दिल्ली में हफ्तों तक मदद के इंतजार के बाद बिहार चल दिए मजदूर

9 मई तक दिल्ली के खिजराबाद इलाके में रहने वाले 200 मजदूरों को राज्य सरकार और जन प्रतिनिधि से मदद नहीं मिली. अदनान अबीदी/ रॉयटर्स

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दिल्ली के पॉश इलाके न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के पीछे खिजराबाद नाम की तंग और घनी आबादी वाली बस्ती है जहां पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के हजारों मजदूर रहते हैं. वर्षों से ये मजदूर खिजराबाद में रह रहे हैं और संपन्न इलाके को विकसित करने और बनाए रखने के लिए श्रम और घरेलू सेवाएं दे रहे हैं. अचानक हुए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के चलते इन मजदूरों को बेरोजगारी और भूख का सामना करना पड़ रहा है. घर लौटने की कोई सार्वजनिक व्यवस्था नहीं होने से ये लोग ऐसी हालत में जीने को मजबूर हैं जिसमें कोविड​​-19 महामारी का खतरा ज्यादा बड़ा है. सरकार या जन प्रतिनिधियों से उन्हें किसी भी तरह की सहायता नहीं​ मिल रही है.

9 मई को मैंने खिजराबाद में रहने वाले इन मजदूरों से बात की और मुझे पता चला कि लगभग 100 मजदूर हताश होकर अपने घर बिहार जाने की कोशिश में लगे हैं. अगले दिन ऐसा चाहने वालों की संख्या लगभग 200 हो गई. 11 मई को दोपहर लगभग 1 बजे मैं उन मजदूरों से मिलने के लिए इलाके में गया, जो अभी वहीं थे. वहां रहने वाले मजदूर और उनके जैसे अन्य लोग के पास भोजन, पैसा या अन्य सहायता नहीं है. ये लोग लॉकडाउन से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.

संकरी गलियों, टूटी सड़कों और घरों के बाहर बहती नालियों से इस इलाके को पहचाना जा सकता है. भीड़भाड़ वाली गलियों से गुजरने के बाद मैं एक पुरानी इमारत के पास पहुंचा जो एक खुली नाली के पास थी. इसमें लगभग 200 लोग रहते थे. इसकी दीवारें नम थी. गलियारा इतना तंग था कि दो लोग साथ नहीं रुक सकते और सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखना कठिन था. दरवाजों को ढके पर्दों से कुछ बच्चे बाहर झांक रहे थे और अन्य बच्चे उस तंग गलियारे में खेल रहे थे.

इस चार मंजिला इमारत में चार या पांच कमरे, दो सामान्य शौचालय और प्रत्येक मंजिल पर एक साझा बाथरूम था. प्रत्येक कमरे का आयाम लगभग दस वर्ग फीट था और इसमें बच्चों वाले परिवार, कुंवारे लोग और वरिष्ठ नागरिक रहते हैं. यहां चार लोगों वाला एक परिवार है जो एक कमरे का 2600 रुपए (बिजली अलग से) किराया देता है. लेकिन काम के बिना मजदूरों के पास बहुत कम या बिल्कुल पैसा नहीं बचा है. उन्होंने बताया कि उनके मकान मालिक उन पर किराया चुकाने का दबाव डाल रहे हैं.

बिहार के सुपौल जिले के प्रमोद यादव, जो अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ उस कमरे में रहते हैं, ने मुझे बताया कि मकान मालकिन उसी दिन किराया लेने आई थी. "मेरे पास अपनी गाड़ी है और मैं हर दिन 200 से 300 रुपए कमाता था," उन्होंने बताया. “अब आप लॉकडाउन के बाद से उस काम के बिना मेरी हालत की कल्पना कर सकते हैं. उसमें अगर मुझे किराया देने का दबाव डाला जाए तो मैं यहां कैसे रह सकता हूं?''

मजदूरों ने कहा कि दिल्ली सरकार आम तौर पर उनके ​इलाके में दिन में दो बार (दोपहर और शाम) 7 बजे भोजन वितरित करती है. लेकिन साथ ही उन्होंने खामियों की शिकायत भी की. लोगों ने शिकायत की कि खाना अक्सर खराब होता है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा मुफ्त भोजन और राशन के वादों का जिक्र करते हुए यादव ने पूछा, "सीएम और पीएम के बयानों का क्या हुआ?" यह स्पष्ट लग रहा था कि केजरीवाल द्वारा प्रवासी मजदूरों को दिल्ली में ही रहने का आह्वान करने और उनके इस आश्वासन के बावजूद कि सरकार इस सार्वजनिक-स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान उनकी देख-रेख करेगी, जो उपाय अपनाए गए थे वे नाकाफी थे.

यादव ने बताया कि ठीक से खाना ना दे पाने की वजह से उनका दो साल का बच्चा बीमार हो गया है. “फिर भी मैं हर दिन अपनी गाड़ी इस उम्मीद से साफ करता हूं कि चीजें आज या अगले दिन से बेहतर होंगी. मैं यहां रहना चाहता हूं क्योंकि गांव में मेरा कुछ नहीं है और मैं अपने बच्चों का भविष्य बनाना चाहता हूं. लेकिन क्या मैं इस हालत में जिंदा बचूंगा? ”

बिहार के छपरा जिले के राम सबद राम ने, जो दलित हैं, ने बताया कि खिजराबाद छोड़कर जाना तो नहीं चाहते लेकिन यहां खाना अच्छा नहीं मिलता है और पूरा भी नहीं मिलता है, इस वजह से उन्हें जाना पड़ा. राम ने कहा कि वह अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले सदस्य थे और घर पर उनके परिवार की हालत बहुत खराब है, लेकिन जब 10 मई की रात उन्हें खाने के लिए सिर्फ चावल और रोटी मिली तो उन्होंने चले जाने का फैसला किया.

उन्होंने कहा, "हम दाल या सब्जी के बिना चावल या रोटी कैसे खा सकते हैं? अगर हफ्ते में कम से कम दो या तीन बार भी ढंग का खाना नहीं मिलेगा तो हम कैसे बर्दाश्त कर सकेंगे. हमने चालीस दिनों से ठीक से नहीं खाया है. इतने सारे लोग इस जगह को छोड़ कर जा रहे हैं क्योंकि उन्हें इस हालत में लंबे समय तक जिंदा रह पाना मुश्किल लगता है, जबकि गरीबों को दिन में दो बार भी ढंग का खाना तक नहीं दिया जाता है.” राम उन 50 लोगों में हैं जो 11 मई को छपरा के लिए निकल गए थे.

बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के धर्मेंद्र तिवारी भी यहां रहना चाहते थे लेकिन स्थिति खराब होने के कारण नहीं रह सके. तिवारी पेशे से एक पेंटर हैं और पिछले दो महीनों में उन्होंने जो कुछ सहा उसकी चर्चा करते हुए रोने लगे. "मैं इस समय असहाय हूं," उन्होंने कहा. तिवारी के दो बेटे हैं, जिनकी उम्र 14 और 17 वर्ष है और उनकी पत्नी पित्त की पथरी से पीड़ित हैं. “मैं अपनी पत्नी को इलाज के लिए दिल्ली लाया था लेकिन अब ऐसा संभव नहीं लगता. मैं रहना चाहता हूं और काम करना चाहता हूं लेकिन इस हालत में मैं कब तक जिंदा रह सकता हूं? ”

मजदूरों ने मुझे बताया कि लॉकडाउन के 20 दिन में ही उनके सामने संकट आना शुरू हो गया था. उन्होंने कहा कि उन्हें एहसास हो गया ​था कि लॉकडाउन लंबा चलेगा, लेकिन कोई काम या आमदनी का जरिया नहीं था. बिहार के सारण जिले के गरखा शहर के रहने वाले राजनाथ प्रसाद यादव ने कहा, "स्थिति को देखते हुए, हमने एक-दूसरे के साथ चर्चा की और अपने-अपने क्षेत्र के नेताओं से बात करने का फैसला किया." खिजराबाद में अधिकांश मजदूर बिहार के हैं और खासकर सारण के. यादव ने कहा कि मजदूरों ने फैसला किया कि "अगर कोई काम नहीं है, तो बेहतर होगा कि हम अपने-अपने घर चले जाएं."

मजदूरों ने खिजराबाद के उस 324 निवासियों के नामों, मूल गांवों, आधार नंबरों और मोबाइल नंबरों वाली सूची तैयार की जो हताश परिस्थितियों में रह रहे थे और बिहार लौटने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने उस सूची को भारतीय जनता पार्टी के सारण के सांसद राजीव प्रताप रूडी द्वारा पटना में बनाए गए कंट्रोल रूम के व्हाट्सएप नंबर पर भेज दिया. मजदूरों ने कहा कि उन्होंने स्थानीय पुलिस अधिकारियों को भी सूची दी थी जो क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या पर डेटा एकत्र करने के लिए आए थे. कुछ मजदूरों ने कहा कि उन्होंने अपने गृहनगर से विधानसभा के सदस्यों को भी फोन करने की कोशिश की. उदाहरण के लिए, दिनेश राय ने मुझे बताया कि उन्होंने बिहार के गरखा विधानसभा क्षेत्र से राष्ट्रीय जनता दल के विधायक मुनेश्वर चौधरी को फोन किया था. मजदूरों ने कहा कि उन्होंने दिल्ली बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी और खिजराबाद क्षेत्र से आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्ला खान से भी संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन उन्हें कहीं से कोई जवाब नहीं मिला.

अधिकांश मजदूरों ने मुझे बताया कि रूडी से कई बार संपर्क करने की कोशिश की. सूची बना कर रूडी को भेजने वाले 37 वर्षीय धरमवीर साह ने मुझे बताया, "हम बहुत दर्दनाक हालत में हैं. यह हमारी जिंदगी का सवाल है. हम खाली पेट नहीं सो सकते. जो लोग परिवारों के साथ हैं, वे लोग अपने बच्चों को दो बार का खाना खिलाने के लिए खुद एक बार खाना खा रहे हैं.”

साह ने कहा, "मेरे पास जो नंबर है मैंने उस पर दसियों बार रूडी से बात करने की कोशिश की." साह ने कहा कि नियंत्रण कक्ष ने ऐसा कोई उपाय नहीं किया जिससे मजदूरों को मदद मिले. “एक बार जिस व्यक्ति ने फोन उठाया, उसने कहा कि सूची बिहार भेज दी गई है और सांसद कार्यालय कुछ करेगा. लेकिन अब उस बात को एक महीने से ज्यादा हो गया है और अब तक कुछ नहीं हुआ है.” साह ने बताया कि अब उस नंबर पर कोई फोन नहीं उठाता.

जब मैंने कंट्रोल रूम को फोन किया, तो अभिषेक नाम के एक व्यक्ति ने, जिसने मुझे अपना पूरा नाम नहीं बताया, कॉल का जवाब दिया और मुझे बताया कि उन्हें मजूदरों से कॉल आया था. उन्होंने कहा कि उन्होंने दिल्ली में रूडी द्वारा संचालित एक अन्य नियंत्रण कक्ष को सूची भेज दी थी.

मैंने दिल्ली नियंत्रण कक्ष को फोन किया और राहुल सिंह नाम के एक फोन ऑपरेटर ने पुष्टि की कि रूडी के कार्यालय को खिजराबाद के मजदूरों के बारे में जानकारी मिली थी और कहा कि दिल्ली सरकार मजदूरों को खाना दे रही है. सिंह ने मजूदरों की बताई अन्य समस्याओं, खासकर बिहार जा पाने के सवाल का, कोई जवाब नहीं दिया. सिंह ने कहा, "हर दिन हजारों कॉल आते हैं. सारे फोन सुन पाना संभव नहीं है." खिजराबाद के मजदूर इस बात से चकित थे कि सरकार के किसी अधिकारी ने उनसे संपर्क करने या उनके स्वास्थ्य के बारे में जानने की कोशिश नहीं की. राय ने मुझे बताया, "उन्हें कम से कम हमारे पास आना चाहिए था. पुलिस के पास भी हमारी सूची है और यह स्पष्ट है कि हमारे क्षेत्र के विधायक और सांसद को हमारे बारे में पता है. यहां तक ​​कि पार्षद भी नहीं आए. यह कैसे संभव है कि पुलिस को 300 लोगों की सूची देने और उन्हें हालात के बारे में बताने के बाद भी किसी ने हमसे संपर्क नहीं किया?”

14 मई को मैंने स्थानीय विधायक अमानतुल्ला खान से बात की. उन्होंने मुझे मजदूरों की सूची देने के लिए कहा और मुझे बताया कि वे सुनिश्चित करेंगे कि उनकी जरूरतें पूरी हों. लेकिन जब मैंने उनसे पूछा कि इन मजदूरों के बारे में एक महीने से भी ज्यादा समय से पता रहने के बावजूद दिल्ली सरकार ने मजदूरों की मदद करने के लिए क्यों कुछ नहीं किया, तो खान ने मेरे संदेशों का जवाब देना या मेरे कॉल का जवाब देना बंद कर दिया. मुझे दक्षिण पूर्व दिल्ली की जिला मजिस्ट्रेट हरलीन कौर से भी ऐसी ही प्रतिक्रिया मिली. उन्होंने मेरी कॉल और संदेशों का जवाब नहीं दिया और कई बार कोशिश करने के बाद उनके कार्यालय ने कहा कि वह व्यस्त हैं और उस समय बात नहीं कर सकतीं.

दिनेश राय ने सरकार पर सवाल खड़े करते हुए कहा, "हम बस 324 हैं और अगर राज्य या केंद्र सरकारों को हमारी सच में चिंता है तो किसी ने हमसे संपर्क क्यों नहीं किया? हमें क्यों यहां से जाना पड़ रहा है? हम इसे अगली बार वोट डालते वक्त याद रखेंगे. हमारे दिल में अब वह दर्द है जो आखिर तक हमें याद रहेगा."