नवंबर में नितिन निरंजन ने अपनी 63 वर्षीय मां के लिए प्लाज्मा डोनर की खोज में एक सप्ताह बिताया. वह दिल्ली के एक अस्पताल में आईसीयू में वेंटिलेटर पर थीं. उनकी तबीयत तेजी से बिगड़ रही थी. अस्पताल में एक प्लाज्मा बैंक था जिसमें उनके रक्त के प्रकार से मेल खाता प्लाज्मा था लेकिन उसे तब तक देने से इनकार कर दिया गया जब तक कि उनका परिवार कोई ऐसा प्लाज्मा दाता नहीं तलाश लेता जो मरीज द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले प्लाज्मा की यूनिटों के बदले अपने रक्त से प्लाज्मा देता. निरंजन ने पहली बार ट्विटर अकाउंट बनाया और इस पर प्लाज्मा दाताओं की तलाश शुरू की. उन्होंने पैसे देकर रेडियो विज्ञापन कराने के बारे में भी सोचा. छठे दिन जाकर वह एक पारिवारिक मित्र को दान के लिए तैयार कर पाए. 37 वर्षीय निरंजन उत्तर प्रदेश में जालौन जिले के रहने वाले हैं और सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं और अपने परिवार में एकमात्र कमाने वाले सदस्य हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी भर की ज्यादातर बचत अपनी मां के इलाज में खर्च कर दी. प्लाज्मा मिलने के बावजूद मां की मृत्यु हो गई.
अगस्त में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कारवां ने बताया था कि कैसे कोविड-19 से संक्रमित मरीज और उनके परिवार प्लाज्मा पाने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा डॉक्टर इस इलाज की सिफारिश कर रहे हैं जिसके लिए नियम कानून भी बहुत मामूली हैं. अक्टूबर और नवंबर में भारत और अर्जेंटीना के शोधकर्ताओं की दो टीमों ने अलग-अलग वैज्ञानिक अध्ययन प्रकाशित किए जिनमें दोनों ने दिखाया कि संक्रमण से उभर चुके लोगों के प्लाज्मा से इलाज करने की कॉनविलियसेंट प्लाज्मा थेरेपी से कोविड-19 संक्रमितों की कोई मदद नहीं की. दिसंबर में भी लोग परिवार के गंभीर रूप से बीमार सदस्यों के लिए प्लाज्मा पाने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं.
दुनिया भर के डॉक्टरों ने कोरोनावायरस महामारी के दौरान प्रायोगिक चिकित्सा और पुनर्निर्मित दवाओं पर भरोसा किया है. ज्यादातर मामलों में इस बात का कोई सबूत नहीं था कि ये उपचार वास्तव में कारगर भी हैं लेकिन डॉक्टरों ने उनका उपयोग तब तक किया जब तक वे मानते रहे कि वे कोई नुकसान नहीं करेंगे. उन्होंने बीमारी पर सब कुछ झोंक दिया. वे उम्मीद करते थे कि कोई दवा तो उनके रोगी के ढहते शरीर से वायरस को बाहर निकल देगी. साल बीतते-बीतते चिकित्सा शोधकर्ताओं ने इस पर काफी काम कर लिया था कि कौन-सा उपचार काम करता है और कौन-सा नहीं.
प्लाज्मा थेरेपी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें डॉक्टर कोविड-19 से उभरने वाले लोगों के रक्त से प्लाज्मा निकालते हैं और इसे बीमारी से पीड़ित लोगों में प्रत्यारोपित कर देते हैं. सिद्धांत यह है कि प्लाज्मा में मौजूद एंटीबॉडी से संक्रमित व्यक्ति को संक्रमण से लड़ने में मदद मिलेगी. हालांकि, दो यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षणों से संकेत मिलता है कि अस्पताल में भर्ती मरीजों के बीच प्लाज्मा थेरेपी से मृत्यु दर या सुधार की अवधि कम नहीं होती है.
भारत में कई संस्थानों के शोधकर्ताओं ने अप्रैल और जुलाई के बीच 39 स्थानों पर अस्पताल में भर्ती 464 वयस्कों के बीच स्वतंत्र अध्ययन किया. अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि प्लाज्मा थेरेपी ने गंभीर बीमारी के प्रति मृत्यु दर या सुधार की अवधि को कम नहीं किया. दूसरा अध्ययन अर्जेंटीना में शोधकर्ताओं ने मई और अगस्त के बीच किया. 333 अस्पतालों में भर्ती गंभीर कोविड-19 निमोनिया वाले मरीजों में से 228 को प्लाज्मा दिया गया जबकि अन्य को प्लेसबो दिया गया. इस अध्ययन से यह भी पता चला कि दोनों समूहों के बीच नैदानिक स्थिति या समग्र मृत्यु दर में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं है. महाराष्ट्र के सेवाग्राम के कस्तूरबा गांधी अस्पताल में चिकित्सा अधीक्षक डॉ. एसपी कलंत्री ने कहा, "ये दोनों अध्ययन उच्च गुणवत्ता के हैं. काफी बड़ी संख्या में रोगियों के बीच अध्ययन किया गया है जिसमें नियंत्रण समूह होते हैं और उनके विशिष्ट अंत बिंदु होते हैं जिसकी वे जांच करते हैं." कलंत्री किसी भी अध्ययन में खुद शामिल नहीं थे.
स्वतंत्र परीक्षण के बारे में विवाद का एक बिंदु यह है कि यह रोगियों को दिए गए प्लाज्मा में निष्क्रिय करने वाले एंटीबॉडी के स्तर को नहीं मापता है. मैंने चंडीगढ़ में पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के डॉक्टर और शोधकर्ता पंकज मल्होत्रा से बात की जिन्होंने स्वतंत्रा परीक्षण पर काम किया है. मल्होत्रा ने कहा, "उस समय हमारे पास एंटीबॉडी के स्तर के लिए सभी रक्त प्लाज्मा का परीक्षण करने के लिए संसाधन नहीं थे. तो अब सवाल यही बचता है कि क्या निष्क्रिय करने वाले एंटीबॉडी के उच्च स्तर ने प्लाज्मा थेरेपी को अधिक प्रभावी बना दिया होगा." वह कोविड-19 के लिए प्लाज्मा थेरेपी उपचार दिशानिर्देशों को तैयार करने में भी शामिल थे. इन दिशानिर्देशों में प्लाज्मा के अंधाधुंध उपयोग के खिलाफ सलाह दी गई और दावा किया कि चिकित्सकीय लाभ, संक्रमण से उभरे व्यक्ति के प्लाज्मा में मौजूद खास एंटीबॉडी की सघनता पर निर्भर करता है.
कलंत्री ने कहा कि स्वतंत्र परीक्षण में एंटीबॉडी के स्तर पर डेटा की कमी ने इसके निष्कर्षों को खारिज नहीं करते हैं. "अगर इसमें जानकारी की कमी है तो जरूरत यह है कि अनुमानों के आधार पर नहीं बल्कि सबूतों के आधार पर अनुसंधान करके और एक अच्छी तरह से निर्मित नैदानिक परीक्षण का उपयोग करके इसे सुधारा जाए."
चिकित्सा अनुसंधान के एक प्रमुख वैश्विक प्रकाशन ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने अपने एक संपादकीय में स्वतंत्र परीक्षण के परिणामों पर विस्तार से लिखा था जिसमें प्लाज्मा चिकित्सा के संभावित नुकसान के बारे में बताया गया था. संपादकीय कहता है, "थक्का बनने से रोकने वाले एंटीथ्रॉम्बिन और प्रोटीन सी जैसे कारकों की प्लाज्मा में उपस्थिति के बावजूद प्लाज्मा का शुद्ध प्रभाव थक्का जमाने वाला है." इसका मतलब यह है कि प्रत्यारोपित किए गए प्लाज्मा संभावित रूप से रक्त के थक्कों के गठन को बढ़ावा दे सकते हैं, ऐसे घटक होने के बावजूद जो कि थक्कारोधी या रक्त को पतला करने के रूप में कार्य करते हैं. यह कोविड-19 रोगियों के लिए एक अतिरिक्त जोखिम है क्योंकि रोग के चलते उन्हें पहले से ही थक्का बनने की शिकायत होती है और जटिलताएं बढ़ जाती हैं.
कुल मिलाकर वैज्ञानिक अध्ययन मानते हैं प्लाज्मा थेरेपी कोविड-19 के खिलाफ अप्रभावी है. स्वास्थ्य से जुड़े नैतिकता और मानविकी पर शोध करने वाले इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के एडिटर अमर जेसानी ने कहा, ''कन्वेंशनल प्लाज्मा थेरेपी पर अब कोई अस्पष्टता नहीं बची है.”
लेकिन इन अध्ययनों ने भारत में प्लाज्मा की मांग में कोई कमी नहीं की है. डॉक्टरों ने प्लाज्मा थेरेपी को अपनाना जारी रखा है. निरंजन की तरह कोविड-19 से पीड़ित मरीजों के बेसुध परिजन सोशल मीडिया पर मैसेज के जरिए प्लाज्मा की मांग करते रहते हैं. दिल्ली में सरकारी प्लाज्मा बैंक चलाने वाले एक डॉक्टर ने नाम न छापने पर कहा, "लोग वैज्ञानिक सबूतों की परवाह नहीं करते हैं. यहां तक कि डॉक्टरों को भी इस पद्धति पर विश्वास है."
नवंबर में मैंने जिन डॉक्टरों से बात की उनमें से ज्यादातर ने कहा कि उन्होंने कोविड-19 के लिए प्लाज्मा थेरेपी लिखी है क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि इससे उनके रोगियों में सुधार हुआ है.दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के आंतरिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. एस चटर्जी कहते हैं, "मैंने देखा है कि अगर स्टेरॉयड और थक्का रोधी के साथ रोगियों को यह दिया जाता है तो उस वक्त जब रोगियों की ऑक्सीजन गिर रही होती है या जब उनकी हालत और बिगड़ रही होती है, यह मददगार होता है." इस बीच मल्होत्रा ने नए साक्ष्यों के महत्व को माना लेकिन प्लाज्मा थेरेपी को नकारने के लिए तैयार नहीं थे. "मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हमें अंधाधुंध रूप से प्लाज्मा थेरेपी लिखनी चाहिए लेकिन मैंने देखा है कि यह रोगियों में तभी उपयोगी हो सकती है जब वे गंभीर रूप से बीमार होने के कगार पर हों."
2020 की महामारी के दौरान प्लाज्मा थेरेपी की कहानी इस बारे में है कि डॉक्टर किस तरह से हाल ही में विकसित हुई वैज्ञानिक समझ के बीच निर्णय लेते हैं और जो उन्होंने अनुभव किया उस पर कितना यकीन करते हैं. महात्मा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में आंतरिक चिकित्सा संकाय डॉ. सहज राठी ने कहा कि उन्हें समझ में आया कि डॉक्टरों ने कोविड-19 के शुरुआती दिनों में प्लाज्मा थेरेपी पर भरोसा क्यों किया. “मेरा मानना है कि ऐसा मदद के इरादे से किया गया है. हालांकि साक्ष्य आधारित उपचार इस तरह से काम नहीं करता है,” उन्होंने कहा. "दो परीक्षण यह दिखाते हैं कि प्लाज्मा न तो हल्के और न ही गंभीर रोगियों पर कारगर है और कोई अन्य परीक्षण यह नहीं दर्शाता कि यह कारगर है कि ऐसे में यह सही समय है जब हमें चिकित्सकीय रूप में इसका उपयोग करना बंद कर देना चाहिए." राठी और कलंत्री ने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में प्रायोगिक कोविड-19 उपचारों की एक समीक्षा लिखी जिसमें उन्होंने बताया कि क्यों डॉक्टरों को अनिश्चित प्रभावकारिता की दवाओं को केवल इसलिए नहीं लिख देना चाहिए क्योंकि उनके पास उपचार के विकल्पों की कमी है. अन्य मेडिकल जर्नलों की समीक्षा करने वाले जर्नल लांसेट में 2017 में प्रकाशित एक सारांश उपाख्यानों या आकस्मिक अवलोकन पर अच्छी तरह से डिजाइन किए गए परीक्षणों से डेटा पर भरोसा करने के लिए तर्क देता है : “नैदानिक टिप्पणियों को नियंत्रित करना अनियंत्रित टिप्पणियों, जैविक प्रयोग या व्यक्तिगत चिकित्सक के अनुभव की तुलना में अधिक भरोसेमंद है."
प्लाज्मा थेरेपी की लोकप्रियता दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और अन्य राजनेताओं की वजह से है, जिन्होंने इसे बिना जांचे बढ़ावा दिया. एक समाचार रिपोर्ट ने यहां तक दावा किया कि आईसीएमआर कोविड-19 उपचार प्रोटोकॉल से प्लाज्मा थेरेपी को हटाना चाहता था लेकिन गृहमंत्री अमित शाह के अनुरोध पर इसे रखा गया. "सरकारी अधिकारियों और हमारे राजनेताओं के लिए यह मानना मुश्किल है कि वे गलत थे. उन्होंने पहले ही लोगों में एक तथाकथित इलाज की झूठी उम्मीद जगाई," कलंत्री ने कहा.
प्लाज्मा थेरेपी की प्रभावकारिता और इसकी सुरक्षा के बारे में आशंकाओं के खिलाफ भारी सबूत होने के बावजूद बेसुध परिजनों को प्लाज्मा पाने की मुश्किलों से जूझने के लिए क्यों छोड़ दिया जाता है? "हमारी सरकार ऐसा क्यों होने दे रही है?" बैंगलोर के गैर-लाभकारी संगठन संकल्प इंडिया फाउंडेशन में रक्तदान समन्वयक रजत अग्रवाल ने पूछा. "कोई कड़े नियम नहीं हैं और न ही कोई प्रासंगिक सरकारी प्राधिकरण इस बात की परवाह करता है कि हमारे रोगियों के साथ क्या हो रहा है."
29 नवंबर को निरंजन की मां की मृत्यु हो गई. वह अभी भी यही सोचते हैं कि प्लाज्मा दाता की तलाश में छह दिन गंवाने की वजह से उनकी मौत हुई है. उन्होंने कहा, "मैंने डॉक्टरों से गुजारिश की कि जब तक मैं किसी दाता की व्यवस्था करता हूं आप उन्हें प्लाज्मा दे दें लेकिन वे नहीं माने. मुझे लगता है कि अगर मैं जल्दी से प्लाज्मा तलाश लेता तो शायद ऐसा न होता."
निरंजन का अब स्वास्थ्य व्यवस्था पर कोई विश्वास नहीं रह गया. उन्होंने कहा, "मुझे नहीं पता कि ये अस्पताल दिल से हमारा हित चाहते हैं या वे हमें यहां बस टहला रहे हैं. प्लाज्मा थेरेपी हो या जो कुछ भी हो, उस वक्त जो उन्होंने कहा मेरे पास उसके अलावा कोई विकल्प नहीं था क्योंकि मैं नहीं जानता था कि मेरी मां कैसे बचेंगी."