“जिस समाज में धार्मिक शत्रुभाव नियंत्रण से बाहर हो गया हो, उस समाज में हम खुद को अकेला और असुरक्षित महसूस करने लगते हैं.”
ये शब्द हैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास के पूर्व प्रोफेसर सुशील श्रीवास्तव के. 1990 में प्रकाशित अपनी किताब विवादग्रस्त मस्जिद : एक ऐतिहासिक छानबीन की प्रस्तावना में ये शब्द लिखे थे. किताब पड़ताल करती है 19वीं सदी के उस विवाद की शुरुआत की जिसका पटाक्षेप हिंदू भीड़ द्वारा 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद को गिरा दिए जाने में हुआ.
उनकी मौत से कुछ समय पहले जब मैं उनसे मिला तो लगा जैसे श्रीवास्तव ने अपनी जिंदगी में ही उस इतिहास की साजिशाना मौत को देख लिया था जिसे तीन साल की ऐतिहासिक परख और मेहनत के साथ बतौर किताब 1990 में उन्होंने खुद लिखा था. दरअसल, इस पुस्तक के लिखने के बाद श्रीवास्तव की पेशेवर जिंदगी परेशानियों से घिर गई. उन्हें जान से मार देने की धमकियां मिलीं और उनकी किताब और उसमें दिखाया गया इतिहास, विस्मृतियों में गुम हो गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट में चले बाबरी मस्जिद केस के दौरान वह ऐतिहासिक विशेषज्ञ एवं पब्लिक विटनेस थे लेकिन 9 नवंबर को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया वह ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्यादा लोकप्रिय भावना से प्रेरित नजर आया. “बहुत हुआ, अब मैं खुद इस पुस्तक से पीछा छुड़ाना चाहता हूं,” उन्होंने मुझसे कहा था.
पीएचडी शोध के दौरान पूर्ववर्ती राज्य अवध के भूमि राजस्व रिकार्ड का अध्ययन करते हुए, श्रीवास्तव को अयोध्या पर काम करने की प्रेरणा मिली. उन्होंने बताया था, “शोध के दौरान मिले नए तथ्यों ने मुझे बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद की ऐतिहासिक छानबीन करने के लिए प्रोत्साहित किया. मेरे शोध के दौरान यानी 1986 के आरंभिक दिनों में हम बहुत गहराई से यह महसूस करने लगे थे कि उत्तर भारत में सांप्रदायिक माहौल बुरी तरह बिगड़ चुका है और इसका सीधा संबंध मेरे पेशे से था. 1978 में विश्व हिंदू परिषद ने घोषणा की कि वह ध्वस्त हिंदू मंदिर के स्थलों पर बनी तमाम मस्जिदों पर कब्जा करेगी. मैं महसूस करने लगा कि प्रचलित मगर आधारहीन मिथक किस प्रकार सांप्रदायिक घृणा को बढ़ा रहे हैं और तब मैंने तय किया कि मैं, इतिहास में सुस्थापित विकृतियों की सच्चाई को साधारण जन तक पहुंचाने का काम करुंगा.”
अपनी किताब में प्रोफेसर श्रीवास्तव लिखते हैं, “अवध के नवाब के वक्त धार्मिक और नस्ली भेद होने के बावजूद समाज में धार्मिक भेद कमजोर हो गए थे, सांस्कृतिक रिवाजों में आर्थिक प्रेरणाएं अत्यंत महत्तवपूर्ण थीं और सत्ताधारी वर्ग सभी धार्मिक त्योहार मनाया करता था. हालांकि, शिया-सुन्नी और वैष्णव-शैव के बीच अंतरविरोध था लेकिन हिंदू और मुसलमानों के बीच धार्मिक टकराव नहीं था.”
1853 से पहले इस मस्जिद को “जामी मस्जिद या सीता-रसोई मस्जिद” कहा जाता था लेकिन उसी साल हिंदू-मुस्लिमों में हुई पहली सांप्रदायिक हिंसा के बाद इस मस्जिद का नाम “बाबरी मस्जिद” पड़ गया. श्रीवास्तव ने लिखा कि वह हिंसा उत्तर भारत में पैर पसार रही ईस्ट इंडिया कंपनी की औपनिवेशिक नीति की देन थी.
1816 में बरेली में अंग्रेजों के खिलाफ पठानों के नेतृत्व में स्थानीय जनता के विद्रोह से गवर्नर जनरल फ्रंसिस रोडन-हेस्टिंग्स को समझ में आ गया था कि मुसलमानों के धार्मिक भावनाओं के उभरने पर उतर भारत में ब्रिटिश सत्ता को खतरा हो सकता है. ब्रिटिश विरोधी गठबंधन को बनने से रोकने के लिए, अवध के शिया नवाबों और सुन्नी मुगल शासकों के बीच दरार डाल, हेस्टिंग्स ने 1819 में अवध को मुगल साम्राज्य से अलग हो जाने के लिए प्रेरित किया. उसी साल हुई एक संधि के बाद अयोध्या में ब्रिटिश रेजीडेंट की तैनाती कर दी गई.
इसी पृष्ठभूमि में 1853-55 के दौर में अयोध्या में हिंदू वैरागियों ने बतौर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर दावा करना आरंभ कर दिया और मुसलमान बतौर मस्जिद हनुमानगढ़ी पर दावा करने लगे. इन परस्पर दावों के बीच पहली बार खूनी टकराव घटित हुआ और मस्जिद के सामने सरकारी जमीन पर राम चबूतरा के तौर पर हिंदू वैरागी कब्जा जमाने में सफल रहे. उस हिंसा को रोकने में अंग्रेजों की दिलचस्पी नहीं थी बल्कि दोनों समुदायों के बीच के विभाजन का लाभ उठाकर अंग्रेजो ने अवध पर कब्जा कर लिया.
प्रोफेसर श्रीवास्तव बताते हैं कि 1857 के महाविद्रोह में अयोध्या के राजा, जमींदार और अखाड़ों के वैरागियों ने जानमाल बचाने में अंग्रेजों की सहायता की थी, फिर विद्रोह कुचले जाने के बाद अपनी सहायता के एवज में अंग्रेजों ने भी इन सबको पुरस्कृत किया था. 1900 में वैरागियों के पास 47 जागीरें थीं. निर्वाणी अखाड़ा अयोध्या का सबसे धनी अखाड़ा बन गया. अंग्रेजों ने 1859 में मस्जिद और राम चबूतरा के बीच फौरन हदबंदी करते हुए वैरागियों द्वारा कब्जाई गई रामचबूतरा की इस जमीन पर चुप्पी साधते हुए वैरागियों के दावे को सरकारी मान्यता दे दी. साथ में महंतों को बाबरी मस्जिद के आस-पास अपनी गतिविधियां चालू रखने की छूट भी दे दी गई. इन हालातों में हिंदू पुनरुत्थानवाद पनपा और जाहिर तौर पर हिंदू कट्टरतावाद पैदा हुआ. स्थानीय तौर पर यह कट्टरतावाद देखने को तब मिला जब ब्रिटिश शासन के दौरान ही 1934 में बाबरी मस्जिद के गुंबद पूरी तरह नष्ट करने दिया गया. हालांकि बाद में इसी शासन के दौरान हिंदूओं से जुर्माना वसूल कर मस्जिद के गुंबद को बनवाया भी गया.
अयोध्या की ऐतिहासिक रूपरेखा तय करते हुए श्रीवास्तव बताते हैं कि साक्ष्यों एवं यात्रियों के विवरणों के तौर पर सन 1100 के बाद ही अयोध्या की घटनाओं का ब्यौरा मिलता है. उन्होंने किताब में लिखा है कि बौद्ध ग्रंथों, कनिंघम का साकेत अयोध्या ही है वहीं जैन ग्रंथों में जिस नगर का नाम विनिया, विशाखा या विनिता है वह अयोध्या ही है. स्वयं महावीर ने अयोध्या की यात्रा की थी और उनके चार तीर्थंकरों का जन्म भी इसी अयोध्या में हुआ था. श्रीवास्तव कहते हैं कि अयोध्या को विभिन्न कालों में साकेत, विनिता, विशाखा, कोशल या महाकोशल, इक्ष्वाकुभूमि, रामपुरी और रामजन्मभूमि नामों से जाना जाता रहा है. इस नगर का पहला पुरातात्विक सर्वेक्षण 1862-63 में ए. कनिंगम ने किया जिनको बौद्ध इमारतों के खंडहर तो मिले लेकिन प्राचीन हिंदू मंदिर के अवशेष नहीं मिले. 410 ई. में फाह्यान ने भी नष्ट हो चुके स्तूप को देखा था और इसके दो सदी बाद ह्नेत्सांग ने नगर से 1.5 किमी की दूरी पर एक स्तूप के बगल में एक पुराना संघवम भी देखा था. अयोध्या में तुर्क सेनाओं का पहला प्रवेश 1034 में सैयद सालार मसऊद गाजी के साथ हुआ.
जहांगीर के शासनकाल के दौरान (1608-11) पहला अंग्रेज यात्री विलियम फिंच अयोध्या आया था लेकिन वह अपने संस्मरण में कहीं भी रामजन्मभूमि-मंदिर के बारे में उल्लेख नहीं करता है. श्रीवास्तव, बाबर के संस्मरणों के हवाले से बताते हैं कि बाबर 28 मार्च 1528 को अवध के उत्तर में दो नदियों के संगम में रुका था. 2 अप्रैल और 28 सितंबर 1528 के बीच बाबर की गतिविधियों का कोई विवरण ज्ञात नहीं है और सूचना के इस अभाव को जॉन लेडन, विलियम एर्सकाइन, एचएम एलियट, पैट्रिक क्रैनजी और डब्लयूसी बैनेट जैसे उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज प्रशासकों और विद्वानों ने इस धारणा को हवा दी कि 28 मार्च 1528 को बाबर अयोध्या आया था और स्थानीय फकीरों की सलाह पर उसने राम मंदिर तोड़ा था.
जब मैंने उनसे मुलाकत करने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने कहा था, “जब आप दिल्ली से आएं, तो मेरी पुस्तक लेते आईएगा तभी मैं बात कर पाऊंगा क्योंकि मेरे पास न उसकी कोई कॉपी है और न ही उसके बारे में कुछ ज्यादा याद है.”
मैंने यह किताब जेएनयू की लाईब्रेरी, नेहरू मेमोरियल लाईब्रेरी, इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी समेत अन्य शैक्षिणिक संस्थाओं की लाईब्रेरी में खोजी तो पता चला कि किताब वहां पहले थी लेकिन अब नहीं है. बाद में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मित्र शालेहा रशीद एक सप्ताह की खोजी मेहनत के बाद इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद उपलब्ध करवाने में सफल रहीं, जिसे पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने 1993 में प्रकाशित किया था. हालांकि जब मैंने इसकी जीरोक्स कॉपी श्रीवास्तव को भेंट की तो अपनी पुस्तक की कॉपी देखकर उन्हें कोई खुशी नहीं हुई. श्रीवास्तव ने मुझे बताया कि 90 के दशक में वह महराज सायाजी राव बड़ौदा यूनिवर्सिटी में आधुनिक इतिहास के प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत थे. उन्हीं दिनों आनंदीबेन पटेल शिक्षा राज्यमंत्री बनी थीं. आनंदीबेन ने बीजेपी के एक विधायक मधु श्रीवास्तव से संदेश भिजवाया कि उसे कहो कि वह गुजरात छोड़कर चला जाए. जब अनिल काने वीसी बनकर आए तो उन्होंने श्रीवास्तव को कहा, “ऐसी किताब क्यों लिखते हो, यहां से चले जाओ नहीं तो तुम्हारी टांगे तोड़ दी जाएंगी.” उसके बाद श्रीवास्तव इलाहाबाद यूनिवर्सिटी आ गए और फिर कैंपस के अंदर ही प्रोफेसर कॉलोनी में रहने लगे.
सितंबर 2018 में हमारी पहली मुलाकात प्रोफेसर से कॉलोनी वाले फ्लैट में हुई. इस दौरान भी वह इस किताब के उस डर के एहसास से अलग नहीं हो पाए थे जिसका अनुभव उन्होंने गुजरात में किया था. डर के इसी एहसास को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि इलाहाबाद शहर से बाहर कोई 15 किमी दूर दलितों के मोहल्ले में मैंने अपना मकान बनाया है और वहीं शिफ्ट होने जा रहा हूं. एकाध महीने बाद वहीं आइए, वहां किसी का डर नहीं होगा, खुलकर बात होगी. व्यक्ति के तौर पर श्रीवास्तव डरे हुए तो थे लेकिन इतिहासकार के तौर पर बिल्कुल निडर. नवंबर महीने में मेरी दूसरी मुलाकात जब उनके अपने नए घर पर हुई तब वहां वह ऐतिहासिक छानबीन के दायरे में अपनी दूसरी किताब भारत के कॉलोनियल आईडेंटीटी पर लिख रहे थे लेकिन अपने इस लेखन को लेकर वह न सिर्फ गंभीर थे बल्कि काफी गोपनियता भी बरत रहे थे. उन्हें डर था कि बवाल होने से किताब छप नहीं पाएगी. आधुनिक इतिहास पढ़ाने वाले श्रीवास्तव इस दूसरी किताब में उन तारीखों, तथ्यों और साक्ष्यों की ऐतिहासिक पड़ताल कर रहे थे जिसमें ब्रिटिश हुकूमत ने अपने शासन के दौरान खासकर भारतीय संस्कृति, धर्म और आस्था को कॉलोनियल आईडेंटीटी देते हुए कैसे स्थापित किया और आज के दौर में यह औपनिवेशिक परिचय (कॉलोनियल आईडेंटीटी) हमारी बहुसंख्यक आबादी को उस मोड़ पर लाकर खड़ा करना चाह रही है जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों का कोई भविष्य नहीं रह जाएगा.
अपनी दूसरी किताब को पूरा लिखे बिना प्रोफेसर श्रीवास्तव का चले जाना और जीते जी पहली किताब का पुस्तकालयों और सरकारी संस्थानों से गायब हो जाना और इन सबके बीच आज के दौर की शैक्षणिक पीढ़ी की खामोशी, अपने आप में इतिहास की मौत ही तो है.