एनसीईआरटी की किताबों में काट-छांट कर गांधी की हत्या से अपने संबंध को मिटाता संघ

इलसट्रेशन : सुकृति अनाह स्टेनली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लंबे समय से एमके गांधी की हत्या से अपने संबंधों को मिटाने की कोशिशें करता रहा है. हाल ही में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने राजनीति विज्ञान और इतिहास की किताबों से गांधी की हत्या वाले हिस्सों को हटा कर अपनी कोशिश को अमली जामा पहना दिया है. गांधी की हत्या के बाद के 75 सालों में, आरएसएस ने उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे से खुद को दूर करने की बार-बार कोशिशें की, अक्सर झूठ बोल कर. फिर उदार या तटस्थ विद्वानों की एक लंबी कड़ी ने बिना जांच के इस ताने-बाने को मान भी लिया. इस बीच, आरएसएस समर्थक लेखकों ने चुपचाप और कभी-कभी गुप्त रूप से भी, गांधी की हत्या के उन पहलुओं को संशोधित किया जो संघ परिवार के लिए असुविधाजनक थे. उन्होंने चतुराई से हत्या के समय आरएसएस के साथ गोडसे की संबद्धता को धूमिल करने के लिए कई झूठ गढ़े और यह काम जारी रखा; हत्या की योजना बनाने और उसे अंजाम देने के लिए गोडसे की प्रेरणाओं पर गलत बयानी की और इस लोमहर्षक अपराध पर एक नए आजाद हुए भारत की सामूहिक प्रतिक्रिया को कमतर करने की कोशिश की.

गांधी की हत्या से जुड़े इन तथ्यों ने आरएसएस को हमेशा परेशान किया है. कई बिंदुओं पर इसने संघ के लिए एक संभावित खतरा भी पैदा किया है. इसी वजह से इसके नेताओं और हमदर्दों ने गोडसे के किए अपराध के तुरंत बाद नैरेटिव अपने पक्ष में किया और इतिहास का मिथकीकरण कर दिया.

एनसीईआरटी की किताबों में संशोधित भागों में एक खंड है जिसमें पहले गोडसे को "पुना के एक ब्राह्मण" के रूप में परिभाषित किया गया था. गोडसे की पहचान का यह संदर्भ महत्वपूर्ण है. इस संदर्भ को ध्यान में रखें तो यह उस अभिजात जाति समूह के बारे में बताता है जिसके हितों की हिंदुत्व राजनीति के उदय और विकास के साथ-साथ आरएसएस ने ऐतिहासिक रूप से सेवा की है. गोडसे की ब्राह्मण पहचान के संदर्भ में एनसीईआरटी की चूक गोडसे की उन ताकतों का प्रतिनिधित्व करने और उनकी ओर से हिंसक रूप से कार्य करने की इच्छा का अधूरा चित्रण प्रस्तुत करती है जिससे वह जुड़ा था.

यह शायद ही कोई रहस्य है कि आरएसएस नागपुर के ब्राह्मण समुदाय के भीतर से उभरा और मुख्य रूप से एक ऐसे संगठन के रूप में विकसित हुआ, जिसने अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद पेशवा राज की वापसी की उम्मीद की थी. यह ब्राह्मण शासन के लिए एक व्यंजना है. वास्तव में, "माई डेज इन द आरएसएस" नामक एक निबंध में, एसएच देशपांडे - जो 1938 से 1946 के बीच पूना में एक स्वयंसेवक थे - ने उल्लेख किया है कि आरएसएस को "ब्राह्मण क्लब" समझा जाता था और कई बार गैर-ब्राह्मण इसके सदस्यों ने संगठन को "छोड़ दिया". यहां तक कि कुछ मौकों पर उन्होंने इसके ब्राह्मण सदस्यों पर हमला भी किया.

हिंदू राष्ट्र की अपनी अभिव्यक्ति में​, आरएसएस ने स्पष्ट रूप से एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने की मांग की, जो हिंदू जाति के अभिजात वर्ग के प्रभुत्व को उनके विधि-निषेधों के साथ बरकरार रखे. ब्राह्मण गोडसे इस दृष्टि का कट्टर अनुयायी था. उसने गांधी की हत्या करते समय खुद की कल्पना हिंदू राष्ट्र के लिए एक योद्धा बतौर की थी और वह मानता था कि गांधी का जिंदा रहना आरएसएस की इस परियोजना के लिए एक बाधा थी.

हालांकि, स्वतंत्रता के बाद के वक्त में, जैसे ही भारतीय राज्य ने खुद को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करने की दिशा में कदम रखा था, आरएसएस के लिए अपनी संस्थागत पहचान के इन पहलुओं को ढंके बिना पनपना या यहां तक कि जिंदा रहना मुमकिन नहीं था. इसने इतिहास से ऐसे तथ्यों को मिटाने की चल रही कोशिशों को जन्म दिया. इस तरह के प्रयासों की स्पष्ट परिणति एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से गोडसे के संदर्भ में "ब्राह्मण" शब्द को हटाए जाने पर झलकती है.

इसी तरह, कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की किताब का एक और संशोधित हिस्सा गांधी की हत्या के पीछे के उद्देश्यों की व्याख्या से संबंधित है. यह हिस्सा अब हटा दिया गया है, देखें :

उन्हें (गांधी) विशेष रूप से उन लोगों द्वारा नापसंद किया गया जो चाहते थे कि हिंदू बदला लें या जो चाहते थे कि भारत हिंदुओं का देश बने, ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान मुसलमानों के लिए था. उन्होंने गांधीजी पर मुसलमानों और पाकिस्तान के हितों के लिए काम करने का आरोप लगाया. गांधीजी को लगा कि ये लोग गुमराह हैं. उन्हें विश्वास था कि भारत को केवल हिंदुओं का एक देश बनाने का कोई भी प्रयास भारत को नष्ट कर देगा. हिंदू-मुस्लिम एकता के उनके दृढ़ प्रयास ने हिंदू चरमपंथियों को इतना उकसाया कि उन्होंने गांधीजी की हत्या के कई प्रयास किए.

यह एक सुस्थापित तथ्य है कि आरएसएस हमेशा भारत में हिंदुओं के लिए सर्वोच्चता हासिल करना चाहता है, तब भी जब नया स्वतंत्र देश अपने बारे में एक पूरी तरह से अलग अवधारणा को साकार करने का प्रयास कर रहा था. संगठन के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी किताब वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड में साफ-साफ इस परियोजना का खाका तैयार किया. किताब में, यहूदियों के नाजी नरसंहार से प्रेरित गोलवलकर ने घोषणा की कि गैर-हिंदू "विदेशी नस्लें" हैं. उन्होंने लिखा है :

समझदार पुराने राष्ट्रों के अनुभव से समझ आता है कि हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म के प्रति आदर और सम्मान करना सीख लेना चाहिए, हिंदू नस्ल और संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले विचारों को अपना लेना चाहिए और अपने पृथक अस्तित्व को हिंदू नस्ल में पूरी तरह मिला लेना चाहिए अथवा पूर्ण रूप से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहते हुए देश में टिके रहना चाहिए और ऐसा करते समय उन्हें न तो किसी तरह का दावा करना होगा, न किसी तरह का उन्हें विशेषाधिकार मिलेगा और किसी तरह के सुविधाप्राप्त व्यवहार की तो बात दूर, उन्हें एक नागरिक का भी अधिकार प्राप्त नहीं होगा.

जैसा कि ऊपर कहा बताया गया है, गांधी सहित विभिन्न राष्ट्रवादी नेताओं को विश्वास था कि देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का कोई भी प्रयास भारत के विचार को नष्ट कर देगा. स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में जिन्होंने महत्वपूर्ण नैतिक अधिकार का प्रयोग किया, गांधी ने हिंदुत्व की ताकतों का मुकाबला किया और एक हिंदू राष्ट्र के उनके विचार को हाशिए पर डाल दिया. सांप्रदायिकता के खिलाफ उनकी स्थिति और अभियान ने उन्हें उस रास्ते में बाधा बना दिया जिस पर आरएसएस चल रहा था.

राष्ट्रीय पहचान के बारे में संघ के गांधी से उलट विचार गांधी की हत्या के मूल में थे. उनकी हत्या स्वतंत्र भारत की प्रकृति पर एक कटु और लंबे समय से चली आ रही लड़ाई की अभिव्यक्ति और इसे हल करने की एक हताश कोशिश थी.

लेकिन आरएसएस के हमदर्दों ने हमेशा इस ऐतिहासिक पहलू को छुपाने की कोशिश की है और इसके बजाए हत्या को विभाजन की परिस्थितियों से पैदा हुई एक घटना की तरह पेश किया है. इस नैरेटिव के मुताबिक गोडसे ने जो किया वह उसने अकेले ही किया. उदाहरण के लिए, 1987 में ​प्रकाशित हुई अपनी किताब, द ब्रदरहुड इन सैफरन में अमेरिका स्थित शोधकर्ता वाल्टर के एंडर्सन और श्रीधर डी दामले ने आरएसएस से गोडसे की संबद्धता को अप्रासंगिक माना क्योंकि उसने गांधी की हत्या करते समय संगठन को स्पष्ट रूप से छोड़ दिया था. इस अनुमान को मजबूत करने के लिए उन्होंने नाथूराम गोडसे के भाई, गोपाल गोडसे का एक उद्धरण शामिल किया :

हमारा मकसद सरकार पर नियंत्रण हासिल करना नहीं था,… हम बस देश को उस व्यक्ति से छुटकारा दिलाने की कोशिश कर रहे थे जिसने ऐसा किया था और उसे बहुत नुकसान पहुंचा रहा था. उन्होंने लगातार हिंदू राष्ट्र का अपमान किया था और अहिंसा के अपने सिद्धांत से इसे कमजोर कर दिया था. अपने कई अनशनों पर उन्होंने हर तरह की मुस्लिम समर्थक शर्तें लगा दी... उन्होंने कट्टर मुस्लिमों के लिए कभी कुछ नहीं किया. हम भारतीयों को दिखाना चाहते थे कि ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने अपमान नहीं सहा- कि हिंदुओं में अभी भी मर्द बचे हैं.

आरएसएस समर्थक लेखकों द्वारा इस तरह के तुच्छीकरण ने गांधी की हत्या के किसी भी ईमानदार आत्मनिरीक्षण में बाधा पैदा की है. जैसा कि मैंने जनवरी 2020 में कारवां के लिए एक कवर स्टोरी में लिखा था, उस समय के ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि लोकप्रिय धारणा के उलट, गोडसे ने कभी भी आरएसएस की सदस्यता नहीं छोड़ी. पहले इस तरह के तथ्यों को खुलेआम झूठ बोल कर छुपाया जाता था. अब जब सरकार पर आरएसएस का नियंत्रण हो गया है, तो वह पाठ्यपुस्तकों से केवल असुविधाजनक सच्चाइयों को हटा कर अपने उद्देश्य को प्राप्त कर रहा है.

एनसीईआरटी की किताबों से हटाया गया तीसरा भाग उस प्रतिक्रिया से संबंधित है जो गांधी की हत्या से उत्पन्न हुई थी. हटाए गए हिस्से में लिखा है : “गांधीजी की मृत्यु का देश में सांप्रदायिक स्थिति पर लगभग जादुई प्रभाव पड़ा. विभाजन से जुड़ा गुस्सा और हिंसा अचानक शांत हो गई. भारत सरकार ने सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले संगठनों पर नकेल कसी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया. सांप्रदायिक राजनीति अपना प्रभाव खोने लगी.”

जब से गोडसे ने गांधी की हत्या की तब से ये विवरण आरएसएस को परेशान करते रहे हैं. शायद संगठन ने हत्या के बाद न केवल सरकार से बल्कि भारतीय नागरिकों से भी प्रतिक्रिया का अनुमान नहीं लगाया था. गांधी के प्रति सार्वजनिक श्रद्धा, जिसका हिंदुत्व नेता हमेशा विरोध करते थे, केवल बढ़ी. आरएसएस और हिंदू उग्रवाद का समर्थन करने वाली एक राजनीतिक पार्टी हिंदू महासभा, जिसमें गोडसे भी शामिल था- को व्यापक प्रतिशोध का सामना करना पड़ा. 1951-52 के बीच हुए भारत के पहले आम चुनाव में सांप्रदायिक एजेंडे से जुड़े राजनीतिक दलों के खिलाफ निर्णायक मतदान हुआ.

हटाया गया हिस्सा, जिसमें आरएसएस पर हत्या के बाद के प्रतिबंध का उल्लेख है, तत्कालीन कांग्रेस नेता और उप प्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल को हथियाने के संघ परिवार के प्रयासों को भी उलझा देता है. बतौर मंत्री, गांधी की हत्या के समय वह देश के गृह मामलों के प्रभारी भी थे, वह पटेल ही थे जिन्होंने फरवरी 1948 के उस आदेश पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें "नफरत और हिंसा की ताकतों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए" आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया गया था.

यह जगजाहिर है कि एनसीईआरटी की किताबों में हाल ही में की गई काट-छांट का उद्देश्य आरएसएस के पौराणिक नैरेटिव के लिए मैदान साफ करना है. किताबों में इनकी मौजूदगी संघ के लिए एक बाधा थी. उनको किताबों से हटा देना संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाता है. इस तरह संघ परिवार ने आधुनिक भारत के इतिहास के एक महत्वपूर्ण प्रकरण को कमजोर कर दिया है.

गांधी की हत्या ने भारत के लोगों के बीच एक अभूतपूर्व प्रतिक्रिया पैदा की, नुकसान और निराशा की एक असीम भावना इसकी खासियत थी. भले ही संघ परिवार गांधी की हत्या से संबंधित तथ्यों को, साथ ही साथ अपराध करने वाले व्यक्ति की पहचान धूमिल करना जारी रखे, लेकिन ये सब उन सत्यतथ्यों के महत्व को दोहराता है जिन्हें इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में शामिल करना बेहतर होगा, उनमें से एक यह है कि जिस राजनीतिक नेता को राष्ट्रपिता माना जाता है उसकी हत्या करने वाला व्यक्ति आरएसएस का सदस्य था.