“वह कल शाम 6 बजे मुझे छोड़ कर चली गई,” एक प्रिय मित्र का संदेश हमारे एक फोन पर आया. दोस्त अपनी मां की बात कर रही थी. दुख की इस लहर के बावजूद जिस बात ने हमें प्रभावित किया वह थी नपी-तुली भाषा. यह सहज शब्द थे, जैसे लेखक और पत्रकार दूसरों की मौत की खबर देते हैं. यह भाषा सटीक है. किसी के पास यह पहले से तैयार नहीं होती. किसी को भी अप्रत्याशित दुख की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. किसी को भी ऐसा जीवन नहीं जीना चाहिए जहां दुख आने पर उसके पास पहले से ही तैयार भाषा हो.
अप्रैल में भारत कोविड-19 की दूसरी लहर की चपेट में इस कदर जकड़ा हुआ था कि हमें इसकी भयावहता को सही मायने में व्यक्त करने के लिए संभवत: नए शब्दों की जरूरत है. इसे सुनामी कहना जायज नहीं होगा क्योंकि सुनामी जल्द पीछे हट जाती है. हमने जो चौंकाने वाली चीज पाई वह यह थी कि परिवार और दोस्तों की अचानक मौत के बीच, कोई भी ऐसा करता नजर नहीं आया जैसा कि हमेशा ही असीम दुख को तकसीम करने के लिए किया जाता रहा है यानी इसे व्यक्त करने के लिए शब्दों को तलाशना. मौतें जितने व्यापक स्तर पर थीं और हर तरफ उसके बारे में बात जितनी सर्वव्यापी थी कि सभी ने इसके लिए रटी-रटाई भाषा हासिल कर ली. यह इस त्रासदी का प्रतीक बिंदु है कि हम में से प्रत्येक ने अवचेतन रूप से इसके बारे में बात करने के लिए सटीक भाषा को चुना.
हालांकि इससे दुख का असर कम नहीं हुआ. दुख अभी भी पसरा हुआ था. ऑक्सीजन के स्तर में लगातार 36 घंटे की गिरावट के बाद जिस दोस्त ने अपनी मां को खो दिया था, वह टूट चुकी थी. अपने घर भर में घूमती हुई वह अपनी मां का सामान बटोर एक बैग में इकट्ठा करती रही. वह हेयरब्रश जो उन्होंने कुछ ही घंटे पहले इस्तेमाल किया था, उसके चारों ओर अभी भी टूटे हुए बाल थे, उनकी लिपस्टिक कलैक्शन, अलमारी में रखीं उनकी साड़ियां, तकिए पर उनकी गंध, चादर की तह और उस जगह पर गद्दे का धंसा होना जहां वह आखिरी बार लेटी थी, फ्रिज में रखा बचा हुआ खाना जो उन्होंने पिछली बार छोड़ दिया था- ये सारी चीजें मेरी प्रिय मित्र को अभी भी साफ करनी थीं. ये सारी चीजें हटा देने के बाद एक खालीपन नजर आता है. कोई भी चीज आपको मौत के लिए तैयार नहीं करती, कोई भी चीज आपको मां की मौत के लिए तैयार नहीं कर सकती.
हम दो सौ साल पहले आई एक और आपदा को याद कर सकते हैं. 1840 के दशक में आयरिश लोग आलू के अकाल से तबाह हो गए थे. मदद कम थी और लगभग दस लाख लोग मारे गए. एक समंदर पार ऐसे भी लोग थे जो अपनी अलग त्रासदी झेल रहे थे. संयुक्त राज्य अमेरिका में मूलनिवासी जनजाति चोक्टाव्स को सरकार जबरन स्थानांतरित कर रही थी. उन्हें एक ऐसी जोखिम भरी यात्रा पर ओक्लाहोमा की ओर पलायन करने के लिए मजबूर किया गया था, जिसे "ट्रेल ऑफ टीयर्स" (आंसुओं भरी राह) नाम दिया गया. लेकिन अपनी खुद की दिक्कतों के बावजूद, जब चोक्टावों ने आयरिश लोगों पर आन पड़ी विपदा के बारे में सुना, तो उन्होंने कुछ ऐसा किया जिसके बारे में सोच पाना भी कठिन जान पड़ता है. उन्होंने एक चंदा अभियान चलाया और आयरिश लोगों के लिए 170 डॉलर की मदद भेजी. 170 से अधिक वर्षों के बाद, आयरिश समुदाय कोविड-19 से प्रभावित संयुक्त राज्य अमेरिका में मूलनिवासी समुदायों के लिए चंदा जुटाने वालों को खुले दिल से दान कर रहे हैं. इसके तहत सात लाख डॉलर से ज्यादा की मदद जुटाई जा चुकी है. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आयोजकों ने कहा कि "सैकड़ों हजारों डॉलर" आयरिश दानदाताओं से आए हैं. दानदाताओं ने कहा कि वे बस वह कर्ज चुका रहे हैं जो वे भूले नहीं हैं.
इतिहास एक याद है. हम नरसंहारों को याद करते हैं ताकि हम उन्हें दोबारा न होने दें. बचपन में गर्म चूल्हे को छूने पर खाल में जलन का अहसास हमें याद रहता है ताकि हम दोबारा ऐसा न करें. अगर आप भूल जाते हैं, तो आप फिर दोहराने के लिए मजबूर होंगे. हमें याद रखना चाहिए. जब आप अपने घर के खाली कमरों में घूमें तो उन लोगों को भी याद रखें जो वहां रहा करते थे. जब बिस्तर का बगल का हिस्सा ठंडा हो और चादरों में सिलवटें न हों, तो याद रखें. जब दरवाजे के पीछे से झांकते चेहरे और दूसरे कमरे से आती आवाजें न हों, तो याद रखें.
और उन अजनबियों को याद रखें जिन्होंने इस जंग के कुहासे में आपकी हिफाजत की है. उन डॉक्टरों और नर्सों को याद रखें, जिन्होंने खाइयों में तब्दील हो चुके वार्डों में, बीमारी के बीच सांस लेने का जोखिम उठाया, महीनों, एक पल के लिए भी आराम नहीं किया सिर्फ इसलिए कि एक जिंदगी बचाई जा सके. कीमती ऑक्सीजन सिलेंडरों को पाने के लिए, चैट ग्रुपों पर मिले उन अनजान फोन नंबरों को याद रखें जिन्हें आपने कॉल किया था. इंटरनेट के जरिए करिश्माई ढंग से मिली उन मददों को याद रखें जो आपको बता रही थी कि आपके चहेते के लिए उनके पास अस्पताल में एक बेड है. याद रखें कि जब इस सरकार ने, इस "व्यवस्था" ने आपको इस तरह पहचानने से इनकार कर दिया था, तब भी कुछ लोग थे जिन्हें याद रहा कि आप भी एक इंसान हैं. जब लाचार थे, तो वे सहारा बनें. आयरिश लोगों की तरह, याद रखें.
हम जानते हैं कि हम जो कह रहे हैं वह हमेशा आपके लिए अच्छा नहीं होगा. आपकी अपनी भलाई इसी में है कि आप आज जिस पीड़ा को झेल रहे हैं उससे आगे बढ़ जाएं, कि आप इसे केवल एक याद के तौर पर सहेज कर रखें, इसे महज टुकड़ों-टुकड़ों में याद करें और इसे ओझल हो जाने दें. लेकिन हम आपको इस सुलगते हुए गुस्से को एक बोतल में बंद कर देने के लिए कह रहे हैं. इसे खाने की मेज पर उस खाली सीट, बिस्तर के खाली हिस्से, स्कूटर की खाली पड़ी पिछली सीट, अलमारी की खाली जगहों और अपने दिल के खालीपन में हमेशा पसरे रहने दें. यह जिंदगी को उतना ही असहनीय बना सकता है जितना जिंदगी आज लगती है. लेकिन हम आपसे यह इसलिए पूछ रहे हैं ताकि हमारे बाद आने वाले, हमारे बच्चे, जिनसे आप झूठ बोल रहे हैं कि मां कहीं गई है, या दादाजी अस्पताल से क्यों वापस नहीं आएंगे या इससे भी बदतर, वे बच्चे जिनके पास झूठ बोलने वाले भी नहीं बचे हैं, उनकी जिंदगी थोड़ा जी सकने लायक बन सके. हमारे बच्चों को सक्रिय रूप से हमारे दर्द से गुजरने की जरूरत है ताकि हम उन्हें इसी तरह से पीड़ित होने से बचा सकें.
जब यह तबाही बीतेगी, तो यकीनन इसके बाद एक दुष्प्रचार अभियान चलाया जाएगा जिसका उद्देश्य इस त्रासदी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मिलीभगत पर परदा डालना होगा. जब ऐसा होता हो, तो याद रखें कि यह संकट इसलिए नहीं आया कि हमारी उम्दा कोशिश के बावजूद मामला हाथ से निकल गया. यह कोई कोशिश ही न करने का नतीजा है. एक स्वघोषित दूरदर्शी ने किस तरह आने वाली दूसरी लहर की गंभीरता के बारे में भारत और विदेशों के वैज्ञानिकों की कई चेतावनियों को अनदेखा किया? जवाब साफ है- उसने परवाह ही नहीं की.
मोदी ने दूसरी लहर की शुरुआत के बावजूद कुछ दिनों तक उत्तराखंड में कुंभ मेला होने दिया. उन्होंने पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों में जुटी भीड़ को देखकर गुरूर जताया. यह संकट से पहले नहीं बल्कि संकट के दौरान हुआ. वह कोविड और मौतों की हकीकत की अनदेखी नहीं कर रहे थे; वह उन सभाओं में दम भर रहे थे जो कोविड-19 संक्रमण के हालात को और बदतर बना रही थीं.
हालांकि मोदी इसके लिए आपराधिक दोषी हैं लेकिन हमे 2024 के आम चुनाव और हमारी जिंदगी में उससे पहले और बाद आने वाले हर चुनावों से ही संतुष्ट होना पड़ेगा. यही एकमात्र जरिया है जो उनके और उनके जैसे लोगों के लिए मायने रखता है और इसलिए इंसाफ पाने का यही एकमात्र तरीका है.
भव्यता की चकाचौंध, उस “अच्छे दिन” की उघड़ी परत के पीछे जो “हिंदू राष्ट्र” के साथ जुड़ कर आएगी उसमें भूल कर अपने चहेतों के हत्यारों को माफ नहीं कर देना है. आपने उस इनसान को सात साल दिए और उसके बदले में उसने आपको बस लाशों से पटी गलियां और नदियां दी. कल जब कोई और संकट आएगा तो वे दूसरा मंदिर बनाएंगे. लेकिन आपको याद रखना चाहिए कि मुर्दे मंदिरों में नहीं जाते. वे मुर्दे ही रहते हैं. हमारे घर और दिल खाली रहते हैं. खुद को और अधिक खालीपन से बचाने के लिए हमें याद रखना चाहिए. अपने मृतकों के सम्मान में, हमें याद रखना चाहिए.