केंद्र सरकार का नया होम्योपैथी कानून भारतीय स्वास्थ्य संकट का इलाज नहीं

जानकारों का कहना है कि पारंपरिक चिकित्सा को बढ़ावा देने की नहीं बल्कि उसे विनियमित करने की जरूरत है. विप्लव भुयान/ हिंदुस्तान टाइम्स/ गैटी इमेजिस
16 October, 2020

22 सितंबर को राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग अधिनियम, 2020 पर हस्ताक्षर कर दिए. इस अधिनियम का लक्ष्य भारत में होम्योपैथी शिक्षा और अभ्यास को मानकीकृत करना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य लक्ष्यों को बढ़ावा देना है. लेकिन भारत में वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति में पहले से ही व्याप्त कुरीतियों को रोकने के लिए अधिनियम कोई ठोस कदम नहीं उठाता है.

अधिनियम की प्रस्तावना “सामुदायिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने वाली समान और सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा” को बढ़ावा देकर होम्योपैथी को “सभी नागरिकों के लिए सुलभ और सस्ती बनाने” का लक्ष्य निर्धारित करती है. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण की संसदीय स्थायी समिति द्वारा विधेयक पर एक रिपोर्ट, साथ ही साथ राज्य सरकारों और देश के विभिन्न हिस्सों से आयुष संगठनों की टिप्पणियों में भी विशेष रूप से कहा गया है कि नए अधिनियम को होम्योपैथी को लोकप्रिय बनाना चाहिए, ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में होम्योपैथी की सेवाओं को सुलभ बनाना चाहिए और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी को दूर करना चाहिए. लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य मामलों के जानकारों ने बताया है कि भारत में चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियों को बढ़ावा देने की नहीं बल्कि इसे विनियमित करने की जरूरत है और अधिनियम में ऐसा करने के लिए पर्याप्त प्रावधान नहीं हैं.

यह अधिनियम होम्योपैथी केंद्रिय परिषद अधिनियम, 1973 का स्थान लेता है जिसे एक निर्वाचित परिषद रूप में स्थापित किया गया था. यह परिषद भारत में होम्योपैथी शिक्षा और प्रैक्टिस को विनियमित करने के लिए जिम्मेदार वैधानिक निकाय था. परिषद के पास नए और आगामी होम्योपैथी शिक्षा संस्थानों को मंजूरी देने की शक्ति भी थी. नए होम्योपैथी अधिनियम के अलावा संसद के मानसून सत्र में राष्ट्रीय भारतीय चिकित्सा पद्धति आयोग विधेयक, 2020 भी पारित किया गया है. इसका उद्देश्य के दौरान स्वदेशी चिकित्सा प्रणालियों, मुख्य रूप से आयुर्वेद की शिक्षा और प्रैक्टिस को विनियमित करना है. 

ये नए कानून मोदी सरकार के अपने आयुष (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) मंत्रालय के तहत वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के समग्र प्रचार के अनुरूप ही हैं. कई सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार, इस तरह का प्रचार अनावश्यक है. जन स्वास्थ्य अभियान की राष्ट्रीय सह संयोजक अमूल्य निधि ने कहा, “भारत में आयुष दवाएं पहले से ही हमारी जीवन शैली का हिस्सा हैं. हमें पारंपरिक चिकित्सा में अपने विश्वास को रखने के लिए कानूनों की आवश्यकता नहीं है. यह हमारे जीवंत अनुभव का एक हिस्सा है.”

भारत में लंबे समय से पात्र चिकित्सकों की कमी है. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1456 लोगों पर केवल एक पात्र आधुनिक चिकित्सा डॉक्टर है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित प्रत्येक 1000 लोगों के लिए एक डॉक्टर के अनुपात से बहुत कम है. सरकार को उम्मीद है कि होम्योपैथी अधिनियम होम्योपैथी डॉक्टरों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में शामिल कर स्वास्थ्य सेवा को बढ़ाने में मदद करेगा. विधेयक के खंड 52 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य सरकार, “ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा को संबोधित करने या बढ़ावा देने के उद्देश्य से, स्वास्थ्य पेशेवरों की क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक उपाय कर सकती है.” “ग्रामीण क्षेत्र” शब्द को अधिनियम पारित होने से पहले खंड से हटा दिया गया था. हालांकि, मूल विचार वही रहा कि यह देश के उन क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए होम्योपैथी को मुख्य धारा की चिकित्सा के साथ विलय करना जहां स्वास्थ्य सेवा प्रणाली खराब है. 

निधि ने कहा कि अधिक आयुष चिकित्सकों को काम पर रखने से योग्य डॉक्टरों की तीव्र कमी को दूर नहीं किया जा सकता है. “सिर्फ इसलिए कि आपके पास ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में पर्याप्त एमबीबीएस डॉक्टर नहीं हैं, आप एलोपैथिक चिकित्सा को निर्धारित करने के लिए अयोग्य घोषित आयुष डॉक्टरों को लाना चाहते हैं. यह कैसे काम करेगा?” उन्होंने कहा कि आयुष चिकित्सक निश्चित रूप से जीवनशैली में बदलाव और आहार संशोधनों के बारे में पुराने रोगियों की काउंसलिंग करके प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का पूरक हो सकते हैं तो भी वे आधुनिक चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों की भूमिका को खत्म नहीं कर सकते. “होम्योपैथी तीव्र बीमारियों के लिए उपचार प्रदान नहीं कर सकती है. यह आधुनिक चिकित्सा में शिक्षित एक सामान्य चिकित्सक का कार्य नहीं कर सकती.”

स्वास्थ्य सेवाओं में भारत की खाई पहले से ही चिकित्सा सलाह और उपचार करने वाले बिना योग्यता के लोगों से भरी है. ऐसे लोगों को बोलचाल की भाषा में झोलाछाप कहा जाता है. ऐसे कई लोग आयुष चिकित्सक हैं. कुछ बिना किसी योग्यता के होम्योपैथ के राज्य रजिस्टर पर भी पंजीकृत हैं. डब्ल्यूएचओ की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल होम्योपैथिक डॉक्टरों में से केवल 41.8 प्रतिशत के पास कानूनी रूप से होम्योपैथी इलाज करने की चिकित्सीय योग्यता थी. 2017 में पुलिस ने अपने रोगियों की शिकायतों के बाद कोयंबटूर के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया और उसके पास कोई चिकित्सा प्रशिक्षण नहीं था लेकिन राज्य रजिस्टर में होम्योपैथ के रूप में दर्ज था और 12 साल से अपने रोगियों को आधुनिक दवाएं दे रहा था.

होम्योपैथी अधिनियम के समर्थकों का दावा है कि यह इस तरह की प्रथाओं को खत्म करने में मदद करेगा. लेकिन इसमें कई खामियां हैं. अधिनियम का खंड 34 उन व्यक्तियों को प्रैक्टिस करने की अनुमति देता है जो पहले से ही होम्योपैथ के राज्य रजिस्टरों में नामांकित हैं फिर भले ही अधिनियम कार्यान्वयन के समय इसके तहत उल्लिखित आपेक्षित चिकित्सा योग्यता को पूरा न भी करते हों. यह खंड “किसी राज्य में अभ्यास जारी रखने के लिए जिसमें होम्योपैथी का राज्य रजिस्टर इस अधिनियम के शुरू होने की तारीख तक बनाया नहीं गया, उस व्यक्ति के अधिकार को सुनिश्चित करता है जो किसी राज्य में पिछले पांच वर्षों से होम्योपैथी का अभ्यास कर रहा है.” 

निधि ने कहा कि सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मौजूदा नियमों को लागू किया जाए और होम्योपैथी को बढ़ावा देने के लिए नए कानून लाने के बजाए चिकित्सकीय कुरीतियों पर रोक लगाई जाए. इस बीच अलबर्टा विश्वविद्यालय में स्वास्थ्य कानून संस्थान के अनुसंधान निदेशक टिम कॉउफील्ड ने मुझसे फोन पर कहा कि ”सरकारें नीमहकीम और छद्म विज्ञान को विनियमित करने और नुकसान को कम करने के इरादे से ऐसे कानून बना सकती हैं लेकिन लंबे समय में यह केवल नीमहकीमी का प्रचार ही करेगा और उन्हें वैधता देगा.”

1996 में सुप्रीम कोर्ट ने पूनम वर्मा के मामले की सुनवाई की पूनम के 35 वर्षीय पति प्रमोद की अश्विन पटेल नामक होम्योपैथी चिकित्सक से उपचार से मृत्यु हो गई थी. पटेल ने आधुनिक दवा के जरिए प्रमोद के बुखार का इलाज किया, जिनमें एंटीबायोटिक भी शामिल थीं. पटेल ऐसी दवाएं देने के लिए पात्र नहीं थे. अदालत में अपनी दलील में पटेल ने कहा कि “उन्होंने चिकित्सा के होम्योपैथिक और एलोपैथिक प्रणाली दोनों में अध्ययन का एक एकीकृत कोर्स किया है.” सुप्रीम कोर्ट ने पटेल को चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी पाया और निष्कर्ष निकाला कि वह प्रमोद की मौत के लिए जिम्मेदार है. 

आधुनिक और पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को एकीकृत करने के विचार पर हाल के वर्षों में काफी सार्वजनिक बहसें हुई हैं. सरकार ने 2017 के बिल में, आयुष चिकित्सकों को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों में आधुनिक दवाएं देने की अनुमति के लिए एक ब्रिज कोर्स का सुझाव देकर इस दृष्टिकोण की सिफारिश की थी. डॉक्टरों और आयुष चिकित्सकों ने प्रस्ताव की आलोचना की. नेशनल मेडिकल कमीशन एक्ट, 2019 के अंतिम संस्करण में ब्रिज कोर्स का कोई उल्लेख नहीं किया गया.

होम्योपैथी अधिनियम में अब ऐसे नियम शामिल हैं जो चिकित्सा शिक्षा के प्रति अंतःविषय दृष्टिकोण को बढ़ावा देते हैं. केंद्रीय होम्योपैथी परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ अरुण भस्मे, जो होम्योपैथी अधिनियम के लिए संसदीय स्थायी समिति द्वारा चयनित परामर्शदाताओं में से थे, ने कहा कि यह विचार होम्योपैथी अधिनियम और राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद अधिनियम दोनों में उपस्थित है. उन्होंने कहा, “जब हम खंड पर चर्चा कर रहे थे मैं वहीं था. तब यह निर्णय लिया गया था कि आयुष चिकित्सकों को आधुनिक चिकित्सा पद्धति सीखने में सक्षम बनाने का विचार उनके पाठ्यक्रम के हिस्से में है.” होम्योपैथी अधिनियम के खंड 52 का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, जो सभी चिकित्सा प्रणालियों के आयोगों के बीच ऐसे मॉड्यूल तैयार करने के लिए संयुक्त बैठकें करने को कहता है जिन्हें सभी पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जा सकता है. “ब्रिज कोर्स शब्द को छोड़ दिया गया है लेकिन विचार वही है.” 

यह विचार 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी व्यक्त किया गया है. यह बताता है कि, चूंकि लोग पहले से ही भारत में स्वास्थ्य सेवा का उपयोग करते हुए ढेरों विकल्पों को अपनाते हैं “हमारी स्वास्थ्य शिक्षा प्रणाली का अभिप्राय यह होना चाहिए कि एलोपैथिक चिकित्सा शिक्षा के सभी छात्रों को आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) की बुनियादी समझ होनी चाहिए और इसी तरह आयुष के छात्रों को एलोपैथी की.” इसके अलावा हाल की समाचार रिपोर्टों का दावा है कि मोदी सरकार भारत में चिकित्सा की सभी प्रणालियों को एकीकृत करने के लिए 2030 के अंत तक “वन नेशन, वन हेल्थ सिस्टम” लॉन्च करने की योजना बना रही है.

इंदौर के होम्योपैथी चिकित्सक अश्विनी कुमार द्विवेदी के अनुसार, सरकार की अंतःविषय चिकित्सा पाठ्यक्रम बनाने की कोशिश है जो आयुष चिकित्सकों को आधुनिक चिकित्सा के पहलुओं को सीखने की अनुमति देती है. यह होम्योपैथी में स्नातक कर रहे और करने के इच्छुक छात्रों के लिए लाभदायक होगा. उन्होंने कहा कि होम्योपैथी शिक्षा प्रणाली निम्न मानकों और लापरवाह शिक्षकों से त्रस्त थी और इसे और अधिक अवसरों के लिए खोलने की आवश्यकता थी. उन्होंने कहा, “जैसे-जैसे दुनिया बदल रही है वैसे-वैसे हमें अपनी शिक्षा को भी आधुनिक बनाने की जरूरत है. हमें अपने कोर्सों में आधुनिक चिकित्सा को एकीकृत करने की आवश्यकता है ताकि अधिक युवा होम्योपैथ से रोजगार प्राप्त कर सकें. अगर नया अधिनियम होम्योपैथी डॉक्टरों को आधुनिक चिकित्सा में अपने ज्ञान के माध्यम से मुख्यधारा में लाता है तो इससे न केवल खुद डॉक्टरों को लाभ होगा बल्कि वे जिन रोगियों का इलाज कर रहे हैं उन्हें भी फायदा मिलेगा.”

आधुनिक चिकित्सा के डॉक्टर वैकल्पिक प्रणालियों में चिकित्सा शिक्षा के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण पर द्विवेदी की राय से असहमत हैं. देश में डॉक्टरों का सबसे बड़ा स्वैच्छिक संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति और चिकित्सा आयोग अधिनियम के माध्यम से चिकित्सा पद्धतियों के सभी रूपों को एकीकृत करने के केंद्र सरकार के प्रयासों की निंदा करता है. होम्योपैथी अधिनियम इन्हीं दो दस्तावेजों पर आधारित है. आईएमए के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजन शर्मा और इसके मानद महासचिव आरवी असोकन ने 6 अक्टूबर को एसोसिएशन की सभी शाखाओं को एक पत्र लिख कर कहा है कि सरकार “सभी प्रणालियों को मिलाकर एक कॉकटेल” पेश कर रही है जो अयोग्य चिकित्सकों को वैधानिक बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है. पत्र में यह भी कहा गया है कि “अगर सरकार ऐसे कानूनों को पारित करना जारी रखती है तो राष्ट्र केवल संदिग्ध हाईब्रिड डॉक्टर ही पैदा करेगा.” 

2013 में “भारत में भारतीय चिकित्सा पद्धति और लोक चिकित्सा की स्थिति” रिपोर्ट लिखने वाली स्वास्थ्य मंत्रालय की पूर्व सचिव शैलजा चंद्रा ने मुझे बताया, “बहुत से लोग ज्यादा ही शुद्धतावादी होने की कोशिश करते हैं लेकिन इनको भारत में मौजूद व्यावहारिक वास्तविकताओं के प्रति सचेत होना पड़ेगा.” उनका तर्क है कि डॉक्टरों की कमी के साथ ही, भारत में दवा दुकानदार या केमिस्ट लक्षणों के आधार लोगों को दवा देते हैं और उपभोक्ता इंटरनेट पर दवाओं की खरीद कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इन परिस्थितियों में आयुष चिकित्सकों को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के पर्याप्त ज्ञान के साथ दिन-प्रतिदिन की बीमारियों के लिए आधुनिक चिकित्सा निर्धारित करना उचित है. “यहां तक कि एलोपैथिक डॉक्टरों ने माना है कि ये चिकित्सक काफी सक्षम हैं.”

चंद्रा ने वैकल्पिक चिकित्सा के खराब विनियमन से उत्पन्न समस्याओं पर भी प्रकाश डाला. मिसाल के तौर पर, आयुष चिकित्सकों ने एंटीबायोटिक्स और दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हुए भारत की एंटीबायोटिक प्रतिरोध की बढ़ती समस्या में इजाफा किया है. चंद्रा ने कहा कि ऐसे स्पष्ट कार्यक्रम होने चाहिए जो आयुष चिकित्सकों को बताएं कि वे बीमारियों का इलाज करने के मामले में किन आधुनिक दवाओं का प्रयोग कर सकते हैं और किसका नहीं. 

सितंबर में केंद्र सरकार के योजना निकाय नीति आयोग ने एक एकीकृत स्वास्थ्य नीति तैयार करने के लिए कार्य समितियों की नियुक्ति की. चंडीगढ़ में पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के पूर्व निदेशक और एकीकृत चिकित्सा शिक्षा के लिए गठित कार्यकारी समिति के सदस्य केके तलवार ने कहा, “इस मुद्दे पर हमारी मुलाकात और चर्चा होनी बाकी हैं और मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर सकता कि इसे कैसे लागू किया जाएगा.” उन्होंने मुझे बताया, “मामला यह है कि चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता कम नहीं होनी चाहिए.”

जन स्वास्थ्य सहयोग के संस्थापक सदस्य और एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली द्वारा पेश किए जाने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य समाधान की कार्य समिति के सदस्य डॉ. योगेश जैन ने कहा कि अगर आयुष चिकित्सकों को आधुनिक दवाओं को रखने की अनुमति दी जाती है तो कुछ मानक प्रोटोकॉल तैयार किए जाने की आवश्यकता है.

जैन ने सवाल उठाया कि एक आयुष चिकित्सक आधुनिक चिकित्सा के व्यापक ज्ञान के बिना क्या कर सकता है. “क्या वह सही तरीके से निदान कर पाएगा और अपने रोगियों के इलाज के लिए सही विकल्प पेश कर पाएगा? और अगर एक साल की शिक्षा या एलोपैथी में कोई ब्रिज कोर्स आपको इस तरह का ज्ञान दे सकता है तो लोग साढ़े पांच साल मेडिकल की पढ़ाई क्यों करते हैं?” उन्होंने चिंता व्यक्त की कि वैकल्पिक चिकित्सा के चिकित्सकों को ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने की अनुमति देने से “जिनके पास कुछ नहीं” है या वे लोग जिनकी आय निम्न हैं उन्हें घटिया स्वास्थ्य सेवा ही मिल सकेगी. उन्होंने यह भी कहा कि पूर्ण चिकित्सा योग्यता वाले डॉक्टर शहरी क्षेत्रों में चले जाएंगे, जहां उनकी प्रैक्टिस अधिक लाभदायक है.

कोविड-19 महामारी में भारत में अब तक एक लाख से अधिक लोगों की जान चली गई है और होम्योपैथी में संक्रमण की रोकथाम या उपचार में कोई सिद्ध भूमिका नहीं है ऐसे में होम्योपैथी अधिनियम लेकर आना इसे संदिग्ध बनाता है. वर्तमान सरकार, विशेष रूप से आयुष मंत्रालय, ने कोविड-19 महामारी के दौरान भी तीव्र बीमारियों और संक्रमणों के लिए होम्योपैथी और भारतीय पारंपरिक चिकित्सा को बढ़ावा दिया है. जनवरी में आयुष मंत्रालय ने कोविड-19 की रोकथाम और प्रबंधन के लिए आयुष परामर्श जारी किया. इसमें कहा गया है कि होम्योपैथी फॉर्मूला आर्सेनिकम एल्बम 30 रोग और अन्य इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी के खिलाफ रोगनिरोधी के रूप में प्रभावी है. लेकिन फिर 4 फरवरी को मंत्रालय ने स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि मंत्रालय द्वारा जारी की गई एडवाइजरी “ऐसे वायरल रोगों के संदर्भ में सामान्य एहतियाती उपायों” के लिए है. यह कोविड-19 बीमारी का इलाज नहीं करती है. विभिन्न राज्यों और शहरों में सरकारी अधिकारियों और स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने निवारक दवा के रूप में डिस्कार्सेनिकम एल्बम 30 वितरित की. अगस्त में गुजरात के स्वास्थ्य विभाग ने दावा किया कि उसने मार्च के बाद से 34.8 मिलियन लोगों को दवा वितरित की थी. यह संख्या राज्य की आधी से अधिक आबादी है. फिलहाल गुजरात, पंजाब और महाराष्ट्र के बाद भारत में कोविड-19 मृत्यु दर में तीसरा नंबर पर है. 

वेबसाइट ऑल्टन्यूज से न्यूरोसाइंटिस्ट और विज्ञान संपादक सुमैया शेख ने कहा, “आर्सेनिक एल्बम 30 की प्रभावकारिता साबित करने के लिए कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है.” शेख ने आयुष मंत्रालय के दावे को खारिज करते हुए एक लेख लिखा है. उन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि यह दिखाने के लिए कोई अध्ययन नहीं किया गया था कि इस फॉर्मूले का मनुष्यों में, जानवरों में या पूर्व-विवो या शरीर के बाहर भी रोगनिरोधी प्रभाव पड़ता है. ठीक से उपयोग न करने पर होम्योपैथी भी नुकसान पहुंचा सकती है. जर्नल ऑफ टॉक्सिकोलॉजी में 2003 में प्रकाशित एक शोध लेख में कहा गया है कि “होम्योपैथिक दवाओं में चिकित्सीय रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले आर्सेनिक का उपयोग नैदानिक विषाक्तता का कारण हो सकता है अगर दवाओं का अनुचित तरीके से उपयोग किया जाता है.” लेख में तीन मरीजों की केस स्टडी प्रस्तुत की गई है जिनमें आर्सेनिक-आधारित होम्योपैथिक दवा का सेवन करने के दो सप्ताह बाद दुष्प्रभाव सामने आए जिनमें मेलानिन त्वचा संबंधी घाव और पेट तथा आंत संबंधी गंभीर बीमारियां शामिल हैं. दो सप्ताह तक आर्सेनिक ब्रोमाइड के सेवन करने से एक रोगी को क्वाड्रिपैरिसिस हो गया. यह एक ऐसी स्थिति जिसमें आर्सेनिक विषाक्तता के कारण हाथ-पैर में कमजोरी आ जाती है और रोगी की परिधीय नसों को नुकसान पहुंचता है. 

दिल्ली में लिवर और बाइलरी सांइस इंस्टीट्यूट संस्थान के डॉ एबी फिलिप्स, जो वैकल्पिक आयुर्वेद और होम्योपैथी दवाओं के साइड इफेक्ट्स पर शोध और बारीकी से निगरानी कर रहे हैं, ने मुझे बताया कि पिछले दो दशकों में किसी भी बीमारी या स्थिति पर आर्सेनिकम एल्बर 30 की प्रभावकारिता के बारे में कोई अध्ययन नहीं किया गया है. अलग-अलग मामले सामने आए हैं. अप्रैल 2019 में कोलकाता के बीआर सिंह अस्पताल और सेंटर फॉर मेडिकल एजुकेशन के डॉक्टरों ने एक 44 वर्षीय महिला के मामले की रिपोर्ट की जो मानसिक अवसाद के लिए होम्योपैथी दवा ले रही थी. अत्यधिक आर्सेनिक की वजह से वह गंभीर मल्टीसिस्टम डिसऑर्डर से पीड़ित हो गई. फिलिप्स ने मुझे ईमेल में बताया, “सरकार द्वारा इस तरह के छद्म विज्ञान को बढ़ावा देने से भविष्य में बाजार में ऐसी दवाओं के प्रसार का मार्ग प्रशस्त होगा जो इनका उपयोग करने वालों के लिए खतरनाक दुष्प्रभाव पैदा करेंगी.” 

शेख ने कहा कि भारत में समस्या यह नहीं है कि चिकित्सा की कई प्रणालियों को पनपने की अनुमति दी गई है, बल्कि संदिग्ध विज्ञान पर आधारित चिकित्सा प्रणालियों को वैध बनाना समस्या है. उनके अनुसार, आयुर्वेद की पारंपरिक भारतीय प्रणाली का आधार अभी भी पूर्ण रूप से वैज्ञानिक नहीं है. उन्होंने कहा होम्योपैथी पूरी तरह से छद्म वैज्ञानिक प्रैक्टिस है जिसकी नियमित रूप से वैश्विक आधुनिक वैज्ञानिक समुदाय, साथ ही साथ विभिन्न सरकारों के स्वास्थ्य विभागों द्वारा निंदा की गई है. 2010 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर यूनाइटेड किंगडम हाउस ऑफ कॉमन्स की चयन समिति ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें निष्कर्ष निकाला गया था कि “होम्योपैथी उत्पाद प्लेसबो हैं” और दावा किया कि इसके सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से मान्य नहीं हैं. समिति की सिफारिश के आधार पर, ब्रिटेन सरकार ने 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा में होम्योपैथी के लिए धन देना बंद कर दिया. जुलाई 2019 में फ्रांस सरकार ने घोषणा की कि वह 2021 से होम्योपैथिक दवा की प्रतिपूर्ति बंद कर देगी. होम्योपैथी की जन्मस्थली जर्मनी में भी नेशनल एसोसिएशन वैधानिक स्वास्थ्य बीमा चिकित्सकों ने कथित तौर पर बीमाकर्ताओं से होम्योपैथिक उपचार के लिए धन देने से रोकने का आग्रह किया. शेख ने कहा, “निजी क्षेत्र में होम्योपैथी का पनपना ठीक है जैसा कि यह कई पश्चिमी देशों में भी है लेकिन कोई अन्य देश होम्योपैथी को उस तरह का वैधानिक कवर और वैधता नहीं देता है जैसा भारत देता है.”

कुछ सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का तर्क है कि चिकित्सा के वैकल्पिक और पारंपरिक रूपों में भारतीय विश्वास के इतिहास की तुलना उस संदर्भ में करना जिसमें पश्चिमी देश करते हैं, अनुचित है. चंद्रा के अनुसार, भारत की आजादी के बाद बनी सभी केंद्रीय सरकारों की सबसे बड़ी त्रुटि आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर अंग्रेजों के जमाने के कानून को आंख मूंद कर मानना और इसे चिकित्सा के वैकल्पिक रूपों में लागू करना थी. उन्होंने कहा, “चिकित्सा और होम्योपैथी की भारतीय प्रणालियों को बढ़ावा देने की कोशिश में हुए यह कि रूप अपनी अंतरवस्तु से आगे निकल गया. जिन लोगों को स्वदेशी प्रणालियों का ज्ञान था और उनका अभ्यास किया था, उनके गुजर जाने के बाद हमारे पास अब ऐसे हाईब्रिड उत्पाद बचे हैं जिन्हें अपनी खुद की प्रणाली पर बहुत कम विश्वास है.”

चंद्रा ने यह भी कहा कि मरीजों ने ऐसे उपचारों को अत्यधिक व्यक्तिगत रूप से देखा और इसलिए ये प्रणालियां आधुनिक वैज्ञानिक तर्क के आधार पर काम नहीं करती हैं. “मेरा विचार है कि केंद्रीय परिषदों की स्थापना की आवश्यकता नहीं थी,” उन्होंने कहा. वास्तव में केंद्रीय होम्योपैथी परिषद और उसके सदस्यों ने न केवल उसके प्रभाव की कमी के लिए बल्कि कामकाज में अनियमितताओं के लिए भी चिंता जताई है. परिषद के पूर्व अध्यक्ष रामजी सिंह को 2016 में रिश्वत के आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया था. स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने सितंबर में राज्यसभा में अपने संबोधन में दावा किया था कि नए होम्योपैथी अधिनियम में पारदर्शिता में सुधार होगा और शासी निकाय से अनियमितताओं और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा. चंद्रा ने कहा, “इसके बजाए, राज्य और क्षेत्रीय बोर्ड होने चाहिए थे जो उस क्षेत्र के चिकित्सकों की स्थानीय प्रतिभा को बढ़ावा देते और स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य के मामलों से जुड़े रहते.” यहां तक कि भस्मे को इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि यह अधिनियम सकारात्मक बदलाव लाएगा. उन्होंने कहा कि यह ''होम्योपैथी के कामकाज के तरीके में पारदर्शिता लाएगा, भ्रष्टाचार को कम करेगा और साथ ही बहुत कुछ और भी करेगा लेकिन मैं फिर भी बहुत आशान्वित नहीं हूं क्योंकि सत्ता में बैठे लोग भ्रष्ट होते रहेंगे, अक्षम रहेंगे. सार्वजनिक हित पर ध्यान नहीं दिया जाएगा.”