बिहार के भोजपुर जिले के अनिल कुमार और बक्सर जिले के मंजीत सिंह कुशल श्रमिक हैं. दोनों ने 17 मार्च को एक ही जगर पर अपनी नई नौकरियां शुरू की थी. वे उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के करसुआ गांव में स्थित एक बॉटलिंग प्लांट में काम कर रहे थे. 28 साल के अनिल ने कहा कि उन्हें लगभग 18000 रुपए प्रति माह के अनुबंध में काम पर रखा गया था. वह अपने सहयोगी प्रेम कुमार के साथ एक कमरे में रह रहे थे. अनिल चाहते थे कि जितना संभव हो उतना कम खर्चा कर बाकी तनख्वाह घर भेज दें जहां उनके परिवार के 12 सदस्य उनकी कमाई पर निर्भर हैं. लेकिन वह ऐसा कर न सके. "इस लॉकडाउन ने सब कुछ बर्बाद कर दिया," उन्होंने कहा.
25 मार्च से भारत में कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन किया गया है. इसने प्रवासी श्रमिकों को अधर में छोड़ दिया. दसियों हजार प्रवासी मजदूर वापस अपने घरों की ओर लौटने लगे और इस कोशिश में कम से कम 22 लोगों की मौत हो गई. अनिल, प्रेम और सिंह घर लौटने को मजबूर मजदूरों में से हैं.
एक कमरे में रहने वाले दोनों मजदूर लॉकडाउन के तीसरे दिन तक काम कर रहे थे लेकिन जब काम रुक गया तो उनको एहसास हो गया कि अलीगढ़ में इस तरह अपना खर्चा नहीं चला सकेंगे और वे साइकिल पर घर वापस लौटने के लिए तैयार हो गए. अनिल और सिंह ने बिहार में अपने घर पहुंचने के लिए लगभग 900 किलोमीटर की यात्रा की. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के भोपालपुर गांव के निवासी प्रेम ने अपने पैतृक गांव की 600 किलोमीटर की दूरी तय की. वे अपने घरों में सुरक्षित पहुंचे और तीनों को इस बात का संतोष है कि उनके पास घर है. "हम घर नमक और रोटी खा कर ही सही लेकिन जिंदा तो रह पाएंगे," अनिल ने कहा.
कमरे में साथ रहने वाले तीनों लोगों ने मुझे बताया कि जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तब उनके पास बहुत कम पैसे थे. उन्होंने कहा कि वे कोसन एसएफपीएल प्रोजेक्ट इंडिया लिमिटेड नामक कंपनी द्वारा संचालित इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के एक बॉटलिंग प्लांट में काम करते हैं. एनआरवी ट्रेडिंग एंड कॉन्ट्रैक्टिंग के एक ठेकेदार नागराजन एनवी ने उन्हें वहां काम पर रखा था. जबकि अनिल और सिंह को लॉकडाउन की घोषणा के एक सप्ताह पहले ही काम पर रखा गया था, प्रेम वहां पांच-छह महीने से संयंत्र में काम कर रहे थे. प्रेम के अनुसार, नागराजन को हर महीने के बारह तारीख को उन्हें 24000 रुपए का वेतन देना होता था लेकिन भुगतान हमेशा देर से होता था. वास्तव में उन्हें फरवरी के अपने वेतन का 14000 रुपए और मार्च का पूरा वेतन नहीं मिला. इसके अलावा, तीनों रूममेट 10 मार्च को होली के लिए अपने परिवारों से मिलने गए थे और यात्रा के दौरान अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर दिया था. "हम होली के बाद यहां आए थे, यह सोचकर कि हम कमाएंगे और घर वापस भेजेंगे, कर्ज लौटाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हो सका," अनिल ने बताया.
लॉकडाउन शुरू होने के बाद उन्होंने वहां किराना की दुकान चलाने वाले से पूछा कि खाने का सामान उधार मिलेगा लेकिन उसने मना कर दिया. साथ ही उनके मकान मालिक ने उन्हें काम ना जाने के लिए कहा था क्योंकि इससे वह वायरस की चपेट में आ सकते थे. प्रेम और अनिल ने बताया कि वे तीनों, इस उम्मीद में काम पर जाना चाहते थे कि इसके चलते उन्हें उनकी पूरी तनख्वाह मिल जाएगी. उन्होंने नागराजन से मदद की मांग की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.
अंततः 27 मार्च को उन्होंने पुलिस से हस्तक्षेप करने को कहा. प्रेम ने मुझे बताया कि छह पुलिसकर्मी उनके कार्यस्थल आए और नीरज नामक एक कर्मचारी से बात की. फिर पुलिस ने नियोक्ताओं को भोजन के साथ-साथ प्रत्येक मजदूर को 2000 रुपए देने का निर्देश भी दिया. प्रेम ने बताया कि इसके अलावा पुलिस ने नियोक्ताओं को 15 दिनों के भीतर सभी का बकाया वेतन देने का भी निर्देश दिया. लेकिन, प्रेम ने मुझे बताया, पुलिस के चले जाने के बाद नीरज मुकर गया और उसने कहा कि कंपनी तब तक पैसा ट्रांसफर नहीं कर सकती जब तक कि लॉकडाउन हटा नहीं दिया जाता.
9 मई को मैंने नागराजन से बात की. उन्होंने दावा किया कि उन्होंने कुछ खर्चों के लिए अनिल और सिंह दोनों को पहले 2500 रुपए दिए थे और उनकी बकाया तनख्वाह भी उन्हें 8 मई को भेज दी थी. नागराजन ने स्वीकार किया कि प्रेम का वेतन अभी भी लंबित है लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं. उन्होंने कहा कि वह जून के अंत तक शेष राशि का भुगतान करने की कोशिश करेंगे.
चूंकि लॉकडाउन के चलते उनके आसपास सभी परिवहन सुविधाएं रोक दी गई थी, इसलिए तीनों मजदूरों ने अपने परिवारों को कुछ पैसे भेजने की व्यवस्था करने के लिए कहा. 27 मार्च को उन्होंने अपने बिल चुकाए और तीन साइकिलें खरीदीं.
28 मार्च को सुबह 5 बजे उन्होंने अपनी यात्रा शुरू की. प्रेम को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जाना था, जबकि अन्य को बिहार जाना था. सिंह का घर बक्सर जिले के डुमरांव गांव में है और अनिल का घर वहां से 70 किलोमीटर दूर भोजपुर जिले के महुआही गांव में. तीनों सुरक्षा को लेकर भी चिंतित थे इसलिए एक ऐसे रास्ते से जाने का फैसला किया जिससे जहां तक हो सके तीनों साथ ही रहें.
पहले दिन उन्होंने दिन भर साइकिल चलाई और लगभग 150 किलोमीटर की दूरी तय की. जब वे रात करीब 10 बजे मैनपुरी पहुंचे तो कुछ स्थानीय लोगों ने उनकी मदद की. स्थानीय लोगों ने उन्हें खाना दिया और उन्हें अपने घर की छत पर सोने की जगह दी.
अगली सुबह लगभग 4 बजे उन्होंने अपनी यात्रा फिर से शुरू की. वे कन्नौज गए और फिर लखनऊ एक्सप्रेसवे पर आ गए. रास्ते में उन्हें स्थानीय लोग भी मिले जो लॉकडाउन के कारण घर लौटने वाले लोगों को जलपान करा रहे थे. प्रेम ने कहा कि रास्ते में उन्हें जो पुलिस वाले मिले, उनका रवैया भी सहानुभूतिपूर्ण था.
आधी रात के आसपास वे लखनऊ टोल प्लाजा पहुंचे, जहां उन्होंने 400-500 लोगों को बसों में सवार देखा. वे जल्द ही घर पहुंचने के लिए इनमें से एक बस पर सवार हो गए. लेकिन फिर उन्होंने इस विचार को छोड़ दिया क्योंकि बस में लंबे समय तक यात्रा करने से वायरस के संपर्क में आने की संभावना बढ़ जाती. तीनों दुकानों के सामने की सड़क पर चलते रहे. वे दुकान के सामने फुटपाथ पर सो जाते थे.
प्रेम ने कहा कि उन्होंने 30 मार्च को सुबह 6.30 बजे अपनी यात्रा फिर से शुरू की. लगभग बारह घंटे बाद वे अयोध्या पहुंचे. यहां से उनके रास्ते अलग हो गए. सिंह और अनिल बिहार की ओर चले गए, जबकि प्रेम ने भोपालपुर का रास्ता पकड़ा. प्रेम ने अयोध्या के एक मंदिर में रात बिताई और आखिरकार अगले दिन शाम 4 बजे घर पहुंचे.
इस बीच अनिल और सिंह को लंबा सफर तय करना था. 30 मार्च की रात को अयोध्या को पार करने के बाद अनिल और सिंह को पुलिस से कुछ मदद मिली. पुलिस ने सड़क पर एक ट्रक को रोका जो बिहार जा रहा था और उन्हें अपनी साइकिलों के साथ उसमें सवार होने के लिए कहा. अनिल ने कहा, "हमने लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय की." वे 1 अप्रैल की रात को डुमरांव में सिंह के घर पहुंचे. अनिल उस रात वहीं रहे और अगले दिन 70 किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव चले गए.
अनिल ने बताया कि अपनी यात्रा के दौरान हम चिंतित थे कि पुलिस "हमें पकड़ लेगी और हमें मारेगी," लेकिन अनुभव ठीक इसके उलट था. अलीगढ़ से लेकर बिहार की सीमा पर बसे राज्य के पूर्वी जिले बलिया तक पुलिस के साथ-साथ कुछ प्रशासन अधिकारियों ने उन्हें रोका और लगभग दस बार उनका तापमान जांचा. एक चेकिंग पॉइंट पर पुलिस ने उनकी कलाई पर एक मोहर भी लगाई, जिसमें "सुरक्षित यात्रा" की तर्ज पर कुछ कहा गया था. अनिल के कहा, "पुलिस ने हमारी बहुत मदद की."
दूसरी ओर बिहार में प्रवेश करने के बाद,किसी भी अधिकारी ने अनिल और सिंह को उनके तापमान की जांच करने या यह पूछने के लिए नहीं रोका कि वे कहां जा रहे हैं. भले ही वे एक अलग राज्य से आए थे लेकिन प्रशासन ने उन्हें क्वारंटीन के लिए नहीं भेजा. इस बीच भोपालपुर के प्रशासन ने प्रेम को एक सरकारी स्कूल में रहने दिया, जिसे 14 दिनों के लिए एक क्वारंटीन केंद्र के रूप में बनाया गया था. प्रेम ने कहा कि जब उन्हें क्वारंटीन केंद्र छोड़ने की अनुमति दी गई थी, तो अधिकारियों ने उन्हें एक बोतल सरसों का तेल और 15-20 किलो राशन भी दिया.
जब मैंने मई में प्रेम, अनिल और सिंह से बात की, तो उन्होंने अपने गांवों में पहुंचने की कठिनाइयों के बारे में बताया. सिंह अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से स्थिर थे क्योंकि वे एक संयुक्त परिवार में रहते थे जिसमें अन्य कमाई वाले सदस्य भी थे. उन्हें अब भी अपनी पत्नी, दो बेटियों और एक बेटे का पेट पालना है. वह नौकरी की तलाश के लिए लॉकडाउन खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. “अलीगढ़ जाना बेकार था. हम ठीक से काम भी नहीं कर सके और हमने पैसे खर्च करना भी बंद कर दिया. वहां नहीं जाना ही बेहतर होता."
प्रेम के रिश्तेदार की जून में शादी होनी थी इसलिए परिवार कुछ पैसा उधार लिया था. अब वे कर्जे में हैं और उनकी आय बहुत कम है. "हमारे पास थोड़ी सी जमीन है जिसमें मेरे भाई खेती करते हैं पर यह पर्याप्त नहीं है. इसी कारण मैंने गांव छोड़ा था.” हालांकि वह अपने परिवार से मिलने पर खुश थे लेकिन उन्हें बहुत चिंता भी हो रही थी. “मैं ही अकेला था जो बाहर जाकर कमा सकता था. मैं बाहर जाकर काम करने में सक्षम था और इससे मेरे परिवार को मदद मिलती थी.”
अनिल का परिवार भी आर्थिक तंगी से परेशान है. अनिल के परिवार के ज्यादातर लोग कुम्हार हैं और उनकी कोई स्थिर आय नहीं है. अब तक वे उन्हीं की कमाई पर निर्भर थे. पहले भी अनिल ने आजीविका के लिए अन्य शहरों में काम किया था. उन्होंने मुझे बताया "मैं पूरी तरह से दिहाड़ी और अपने पारंपरिक मिट्टी के बर्तनों के काम पर निर्भर हूं और दोनों ही काम हमेशा अनिश्चित होता हैं."
उन्होंने कहा, "गांव में कोरोनोवायरस के बारे में कोई जागरूकता नहीं है और कोई भी सामाजिक दूरी का पालन नहीं कर रहा है." उन्होंने गांव में वायरस को रोकने के लिए कोई विशेष उपाय होते नहीं देखा. “हमारा गांव महुदही छोटा है और अभी तक यहां मूलभूत सुविधाओं की कमी है,” अनिल ने कहा. “प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भी हमें तीन-चार किलोमीटर की यात्रा करनी होती. अगर हमें किसी अस्पताल में जाने की जरूरत है तो हमें अपने गांव से करीब 15 किलोमीटर दूर आरा शहर जाना होता है. इसलिए यह हमारे लिए एक बड़ी समस्या है.” प्रेम ने भी बताया कि बाहर से आए लोगों को समझाने के अलावा, उन्होंने अपने गांव में वायरस के प्रसार को रोकने का कोई प्रयास होने नहीं देखा. उन्होंने कहा कि पास में कोई अस्पताल या कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है.
अनिल के 13 सदस्यीय परिवार के पास एक राशन कार्ड है. "कभी-कभी हमें दो महीने या उससे अधिक समय में एक बार चावल और गेहूं मिलता है," उन्होंने बताया. "हमें कुल 30 किलोग्राम राशन मिलता है, जो हमारे लिए पर्याप्त नहीं है." इसके बावजूद अनिल अपने परिवार के साथ खुश हैं. "हम अपने मिट्टी के बर्तनों का काम करेंगे या मजदूरी करेंगे ताकि भूख से न मरें. अगर हम अलीगढ़ में रहते तो हम भूख से मर जाते."