बार-बार दोहराया जाने वाला यह दावा कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आमंत्रित किया था, और कुछ नहीं बस भारत के समकालीन इतिहास में एक झूठ को बैठा देने की कवायद है. आर्काइव के रिकॉर्ड इस दावे को खारिज करते हैं. और तो और ये रिकॉर्ड एक दूसरी ही परिस्थिति के बारे में बताते हैं जिसमें संघ के कुछ सदस्य अपनी पोशाक में उस साल की गणतंत्र दिवस परेड में घुस आए थे. जबकि उस साल की परेड वास्तव में एक किस्म का नागरिक मार्च था.
पिछले सालों में संघ के परेड में भाग लेने का दावा लगातार दोहराया गया है. आरएसएस के सदस्य और उसकी मीडिया टीम के सदस्य रतन शारदा ने 2018 में प्रकाशित अपनी किताब आरएसएस 360 में दावा किया है कि राष्ट्रीय आपातकालीन परिस्थितियों में आरएसएस की भूमिका का सम्मान करते हुए पंडित नेहरू ने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए संघ को आमंत्रित किया था. किताब में दावा है कि महज तीन दिन के नोटिस में संघ ने अपने 3000 सदस्यों को जुटा कर उस परेड में भाग लेने का काम पूरा किया.
जब जून 2018 में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में पहुंचे थे तो आरएसएस के सदस्यों और उसके समर्थकों ने प्रणब मुखर्जी के कदम की आलोचना करने वालों के खिलाफ उपरोक्त दावे को आधार बना कर निंदा की थी. अभी हाल में जब केरला के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान त्रिशूर में आरएसएस के एक नेता के घर में सरसंघचालक मोहन भागवत से मिले तो उनकी आलोचना के जवाब में आरिफ मोहम्मद खान ने थी 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में संघ को नेहरू के द्वारा बुलाए जाने का हवाला देकर अपना बचाव किया.
सच्चाई तो यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था. आर्काइव से रिकॉर्ड बताते हैं कि 1962 में चीन द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ के चलते राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति बनी हुई थी इसलिए 1963 की गणतंत्र दिवस परेड को जनता को परिचालित करने के उद्देश्य से नागरिकों की परेड के रूप में आयोजित किया गया था. उस साल जनवरी 28 को प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में लिखा है की परेड में एक लाख से अधिक नागरिकों ने मार्च किया और भारत के सम्मान और उसकी संप्रभुता को चीन की धोखाधड़ी और आक्रामकता से बचाने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए नारे लगाए. उस रिपोर्ट में आगे लिखा है कि सेना ने बहुत कम संख्या में इस परेड में भाग लिया और ताकि जनता को याद रहे कि वह चीनी घुसपैठ के खिलाफ सीमा में डटी हुई है. नागरिकों का यह मार्च तड़क-भड़क और दिखावे के बगैर था क्योंकि राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति थी और सरकारी खर्च में कमी करने की जरूरत थी.
इस नागरिक मार्च में नेहरू और उन के मंत्रिमंडल के सदस्य साथ ही सांसदों ने भी भाग लिया था. 27 जनवरी को प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में बताया गया है,
"नागरिक मार्च की पहली पंक्ति में संसदीय मामलों के मंत्री सत्यनारायण सिन्हा, रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण, लोकसभा के अध्यक्ष हुकुम सिंह, नेहरू, वित्त मंत्री मोरारजी देसाई और यातायात एवं संचार मंत्री जगजीवन राम मौजूद थे. श्री सिन्हा और श्री जगजीवन राम दो छोरों पर राष्ट्रीय झंडा उठाए हुए थे. श्री नेहरू और अन्य ने राष्ट्रपति के मंच के सामने से मार्च करते हुए अपने हाथ जोड़ लिए."
1963 एक ऐसा वक्त था जब चीन के साथ जारी युद्ध के चलते गणतंत्र दिवस परेड आयोजित करने वाला रक्षा मंत्रालय दबाव में था और इस बात पर विचार कर रहा था कि उस साल की परेड को किया ही न जाए. ऐसे में नागरिकों का मार्च निकालने का विचार नेहरू ने ही सामने रखा था. 10 दिसंबर 1962 को नेहरू ने रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण को एक लंबा पत्र लिखा जिसमें उन्होंने रिपब्लिक डे परेड को न करने के मंत्रालय के फैसले का विरोध करते हुए नागरिकों के मार्च का प्रस्ताव रखा. उस पत्र में नेहरू लिखते हैं,
"मैं इस बात से सहमत हूं कि आयोजन में अनावश्यक खर्च से हर हाल में बचा जाना चाहिए और इस बात से भी सहमति है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में तैनात सेना को दिल्ली नहीं लाया जा सकता. लेकिन मैं या नहीं समझ पा रहा हूं क्यों परेड ही नहीं होनी चाहिए. परेड में दिल्ली में स्थित सेना होगी और यह एक नागरिक परेड होनी चाहिए जिसमें बड़ी संख्या में लोग भाग लें. होमगार्ड और एनसीसी इसमें जरूर हों और दिल्ली की अन्य स्वयंसेवक इकाइयां भी हों. इस परेड में स्कूल और कॉलेजों की बच्चे की भागीदारी के साथ ही ट्रेड यूनियनों और अन्य संगठनों के लोग भी शामिल हों."
नेहरू ने आगे लिखा है, "सभी लोगों परेड से पूर्व ट्रेनिंग दी जाए यह जरूरी नहीं है और यह भी जरूरी नहीं है कि वे साथ में कदमताल करें. बस वे लोग एक साथ मार्च करें. मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा करने से एक मजबूत संदेश लोगों को मिलेगा और वे लोग भी प्रेरित होंगे जो परेड देखेंगे."
इसके अगले दिन यानी 11 दिसंबर 1962 को नेहरू ने अपना यह प्रस्ताव कांग्रेस संसदीय दल के सामने रखा. उन्होंने कहा, "यह सुझाव दिया जा रहा है कि हम परेड न करें. मुझे यह विचार ठीक नहीं लगता. लेकिन परेड को एक सैन्य आयोजन से के रूप में न आयोजित कर एक नागरिक आयोजन के रूप में लिया जाए. मेरा विचार है कि सांसदों से भी परेड में शामिल होने की अपील की जाए."
महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी थी और वह खुद को वैधानिक रूप से स्थापित करने का कोई भी अवसर नहीं खोना चाहता था और इसलिए वह फुर्ती से तैयार हो गया. नेहरू ने बाद में बताया भी कि आरएसएस ने न केवल दिल्ली से बल्कि आस-पड़ोस के इलाकों से भी अपने सदस्यों को मार्च के लिए जुटाने के प्रयास किए. 4 फरवरी 1963 को आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने रिपोर्ट दी कि, "दिल्ली के 2000 सदस्य अपनी पोशाक में यानी सफेद शर्ट और खाकी पतलून, कमर पर बेल्ट और सिर पर काली टोपी लगाए और बूट पहने परेड में शामिल हुए और दिल्ली नागरिक समूह में आकर्षण का केंद्र रहे."
आरएसएस ने कैसे नागरिकों के मार्च में घुसपैठ की और खुद को स्थापित करने की कोशिश की इस बात के प्रति नेहरू सजग थे. 27 जनवरी को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, "एक दिन पहले कुछ कांग्रेसी मेरे पास आए और बताया कि संघ गाजियाबाद, मेरठ और अन्य जगहों से अपने सदस्यों को जुटा रहा है लेकिन हमारे पास उसके सदस्यों की तरह वर्दियां नहीं है. मैंने कहा देखिए मैं संघ को तो आने से नहीं रोक सकता क्योंकि किसी को भी रोकना सही नहीं होगा."
नेहरू की चिंता गैरवाजिब नहीं थी. कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उन्होंने बताया था कि नागरिकों के लिए इस मार्च में शामिल होने के लिए कोई ड्रेस कोड नहीं रखा गया है. उन्होंने कहा, "मैंने कहा है कि बैंड बाजा या पार्टियों के प्राइवेट बैंड लेकर शामिल मत होइए. इसके अलावा मैंने कुछ नहीं कहा है. वे सादे कपड़ों में आएं या वर्दी पहन के आएं. मैं उन्हें नहीं रोक सकता."
नेहरू ने उस अफवाह का भी जिक्र किया जिसमें कहा जा रहा था संघ को 25 हजार सदस्य परेड में भाग लेंगे. वह कहते हैं, "अफवाह थी कि आरएसएस के 25000 सदस्य आएंगे. लेकिन आए सिर्फ दो हजार और वह भी बहुत तड़क-भड़क के साथ. हम उनको नहीं रोक सकते थे. ऐसी स्थिति में हम क्या कर सकते थे? सरकार के हाथ में यह मामला तब तक था जब तक की जनता नहीं पहुंची थी. उसके बाद यह मामला प्रत्यक्ष रूप से सरकार के हाथ में नहीं रह गया था. मामले को मेयर--नूरुद्दीन अहमद-- संभाल रहे थे, जिन्होंने अच्छा बंदोबस्त किया था."
चूंकि गणतंत्र दिवस समारोह स्थानीय लोगों के अलग-अलग वर्गों का मार्च होने जा रहा था इसलिए दिल्ली के मेयर नूरुद्दीन अहमद को लोगों को परिचालित करने की जिम्मेदारी दी गई. अहमद ने इस काम में बहुत मेहनत की और उन्होंने सभी ट्रेड यूनियनों, कॉलेजों और स्कूलों से संपर्क बनाया था ताकि एक सफल मार्च का आयोजन किया जा सके. लगता है कि नूरुद्दीन अहमद बिना भेदभाव के लोगों से संपर्क कर रहे थे और चूंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटे हुए भी कई साल हो चुके थे इसलिए उन्होंने भारतीय मजदूर संघ, जो आरएसएस का ट्रेड यूनियन है, को भी परेड में भाग लेने का निमंत्रण दे दिया. इसके अलावा उन्होंने एनआईटीयूसी, एआईटीयूसी और यूटीयूसी को भी मार्च में भाग लेने का अनुरोध भेजा था.
संभवतः आरएसएस के लोगों ने बीएमएस के सदस्य के रूप में मार्च में भाग लिया था क्योंकि वे लोग अपने साथ कोई बैनर नहीं लाए थे. वे न कोई तख्ती लाए थे और न ही अपने संगठन का भगवा झंडा उठाए हुए थे. उनका जत्था एक लाख की बड़ी भीड़ में मिल गया और क्योंकि प्रशासन ने संघ के मजदूर संगठन बीएमएस को बुलावा भेजा था इसलिए उनकी उपस्थिति पर कोई शक करने वाली बात भी नहीं थी. और इसीलिए ही अधिकांश समाचार पत्रों ने उनकी उपस्थिति को दर्ज ही नहीं किया, जबकि संघ के लोग अपनी पोशाक में थे. केवल हिंदी समाचार पत्र हिंदुस्तान ने संघ के सदस्यों का मार्च करते हुए फोटो 28 जनवरी 1963 के अंक में छापा था और वह भी अलग से नहीं बल्कि एक फुल पेज फोटो फीचर के एक हिस्से में.
हिंदुस्तान में प्रकाशित उस फोटो की एक खास बात यह थी कि आरएसएस के सदस्य मार्च करते हुए अपना भगवा झंडा नहीं बल्कि राष्ट्रीय झंडा उठाए हुए थे. संभवतः यह पहली बार था जब वैधानिकता के लिए तड़प रहे संघ ने राष्ट्रीय झंडे को सार्वजनिक रूप से सम्मान दिया था. जबकि उस वक्त तक संघ ने तिरंगे को स्वीकार नहीं किया था बावजूद इसके कि 1950 में जब उस पर से प्रतिबंध हटाया गया था तो उसने राष्ट्रीय झंडे का सम्मान करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी. फिर भी हिंदुस्तान में प्रकाशित वह फोटो एकमात्र ऐसा साक्ष्य है जिसको सामने रख कर आरएसएस दावा करता है कि नेहरू ने 1963 गणतंत्र दिवस परेड में उसे आमंत्रित किया था.