काम चलाओ और सुधारो

संरक्षण की भारतीय परंपरा पर कुठाराघात करती सेंट्रल विस्टा जीर्णोद्धार परियोजना

दिल्ली की सत्ता की सीट भारत के औपनिवेशिक उत्पीड़कों का महिमामंडन करने के लिए बनाई गई थीं. फिर भी स्वतंत्रता के बाद की सरकार ने साम्राज्यवाद के रूपांकनों को भारतीय गणतंत्र के प्रतीकों में बदलकर उन्हें नष्ट करने के बजाय अपने तह ढालने का फैसला लिया. हल्टन आर्काइव / गैटी इमेजिस
दिल्ली की सत्ता की सीट भारत के औपनिवेशिक उत्पीड़कों का महिमामंडन करने के लिए बनाई गई थीं. फिर भी स्वतंत्रता के बाद की सरकार ने साम्राज्यवाद के रूपांकनों को भारतीय गणतंत्र के प्रतीकों में बदलकर उन्हें नष्ट करने के बजाय अपने तह ढालने का फैसला लिया. हल्टन आर्काइव / गैटी इमेजिस
24 May, 2022

भारत के पवित्र साहित्य सभी चीजों को नश्वर मानते हैं और नवीनीकरण और बदलाव को कुदरत की नेमतें मानते हैं लेकिन इसके साथ ही ये ग्रंथ इस बात पर भी जोर देते हैं कि किसी चीज को पूरी तरह त्याग देने या उनके पुनर्निर्माण से पहले उनके नवीनीकरण और उनको सुधार ने की कोशिश की जानी चाहिए. अग्नि पुराण स्पष्ट शब्दों में बताया है कि पुरानी और टूटी हुई मूर्तियों को फेंक देने के बजाय उनकी मरम्मत की जानी चाहिए और उन्हें केवल तभी बदला जाना चाहिए जब मरम्मत मुमकिन न हो. भारत के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते समय विद्वानों ने महाकुंभभिषेखम या प्राण प्रतिष्ठा और काकसु-दान सहित अन्य समारोहों को जीर्णोद्धार- यानी संरक्षण और पुन: उपयोग- के रूप में परिभाषित किया है.

कला इतिहासकार अन्नपूर्णा गैरिमेला लिखती हैं, "जीर्णोद्धार का शाब्दिक अर्थ है अतीत को पचाना या नवीनीकरण का पवित्र कार्य." गैरिमेला ने अपने शोध प्रबंध के लिए दक्कन और प्रायद्वीपीय भारत में 2200 शिलालेखों और दर्जनों मंदिरों का अध्ययन किया. उनके शोध का शीर्षक था "प्रारंभिक विजयनगर की वास्तुकला, शैली और राज्य गठन." विजयनगर साम्राज्य, जो चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच फला-फूला, की इमारतें जिन शासकों ने बनवाई थीं जिन्होंने समायोजन और पुनर्निवेश के जरिए चोल अतीत के प्रति एक सम्मानजनक रवैया अपनाया. गैरिमेला बताती हैं कि इसे "जो पहले से ही कायम है उसकी पूजा-आराधना, जीवन को पुनर्जीवित या पुन: स्थापित करने के बतौर समझा जाता है. 'उद्धार' शब्द का एक अर्थ कर्ज भी है, जो इस मामले में अतीत से वर्तमान ने लिया है, खासकर वंश के संबंध में विरासत और भविष्य के लिए उस अतीत को सामने रखने की व्यक्ति की क्षमता. उनके शोध से पहले के कई ग्रंथ भी इस तरह के व्यवहार पर ध्यान देते हैं. वास्तुकला के बारे में ग्यारहवीं या बारहवीं शताब्दी के एक दक्षिण भारतीय ग्रंथ मयमतम में एक पूरा अध्याय जीर्णोद्धार पर है, जबकि इससे पुराने अग्नि पुराण में इस विषय पर दो अध्याय हैं.

हालांकि, इस अवधारणा पर आधुनिक अध्ययन और लेखन की कमी ने भारतीय कला और मंदिर पूजा में क्या महत्वपूर्ण होता है इसके बारे में गहरी गलतफहमी पैदा की है, साथ ही भारतीय संस्कृति में संरक्षण और इतिहासबोध की अभिन्न भूमिका को भी सामने आने नहीं दिया है. संरक्षण, मरम्मत और रखरखाव भारतीय चिंतन की कुंजी रही है. और इनकी समझ, भारतीय संदर्भ में, ऐतिहासिक कलाकृतियों और स्मारकों के उपयोग के बारे में नया दृष्टिकोण देती है. 2009 में जी8 शिखर सम्मेलन के उद्घाटन के सात महीने पहले, अपनी छवि को लेकर हमेशा सतर्क रहने वाले इतालवी प्रधान मंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी ने सम्मेलन स्थल को एक नए स्थान पर स्थानांतरित करने का निर्णय लिया. यह जगह थी मध्य इटली में ल'अक्वीला शहर, जो आठ महीने पहले आए भूकंप से बड़े पैमाने पर तहस—नहस हो गया था. सम्मेलन की तैयारी दो सालों से चल रही थी. छोटे से द्वीप सार्डिनिया के ला मदाल्डेना में होटल और बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए 287 मिलियन डॉलर की लागत से तैयारी चल रही थी. आलोचकों ने बर्लुस्कोनी को इस तरह जल्दबाजी में फैसले नहीं लेने की सलाह दी. हालांकि, उन्होंने यह कह कर इस मामले को चतुराई से निपटाया कि "सम्मेलन के लिए भूकंप से जख्मी धरती की तुलना में कौन सी जगह ज्यादा सटीक होगी?" बर्लुस्कोनी ने आगे कहा कि उनकी सरकार ने कलात्मक मूल्य के 44 क्षतिग्रस्त स्थलों की एक सूची बनाई है, जिन्हें बाहरी मुल्क "अपना कर"  जीर्णोद्धार कर सकते हैं. इस कदम सेजी-8 के नेताओं को इस उद्देश्य के लिए इटली में सहयोग और निवेश करने के लिए मजबूर होना पड़ा. संकट को अवसर में बदल दिया गया.

इसके उलट, जबकि भारत 2023 में जी20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने की तैयारी कर रहा है और महामारी की चपेट से भी जूझ रहा है, देश की सरकार दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट्रल विस्टा की मरम्मत और सुधार के बजाय उसे मटियामेट करने पर तुली है.

भारत के पास अभी जीर्णोद्धार की अपनी प्राचीन परंपराओं और इतिहास पर काम करने का मौका है. अभिनवभारती के छठे अध्याय में, अभिनवगुप्त कहते हैं: "जैसे-जैसे हमारी बौद्धिक जिज्ञासा ऊंची होती जाती है, हमारे सम्मानित पूर्ववर्तियों द्वारा बनाई गई सीढ़ियों के कारण ही थकान महसूस किए बिना सत्य को देखना संभव हो पाता है. एक समृद्ध और फलदायी विचार केवल उसी नींव पर रचा जा सकता है जिसे हमारे पूर्ववर्तियों द्वारा तैयार किया गया है." इसी तरह, कालिदास के मालविका-अग्निमित्रम की शुरूआत एक अद्भुत अंश से होती है जिसमें कलाकार अपने प्रबंधक से पूछते हैं कि उन्हें कुछ नया क्यों करना चाहिए, जबकि यह कहानी पहले से ही स्थापित प्रसिद्ध कवियों, जैसे कि भासा, सौमिलका, कविपुत्र और अन्य ने पेश की है? कालिदास प्रबंधक के जरिए जवाब देते हैं, "कोई वस्तु पुरानी है इसलिए अच्छी नहीं होगी अथवा किसी कविता की निंदा इसलिए करना की वह नई है, उचित नहीं होता. विद्वान पुरुष सावधानीपूर्वक जांचने के बाद इसे या उसे स्वीकार करते हैं. अल्प बुद्धि वाला मनुष्य दूसरों की राय से निर्देशित होता है."

केवल हिंदू ही जीर्णोद्धार की बात को नहीं मानते. भारत के गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक और अन्य क्षेत्रों में कई तीर्थों में जैन अभी भी जीर्णोद्धार का अभ्यास करते हैं. मंदिरों और इस्लामी स्मारकों दोनों पर शिलालेखों में संस्कृत शब्द की उपस्थिति से पता चलता है कि सल्तनत शासक भी इस दृष्टिकोण से परिचित हो गए थे, जो साफ तौर पर विध्वंस के कामों से कई स्तरों पर बेहतर था. अगर इतिहास की इतनी लंबी अवधि के दौरान जीर्णोद्धार संस्कृति का व्यापक रूप से स्वीकृत और नैसर्गिक तत्व था, तो यह पूछा जाना चाहिए कि क्या हुआ जिसने इसे भारतीय मानसिकता के लिए विरोधी बना दिया है? सवाल इस तरह से भी पूछा जा सकता है : इतिहास के प्रति सम्मान क्यों कम हो गया?

शायद यह इस वजह से ऐसा हुआ कि इस मामले को इस ढंग से आगे बढ़ाया गया कि आधुनिक विद्वता ने भारत के इतिहास की भावना के साथ जीने के अनूठे तरीकों पर अपर्याप्त रूप से जोर दिया. औपनिवेशिक विद्वानों ने एक वस्तु को पवित्र बनाने के बारे में संकीर्ण प्रश्न पूछे, और उनके भारतीय सलाहकारों ने उतने ही संकीर्ण उत्तर दिए. दोनों ने अभिषेक समारोहों का अर्थ यह बताया कि इनमें किसी मूर्ति या भवन को फिर से पवित्र करने की आवश्यकता होने पर, उन्हेंनए सिरे से बनाया जाता था. नतीजतन, हमेशा सम्राट या अन्य हस्तियों के नाम पर जोर दिया जाता था, जिन्होंने पहली बार किसी इमारत का उद्धाटन किया, फिर भले ही सदियों बाद इसे लगभग किसी और द्वारा पुनर्निर्मित या मौलिक रूप से बदल दिया गया था.

मरम्मत को वांछनीय मानने का विचार भारतीय संस्कृतियों के लिए अद्वितीय नहीं है. किन्त्सुगी नामक जापानी अभ्यास में टूटे हुए सिरेमिक की मरम्मत कीमती धातुओं से की जाती है. मार्को मोंटाल्टी / गैटी इमेजिस / आईस्टॉकफोटो

मरम्मत को वांछनीय मानने का विचार भारतीय संस्कृतियों के लिए अद्वितीय नहीं है. किंत्सुगी या किंत्सुकुरोई, पुराना लेकिन आज भी उतनी ही सम्मानित जापानी सौंदर्य कला, कला मंडलियों में बेहद फैशनेबल हो गई है. इसमें टूटे हुए बर्तनों की मरम्मत कीमती धातुओं, जैसे सोना, चांदी या प्लेटिनम से की जाती है. यह दर्शाता है कि मरम्मत का कार्य है वर्तमान और भूत वह कनेक्शन  जो सामान्य को कीमती बनाता है तथा स्मृति को जीवित रखता है.

ओब्जेट ट्रौवे अथवा धरोहर में मिली वस्तु, आधुनिकता का एक महत्वपूर्ण तत्व . यह 1920 के दशक में डाडावाद, 1960 के दशक के अंत में आर्टे पोवेरा का एक फंडामेंटल तत्व था और इसने ट्रैश आर्ट नामक एक पूरी शैली को भी प्रेरित किया. इनमें से प्रत्येक आंदोलन ने मौजूदा सामग्रियों का उपयोग किया. दरिद्रता का प्रतीक होने की बजाय यह दृष्टिकोण एक गहन परिष्कृत सौंदर्य है.

आत्मसंयम के और मुश्किल वक्त में, सरकारों और समाजों ने अक्सर जो उपलब्ध था उसका उपयोग किया है. ब्रिटिश सूचना मंत्रालय ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान "काम चलाओ और सुधारो" के नारे के साथ मितव्ययिता को बढ़ावा देना शुरू किया. हालांकि, किसी भी स्तर पर, "मेक डू एंड मेंड" फैशन में गिरावट का संकेत नहीं थी. आज भी, जैकेट पर कोहनी के पैच अथवा रफू या चिप्पी लगी जींस बताती है कि फैशन मरम्मत पर टिका होता है.

अफ्रीकी मूल की अमेरिकी लेखक एलिस वॉकर की 1973 की लघु कहानी "एवरीडे यूज" में, नायक और उसकी बहन को अपनी मां से चिथड़े वाली रजाई मिलती है. रजाई प्रतीकात्मकहै. उसमें उन घरों की यादों के साथ, जिसमें परिवार पीढ़ियों से रह रहा है, निरंतरता भी है. अतीत पर लगी छोटी पैबंदसाजी पीढ़ियों तक साथ चलती है. हालांकि महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां मां और बहन चाहते हैं कि पैबंद लगी रजाई रोजमर्रा के इस्तेमाल का हिस्सा हो, वहीं दूसरी बहन अपनी रजाई को एक कीमती चीज मानती है जिसे संग्रहालय में संरक्षित किया जाना चाहिए. कहानी इस सवाल के साथ खत्म होती है कि हम अपने अतीत के साथ किस तरह रहना चाहते हैं : उसे सुरक्षित संग्रहालय की दीवार पर सहेज कर या रोजमर्रे की जिंदगी में पिरो कर जो उन जख्मों और यादों को सहेजे है जो हमें बनाते हैं.

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने "काम चलाओ और सुधारो" के नारे के साथ मितव्ययिता को बढ़ावा दिया. हालांकि, "मेक डू एंड मेंड" का मतलब फैशन या स्टाइल में गिरावट नहीं है. विकिमीडिया कॉमन्स

1970 के दशक में पंक फैशन में पैचवर्क व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ. एक्टिविस्ट फैशन डिजाइनर विविएन वेस्टवुड ने लंदन में जीर्ण—शीर्ण, फटे और रिसाइकल की गई वस्तुओं को "अपसाइकल" बना कर अपने करियर को ऊंचाई दी. पंक फैशन ने पैच का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया कि प्रामाणिकता या मौलिकता –जैसी कोई चीज नहीं होती और हर चीज पहले हो चुकी होती है.

पिछले कुछ दशकों में कला के इतिहास की एक प्रमुख प्रवृत्ति जो नृविज्ञान से इसमें आई है, कला या वास्तुकला के जीवन का अध्ययन करती है.. यह विचार, अपने कई रूपों में, कला विद्यालयों के बुनियादी शिक्षाशास्त्र और पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है..

कोई मूर्ति किसी समय में किसी मंदिर के लिए बनी मूरत हो सकती है, लेकिन हो सकता है कि कोई नया राजा या कोई भद्र इंसान उसी मंदिर को एक और मूर्ति दान करे और पुरानी वाली की जगह नई वाली ले ले. मूर्तिकला का अध्ययन, तब यह देखता है कि एक दिन मूर्ति या तो स्क्रैप या किसी संग्रहालय में प्रदर्शनी की वस्तु बन जाती है. हर मौके पर, वस्तु एक अलग भूमिका निभाती है जिसमें उसके आसपास के लोग अलग-अलग तरीकों से शामिल होते हैं. सबसे पहले इसे विश्वास और प्रार्थना के साथ पूजा गया जाता है, लेकिन अपने अंतिम अवतार में इसे आश्चर्यचकित करने वाली एक सौंदर्य वस्तु के रूप में देखा जा सकता है.

इस घटना का वर्णन करने वाला एक शब्द डिशपोलिएशन है. लैटिन स्पोलिया से बना यह शब्द बताता है कि  कैसे एक नए संदर्भ के लिए अतीत के अंशों को जानबूझकर विनियोजित किया जाता है. कई प्रारंभिक ईसाई गिरजाघर को बनाने के लिए रोमन के भवनों के पत्थरों का उपयोग किया गया था. कई मस्जिदों को चर्चों में बदल दिया गया-- एक प्रसिद्ध उदाहरण इस्तांबुल में बीजान्टिन-युग का हागिया सोफिया है. कभी-कभी इमारतों को केवल मौजूदा संरचना का अलग-अलग उपयोग करके, या न्यूनतम हस्तक्षेप करके पुनर्निर्मित किया जाता है. पुनर्निर्माण का सबसे खराब रूप इमारतों को तोड़ देना और कच्चे निर्माण सामग्री का उपयोग कर नया बनाना है.

जो हम दिल्ली में देख रहे हैं- और अयोध्या में भी हो रहा है, वह निर्माण, इतिहास को मिटाने की उद्देश्य से उसे नए सिरे से लिखा जाना है. सच तो यह है कि इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता. एक अधिक समझदारी भरा नजरिया अतीत को मिटाने में नहीं बल्कि ऐतिहासिक रूप से विरासत में मिली पहचान को बनाने में निहित है.

दुनिया भर की राजधानियां पुरानी इमारतों, जिन्होंने बहुत इतिहास देखा है, से काम करती हैं. इन इमारतों को अक्सर बिजली या कारों के अस्तित्व में आने से पहले बनाया गया था. लेकिन कुछ देशों ने नई तकनीक के साथ अपने प्रशासन के ऐतिहासिक केंद्रों को बदल दिया है. वास्तव में उन्होंने अपनी इमारतों का नवीनीकरण किया. बर्लिन में राइखस्टेग और लंदन में पैलेस ऑफ वेस्टमिंस्टर इस तरह के दृष्टिकोण का उदाहरण पेश करते हैं. इमारतों पर नेताओं और सरकारों ने अपने देशों के अतीत पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं. उदाहरण के लिए राइखस्टेग जर्मनी के पुनर्मिलन का प्रतीक बन गया है.

यह न​जरिया राष्ट्रपति भवन, राष्ट्रपति आवास, साथ ही साथ इसके आसपास के भवनों के बारे में, स्वतंत्रता के बाद के संक्रमण के दौरान भी देखा जा सकता है. यहां तक कि 1920 और 1930 के दशक में, जब वास्तुकार एडविन लुटियंस अंग्रेजों के लिए दिल्ली बना रहे थे तब भी उन्हें नई इमारतों को भारत की कई शाही और ऐतिहासिक परंपराओं के उत्तराधिकारी के रूप में प्रकट करना पड़ा. हालांकि सबसे ऊपर ब्रिटिश साम्राज्य की छाप थी. लुटियंस की परियोजना को शुरुआत से ही आलोचना का सामना करना पड़ा. भारतीय राष्ट्रवादी इस बात को न तो माफ कर सकते थे और न ही भुला सकते थे कि भारत के उत्पीड़कों का महिमामंडन करने के लिए, भारतीयों की कीमत पर दिल्ली के भव्य महलों का निर्माण किया गया है.

1947 में, जैसे ही स्वतंत्र भारत की नई सरकार ने राजधानी से शासन आरंभ किया, ये इमारतें उन नेताओं के लिए शर्मिंदगी बन गईं क्योंकि भारतीय नेता ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के जाने के बाद इनमें में रहने के औचित्य को साबित नहीं कर सके. फिर भी इन भवनों को उनके वास्तुशिल्प गुणों, उनके निर्माण की गुणवत्ता और उन पर खर्च की गई असाधारण राशि के लिए सराहा गया. उन्हें तोड़ना विकल्प नहीं था.

भारतीय गणतंत्र के प्रतीकों से साम्राज्यवाद के रूपांकनों को बदल कर इमारतों को अनुकूलित करने का निर्णय लिया गया. इन इमारतों की पुन: सजावट और पुन: डिजाइन की राजनीति 2016 में संपादित एक पुस्तक में बताई गई है. बदलाव या लेयरिंग को अंजाम देना कोई छोटी चुनौती नहीं थी. गृह मंत्रालय ने 1949 में, प्रांतीय सरकारों को सलाह दी कि वे ब्रिटिश क्रउन और अन्य ब्रिटिश प्रतीकों को क्रमिक, विवेकपूर्ण और गैर-विनाशकारी तरीके से हटा दें और उन्हें चार-सिरों वाले शेर से बदल दें जो मौर्य साम्राज्य का एक प्रतीक है. चूंकि यह काम 1972 तक भी पूरा नहीं हुआ था, इसलिए संसद में मामला उठाया गया और अंतिम समय सीमा 15 अगस्त 1973 निर्धारित की गई.

निष्पक्ष ढंग से कहें तो कह सकते हैं कि औपनिवेशिक प्रतीकों को भारतीय प्रतीकों से बदलना एक बहुत बड़ा काम था. ब्रिटिश राज के चिन्ह मेहराबों और प्रवेश द्वारों पर, फायरप्लेस पर और लोहे की चीजों पर, मेंटलपीस पर, मोमदानों और दीवार की लाइटों पर और यहां तक कि फर्नीचर पर उकरे हुए थे. इसे बदलने का मतलब था या तो चीजों को फिर से तराशना, मौजूदा प्रतीकों को काटना और पलस्तर करना, चिपकाना या टांका लगाना. दूसरा तरीका यह था कि पुरानी वस्तुओं को एक संग्रहालय में रखा जाए और उनकी जगह नए लगाए जाएं. यहां तक कि छूरी—चम्मचों और अन्य चांदी के बर्तनों को भी बदलने की जरूरत थी. जब तक बदलने का यह अभियान कर्मचारियों की वर्दियों पर टंके बटनों और बिल्लों—तमगों तक पहुंचा, तब समझदारी दिखाते हुए इस मामले को कम तात्कालिक मान लिया गया और यह निर्णय लिया गया था कि जरूरत पड़ने पर इन्हें चरणबद्ध तरीके से निपटाया जाएगा.

1947 के बाद अंदरूनी हिस्सों में बेहतरीन भारतीय बुनाई और शिल्प कौशल की नुमाइश के लिए हर मौके का इस्तेमाल किया गया. जो नतीजतन आगंतुकों को भव्य, सदियों पुरानी परंपराओं की भावना के साथ जोड़ता, जिसने कई हमले देखे थे लेकिन बची रही और निर्विवाद रूप से भारतीय बनी रही. राष्ट्रपति भवन में किए गए सभी परिवर्तनों के साथ यह भी हमेशा माना जाता रहा कि इमारत हमेशा उपनिवेशवाद का प्रतीक रहेगी और भीतरी डिजाइन में दिखना चाहिए कि इतिहास के साथ रहा जा सकता है. इस तरह भारत के औपनिवेशिक इतिहास की मार्मिक स्मृतियों को डिजाइन के हिस्से के रूप में रखा गया था. स्टेट लाइब्रेरी में शाही ब्रिटिश शेरों के आकार कीं दरवाजों की कुंडियों को इस उम्मीद में संरक्षित रखा गया कि कभी कोई राष्ट्रपति स्वयं दरवाजा खोले तो उसे इमारत के कलंकित इतिहास का भान हो जाए.

यह तर्क दिया जा सकता है कि पुराने या टूटे हुए की मरम्मत या पुनर्स्थापित करने के श्रमसाध्य कार्य को करने के बजाय पुराने को फेंकना और कुछ नया लाना अधिक किफायती होता है. निश्चित रूप से जो बीत गया वह बात गई कहना या यह कहना कि चीजों से जबरन चिपके रहना ठीक नहीं, आकर्षक लगता है. आप कह सकते हैं किएक नई शुरुआत, नए सिरे से निर्माण, , कुछ अलग करने का मौक हमेशा रोमांचक होता है. लेकिन कुछ हिंदू राजा हैं जिन्होंने पुरानी संरचनाओं में नए तत्वों का समावेश किया तो कुछ ऐसे भी राजा हैं जिन्होंने पुराने मंदिरों को नष्ट कर उनके स्थान पर नए मंदिर बनाए. प्रत्येक शासक ने अपनी जनता की मनोदशा के अनुसार काम किया. दिल्ली में चल रहे प्रोजेक्ट के साथ सवाल यह है कि अब कौन सी बात जरूरी है? क्या यह इस तरह के अपव्यय और सार्वजनिक स्थानों को नष्ट के लिए ठीक समय है?

विश्व स्तर पर अच्छा बदलाव हो रहा है. उदाहरण के लिए, विभिन्न "ग्रीन" पार्टियों के लिए युवा मतदाताओं का बढ़ता आकर्षण. इस बदलाव को महामारी और वैश्विक लॉकडाउन ने और बल दिया है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में भविष्य के मतदाता भी हमारी पीढ़ी को पारिस्थितिक के साथ-साथ आर्थिक जिम्मेदारी के दृष्टिकोण से आंकने वाले हैं. पुनर्विकसित सेंट्रल विस्टा उनकी जांच में प्रमुख होगा. आखिरकार, यह इस सदी में देश की सबसे महत्वपूर्ण निर्माण परियोजनाओं में से एक है. अफसोस की बात है कि सेंट्रल विस्टा पचास साल पहले के विचार पर आधारित है यानी निजी वाहनों को कम करने  बजाय पार्किंग बढ़ाना; अधिक हरे-भरे स्थान बनाने के बजाय पेड़ों को काटना और पार्क की भूमि को अलग करना; विस्तारित उपयोग के लिए मौजूदा इमारतों को अपनाने के बजाय नए भवन बनाना और सबसे बढ़कर, रेत और पत्थर जैसे धरती के संसाधनों को बर्बाद करना, जो पहले से ही वर्तमान भवनों में उपयोग की गई हैं.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वास्तुकला और शहरी नियोजक इस बर्बादी को रोकने के तरीकों पर तेजी से ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. सरकारें ऊर्जा की खपत को कम करने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने की जरूरत के साथ आर्थिक विकास की आवश्यकता को संतुलित करने के रास्ते ढूंढ रही हैं. अन्यत्र, शहरों में पहले ही पैदल पथ बन गए हैं जहां नगर पालिकाएं साइकिल या बैटरी से चलने वाले सार्वजनिक परिवहन के उपयोग को प्रोत्साहित करती हैं. तब मीडिया और मतदाता भारत सरकार द्वारा मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण और मौजूदा शहर के परिदृश्य को नष्ट करने के लिए किए गए उलटे फैसलों को कैसे देखेंगे, जब देश में पर्याप्त अस्पतालों, स्कूलों और यहां तक कि स्वच्छता की कमी है? दुनिया में प्रदूषण के उच्चतम स्तर वाले घुटन भरे शहर में, हम पार्किंग स्थल के लिए सेंट्रल विस्टा के हरित आवरण को नष्ट कर रहे हैं. इससे ज्यादा क्या कहें, हम यह सब उस साल में कर रहे हैं जब राष्ट्रीय राजधानी के पार्कों के पेड़ों को कोविड-19 के पीड़ितों के अंतिम संस्कार की चिता बनाने के लिए काटा गया था.

कला इतिहासकार जीर्णोधार की संस्कृति को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर सकते हैं. भारत में मरम्मत और संरक्षण के प्रति दृष्टिकोण तब तक नहीं बदलेगा जब तक कि इस दृष्टिकोण को आर्थिक समझ के रूप में भी नहीं देखा जाएगा. इतिहास और जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़े मुद्दों को आर्थिक विकास का विरोधी नहीं मान लेना चाहिए. बल्कि, यह रोजगार भी पैदा कर सकता है और उत्पादकता और नवाचार को बढ़ावा दे सकता है. वास्तुकला में सर्वोच्च सम्मान प्रित्जकर पुरस्कार, इस साल ऐनी लैकाटन और जीन-फिलिप वासल को प्रदान किया गया. जूरी का बयान कहता है, "उनके विचारों, पेशे के प्रति नजरिए और परिणामी इमारतों के माध्यम से, उन्होंने साबित कर दिया है कि पुनर्स्थापनात्मक वास्तुकला के प्रति प्रतिबद्धता जो तकनीकी भी है और अभिनव और पारिस्थितिक रूप से उत्तरदायी है, बिना अतीतग्रस्तता के भी अपनाई जा सकती है." उन्होंने आगे कहा, उनके काम ने "वास्तुकला के पेशे की एक समायोजित परिभाषा प्रस्तावित की है." "विध्वंस और पुनर्निर्माण के बजाय, उन्होंने मौजूदा इमारतों में सावधानीपूर्वक बड़े विस्तार, शीतकालीन उद्यान और बालकनियों को जोड़ा है.... दृष्टिकोण में एक विनम्रता है जो मूल डिजाइनरों के उद्देश्यों का सम्मान करती है और वर्तमान में रहने वालों की आकांक्षाओं की भी.” यह पुरस्कार वास्तुकला में दृष्टिकोण में बढ़ते बदलाव को दर्शाता है, और अपने तरीके से, जीर्णोद्धार के दर्शन को दर्शाता है.

फिर भी, हम भारत में बड़े पैमाने पर पुराने के उन्मूलन के सौंदर्य का चयन कर रहे हैं जो समृद्ध इतिहास या अर्थ का प्रतीक न होकर विजयीवाद है.

यह ठीक वही गलती है जो पहले के कुछ शासनों ने की थी और इसके बाद वे अपनी शक्ति खोते गए और इतिहास में उनकी याद कम होती गई. भारतीय मनोदशा में दिखावा, मंहगी शादिया आदि, भले रचा-बसा हो लेकिन इसमें उतना ही रची-बसी है मितव्ययिता और काम चलाने का दर्शन. संग्रहालयों की दीर्घाओं में बतौर क्यूरेटर हमें हमेशा जन धारणा की सेवा करनी होती है. फकीर या संन्यासी की रूढ़िवादिता और महाराजाओं की संपत्ति एक लंबे इतिहास के साथ क्लीशे की तरह जुड़ी हैं, और दोनों को सावधानीपूर्वक संतुलित किया जाना चाहिए. गांधी ने एक राजनीतिक अभियान का नेतृत्व किया और मितव्ययिता पर केंद्रित सौंदर्य की पेशकश की. उन्होंने अपव्यय का विरोध किया, चाहे वह ब्रिटिश साम्राज्य का हो या भारतीय महाराजों का. उनकी अपनी पीढ़ी के कई लोग सरोजिनी नायडू की इस चुटकी से सहमत थे कि गांधी को गरीबी में रखने के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है, फिर भी गांधी की उंगली अपने समय की नब्ज पर थी और उन्हें पता था कि वह जनता की धारणा की जंग जीत लेंगे. इसी तरह, पिछले कुछ दशकों में कई पश्चिमी सरकारों की बार-बार मितव्ययिता अभियान, दुनिया की प्रमुख राजधानियों में "काम चलाओ और सुधारो" के सौंदर्य पर पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन और प्रदर्शनियां, और कई उभरते राजनीतिज्ञों की बयानबाजी, अधिक प्रगतिशील लोकतंत्रों में चुनावी घोषणापत्र, ये सभी दिखाते हैं कि दुनिया का बौद्धिक और नैतिक ज्वार बदल रहा है. और राजनीतिक रूप से सही या सचेत हैं, उनका नजरिया बदल रहा है. इस पर गौर करें कि कैरी साइमंड्स ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से अपनी शादी के सूट किराए पर लिया था.

 

विट्ठलभाई झावेरी / दिनोदिया फोटो
गांधी ने जिस राजनीतिक अभियान का नेतृत्व किया उसके लिए उन्होंने मितव्ययिता पर केंद्रित सौंदर्य को पेश किया. उन्होंने अपव्यय का विरोध किया फिर चाहे वह ब्रिटिश साम्राज्य का हो या भारतीय शासकों का. जिम बौर्ग / रॉयटर्स

संरक्षण एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हमें गहराई से सोचने की जरूरत है क्योंकि जो हम संरक्षित या अनुकूलित करने की कोशिश कर रहे हैं वह केवल दिखावटी नहीं है. यह सिर्फ इमारतें और सड़कें और पार्क नहीं हैं, बल्कि सम्मान, संवेदनशीलता और सावधानी का नजरिया है. यह इतिहास, स्मृति के महत्व की स्वीकृति है कि हम सस्ते आर्थिक या राजनीतिक लाभ के लिए वस्तु विनिमय नहीं कर सकते. यदि जीर्णोद्धार बहुत दूर का कोई विचार लगता है, तो इसके बजाय जुगाड़ का उपयोग अनुकूलन, पुन: उपयोग और निर्धारण के दृष्टिकोण को समेटने के लिए किया जा सकता है. जुगाड़, जैसा कि हिंदी भाषी उत्तर भारत में बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल किया जाता है, किसी भी समस्या के त्वरित और संसाधनपूर्ण समाधान का विचार है. यह "काम चलाओ और सुधारो" के बराबर है. ऐसा कहा जाता है कि जुगाड़ शब्द की उत्पत्ति जुगत से हुई है जो संस्कृत युक्ती से निकला है, जिसका अर्थ कुछ ऐसा है जो फिट बैठता है, जिसे जोड़ा जा सकता है और जिससे काम बनाया जा सकता है.

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बौद्धिक हलकों में "मूल लेखक" के विचार पर सवाल उठाया गया था. तब यह माना गया था कि हम सभी उस प्रक्रिया का सिर्फ हिस्सा हैं जो हमारे जीवन से पहले शुरू हो चुकी थी. संरक्षण का विषय संग्रहालय की व्यावहारिक गतिविधि से आगे बढ़ कर वास्तव में समाज में एक ठोस दार्शनिक ऊर्जा के साथ एक सैद्धांतिक हस्तक्षेप हो गया है. पिछली शताब्दी में जलवायु परिवर्तन, युद्ध और बीमारी ने इस बदलाव को मजबूत किया है और अतीत, वर्तमान और भविष्य के लिए हमारी उपस्थिति के परिणामों के प्रति जगाया है. यह मीडिया और युवा पीढ़ियों में परिलक्षित होता है और यह इतिहासकारों के लिए भी संरक्षण की प्रक्रियाओं का जश्न मनाने का समय है.

अगली पीढ़ी की प्राथमिकताओं को पूरा करने का अर्थ है पर्यावरण के प्रति जागरूक होना, कम संगमरमर और पत्थर का उत्खनन करना, हमारे कार्बन फुटप्रिंट को कम करना यानी उत्सर्जन को कम करना, आदि. प्राचीन रोमन और दुनिया के तमाम लुटियन भी ग्रह के सीमित संसाधनों की जानकारी न होने का बहाना बना कर माफ किए जा सकते हैं लेकिन भविष्य के नागरिक आज की सरकार की फिजूलखर्ची को कभी माफ नहीं करेंगे.


Naman P Ahuja is a curator and professor of Indian visual culture at Jawaharlal Nehru University. His teaching and exhibitions are known for bringing a contemporary relevance to the study of ancient Indian iconography and aesthetics.