दिल्ली के वल्लभभाई अस्पताल के कर्मचारियों ने प्रबंधन पर लगाए लापरवाही के गंभीर आरोप

कर्मचारियों ने बताया कि अस्पताल ने उन्हें एम्बुलेंस, बेड और अन्य सहायता उपलब्ध नहीं कराई. अस्पताल स्टाफ के दो परिवारों ने मुझे बताया कि उन्हें मुआवजा लेने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. सीके विजयकुमार/कारवां

दिल्ली के वल्लभभाई पटेल चेस्ट अस्पताल के कर्मचारियों ने अस्पताल प्रबंधन पर कोरोनावायरस संक्रमित कर्मचारियों का उपचार नहीं करने का आरोप लगाया है. यह अस्पताल स्वास्थ्य मंत्रालय और दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा वित्तपोषित है. वल्लभभाई अस्पताल कोविड-19 अस्पताल नहीं है लेकिन यहां कोविड-19 नमूनों की जांच होती है. यहां कोरोना मरीजों की भर्ती की गई थी परंतु अस्पताल ने अपने ही कर्मचारियों के लिए सुरक्षा प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया जिसके चलते उनमें वायरस फैला.

कर्मचारियों ने बताया कि अस्पताल ने उन्हें एम्बुलेंस, बेड और अन्य सहायता उपलब्ध नहीं कराई. अस्पताल स्टाफ के दो परिवारों ने मुझे बताया कि उन्हें मुआवजा लेने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. कर्मचारियों की शिकायत के संबंध में मैंने अस्पताल प्रबंधन को सवाल भेजे थे लेकिन मुझे जवाब नहीं मिला. कर्मचारियों का कहना है कि उन्होंने कोरोना मरीजों का उपचार करने का खतरा मोल लिया लेकिन जब उन्हें ही कोरोना ने धर दबोचा तो उनकी सुनवाई नहीं हुई. लगभग 30 वर्षीय एक संविदा कर्मचारी ने मुझे बताया कि आज भी उन्हें प्रत्येक 20 दिनों के लिए केवल पांच एन95 मास्क दिए जाते हैं.

कर्मचारी ने बताया, “संक्रमण फैलने का सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे मास्क समय पर नहीं बदले जाते.” इस कर्मचारी को दूसरी लहर में कोरोनावायरस हो गया था. उन्होंने बताया, “मैं एक निजी अस्पताल में आठ दिनों तक भर्ती रहा लेकिन अस्पताल से मुझे देखने कोई नहीं आया. वल्लभभाई पटेल अस्पताल की एक नर्स ने बताया कि वायरस का पता लगने के बाद मरीजों को दूसरे अस्पताल में भेजे में तीन-चार दिन का वक्त लग जाता था जिससे मरीजों के प्रभाव में आए कर्मचारियों को कोरोना होने का खतरा बढ़ जाता था. उन्होंने कहा, “आरटी-पीसीआर जांच के रिजल्ट भी लेट आ रहे थे.”

एक वरिष्ठ नेर्स ने बताया कि जब कोरोना पॉजिटिव कर्मचारी अस्पताल से मदद मांगने गए तो उनसे कहा गया कि अस्पताल नॉन कोविड-19 अस्पताल है और भर्ती नहीं किया जा सकता.

उस वरिष्ठ नर्स बताया कि अप्रैल में उनको कोविड-19 हो गया था और बेड की सख्त जरूरत थी लेकिन अस्पताल ने भर्ती करने से मना कर दिया. उन्होंने बताया कि उन्हें टेली-परामर्श के जरिए स्वयं का उपचार कराना पड़ा.

उनके बाद उनके परिवार के पांच सदस्यों को भी कोविड-19 हो गया. वरिष्ठ नर्स ने मुझे बताया कि वह वल्लभभाई पटेल चेस्ट संस्थान के स्टाफ क्वाटर में रहती हैं. उनके अनुसार वायरस परिवार के अन्य सदस्यों पर इसलिए फैला क्योंकि संस्थान ने क्वारंटीन सुविधा स्टाफ को नहीं दी.

स्टाफ क्वाटरों में 10 परिवार रहते हैं और उसमें से सात परिवार के अलग-अलग सदस्यों को कोरोना हो गया था लेकिन इसके बावजूद इसे क्वारंटीन क्षेत्र नहीं बनाया गया.

कोविड-19 की दूसरी लहर में कर्मचारियों में कोविड-19 तब फैला जब एक “वीआईपी पेशेंट” को अप्रैल के आखिर में अस्पताल में भर्ती किया गया. अस्पताल के कर्मचारियों ने बताया कि उस मरीज को आईसीयू में भर्ती किया गया था लेकिन प्रबंधन ने बाद में उसे कोविड अस्पताल रेफर कर दिया. वरिष्ठ नर्स और अन्य कर्मचारियों ने बताया कि उस “वीआईपी पेशेंट” के अस्पताल प्रबंधन से नजदीकी संबंध थे.

40 साल की एक फ्रंटलाइन वर्कर को 10 अप्रैल को कोविड-19 हुआ और उसके एक हफ्ते बाद उनकी स्थिति गंभीर हो गई और उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी. उन्होंने बताया कि वह रक्त जांच और एक्स-रे के लिए वल्लभभाई अस्पताल गईं लेकिन “उन लोगों ने यह जानकर कि मैं पॉजिटिव हूं मेरी जांच नहीं की.” उन्होंने बताया कि अस्पताल में पॉजिटिव मरीजों की जांच हो रही थी लेकिन स्टाफ की नहीं. उस फ्रंटलाइन वर्कर ने इस भेदभाव का विरोध किया तो वल्लभभाई पटेल का स्टाफ उनका एक्सरे और एक ब्लड टेस्ट करने के लिए तैयार हो गया. “मुझे नहीं पता कि उन्होंने मेरा अन्य ब्लड टेस्ट क्यों नहीं किए.” फिर उस फ्रंटलाइन वर्कर ने हिंदू राव अस्पताल में अपना इलाज करवाया.

फ्रंटलाइन वर्कर ने मुझे बताया कि अस्पताल के वार्ड अटेंडेंट दीपक उप्रेती को भी अप्रैल के मध्य में कोविड-19 हो गया था लेकिन अस्पताल ने उसे भर्ती नहीं किया यह कहते हुए कि अस्पताल कोविड-19 का उपचार नहीं कर रहा है. उप्रेती को लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में बड़ी मुश्किल से भर्ती कराया गया. वर्कर ने बताया, “वह लड़का हमें बार-बार फोन कर रहा था और अनुरोध करता रहा कि मुझे पटेल चेस्ट संस्थान में बुला लिया जाए क्योंकि एलएनजेपी में ठीक से इलाज नहीं मिल रहा है.” 3 मई को उप्रेती की एलएनजेपी में मौत हो गई. फ्रंटलाइन वर्कर ने मुझे बताया कि जिस दिन उप्रेती की मौत हुई उन्होंने उस सुबह भी पटेल चेस्ट संस्थान में ले आने का अनुरोध किया था. उन्होंने बताया कि कर्मचारियों ने प्रबंधन से स्टाफ के लिए अस्पताल में एक वर्ड आरक्षित रखने का अनुरोध किया था लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने इसे नहीं माना.

अस्पताल के 55 वर्षीय लैब अटेंडेंट रमेश टांक की भी ऐसी ही परिस्थितियों में मौत हो गई. फ्रंटलाइन कर्मचारी ने बताया कि अस्पताल ने टांक को बेड नहीं दिया. क्वार्टर में रहने वाले व्यक्ति ने बताया कि अस्पताल ने लैब अटेंडेंट को एम्बुलेंस तक नहीं दी. उन्होंने कहा, “हमारे पास सिर्फ एक एम्बुलेंस है और उसे संभावित मरीजों के लिए स्टेंडबाई में रखा है.”

अस्पताल ने कोविड-19 की पहली लहर में भी स्टाफ कर्मचारियों के साथ ऐसा ही दुर्व्यवहार किया था. 29 साल के वार्ड अटेंडेंट आकाश को संविदा में नौकरी पर रखा गया था. बाद में आकाश की कोविड से मौत हो गई. आकाश अपने पीछे अपनी पत्नी निशा और छह और तीन साल के दो बच्चे छोड़ गए हैं. निशा ने मुझे बताया कि महामारी की पहली लहर के समय आकाश को वल्लभभाई अस्पताल में जांच के बाद कोविड पॉजिटिव पाए जाने वाले मरीजों को कोविड केंद्र में पहुंचाने का काम दिया गया था. उनकी ड्यूटी रात 11 बजे से सुबह 3 बजे तक होती थी. इस बीच उन्हें खाने तक की छुट्टी नहीं दी जाती थी और जब वह किसी मरीज को कोविड सेंटर छोड़कर वापस आते थे तो उनसे वेड साफ कराए जाते थे. अगर वह ऐसा करने से इनकार करते थे तो उनसे कहा जाता था कि “तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा?” निशा ने बताया कि पिछले साल 11 जून को आकाश में कोविड के लक्षण दिखने लगे थे और उन्होंने एक नर्स की सलाह पर दवाइयां ली थीं. 17 जून को वह अपनी जांच कराने अस्पताल गए थे, अस्पताल ने अगले दिन उनकी जांच की और उन्हें भर्ती कर लिया. लेकिन बाद में उन्हें सफदरजंग अस्पताल रेफर कर दिया गया जहां 19 जून को उनकी मौत हो गई.

आकाश की मौत के बाद निशा और उनकी तीन साल की बच्ची को भी कोविड हो गया. निशा कहती हैं, “कम से कम अस्पताल को यह तो सोचना चाहिए था कि यदि आकाश को कोरोना हो गया है तो उनके परिजनों को भी हो सकता है. अस्पताल की ओर से मुझे एक फोन तक नहीं आया. मैं बस अपने पति की याद में रोती रही और अपने बच्चों को संभालने की कोशिश करती रही.” निशा ने बताया कि आकाश पवन सिक्योरिटी प्राइवेट लिमिटेड नाम की एजेंसी के जरिए अस्पताल में नियुक्त हुए थे लेकिन उस एजेंसी में अभी तक उनके प्रोविडेंट फंड (भविष्य निधि) का पैसा नहीं दिया है. निशा ने बताया कि पीएफ से जुड़े दस्तावेज द्वारका कार्यालय में बहुत पहले ही जमा करा चुकी हैं. उस कार्यालय के कर्मचारी अजय ने मुझे बताया कि आकाश के पीएफ की प्रक्रिया जारी है.

निशा ने बताया कि आकाश की मौत के बाद भी वल्लभभाई अस्पताल ने उनकी जरूरी मदद नहीं की. निशा ने नौकरी के लिए अस्पताल के चक्कर काटे लेकिन किसी ने भी उनसे बात नहीं की. निशा ने बताया कि वल्लभभाई अस्पताल के कंसलटेंट आरसी नारंग के सामने रो-रो कर उन्होंने नौकरी मांगी और साथ ही अस्पताल के ज्वाइंट रजिस्ट्रार पीआर सतनाम से भी मिलने की कोशिश की लेकिन वह नहीं मिले. उन्होंने कहा, “मेरे पति ने अस्पताल से मिली सभी जिम्मेदारियों को पूरा किया तो क्या अस्पताल की हमारे प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती. मेरे आंसू भी उन लोगों को पसीज नहीं पाए.”

दिसंबर 2020 में संविदा पर नियुक्त वार्ड अटेंडेंटों ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से शिकायत की थी कि उनकी ड्यूटी खत्म हो जाने के बाद भी उनसे कोविड मरीजों को रेफर किए गए अस्पतालों में ले जाने को कहा जाता है जिसके चलते उनकी ड्यूटी की अवधि तीन-चार घंटे ज्यादा हो जाती है लेकिन किसी तरह का ओवरटाइम नहीं दिया जाता है और क्वारंटीन होने का भी समय नहीं दिया जाता है. “इससे अस्पताल के अन्य स्टाफ, हमारे परिजन और हम भी खतरे में पड़ रहे हैं.”

इस पत्र के अलावा दिल्ली यूनिवर्सिटी और कॉलेज कर्मचारी यूनियन ने भी कई केंद्रीय प्राधिकरणों और दिल्ली के मुख्यमंत्री के कार्यालय से वल्लभभाई पटेल के प्रबंधन की शिकायत की है. दिल्ली यूनिवर्सिटी और कॉलेज कर्मचारी यूनियन ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को जून 2020 को एक खत लिखकर शिकायत की थी कि अस्पताल अपने कर्मचारियों की जान जोखिम में डाल रहा है. मुझे कई कर्मचारियों ने भी बताया कि मई 2021 में वल्लभभाई पटेल के 70 से 80 फीसदी स्टाफ को कोरोना हो गया था इसके बावजूद अस्पताल ने 14 दिनों के लिए अस्पताल बंद नहीं किया.

अस्पताल के स्थायी कर्मचारी श्री किशन की मौत के बाद भी अस्पताल ने उनके परिवार को मुआवजा नहीं दिया. किशन की मौत कोरोना की पहली लहर में हुई थी. बीमार पड़ने के बाद पहले तो उन्हें वल्लभभाई अस्पताल में ही भर्ती किया गया लेकिन बाद में उन्हें दीपचंद बंधु अस्पताल रेफर कर दिया गया जहां 16 जून 2020 को उनकी मौत हो गई.

29 जून 2020 को किशन की पत्नी प्रभावती देवी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक करोड़ रुपए के मुआवजा के लिए खत लिखा. यह खत उन्होंने 18 अप्रैल 2020 के सरकार के आदेश के मद्देनजर लिखा था जिसमें दिल्ली सरकार ने कहा है कि राज्य सरकार के किसी भी कर्मचारी की मौत यदि कोविड-19 ड्यूटी के दौरान हुए वायरस संक्रमण के चलते होती है तो ऐसे कर्मचारियों के परिजनों को एक करोड़ रुपए का मुआवजा दिया जाएगा. लेकिन देवी के आवेदन को यह कह कर अस्वीकार कर दिया गया कि किशन कोविड-19 ड्यूटी में तैनात नहीं थे. किशन के एक रिश्तेदार ने बताया कि पत्नी की विधवा पेंशन की अर्जी को मंजूरी मिलने में भी छह महीने लग गए.

देवी का कहना है कि किशन कोविड-19 ड्यूटी में नियुक्त नहीं थे ऐसा कहना गलत है. उन्होंने कहा, “मेरे पति श्री कृष्ण कोरोना वॉरियर्स श्रेणी में आते थे. जब सरकार ने अस्पताल से पूछा कि किन परिस्थितियों में श्री कृष्ण को संक्रमण हुआ है तो अस्पताल ने सरकार को सही जानकारी नहीं दी.” उन्होंने बल्लभभाई पटेल अस्पताल के निदेशक को 1 मार्च 2021 को लिखे अपने पत्र में बताया है कि “उनके पति अपने काम के सिलसिले में इमरजेंसी विभाग सहित सभी विभागों में आया-जाया करते थे. उनको वायरोलॉजी विभाग में भी जाना पड़ता था जहां कोरोना मरीजों के नमूने रखे जाते थे और वहां जाने के लिए सिर्फ एक ही लिफ्ट और सीढ़ियां थीं इसलिए मेरे पति को कोरोना मरीजों द्वारा इस्तेमाल किए जा रही लिफ्ट तथा सीढ़ियों से ही जाना पड़ता था.”

मुख्यमंत्री को लिखे एक अन्य पत्र में देवी ने लिखा है कि “उनके छह बेरोजगार बच्चे हैं और उनके पिता ने ताउम्र संस्थान को सेवा प्रदान की थी.”

अस्पताल के कर्मचारियों ने प्रबंधन पर स्टाफ के टीकाकरण में भी लापरवाही बरतने का आरोप लगाया है. वरिष्ठ नर्स ने मुझे बताया कि 21 मई तक अस्पताल ने परिसर में अपने कर्मचारियों के लिए वैक्सीनेशन कैंप नहीं लगाया था.

मैंने अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारियों- सतनाम और राजकुमार एवं और नारंग को भी कर्मचारियों के आरोपों के संबंध में सवाल भेजे थे लेकिन किसी ने भी जवाब नहीं दिया.