1. करदाताओं के पैसों से प्रयोजित भारत बायोटेक की वैक्सीन (कोवैक्सीन) का विकास पुणे के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने किया है. फिर भी यह देश के नागरिकों को निशुल्क क्यों नहीं है?
25 अप्रैल को भारत बायोटेक ने घोषणा की थी कि वह कोवैक्सीन की कीमत राज्यों के लिए 600 रुपए प्रति डोज और निजी अस्पतालों के लिए 1200 रुपए डोज कर रही है. इस बीच उसने घोषणा की कि वह केंद्र सरकार को कोवैक्सीन 150 रुपए की दर से उपलब्ध करेगी. कुछ दिन बाद कंपनी ने कहा कि वह राज्यों को वैक्सीन 400 प्रति डोज देगी जबकि पहले उसने बताया था कि वह कीमत 200 रुपए प्रति डोज कर देगी. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने कोवैक्सीन के विकास में बायोटेक भारत को सहायता और अनुदान दिया है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में सार्स-कोवी-2 स्ट्रेन को अलग कर टीका बनाया गया है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी आईसीएमआर की प्रयोगशाला है. इसके बावजूद कंपनी ने दावा किया कि पूर्व में उसने सरकार से एक भी पैसा नहीं लिया है और इसलिए वैक्सीन के विकास और उत्पादन में आए खर्च के चलते यह कीमत तय की है. यदि कंपनी का यह दावा सही भी है तो भी इस विकट महामारी में सरकार को इस खर्च की भरपाई कर सुनिश्चित करना चाहिए कि कीमत के डर से लोग टीका लगाने से परहेज न करें.
2. सरकार ने फाइजर, मोडेर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन के टीकों को भारत आने देने में देरी क्यों की?
कोविड-19 टीकाकरण को शुरू हुए पांच महीने हो गए हैं लेकिन भारत में केवल दो ही टीके- कोविशील्ड कोवैक्सीन- उपलब्ध हैं. कोविशील्ड का विकास सीरम इंस्टीट्यूट फॉर इंडिया ने और कोवैक्सीन का विकास भारत बायोटेक ने किया है. सरकार ने अपनी वैक्सीन कूटनीति के तहत भारत में निर्मित वैक्सीनों को बाहर निर्यात किया लेकिन भारत में वैक्सीन की आपूर्ति के प्रयास नहीं किए. परिणामस्वरूप भारत में वैक्सीन की कमी हुई और मौतों का आंकड़ा आसमान छूने लगा. अभी हाल में ही सरकार ने रूस की गामालेया इंस्टीट्यूट द्वारा विकसित स्पुटनिक-पांच के भारत में वितरण को मंजूरी दी है. इसे डॉ. रेड्डी लैबोरेट्रीज देश में वितरण कर रही है.
सरकार ने बहुत ढीले-ढाले तरीके से वैक्सीनों को मंजूरी दी है. फाइजर ने भारत में वैक्सीन आपूर्ति करने की इच्छा जाहिर की थी और उसने दिसंबर में आपातकालीन मंजूरी के लिए आवेदन किया था लेकिन जब भारत में ब्रिजिंग ट्रायल की शर्त रखी तो उसने अपना आवेदन वापस ले लिया. फिलहाल सरकार ने इस शर्त को हटा दिया है. सरकार ने ऐसा मामलों के बढ़ने के बाद किया है. खबरों के मुताबिक, यह वैक्सीन जुलाई में भारत में उपलब्ध हो जाएगी. इससे पहले सरकार ने कहा था कि वह फाइजर, मोडेर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन से औपचारिक बात करेगी लेकिन उनके साथ यह चर्चा संभवत: अगस्त के बाद ही हो पाएगी.
3. सरकार सभी के लिए मुफ्त कोविड-19 टीके सुनिश्चित करने के लिए बजट में आवंटित टीकाकरण के लिए 35000 करोड़ रुपए का उपयोग क्यों नहीं कर रही है?
फरवरी में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने टीकाकरण के लिए वर्ष 2021-2022 के बजट में 35000 करोड़ रुपए की घोषणा की थी. विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि यह राशि कोविड-19 टीकों की खरीद और सभी को मुफ्त में लगाने के लिए पर्याप्त है. फिर भी सरकार ने कोविड-19 वैक्सीन बाजार को नियंत्रण मुक्त करने और निजी अस्पतालों को प्रति खुराक 2000 रुपए तक वसूलने की अनुमति दे दी. इस फैसले से वैक्सीन की कमी के बीच असमान टीकाकरण की स्थिति पैदा हो गई है. 13 मई को फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने बताया कि केंद्र ने इस बजट का 4400 करोड़ रुपए कोविड-19 टीकाकरण पर खर्च किया है.
4. केंद्र सरकार ने कोविड-19 के लिए इलाज की कीमतों को निर्धारित क्यों नहीं किया?
पिछले साल पहली लहर की शुरुआत में अस्पताल के बेड, दवाओं और पीपीई किट जैसे उपकरणों की कीमतों में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है. केंद्र सरकार ने कीमतों को निर्धारित करने का काम राज्यों पर छोड़ दिया. कई राज्य सरकारों ने ऐसा किया और सार्वजनिक अस्पतालों में मुफ्त इलाज मुहैया कराया. निजी अस्पताल मूल्य सीमा के बावजूद अधिकांश लोगों के लिए बहुत महंगे हैं. देश भर में कीमतों को विनियमित करने के लिए सरकार आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत उपाय कर सकती थी. साथ ही वह पल्स ऑक्सीमीटर और ऑक्सीजन कंसंट्रेटर जैसे उपकरणों को भी आवश्यक वस्तु घोषित कर सकती थी. वह महामारी की अवधि में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर उपचार को समान रूप से सुलभ बना सकता था.
5. सरकार ने कोविड-19 उपचार के लिए अनिवार्य लाइसेंस क्यों नहीं जारी किए हैं?
पिछले एक साल में कोविड मामलों में स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ोतरी हुई लेकिन भारत में कोविड-19 के इलाज के लिए फैबीफ्लू जैसी दवाओं की कमी देखी गई. फिर भी केंद्र सरकार ने अनिवार्य लाइसेंस जारी करने से परहेज किया है जो इन दवाओं के उत्पादन को बढ़ावा दे सकता है और उन्हें अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध करा सकता है. विश्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स विनियमन के बौद्धिक संपदा के व्यापार संबंधी पहलू देशों को आपात स्थिति में पेटेंट के तहत दवाएं बनाने के लिए जेनेरिक दवा निर्माताओं को अनिवार्य लाइसेंस जारी करने की अनुमति देते हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञ कई महीनों से सरकार से इन प्रावधानों को लागू करने के लिए कह रहे हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि उसने अनिवार्य लाइसेंसिंग पर विचार क्यों नहीं किया. इंडियन ड्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ने 12 मई को सरकार को आवश्यक कोविड-19 दवाओं के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करने के लिए लिखा था.
6. प्रधानमंत्री ने नागरिक समाज से मदद मांगी है, तो क्या इस स्थिति में बीजेपी सरकार एफसीआरए प्रतिबंधों में ढील देगी?
30 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकारी अधिकारियों से अपील कि वे कोविड-19 में हो रही वृद्धि के मद्देनजर इसके प्रबंधन में नागरिक समाज की मदद लें. मोदी ने एनजीओ क्षेत्र से अनुरोध किया कि वे स्वास्थ्य कर्मियों पर पड़ रहे दबाव को कम करने के लिए "गैर-विशिष्ट कार्य" में सहायता करें. हालांकि इस बैठक से ठीक आठ महीने पहले सरकार ने विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम में संशोधन कर गैर सरकारी संगठनों के कामकाज को सीमित कर दिया था. अधिनियम में जिन प्रावधानों को संशोधित किया गया है उनमें बड़े गैर सरकारी संगठनों से छोटे गैर सरकारी संगठनों को उप-अनुदान की अनुमति और विदेशी योगदान से प्रशासनिक खर्चों की सीमा को 50 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत तक करना शामिल है.
7. भारत में विदेशों से आई सहायता सामग्री को अस्पतालों तक पहुंचने में इतनी देर क्यों लगी?
कोविड मामलों में आई तेजी के बाद 25 अप्रैल 2021 से भारत में विदेशों से चिकित्सा सहायता आनी शुरू हो गई थी. हालांकि, विभिन्न समाचार रिपोर्टों में ऐसी सामग्री को जल्दी और प्रभावी ढंग से आवंटित और वितरित करने में हो रही देरी की बात सामने आई है. विदेशों से आई सहायता सामग्री में ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन कंसंटेटर और रेमेडिसविर इंजेक्शन शामिल थे. सरकार ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई मदद की पेशकश को पेशकश को यह कहते हुए अस्वीकरा कर दिया कि इससे निपटने के लिए देश के पास मजबूत व्यवस्था है.
8. क्या स्वास्थ्य मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई टास्कफोर्स को कोविड-19 से हुई मौतों के असली आंकड़े देगा?
मार्च महीने के मध्य में शुरू हुई कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान भारत में एक दिन में 3000 से लेकर 4000 तक मौतें रिकॉर्ड की गईं. क्या ये आंकड़े यह नहीं बताते कि कैसे हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है और श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों तक में लोगों को लाइन लगानी पड़ रही है. देश भर से आई रिपोर्टों से पता चलता है कि मौत के आंकड़ो को सरकार कर करके दिखा रही है. कम करके दिखाने से महामारी के खिलाफ लड़ाई कमजोर पड़ने की चिंता होती है. सुप्रीम कोर्ट ने कोविड-19 से लड़ने के लिए 12 सदस्यीय टास्कफोर्स का गठन किया है. न्यायालय ने केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और अन्य एजेंसियों से इस टास्कफोर्स को पूरी जानकारी मुहैया कराने को कहा है. 200 से अधिक वैज्ञानिकों ने भी आईसीएमआर को पत्र लिखकर अधिक विस्तृत जानकारी देने के लिए कहा है ताकि वे और सटीक ढंग से महामारी से निपटने के उपायों पर काम कर सकें.
9. केंद्र सरकार सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को इनता महत्व क्यों दे रही है?
जब राजधानी दिल्ली सहित पूरे देश में दूसरी लहर तेजी से फैल रही थी और मौतों की संख्या भयानक स्तर तक बढ़ती जा रही थी तो ऐसे में सरकार ने सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को आवश्यक कार्य घोषित किया. जबकि दिल्ली में इस समय किसी भी तरह के निर्माण की अनुमति सिर्फ तब है जब श्रमिक निर्माण स्थल पर ही रहते हों, वहीं 180 वाहनों में श्रमिकों को सेंट्रल विस्टा साइट तक ले जाने की अनुमति दी गई. सेंट्रल विस्टा के काम पर रोक लगाने की मांग करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में कहा गया है कि इस परियोजना में आवश्यक सेवा जैसी कोई विशेषता नहीं है.
10. क्यों सरकार कोविड-19 प्रोटोकॉल में उन उपचारों को शामिल कर रही है जो प्रमाणित नहीं हैं?
17 मई 2020 को आईसीएमआर ने कोविड के शुरुआती उपचार में प्लाज्मा थेरेपी की मंजूरी दी थी लेकिन लगभग एक साल बाद उसने उपचार दिशानिर्देशों से इसे हटा दिया. दुनिया के विभिन्न हिस्सों में किए गए परीक्षणों से पता चला है कि प्लाज्मा थेरेपी से कोविड-19 रोगियों को बहुत कम लाभ हुआ है. इन दिशानिर्देशों में लाभ पहुंचने के बहुत कम सबूत होने के बावजूद रेमेडिसविर और टोसीलिजुम्ब के उपयोग का सुझाव दिया गया है.
आईसीएमआर के दिशानिर्देशों में आइवरमेक्टिन और हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को भी इलाज के लिए उपयोग में लाने की सिफारिश है. इस दवा की कोविड-19 के विरुद्ध प्रभावी होने की बेहद कम जानकारी सामने आई है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दोनों के ही उपयोग के लिए मना किया है. जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया है, अप्रमाणित उपचारों का उपयोग करना खतरे से भरा हो सकता है और इसके संभावित दुष्प्रभाव हो सकते हैं. ये अन्य दवाओं के साथ प्रतिक्रिया करती हैं जो रोगियों के साथ-साथ उनके परिजनों को भी वित्तीय और अन्य नुकसान पहुंचा सकता है.