दो महीने से भी ज्यादा वक्त से जारी, अचानक किए गए और इस कड़े लॉकडाउन के जरिए कोविड-19 महामारी के लिए केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया ने भारत के हाशिए पर पड़े समुदायों को एक ऐसी जिंदगी में धकेल दिया है जहां अनिश्चितता पसरी हुई है. देश के असंगठित श्रम बल पर बरपे इस संकट ने कई कठिनाइयों को पैदा किया है - जिनमें से अच्छी खासी संख्या उनकी है जिन्हें अपने घरों से बेदखल कर दिया गया है और जिन्हें बेरोजगारी और भूख का मुकाबला करना पड़ रहा है. लॉकडाउन का खामियाजा भुगतने वालों में भारत के शरणार्थी भी शामिल हैं, जिन्हें अपने नागरिकों के लिए विशेष रूप से तैयार की गई महामारी प्रतिक्रिया में अनदेखा कर दिया गया है.
सरकारी सहायता के बिना संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनएचसीआर) जो दुनिया भर में शरणार्थियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए काम करती है, भारत में शरणार्थियों को आवश्यक जरूरतों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के प्रयासों में लगी हुई है. लॉकडाउन के दौरान भारत में फंसे शरणार्थियों की दुर्दशा को समझने के लिए, कारवां की रिपोर्टिंग फेलो आतिरा कोनिक्करा ने माइग्रेंट एंड असाइलम प्रोजेक्ट की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक रोशनी शंकर के साथ बातचीत की. माइग्रेंट एंड असाइलम प्रोजेक्ट का काम मुख्य रूप से यूएनएचसीआर की असाइलम संबंधी कार्यवाही में भारत में शरणार्थियों को कानूनी प्रतिनिधित्व देना है.
इस इंटरव्यू में, यूएनएचसीआर की वकील रह चुकी शंकर ने बताया कि कैसे महामारी के दौरान शरणार्थियों की परेशानी, खासकर औरतों की परेशानी, उनकी राज्यहीनता के कारण बढ़ गई है. "उनकी कानूनी स्थिति हमेशा कमजोर रही है," उन्होंने कहा. “उन्हें सद्भावना के आधार पर यहां रहने की अनुमति दी गई है. लेकिन उनमें से कुछ के पास कोई स्पष्ट सरकारी दस्तावेज नहीं है. तो बिना दस्तावेजों के आपको क्या मदद मिल सकती है? "
आतिरा कोनिक्करा : जिन शरणार्थियों के बीच आप काम कर रही हैं क्या उनमें से आपको कोई कोविड-19 से संक्रमित भी मिला?
रोशनी शंकर : शुक्र है, हमारे समुदाय में, दिल्ली में जितने भी यूएनएचसीआर-पंजीकृत शरणार्थी हैं, अभी तक कोई मामला नहीं आया है. ऐसी कोई खबर अभी तक नहीं आई है.
जिस तरह से शरणार्थियों को भारत में विभाजित किया गया है यानी उनमें से कुछ को यूएनएचसीआर देखता है, वे यूएनएचसीआर द्वारा पंजीकृत और संरक्षित हैं, जबकि पड़ोसी देशों, श्रीलंका और तिब्बती के शरणार्थी सीधे सरकार के तहत आते हैं. तिब्बती समुदाय से किसी के कोविड-19 से संक्रमित होने की रिपोर्ट आई है, यह मैं जानती हूं. मैंने अभी तक श्रीलंकाई शरणार्थी समुदाय में ऐसा कुछ भी नहीं सुना है.
आतिरा कोनिक्करा : क्या यूएनएचसीआर ने सरकारों को इस बारे में कोई दिशा-निर्देश जारी किया है कि उन्हें शरणार्थियों के लिए अपनी कोविड-19 प्रतिक्रिया को कैसे दर्ज करना चाहिए?
रोशनी शंकर : उन्होंने सरकार को एक सलाह, जो एक अपील की तरह है, यह कहते हुए जारी की है कि आपको उन्हें अपनी राष्ट्रीय योजनाओं में एकीकृत करना चाहिए. आपको इस आबादी को अनदेखा नहीं करना चाहिए; आप उनके बारे में भूल जाते हैं क्योंकि उनके पास वह दर्जा नहीं है. भारत में ऐसी संख्या है भी बहुत कम. यह भारत में शरणार्थियों की एक बड़ी संख्या की तरह नहीं है, है ना? इसलिए इस महामारी में उनकी अनदेखी हो जाती है. मुझे लगता है कि वे यही कोशिश कर रहे हैं कि उनकी अनदेखी ना हो, साथ ही वे सरकार से अपील करने करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनके पास कोई दिशानिर्देश नहीं हैं. हमने कन्वेंशन [शरणार्थियों की स्थिति के संबंध में 1951 में हुई संयुक्त राष्ट्र की कन्वेंशन] पर हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं. इसलिए यूएनएचसीआर यहां भरोसे के आधार पर है. उसे वास्तव में सरकार से पूछने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है. वह यह कहते हुए अपील कर सकता है कि कृपया शरणार्थियों को याद रखें और अपनी नीतियों में उन्हें भी शामिल करें.
आतिरा कोनिक्करा : सरकार के माध्यम से या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा स्थापित चिकित्सा शिविरों के माध्यम से शरणार्थियों के लिए परीक्षण की पहुंच की सीमा क्या है?
रोशनी शंकर : व्यवस्थित पैमाने पर उनकी जांच करने के लिए कुछ भी नहीं किया गया है. उनकी भी हालत वैसी ही है जैसी भारत में हर उसकी होती है, जिसे सरकारी अस्पताल में जाना होता है. सामान्य रूप से वे सरकारी अस्पतालों में जा सकते हैं, जो आमतौर पर उनका इलाज करने से इनकार नहीं करते हैं. मुझे नहीं लगता कि लोग अभी तक गए हैं क्योंकि आमतौर पर अस्पतालों में जाने में भी एक डर तो है.
आतिरा कोनिक्करा : आपने पहले आधार के साथ आवश्यक सेवाओं तक पहुंच को जोड़ने और शरणार्थियों के लिए इसके द्वारा उत्पन्न कठिनाइयों की आलोचना की है. महामारी के संदर्भ में यह स्थिति किस तरह और विकराल हो गई है?
रोशनी शंकर : महामारी के दौरान यही वह समय है जब आप वास्तव में पहले से कहीं अधिक सरकारी सेवाएं पाने की कोशिश कर रहे हैं. इससे पहले, आप यूएनएचसीआर की समानांतर प्रणाली पर काफी हद तक निर्भर थे. लॉकडाउन होने के कारण यूएनएचसीआर के पारंपरिक सेवा-वितरण तंत्र भी बंद हो गए हैं. इसलिए, हर कोई सरकारी सेवाओं पर अधिक से अधिक निर्भर है. शरणार्थियों के बीच एक डर यह भी है, जैसा कि आप जानते हैं, उनकी कानूनी स्थिति हमेशा से बहुत नाजुक रही है. उन्हें भरोसे के आधार पर यहां रहने की अनुमति दी गई है. लेकिन उनमें से कुछ के पास कोई स्पष्ट सरकारी दस्तावेज नहीं है. तो दस्तावेजों के बिना, आप उनकी क्या मदद कर सकते हैं? निश्चय ही उनकी कुछ भी मदद नहीं हो सकती है.
हमारी चिंता सामुदायिक प्रसार को लेकर है. इसके बारे में कोई दो रास्ते नहीं हैं. ऐसा होने की स्थिति में हमें नहीं पता कि उनके पास सुविधाओं तक कितनी पहुंच है, क्योंकि अभी सब कुछ सरकार द्वारा स्थापित संरचनाओं के माध्यम से (संचालित) है. एनजीओ केवल इतना ही कर सकते हैं. हम जागरूकता फैला सकते हैं, हम राशन दे सकते हैं, जो हो ही रहा है. यूएनएचसीआर के भागीदार राशन दे रहे हैं. यह (सरकार के साथ) एक समानांतर प्रणाली है जहां यूएनएचसीआर और उसके सहयोगी राशन किट बना रहे हैं और उन्हें वितरित कर रहे हैं. उन्होंने अपनी राशन किट बनाई क्योंकि उनकी मुख्यधारा की किसी भी प्रणाली (सार्वजनिक वितरण प्रणाली का जिक्र करते हुए) तक पहुंच नहीं है. वे पूरी तरह से समानांतर प्रणालियों पर निर्भर हैं.
आतिरा कोनिक्करा : क्या यूएनएचसीआर को अभी राशन की खरीद को लेकर किसी भी तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है?
रोशनी शंकर : खरीदने की परेशानी नहीं हैं. मुझे लगता है कि निर्माण क्षेत्र में वितरण एक चुनौती है क्योंकि उनकी पहुंच बहुत सीमित है. उनके पास केवल दिल्ली भर में कुछ केंद्र हैं. उनके पास होम डिलीवरी करने की क्षमता नहीं है.
आतिरा कोनिक्करा : स्पष्ट संचार की कमी और अंतिम-मिनट संचार के लिए सरकार की कोविड-19 प्रतिक्रिया की आलोचना की गई है. यहां तक कि शरणार्थियों के लिए भाषाई अवरोधों या अशिक्षा के कारण उपलब्ध थोड़ी-बहुत जानकारी को समझना मुश्किल हो जाता है. इसका महामारी से जूझ रहे शरणार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
रोशनी शंकर : समुदाय में मानसिक-स्वास्थ्य प्रभाव पहले से ही बढ़ गया है क्योंकि वे युद्ध और द्वंद्व से भाग रहे हैं. यह बिल्कुल भी सामान्य नहीं है. मनोवैज्ञानिक-सामाजिक समर्थन के संदर्भ में यहां पर्याप्त मदद उपलब्ध नहीं है जबकि द्वंद्व-संबंधी मनोवैज्ञानिक-सामाजिक समर्थन एक बहुत ही विशिष्ट क्षेत्र है. आप दुर्घटना से संबंधित आघात या बीमारी से संबंधित आघात के लिए सलाहकार पा जाते हैं. लेकिन द्वंद्व-संबंधी बहुत विशिष्ट है. इनमें से ज्यादातर वे हैं जो तस्करी में बच गई हैं. वे पहले से ही बहुत आघात की स्थिति में होती हैं. और यह जानकारी न होना और बिना किसी निश्चितता के लॉकडाउन में रहना, बिना भोजन या राशन के ... मुझे लगता है कि राशन सबसे बड़ी समस्या रही है.
दूसरी समस्या यह है कि मकान मालिकों ने अकेली औरतों को घर से निकाल दिया है. ऐसी ही एक अकेली और लकवाग्रस्त औरत, जो हमारे संपर्क में है, को सिर्फ इसलिए उसके घर से बाहर कर दिया गया था क्योंकि मकान मालिक ने किराया माफ करने से इनकार कर दिया था. उसे अपने समुदाय के साथ जाना पड़ा. ठीक महामारी के दौरान, वह अपने घर के बाहर [कर दी गई] थी. मकान मालिक ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अपनी हालत के चलते वह पुलिस में जाकर मदद नहीं पा सकेंगी- सच तो यह है कि हर कोई जानता है कि उनकी हालत बहुत खराब है, उन्हें पुलिस से या किसी और से समर्थन नहीं मिल सकता है. यौन हिंसा का भी यही कारण है. वे आसान शिकार बन गई हैं क्योंकि उनके पास कानूनी-सुरक्षा प्रणालियों तक समान पहुंच नहीं है जैसे कि एक नागरिक के पास होनी चाहिए. घर खाली करवा देना एक बड़ी समस्या है और इसका आप कुछ कर भी नहीं सकते. और रहने की जगहें भरी पड़ी हैं.
आतिरा कोनिक्करा: कोविड से पहले वे असंगठित क्षेत्र में काम करते रहे होंगे.
रोशनी शंकर : हां, उनमें से ज्यादातर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं जो कारखानों का निर्माण कर रहे हैं, उनमें से बहुत से अस्पतालों या कॉल सेंटरों में दुभाषियों के रूप में काम करते हैं. ऐसे हालात में, उनकी अपनी स्थिति के कारण शोषण की अधिक संभावना है. ऐसा ही होता रहा है. अब यह सब अधिक हो रहा है क्योंकि हर कोई अपना भला देखने की कोशिश कर रहा है. बच्चों वाली अकेली औरतों के लिए राशन एक बड़ी समस्या रही है. (लॉकडाउन के दौरान) जब तक यूएनएचसीआर राशन किट बांट पा रहा था, तब तक इसके आलावा कोई और रास्ता नहीं था. हमें इसके लिए बहुत से फोन आ रहे हैं, जिसमें हमसे कहा जाता है कि मैं खाने का क्या करूं. उनके पास राशन कार्ड नहीं है. वे इसे केंद्रीय प्रणाली से प्राप्त नहीं कर सकते. वे राशन के लिए यूएनएचसीआर पर निर्भर हैं.
आतिरा कोनिक्करा : महिला शरणार्थियों के लिए प्रजनन स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच की प्रकृति क्या है? लॉकडाउन के कारण यह कैसे प्रभावित हुआ है?
रोशनी शंकर: उनके पास फिलहाल कोई पहुंच नहीं है. स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुंच मुख्य रूप से यूएनएचसीआर के भागीदारों के माध्यम से कराई गई, जिन्होंने स्वास्थ्य सुविधाएं चलाईं. उन्हें इसके लिए केंद्र में आना होगा. यह इस तरह से काम करता है कि वे [साझेदार] एक केंद्र में आएंगे और शरणार्थी उस केंद्र में उनसे मिलेंगे. अब फिलहाल केंद्र बंद हैं. शरणार्थी केवल यही कर सकते हैं कि निकटतम सरकारी अस्पताल में जा सकते हैं, जो वे नहीं जा रहे हैं क्योंकि अगर वे कहीं जाते हैं तो वायरस से संक्रमित होने का एक सामान्य डर है.
आतिरा कोनिक्करा : लॉकडाउन खत्म होने के बाद, राहत उपायों के संदर्भ में शरणार्थी महिलाओं तक पहुंचने के लिए आपके संगठन की योजनाएं क्या हैं?
रोशनी शंकर : शरणार्थी महिलाओं की हमेशा आपराधिक-न्याय प्रणाली तक पहुंच होती है क्योंकि अगर कोई यौन हिंसा का शिकार होती है तो यह भारत के क्षेत्र में किसी भी महिला पर लागू होता है. कानूनी तौर पर कहें तो यह आपकी नागरिकता पर आधारित नहीं है. हम उन्हें कानूनी-जागरूकता की जानकारी दे रहे हैं कि अपराध की पहचान कैसे करें, आप क्या कर सकते हैं, हेल्पलाइन क्या हैं, आप किस प्रकार की सहायता प्राप्त कर सकते हैं. हम सूचना प्रदान करने के लिए दूरस्थ सहायता का भी पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं; यह एक मिस-कॉल सेवा होगी जहां आप एक नंबर पर कॉल करें और आपको वह सारी जानकारी मिल जाती है या यह आपको सीधे एक हेल्पलाइन से जोड़ दें. हम यह भी देखने की कोशिश कर रहे हैं कि दूरस्थ सहायता के लिए हम किस तरह के छोटे प्लेटफॉर्म बना सकते हैं. लेकिन यह, जाहिर है, उन पर भी निर्भर करता है कि वे थोड़ा-बहुत इंटरनेट चला पाते हैं या नहीं.
आतिरा कोनिक्करा : और यह भी समझ पाते हैं कि इन सुविधाओं का उपयोग कैसे करें, ठीक?
रोशनी शंकर: बिल्कुल. और जैसा मैंने कहा, महिलाओं के साथ, यह एक समस्या है क्योंकि (फोन) आमतौर पर बच्चों या पुरुषों के ही कब्जे में होते हैं. प्रवासियों का मुद्दा, एक चुनावी मुद्दा बन जाएगा. यह एक राजनीतिक मुद्दा है क्योंकि वे देश के नागरिक हैं. यहां, यह वास्तव में महत्वपूर्ण नहीं है कि उनकी संख्या कम है. इसलिए, मुझे लगता है कि हमारी चिंता उनकी अनदेखी होने के बारे में अधिक है. लेकिन विभिन्न भाषाओं में जानकारी प्रदान करना, इसे गैर-सरकारी संगठन आगे बढ़कर करने में सक्षम हैं. पहली बात हमने जैसे ही महामारी का प्रकोप हुआ, डब्लूएचओ के दिशानिर्देशों को लिया (कोविड-19 के खिलाफ सामान्य सावधानियों के बारे में) और इसका छह शरणार्थी भाषाओं में अनुवाद किया और हमने व्हाट्सएप-एड को अपने सभी सहायकों को दे दिया. ये चीजें हम कर सकते हैं. राशन के साथ समस्या ये है कि, जैसा कि मैंने कहा, यूएनएचसीआर राशन आपूर्ति वितरित कर सकता है लेकिन यह टिकाऊ नहीं है, है ना? वे एक बार ही राशन बांट सकते हैं. एक परिवार में एक सप्ताह या दो सप्ताह में खत्म हो जाता है. लॉकडाउन में, एक समय के लिए यह ठीक था. लेकिन अगले छह-सात महीनों तक ऐसा ही रहने वाला है. उनमें से ज्यादातर नौकरी की चली गई है.
उनमें से बहुतो के दस्तावेजों की तारीख खत्म हो रही है. असायलम इंटरव्यू रद्द कर दिए गए हैं. उन्हें अपने असायलम इंटरव्यू के लिए यूएनएचसीआर में जाना पड़ता है या खुद को शरणालय की चाह रखने वालों के रूप में पंजीकृत कराना पड़ता है. लेकिन वह सारा सिस्टम लॉकडाउन की वजह से बंद हो गया. इसलिए लोग असायलम तक नहीं जा सकते हैं, और क्योंकि वे असायलम तक नहीं जा सकते हैं इसलिए उनको दस्तावेज भी नहीं मिल पाते हैं. तो, वे वास्तव में एक कानूनी पचड़े में फंसे हैं. वे भारत में हैं, लेकिन वे शरण चाहने वालों के रूप में पंजीकृत नहीं हैं, तो वे वास्तव में एक अर्थ में अवैध प्रवासी हुए.
आतिरा कोनिक्करा : तो, अगर आप यूएनएचसीआर की मदद लेना चाहते हैं, तो आपको शरण चाहने वाले के रूप में पंजीकृत होना होगा?
रोशनी शंकर : यह पहला कदम है. एक बार जब आप शरण चाहने वाले के रूप में पंजीकृत हो जाते हैं, तो यूएनएचसीआर आपके दस्तावेजों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से नवीनीकृत करता है. आमतौर पर, इन दस्तावेजों को हर तीन महीने या एक विशेष समयावधि के बाद नवीनीकृत किया जाता है. वे नवीनीकृत नहीं होंगे तो आपके दस्तावेज मान्य नहीं होंगे. वे डिजिटली ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन कोई इंटरव्यू नहीं हो रहा है. उनमें से बहुत से जिनके लॉकडाउन अवधि के दौरान असायलम इंटरव्यू हुए थे, उन्हें (कागज पर) मान्यता दी गई हो सकती है और एक शरणार्थी कार्ड (दिया गया) हो सकता है, लेकिन उनके पास अभी तक यह (भौतिक रूप में) नहीं हैं.
इसलिए, हम नहीं जानते कि यह कब शुरू होगा क्योंकि कई महीनों तक आमने-सामने इंटरव्यू होने की संभावना नहीं है. हमें एक रिमोट असायलम-इंटरव्यू की तरह का कुछ करना होगा जो पहले नहीं हुआ है क्योंकि गोपनीयता के संबंध में भी कई अन्य मामले हैं. आमतौर पर असायलम इंटरव्यू में, आपको उस समस्या का पता चलता है जो घर में महिला को प्रभावित कर रही है या उसका खुद का दावा हो या कोई एक ऐसे परिवार का सदस्य हो सकता है जो एलजीबीटीआई समुदाय से हो. जब आप अलग से उनका इंटरव्यू करते हैं, तो उसके दौरान आप उनसे ये सब जानकारी जुटाते हैं.
आतिरा कोनिक्करा : यह जरूरी है कि आप उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलते हैं. यह एक फोन इंटरव्यू के जरिए नहीं हो सकता.
रोशनी शंकर : यह नहीं हो सकता, इसमें कोई निजता नहीं है और अन्य मुद्दे भी हैं. भरोसे लायक भी नहीं होता, उदाहरण के लिए, पति कुछ कह रहा है, पत्नी कुछ कह रही है. आपको पता नहीं होता कि लाइन की दूसरी तरह मौजूद व्यक्ति आवेदक है. वह कोई और भी हो सकता है. हमें नहीं पता कि ये चीजें कैसे काम करेंगी. मुझे लगता है कि हमें सामुदायिक क्षेत्रों में वर्चुअल इंटरव्यू रूम बनाने की आवश्यकता है ताकि लोग कम से कम उन तक पहुंच सकें, भले ही वे यूएनएचसीआर कार्यालयों में नहीं आ सकते हैं. इससे जो औरत शिकायत दर्ज करना चाहती है या मदद चाहती है, वह कम से कम आ तो सकती है उसके पास वो तो सहारा होगा क्योंकि अपने फोन से वह ऐसा नहीं कर सकती हैं. यह मुमकिन नहीं है.