कोरोनावायरस एक युद्ध है और युद्ध स्तर से कमतर तैयारी बेकार

दिव्याकांत सोलंकी/ईपीए

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नोवेल कोरोनावायरस पर जनता की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है कि किसी भीषण और अभूतपूर्व घटना का सामना होने पर लोग अक्सर उसे कम करके आंकते हैं या नजरअंदाज करते हैं. जनवरी के एक दिन मैंने अपने एक साथी से इस विचित्र वायरस पर बात की. हमारा मानना था कि हालात खराब दिख रहे हैं लेकिन यह वायरस चीन न सही, मध्य पूर्व तक पहुंचते-पहुंचते खत्म हो ही जाएगा. फिर एकाध सप्ताह बाद हम लोग इस बात से चिढ़ने लगे कि लोग खामखां परेशान हो रहे हैं. हमने आपस में कहा कि यह वायरस फ्लू से अगल नहीं लग रहा और आज की पीढ़ी कुछ ज्यादा ही उधम मचा रही है. वैसे भी ब्रिटेन में हर साल तकरीबन 15 हजार लोग फ्लू से मर जाते हैं. उसके मुकाबले में कोरोना है ही क्या चीज. लेकिन हमलोग गलत थे.

यह वायरस हैरान कर देने वाली तीव्रता से फैला है और इसने लोगों को बिना चेतावनी धर दबोचा है. फ्लू औसतन 1.4 लोगों को संक्रमित करता है और यदि प्रत्येक संक्रमित व्यक्ति एक अन्य को संक्रमित करे तो दसवां चक्र पूरा होने तक 28 लोग फ्लू से संक्रमित हो जाते हैं. वहीं कोविड-19 वायरस औसतन 4 लोगों को संक्रमित करता है और यदि मान लें कि हर तीन व्यक्ति अन्य तीन को संक्रमित करते हैं तो दसवें चक्र तक संक्रमित लोगों की संख्या विकराल होकर 59059 हो जाती है.

पूर्व एशिया को छोड़ कर अधिकांश देशों ने इसके खिलाफ बहुत धीमी प्रतिक्रिया दी. इटली ने शुरुआत चरणों में अपर्याप्त जांचें कीं और सरकार ने शटडाउन करने में बहुत देरी कर दी. यूरोप में इसके मामले खतरनाक रूप से बढ़ रहे थे लेकिन ब्रिटेन ने मार्च के दूसरे सप्ताह में जाकर ही लोगों के एक जगह इकट्ठा होने पर रोक लगाई. सरकार ने “भीड़ प्रतिरक्षा” पैदा करने के विचार से लोगों को इकट्ठा होने दिया. वहां के वैज्ञानिकों के एक समूह ने जब इस बारे में सरकार को चेतावनी दी तब कहीं जाकर ब्रिटेन की सरकार ने अपना रुख बदला और कड़े कदम उठाए. अमेरिका के न्यू यॉर्क शहर ने भी कोरोनावायरस की प्रतिक्रिया में गलती की और यह शहर अब कोविड-19 का केंद्र बन गया है. संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ जेम्स लॉलर ने अनुमान लगाया है कि इस महामारी को नियंत्रित नहीं किया गया तो अमेरिका में 4 लाख 80 हजार लोग मारे जाएंगे.

संख्या के मामले में अब तक भारत पर इसका कम असर हुआ है. लेकिन ऐसा सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर है. भारत ने 24 मार्च 2020 की सुबह 10 बजे तक 19974 लोगों की जांच की है जो अन्य देशों के मुकाबले कुछ भी नहीं है. 3 मार्च को सरकार ने यात्रियों की थर्मल (तापमान) जांच शुरू की लेकिन यह भरोसेमंद जांच नहीं है क्योंकि इसमें ऐसे यात्री छूट जाते हैं जिन्हें बुखार आना शुरू नहीं हुआ है. अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों से संपर्क होने वाले व्यक्तियों की जांच में संक्रमण की संख्या भले कम पाई गई लेकिन फिर अलग-अलग हिस्सों से मामले सामने आने लगे. ऐसे कई समाचार पढ़ने और देखने को मिले जिनमें क्वारंटीन में रखे गए लोग सार्वजनिक यातायात में सवार होकर भागे थे और संभवतः शादियों और पार्टियों में शामिल होकर बहुतों को संक्रमित कर दिया हो. कोई भी महामारी विशेषज्ञ बता सकता है कि वायरस समुदाय के बीच पहुंच चुका है. इससे भी खराब बात यह है कि चूंकि हमारे पास सामुदायिक संक्रमण का डेटा नहीं है इसलिए हम जान नहीं सकते कि वायरस कहां तक फैल चुका है या किस ओर बढ़ रहा है. 

हमारे पास चिकित्सीय ढांचे को सुधारने या वैंटिलेटरों की संख्या को बढ़ान का बहुत कम समय है लेकिन फिर भी इन कामों को किया जाना चाहिए. यदि निकट भविष्य में वस्तुवादी, वैज्ञानिक और केंद्रित प्रतिक्रिया नहीं की जाती है तो हम बहुत सारी जान गवां देंगे. 24 मार्च तक भारत में इस वायरस से मरने वालों की संख्या 9 पहुंच गई थी.

यह वायरस बुजुर्ग लोगों के लिए बहुत खतरनाक है लेकिन इससे कम उम्र के लोग बचे रहेंगे ऐसा भी नहीं है. मिसाल के लिए अमेरिका में इस रोग से अस्पतालों में भर्ती होने वालों में 38 प्रतिशत लोग 20 से 54 वर्ष की आयु के हैं और इटली में लगभग एक चौथाई लोग 19 से 50 साल के हैं.

इस महामारी से सबसे ज्यादा गरीब प्रभावित होंगे क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेक्टर में गंभीर सेवाएं आमतौर पर पूरी क्षमता पर काम करती हैं और ये सेवाएं इस वायरस से पड़ने वाले अतिरिक्त भार को वहन नहीं कर सकतीं. इस बात की पूरी संभावना है कि होने वाली मौतों को कोविड-19 बताया ही न जाए क्योंकि जांच किट व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं है. लगता है कि आने वाले दिनों में सरकारी आंकड़े स्थिति की अच्छा बताते रहेंग लेकिन जल्द ही मौतों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि इन्हें ठीक से दर्ज किया जाने लगेगा.

सरकार संसाधन जुटाने और तैयारी करने की पूरी कोशिश कर रही है. 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने से पता चलता है कि सरकार ने स्थिति की गंभीर तो एक हद तक स्वीकार कर लिया है. मामलों के प्रबंधन से जुड़े प्रोटोकॉल को सभी स्थानों पर लागू नहीं किया गया है और इलाज कर रहे चिकित्सकों के लिए आवश्यक व्यावहारिक जरूरतों के बारे में प्रोटोकॉल में कमी है.

पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट या व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की कमी बड़ी परेशानी खड़ी कर सकती है. 27 फरवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसकी चेतावनी दे दी थी लेकिन भारत ने पीपीई का भंडारण नहीं किया. पश्चिमी देशों के समचार पत्रों में विशेष तरह के मास्कों की कमी के समाचार छाए हुए हैं. भारत में स्थिति उनसे अलग तो क्या ही होगी, बदतर जरूर हो सकती है. बिना सही सुरक्षा के डॉक्टर कर ही क्या सकते हैं. निजी अस्पताल मरीजों को भर्ती करने से कतराएंगे. सार्वजनिक अस्पतालों में काम करने वालों के पास उपलब्ध चीजों के साथ काम करते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. जैसा दूसरे देशों में देखा गया है, यहां भी ये स्वास्थ्य कर्मी बीमार पड़ेंगे या मर भी सकते हैं.

बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिन्हें किया जाना बाकी है. फिर चाहे वह राष्ट्रीय टास्क फोर्स बनाने की बात हो या सार्वजनिक जागरूकता को बढ़ाने की बात हो या कर्फ्यू लगाने या फील्ड अस्पतालों को खोलने की ही बात क्यों न हो. यह सब दो सप्ताह पहले हो जाना चाहिए था. अब हाथ पर हाथ धर कर बैठने का वक्त नहीं है. 67 दिनों में वायरस ने एक लाख लोगों को संक्रमित किया था और अगले 11 दिनों में और एक लाख इसकी चपेट में आ गए. इसके बाद सिर्फ चार दिनों में यह संख्या तीन लाख पहुंच गई. यह वायरस किसी को माफ नहीं कर रहा, तेजी से बढ़ रहा है और किसी पर रेहमदिली दिखाने का इसका कोई इरादा नहीं लगता. साफ शब्दों में कहें तो यह एक युद्ध है. और इससे लड़ने में युद्ध स्तर से कमतर प्रतिक्रिया आर्थिक बर्बादी और हजारों लोगों की मौत को नहीं रोक सकती.

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अमित गुप्ता ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में नवजात शिशु संबंधी विषयों के कंसलटेंट हैं.