सैकड़ों किलोमीटर साइकिल चलाकर घर पहुंचे अनिल, प्रेम और मंजीत ने बताई सफर की कहानी

अनिल और मंजीत सिंह ने बिहार में अपने घर पहुंचने के लिए लगभग 900 किलोमीटर की साइकल यात्रा की. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के भोपालपुर गांव के निवासी प्रेम ने अपने पैतृक गांव की 600 किलोमीटर की दूरी तय की. वे अपने घरों में सुरक्षित तो पहुंच गए लेकिन उनके पास रोजी-रोटी के बहुत कम साधन मौजूद हैं.
मनीष स्वरूप/ एपी फोटो
अनिल और मंजीत सिंह ने बिहार में अपने घर पहुंचने के लिए लगभग 900 किलोमीटर की साइकल यात्रा की. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के भोपालपुर गांव के निवासी प्रेम ने अपने पैतृक गांव की 600 किलोमीटर की दूरी तय की. वे अपने घरों में सुरक्षित तो पहुंच गए लेकिन उनके पास रोजी-रोटी के बहुत कम साधन मौजूद हैं.
मनीष स्वरूप/ एपी फोटो

बिहार के भोजपुर जिले के अनिल कुमार और बक्सर जिले के मंजीत सिंह कुशल श्रमिक हैं. दोनों ने 17 मार्च को एक ही जगर पर अपनी नई नौकरियां शुरू की थी. वे उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के करसुआ गांव में स्थित एक बॉटलिंग प्लांट में काम कर रहे थे. 28 साल के अनिल ने कहा कि उन्हें लगभग 18000 रुपए प्रति माह के अनुबंध में काम पर रखा गया था. वह अपने सहयोगी प्रेम कुमार के साथ एक कमरे में रह रहे थे. अनिल चाहते थे कि जितना संभव हो उतना कम खर्चा कर बाकी तनख्वाह घर भेज दें जहां उनके परिवार के 12 सदस्य उनकी कमाई पर निर्भर हैं. लेकिन वह ऐसा कर न सके. "इस लॉकडाउन ने सब कुछ बर्बाद कर दिया," उन्होंने कहा.

25 मार्च से भारत में कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन किया गया है. इसने प्रवासी श्रमिकों को अधर में छोड़ दिया. दसियों हजार प्रवासी मजदूर वापस अपने घरों की ओर लौटने लगे और इस कोशिश में कम से कम 22 लोगों की मौत हो गई. अनिल, प्रेम और सिंह घर लौटने को मजबूर मजदूरों में से हैं.

एक कमरे में रहने वाले दोनों मजदूर लॉकडाउन के तीसरे दिन तक काम कर रहे थे लेकिन जब काम रुक गया तो उनको एहसास हो गया कि अलीगढ़ में इस तरह अपना खर्चा नहीं चला सकेंगे और वे साइकिल पर घर वापस लौटने के लिए तैयार हो गए. अनिल और सिंह ने बिहार में अपने घर पहुंचने के लिए लगभग 900 किलोमीटर की यात्रा की. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के भोपालपुर गांव के निवासी प्रेम ने अपने पैतृक गांव की 600 किलोमीटर की दूरी तय की. वे अपने घरों में सुरक्षित पहुंचे और तीनों को इस बात का संतोष है कि उनके पास घर है. "हम घर नमक और रोटी खा कर ही सही लेकिन जिंदा तो रह पाएंगे," अनिल ने कहा.

कमरे में साथ रहने वाले तीनों लोगों ने मुझे बताया कि जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तब उनके पास बहुत कम पैसे थे. उन्होंने कहा कि वे कोसन एसएफपीएल प्रोजेक्ट इंडिया लिमिटेड नामक कंपनी द्वारा संचालित इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के एक बॉटलिंग प्लांट में काम करते हैं. एनआरवी ट्रेडिंग एंड कॉन्ट्रैक्टिंग के एक ठेकेदार नागराजन एनवी ने उन्हें वहां काम पर रखा था. जबकि अनिल और सिंह को लॉकडाउन की घोषणा के एक सप्ताह पहले ही काम पर रखा गया था, प्रेम वहां पांच-छह महीने से संयंत्र में काम कर रहे थे. प्रेम के अनुसार, नागराजन को हर महीने के बारह तारीख को उन्हें 24000 रुपए का वेतन देना होता था लेकिन भुगतान हमेशा देर से होता था. वास्तव में उन्हें फरवरी के अपने वेतन का 14000 रुपए और मार्च का पूरा वेतन नहीं मिला. इसके अलावा, तीनों रूममेट 10 मार्च को होली के लिए अपने परिवारों से मिलने गए थे और यात्रा के दौरान अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर दिया था. "हम होली के बाद यहां आए थे, यह सोचकर कि हम कमाएंगे और घर वापस भेजेंगे, कर्ज लौटाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हो सका," अनिल ने बताया.

लॉकडाउन शुरू होने के बाद उन्होंने वहां किराना की दुकान चलाने वाले से पूछा कि खाने का सामान उधार मिलेगा लेकिन उसने मना कर दिया. साथ ही उनके मकान मालिक ने उन्हें काम ना जाने के लिए कहा था क्योंकि इससे वह वायरस की चपेट में आ सकते थे. प्रेम और अनिल ने बताया कि वे तीनों, इस उम्मीद में काम पर जाना चाहते थे कि इसके चलते उन्हें उनकी पूरी तनख्वाह मिल जाएगी. उन्होंने नागराजन से मदद की मांग की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

अखिलेश पांडे दिल्ली के पत्रकार हैं.

Keywords: COVID-19 coronavirus lockdown migrant workers coronavirus
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