अप्रैल के मध्य में 59 वर्षीय दिलीप मेनन, उनकी पत्नी और बेटे कोविड-19 से ठीक हो रहे थे कि उन्हें नए लक्षण दिखने शुरू हो गए. “उनकी आंख सूज गई थी और उनके चेहरे पर दर्द होने लगा,” उनके बेटे दिलिंद ने मुझे बताया. "हमने सोचा कि यह किसी कीड़े के काटने से हुआ होगा." लेकिन बाद में पता चला कि मेनन को म्यूकोर्मिकोसिस (काला फफूंद) हो गया है. यह फंगल संक्रमण जल्दी से उनके चेहरे के ऊतकों में फैल गया और उनकी दाहिनी आंख की रोशनी चली गई. दिलिंद ने कहा, “हम उन्हें अब वापस घर ले आए हैं लेकिन अभी भी संक्रमण से चिंतित हैं. वह अभी भी दवा खा रहे हैं. वह एक भयावह अनुभव था. सब कुछ बेतरतीब हो गया है."
दिलीप मेनन उन हजारों लोगों में से एक हैं जिन्हें कोरोना की दूसरी लहर के दौरान कोविड-19 के साथ म्यूकोर्मिकोसिस हो गया है. ऐसे लोगों में जिन्हें कोविड-19 संक्रमण हुआ है या जो स्टेरॉयड जैसे इम्यूनोसप्रेसेन्ट (प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को दबाने वाली दवाइयां) पर हैं, यह संक्रमण कवक के बीजाणु प्रतिरक्षाविहीन रोगियों में ऊतकों को जकड़ लेते हैं. कवक कोशिकाओं और तंत्रिकाओं को नुकसान पहुंचाता है और फैलते ही रक्त की आपूर्ति में कटौती करता है. रक्त की आपूर्ति में कमी ऊतक को काला कर देती है. यह रोग "ब्लैक फंगस" के नाम से भी बदनाम है. चंडीगढ़ के सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख जगदीश चंदर ने कहा, "लेकिन कवक के बारे में कुछ भी काला नहीं है." म्यूकोर्मिकोसिस अक्सर घातक होता है और म्यूकोर्मिकोसिस के बारे में जो साहित्य उपलब्ध है वह बताता है कि इसकी मृत्यु दर 54 प्रतिशत तक हो सकती है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल ही में म्यूकोर्मिकोसिस को महामारी घोषित किया है. 7 जून को स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि मई 2021 की शुरुआत में बीमारी के सामने आने के बाद से देश में म्यूकोर्मिकोसिस के 28252 मामलों की पहचान की गई है. इनमें से 86 प्रतिशत मामलों में रोगियों को कोविड-19 संक्रमण हुआ था और 62.3 प्रतिशत मधुमेह के शिकार थे. केंद्र सरकार द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक हलफनामे के अनुसार 28 मई तक इनमें से कम से कम 900 रोगियों की मृत्यु हो चुकी है.
डॉक्टरों ने इस डेटा की पुष्टि उन मामलों से की जो उन्होंने आपातकालीन कक्षों में देखे थे. चेन्नई के अपोलो अस्पताल के एक संक्रामक रोग चिकित्सक अब्दुल गफूर ने कहा, "महामारी से पहले हमारे अस्पताल में प्रति वर्ष ऐसे पांच से दस मामले आते थे और अब कम से कम ऐसे पांच रोगियों को हर रोज हमारे अस्पताल में रेफर किया जाता है."
इस साल भारत में म्यूकोर्मिकोसिस को दुर्लभ माना जाता था. अहमदाबाद में एक संक्रामक रोग विशेषज्ञ अतुल पटेल ने अनुमान लगाया कि महामारी से पहले सालाना लगभग 300 मामलों का निदान किया जाता था. पटेल जनवरी 2016 से सितंबर 2017 के बीच किए गए एक बहु-केंद्र अध्ययन के प्रमुख लेखक थे जिसके अनुसार भारत के अग्रणी तृतीयक देखभाल अस्पतालों में 465 म्यूकोर्मिकोसिस रोगियों का निदान किया गया है. हालांकि यह रोग भारत में स्थानिक था और विश्व स्तर पर इस बीमारी का 70 प्रतिशत प्रसार था.
यह 2020 में कोविड-19 के प्रसार के बाद नाटकीय रूप से बढ़ा. 16 अस्पतालों के ऐसे डॉक्टरों ने जो म्यूकोकोवी नेटवर्क नामक एक शोध नेटवर्क का हिस्सा थे, जो म्यूकोर्मिकोसिस और कोविड-19 की निगरानी करता था, ने नवंबर और दिसंबर में एक अध्ययन किया. उन्होंने पाया कि 2019 में इसी अवधि की तुलना में म्यूकोर्मिकोसिस के मामले दोगुने हो गए हैं. पूर्वव्यापी अध्ययन ने 287 म्यूकोर्मिकोसिस रोगियों की जांच की और पाया कि 187 में कोविड-19 संबंधित म्यूकोर्मिकोसिस या सीएएम था. अपने शोधपत्र में लेखक कोरोनोवायरस संक्रमण के मामलों के दोगुने होने का श्रेय देते हैं. पेपर का एक प्रारंभिक प्रिंट इमर्जिंग इंफेक्शियस डिजीज में प्रकाशित हुआ, जो यूनाइटेड स्टेट्स सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका है. म्यूकोकोवी अध्ययन के लेखकों में से एक पटेल ने कहा, "अध्ययन का मुख्य निष्कर्ष यह था कि कोविड महामारी की दूसरी लहर भारत में आने से पहले ही वास्तव में म्यूकोर्मिकोसिस के मामले बढ़ रहे थे."
म्यूकोर्मिसेट्स के बीजाणु, कवक के समूह जो रोग का कारण बनते हैं, लगभग हर जगह हवा में मौजूद होते हैं. चंदर ने कहा, "यह वही समूह है जिससे ब्रेड-रोटी में फंगस लगता है, यह सड़े हुए फलों पर उगता है, यह हर जगह है और हम सभी इसमें से कुछ सांस में लेते हैं. जब ये बीजाणु किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढते हैं जिसका इम्यून सिस्टम ठीक नहीं है या जिसमें उच्च स्तर का रक्त शर्करा या दोनों है, तो यह रोग सामने आता है."
चंदर भारत में म्यूकोर्मिकोसिस के प्रमुख विशेषज्ञों में से एक हैं. उन्होंने 1995 के जुलाई में अपने पहले म्यूकोर्मिकोसिस रोगी का निदान किया और पिछले एक दशक में इस बीमारी का व्यापक अध्ययन किया है. "मैं बीमारी की तलाश में था," उन्होंने कहा. "मेरे छात्रों और मैंने सक्रिय रूप से इसे देखा और अन्य विभागों के डॉक्टरों से इस तरह के संकेतों को देखने और हमें सूचित करने के लिए कहा ताकि हम फंगल संक्रमण के लिए परीक्षण कर सकें. मुझे याद है कि यह सोचकर कि यह बीमारी इतनी भयावह है. भूत बना देती है आदमी का.”
यह बीमारी जल्दी रोगियों को शिकार बना लेती है. उन्होंने अपने अस्पताल के कर्मचारियों के बीच बीमारी और इसके लक्षणों के बारे में अधिक जागरूकता पैदा की और अपने छात्रों से इस बीमारी का बारीकी से अध्ययन कराया. "दस साल पहले मेरी एक छात्रा बठिंडा के सरकारी कॉलेज में रेजिडेंट डॉक्टर के रूप में नियुक्त थी और उसके पहले महीने में दो रोगियों में इस बीमारी का पता चला," उन्होंने कहा. “ऐसा नहीं है कि बठिंडा में पहले इस बीमारी के कोई मरीज नहीं थे. यह कैसे हो सकता है जबकि हमें इतने मरीज चंडीगढ़ में ही मिले? बात सिर्फ इतनी है कि लोगों को इस बीमारी की जानकारी नहीं थी और समय पर मरीजों का निदान नहीं हो रहा था.
उन्होंने कहा, "यदि आप इस बीमारी का पता लगा लेते हैं, तो सबसे अधिक संभावना है कि मरीज बच जाएंगे लेकिन हमारी अज्ञानता के कारण कई लोग बिना किसी पर्याप्त उपचार के अपने बिस्तरों में सड़ गए," उन्होंने कहा. "यदि बीमारी का निदान करते समय हमारे पास संदेह का उच्च सूचकांक नहीं था, तो मृत्यु दर अधिक होगी क्योंकि संक्रमण इतनी जल्दी बढ़ता है." उन्होंने कहा कि सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल ने महामारी से पहले भी हर साल इस बीमारी के बीस से तीस रोगियों का निदान किया है. "भारत में निदान किए गए अधिकांश रोगी चंडीगढ़ से थे. ऐसा केवल इसलिए कि हमारे पास ऐसे विशेषज्ञ थे जो विशेष रूप से इस तरह के फंगल रोगों पर शोध कर रहे थे," उन्होंने कहा. वह खुद के साथ-साथ चंडीगढ़ में पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के शोधकर्ताओं का जिक्र कर रहे थे. उनमें मेडिकल माइकोलॉजी के वैश्विक विशेषज्ञ और म्यूकोकोवी अध्ययन के सह लेखक अरुणालोक चक्रवर्ती भी हैं.
चंदर ने भारत में बीमारी के बढ़ते बोझ पर 2013, 2015 और 2018 में अध्ययन प्रकाशित किया. इनमें चेतावनी दी गई थी कि रोगियों के जीवन को बचाने के लिए शीघ्र निदान, जोखिम कारकों का ज्ञान, एक उच्च संदेह सूचकांक और सर्जरी और एंटिफंगल उपचार जैसे आक्रामक हस्तक्षेप की आवश्यकता थी. 2015 का केस स्टडी एक मधुमेह रोगी पर था जिसे फेफड़े में तपेदिक और म्यूकोर्मिकोसिस का संक्रमण था. इसने चेतावनी दी कि म्यूकोर्मिकोसिस के मामलों में वृद्धि के साथ, इस तरह के सह-संक्रमण की घटनाओं में वृद्धि होने की संभावना है.
मेडिकल माइकोलॉजी पर पाठ्यपुस्तक में, जिसे चंदर ने 2018 में लिखा था, उन्होंने अशुभ भविष्यवाणी की कि "म्यूकोर्मिकोसिस कुछ वर्षों में भारत को नष्ट करने वाला है." चंदर ने मुझे बताया कि उन्होंने इन रोगियों के इलाज में अपने दशकों के लंबे अनुभव के आधार पर यह भविष्यवाणी की थी. "लोग मुझसे अब पूछते हैं कि क्या यह एक अपमानजनक टिप्पणी है," उन्होंने कहा. "यह नहीं है. यह वास्तविक डर है. मैंने देखा है कि कितने लोग इसमें अपनी जान गंवाते हैं. इतने सारे युवा भी. और हर साल यह बदतर होता दिख रहा है.” उन्होंने यह भविष्यवाणी उस तरह की महामारी की आशंका के बिना की जो चल रही है. “कोई भी इस महामारी को आते हुए नहीं देख सकता था और कोविड जैसी बीमारियां आती-जाती रहेंगी लेकिन म्यूकोर कुछ और ही है. यह हमारे बीच है और किसी महामारी के समय और भी बदतर हो जाती है.”
चंदर के शोध ने पहले ही दिखाया था कि म्यूकोर्मिकोसिस संक्रमण के लिए मधुमेह मेलिटस मुख्य कारक है. उन्होंने पाठ्यपुस्तक में लिखा है कि मधुमेह रोगियों की बढ़ती संख्या के कारण म्यूकोर्मिकोसिस दक्षिण-पूर्व एशिया में कमोबेश एक महामारी के रूप में उबर रहा है.
डायबिटीज मेलिटस से पीड़ित शरीर ग्लूकोज के स्तर को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं करता है. उच्च ग्लूकोज बैक्टीरिया और कवक जैसे रोगाणुओं के लिए जल्दी से बढ़ने के लिए उपजाऊ जमीन की तरह काम करता है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के क्रिटिकल-केयर विशेषज्ञ युध्यावीर सिंह ने बताया, "शुगर मूल रूप से वह है जिसे कवक खाता है, यह कवक के बीजाणुओं के लिए प्रजनन स्थल बन जाती है, जो म्यूकोर्मिकोसिस का कारण बनते हैं." सिंह एम्स की कोविड-19 गहन देखभाल इकाई का प्रबंधन करते हैं.
सिंह और अन्य चिकित्सा विशेषज्ञों ने मुझे बताया कि अस्पतालों और घरेलू देखभाल सेटिंग्स दोनों में रक्त शर्करा के स्तर की निगरानी में लापरवाही ने 2021 म्यूकोर्मिकोसिस महामारी में महत्वपूर्ण योगदान दिया. सिंह ने कहा, "ऐसे कई रोगी हैं जिन्हें अंतर्निहित मधुमेह है, जिनके बारे में वह नहीं जानते हैं और फिर भी अन्य लोग भी हैं जिन्हें अत्यधिक स्टेरॉयड के उपयोग के कारण अस्थायी हाइपरग्लाइसेमिया है," सिंह ने कहा.
म्यूकोर्मिकोसिस शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि स्टेरॉयड पर बढ़ती निर्भरता ने कोविड-19 रोगियों को फंगल संक्रमण की चपेट में ले लिया है. डेक्सामेथासोन जैसे स्टेरॉयड बहुत कम उपचारों में से एक हैं जो कोविड-19 रोगियों में मृत्यु दर को कम करने वाले साबित हुए हैं. गंभीर रूप से बीमार कोविड-19 रोगियों की प्रतिरक्षा प्रणाली अति सक्रिय हो सकती है और सूजन के खतरनाक स्तर का कारण बन सकती है. स्टेरॉयड सूजन रोधी प्रभाव प्रदान करते हैं लेकिन इस जीवन रक्षक हस्तक्षेप में इसकी कमियां हैं. चक्रवर्ती ने कहा, "सबसे पहले, यह हमारे शरीर में ग्लूकोज चयापचय बाधा डालता है जिससे ग्लूकोज के स्तर में वृद्धि होती है. दूसरा यह मैक्रोफेज उत्पादन में भी बाधा डालता है, जिससे प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कम हो जाती है."
मैक्रोफेज सफेद रक्त कोशिकाएं होती हैं जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के हिस्से के रूप में आक्रमणकारी रोगाणुओं को घेर लेती हैं. वह कवक के बीजाणुओं से शरीर की रक्षा कर सकती हैं. एक बाधित मैक्रोफेज प्रतिक्रिया शरीर की सहज रक्षा तंत्र को बाधित करती है जिससे यह म्यूकोर्मिकोसिस जैसे संक्रमणों के लिए अतिसंवेदनशील हो जाती है.
सिंह ने कहा कि उनकी देखरेख में कई मरीज इलाज के लिए एम्स रेफर करने से पहले स्टेरॉयड की उच्च खुराक के साथ स्व-चिकित्सा कर रहे थे. "कई डॉक्टरों ने खुद स्टेरॉयड का उपयोग करना शुरू कर दिया, जबकि उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं थी," उन्होंने कहा. "कई ऐसे सूजन संकेत हैं जिसकी हम स्टेरॉयड की सही खुराक देने से पहले निगरानी करते हैं लेकिन लोग इस तरह स्टेरॉयड ले रहे थे जैसे कि यह टॉफी हो. कभी-कभी तो कोविड संक्रमण का पता चलने के बाद भी ऐसा कर रहे थे."
पिछले कुछ महीनों के दौरान चक्रवर्ती ने पाया है कि रोगियों को लंबे समय तक स्टेरॉयड की उच्च खुराक निर्धारित की गई थी, भले ही उन्हें केवल हल्के लक्षण थे. उन्होंने कहा कि रोगियों को प्रति दिन छह मिलीग्राम से अधिक डेक्सामेथासोन नहीं दिया जाना चाहिए लेकिन कइयों को 30 मिलीग्राम तक निर्धारित किया गया था. "ऊपरी सीमा से पांच गुना! निश्चित रूप से इससे मरीजों को परेशानी हुई,” उन्होंने कहा.
सिंह यह नहीं मानते हैं कि कोविड-19 संकट के दौरान स्टेरॉयड के अति प्रयोग के लिए डॉक्टरों या रोगियों को दोष दिया जा सकता है. "तब इतना भ्रम और अराजकता थी. हमें शुरू से ही तर्कसंगत स्टेरॉयड के उपयोग पर बहुत खास और स्पष्ट दिशानिर्देशों की आवश्यकता थी जो हमारे पास नहीं था. हमारे स्वास्थ्य कर्मियों को इस बारे में जानकारी की आवश्यकता है कि सूजन के किन संकेतों को देखना है, किन परीक्षणों को करने की जरूरत है."
चेन्नई के संक्रामक रोग विशेषज्ञ गफूर ने कहा कि अस्पतालों को कोविड-19 या अन्य स्वास्थ्य स्थितियों वाले रोगियों में माध्यमिक म्यूकोर्मिकोसिस संक्रमण को कम करने के लिए वायु-गुणवत्ता के स्तर को विनियमित और नियंत्रित करने के लिए निवारक उपाय करने की आवश्यकता है. "अस्पताल की सेटिंग अक्सर म्यूकोर्मिकोसिस या यहां तक कि अन्य बैक्टीरिया और फंगल संक्रमण जैसे संक्रमणों का स्रोत होती है," उन्होंने कहा. अधिकांश बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों में हवा की गुणवत्ता की लगातार निगरानी की जाती है, खासकर उन वार्डों में जहां प्रतिरक्षा में अक्षम मरीजों को रखा गया है. “लेकिन हम वास्तव में अपने सार्वजनिक अस्पतालों में इस तरह की जागरूकता और निगरानी की उम्मीद नहीं कर सकते. वह अत्यधिक बोझ से दबे हुए हैं और संसाधनों की कमी है. हम ऐसे अस्पताल में संक्रमण नियंत्रण कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं जहां मरीज फर्श पर पड़े हों?” गफूर ने पूछा.
डॉक्टरों ने मुझे बताया कि कई कोविड-19 रोगियों को अस्पताल के वार्डों में या छुट्टी मिलने के कुछ दिनों बाद म्यूकोर्मिकोसिस हो जाता है. म्यूकोकोवी अध्ययन में सात अस्पतालों में कोविड-19 के साथ सभी रोगियों में कोविड-19 से जुड़े म्यूकोर्मिकोसिस का 0.27-प्रतिशत प्रसार और इन अस्पतालों के आईसीयू में भर्ती रोगियों में 1.6 प्रतिशत प्रसार पाया गया. अध्ययन में यह भी पाया गया कि अधिकांश रोगियों को कोविड-19 होने के कम से कम आठ दिनों के बाद फंगल संक्रमण का पता चला था. महात्मा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, वर्धा में मेडिसिन के प्रोफेसर एसपी कालंत्री ने कहा, "और इसीलिए यह महत्वपूर्ण है कि मरीजों को म्यूकर के शुरुआती लक्षणों के बारे में सलाह दी जाए भले ही जब वह कोविड का इलाज करवा रहे हों या जब उन्हें छुट्टी दी जा रही हो."
कलंत्री का मानना है कि भारत में म्यूकोर्मिकोसिस के मामलों में अचानक उछाल की व्याख्या करने के लिए "स्टेरॉयड और शुगर" सिद्धांत से परे कुछ होना चाहिए. उन्होंने तर्क दिया कि कोविड-19 की पहली लहर के दौरान मामले दूसरी की तुलना में बहुत कम थे. उन्होंने कहा, “15 फरवरी तक हमने अपने अस्पताल में 2800 कोविड-19 रोगियों को भर्ती कराया था लेकिन किसी को भी म्यूकोर नहीं था. इस लहर में हमारे पास 5000 से अधिक कोविड रोगी हैं और उनमें से कम से कम छत्तीस को म्यूकोर हुआ है. पहली लहर में भी हमारे पास ऐसे कई मरीज थे जो स्टेरॉयड ले रहे थे और जिनका शुगर स्तर भयावह रूप बढ़ा हुआ था. तो अब क्या बदल गया है?”
कालंत्री और चक्रवर्ती को संदेह है कि सार्स-कोव 2 वायरस के बदलते गुणों ने रोगियों में म्यूकोर्मिकोसिस का खतरा अधिक बढ़ा दिया है. उदाहरण के लिए इस बात के प्रमाण हैं कि वायरस अग्नाशय को नुकसान पहुंचाता है, जो बदले में इंसुलिन के उत्पादन को प्रभावित करता है. अग्नाशय द्वारा निकलने वाला हार्मोन रक्त-शर्करा के स्तर को विनियमित करने में मदद करता है. चक्रवर्ती ने कहा, "पिछले साल की शुरुआत में वायरस की पहली लहर में भी शव परीक्षण किए गए थे जिसमें मृतक कोविड-19 रोगियों के अग्नाशय को काफी नुकसान हुआ था."
वायरस अक्सर रक्त-फेरिटीन के स्तर में भी वृद्धि का कारण बनता है. फेरिटीन एक प्रोटीन है जिसमें आयरन होता है. सिंह ने कहा कि म्यूकोर्मिसेट्स बीजाणु उच्च स्तर के फेरिटीन वाले रक्त सीरम में बढ़ता और पनपता है.
कालंत्री और चक्रवर्ती दोनों ने कहा कि वह चिंतित हैं कि वायरस का अत्यधिक संक्रामक डेल्टा वेरिएंट वायरस के पहले के उपभेदों की तुलना में अग्नाशय को अधिक नुकसान पहुंचा सकता है. कालंत्री ने कहा, "यह अधिक आक्रामक, संभवतः अधिक विषाणुजनित वेरिएंट है. संभव है कि यह सीधे शरीर में ग्लूकोज चयापचय को प्रभावित कर रहा है, रक्त शर्करा के स्तर को बढ़ा रहा है."
हालांकि इस पर अभी तक कोई निर्णायक शोध नहीं हुआ है कि क्या यह विशेष प्रकार अन्य वेरिएंट की तुलना में अधिक विषाणुजनित और जानलेवा है. ब्रिटेन के चिकित्सकों ने देखा है कि डेल्टा वेरिएंट के कारण कोविड-19 रोगियों में अस्पताल में भर्ती होना बढ़ा है. "हम इस बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं जानते हैं कि कैसे यह नया वेरिएंट सीधे कोविड रोगियों में म्यूकोर संक्रमण को बढ़ा रहा है लेकिन मेरा पक्का मानान है कि डेल्टा भी हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को इस तरह से सीधे प्रभावित कर रहा है कि यह म्यूकोर को हमारे शरीर पर आसानी से हमला करने दे रहा है.” चक्रवर्ती ने कहा. “कोविड हमारे शरीर में इन श्वेत रक्त कोशिकाओं की संख्या को कम कर देता है इसका हमारे पर कोई सबूत नहीं है लेकिन मेरा मानना है कि नया प्रकार मैक्रोफेज के कार्य में बाधा डाल सकता है जिससे उन्हें इन बीजाणुओं को प्रभावी ढंग से मारने से रोका जा सकता है. बेशक यह अभी के लिए सिर्फ एक परिकल्पना है जिसका परीक्षण किया जाना बाकी है." वह शरीर में म्यूकोर्मिकोसिस और कोविड-19 के कारण प्रतिरक्षा विकृति के बीच की कड़ी की जांच करने के लिए एक अध्ययन पर काम कर रहे हैं.
चंदर ने मुझे बताया कि वह सचमुच डरे हुए हैं. "मैं अब उन छात्रों से सुन रहा हूं जो अन्य फंगल संक्रमणों के साथ म्यूकोर के मामलों की पहचान कर रहे हैं या एक ही व्यक्ति को प्रभावित करने वाले दो प्रकार के म्यूकोर्मिकोसिस पर काम कर रहे हैं," उन्होंने कहा. "यह संक्रमण का घातक मिश्रण है और मुझे डर है कि अगर हम इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं तो हम कई और लोगों की जान गंवा देंगे."