चमकी बुखार : हर साल मरते बच्चे, हर साल फेल बिहार सरकार

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में भीड़ भरे श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के मेडिकल वार्ड में ड्रिप लाइन की जांच करता एक व्यक्ति. यहां जून 2019 से एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों का इलाज किया जा रहा है. इस वर्ष, बिहार सरकार ने प्रकोप की तैयारी के लिए बहुत कम प्रयास किए और यह ध्यान नहीं रखा कि राष्ट्रव्यापी तालाबंदी किस तरह एईएस के संकट को और गहरा कर सकता है. परवाज खान / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम या चमकी बुखार या दिमागी बुखार के वार्षिक प्रकोप की तैयारी में बिहार सरकार की विफलता के कारण मुजफ्फरपुर में श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 8 बच्चों की मौत हो गई है. एईएस एक घातक सिंड्रोम है जो मुख्य रूप से छोटे और नवजात बच्चों को प्रभावित करता है. यह उत्तरी बिहार में विशेष रूप से पूर्वी चम्पारण, शेहर, सीतामढ़ी, वैशाली और मुजफ्फरपुर जिलों में व्याप्त है. यह महामारी लगभग हर साल अप्रैल और मई में वापिस उभर कर आ जाती है और इसके चलते पिछले एक दशक में 471 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई है.

इस वर्ष बिहार सरकार ने प्रकोप की तैयारी के लिए बहुत कम प्रयास किए और इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि नोवेल कोरोनवायरस के प्रसार को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन एईएस संकट को कैसे बिगाड़ देगा. एईएस की वार्षिक आवृत्ति के बावजूद, सरकार कुपोषण जैसे एईएस के सामाजिक निर्धारकों को संबोधित करने में विफल रही. राज्य सिंड्रोम के मामलों को कुशलता से ट्रैक करने या चिकित्सा बुनियादी ढांचे का निर्माण करने में असमर्थ रहा जिससे इस संकट का जवाब दिया जा सकता था.

24 और 25 अप्रैल की दरमियानी रात को मुजफ्फरपुर के मुसहरी प्रखंड की चार साल की सुक्की कुमारी ने अपने पिता सुखलाल साहनी से बुखार और मतली आने की शिकायत की. जब हालत और बिगड़ने लगी तो उसे मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल ले जाया गया और बाल गहन चिकित्सा इकाई - या पीआईसीयू में भर्ती कराया गया. चिकित्सा अधीक्षक ने परिवार को बताया कि उसके शरीर में ग्लूकोज का स्तर बहुत कम था. उस रात वह नहीं बच सकी.

एक दिन बाद उसकी जुड़वां बहन मौसमी कुमारी, जिसे इसी तरह के लक्षणों के साथ भर्ती किया गया था, ने भी इस सिंड्रोम के कारण दम तोड़ दिया. उन दोनों की मौत ने सुखलाल को गमगीन कर दिया. संक्रमण, उनके गांव और आसपास के लोगों के बीच का एक हिस्सा बन गया है. एक महीने से भी कम समय में, सकरा ब्लॉक के तीन वर्षीय आदित्य कुमार की मौत हो गई. इस साल एईएस के चलते यह पहली मौत थी. इसके बाद कोरोनावायरस के दौरान दस वर्ष से कम आयु के  सात और लोगों की मौत एईएस की चलते हुई.

एसकेएमसीएच में बाल रोग विभाग के प्रमुख डॉ. गोपाल शंकर साहनी ने कहा कि सुक्की और मौसमी को अगर पहले अस्पताल लाया गया होता तो उनकी जान बचाई जा सकती थी. उन्होंने कहा, "जुड़वा बच्चों को दस घंटे देरी से अस्पताल लाया गया." एईएस में शुरुआती लक्षणों को देखने के बाद तेजी से इलाज की आवश्यकता होती है, जिसके ना होने पर गंभीर हाइपोग्लाइकेमिया - या निम्न रक्त शर्करा- हो जाता है जो रोगी को गंभीर स्थिति में डाल देता है. संक्रमण भयानक कुपोषण से पीड़ित बच्चों को प्रभावित करता है, यह क्षेत्र की एक आम समस्या है, जो बीमारी के घातक होने की संभावना को बहुत बढ़ा देता है. एसकेएमसीएच के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. सुनील कुमार साहनी ने कहा कि 20 मई को अकेले पांच बच्चों को हाइपोग्लाइकेमिया से पीड़ित होने पर गंभीर हालत में भर्ती कराया गया था. सभी एईएस से संक्रमित थे.

आज तक कोई आधिकारिक बुलेटिन नहीं आया है जहां बिहार सरकार एईएस मामलों या हताहतों की संख्या की घोषणा करती है. विषय पर जानकारी का एकमात्र स्रोत अकेले एसकेएमसीएच से है, जो एईएस के बहुत से मामलों का इलाज करता है, लेकिन इससे स्थिति की पूरी तस्वीर पेश कर पाना संभव नहीं है. राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के कारण इधर-उधर जाने पर सख्त पाबंदी को देखते हुए यह स्पष्ट नहीं है कि कितने बच्चे बेहोश हुए, घर पर ही मर गए या एईएस से पीड़ित होने के रूप में उनकी पहचा नहीं हो पाई.

स्वास्थ्य मंत्रालय के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के तहत एक सरकारी पहल, एकीकृत बीमारी निगरानी कार्यक्रम, कई दशकों से पूरे भारत में बीमारियों पर नजर रखता है और अपनी वेबसाइट पर प्रकोपों ​​की एक साप्ताहिक रिपोर्ट जारी करता है. हालांकि, भारत में नोवेल कोरोनावायरस के पहले मामलों के बाद, फरवरी की शुरुआत से आईडीएसपी ने एक भी साप्ताहिक रिपोर्ट जारी नहीं की है. इससे बिहार में इस वर्ष के एईएस प्रकोप के चलते हुई वास्तविक क्षति की गणना करना कठिन हो गया है.

फरवरी के मध्य में, बिहार के स्वास्थ्य विभाग ने बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए. आशा व्यक्त की कि साझेदारी एईएस को ट्रैक करने के लिए एक निगरानी प्रणाली स्थापित करने और नैदानिक ​​सहायता प्रदान करने के लिए प्रयोगशालाओं का एक नेटवर्क स्थापित करने में राज्य के स्वास्थ्य विभाग को तकनीकी सहायता देने में मदद करेगी. निमहांस टीम के प्रमुख डॉ. वी. रवि के अनुसार, जो बिहार का दौरा करने वाली थी, उन्हें एईएस रोगियों की पहचान करने के लिए हर जिला अस्पताल में दो फार्मासिस्ट और दो तकनीशियनों को प्रशिक्षित करना था. ये नई प्रशिक्षित टीमें कठोर नमूना-संग्रह प्रक्रियाएं सीखतीं और परीक्षण करतीं, साथ ही राज्य के लिए एईएस निगरानी जाल का निर्माण भी करतीं. निमहांस की टीम को सबसे खराब एईएस प्रभावित ब्लॉकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का दौरा करने और उनकी तैयारी और प्रतिक्रिया की निगरानी करने के लिए भी निर्धारित किया गया था.

हालांकि, राष्ट्रव्यापी तालाबंदी की घोषणा के बाद, निमहांस की टीम के आने की कोई तैयारी नहीं की गई थी. बिहार स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने इस सवाल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी कि क्या राज्य ने तालाबंदी के बावजूद उनके आगमन को सुगम बनाने की कोशिश की. इस प्रकार बिहार बिना विशेषज्ञ सलाह के ही किसी महामारी के सबसे गंभीर चरण में प्रवेश कर गया.

एईएस से हुई मौतों के हालिया दौर के मद्देनजर, मुजफ्फरपुर जिला प्रशासन ने प्रभावित गांवों का दौरा करने के लिए दो टीमें बनाईं. सुक्की और मौसमी के घर जाने के बाद, टीम ने निष्कर्ष निकाला कि वे कुपोषित थे और बीमार पड़ने से पहले खाली पेट सो गए थे. 2015 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, मुजफ्फरपुर में 42.3 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. यह संख्या अनुसूचित जाति समुदायों के बच्चों में काफी अधिक है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, पटना के सामुदायिक और पारिवारिक चिकित्सा विभाग ने तयशुदा एईएस संक्रमित का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि 2019 में, एईएस के कुल 200 मामलों में से 123 अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय से थे. बाल रोग विशेषज्ञ गोपाल शंकर ने मुझे बताया कि इस साल एसकेएमसीएच में आए 40 एईएस मामलों में से 70 प्रतिशत मरीज कुपोषित थे.

पुराने कुपोषण के साथ, पिछले दो महीनों में तालाबंदी ने ग्रामीण मुजफ्फरपुर में भोजन की पहुंच को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव रजवाड़ा के पंचायत अधिकारी शिवनाथ प्रसाद यादव ने कहा, "तालाबंदी ने हमारे गांव में आने वाले राशन को पूरी तरह से रोक दिया है. पहले भी, कायदे से वह नहीं ही मिलता था. जुड़वां बच्चों की मौत के बाद पूरे गांव को राशन दिया गया है, लेकिन तालाबंदी के दौरान हमें जो अतिरिक्त राशन मिलना चाहिए था, वह नहीं दिया गया है.”

बिहार सरकार ने एईएस प्रभावित जिलों में कुपोषण को दूर करने के प्रस्तावों की नियमित रूप से अनदेखी की है. 29 मई को, मैंने क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज वेल्लोर के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. टी जैकब जॉन से बात की उन्होंने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अंतर्गत काम करने वाले, सेंटर ऑफ एडवांस्ड रिसर्च फॉर एडवांस्ड रिसर्च इन वायरोलॉजी के पूर्व प्रमुख के रूप में  काम किया है. उन्होंने छह साल पहले एईएस का विस्तृत अध्ययन किया था. "2014 में, मैंने कुपोषित आबादी में एईएस के प्रसार को रोकने के उद्देश्य से बिहार सरकार के लिए फूड मॉडल के रूप में मुजफ्फरपुर के लिए एक पोषण वृद्धि परियोजना का प्रस्ताव किया था," जॉन ने कहा. “'यह ड्राई फूड मॉडल’ था जिसमें पका चावल, गुड़, चना और मूंगफली शामिल थे, जो एईएस प्रवण क्षेत्रों के हर घर में उनकी उपलब्धता को अनिवार्य बनाते थे, जिसका उद्देश्य था कि अल्पपोषित बच्चे खाली पेट न सोएं. यह एईएस के मामलों और मृत्यु के खिलाफ लागू करने के लिए एक व्यवहार्य प्रक्रिया थी, लेकिन सरकार ने इस खतरे के खिलाफ एक दीर्घकालिक समाधान को प्राथमिकता दी थी और इसलिए इसे कभी व्यवहार में लागू ही नहीं किया गया. "

एईएस प्रभावित जिलों में कुपोषण में कमी जैसे असफल निवारक उपाय के चलते आपातकालीन-प्रतिक्रिया उपायों आवश्यक हैं. इंडियन एकेडमी ऑफ पेडियाट्रिक्स एसोसिएशंस के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार शाह ने कहा, "बुखार और दौरे जैसे लक्षणों वाले किसी भी बच्चे को सबसे पहले नजदीकी पीएचसी में इलाज की जरूरत होती है." शाह ने मुझे बताया, "इन पीएचसी को ग्लूकोमीटर, दस प्रतिशत डेक्सट्रोज इन्फ्यूजन, ऑक्सीजन और नाक के स्प्रे के साथ अच्छी तरह से सुसज्जित करने की आवश्यकता है." ग्लूकोमीटर रक्त शर्करा को मापते हैं और 10 प्रतिशत डेक्सट्रोज जलसेक एक अधिक शक्तिशाली लेकिन नियमित सेलाइन की आसानी से उपलब्ध सस्ती खुराक है. “एईएस के आपातकालीन उपचार के लिए आवश्यक सभी अल्पविकसित उपकरण और दवाएं अत्यधिक महंगी नहीं हैं और केवल विशेष रूप से प्रभावित क्षेत्रों में चुनिंदा पीएचसी से लैस होने की आवश्यकता है. ये राज्य सरकार के लिए हमारी सिफारिशें थीं लेकिन इसका कड़ाई से पालन नहीं किया गया.” उन्होंने कहा, "इसका मुकाबला करने के लिए, हमें वास्तव में प्रशिक्षित हाथों और विशेषज्ञता के साथ पीएचसी की एक मजबूत श्रृंखला की आवश्यकता है. एईएस महामारी के दौरान, देर से मिला इलाज बेइलाज जैसा ही है, क्योंकि बीमारी के लक्षणों का प्रारंभिक उपचार इससे निपटने का एकमात्र तरीका है. "

बिहार सरकार ने 2018 में एईएस प्रभावित बच्चों के इलाज के लिए मानक संचालन प्रक्रिया को संशोधित किया था. नए एसओपी में सरकारी स्वास्थ्य विभाग के मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं-ग्राम स्तर के कर्मचारियों द्वारा एईएस प्रभावित बच्चों की शुरुआती पहचान शामिल है. आशा कार्यकर्ताओं को ऐसे बच्चों को जिन्हें एईएस का खतरा हो उन्हें ओरल ​रीडिहाइड्रेशन सॉल्ट के पैकेट उपलब्ध कराना और माता-पिता को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देना था कि कोई भी छोटा बच्चा भूखे पेट नहीं सोए. लेकिन अगले वर्ष, राज्य में एईएस के 440 मामले सामने आए और 161 मौतें हुईं. 2019 की ऑडिट रिपोर्ट, जिसे बिहार सरकार को प्रस्तुत की गई महालेखाकार की रिपोर्ट में एसकेएमसीएच के चिकित्सा अधीक्षक के हवाले से कहा है कि बच्चों में कुपोषण, गर्म और आर्द्र स्थिति और निम्न आधारभूत शर्करा का स्तर एएएफएम के लिए ज़िम्मेदार थे. रिपोर्ट में खराब निधि प्रबंधन को भी दोषी ठहराया गया क्योंकि वे समय पर इलाज के लिए एईएस प्रभावित मुजफ्फरपुर ब्लॉक जैसे क्षेत्रों में लक्षित समूहों तक नहीं पहुंच सकते थे. हालांकि, इसमें थोड़ा बदलाव आया है.

नई एसओपी के अनुसार पीएचसी की अपर्याप्त कार्यप्रणाली उत्तरी बिहार में चिकित्सा कर्मचारियों और पत्रकारों दोनों के लिए एक खुला रहस्य है. नाम जाहिर न करने का आग्रह करते हुए मोतीपुर ब्लॉक पीएचसी के एक मेडिकल कर्मचारी ने बताया, "जिले के हर पीएचसी में दो बेड की पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट की जरूरत थी, लेकिन कोविड​​-19 के खौफ के कारण उन्हें आइसोलेशन वार्ड में बदल दिया गया." एईएस प्रभावित रोगियों की स्थिति बिगड़ने से स्थानीय स्तर पर पीआईसीयू वार्ड की कमी बनी हुई है. बुखार और ऐंठन के पहले घंटे के दौरान, बच्चे की ऐंठन कम करने की आवश्यकता होती है और हमें इसके लिए एक उचित पीआईसीयू सुविधा की आवश्यकता होती है,” कर्मचारी ने कहा. पीएचसी में दवा स्टॉक की उपलब्धता भी एईएस रोगियों की आपातकालीन देखभाल के लिए अपर्याप्त है.

सरकार की नई एसओपी के अनुसार, जब कोई बच्चा किसी गांव में बीमार पड़ता है, तो उसे निकटतम पीएचसी में ले जाया जाना चाहिए, न कि एसकेएमसीएच जैसे बड़े जिला अस्पताल में. लेकिन अक्सर इसका उल्टा होता है क्योंकि एईएस के किसी मामले को संभालने के लिए पीएचसी सुसज्जित नहीं हैं. जब मुजफ्फरपुर के मोतीपुर ब्लॉक में चार वर्षीय सोनू में एईएस का मामला दिखा था, तब उसे मोतीपुर पीएचसी में भर्ती कराया गया था. सोनू को प्रारंभिक उपचार दिया गया था, लेकिन पीएचसी में उसकी बिगड़ती स्थिति से निपटने के लिए सुविधाएं नहीं थीं. उसे अगली सुबह एसकेएमसीएच मुजफ्फरपुर में स्थानांतरित कर दिया गया. हालांकि, उसे पीएचसी में ले जाने से दो घंटे की गंभीर देखभाल का नुकसान उठाना पड़ा. सोनू एईएस से उभर चुका है और अभी उसकी हालत स्थिर है, लेकिन उसके मामले ने नए एसओपी के खतरे को उजागर कर दिया. अच्छी तरह से प्रावधानित पीएचसी की कमी का मतलब है कि नए एसओपी की मदद से आपातकालीन देखभाल की आवश्यकता वाले रोगियों को नुकसान पहुंचने की अधिक संभावना.

मुजफ्फरपुर में बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण अधिकांश एईएस प्रभावित मरीज समय पर अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाते हैं. बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने 9 मई को घोषणा की कि अतिरिक्त 28 एंबुलैंस मुजफ्फरपुर, पूर्वी चम्पारण, पश्चिम चम्पारण, वैशाली, शेहर, सीतामढ़ी, सीवान, गोपालगंज और समस्तीपुर सहित नौ जिलों में भेजी जाएंगी. एंबुलैंस में एईएस के इलाज के लिए चिकित्सा उपकरणों वाली किट शामिल थीं. यह इन जिलों में पहले से कार्यरत 426 सरकारी एम्बुलैंसों के अतिरिक्त था. हालांकि, जिलों का चयन योजना की कमी को दर्शाता है. एईएस प्रवण क्षेत्र नहीं होने के बावजूद सीवान और गोपालगंज जिलों को भी एंबुलैंस मिलीं. इसके अलावा, बुढ़ी गंडक नदी के तटबंध पर बसे मुजफ्फरपुर जिले के 9 से अधिक ब्लॉक जो एईएस से सबसे अधिक प्रभावित हैं, वहां तटबंध के कारण बड़े वाहन नहीं आ सकते जिससे एम्बुलैंस पूरी तरह से अप्रभावी हो जाती हैं. सुक्की और मौसमी अपने गांव तक सड़क संपर्क की कमी के कारण समय पर मुजफ्फरपुर नहीं पहुंच पाए, जिसका मतलब था कि उन्हें साइकिल से और फिर मोटरसाइकिल से अस्पताल पहुंचाया गया था.

नए एसओपी की डिजाइनिंग का निरीक्षण काफी हद तक संजय कुमार ने किया था, जो उस समय राज्य के प्रमुख स्वास्थ्य सचिव थे. हालांकि, 19 मई को, जिस महीने में एईएस महामारी आमतौर पर सामने आती है, कुमार को कथित तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ राजनीतिक असहमति के कारण अचानक राज्य के पर्यटन मंत्रालय में स्थानांतरित कर दिया गया था. बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम ना जाहिर करने का आग्रह करते हुए बताया, "नेताओं और संजय कुमार के बीच दो बड़ी झड़पें हुईं. सबसे पहले, कुमार और बीजेपी के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे के बीच निर्णय लेने पर काफी तनाव था. इसके अलावा, कुमार कोविड-19 मामलों को संबोधित करने में पिछड़ रहे बहुत सारे चिकित्सा अधिकारियों की जांच कर रहे थे, जिनमें से कई नीतीश के करीबी विश्वासपात्र हैं. कुमार की जगह पर नियुक्त प्रमुख स्वास्थ्य सचिव उदय सिंह कुमावत को स्वास्थ्य क्षेत्र में कोई पिछला अनुभव नहीं है. राज्य के स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने नाम ना छापने का अनुरोध करते हुए कहा, "संजय कुमार मौजूदा संसाधनों और पिछले साल की महामारी संकट के नफा-नुकसान को जानते हैं. उस प्रबंधन को ध्यान में रखते हुए, उनका स्थानांतरण अप्रत्याशित था."

निवारक उपायों और बेतरतीब पीएचसी की विफलता के साथ, एईएस महामारी का पूरा भार तिरहुत डिवीजन के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एसकेएमसीएच पर है. अस्पताल को छह जिलों के मरीजों का प्रबंधन करना है. मैंने 18 मार्च को इसके 160 एकड़ के परिसर का दौरा किया, और यह गंदगी का एक अध्ययन था. जब मैंने दौरा किया, तो हर तीसरा रोगी फर्श पर सो रहा था जो बहुत ही गंदा था. परिवारों को बदबूदार और दागदार गलियारों में ठूंस दिया गया था. हर हर इमारत में मच्छरों का प्रकोप था, सीवेज के पानी में अंडे दिए हुए थे जो किसी भी आउटलेट की कमी के कारण जल निकासी प्रणाली के रूप में नालों और पोखरों में इकट्ठा हो गया था.

28 अस्पतालों वाला मुजफ्फरपुर बिस्तर-अधिभोग के मामले में बिहार में सबसे आगे है जहां इसकी दर 329 प्रतिशत थी. सरकार के मनमाने ढंग से वार्डों की फेरबदल से अक्सर बेड की कमी हो जाती है. जब मैंने दौरा किया तो प्रबंधन ने एईएस रोगियों को समायोजित करने के लिए कैदियों के वार्ड को आईसीयू में और सामान्य वार्ड को पीआईसीयू में बदल दिया था. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने छह साल पहले एक नए पीआईसीयू का वादा किया गया था, यह आखिरकार इसी साल बन पाया था, जिसमें 70 नए बेड थे. लेकिन यह एईएस महामारी के दौरान अस्पताल में आने वाले रोगियों की तुलना में बहुत ही कम हैं. चिकित्सा अधीक्षक सुनील कुमार ने घोषणा की थी कि मई के अंत तक पीआईसीयू में अतिरिक्त 30 बेड को कार्यात्मक बना दिया जाएगा. 6 जून को पूर्ण 100-बेड पीआईसीयू का उद्घाटन नीतीश कुमार द्वारा किया गया था, लेकिन यह इस वर्ष के लिए महामारी के सबसे खराब दौर के बाद किया गया था.

बिस्तरों की कमी के साथ, जब पीएचई से अधिकांश एईएस रेफर मामले आए तो रात में डॉक्टर और नर्स अनुपस्थिति थे. अस्पताल में ऑक्सीजन सिलेंडर की भी भारी कमी थी. जब शहर एक नहीं, बल्कि दो महामारियों की चपेट में था, डॉक्टर और आबादी का अनुपात 80:100,000 जितना कम है. विडंबना यह है कि 2015 में, मुजफ्फपुर को केंद्र सरकार ने एक स्मार्ट शहर घोषित किया था.

जून 2014 में, उत्तरी बिहार में एईएस से 86 बच्चों की मौत के बाद, हर्षवर्धन ने एसकेएमसीएच का दौरा किया था. बाद में उन्होंने ट्वीट किया, “तीव्र इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों के बारे में जानने के लिए मुजफ्फरपुर के अस्पतालों का दौरा किया. मेरे लिए सच में दिल छू लेने वाला पल. अनुसंधान?" 2014 के बाद से राज्य सरकार ने एईएस के कारण कारकों या इसके लिए निवारक तंत्र को निर्धारित करने के लिए कोई शोध नहीं किया है. "तथ्य यह है कि एईएस के बारे में अनुसंधान के लिए सरकार ने वित्त पोषण नहीं किया है, संकट का मुकाबला करने में अवरोध पैदा करता है," शाह ने कहा. इस बीमारी के अनुसंधान के लिए कोई धनराशि भी आवंटित नहीं की गई है, जिसने तब से 157 बच्चों की जान ले ली है.

मैंने ईमेल और फोन से स्वास्थ्य सचिव कुमावत से एईएस के प्रकोप के उपचार के लिए योजना की कमी और बीमारी पर अनुसंधान की निरंतर कमी के बारे में सवाल किए. उनके कार्यालय ने किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. अन्य वरिष्ठ अधिकारी, जिनसे मैंने संपर्क किया, उन्होंने भी किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. इस साल, बिहार सरकार महामारी की प्रतिक्रिया के हर चरण में लापरवाह नजर आई. यह उस बीमारी के लिए एक निरंतर सरकारी उदासीनता की ओर इशारा करता है जिसके प्राथमिक पीड़ित गरीब और हाशिए के समुदायों और जाति समूहों से हैं.