बेदम होती स्वास्थ्य व्यवस्था : कोविड-19 संकट में तपेदिक के सबक

व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण पहने चिकित्सा कर्मचारी दिल्ली के एक अस्पताल में कोविड-19 से पीड़ित रोगी को देखते हुए. दानिश सिद्दीकी / रॉयटर
व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण पहने चिकित्सा कर्मचारी दिल्ली के एक अस्पताल में कोविड-19 से पीड़ित रोगी को देखते हुए. दानिश सिद्दीकी / रॉयटर

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दिसंबर 2019 में डॉ. आनंदे वुहान से आने वाली खबरों पर व्याकुलता के साथ नजरें जमाए हुए थे. चीन के शहरों में सार्स जैसा एक रहस्यमय वायरस फैल रहा था. उस समय अपने डॉक्टर मित्रों के साथ होने वाली चर्चा को याद करते हुए आनंदे ने मुझे बताया, “मैंने सुना कि वह वायुजनित बीमारी थी. हम सुन रहे थे कि रोगियों में खांसी, बुखार आदि जैसे ही लक्षण हैं.”

आनंदे की चिंता ने तब दहशत का रूप ले लिया जब फरवरी के आसपास उन्होंने चीन से आने वाले वीडियो देखे जिनमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को कोविड-19 से मरते दिखाया गया था . “मैंने सोचा कि वुहान एक बड़ा शहर है लेकिन आबादी के घनत्व के एतबार से मुंबई उससे बड़ा है. अगर ऐसा कुछ हमारे यहां होता है तो क्या होगा”?

वुहान की आबादी एक करोड़ 11 लाख है जबकि उससे छोटे भूभाग पर मुंबई की आबादी एक करोड़ 84 लाख है और मुंबई तो पहले से ही तपेदिक जैसी विभिन्न संक्रामक, वायुजनित सांस की बीमारियों के लिए बदनाम है.

यह समझने के किसी भी प्रयास की शुरुआत कि महामारी के प्रति भारत की प्रतिक्रिया इस बिंदु तक कैसे पहुंची, शुरुआत देश और दुनिया के सबसे अधिक भीड़ वाले शहरों में से एक मुंबई से होनी चाहिए. आनंदे मुंबई के दक्षिण-पूर्वी छोर पर स्थित शिवड़ी टीबी अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक हैं. यह विशाल परिसर तपेदिक के खिलाफ वैश्विक संघर्ष की विशाल रणभूमि में से एक है. इसमें कर्मचारियों के आवासीय परिसर हैं और यह महानगर के अंदर बसा एक चिकित्सा नगर है. जब मैं पिछली बार 2018 में तपेदिक पर अपनी किताब के लिए आनंदे का साक्षात्कार करने आई थी तब उन्होंने कहा था कि वह रोगियों की ‘सुनामी’ का सामना कर रहे हैं. एक व्यंग्यपूर्ण, लगभग कड़वा मजाक, बात आनंदे दोहराना पसंद करते है कि “अगर टीबी एक धर्म होता, तो शिवड़ी उसका मक्का होता”. हकीकत यह है कि मुंबई अब भारत के कोविड-19 के अधिकेंद्रों में से एक है और आनंदे इसे कतई संयोग नहीं मानते.

डॉ. ललित आनंदे शिवड़ी टीबी अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक हैं. उनका कहना है, "अगर टीबी एक धर्म होता, तो शिवड़ी उसका मक्का होता." कारवां के लिए प्रार्थना सिंह

आनंदे एक मृदु भाषी डॉक्टर हैं जिसकी कामना हर मरीज करता है. यानी एक ऐसा ड़ॉक्टर जो सुई के दर्द से ध्यान भटकाने के लिए चुटकुला सुनाता है. वह छोट-छोटे वाक्यों में तेज गति से बात करते हैं और ऐसा व्यक्ति होने का भाव मिलता है जिसने बहुत कुछ देखा है. जब मैंने पहली बार उनका साक्षात्कार किया तो उन्होंने मुझे चेताया था कि वह “आक्रमक तरीके से बात करते हैं. लेकिन उनके ऐसा करने की वजह है.”

उन्होंने मुझे बताया, “हर सुबह जब मैं काम पर आता हूं, तो मुझे अपने सहयोगियों को “गुड मॉर्निंग” कहकर अभिवादन करने का सुख नहीं मिलता है. मुझे अपने कार्यालय पहुंचने के लिए छह लाशों से गुजरना पड़ता है. किसी-किसी दिन मैं लाशों को उठाने में मदद भी करता हूं.” जब मैंने उनसे पूछा कि ऐसे लोगों के बारे में वह क्या कहेंगे जो उनके वक्तव्य को हद से ज्यादा भय उत्पन्न करने वाला मान सकते हैं. उन्होंने तपेदिक रोगियों पर एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध के स्तर का उल्लेख करते हुए कहा कि वास्तव में “हम उस अवस्था को पार कर चुके है जहां हमें चिंतित होना चाहिए कि बुरी खबर विनम्रतापूर्वक नहीं दी गई. यहां से हमारी आबादी बहुत तेजी से घटेगी”.

कोविड-19 के बारे में सुनने के बाद आनंदे की फौरी चिंता अपने तपेदिक रोगियों के लिए थी. उन्होंने कहा, “भारत तपेदिक रोगियों की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है, मुंबई ऐसी जगह है जहां सबसे अधिक टीबी के मरीज रहते हैं. वह भूमि के उस संकरे विस्तार को लेकर खासतौर से परेशान थे जिसे वह “सबसे अधिक आबादी वाले देश के अधिकतम आबादी वाले नगर की सबसे ज्यादा घनी आबादी वाला भाग” कहते हैं. वह उस विस्तार की ओर संकेत कर रहे थे जो एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी से शुरू होकर मानखुर्द, गोवंडी, घाटकोपर, कुर्ला और भांडुप तक पूर्वी मुंबई में अरब सागर के साथ-साथ फैली हुई घनी आबादी है. उस विस्तार के निवासियों के बारे में उन्होंने कहा, “वे पहले ही फेफड़ों के आघात से ग्रस्त हैं. वे प्रतिरोध क्षमता के संकट के साथ जी रहे हैं. कसी हुई आबादी में रहने वाले वे मेहनतकश लोग हैं जिन्हें इस शहर में काम की तलाश में आने बाद तपेदिक संक्रमण लग गया.

मार्च के शुरू से आनंदे और उनके सहयोगी उनका पहला कोविड-19 रोगी लाने के लिए हर दिन एम्बूलेंस का उत्सुकता से जाइंतजार कर रहे थे. शिवड़ी के कर्मचारियों ने संक्रमित होने के बारे में चिंता व्यक्त करना आरंभ कर दिया था. आनंदे याद करते हुए कहते हैं, “इसने एचआईवी के शुरुआती दिनों की मेरी याद ताजा कर दी”. यहां तक कि कोविड-19 के प्रसार को रोकने की कोशिश में मार्च में राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बावजूद उनके स्टाफ को अस्पताल पहुंचने के लिए शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों से होकर गुजरना पड़ता था. “वास्तव में, काम पर आने के प्रयास में संक्रमित होने को लेकर उनकी चिंता जायज थी”.

आनंदे ने मान लिया था कि नोवेल या नवीन कोरोनावायरस संक्रमण के फैलने की व्यापक शुरुआत उनके तपेदिक रोगियों में संक्रमण होने से होगी. फिर, मानो इस वायरस की घात लगाकर अचानक हमले जैसी घटना में एक ही वार्ड में काम करने वाले उनके पांच कर्मचारी एक दिन जांच में पॉजिटिव पाए गए. यह 21 अप्रैल की बात थी.

आनंदे ने मुझे स्काइप पर बताया, “चूंकि यह टीबी अस्पताल था इसलिए खांसने और छींकने में शिष्टाचार बरतने जैसे नियमों का पालन पहले से ही किया जा रहा था, लेकिन छह फीट की दूरी, पीपीई किट आदि संक्रमण नियंत्रण नियम नए (न्यू नॉर्मल) थे. दो घंटे में हमने आइसोलेश वार्ड तैयार किया. चूंकि मेरे कर्मचारी अपने घर जाने और परिजन को संक्रमित करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे इसलिए एक पुराने भवन को क्वारंटीन केंद्र में बदल दिया गया. रातों रात बिजली की आपूर्ति, अतिरिक्त कंबल और तकिया जुटाना, कर्मचारियों के रहने-खाने और उनके इलाज की व्यवस्था करनी थी. “हमें ब्रश और मंजन से शुरू करके अन्य सभी चीज़ें जुटानी थी. और यह सब मेरे अस्पताल में हो रहा था जो किसी भी तरह कोविड केंद्र नहीं था”.

अस्पताल अभी तक कोविड-19 केंद्र के बतौर नामित नहीं था लेकिन उसी समय से कंटेनमेंट ज़ोन बन गया था. आनंदे परचून का सामान खरीदने के अतिरिक्त चार महीने तक परिसर से बाहर नहीं गए. अस्पताल चौबीस घंटे चल रहा था. हर स्तर के सांस की तकलीफ वाले मरीज आना शुरू हो गए थे.

आनंदे ने कहा, “हमें दूसरे अस्पतालों से निर्दिष्ट रोगी मिलना शुरू हो गए जहां मरीज़ों को टीबी बताई गई थी और इलाज शुरू कर दिया गया था. जब वे यहां आए तो हमने महसूस किया कि यह टीबी बिल्कुल नहीं थी”. टीवी और कोविड-19 के लक्षण काफी हद तक एक ही जैसे होते हैं.

जूलाई के अंत तक शिवड़ी में 120 कोविड-19 के रोगियों का उपचार किया गया था जिसमें 56 अस्पताल के कर्मचारी थे. दो कर्मचारियों और 11 रोगियों की मौत हुई. आनंदे ने इसके परेशान कर देने वाले स्वरूप को महसूस करना शुरू कर दिया था. उनके रोगी उनकी सक्रियता की तुलना में ज्यादा तेज़ी से मर रहे थे. “पहले मेरे रोगी मुझे 48 घंटे का समय दे रहे थे, फिर यह घट कर 36 घंटा हो गया, उसके बाद 24 घंटे के अंदर मरने लगे. अब यह अवधि और छोटी हैः वे 12 घंटे में मर जाते हैं. हमने पहले इस जैसी कोई चीज नहीं देखी. हमें किसी को बचाने का समय नहीं मिलता था”.

इससे पहले 2018 में आनंदे ने तपेदिक कीटाणुओं के बारे में इस तरह बात की थी जैस लोग आमतौर से अपने मानव प्रतिवादियों के बारे में करते हैं. उन्होंने कहा, “यह तीव्रतम कीटाणुओं में सबसे फुर्तीला है. सभी सूक्ष्म जीवों का बादशाह, माहिर परिवर्तनकारी है. यह आपको तत्काल नहीं मारता. यह धीरे-धीरे मारता है, यातनापूर्ण तरीके से”.

तब उन्हें पता नहीं था कि दो साल में इस प्राचीन जीवाणु को नए वायरस के रूप में अचूक साथी मिल जाएगा जो दुनिया को घुटनों के बल ला देगा.

इतिहास के हर काल में सरकारों ने महामारियों का प्रयोग अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने और असहमति को कुचलने के लिए किया है. जब से कोविड-19 की शुरुआत हुई है हंगरी, तुर्की, फिलीपीन्स, चीन, रूस और अन्य जगहों पर स्वास्थ्य आपातकाल का प्रयोग अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है. भारत में भी सरकार ने अपने आपको असाधारण पुलिसिया शक्ति दे दी है और महामारी नियंत्रण के बजाए महामारी का जवाब मूल रूप से कानून व्यवस्था के मुद्दे के तौर पर देने का चयन किया है.

टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज में आपदा अध्ययन की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. पीहू परदेशी ने मुझे बताया, “जनवरी के महीने में ऐसा लगाता था कि यह विदेशी समस्या है. भारत के अंदर केरल में केवल तीन मामले थे”. अपने सहयोगियों के साथ चर्चा का स्मरण करते हुए कि कोविड-19 के पहले मामले केरल राज्य में ही क्यों रिपोर्ट किए गए थे, उन्होंने कहा, “हम तुरंत समझ गए कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे पहले से ही सतर्क तरीके से जांच कर रहे थे, उस राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा अच्छा था और उन्होंने हवाई अड्डों पर स्कैनर लगा दिए थे”.

परदेशी और आनंदे जैसे स्वास्थ्य विशेषज्ञ बहुत ज्यादा चिंतित हो गए, देश में सरकारी मनोदशा उल्लासी थी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीकी राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रम्प के फरवरी में दो दिवसीय दौरे की मेजबानी में व्यस्त थे. ट्रम्प पहले मोदी के गृह राज्य गुजरात गए, फिर दिल्ली पहुंचने से पहले ताजमहल देखने गए. ट्रम्प के सम्मान में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में होने वाले उत्सव से ठीक कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हिंसा फूट पड़ी थी. मुसलमानों को लक्ष्य बना कर मारा जा रहा था जबकि पुलिस चुपचाप देख रही थी. हिंसा नागरिकता (संशोधन) विधेयक के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतिशोध थी जो प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी नागरिकों के पंजीयन के साथ भारतीय मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव के लिए जमीन तैयार करती है.

महामरी आने में अब भी समय था लेकिन आज हमें मालूम है कि फरवरी से मोदी सरकार के लिये फैसलों ने कोरोनावायरस की चिकित्सीय आपातकाल में आर्थिक और मानवीय संकट भी जोड़ दिया था. नागरिक अशांति और महामारी के मिले-जुले रूप ने भारत के सामाजिक ताने-बाने की कलई खोल दी है. 30 जनवरी को जब कोरोनावायरस की पहली बार भारत की सीमा में सेंधमारी का पता चला था, इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए था कि सामान्य रूप से महामारी के दो हमराही - भूख और कलंक या स्टिमा भी साथ होंगे.

28 मार्च को देशव्यापी तालाबंदी के चौथे दिन लोग अपने गृह राज्यों में लौटने की कोशिश करते हुए. राज के राज / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस

परदेशी ने स्मरण किया, “उस बिंदु पर हमें मालूम नहीं था कि यह दिल्ली या मुंबई में फैल रहा है. मुंबई में पहले केस की जानकारी 11 मार्च को मिली जब दो लोगों की जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आई. अब भी किसी को कोरोनावायरस की चिंता नहीं थी. भारतीय अर्थव्यवस्था और देश में उड़ानें सामान्य रूप से चल रही थीं. मुंबई में कुछ केस थे लेकिन उनमें से सभी निशानदेही लायक और “आयातित” थे. रोगी ने संक्रमण के साथ देश में यात्रा की थी. कोई स्थानीय प्रकोप नहीं था. परदेशी ने कहा, “हमें मालूम था कि इन हवाई अड्डों पर व्यवस्था मकड़ी के जाल जैसी भेद्य थी, क्वरंटीन की कोई व्यवस्था नहीं थी और उस समय मेरी बातचीत का बिंदु यह था कि किस तरह यह अमीरों की बीमारी है. ”. लेकिन यह धारणा कुछ हफ्तों के भीतर बदल गई जब धारावी ने अपना पहला पॉजिटिव केस दर्ज कराया.

13 मार्च तक सरकार की आधिकारिक दिशा यह थी कि कोविड-19 कोई स्वास्थ्य आपातकाल नहीं है. हालांकि, भारत के स्वास्थ्य कर्मी देश की धीमी गति से सिर उठाती भयावह हालत के प्रति जागरूक हो रहे थे. भारत आवश्यक चिकित्सीय आपूर्तियों के भंडारण में नाकाम रहा था. ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से जारी चेतावनियों के बावजूद था कि वैश्विक आपर्ति की कड़ी टूट जाने की संभावना के लिए तैयार रहने की जरूरत है. 19 मार्च तक, जब तक मोदी प्रशासन ने अंतिम रूप से मास्क, गाउन और दस्तानों जैसे व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों के घरेलू उत्पादों के निर्यात पर प्रतिबंध नहीं लगा दिया, भारतीय निर्माता अत्यंत महत्वपूर्ण सुरक्षा उपकरण उन देशों को निर्यात करते रहे जो उनका भंडार कर रहे थे. उसी दिन, मोदी ने 22 मार्च को “जनता कर्फ्यु” का आह्वान करने के लिए राष्ट्र के नाम भाषण दिया. उन्होंने भारतवासियों से अपनी बालकनियों से स्वास्थ्य कर्मियों का उत्साहवर्धन ठीक उसी तरह से करने के लिए कहा जिस तरह लोग इटली और न्यू यॉर्क में कर रहे थे. चार घंटे से कम समय की सूचना पर कर्फ्यु दुनिया के सबसे क्रूर कोविड-19 लॉक डाउन का पूर्वाभ्यास बन गया.

बिना किसी योजना के 130 करोड़ भारतीयों को घरों में कैद रखने के सरकार के निर्णय ने अनर्थकारी मंदी की रफ्तार को बढ़ा दिया, बिना किसी सुरक्षा छाते के दसों लाख प्रवासी मजदूर शहरों में फंस गए और आवश्यक सामानों की आपूर्ति को लेकर व्यापक भ्रम की स्थिति बन गई. प्रवासी मजदूर, प्रतिरोधक संकट वाले रोगी और समाज के हाशिए पर मौजूद कम आय वाले परिवारों ने, जो पहले से मौत शिकार हो रहे थे, खुद को फंसा हुआ पाया. भारत के गरीबों और वंचितों को मार्च के महीने से पहुंचने वाला मानसिक आघात उसी तरह के भयंकर उथल-पुथल के समान था जो उन्होंने विभाजन के समय झेला था.

एक परिवार पैदल ही दिल्ली से अपने घर मध्य प्रदेश वापस लौटने की कोशिश करता हुआ, जो भी सामान साथ ले जाया जा सकता था, साथ बांध लिया. ईशान तन्खा

लॉकडाउन लागू होने के फौरन बाद कोविड-19 के अतिरिक्तअन्य बीमारियों का इलाज करवा रहे बहुत से रोगियों की दवाएं खत्म हो गयीं और चिकित्सा सेवाओं तक पहुंच नहीं बन पाई. निजी अस्पतालों ने बाह्य रोगी विभाग या ओपीडी और आपातकालीन सेवाएं बंद कर दीं, गर्भवती महिलाओं, कैंसर के रोगियों और डायलेसिस की जरूरत वाले मरीजों को वापस कर दिया. घबराहट और अव्यवस्था ने किसी को नहीं बख्शा. नागरिक मूलभूत भोजन आपूर्ति के लिए संघर्षरत थे तो तभी अति संवेदनशील स्वास्थ्य अल्पसंख्यकों में से एक - तपेदिक के रोगियों- के लिए समानांतर चिकित्सीय विभीषिका सामने आने लगी थी.

तपेदिक एक प्राचीन रोग है. रोगियों के रक्तहीनता के कारण पीले पड़ जाने से कभी भयानक ‘श्वेत महामारी’ के नाम से प्रसिद्ध बीमारी तपेदकि ने सत्तर हजार साल पहले से इंसानों को हड़पना शुरू कर दिया था. यह बैक्टीरिया इंसानों के साथ रहने के लिए विकसित हुआ है. गुरदे के तपेदिक का दर्ज सबसे प्राचीन मामला 2800 साल पुरानी मिस्र की ममी में है.

तपेदिक के बारे में तीन मिथक बहुत पहले से चले आ रहे हैं : यह केवल एक अंग ‘फेफड़े’ की बीमारी है; अमीर लोग इससे मुक्त हैं,यह गरीबी की बीमारी है और इसका इलाज आसान है.

27 फरवरी को जला दी गई एक मस्जिद के अंदर खड़ा एक लड़का. दिल्ली हिंसा में मुसलमानों को लक्षित हत्याओं का सामना करना पड़ा जबकि पुलिस ने उनकी सुरक्षा नहीं की. अल्ताफ कादरी / एपी फोटो

सभी तीनों मान्यताएं खतरनाक हद तक गुमराह करने वाली हैं. कैंसर की तरह तपेदिक रीढ़, मस्तिष्क अस्थि मज्जा (बोनमैरो) समेत शरीर के किसी भी भाग पर हमला कर सकता है. वायुजनित संक्रामक बीमारी से हर व्यक्ति को खतरा होता है इसलिए तपेदिक केवल गरीब को पीड़ित नहीं करता. सन 2000 में मुंबई निवासी, बॉलीवुड के प्रसिद्ध महानायक अमिताभ बच्चन को उनके मशहूर टेलीवीजन शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के आरंभ से पहले रीढ़ के तपेदिक से ग्रसित पाया गया था. साध्य रोग होने के बावजूद कैंसर के लिए कीमोथेरापी की तरह इसके उपचार के दुष्प्रभाव बहुत अधिक हैं और भारत में करीब एक चौथाई टीबी के रोगी अपनी सुनने की क्षमता से वंचित हो जाते हैं. खासकर मुंबई जैसे नगर में औषध प्रतिरोधी टीबी के नए रोगियों का उपचार और कठिन होता चला जा रहा है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1993 में तपेदिक को वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किया. एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं जिनमें लगभग चार हजार प्रतिदिन के हिसाब से एक साल में 1 लाख 20 हजार लोगों की मौत हो जाती है. सतर्क आंकलन के मुताबिक 28 लाख तपेदिक ग्रस्त लोग भारत में रहते हैं. भारत के अति भीड़भाड़ वाले महानगरों में तपेदिक अब भी हमारे समय की सबसे घातक संक्रामक बीमारी है.

अनीमिया रोगी का रंग पीला पड़ते जाने और धीरे-धीरे खत्म होते जाने के चलते तपेदिक को कभी सफेद प्लेग के रूप में जाना जाता था. एसएसपीएल / गैटी इमेजिस

टीबी आसानी से फैलने वाला रोग है. सक्रिय तपेदिक के मरीज द्वारा खारिज की गई एक नन्हीं सी गीली बूंद किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित करने के लिए काफी है. भारत की कसी हुई आबादी वाले शहरों में, जहां छींकने और खांसने की शिष्टता सामान्य बात नहीं है, औषध प्रतिरोधी टीबी का धमाका इतना गंभीर है कि भारत के प्रमुख वक्ष रोग विशेषज्ञ डॉ. जरीर एफ उदवाड़िया ने इस बीमारी को “पंखों वाले इबोला” का नाम दिया है. सक्रिय तपेदिक वाला एक व्यक्ति साल भर में दस से पंद्रह अन्य व्यक्तियों को संक्रमित कर सकता है.

1980 के दशक में जब एचआईवी नया था, इसने टीबी से ध्यान अपनी ओर खींच लिया था. अब नोवेल कोरोनावायरस वही कर रहा है. इसने एचआईवी और टीबी सहित सभी अन्य वैश्विक स्वास्थ्य हस्तक्षेप कार्यक्रमों पर ग्रहण लगा दिया है.

इतिहास में थोड़े समय के लिए, 1940 से 1960 के दशक के बीच, ऐसा लगता था कि तपेदिक के खिलाफ जंग जीती जा सकती थी. यह उस समय की बात है जब एंटीबायोटिक की खोज हुई थी जिसके नतीजे में बड़ी संख्या में दवाओं की खोज और अनुसंधान से इस बीमारी से लड़ने की आशा बंधी थी. आधुनिक औषधि की तमाम उपलब्धियों में तपेदिक के सफल इलाज का मानवता पर सबसे बड़ा प्रभाव था. मैकगिल विश्वविद्यालय, मोन्ट्रियल में वैश्विक स्वास्थ्य के निदेशक डॉ. मधुकर पाई ने मुझे बताया, “हमें विश्वास हो चला था कि हमारे पास इसे नियंत्रित करने का उपकरण था और फिर सब कुछ टूट कर बिखर गया”.

डॉ. पाई सार्वजनिक स्वास्थ्य इतिहास की ऐतिहासिक घटना ‘ऐड्स महामारी’ की ओर संकेत कर रहे थे. यह सार्वजनिक स्वास्थ्य समुदाय के लिए येशु के उत्तराधिकार जैसा क्षण था जहां बहुत मामूली कोष के साथ विज्ञान हत्यारे वायरस के खिलाफ खड़ा था, डॉक्टर पूरी तरह समझते नहीं थे और व्यापक मानव-भय और बीमारी के दुष्प्रभाव के मिश्रण ने प्रथम समूहों में से एक, समलैंगिक पुरुषों, को तहस-नहस कर दिया. 1980 के दशक तक दुनिया नए हत्यारे एचआईवी के बारे में, जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट कर देता था, शीघ्रता से समझने को विवश थी.

जब मैंने आनंदे से शिवड़ी अस्पताल के कार्यालय में मुलाकात की उन्होंने न्यू यॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टॉवर पर आतंकी हमले की तस्वीरों के भंडार की अपने कंप्यूटर पर एक प्रस्तुति दिखाई. उन्होंने पहले टॉवर पर यात्री विमान धमाके की ओर संकेत करते हुए कहा, “पहला विमान एचआईवी महामारी था जिसने हमारी प्रतिरोधक क्षमता घटा दी. दूसरा विमान टीबी महामारी है. सामरिक शब्दावली के प्रति अपनी रुचि दर्शाते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका है, न्यूक्लियर बम पहले ही फट चुका है, लेकिन लोग ध्यान नहीं दे रहे हैं”.

अगले कुछ दशकों तक एचआईवी और टीबी ने कुशल जोड़ी (टैग टीम) की तरह काम किया. सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में उन्होंने “अभिशप्त युगल” का गुण-सूचक- नाम अर्जित किया और लाखों लोगों की मौत का कारण बने. 1999 तक दुनिया भर में एचआईवी पॉजिटिव से होने वाली 25 लाख मौतों के 30 प्रतिशत के लिए टीबी ज़िम्मेदार थी. खुद में जानलेवा होने के बावजूद दो दशक बाद भी एचआईवी रोगियों की मौत का सबसे बड़ा कारण टीबी बनी हुई है.

1980 के दशक में जब एचआईवी नया था, इसने टीबी से ध्यान अपनी ओर खींच लिया था. अब नोवेल कोरोनावायरस वही कर रहा है. इसने एचआईवी और टीबी सहित सभी अन्य वैश्विक स्वास्थ्य हस्तक्षेप कार्यक्रमों पर ग्रहण लगा दिया है. स्वास्थ्य समुदाय में इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य के “कोविडाइजेशन” के नाम से जाना जाने लगा है. पाई के अनुसार, तपेदिक का उपचार इससे सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है.

मार्च के महीने में जब महामारी का वैश्विक अधिकेंद्र यूरोप और संयुक्त राज्य था, पाई को चिंता थी कि इसने अमीर देशों की मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली में तबाही मचा दी थी तो विकासशील देशों में यह क्या करेगा. मार्च के मध्य में पाई ने फोर्ब्स में लिखा, “कोविड-19 महामारी अब भारत और दक्षिण अफ्रीकी जैसे देशों में बढ़ना शुरू हो गई है”. अभी भारत में राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन नहीं लगाया गया था. उन्होंने चेतावनी दी कि पहले ही गरीबी, कुपोषण और प्रतिरोध दमनात्मक अवस्था वाली बड़ी आबादी के देशों को “टीबी के रोगियों और उत्तरजीवियों की कोविड-19 के जोखिम से सुरक्षा” के लिए हर तरह की सावधानी बरतनी चाहिए”.

यह दोनों बीमारियां नई जोड़ी बन गई हैं. तपेदिक और कोविड-19 दोनों मूल रूप से फेफड़ों पर हमला करती हैं और पोषक की प्रतिरोधक क्षमता में हस्तक्षेप करती हैं. दोनों अति संक्रामक और वायुजनित हैं, मुख्य रूप से करीबी संपर्क से फैलती हैं और दोनों सूखी खांसी, बुखार और सांस की दिक्कत जैसे समान लक्षणों का कारण बन सकती हैं.

जैसे ही लॉकडाउन लागू किया गया बहुत से तपेदिक रोगियों की उपचार तक पहुंच बाधित हो गई और देखभाल के लिए डॉक्टरों से नहीं मिल सके. जांच और रोगनिदान प्रणाली, जो नए मामलों की पहचान के लिए महत्वपूर्ण है, अचानक ठप पड़ गई. उपचार रहित, प्रायः रोगनिदान से वंचित रोगी छोटे घरों में बंद हो गए जो परिवार वालों के लिए अप्रत्याशित रूप से संक्रमण क्षेत्र बन गए. आनंदे ने मुझे बताया, “जिनके पास मेरा फोन नंबर था सभी ने मुझे फोन करना शुरू कर दिया. कभी रात में तीन बजे, कभी दुःस्वप्न से जागने के बाद.”

आनंदे ने शुरू से ही कोरोनावायरस के बारे में सार्वजनिक बातचीत में एक अलग और आग्रहपूर्ण स्वर महसूस किया. उन्होंने कहा कि इस तरह की अनुकूलता टीबी को कभी हासिल नहीं हुई. उन्होंने कहा, “गत तीस सालों से टीबी के रोगियों का इलाज करते हुए जो कुछ मेंने देखा वह वास्तव में यही है. लेकिन इस बार लोग उन चीजों से चिंतित और भयभीत थे जिसकी वे कभी चिंता नहीं करते थे”. टीबी के रोगी बुनियादी ढांचा, खांसने की शिष्टता का महत्व, इससे जुड़े कलंक जैसे उन्हीं मुद्दों पर अपनी आवाज उठाते रहे हैं”. वही मुद्दे उठाए जाते थे लेकिन यह अधिकतर गरीबों को प्रभावित करते थे इसलिए ज्यादा चिंता नहीं होती थी, आनंदे ने अपनी बात जारी रखी, “कोविड से अमीर लोग संक्रमित होने लगे और हर तरफ हलचल भी है”.

अन्य टीबी विशेषज्ञों ने भी इस फर्क को दुख के साथ महसूस किया. स्टॉप टीबी पार्टनरशिप की प्रबंधक सचिव डॉ. लूसिका डिटियू ने अप्रैल में एक वेबिनार में कहा, “हम सभी ने टीबी के साथ लंबा सफर तय किया है. संक्रामक रोग होने के बावजूद, प्रतिदिन चार हजार लोगों की मौत का कारण होने के बावजूद, हमें नब्बे सालों से अधिक समय में भी वैक्सीन नहीं मिल पाई? और अब यह बीमारी है जो एक सौ पचीस दिनों से जानी जाती है और हमारे पास वैक्सीन बनाने वाले सौ आवेदक हैं. हम अधिक गौर किए जाने और कोष दिए जाने की राह पर थे लेकिन अब हमें नई वास्तविकता के साथ जीना है जिसमें कोविड एक इमरजेंसी है. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि टीबी हमारी पहली प्राथमिकता है”.

पत्रकारों ने इतिहास के इस क्षण को शब्दों में बांधने के लिए “अभूतपूर्व” शब्द का प्रयोग किया है- आंशिक रूप से यह बताने के लिए कि हमने पहले इस तरह का अनुभव कभी नहीं किया और किसी हद तक दहला देने वाली इन घटनाओं को समेटने के लिए हमारे पास सामूहिक रूप से शब्द खत्म हो गए हैं.

फिर भी कोरोनावायरस धावा बोलने और हमारी स्वास्थ्य क्षमताओं को पूरी तरह पराजित करने में सफल रहा क्योंकि भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट दशकों की नजरअंदाजी के फलस्वरूप निर्मित हुआ है. असुविधाजनक आंकड़ों को छुपाने से लेकर गरीब विरोधी शहरी आवास योजनाओं तक एक के बाद दूसरी आने वाली सरकारों ने तपेदिक से निबटने के जो उदाहरण स्थापित किए हैं उसने जंग शुरू होने से पहले ही कोविड-19 से लड़ने की देश की क्षमता को बुरी तरह संकटग्रस्त कर दिया. अगर हमने कभी भी लोगों को तपेदिक से बचाने को प्राथमिकता दी होती, जिसकी वह हकदार थी, तो आज हमारे लिए बेहतर अवसर होता.

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शिवड़ी अस्पताल से थोड़ी दूरी पर मुंबई के दक्षिण पूर्वी छोर पर स्‍थित नटवर पारेख परिसर की सर्वाधिक चौड़ाई तीन सौ मीटर है. सन 2008 में जब इसका उदघाटन किया गया था तो “गंदी बस्तियों” के विकास में सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर शेखी बघारी गई थी. यह अनाधिकारिक चालों को समाप्त कर उनके निवासियों को बेहतर घरों में ले जाने का अभियान था. सीधी और सीमेंट की बनी संकरी गलियां माचिस के डिब्बी के आकार के 4800 आवास इकाइयों को 59 इमारतों में बांटती है. इनमें सभी इमारतें सात माले की हैं और यह क्रमबद्ध ढेर मात्र तीन मीटर के फासले से एक दूसरे से अलग है.

बारिश नहीं भी हो रही है तब भी बेहतर है कि छत्री के साथ वहां जाया जाए. ऊपर के मालों पर रहने वालों की आदत है खिड़की से कूड़ा और पानी फेंकने की. बरसात के महीनों में परिसर की गलियां नाले के पानी से भरी रहती हैं. निर्माण का घनत्व यथार्थ पर आवरण डालता है- जब आप संकरी गलियों से ऊपर की तरफ देखें तो इमारतें असंभव रूप से ऊपर तक खिंची हुई दिखाई देती है. नीचे के मालों पर धूप नहीं पहुंचती, वे निरंतर अंधेरे में रहते हैं. इसका एक प्रतिकूल लाभ यह है कि इन मालों पर ठसाठस भरे परिवार शिफ्टों में सो सकते हैं.

चिकित्सीय सहायता समूह ‘डॉक्टर्स फॉर यू’ (डीएफवाई) का नटवर पारेख परिसर में एक छोटे से कार्यालय में मुख्यालय है. डीएफवाई का ज्यादातर काम शहर की सबसे घनी आबादी वाले पूर्वी मुंबई इलाके पर केंद्रित है जहां सत्तर प्रतिशत से अधिक निवासी झुग्गियों में रहते हैं. पूर्वी मुंबई को एक और अवांछनीय गौरव प्राप्त है : यहां तपेदिक के औषध प्रतिरोधी लोगों की सबसे घनी आबादी है. यह परिसर मुंबई के उसी विस्तार का भाग है जिसको लेकर आनंदे बहुत चिंतित थे.

2010 में जब डीएफवाई नटवर पारेख परिसर में आया तो दस लोगों की टीम के काम करने के लिए पर्याप्त जगह बनाने हेतु तीन आवासीय इकाइयों को मिलाया गया. इस संगठन की स्थापना मूल रूप से एक स्वस्थ्य केंद्र के तौर पर हुई थी, मातृ-शिशु स्वास्थ्य में टीकाकरण और हस्तक्षेप जैसी मूलभूत सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त थी. डीएफवाई के संस्थापक डॉ. रविकांत सिंह ने मुझे बताया कि संगठन ने “शीघ्र ही अधिक से अधिक टीबी रोगियों को देखना शुरू कर दिया और उसने प्रत्यक्ष निगरानी उपचार सेवा (DOTS) केंद्र आरंभ करने की अनुमति ली” जहां तपेदिक के मरीज इस बीमारी के प्रमाणिक उपचार ‘प्रत्यक्ष निगरानी उपचार’ के प्रतिदिन कोर्स के लिए आते हैं. “वहां से यह तेज हो गया.”

सन 2017 तक, करीब सात साल के काम के बाद डीएफवाई के डॉक्टरों ने पूर्वी मुंबई की गंदी बस्तियों में तपेदिक की घटनाओं में कोई कमी नहीं देखी. टीबी के आण्विक जीव विज्ञान विषेशज्ञ और टिस के प्रोफेसर परदेशी ने गत वर्ष अप्रैल में संगठन के कार्यालय में मुझे बताया, “हम रोगियों के निवास संबंधी जानकारी के साथ विस्तृत रजिस्टर बना रहे थे. हमारे सामने उभर कर यह बात आई कि वहां कोई अदभुत चीज सक्रिय थी”. अहम बात यह थी कि ऊंची इमारतों में से कुछ में अन्य की तुलना में अधिक टीबी रोगी थे.

सिंह को याद आया कि 2017 के आरंभ में उन्होंने अपने स्टाफ से “रोगियों का इमारतवार नक्शा बनाने को कहा”. उन लोगों ने पास-पड़ोस का नक्शा बनाया, डीओटीएस पंजयन की जांच की और प्रत्येक इमारत के आगे बिंदु लगाना शुरू कर दिया- इसमें रहने वाले हर टीबी रोगी के लिए एक बिंदु. सिंह ने कहा, “सब एक साथ धक से रह गए”.

परदेशी ने मुझे दिखाने के लिए एक मोटी सी किताब निकाली जो डीएफवाई के टीबी अनुसंधान का संकलन था. उस किताब में उन्होंने मुझे “ट्रिगर फोटो” दिखाई. फौरन ही इससे अंदाजा होता कि गंदी बस्तियों में अवांछित चीजें कैसे पहुंच जाती हैं. इमारतें मधुमक्खी के छत्ते के समान घने उभार जैसी लगती हैं. आप 59 इमारतों की छतों के ऊपरी भाग के पास लाल रंग की लकीर देख सकते हैं. प्रत्येक लकीर के सामने डीएफवाई के अनुसंधानकर्ताओं ने हर इमारत में रहने वाले टीबी रोगियों की गिन्ती दर्शाई थी. अधिक भीड़वाले निचले मालों पर बिंदुओं का घनत्व बढ़ता गया.

59 इमारतों के नीचे वाले चार मालों पर अधिकांश परिवारों में कम से कम एक तपेदिक रोगी था. इमारत संख्या 10 में रहेने वाले प्रत्येक परिवार में कम से कम एक व्यक्ति औषध प्रतिरोधी टीबी से ग्रसित था. भारत के लिए भी यह चौंका देने वाला अनुसंधान था. यह 51 ऐसे पड़ोसियों के पाए जाने के बराबर था जिनमें सभी दुर्लभ कैंसर से पीड़ित हों.

अगले कुछ दिनों तक परदेशी ने अपनी मातृ संस्था भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान के सिविल इंजीनियरिंग विभाग से संपर्क किया. उन्होंने यह समझने के लिए मदद मांगी कि क्या परिसर की इमारतें स्वंय अचंभित कर देने वाली टीबी रोगियों की सघनता का सामयिक कारक हो सकती थीं. फोटो ने अन्वेषण परियोजना के लिए प्रेरित किया- डीएफवाई के डॉक्टर, आईआईटी मुंबई के शिल्पकार और मुंबई मेट्रोपोलिटन रीजन इनवायरंमेंट इम्प्रूवमेंट सोसाइटी या एमएमआर-ईआईएस ने मिलकर पूर्वी मुंबई की तीन गंदी बस्तियों, नटवर पारेख परिसर, लल्लूभाई परिसर और पीएमजी कॉलोनी, की पुनर्विकास परियोजनाओं का अध्ययन किया. जैसा कि वे जल्द ही पुष्टि करेंगे कि यह मुंबई में, भारत में और संभवतः दुनिया में औषध प्रतिरोधी टीबी का विनाश स्थल था.

उन्नीसवीं शताब्दी में जब मुंबई भारत की वित्तीय राजधानी बनकर उभरा, अवसर की तलाश में प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में यहां आए. शहर ने “मायानगरी” की उपाधि अर्जित की. इस शहर में “गरीबी से अमीरी” की उम्मीद की कहानियां तेजी से फैलीं. कालांतर में भारत के सबसे धनी अंबानी परिवार उस कहानी का प्रतीक बन गया. अंबानी परिवार कुछ समय के लिए मुंबई के भीड़ से भरे भूलेश्वर क्षेत्र की एक गुमनाम गंदी बस्ती की पांच माले वाली चाल में रहा था.

औद्योगिक क्रांति, जिसने उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहास की दिशा बदल दी थी, को मुंबई के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी थी. इस युग-निर्धारण विचार ने पश्चिमी यूरोप में जड़ जमाया और शीघ्र ही दुनिया की शक्ल बदल दी. यह ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ आधुनिक समाज के मंदिर कहे जाने वाले कारखानों में काम पाने के लिए कामगारों के आकस्मिक पलायन का कारण बना. बंदरगाह शहर मुंबई. जिसने ब्रितानवी साम्राज्य को संभालने में बहुत बड़ा योगदान दिया था, उससे भिन्न नहीं था.

मुंबई के गरीबों ने, जिनमें बहुत से लोग काम की तलाश में शहर आए थे, पाया कि मनहूस घर उनका इंतजार कर रहे हैं. ये लोग यहां ठसाठस भरे हैं, शौचालय, फर्श और ठहरी हुई हवा में जीते हैं. टीबी के पनपने के लिए यह पूरी तरह माकूल है. राजेश वोरा / दिनोदिया फोटो

शहरों में पहुंचने के बाद कामगारों को पता चला कि वे अविश्वसनीय रूप से दयनीय घरों में रहने वाले हैं. अन्य विकल्प न होने के कारण, शौचालय, फर्श और थमी हुई हवा साझा करते हुए, वे उसी भी­ड़ में समा गए. महानगरों की जिन परिस्थितियों में आधुनिक अर्थव्यस्थाओं को बढ़ने और फलने फूलने का अवसर मिलता है वही टीबी के फैलाव के लिए भी आदर्श स्थिति होती है.

मुंबई ने नवीनता और उद्यमिता का पोषण किया और परिणाम स्वरूप चकित कर देने वाली अभूतपूर्व रफ्तार से शहरीकरण का साक्षी बना. प्रवासी मजदूर इस आशा से मुंबई आए कि उनकी जाति, लिंग या आर्थिक पृष्ठिभूमि मायने नहीं रखेगी और अंततः किस्मत उनका साथ देगी. शहर की झुग्गियों में रहने को मुंबई में अमीर बनने की राह में मात्र एक बाधा पथ के तौर पर देखा जाता था. इसने शहर को एक और उपाधि ‘स्लमबाई’ दी.

झुग्गियां ऐसी गैर कानूनी बस्तियां हैं जिनके निवासियों के पास जमीन का कानूनी अधिकार नहीं होता. यह शहर 1 करोड़ 84 लाख लोगों का घर है जिसकी आबादी का घनत्व इक्कीस हजार प्रति वर्ग किलोमीटर है. जब सरकार ने 1956 में मुंबई की आबादी का पहला अधिकारिक सर्वे करवाया था उस समय इसकी 8 प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती थी. 2011 तक यह संख्या 41.3 प्रतिशत हो गई और अब मुंबई के कुल नागरिकों का 50 प्रतिशत तक है और 2397 झुग्गी समूहों में फैली हुई है.

गरीबी, दयनीय प्रतिरोधक क्षमता और बड़े परिवार के मिले-जुले संकट पर यही संख्या आवरण डाल देती है-महाराष्ट्र आवासीय योजना के अनपेक्षित परिणामों ने स्थिति और दयनीय बना दी. 1950 और 1960 के दशक में राज्य सरकार की आरंभिक प्रतिक्रिया झुग्गियों की सफाई की थी- झोपड़ियों पर बुलडोजर चलवाओ और झुग्गीवासियों को रियायती किराए के घरों में बसा दो. आवासीय जगह की कमी के कारण यह योजना कारगर नहीं हो पाई.

अगले दो दशकों तक सरकार ने मुंबई की बढ़ती हुई झुग्गी समस्या के प्रति अधिक उदारवादी रुख अपनाया. उन्होंने इसे “झुग्गी उन्नयन” का नाम दिया. सरकार ने झुग्गीवासियों की सहकारी आवास समितियों को भूमि की पट्टेदारी हस्तानांतरित कर दिया. इसने इन बस्तियों में रहने वालों को पानी, शौचालय, बिजली, स्ट्रीट लाइट और बुनियादी स्वास्थ्य सेवा व शिक्षा जैसी मूलभूत सेवाएं भी उपलब्ध करायीं. हालांकि, कार्य योजनाएं सीमित स्तर की थीं और झुग्गी के विस्तार को रोक नहीं पाईं.

1990 के दशक तक स्पष्ट हो गया था कि झुग्गी सफाई और उन्नयन दोनों रणनीतियां विफल हो चुकी थीं. 1995 में महाराष्ट्र सरकार एक नई योजना ‘झुग्गी पुनर्विकास’ ले आई. 1997 में झुग्गी पुनर्विकास प्राधिकरण बनाया गया, मुंबई विकासशील दुनिया का पहला शहर था जिसने गंभीर होते रियल स्टेट संकट के लिए मुक्त बाजार समाधान अपनाया.

नई योजना के अंतर्गत निजी विकासक झुग्गी की भूमि सरकार से बाजार मूल्य के 25 प्रतिशत पर खरीद सकते थे- अगर वे जमीन खाली करने और पुनर्वास हेतु राजी 70 प्रतिशत रहवासियों की सहमति प्राप्त कर लें तो. एक बार ऐसा हो जाने पर प्राइवेट बिल्डर खाली भूमि वाले भाग का नटवर पारेख जैसी वरटिकल घनी बस्तियां बनाने के लिए इस्तेमाल करते थे. बिल्डर झुग्गी की बाकी जमीन पर गगनचुंबी इमारतें बनाकर बाजार भाव पर उनको बेच देते थे. योजना प्राइवेट बिल्डरों के लिए उपहार थी. मुंबई की प्रमुख रियल स्टेट परियोजनाओं में से एक दक्षिणी मुंबई में जुड़वां टावरों वाला विलासितापूर्ण गगनचुंबी आवासीय परिसर ‘इम्पेरियल टावर्स’ पूर्व झुग्गी भूमि पर बना है. यह भारत की सबसे ऊंची और सबसे मंहगी रियल स्टेट परियोजनाओं में से एक है, प्रत्येक चार हजार वर्ग फुट से विशाल, सहस्वामित्व के साथ जिसकी कीमत 30 लाखडॉलर से 50 लाख डॉलर के बीच है.

2016 में टिस ने झुग्गी पुनर्विकास के 20 वर्ष पूरा होने को ध्यान में रखते हुए एक कार्यशाला आयोजित किया. पुनर्विकास के लिए शुरू हुई 1524 परियोजनाओं में मुश्किल से दस पूरी हुई थीं. योजना के पहले छह सालों में आठ लाख इकाइयों के आवंटन के वादे के विपरीत “दो दशक से अधिक समय में मात्र एक लाख पचास हजार परिवारों का पुनर्वास किया गया था. जिन दीर्घकाय झग्गियों को खत्म करना मकसद था वे अब भी मुंबई का बहुत बड़ा भाग हैं”.

सिंह ने मुझे बताया, “आवासीय पृथकीकरण मात्र संयोग से नहीं हुआ. यह सरकार की नीति थी. आय के फर्क के आधार पर लोगों को अगल करने की व्यवस्था राज्य प्रायोजित है”.

साफ हवा के लिए ऊंचाई से और ऊपर की ओर बढ़ते हुए मुंबई के समृद्ध निवासियों ने भी ऊर्ध्‍वमुखी निर्माण किए है, लेकिन हर टावर से दिखाई देते नालीदार लोहे के छप्परों वाली झोपड़ियों के विस्तार वाले गरीब इलाकों से बचने का कोई रास्ता नहीं था. पुलित्जर विजेता पत्रकार कैथरीन बू को उद्धृत करें तो इसने मुंबई को ऐसे विचित्र शहर का रूप दिया जहां “मनोहर आधुनिकताओं के बीच खाली जगहों पर गांवों को ऊपर से गिरा दिया गया था”.

उन्नीसवीं सदी में मुंबई ने नवाचार और उद्यमशीलता को बढ़ावा दिया जिसके बाद अभूतपूर्व पैमाने पर चकाचौंध कर देने वाला शहरीकरण हुआ. बेट्टमन / गैटी इमेजिस

अब यह अकाट्य प्रमाण है कि भारत की तपेदिक महामारी इसके शहरी नियोजन निर्णयों के कारण आत्म निर्भर हो गई. जब कोई छींटों को अवरुद्ध किए बिना छींकता है तो हर बार वायुजनित संक्रमण रास्ते में मिल जाता है. अमीर हो या गरीब मुंबई की गंदी हवा के लिए सभी लोग बराबर हैं. धुएं से भरी, देश की समृद्धि संचालित वित्तीय राजधानी कमजो फेफड़े वाले नागरिकों से भरा नगर बन चुका है.

2018 में डीएफवाई ने नटवर पारेख परिसर, लल्लू परिसर और पीएमजी कॉलोनी, जो मोटेतौर पर सत्तर हजार लोगों का सामूहिक घर है, में वरटिकल गंदी बस्तियों पर शोध प्रकाशित किया. कितने घरों से आकाश दर्शन होते हैं और कितनों तक सूर्य प्रकाश सीधे पहुंचता है, शोधकर्ताओं ने इसका लेखा-जोखा तैयार किया. उन्होंने घरों में सूरज की रोशनी और वेंटीलेशन का भी अध्ययन किया. डीएफवाई इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एक के बाद दूसरी इमारतों की घनी परतें “संवर्धन माध्यम⁄ टीबी बैक्टीरिया की प्रजनन भूमि” का काम करती हैं. इसका इमारतों की ऊंचाई और उनमें टीबी रोगियों की व्यापकता के बीच संबंध है. निचले मालों पर रहने वाले परिवारों में तपेदिक के मामले अधिक हैं क्योंकि सूर्य प्रकाश और ताजा हवा तक उनकी पहुंच कम है. यह रोग पुरूषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है क्योंकि उनमें अधिकांश घर तक सीमित रहती हैं.

सिंह ने मुझे बताया, “झुग्गी पुनर्विकास के नाम पर हमने गरीबों को ऐसी कॉलोनियों में पटक दिया है जहां रहना दुःस्वप्न जैसा है. अंदर के बीस प्रतिशत से कम भाग में प्राकृतिक प्रकाश मिलता है”. “मुंबई में समृद्ध लोगों के बच्चों को खेलने के लिए पार्क, स्कूल जाने और उनकी कारों के लिए जगह की जरूरत पड़ती है”, जबकि नटवर पारेख परिसर के लिए कहा जाय तो “मनोरंजन का एक मात्र स्थान पुलिस स्टेशन है”.

मुंबई की सबसे प्रमुख रियल एस्टेट परियोजनाओं में से एक, इम्पीरियल टावर्स, दक्षिणी मुंबई में एक ट्विन-टॉवर लक्जरी आवासीय गगनचुंबी परिसर है, जो पूर्व स्लम भूमि पर बनाया गया है. पाल पिल्लई / ब्लूमबर्ग / गैटी इमेजिस

सिंह की संस्था ने मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकरण, जो महाराष्ट्र सरकार की आधारभूत संरचना इकाई है, को एक आलोचनात्मक रिपोर्ट भेजी. इसमें झुग्गी पुनर्वास परियोजनाओं में प्रकाश और हवा से संबंधित अलग अलग भवन कानून के भेदभाव को खत्म करने की मांग की गई. सिंह ने मुझे बताया कि “केवल ऊंची इमारतें बनाना पर्याप्त नहीं होता. हमें सुनिश्चित करना होता है कि यह इमारतें अपने रहने वालों के विकास के अनुकूल हैं. अगर हम इसे सम्बोधित नहीं करते हैं तो टीबी का उपचार, डीओटीएस के कार्यक्रम आदि का कोई मतलब नहीं है. हम रोगियों के इलाज का ढोंग कर रहे हैं लेकिन इस महामारी का कारण बनने वाले बुनियादी मुद्दों को सम्बोधित नहीं कर रहे हैं. सिंह को 2025 तक भारत के टीबी खत्म करने के घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने की उम्मीद नहीं है. उन्होंने कहा, “हम इसे अगले पचास सालों में भी नियंत्रित नहीं कर पाएंगें”.

रहवासी शहरी आवासीय योजना को जानने और इस अन्याय को महसूस करने की जरूरत नहीं समझते हैं. जब वे बीमार पड़ते हैं तो एक साधारण व्याख्या होती है, “यहां का हवा पानी खराब है”. परिसर के ठीक बीच वाली इमारतों में रहने वालों को सबसे अधिक दुष्प्रभाव झेलना पड़ता है.

हालांकि कोई आसान समाधान नहीं है, डीएफवाई ने चॉलों में निकास पंखे (इक्झास्ट पंखे) लगवाना शुरू कर दिए हैं. संगठन ने गरीबों के आवास के लिए भिन्न भवन नियमों को वापस लेने के लिए महाराष्ट्र सरकार को निवेदन प्रस्तुत किया है. सिंह के अनुसार महाराष्ट्र सरकार नई झुग्गी पुनर्विकास परियोजनाओ के अंतर्गत नटवर पारेख परिसर जैसी चॉलों में इमारतों के बीच की वर्तमान तीन मीटर दूरी को कम करके एक मीटर करने की योजना बना रही है. डीएफवाई के डॉक्टर इस योजना के बारे में बातचीत करने का दबाव बना रहे हैं.

परदेशी ने कहा, “जो कुछ बन गया, बन गया, हम अब उसे बदल नहीं सकते”. उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि नई पुनर्वास परियोजनाओं के निर्माण से पहले रिपोर्ट को ध्यान में रखा जाना चाहिए. “वास्तव में मंसूबा गलत है इसे देखने के लिए शोध की जरूरत नहीं है, आपको केवल आंखों की जरूरत है. प्राइवेट इमारतों के लिए सख्त कानून होने की वजह है”. पुनर्वास योजनाओं में “हम नियमों को निष्प्रभावी बना कर निजी निर्माताओं को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार की नीति के रूप में हम समृद्ध लोगों की तुलना में गरीबों के जीवन को उतना महत्व नहीं देते हैं. डीएफवाई ने तपेदिक को लक्ष्य कर के एक सघन अभियान चलाने की मांग का प्रस्ताव भी राज्य सरकार को दिया है”.

आनंदे ने मुझे बताया, “मुंबई की चॉलों में निर्मित और निर्दयी नीति द्वारा उपचार रहित छोड़ दिया गया प्रत्येक औषध प्रतिरोधी टीबी रोगी व्यवस्था की असफलता है. हमारी नाज़ी बस्तियों (झुग्गियों के लिए उनकी शब्दावली) में लोग अपने प्यारों को हर दिन खो रहे हैं”.

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1882 में जर्मनी के जीवाणु विज्ञानी रॉबर्ट कोच ने, बीमारी पैदा करने वाले रोगाणुओं के बारे में एक रेडिकल नया विचार पेश किया. “रोगाणु सिद्धांत” के नाम से जाने गए इस विचार ने इस समझ को विकसित किया कि इनफ्लूएंजा, चिकेनपॉक्स और निमोनिया जैसी संक्रामक बीमारियां सूक्ष्म जीवों- बैकटीरिया और वायरस- के कारण होती हैं. अभी तक, डॉक्टरों का मानना था कि बीमारी वंशानुगत, “सड़ांध” या दूषित हवा से होती है. इसके लिए इटालियन भाषा में मलआरिआ शब्द था.

कोच ने बैकटीरिया की पहचान ‘मयोबैकटेरियम ट्यूबरक्यूलोसिस’ के रूप में की जो आमतौर से ट्युबरकिल बैसिलस के नाम से प्रसिद्ध है. यही तपेदिक का कारण बनता है. अंततः एक बीमारी जिसने मानवता को हजारों साल से तंग कर रखा था उसे एक सदृश्य नाम मिला गया. ऐसा सूक्ष्म तकनीक में सुधार के कारण संभव हो पाया था जिसने पूर्व में अदृश्य बीमारी का कारण बनने वाले सूक्ष्म जीवों के संसार को चिकित्सकों की पड़ताल के लिए संभव बनाया.

इस हत्यारे की पहचान के बारे में जानकारी ने रोगियों की पीड़ा में और बढ़ोतरी कर दी. जब चिकित्सक समुदाय को “गंदगी के सिद्धांत” पर भरोसा था या वे समझते थे कि बीमारी वंशनुगत थी तब तक रोगियो को बहुत दोष नहीं दिया जाता था. अब रोगाणु सिद्धांत से व्यक्ति खतरा बन गया और आज तक उसे यह कलंक झेलना पड़ता है. चूंकि रोगी बीमारी को अपने पड़ोसियों से छुपाते थे इसलिए उसे नियंत्रित करने के लिए सरकार ने स्वंय को रोगी के निर्वासन या उन्हें जबरी क्वरंटीन जैसी अभूतपूर्व शक्ति दे दी. उन्होंने संक्रमण के फैलाव को सुगम बनाते हुए रोगियों के अलग बस्तियों में रहने के कानून बनाए.

जब सरकारें बीमारी को जबरन व्यवस्थित कर रही थीं, वैज्ञानिक, रोगाणुओं के संक्रमण के इलाज लिए दवाएं, एंटीबायोटिक्स बनाने के प्रयास मे व्यस्त थे.

20 नवंबर 1944 को पैट्रीसिया टी नामक एक 21 वर्षीय तपेदिक रोगी को नई एंटीबायोटिक, स्ट्रेप्टोमाइसीन, की पांच खुराक दी गई. प्रभाव त्वरित और कारगर था. उसके तपेदिक का सफल उपचार पाने वाली पहली रोगी बनने के बाद कुछ महीनों में अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. मानव इतिहास में पहली बार कोई उपचार मिला था. विज्ञान ने पुराने दुश्मन पर फतह पा ली. कम से कम डॉक्टर तो ऐसा ही सोच रहे थे.

बढ़ते संकट की सूचना के साथ डॉक्टरों को पता चला कि स्ट्रेप्टोमाइसीन से सफलतापूर्वक ठीक हो चुके रोगियों में कुछ महीनों के भीतर अक्सर रोगी फिर बीमार पड़ जाते थे. जैसे-जैसे इंसान बैक्टीरिया के बारे जानकारी प्राप्त कर रहा था, यह अपने पोषकों अर्थात ‘हमारे’ बारे में भी ज्ञान हासिल कर रहा था.

आरंभिक रोगियों का उपचार करते ही शोधकर्ताओं ने एक घातक दोष महसूस किया कि ह्रासमान प्रतिफल नियम काम कर रहा था यानी दवा का आप जितना अधिक प्रयोग करेंगे यह उतनी ही कम प्रभावी होती जाएगी. डॉक्टरों को पता चला कि स्ट्रेप्टोमाइसीन शरीर में टीबी के सभी रोगाणुओं को नष्ट नहीं करती थी. तपेदिक उन्मूलन में दिक्कत का एक कारण यह है कि रोगाणु रूप बदलने में माहिर है. इसकी अनुवांशिक सामग्री आसानी से बदल जाती है. आनंदे ने मुझे बताया, “जब स्ट्रेप्टोमाइसीन प्रयोग में लाई गई तो रोगाणु ने इसे अपने अनुकूल बना लिया. जो रोगाणु नहीं मरे वे और ताकतवर हो गए और औषध प्रतिरोधी बन गए”. जब हमने अपनी गोलियों को उन्नत किया तो दुश्मन ने अपनी बुलेट प्रूफ जैकेट में सुधार कर लिया.

1960 के दशक के उत्तरार्ध तक शस्त्रागार में दो अतिरिक्त दवाएं रिफांपीसीन और आइसोनियाजाइड का इजाफा हो गया. अधिकतम उपचार के साथ विचार यह था कि अलग अलग दवाओं से रोगाणु पर दो या तीन हमले किए जाएं ताकि पहले ही वार में इसका उन्मूलन सुनिश्चित किया जाए. अगर रिफांपीसीनम्पीसीन रोगाणु को नहीं मारती है तो आइसोनियाजाइड मारेगी. अगर दोनों असफल रहती हैं तो स्ट्रेप्टोमाइसीन काम पूरा कर देगी. उदवाडिया ने विस्तार से बताया, “रोगाणु एक से लड़ सकता था लेकिन दो से नहीं और निश्चित रूप से तीसरी औषधि से बिल्कुल नहीं. लेकिन हमें दवा सही तरीके से चलानी थी, कम या अधिक नहीं ताकि एंटीबायोटिक प्रतिरोध के विकास में सहायक न बने”.

इन मिश्रित दवाओं और बाद के कुछ इजाफे से तपेदिक के इलाज का नया युग शुरू हुआ. सही अर्थों में प्रभावी जन स्वास्थ्य उपाय संभव हो गए.

अब तक वैज्ञानिकों को निश्चित जानकारी हो चुकी थी कि संक्रमित व्यक्ति की खांसी और छींक के बाद रोगाणु वायु में घंटो रह सकता है. बार बार और लंबे समय तक संपर्क में रहने और उसी हवा में सांस लेने से स्वस्थ व्यक्ति संक्रमित हो सकता है. हालांकि शरीर के बाहर रोगाणु कमज़ोर होता था. यह सूर्य प्रकाश से मर सकता था और स्पर्श या अस्थिर संपर्क से नहीं फैलता था.

वैज्ञानिकों को पता चला कि स्वस्थ व्यक्ति संक्रमित होने के बावजूद लक्ष्ण विकसित हुए बिना अपने फेफड़ों में रोगाणुओं के साथ दशकों रह सकता था. विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की एक तिहाई आबादी के अंदर छुपी हुई टीबी है. शरीर के अंदर तपेदिक एक अविस्फोटित बम है जो पोषक के प्रतिरोध गंवाने की प्रतीक्षा कर रहा है.

तपेदिक की दवाओं का इतिहास रोगाणुओं के विकास के साथ गति बनाए रखने की विज्ञान की कहानी है. 1940 के दशक में वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि रोगियो में औषध प्रतिरोधी टीबी विकसित होने की संभावना थी. बाद के दशकों में यह अनुमान बार-बार प्रमाणित हुआ. औषध प्रतिरोधी नस्लों के उभार के साथ रोगाणु के नवीनतम बदलाव ने रोग को सामान्य तपेदिक से बिल्कुल अलग बना दिया है.

मोटे तोर पर अगर एक प्रकार की टीबी दो एंटीबायोटिक दवाओं का प्रतिरोध कर सकती है तो इसे बहु औषध प्रतिरोधी तपेदिक या एमडीआर-टीबी कहा जाता है. अगर चार दवाएं एक साथ इसका उन्मूलन नहीं कर सकती है तो इसे व्यापक औषध प्रतिरोधी तपेदिक या एक्सडीआर- टीबी कहते हैं. औषध प्रतिरोधी टीबी के लिए कीमोथेरापी दो साल तक चल सकती है और सामान्य औषध-सचेतन टीबी के इलाज की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक है.

1980 के दशक से, एचआईवी की प्रतिरोधविहीन दुनिया के बाद चिकित्सा समुदाय ने भारत में एंटीबायोटिकएंटीबायोटिक प्रतिरोधी दबाव में बढ़ौतरी को खतरे की सूचना के रूप में देखा. भारत ऐंटीबायोटिक्स का दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता है और यहां तक कि अक्सर वायरल बुखार के इलाज में इनके प्रयोग का प्रयास किया जाता है. भारतीयों निकायों में ऐंटीबायोटिक्स का अतिरेक कई रोगाणुओं के लिए प्रयोग की गुंजाइश प्रस्तुत करते हैं और तपेदिक जैसी बीमारियों के लिए औषध प्रतिरोधी दबाव उत्पन्न करते हैं.

आनंदे और उदवाडिया जैसे डॉक्टर अनुभव कर रहे हैं कि एंटीबायोटिक्स का प्रभाव टीबी के मरीज़ों पर कम होता जा रहा है; उन्हें भय है कि दवा निष्प्रभावी होने की तरफ भाग रही हैं. बहु और व्यापक औषध प्रतिरोधी टीबी पूरे उफान पर है, तपेदिक 21वीं शताब्दी की ऐसी बीमारी बन गई है जिसके खिलाफ लड़ाई का अधिकांश भाग 19वीं शताब्दी के उपकरणों से लड़ा जा रहा है.

गत वर्षों में उदवाडिया ने अपनी सार्थक बातचीत और काम की नैतिकता के लिए ख्याति अर्जित की है. वह दुनिया के अग्रणी टीबी विशेषज्ञों में से एक हैं. वह दयालु स्वभाव के हैं लेकिन तेज गति से बात करते हैं. अक्सर उनके पीछे एक छोटी फौज चलती है जिनमें स्थानिक डॉक्टर, रोगियों के परिजन और कभी कभी टिप्पणी लिखने वाले प्रत्रकार शामिल होते हैं. मुंबई के हिंदुजा अस्पताल, जहां वह काम करते हैं, में भीड़ होने की वजह से उनसे मिलने का समय ले पाना किसी छोटे चमत्कार जैसा है.

बर्लिन में 1950 के दशक में एक बच्चे के तंत्रिका तंत्र में तपेदिक का निदान करते हुए. इंटरफोटो/ एल्मी फोटो

औषध प्रतिरोधी टीबी की गंभीरता के बारे में सपाट बातचीत ने उन्हें अधिकारियों के साथ संकट में डाल दिया है. 2012 में उन्होंने अपने चार मरीज़ों में तपेदिक के एक नए और असाध्य बदलाव का वर्णन करते हुए एक अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में शोधपत्र लिखा. इसकी भयावहता को कलमबंद करने के लिए उन्होंने “संपूर्ण औषध प्रतिरोधी” या टीडीआर शब्द का प्रयोग किया. शोधकर्ताओं द्वारा 2009 में ईरान में 15 रोगियों पर अध्ययन के आधार इस शब्दावली का पहली बार प्रयोग किया गया था. उदवाडिया के शोधपत्र में चेतावनी दी गई थी कि ऐसी कोई दवा है ही नहीं जिससे इन उभरती हुई विकृतिययों का उपचार किया जा सके.

उदवाडिया ने मुझे बताया कि भारत सरकार “एक टन ईंटों के बोझ की तरह हमारे ऊपर आ गईं. इनकी पहली प्रतिक्रिया इनकार की थी. दूसरी प्रतिक्रिया स्वरूप वे हमारे नमूने ले गए”. सरकार ने हिंदुजा अस्पताल पर “संपूर्ण औषध प्रतिरोधी -टीडीआर” शब्द का प्रयोग कर के भय फैलाने का आरोप लगाया. स्वास्थ्य मंत्रालय ने चेताया कि हिंदुजा का प्रयोगशाला, निजी क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशालाओं में से एक होने के बावजूद, पर्याप्त गुण-संपन्न नहीं थी क्योंकि औषध प्रतिरोध के मूल्यांकन हेतु संवर्धन और संवेदनशीलता जांच के लिए इसके पास संशोधित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम से अधिकारिक मान्यता नहीं थी. आरएनटीसीपी का नाम बदल कर अब इसे राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम कर दिया गया है. देश की तपेदिक प्रतिक्रिया को संचालित करने के लिए यह सरकार की पहलकदमी है.

उदवाडिया के शोधपत्र और सरकार की प्रतिक्रिया ने अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा संगठनों का ध्यान आकर्षित. जब उन्होंने सवाल पूछना शुरू किया तो स्वास्थ मंत्रालय ने अपने परीक्षण करवाए. उदवाडिया ने कहा, “वे प्रति परीक्षण के लिए हमारी प्रयोगशालाओं से नमूने ले गए”. उन्होंने आगे कहा विवाद “तभी समाप्त हुआ जब उन्होंने अपनी केंद्रीय प्रयोगशाला में इसे प्रमाणित कर लिया, यह बिल्कुल हमारे विवरण के अनुरूप था”.

मैंने उनसे पूछा कि इस विवाद के बारे में क्या महसूस करते थे, उन्होंने कहा, “हो सकता है कि शब्दावली का चयन गलत रहा हो. हम ‘संपूर्ण औषध निरोधी’ इस आशय से नहीं कह रहे थे कि ‘अगर रोगी उसे लेता है तो पूरी तरह विकृत हो जाता है’. नहीं, हम बस यह कह रहे थे कि हमारी मौजूदा दवाइयों में से कोई काम नहीं करती थीं. हमने प्रतिरोध के एक स्वरूप की व्याख्या की थी. हम कोई रोग निदान की तस्वीर नहीं बना रहे थे या यह नहीं कह रहे थे कि नतीजा कितना बुरा होगा”.

2012 में, जिस साल उदवाडिया ने अपना शोधपत्र प्रकाशित किया था, भारत सरकार ने निजी डॉक्टरों को हर मामले की जानकारी सरकार को देने के लिए बाध्य करते हुए तपेदिक को सूचनीय रोग घोषित कर दिया. 2018 तक भारत का टीबी संकट सरकार के लिए भी अखंडनीय स्तर तक पहुंच गया. इसने एक गजट अधिसूचना जारी कर तपेदिक मामलों को रिपोर्ट करने में विफल रहने को दंडनीय अपराध बना दिया जिसमें गलती करने वाले डॉक्टरों को दो साल तक के जेल का प्रावधान था. यह कदम सतत विकास लक्ष्यों में निर्धारित 2030 की वैश्विक समय सीमा से पांच वर्ष पहले 2025 तक भारत में तपेदिक को खत्म करने की मोदी की प्रतिज्ञा के मद्देनजर था.

उदवाडिया ने मुझे बताया, “पहले मुझे आनंद का अनुभव हुआ करता था, अब गुस्सा आता है. छोटी प्राइवेट क्लीनिक, हर बार जब कोई नया मामला आता है, सरकार को सूचित करने के लिए फोन पर संपर्क नहीं करेगी”. वह उस आंकड़े के प्रति भी सावधान हैं जो सरकार जारी करती है. उदवाडिया ने कहा, “आप अच्छा प्रदर्शन करने वाले केंद्रों का औचक चयन नहीं कर सकते. इस प्रकार अक्सर देश में आंकड़ों को असंगत बना दिया जाता है.

अगस्त 2018 में उदवाडिया ने मुंबई में निजी दवाखाना चालकों का सर्वेक्षण करने का निर्णय लिया. उन्होंने मुझे बताया, “हमने धारावी में इलाज करने वाले 106 डॉक्टरों को अपनी बातचीत के लिए आमंत्रित किया. यह पूछते हुए डॉक्टरों को एक प्रश्नावली वितरित की गई कि पचास किलोग्राम वजन वाले एमडीआर टीबी रोगियों का इलाज आप कैसे करेंगे”. कैंसर की तरह तपेदिक में भी दवाओं की खूराक का निर्धारण रोगी के वजन से होता है.

उदवाडिया अचंभित रह गए जब 106 में से केवल तीन सही नुस्खे मिले. उन्होंने व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराते हुए कहा, “63 प्रकार के अलग अलग नुस्खे थे”. अधिकांश नुस्खे “केवल प्रतिरोध को बढ़ाने वाले थे”.

सितंबर 2018 में एक विस्तृत और बेहतर दस्तावेजी अध्ययन प्रकाशित हुआ जिसमें बताया गया था कि भारत के निजी डाँक्टर किस तरह से टीबी के रोगियों को निराश कर रहे थे. यह भी पाया गया कि वे व्यापक स्तर पर अपर्याप्त सेवा दे रहे थे. अध्ययन में कहा गया, “घटिया नुस्खा पद्धति एमडीआर-टीबी की महामारी को बढ़ावा देने का बड़ा कारण है. मुंबई की एक रिपोर्ट में दर्शाया गया है कुल एमडीआर- टीबी रोगियों में करीब दस प्रतिशत एक्सडीआर- टीबी के थे. एमडीआर- टीबी के रोगियों का वास्तविक स्तर उससे अधिक हो सकता है जो राष्ट्रीय आंकलन में दिखाया जा रहा है क्योंकि निजी क्षेत्र में चिन्हित रोगियों की जानकारी कभी नहीं मिल पाती है”. भारत में औषध प्रतिरोधी टीबी के मामलों में बढ़ोतरी प्रभावी दवाओं के अप्रभावी रूप से इस्तेमाल का नतीजा है.

इस धूमिल पृष्ठिभूमि के विपरीत, चालीस साल के अंतराल के बाद, दो नई तपेदिक रोधी दवाएं पिछले दशक में उपलब्ध हो पाईं जो उन रोगियों के लिए आशा का कारण बनीं जिनको पुराने उपचार से फायदा नहीं हो रहा था.

2012 में अमरीका के फूड एंड ड्रग प्रशासन ने फार्मास्युटिकल दिग्गज जॉनसन एंड जॉनसन को, विषाक्त इंजेक्शन के बदल के रूप में मुख से दी जाने वाली एंटीबायोटिकएंटीबायोटिक बीडाक्वीलीन के निर्माण की त्वरित अनुमति प्रदान की. अब तक रोगी इंजेक्शन लेने को विवश थे. दो साल बाद, जापानी कंपनी ओटसूका द्वारा अविष्कृत दूसरी एंटीबायोटिकएंटीबायोटिक डीलामेनिड को फेफड़े के तपेदिक वाले रोगियों में इस्तेमाल करने के लिए अनुमोदित कर दिया गया. डीलामेनिड को भी एफडीए से शीघ्रता से अनुमोदन प्राप्त हो गया. यह ऐसा कदम था जो स्वास्थ की अति आपात स्थिति, जैसे आज कोविड-19, के लिए सुरक्षित थी. भारत के राष्ट्रीय तपेदिक कार्यक्रम ने 2016 में बीडाक्वीन और 2017 में डीलामेनिड को अंतिम विकल्प के तौर पर “क्षति से बचाने के उपचार” के रूप में परिचित करवाया. दोनों दवाओं तक रिसाई के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय पूरी तरह से इनको बनाने वाली बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दान पर निर्भर था. यह ऐसा परिदृश्य था जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी दूसरी दवा के साथ नहीं देखा गया. जॉनसन एंड जॉनसन की एक मातहत कंपनी जान्ससेन, जिसके पास बीडाक्वीलीन का पेटेंट भी था, ने दो किस्तों में 20,000 खुराक दान किया. ओसटूका ने डीलामेनिड की 400 खूराक दान किया. इस गला घोटू आपूर्ति का मतलब था कि सरकार केवल रोगियों के एक छोटे से समूह को ही दवा उपलब्ध करा पाई.

दवा-प्रतिरोधी टीबी की गंभीरता के बारे में अपनी स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध टीबी विशेषज्ञ डॉ. जरीर उदवाड़िया को अधिकारियों ने परेशान किया है. कारवां के लिए प्रर्थना सिंह

बीडाक्वीलीन दान की पहली किस्त मात्र 10,000 खुराक थी. सरकार ने इसे तपेदिक के लिए नामित छः अस्पतालों के रोगियों को देना शुरू किया. दवा की उपयोगिता देखने के लिए यह एक प्रायोगिक परियोजना थी. निगरानी को आसान बनाने के लिए सरकार ने निर्देश दिया कि अस्पताल के पांच किलो मीटर के दायरे में रहने वाले रोगी इसके लिए योग्य माने जाएंगे. इसके बावजूद जो कोई इस दवा का इच्छुक था उसे भारत की शक्तिशाली नौकरशाही को संतुष्ट करना पड़ता था. दिसंबर 2016 में 18 वर्षीय पटना निवासी श्रेया त्रिपाठी ने बीडाक्वीलीन हासिल करने के प्रयास में विफल रहने के बाद सरकार को न्यायालय में घसीटा. एक्सडीआर- टीबी की रोगी त्रिपाठी को इस आधार पर बार-बार दवा देने से मना कर दिया गया था कि वह दिल्ली की निवासी नहीं थी. यहां तक कि वह राजधानी में पुनर्स्थापित हो गई लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले ने निवास नियम को खत्म कर दिया जिससे और रोगियो को बीडाक्वीलीन तक पहुंच में सहायता मिली.

जब तक किशोरी को दवा मिल पाती बीमारी ने उसे व्हील चेयर तक सीमित कर दिया था. लड़ाई उसका कीमती समय बर्बाद कर चुकी थी. वह अक्तूबर 2018 में मर गई. फिर भी मामले को मीडिया में व्यापक कवरेज मिलता रहा और इसने अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण प्राप्त किया. औषध प्रतिरोधी तपेदिक की भारतीय समस्या इतनी व्यापक हो चुकी थी कि इसे छुपाया नहीं जा सकता था.

2018 तक स्पष्ट हो गया था कि दोनों नई दवाएं औषध प्रतिरोधी रोगियों पर काम करती थीं और हजारों जीवन बचाए जा सकते थे. इसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को तपेदिक के लिए इलाज के दिशानिर्देश में नवीनीकरण के लिए प्रोत्साहित किया. फिर भी भारत ने अपनी नीति बदलने में समय लिया. सितंबर 2019 तक, देश इंजेक्शन मुक्त संपूर्ण मुख आहार नियम से तपेदिक के इलाज की तरफ बढ़ा. स्वास्थ्य मंत्रालय ने अंत में एमडीआर- टीबी रोगियों को बीडाक्वीलीन तक पहुंच की अनुमति प्रदान की.

स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि करीब एक लाख पचास हजार टीबी के औषघ प्रतिरोधी रोगियों को इस नई दवा की जरूरत थी. अप्रैल 2019 तक भारत को बीडाक्वीलीन के दान की दूसरी किस्त प्राप्त हुई और इसका कुल योग 20,000 खुराक पहुंच गया. ओटसुका की तरफ से और दान नहीं मिला इसलिए सरकार अब भी 400 डीलामेनिड खुराकों से काम चला रही है.

सूचना के अधिकार के तहत किए गए सवालों के जवाब में मंत्रालय ने जानकारी दी कि 2018 और 2019 में बीडाक्वीलीन से केवल 4,227 रोगियों का इलाज किया गया था. मीडिया रिपोर्टों से जाहिर हुआ कि इसी अवधि में डीलामेनिड की करीब दो सौ खुराकें दी गयी थीं. इससे भारत के एमडीआर- टीबी के रोगियों की बड़ी संख्या चिकित्सीय रूप से निराश्रित रह जाती हैं.

इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की पूर्व महानिदेशक और विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्तमान प्रधान वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने मार्च 2018 में भारत के लिए दोनों दवाओं की आवश्यक आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु कुछ कदमों की सिफारिश की थी. बीडाक्वीलीन और डीलामेनिड काफी महंगी हैं और पेटेंट द्वारा संरक्षित हैं. लेकिन राष्ट्रीय आपातकाल का मुकाबला करने के लिए अनिवार्य लाइसेंस के अंतर्गत भारत के पास स्वंय दवाएं बनाने का विकल्प है. स्वामीनाथन ने सरकार से तपेदिक को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने और उनके निर्माताओं को लाइसेंस जारी करने की मांग की.

भारतीय बौद्धिक संपदा के अधिवक्ता इस कानूनी उपाय के बारे में तर्क देते रहे हैं. अधिवक्ता आनंद ग्रोवर ने मुझे बताया, “सरकार जेनरिक निर्माताओं को लाइसेंस जारी कर सकती है. दवा भारत में ही बहुत कम लागत पर बनाई जा सकती है”.

भारत सरकार ने दवा कंपनियों को ऐसे किसी कदम से नाराज न करने का विकल्प चुना. इसके बजाए स्वास्थ्य मंत्रालय ने बहुराष्ट्रीय अधिशुल्क अदा करने के बाद बीडाक्वीलीन के घरेलू उत्पादन की अनुमति देने के लिए घरेलू निर्माताओं और जाँसन एंड जाँसन के बीच स्वैच्छिक लाइसंस का समझौता कराने का प्रयास किया है.

मेरे द्वारा दायर की गई एक आरटीआई के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय ने जून 2019 में बताया कि भारत की औषध नियंत्रक सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड्स ऑर्गनाइज़ेशन ने “भारत के अग्रणी निर्माताओं के साथ स्वैच्छिक लाइसेंसिंग के माध्यम से बीडाक्वीलीन के निर्माण की व्यवहारिकता पर चर्चा करने के लिए” एक विशेष बैठक आयोजित की थी. इस बैठक में जाँसन एंड जाँसन और ल्युपिन, मैकलियोड्स और हेटेरो जैसी भारतीय दवा कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे जिन्होंने “बताया कि उनके पास दवा बनाने की क्षमता और तकनीक मौजूद है”. जब मैंने इसके बाद एक अन्य आरटीआई आवेदन में बैठक का विवरण मांगा तो सीडीएससीओ का जवाब था कि जाँसन एंड जाँसन और ल्युपिन ने “आवेदक द्वारा मांगी गई सूचना⁄ रिकार्ड साझा न करने का निवेदन किया था”.

शिवड़ी अस्पताल में योग करते टीबी मरीज. विशाल परिसर जिसमें अस्पताल स्थित है, तपेदिक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के केंद्रों में से एक है. विकास खोट / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी ​इमेजिस

हालांकि, स्वास्थ्य मंत्रालय स्वैच्छिक लाइसेंस समझौता बातचीत को लेकर आशान्वित है जककि जाँसन एंड जाँसन इच्छुक प्रतीत नहीं होती थी. जूलाई 2019 में ईमेल द्वारा भेजे गए मेरे एक सवाल के जवाब में कंपनी के प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि वह किसी स्वैच्छिक लाइसेंस पर हस्ताक्षर नहीं करने जा रही थी. प्रवक्ता ने लिखा, “स्वैच्छिक लाइसेंस के प्रयास के बजाए, जाँसन एंड जाँसन रोगी की बीडाक्वीलीन तक पहुंच बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम पर आरएनटीसीपी के साथ, वहन योग्य और चिरस्थाई तरीकों पर मेहनत से काम कर रही है. बीडाक्वीलीन की भारत में वर्तमान और भविष्य में अनुमानित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमारे पास उपयुक्त निर्माण और आपूर्ति क्षमता मौजूद है”.

चूंकि बीडाक्वीलीन का दान कार्यक्रम 2019 में समाप्त हो गया था, इस बात की स्पष्टता नहीं थी कि भारत नई दवा किस प्रकार हासिल करेगा, तपेदिक के उपचार में उनके प्रयोग को बढ़ाने की बात ही अलग थी. दवा कंपनियों के बीच अधिकांश वार्ता बंद कमरों के पीछे हुई थी. बौद्धिक संपदा कानून की विशेषज्ञ लीना मेघानी ने मुझे बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनी का “स्वैच्छिक लाइसंस देने इनकार अनिवार्य लाइसंस की बुनियाद है. दवा की ऊंची कीमत के मुद्दे को सम्बोधित करते हुए, खासकर टीबी की सबसे महंगी दवा डीलमेनिड को, इसे अग्रसक्रियता से जारी किया जाना चाहिए”.

बिना दान के बीडाक्वीलीन की छः महीना इलाज की अवधि की लागत 900 डॉलर जबकि उसी अवधि के लिए डिलामेनिड की कीमत प्रति रोगी 1700 डॉलर हो सकती थी. औषध प्रतिरोधी टीबी वाले रोगियों को औसतन 18 महीने इलाज की अवधि के लिए दोनों दवाओं की जरूरत होती है जिसकी लागत प्रति रोगी पांच लाख रूपये से अधिक है. लिवरपूल विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता एंड्रिव हिल का आंकलन है कि छः महीने के लिए बीडाक्वीलीन का जेनरिक संस्करण 54 डॉलर से 96 डॉलर और डीलामेनिड का 24 डॉलर से 54 डॉलर के बीच बेचा जा सकता था.

तुलनात्मक स्तर की तपेदिक समस्या वाले दूसरे इकलौते देश दक्षिण अफ्रीका ने इस संकट को अधिक तीव्रता और सरलता से सुलझा लिया है. 2018 से इस देश में बीडाक्वीलीन और डीलामेनिड दोनों दवाइयां औषध प्रतिरोधी टीबी के रोगियों को दी जा रही हैं. इंजेक्शन से इलाज के विषाक्त दुष्प्रभावों को समाप्त कर टीबी की दवाओं को मुख आहार के रूप में देने वाला यह दुनिया का पहला ऐसा देश बना. रोगी मित्रवत आहार नियम बेहतर जुड़ाव के साथ पहले सफलता दिखा रहा है. दक्षिण अफ्रीका के डॉक्टरों को अंसभव निर्णय की चुनौती का सामना नहीं है जो भारत में उनके समकक्षों को है- अपर्याप्त दवा किस रोगी को दी जाए किसको नहीं इसके चयन की चुनौती.

2019 में हॉलैंड के एक गैर सरकारी संगठन ‘केएनसीवी तपेदिक फाउंडेशन’ के इस बीमारी के उन्मूलन के प्रति समर्पित डॉ. डगलस फ्रेजर वेयर्स ने भारत की औषध प्रतिरोधी तपेदिक नीति की समीक्षा किया. जेनरिक दवाओं की उपलब्धता में कमी और टीबी की औषधियों की आपूर्ति में रुकावट जैसी चीज़ों पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने भारतीय रोगियों के बीडाक्वीलीन जैसी नई और सुरक्षित पाने के रास्ते में एक और संभावित बाधा ‘भारतीय डॉक्टरों’ को भी चिन्हित किया. उन्होंने लिखा, “बीडीक्यु-नियंत्रित करने वाले मुख आहार उपचार के लिए नामांकित रोगियों का प्रतिशत इसके लिए पात्र लोगों से कम था और कुल मिलाकर इसका कारण स्पष्ट नहीं था हालांकि धारातल पर काम करने वाले कुछ समूहों ने देखा कि रोगियों के लिए नई दवा शुरू करने का निदानविदों द्वारा प्रतिरोध किया गया था”.

कुछ वर्षों से भारत के तपेदिक रोगी और उत्तरजीवी जीवन रक्षक उपचार तक पहुंच के लिए नौकरशाही, बीमारी और साथ साथ डॉक्टरों से मुकाबला करते रहे हैं. महामारी ने टीबी कार्यक्रम को विध्वंसकारी गेंद की तरह ज़ोर से पटक दिया.{4}

6 अप्रैल को तपेदिक सर्वाइवरों ने मोदी और स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को रोगियों की कमजोर स्थिति को इंगित करते हुए एक खुला पत्र लिखा. पत्र में कहा गया है, “टीबी प्रतिरोधक संकट की स्थिति की तरफ ले जाती है और यदि वे कोविड-19 के संपर्क में आते हैं तो सामान्य जनता की तुलना में उनके लिए उपचार की स्थिति और बदतर होने की आशंका होती है क्योंकि मूलरूप से दोनों बीमारियां फेफड़ों को प्रभावित करती हैं. टीबी से संबंधित सेवाएं गत दो महीनों में बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. दवा के प्रति संवेदनशील और औषध प्रतिरोधी दोनों तरह के टीबी रोगियों को दवाओं और नैदानिक परीक्षणों तक पहुंच में दिक्कतों का सामना करना पड़ा है”. सर्वाइवरों ने उपचार सेवाओं की तत्काल बहाली और लॉकडाउन के कारण अपने घरों में फंस गए सभी तपेदिक रोगियों तक दवा पहुंचाए जाने की मांग की.

पत्र का उत्तर नहीं दिया गया. हालांकि, एक महीना बाद 5 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय के तपेदिक विभाग के एक कर्मचारी का हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक नंदिता वेंकटेसन को ईमेल प्राप्त हुआ. नंदिता पत्रकार थीं और विषाक्त टीबी रोधी दवाओं के कारण अपनी श्रवण शक्ति खो देने के बाद एक्टिविस्ट बन गई हैं. यह निमंत्रण विभाग की तकनीकी समिति में भाग लेने और राष्ट्रीय तपेदिक नीति बनाने में सहायता करने लिए था.

अपने जवाब में वेंकटेसन ने दो और सर्वाइवर कार्यकर्ताओं, गणेश आचार्य और रिया लोबो, को शामिल किया. तीनों कार्यकर्ताओं ने विरोध स्वरूप सरकार के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया. उन्होंने लिखा, “रोगी कहीं और न जा कर हमारे पास हताश होकर मदद के लिए आ रहे हैं और निराशाजनक रूप से, आज की तारीख तक सरकार की तरफ से हमारे पूरे संवाद का कोई जवाब नहीं मिला है. उन्होंने साफ कर दिया कि वे सरकार के इस कदम को कागजी मानते हैं और उन्हें उसमें कोई रुचि नहीं है. वेंकटेसन के ईमेल में आगे कहा गया है, “जब तक कि समुदाय को गंभीरता से नहीं लिया जाता. जैसा कि हमने मुद्दा उठाया था, मुझे समितियों का हिस्सा बनने में कोई तर्क नहीं दिखाई देता. हम मात्र टिक बॉक्स नहीं हैं”.

लेकिन एक जगह स्वास्थ्य मंत्रालय ने भारत में बढ़ते संक्रामक रोग संकट को स्वीकार किया. अप्रैल में एक वेबीनार में लूसिका ने चिंता व्यक्त की कि तपेदिक का मुकाबला करने के लिए कोई टीका नहीं है जबकि कोविड-19 के कई टीके पहले ही बनने के करीब प्रतीत होते हैं. राष्ट्रीय तपेदिक कार्यक्रम की अगुवाई करने वाले सरकारी अधिकारी केएस सचदेव उनकी बात में हामी भरी जो एक दुर्लभ बात है.

तालाबंदी के दौरान एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी धारावी के निवासियों की जांच करते स्वास्थ्य कार्यकर्ता. रफीक मकबूल / एपी फोटो

स्वभाव से विनम्र मध्य आयु के सचदेव अपने कार्यालय से वेबिनार में शामिल हुए. सीधे तौर पर उन्होंने बैठक में विश्व के विशेषज्ञों को सूचित किया कि लॉकडाउन ने तपेदिक के उपचार समेत भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित किया है. उन्होंने कहा, “ हम रणनीति बना रहे हैं कि लॉकडाउन खुलने के बाद खोई हुई जमीन फिर कैसे हासिल की जाए. तपेदिक के कार्यक्रमों को नए कोविड वर्चस्व की वास्तविकता को अपनाने के लिए विवश किया गया था. सचदेव ने विस्तार से बताया, “राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम के अधिकांश अधिकारी, सलाहकार और क्षेत्र के कार्यकर्ता भी कोविड के प्रति प्रतिक्रिया जुटा रहे हैं”. यह जोड़ते हुए कि लॉक डाउन के कारण तपेदिक के नए रोगी अस्पताल पहुंचे हैं उन्होंने कहा, “नई सूचनाओं की कमी में यह परिलक्षित हो रहा है कि कुछ कमी आई है. हमने आशा भी की थी कि सूचनाओं में कुछ कमी आएगीं”.

तपेदिक कार्यक्रम को लगे अप्रत्याशित झटके रोग से निपटने की भारत की ऐतिहासिक त्रुटियों को बढ़ा रहे हैं. 2016 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की वार्षिक वैश्विक टीबी रिपोर्ट में एक उल्लेखनीय निष्कर्ष शामिल है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि वैश्विक तपेदिक महामारी “पिछले आंकलन से अधिक” थी और इसने रोग के वैश्विक बोझ के आंकलन के पहले के आंकड़े 61 लाख को संशोधित कर संक्रमितों की संख्या 1 करोड़ 4 लाख कर दी है. इतना बड़ा संशोधन भारत में 2000 से 2015 के बीच मामलों की बड़ी संख्या में कम सूचना देने के कारण किया गया था. 2014 में देश में कुल तपेदिक मामलों में केवल 56 प्रतिशत और 2015 में मात्र 59 प्रतिशत की ही सूचना दी गई थी. औषध प्रतिरोध पहले के अनुमान से अधिक बड़ा संकट था. विश्व स्वास्थ्य संगठन का आंकलन था कि दुनिया भर में औषध प्रतिरोधी टीबी मरीजों की संख्या 5 लाख से अधिक थी. इसकी करीब एक चौथाई संख्या भारत में है.

यह बहुत संकुचित अनुमान हैं. अपनी 2019 की रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत से मिले आंकड़े को यह कहते हुए मान लिया कि भारत ने केवल एक राज्य के सर्वेक्षण से निकाले गए आंकड़े जमा किए थे. जबकि 24 देशों ने तपेदिक की व्यापकता का सर्वेक्षण पूर्ण स्तर पर करवाए थे.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों को यकीन है कि कोविड-19 के दौरान तपेदिक की जांच में विलंब या जांच का न होना आने वाले महीनों में अस्पतालों में भरती होने और मृत्यु के बढ़ने का कारण बनेगा. पाई ने मुझे बताया कि उन्हें अगले वर्ष की रिपोर्ट की चिंता हैः “संख्या छप्पर फाड़ होगी”.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की तपेदिक कार्यक्रम की निदेशक डॉ. टेरिजा कसाइवा का अप्रैल में आंकलन था कि अगर नए टीबी के मामलों का पता लगने में तीन महीने में 25 प्रतिशत की कमी आती है तो तपेदिक संबंधित मौतें 13 प्रतिशत बढ़ जाएंगी और इस साल टीबी से होने वाली मौतों की संख्या 16 लाख 60 हजार तक पहुंच जाएगी. कसाइवा का तर्क है कि यह “टीबी को खत्म करने की रणनीति और लक्ष्य की ओर प्रगति को गंभीर झटका होगा”. अगर वैश्विक स्तर पर मामलों का पता करने में तीन महीने में 50 प्रतिशत तक कमी आती है तो मौतों की संख्या फिर से 2012 के स्तर 18 लाख 50 हजार तक बढ़ जाएगी.

वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा चर्चा का विषय रहे ऐसे बदतरीन परिदृश्य भारत में पहले ही सही साबित हो रहे हैं. कारवां ने रिपोर्ट प्रकाशित किया था कि टीबी के नए मामलों की पहचान में 70 प्रतिशत की कमी आई है. लॉकडाउन से पहले 25 फरवरी और 25 मार्च के बीच तपेदिक के सूचित मामले करीब दो लाख थे. 25 मार्च से 24 अप्रैल के बीच यह संख्या घट कर 57538 हो गई थी.

एक अनुमान के अनुसार दो महीने के लॉकडाउन में संसूचन की कमी के कारण 2020 और 2025 के बीच दुनिया भर में तपेदिक से होने वाली मौतें चार प्रतिशत के भयावह स्तर तक बढ़ जाएंगी जो 342000 अतिरिक्त मौतों के बराबर होगी. सबसे बदतर परिदृश्य मॉडल तीन महीना लॉकडाउन का है जिसके नतीजे में 16 प्रतिशत बृद्धि या 14 लाख अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं. इसका मतलब होगा कि 2025 तक तपेदिक उन्मूलन लक्ष्य से बहुत दूर यह संघर्ष कम से कम पांच से आठ साल पीछे चला गया है.

मोदी सरकार न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेपों में ऐतिहासिक गलतियों को और व्यापक कर रही है बल्कि स्वंय अपने वैज्ञानिक विरोधी और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों में संलिप्तता द्वारा संकट को और बढ़ा रही है. महामारी के बीच छह महीने बाद भी पिटती हुई सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की ओर अपना ध्यान आकर्षित करने के बजाए सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को अपनी प्राथमिकता बनाया लिया है जिसकी आधार शिला 5 अगस्त को धूमधाम से रखी जाएगी. यह जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने की पहली वर्षगांठ भी है. इस धार्मिक जुटाव की स्वीकृति प्रदान करने में सरकार ने अपने ही स्वास्थ्य निर्देशों की अनदेखी की है. समारोह से एक सप्ताह पहले, जिस पुजारी को समारोह की अध्यक्षता करनी थी वह और स्थल की निगरानी कर रहे कई पुलिस वालों की कोरोना जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आई.

चीन को पछाडकर भारत एशिया में महामारी का परिकेंद्र बन चुका है. भारत में कोविड-19 के मामले 15 लाख से अधिक हैं और संक्रमणों की संख्या के हिसाब दुनिया में तीसरे स्थान पर है. भारत के तपेदिक मरीजों की तकलीफ महामारी के कारण बढ़ गई है और अब उपचारात्मक उद्देश्य से उससे भी अधिक निस्सहाय हैं जितना वे छह महीना पहले थे.

आरंभ से ही, मोदी सरकार ने तथ्यों को छुपाकर, विशेषज्ञताओं को खारिज कर और ढोंग-पाखंड के उपचारों के प्रचार से महामारी का जवाब दिया है. मार्च में भारत ठप्प कर देने के एक दिन बाद मोदी ने कहा, “महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था, कोरोनावायरस का जो युद्ध पूरा देश लड़ रहा है उसमें 21 दिन लगेंगे”. इसी तरह के शब्दजाल का इस्तेमाल उस महामारी के प्रति भारतीय प्रतिक्रिया की पहचान बन गई है जिसने आजाद भारत के 73 सालों में अद्वितीय मानवीय संकट ला दिया है.

इनमें से कुछ भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए. हर संकट के मामले में- विमुद्रीकरण, वस्तु एंव सेवा कर, अनुच्छेद 370 का रद्दीरण, चीन के साथ गलवान घाटी में गतिरोध- मोदी सरकार ने एक जैसा तरीका अपनाया है. पहले, यह दिखावा करते हैं कि समस्या है ही नहीं. जब यह सामने आना शुरू होती है तो दिखावा करते हैं कि मोदी ने उस हल कर दिया. जब उसके विपरीत प्रमाण सामने लाए जाते हैं तो आरोप मीडिया पर लगा दिया जाता है.

जब अस्पतालों में लाशों के ढेर लगने लगे और भारत की सड़कों पर प्रवासी मजदूर मरना शुरू हो गए तब सरकार ने महामारी के उपाय करने के बजाए हैडलाइन मैनेजमेंट में अपनी ऊर्जा खर्च की. ‘राइट्स एंड रिस्क एनलसिस ग्रुप’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार ने 25 मार्च से 31 मई के बीच महामारी को की रोकथाम में सरकार की कमजोरियों को उजागर करने वाले 55 पत्रकारों को लक्ष्य बनाया.

दिल्ली के आईटीओ में एक कब्रिस्तान में शव. आनंदे जैसे डॉक्टर एक परेशान करने वाले पैटर्न की ओर इशारा करते हैं जो दिखाता है कि मरीज तेजी से मर रहे हैं. ईशान तन्खा

दो हजार साल पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, “देश में जिस चीज को सम्मान मिलेगा वही उपजेगी”. यह सरकारों, समुदायों, स्कूलों, परिवारों और व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है. भारत में छह साल से अधिक समय की नैतिक उदासीनता, बौद्धिक अविश्वास और विज्ञान के प्रति तिरस्कार ने वर्तमान कोविड-19 संकट को गढ़ा है.

महामारी के संबंध में अभी कुछ कहना जल्दबाजी है, लेकिन हम जानते हैं कि नोवेल कोरोनावायरस ने पुराने ट्युबरकिल बैसिलस को उसका आवश्यक प्रोत्साहन दे दिया है. आनंदे ने अपना कोविड-19 वार्ड, जो उन्होंने युद्ध स्तर पर दो घंटे में तैयार किया था, शिवड़ी के आरंभिक मामलों को देखने के लिए अस्पताल के अन्य भाग में स्थानांतरित कर दिया है ताकि अधिक से अधिक रोगियों को जगह मिल सके. उन्होंने मुझसे जुलाई में कहा, “मैं असहाय महसूस करता हूं कि मैं इन जिंदगियों को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सका”.

उन्होंने मुझसे बताया कि शिवड़ी में उनके कार्यालय तक जाने वाली सड़क मुर्दा घर को भी जाती है और इन दिनों उनके लिए यह बताया पाना मुश्किल है कि कौन सी सड़क कहां ले जाती है.

(अगस्त 2020 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद मसीउद्दीन संजरी ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)