूरों को पॉजिटिव पाकर क्वारंटीन कर दिया गया था. 31 मई को बिहार स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की कि राज्य में कुल 3629 कोविड मामले हैं. इसका मतलब था कि राज्य के कुल कोविड मरीजों में 62.56 प्रतिशत वह थे जो बाहर से लौटे थे. इस तरह बिहार सरकार ने वायरस को राज्य के ग्रामीण इलाकों में फैलने नहीं दिया. लेकिन इस साल तैयारियां बहुत कमजोर नजर आ रही हैं. मैंने पटना के दो प्रमुख बस स्टैंडों में जाकर देखा और करीब आधे दर्जन पंचायत प्रमुखों और आशा वर्करों से बात की. पता चलता है कि कोविड की दूसरी लहर की तैयारी में कमजोरियां थी. जब प्रवासी राज्य में लौटे तो उनकी बमुश्किल जांच हुई और फिर वह तुरंत ही स्वास्थ्य मंत्रालय के रडार से बाहर हो गए. पटना जैसे कुछ चुनिंदा रेलवे स्टेशनों में कोविड-19 मॉनिटरिंग सेंटर हैं लेकिन टेस्टिंग में कोई तारतम्यता नहीं है और यहां बस महाराष्ट्र से लौट रहे प्रवासी मजदूरों के​ लिए टेस्टिंग अनिवार्य की गई है.

19 अप्रैल को 42 साल के सुंदेश्वर साहनी दिल्ली से वैशाली (बिहार) में अपने गांव के लिए रवाना हुए. दिल्ली में वह फल का ठेला लगाते हैं. एक साल पहले भी जब भारत सरकार ने पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की थी उन्हें ऐसा ही कठिन सफर कर लौटना पड़ा था. लेकिन पिछली बार जब वह आए थे तो बिहार आने वाले प्रवासी मजदूरों को तैयार अवस्था में था. स्पेशल ट्रेन प्रवासी मजदूरों को उनके जिलों में पहुंचा रही थीं, रेलवे स्टेशनों पर टेस्टिंग सुविधाएं थीं और दो हफ्तों का अनिवार्य क्वारंटीन व्यवस्था थी.

साहनी ने मुझे बताया कि इस बार जैसे ही 19 अप्रैल को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक हफ्ते के लॉकडाउन की घोषणा की वह तुरंत समझ गए कि उन्हें गांव लौट जाना चाहिए. 19 अप्रैल तक खबरें आने लगी थीं कि दिल्ली के अस्पतालों में मरीजों के लिए बेड और ऑक्सीजन कम पड़ रहे हैं और श्मशान में लाश जलाने की जगह नहीं है. साहनी ने मुझे बताया, “दिल्ली सरकार द्वारा रात्रिकालीन कर्फ्यू लगाने से बाजार में फल बेचने का मेरा धंधा पूरी तरह से ठप हो गया.” साहनी को डर था कि अगर वह भी संक्रमित हो जाएंगे तो कहां जाएंगे? इसलिए उन्होंने रोहिणी बस स्टैंड से बिहार जाने वाली बस पकड़ ली. लेकिन बस का अनुभव चौंकाने वाला था. उन्होंने बताया कि वह बस भरी थी. एक-एक सीट पर तीन-तीन लोग बैठे थे और लोगों ने ठीक से मास्क भी नहीं पहना था. साहनी 27 अप्रैल को अपने गांव पहुंचे लेकिन उनका कोविड टेस्ट नहीं हुआ. उनको नहीं पता कि वह कहां जाकर टेस्ट कराएं? साहनी का कहना है, “हमें टेस्ट की गारंटी दी जानी चाहिए. हमारे साथ कोई टेस्टिंग स्थल तक चलना चाहिए और टेस्टिंग करवाकर हमारे हाथ में रिजल्ट देना चाहिए. उनको यह भी बताना चाहिए कि अस्पताल में हमें क्या सुविधाएं मिल रही हैं. गरीब लोग भगवान भरोसे रहते हैं और उनका टेस्ट नहीं होता है.” फिलहाल साहनी में कोविड-19 का कोई लक्षण नजर नहीं आ रहा है लेकिन उनका कहना  है कि लौटने वाले अन्य लोग शायद उनके जितने भाग्यशाली न हों.

बिहार सरकार के स्वयं के आंकड़ों से पता चलता है कि कोविड राज्य भर में फैल रहा है. इस साल 3 अप्रैल को बिहार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने ट्वीट कर बताया था कि 836 लोग कोविड पॉजिटिव पाए गए हैं और उनमें से एक की मौत हो गई है. इसके बाद यह संख्या लगातार बढ़ी है. 3 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि कोविड से 82 लोगों की मौत हुई है और 11407 नए मामले प्रकाश में आए हैं.

3 अप्रैल को 63942 लोगों की कोविड जांच की गई थी लेकिन 3 मई तक यह संख्या बढ़कर 72658 पहुंच गई है. अमेरिकी मीडिया संस्थान एनपीआर ने गणितज्ञ मुराद बानाजी के एक शोध के हवाले से बताया है कि बिहार के कुछ ग्रामीण इलाकों में संक्रमित लोगों की संख्या का एक प्रतिशत से भी कम सामने आया है.

मैंने एक पत्रकार से बात की तो उसने बताया कि ग्रामीण बिहार में कोविड के मामले और इससे होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. 29 अप्रैल को बीबीसी के पत्रकार नेयाज फारूक, जो स्वयं गोपालगंज जिले के इंदिरवा बैरम गांव के हैं, ने मुझे बताया कि पिछले 24 घंटों में उनके गांव में चार लोगों की मौत हो गई है. उन्होंने आगे कहा, “मरने वाले किसी की भी कोविड जांच नहीं हुई थी. आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से इस जिले में कोविड-19 से अब तक कोई नहीं मरा है.” फारूक ने बताया कि एक स्थानीय दवा ​विक्रेता के अनुसार उसकी दुकान में दवा लेने आने वालों में 80 फीसद लोग बुखार और खांसी की शिकायत कर रहे हैं लेकि टेस्टिंग या सुरक्षा उपाय की कोई व्यवस्था नहीं है.

10 दिन बाद जब मैंने नेयाज से दोबारा बात की, तो उन्होंने कहा कि उनके गांव की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है और हर दिन स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. कई पंचायत प्रमुखों ने सरकार की तैयारी न होने की कहानियां सुनाई. 3 मई को मुजफ्फरपुर के दादर कोल्हुवा पंचायत के प्रमुख लखेंद्र सिंह ने मुझे बताया कि पिछले 10 दिनों में उनकी पंचायत के तहत आने वाले गांवों में तीन लोग मर गए हैं. इनमें से किसी की भी कोविड जांच नहीं की गई थी लेकिन उन्हें बुखार और खांसी की शिकायत थी. अखबारों के अनुसार, बिहार के सबसे अधिक कोविड प्रभावित जिलों में मुजफ्फरपुर भी आता है. 2 मई तक यहां 21768 मामले दर्ज हुए थे और 141 लोगों की मौत हो चुकी थी. लेकिन सिंह की पंचायत से मरने वाले तीन लोगों का नाम इसमें नहीं जुड़ा है क्योंकि वे पॉजिटिव प्रमाणित ही नहीं हुए थे. सिंह ने बताया कि जैसा उनके यहां हुआ है वैसा आसपास की अन्य पंचायतों में भी हो रहा है और बहुत लोगों की जानें जा रही हैं.

सिवान जिले की चकरी पंचायत की प्रधान लीलावती देवी ने 3 मई को मुझे बताया था कि प्रवासी मजदूरों के पंचायत लौट आने के बाद कोविड मौतों की संख्या बढ़ी है. देवी ने कहा कि पिछले 10 दिनों में तकरीबन 1000 प्रवासी मजदूर वहां लौटे हैं लेकिन किसी की भी टेस्टिंग नहीं की गई है. उन्होंने कहा, “मैंने अब तक 500 के करीब प्रवासी मजदूरों से मुलाकात की है और पता चला कि किसी का टेस्ट नहीं हुआ है. जब मैं उनसे कहती हूं कि अपना टेस्ट करा लो, तो सिर्फ इतना ही कहते हैं ‘हम लोग तो कराने जाते हैं लेकिन कोई हमारा सैंपल नहीं लेता’. हमारे यहां लोग खुले घूम रहे हैं. हमने उन्हें समझाया है कि वह कम से कम दो सप्ताह तक आइसोलेशन में रहें.” देवी ने मुझे बताया कि उनकी पंचायत में 19 अप्रैल को एक महिला की मौत इजाल के लिए सिवान ले जाते वक्त हुई थी. उस महिला को बुखार था और सांस लेने में तकलीफ हो रही थी लेकिन उसकी जांच नहीं हुई थी इसलिए उनका परिवार अभी भी दावा करता है कि वह कोरोना से नहीं किसी अन्य बीमारी से मरी है.

चकरी पंचायत के लिए सबसे नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र छह किलोमीटर दूर रघुनाथपुर गांव में है और कोविड अस्पताल 30 किलोमीटर दूर सिवान शहर में. बिहार सरकार का कोविड-19 डैशबोर्ड बताता है कि सिवान शहर में 700 बेड हैं और ज्यादातर भरे हैं. यहां कोई आईसीयू बेड नहीं है. इस शहर की कुल आबादी 135000 है.

देवी ने मुझसे कहा कि पिछले साल सरकार ज्यादा सतर्क थी लेकिन इस साल उसने कुछ नहीं किया. यदि हालात ऐसे ही रहे तो कोविड हमारे गांव में तबाही मचा देगा. देवी ने आगे कहा कि वह किसी ब्लॉक विकास अधिकारी से मुलाकात करने की योजना बना रही हैं और वह उनसे ब्लॉक स्तर पर कोविड जांच शुरू करने की मांग करेंगी ताकि प्रवासी कामगार अपनी जांच करा सकें.

चकरी से 40 किलोमीटर दूर पंजुअर पंचायत के मुखिया गोपाल सिंह बताते हैं कि उन्हें लौट रहे प्रवासी मजदूरों पर नजर रखने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ रही है. उन्होंने कहा कि प्रवासी मजदूर लगातार लौट रहे हैं लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है. उन्होंने बताया, “इस रोग के ग्रामीण स्तर पर फैलने का खतरा है. पंचायत के लोग डरे हुए हैं. हालांकि मैं उन्हें कहता हूं कि मास्क पहनो लेकिन इससे ज्यादा मैं कर भी क्या सकता हूं?” पंजुअर की आबादी तकरीबन 15000 है. सिंह ने बताया कि पिछले साल पंचायत में कोविड के 23 मामले आए थे लेकिन इस साल अब तक कोई मामला प्रकाश में नहीं आया है और ऐसा इसलिए है क्योंकि जांच ही नहीं हुई है. सिंह की तरह मुझे कई मुखियाओं ने बताया कि संकट के गहराने के बावजूद सरकार की ओर से कोई फरमान नहीं आया.

किशनगंज जिले के महीनगांव पंचायत के मुखिया राजेंद्र पासवान ने मुझसे कहा कि सरकार ने प्रवासी मजदूरों के मामले से कैसे निपटना है इस बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं दिया है. उन्होंने कहा, “पिछले साल इस बाबत स्पष्ट निर्देश था. हमें पता था कि क्या करना है और साथ ही स्वास्थ्य विभाग भी सक्रिय था. वह लोग गांव को हफ्ते में तीन बार सैनिटाइज करते थे. पिछली बार लोगों को मास्क बांटा गया और दुकानों के आसपास की भीड़ पर अंकुश लगाया गया, लेकिन इस बार कुछ नहीं किया जा रहा.”

ग्रामीण बिहार के कई स्वास्थ्य कर्मियों ने मुझसे ऐसी ही शिकायतें की हैं. यानी सरकार ने उन्हें कोई दिशा-निर्देश नहीं दिया. अररिया जिले की आशा फैसिलिटेटर (संयोजक) किरण देवी ने मुझसे कहा कि उन्हें स्वास्थ्य विभाग से केवल एक ही जिम्मेदारी मिली है कि “हम पीएचसी (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) से व्हाट्सएप में जानकारी प्राप्त करते हैं कि हमारे क्षेत्राधिकार में आने वाले गांव में कोविड की क्या स्थिति है. सूचना मिलने के बाद हम आशा वर्करों को वहां यह पता लगाने के लिए भेजते हैं कि कोविड-19 पॉजिटिव मरीज के आसपास कितने परिवार रह रहे हैं. आशा वर्करों को यह भी पता लगाना होता है कि क्या कोविड मरीज के किसी परिजन में कोविड के लक्षण दिख रहे हैं. हम ये जानकारी एक फॉर्मेट में वापस पीएचसी को भेज देते हैं. हमारे पास प्रवासी मजदूरों के बारे में सरकार की ओर से कोई आदेश नहीं है.”

आशा वर्करों के लिए काम की परिस्थिति भी असुरक्षित है. किरण देवी ने शिकायती लहजे में कहा कि सरकार आशा वर्करों को पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई), दस्ताने और यहां तक की मास्क भी उपलब्ध नहीं करा रही है. “हम लोग नियमित रूप से गांव का दौरा कर रहे हैं और लोगों से मिल रहे हैं और अपनी जान को जोखिम में डाल रहे हैं. फिर भी हमें अपना चेहरा अपने दुपट्टों से ढांकना पड़ रहा है जिससे हमारी जिंदगी खतरे में पड़ रही है. इस तरह तो जितना हम लोगों से मिलेंगे उतना अधिक वायरस के प्रसार का खतरा रहेगा.”

उत्तर प्रदेश की बॉर्डर से सटा कैमूर जिला प्रवासी मजदूरों को लेकर आने वाली बसों और निजी वाहनों का एंट्री पॉइंट है. पिछले साल सरकार ने यहां स्क्रीनिंग कैंप लगाया था. तब यहां बस और निजी वाहन रुकते थे और यात्रियों को उनके गांव के क्वारंटीन सेंटरों में भेजे जाने से पहले जांच की जाती थी. कैमूर के एक स्थानीय रिपोर्टर ने मुझे बताया कि पिछले कई महीनों से बॉर्डर में स्क्रीनिंग की कोई व्यवस्था नहीं है. 3 मई को कैमूर की अतिरिक्त मुख्य चिकित्सा अधिकारी मीना कुमारी ने मुझसे कहा था कि चेक पोस्ट में स्क्रीनिंग कैंप नहीं लगा है. कुमारी ने कहा, “हमें यह नहीं बताया गया कि यहां आने वाले प्रवासी मजदूरों से कैसे डील करना है. हमारे पास सिर्फ इतना ही आदेश है कि हम यह सुनिश्चित करें कि जो भी व्यक्ति जिला स्तरीय क्वारंटीन सेंटरों में आता है उसकी जांच सुनिश्चित की जाए. बाकी बचे लोग निकल जाते हैं और कोई ट्रेसिंग नहीं हो पाती.” 3 मई के बाद सरकार ने अपने निर्देश में सुधार किया है. 9 मई को जब मैंने कुमारी से पूछा कि उनके जिले में क्वारंटीन सेंटर में कितने लोगों की जांच हुई तो उन्होंने कहा कि अब जांचें पीएचसी में हो रही हैं. उन्होंने कहा, “हर दिन तकरीबन 1200 लोगों पीएचसी में आते हैं और जिनमें लक्षण दिखते हैं उनकी जांच की जाती है.”

कुमारी ने भी कहा कि कोविड जिले के गांवों में पहुंच गया है. उन्होंने मुझसे कहा, “जो कोविड मरीज हमारे पास आ रहे हैं उनमें से अधिकांश गांव वाले हैं लेकिन समस्या यह है कि जब ग्रामीणों ने लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं तो वह पहले झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाकर या कैमिस्टों से इसे सर्दी-जुखाम मानकर इलाज कराते हैं जिसकी वजह से शुरू के महत्वपूर्ण चार-पांच दिन बर्बाद हो जाते हैं. जब उनकी हालत और खराब होने लगती है तब वह अस्पताल आते हैं लेकिन तब तक हम सही इलाज देने में समक्ष नहीं रह जाते.”

दूसरी लहर में तृतीय स्तर की सुविधा पहले से ही भारी दबाव में है. पटना में बेड और ऑक्सीजन की भारी कमी है. 28 अप्रैल को टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया था कि शहर के निजी और सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध लगभग सभी बेड भर चुके हैं और ऑक्सीजन की सप्लाई कम हो गई है. 17 अप्रैल को नालंदा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट विनोद कुमार सिंह ने सरकार को ऑक्सीजन का अनुरोध करते हुए पत्र लिखा था. उसी दिन उन्होंने राज्य के स्वास्थ्य सचिव प्रत्यय अमृत को लिखकर कहा था कि यदि सरकार अस्पताल में तुरंत ऑक्सीजन आपूर्ति नहीं कर पाती है तो वह उनका इस्तीफा मंजूर कर लें.

जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने मुझे बताया कि स्वास्थ्य केंद्रों पर तृतीय स्तर के स्वास्थ केंद्रों पर फिलहाल जो दबाव है उसमें वह मरीज शामिल नहीं हैं जो ग्रामीण इलाकों से यहां तब आने लगेंगे यदि सरकार प्रवासी मजदूरों के लिए ग्रामीण स्तर पर ही प्राथमिक देखभाल की व्यवस्था नहीं करती. बिहार में काम करने का अनुभव रखने वाले जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ विकास आर. केशरी ने बताया, “दूसरी लहर में जिस तरह से कोविड का प्रसार हुआ है उसके मद्देनजर यह जरूरी है कि प्रभावित राज्यों और शहरों से लौट रहे प्रवासी कामगारों का टेस्ट कराया जाए.” उनके अनुसार, राज्य सरकार को लौट रहे सभी प्रवासी मजदूरों को दो सप्ताह क्वारंटीन और आइसोलेट करना चाहिए. जिनकी रिपोर्ट नेगेटिव हो उनको भी आइसोलेट और क्वारंटीन करना चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो बड़ी आशंका होगी कि लौट रहे प्रवासी मजदूर अपने परिवार और गांव के लोगों को संक्रमित कर देंगे और ग्रामीण इलाकों में यह रोग और तीव्रता से पनपेगा.” उन्होंने कहा, “यदि ऐसा हुआ तो यह बिहार जैसे राज्य के लिए घातक होगा क्योंकि राज्य की 88 फीसद आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है.”

भारतीय चिकित्सा संगठन की बिहार शाखा के सचिव सुनील कुमार ने बताया कि सरकार ने दूसरी लहर के लिए ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में बहुत कम तैयारी कर रखी थी. उन्होंने कहा कि लहरों के बीच सरकार ने ब्लॉक और पंचायत स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत नहीं बनाया और उसने ऑक्सीजन की मांग बढ़ने पर इसकी निरंतर आपूर्ति कैसे हो इसकी व्यवस्था भी नहीं की. सरकार ने कुछ वेंटिलेटर जरूर खरीदे लेकिन उनको चलाने की ट्रेनिंग देना मुनासिब नहीं समझा.” कुमार ने कहा कि बिहार में पहली लहर में प्रभावशाली तरीके से टेस्टिंग करने में राज्य विफल हुआ था और दूसरी में स्थिति और खराब हुई है. उन्होंने कहा, “बिहार में पिछले एक साल में एक भी आरटी-पीसीआर मशीन नहीं लगाई गई है जिसकी वजह से राज्य की टेस्ट करने की क्षमता कमजोर पड़ी है. टेस्टिंग में सरकार ने बहुत कम निवेश किया है जिसके चलते ग्रामीण इलाकों में रोग के फैलने को नियंत्रण करना लगभग असंभव है.”

मैंने टेस्टिंग की कमी और हेल्थ वर्करों को निर्देश देने में सरकार की ढिलाई से संबंधित सवाल बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे को भेजे थे लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और न ही बिहार के स्वास्थ्य सचिव प्रत्यय अमृत से जवाब दिया. केशरी के अनुसार, बिहार के ग्रामीण इलाके पहली लहर में बच गए थे लेकिन संक्रमण की गंभीरता के मामले में दूसरी लहर अलग है. उन्होंने कहा, “बिहार जैसे राज्य के ग्रामीण इलाकों में, जहां आधारभूत सुविधाएं पहले से ही बहुत पिछड़ी हुई हैं, कोविड का फैलाना राज्य के लिए घातक सिद्ध होगा. एक बार ग्रामीण इलाके में महामारी फैल गई तो बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए आवश्यकता अनुसार प्रतिक्रिया देना व्यवहारिक रूप से असंभव हो जाएगा.”