लॉकडाउन के बाद ऐसे हों भारत के शहर

फ्रांसिस मास्कारेनासय/ रॉयटर्स

भारत के संदर्भ में यह कहना गलत नहीं होगा कि कोविड-19 एक शहरी बीमारी है. 4 मई तक भारत में पाए गए 42533 कोरोनावायरस पॉजिटिव लोगों में से अधिकांश शहरों में रहने वाले हैं. मुंबई में 8800 और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में इसके 4549 मामले हैं. तेलंगाना में कुल 1082 मामलों में 442 हैदराबाद में थे और तमिलनाडु के कुल 3023 मामलों में 1458 मामले तो केवल चेन्नई में थे. जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से ही शहरों को लेकर कई तरह की बातें हो रही हैं. शहरों में अर्थतंत्र ठप्प हो गया है और एक ही सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि क्या भारतीय शहर इस महामारी से बाहर निकल पाएंगे?

हमारा स्वास्थ्य और बीमारी का फैलाना बहुत हद तक हमारे रहन-सहन और हमारे शहरों के संचालन से जुड़ा है. अच्छी बात है कि शहर जिंदा रहने का हुनर जानते हैं. पहले भी बहुत से शहरों ने महामारी का प्रकोप ना केवल झेला है बल्कि प्रकोप के बाद वे समृद्ध भी हुए हैं. आधुनिक दवाओं के उभार से पहले अक्सर रोग के फैलाव को ढांचागत सुधारों, भवनों के बेहतर डिजाइन और भीडभाड़ कम कर शहरी वातावरण में बदलाव लाकर संबोधन किया जाता था.

लॉकडाउन के समय सरकार का टीके, शारीरिक दूरी और आपातकालीन स्वास्थ्य उपचार पर जोर देना सही है. जब लॉकडाउन का अंत होगा तो सभी चीज ठीक वैसी नहीं रह जाएंगी जैसी वह पहले थीं. हमारे शहरों की संरचना और तानाबाना नया बन जाएगा. पूर्व में महामारियों के बाद शहरों के आर्किटेक्चर और इंफ्रास्ट्रक्चर में क्या बदलाव आया था? हम उनसे क्या सीख कर अपने शहरों को और अधिक स्वस्थ और रहने लायक बना सकते हैं?

उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं सदी के आरंभ में यूरोप के शहरों में हैजा, टाइफाइड, टाइफस और इंफ्लुएंजा का घातक प्रकोप हुआ. इंग्लैंड के डॉक्टर जोन स्नो और जर्मनी के चिकित्सक रुडॉल्फ फिर्खो ने बीमारी का संबंध गरीबी, भीड़भाड़ और सफाई से स्थापित किया था. इससे शहरों को दुबारा नियोजित किया गया और उन्हें बनाया गया ताकि महामारी के फैलाव को रोका जा सके. उन्नीसवीं सदी के मध्य में लंदन ने हैजा को फैलने से रोकने के लिए बड़े संचरचनागत बदलाव किए. लंदन का सीवर सिस्टम (मल निकास प्रणाली) हैजा रोकने में साफ पानी और बेहतर सफाई की भूमिका की समझदारी का नतीजा है.

ढंग की निकास व्यवस्था के साथ शहरों के आवासीय इलाकों में भीड़भाड़ कम करने और पेड़-पौधों वाले स्थानों की भी जरूरत होती है. शहरी नियोजन में पार्क मुख्य चीज बन गए. न्यू यॉर्क का प्रसिद्ध सेंट्रल पार्क इसका नमूना है. इसकी स्थापना शहर के फेफड़ों के रूप में 1857 में हुई थी. यह एक ऐसा हराभरा खुला स्थान था जहां शहर के लोग साफ हवा ले सकते थे. एंटीबायोटिक के आने से पहले तपेदिक के इलाज के लिए बाहर की हवा पर बहुत जोर दिया जाता था. चिकित्सक इस्थेर एम स्टर्नबर्ग ने अपने पुस्तक हीलिंग स्पेसेस में लिखा है, “विक्टोरिया काल में जिस प्रकार सफाई आंदोलन ने संक्रामक महामरियों को रोक दिया था उसी प्रकार शहरी डिजाइन में कसरत और स्वस्थ रहन सहन और मोटापा जैसे आधुनिक महामारी को नियंत्रण करने जैसे तत्वों को शामिल किया जाना चाहिए.” उन्होंने लिखा है, “सतत, हरित निर्माण और शहरी नियोजन का नया आंदोलन हमें यह करने में मदद कर रहा है.” 

ली कार्बुजिए जैसे आधुनिक आर्किटेक्ट सैनेटोरीअम के डिजाइन से गहरे प्रभावित थे. रोगाणुहीन, स्वच्छ और साफ लाइनों वाले सौंदर्यबोध के साथ-साथ साफ हवा और रोशनी देने वाले चपटे, फैले हुए छायादार छज्जों, छतों और बालकनियां उनके आधुनिक डिजाइन का प्रमुख हिस्सा थे.

महामारियों ने दक्षिण एशियाई शहरों को नई शक्ल देने का काम भी किया है. बॉम्बे में ब्यूबोनिक प्लेग के प्रकोप के दो साल बाद 1898 में बॉम्बे शहर सुधार न्यास की स्थापना हुई. इस ट्रस्ट का निर्माण झुग्गी हटाने के अभियान चलाकर, हवा की आवाजाही और सफाई की स्थिति में सुधार लाकर और गरीबों को आवास देकर शहर की भीड़भाड़ को कम करने के लक्ष्य के साथ हुआ था. ली कार्बुजिए को चंडीगढ़ शहर का डिजाइन बनाने वाले कहा जाता है. उन्होंने सैनेटोरीअम के डिजाइन का कुछ अंश अपने डिजाइन में रखा जिसमें छाव वाले फैले हुए भवन और टैरिस गार्डन शामिल हैं. उनके डिजाइन में पार्कों, खुले मैदानों और हरियाली पर जोर है.

कोविड-19 लॉकडाउन ने स्वास्थ्य के लिए जरूरी सार्वजनिक स्पेस को और सीमित किया है. लॉकडाउन में अधिकांश पार्क बंद हैं और जो लोग अपने घरों से बाहर आते हैं उनसे प्रशासन के लोग सवाल करते हैं या दुर्व्यवहार करते हैं. घर के बाहर होना लोगों के शारारिक स्वास्थ्य, मानसिक कल्याण और प्रतिरक्षा के लिए अच्छी चीज है. एसेक्स विश्वविद्यालय में प्रस्तुत एक शोधपत्र में यह बताया गया था कि घर के बाहर की जाने वाली कसरत से, खासतौर से जो हरे स्थानों में की जाती है, उनसे तनाव कम होता है, मूड में सुधार आता है और आत्मविश्वास बढ़ता है. उस शाधपत्र में लोक स्वास्थ्य नीति तैयार करने वालों के लिए सार्वजनिक स्थानों के विकास को प्रमुख लक्ष्य बताया गया है. अमेरिका की रूमैटिक रोग विशेषज्ञ सिंथिया अरनव ने अपने एक शोधपत्र में लिखा है कि बाहर धूप में रहकर प्राप्त होने वाले विटामिन डी की कमी से शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता या इम्यूनिटी कमजोर होती है. इससे यह संदेश मिलता है कि महामारी के दौरान बाहरी गतिविधियां बहुत जरूरी होती हैं.

ब्रिटेन के लंदन जैसे कई शहरों में लॉकडाउन की दौरान कुछ तरह की बाहरी गतिविधियों को होने दिया जा रहा है. लेकिन सघन आबादी वाले दुनिया के कई शहर लोगों को बाहर निकलने देने और छह फीट की दूरी बनाए रखने के बीच तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं.

कोलंबिया के शहर बोगोटा से हम भीड़भाड़ वाले शहरों में बाहरी गतिविधियों के किए जाने का तरीका सीख सकते हैं. साइक्लोविया (साइकल मार्ग) की शुरुआत जन मनोरंजन के रूप में हुई थी जिसमें सप्ताह में एक दिन 120 किलो मीटर लंबी एक सड़क पर अन्य वाहनों के चलने पर रोक थी और बस साइकलें चल सकती थीं. इसने दुनिया भर के शहरों को प्रेरित किया. जमीन के बड़े हिस्सों में सड़क बनाई जा चुकी है. इसे पैदल चलने वालों और साइकल चलाने वालों के लिए खोल कर लोगों को बाहर निकलने, कसरत करने और घूमने का मौका मिलता है. चूंकि पैदल लोग कारों की अपेक्षा कम स्थान घेरते हैं इसलिए लोगों के लिए सोशल डिसटेंसिंग का पालन करना आसान होगा.

कोरोनावायरस संकट से उभर रहे यूरोप के शहर कारों में निर्भरता को कम करने और आवागमन की आदतों को बदलने के उपायों पर गौर कर रहे हैं. इटली में लॉकडाउन खत्म होने के बाद मीलन के केंद्र को आंशिक रूप से बदल कर साइकल सवारों और पैदल चलने वालों के लिए 35 किलो मीटर से अधिक का मार्ग दिया जाएगा. केंद्र में सीमित संख्या में कारों को कम स्पीड पर चलने की अनुमति होगी. ब्रसेल्स में भी इसी तरह के उपाय अपनाए गए हैं जो बाइक लेन का विस्तार देकर और कारों को हतोत्साहित कर सक्रिय यात्रा को बढ़ावा देते हैं.

भारतीय शहरों में पैदल चलने को प्रोत्साहित करने से फायदा होगा. इस तरह के उदाहरण भारत में पहले से ही मौजूद हैं. लॉकडाउन से पहले मुंबई ने इक्वल स्ट्रीट नाम का अभियान चलाया था जिसमें हर रविवार की सुबह लिंक रोड की तीन किलो मीटर की पट्टी ट्रैफिक के लिए बंद होती थी और सिर्फ पैदल चलने वालों के लिए खुली रहती थी. इसके पिछले आयोजन बेहद सफल रहे और लोग नाचने, स्केटिंग करने, क्रिकेट खेलने और सड़कों का कब्जा कारों से छुड़ाने बाहर निकले. नागरिक केंद्रित ऐसे अभियान मुंबई के अन्य इलाकों में भी हुए. मुंबई का 1.2 किलो मीटर का बांद्रा बैंडस्टैंड मार्ग केवल पैदल यात्रियों के लिए खुला है. इस मार्ग को लैंडफिल साइट पर बनाया गया है जो स्थानीय लोगों के ट्रस्ट की पहल और सांसद के स्थानीय क्षेत्र विकास योजना के तहत बनाया गया है. स्थानीय ट्रस्ट ने पिछले 18 सालों से इस मार्ग का रखरखाव किया है.

जहां सड़कों को साइकिल चलाने वालों या पैदल चलने वालों के लिए नहीं छोड़ा जा सकता ऐसे शहरों में पेवमेंट को छह फीट चौड़ा करने जैसे साधारण उपाय अजमाए जा रहे हैं. चौड़े पेवमेंट होने से पैदल चलने वाले सोशल डिसटेंसिंग का पालन कर सकेंगे और रोग कम फैलेगा. भारत में अधिकांश शहरों के फुटपाथ संकरे और बुरी तरह से बने हुए हैं. बैंगलुरु में एक अगल तरीका अपनाया गया. वहां शहरी सड़कों के निर्माण में टेंडरस्योर फ्रेमवर्क अपनाया गया. इस फ्रेमवर्क में सड़को की योजना और उपयोग सहित सड़कों के निर्माण के बारे में बताया जाता है. इस फ्रेमवर्क का प्रमुख उद्देश्य फुटपाथ और पैदल चलने वाला स्थान बना कर पैदल चलने वालों को सड़क में प्राथमिकता देना है. इसके बारे में आर्किटेक्टों और शहरी योजनाकर्ताओं के गैर लाभकारी मंच ने विचार किया था और बाद में इसे स्थानीय निकायों और राज्य सरकारों ने अपना लिया.

पार्क और विहार या प्रोमीनेड शहरों के फेफड़े हैं. लेकिन लॉकडाउन ने इन स्थानों को जनता के लिए बंद कर दिया है. इनके स्थान पर सघन शहरों के लिए हमें और अधिक निजी बाहरी स्थान की जरूरत है जो बालकनी या छत हो सकती हैं. मुंबई में विकास नियंत्रण नियमों के तहत बालकनी को भवन के फ्लोर स्पेस में गिना जाता है. फ्लोर स्पेस महंगा और सीमित है इसलिए निर्माता नए भवनों में बालकनी नहीं दे रहे और लोग हैं कि अधिक जगह बनाने के लिए मौजूद बालकनियों में बाड़ लगा रहे हैं.

अगली बार जब हमें अपने घरों में बंद होने के लिए कहा जाए तब हमारे घरों में सांस लेने की जगह होनी चाहिए. भारत के सात शहरों में अपार्टमेंट का आकार 2014 और 2018 के बीच 17 फीसदी घटा है. मुंबई में इन आकार 27 फीसदी घटा है. प्राकृतिक दृश्य वाली बालकनी और खिड़की का हमारे स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है. साइंस जर्नल में 1984 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक अस्पताल के कमरे में हरीभरी जगह की ओर खुलने वाली खिड़की होने से मरीज जल्दी ठीक होता है. उस अध्ययन में पाया गया था कि 23 मरीजों को ऐसे कमरों में, जहां से बाहर की हरियाली दिखाई पड़ती है, रखने से ऑपरेशन के बाद में जल्दी रिकवर हुई. नर्सों की नोटबुक में उनके प्रति कम नकारात्मक टिप्पणी थीं और इन 23 मरीजों ने अन्य उन 23 मरीजों के मुकाबले जिनकी खिड़की दीवार की ओर खुलती थीं दर्द की दवा कम खाईं.

शहर का अन्य पक्ष जिसके बारे में सोचने के लिए संक्रमण ने मजबूर किया है वह है कि लोग कैसे यात्रा करते हैं. मिलान जैसे शहरों ने भीड़भाड़ वाले सार्वजनिक यातायात को लॉकडाउन खत्म होने के बाद वैकल्पिक यातायात सुविधा उपलब्ध कराने का वादा किया है. मुंबई की लोकल रेल जैसी लोक यातायात व्यवस्था ने संक्रमण के फैलने के डर को बहुत हद तक बढ़ाया है. लेकिन बहुत से शहरों में ऐसी यात्राओं को करने के सिवा विकल्प भी नहीं है. मेलबॉर्न, ओटावा, डेट्रॉइट और पेरिस जैसे शहरों के नियोजक “15 मिनट सिटी” जैसी शहरी योजनाओं की ओर बढ़ रहे हैं. इसके पीछे छोटी यात्राओं का विचार है. इतिहास हमें बताता है कि पूर्व में अधिकांश शहरी लोग काम की जगह से 15 से 20 मिनट की दूरी पर रहते थे. हालांकि यह विचार कोविड-19 से संबंधित नहीं है लेकिन भविष्य में संक्रमण के मामलों में यह महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.

फिलहाल भारत में आवासीय इलाके व्यावसायिक, शिक्षण और रिटेल इलाकों से दूर होते हैं. हम शहर को पार कर काम की जगह पहुंचते हैं. एक औसत भारतीय अपने दिन का सात प्रतिशत घर और काम की जगह आने-जाने में बिताता है. “15 मिनट शहर” में शहर को आत्मनिर्भर इकाइयों में बांटा जाता है जिनमें काम, शिक्षा और मनोरंजन सभी मौजूद होता है. इसके कई लाभ हैं. इससे निजी और सार्वजनिक यातायात में निर्भरता कम होती है. लोग पैदल चलकर या साइकल से काम या स्कूल जा सकते हैं और ऐसा करते हुए सुरक्षित भी रह सकते हैं. यह जलवायु के लिए अधिक टिकाऊ व्यवस्था है. चूंकि कम लोग शहर पार जाएंगे तो इससे रोग भी कम फैलेगा.

शहरी क्षेत्रों में लॉकडाउन खत्म करने के साथ लोक यातायात में बदलाव लाने की जरूरत है. हमें यात्रा करते वक्त अधिक स्पेस की जरूरत पड़ेगी इसलिए हमें रेल, बस और मेट्रो रेल कम भीड़ चाहिए. यह इन ट्रेनों की फ्रीक्वेंसी को बढ़ा कर किया जा सकता है. शहरों में यातायात के अन्य तरीके अपनाने से यात्रियों के पास यात्रा के दूसरे विकल्प मौजूद होंगे. यह ज्यादा सड़क बनाने से अधिक सस्ता पड़ता है. प्रस्तावित तटीय सड़क परियोजना- मुंबई सीबोर्ड में बनने वाले आठ लेन एक्सप्रेसवे में मुंबई मेट्रो की लाइन तीन के मात्र छह प्रतिशत यात्री सफर कर सकेंगे जबकि इसके निर्माण का प्रति किलो मीटर खर्च मेट्रो से 50 फीसदी महंगा है.

मैं स्वास्थ्यसेवा आर्किटेक्चर परियोजनाओं में काम करती हूं. अस्पतालों के डिजाइनों में संपूर्ण कल्याण की बात आ रही है. इसमें विज्ञान आधारित मेडिकल उपचार और अत्याधुनिक मेडिकल तकनीक के महत्व को कम किए बिना शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को दुरुस्त रखने पर जोर है. यह ऐसा डिजाइन तैयार कर संभव है जिसमें प्रकृति, स्वच्छता, कसरत, पोषण, प्राकृतिक रोशनी और आरामदायक स्थान स्वास्थ्य लाभ का वातावरण बन जाता है. यह पुराने जमाने के सैनेटोरीअम और आधुनिक मेडिकल विज्ञान का मिलन है. भारतीय शहरों में यही रास्ता अपनाया जाना चाहिए. भौतिक स्थानों और शहर के डिजाइन के बारे में जो कुछ हम जानते हैं उसे अपनाकर हम भविष्य के ऐसे शहरों का निर्माण कर सकते हैं जो महामारी का मुकाबला बेहतर ढंग से कर सकेंगे.