सब जानते ही हैं कि राम जन्मभूमि आंदोलन का मकसद अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह पर एक मंदिर का निर्माण करना था. यह भारतीय राजनीति के केंद्र पर जम जाने का एक प्रमुख हिंदू बहुसंख्यकवादी अभियान था. यह भी इतना ही स्थापित तथ्य है कि संघ परिवार ने यह अभियान 1984 में ही शुरू किया था, जब इस मुद्दे को विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी ने केंद्रीय मुद्दा बनाया. इस विवाद का महत्वपूर्ण मोड़- 22 दिसंबर 1949 की रात को मस्जिद के अंदर राम की मूर्ति रखना- हिंदू महासभा से संबंधित हिंदू संप्रदायवादियों के एक हिस्से की करतूत थी. दरअसल, इसी हरकत के चलते, जिसे बाबरी मस्जिद को हिंदू धार्मिक स्थल में बदलने की पहली कोशिश के रूप में देखा गया, दशकों तक चली कानूनी लड़ाई 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट में खत्म हुई. अदालन ने मस्जिद की जगह पर मंदिर के निर्माण का फैसला दिया.
मुद्दे की महत्ता को देखते हुए ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लंबे समय से इस विवाद से अपने जुड़ाव पर पुरातनता की छाप चाहता रहा है. 30 जनवरी 1948 को मोहनदास गांधी की हत्या तक, संघ और हिंदू महासभा ने लगभग सहयोगी संगठनों की तरह काम किया था. एक साथ दोनों संगठनों की सदस्यता बहुत आम थी. लेकिन हत्या के बाद खुद को हत्यारे नाथूराम गोडसे से अलग करने के लिए संघ ने जल्द ही हिंदू महासभा से खुद को अलग कर लिया. हालांकि वे एक ही वैचारिकी पर बने रहे. संघ का कदम गोडसे के मुकदमे के दौरान उसके दावे से उपजा था कि गोडसे ने गांधी की हत्या करने से बहुत पहले संघ छोड़ दिया था और हिंदू महासभा में शामिल हो गया था. गोडसे के झूठ को विश्वसनीयता देने, इसके ट्रैक को छुपाने और इस गलत धारणा को आगे बढ़ाने के लिए आरएसएस ने इतिहास गढ़ा कि संघ 1930 के दशक से हिंदू महासभा से पूरी तरह अलग हो कर अस्तित्व में आ चुका था.
तर्क की यह दिशा संघ के लिए उस वक्त एक बाधा बन गई जब उसने बाबरी मस्जिद को राम मंदिर में बदलने की हिंदू महासभा की 1949 की कोशिश के साथ खुद को जोड़ने की मांग की. 1984 में अपना खुद का अभियान शुरू करने के बाद भी, आरएसएस ने एक बहुत ही व्यावहारिक कारण यानी मस्जिद में तोड़फोड़ के अपराध में फंसने से बचने के लिए ऐसे किसी सहयोग की तलाश नहीं की. हालांकि, सालों बाद जब कानूनी जीत आसन्न दिखाई देने लगी, तो संघ के कुछ सदस्यों ने, अपने खास तरीके से चुपचाप कहानियां फैलानी शुरू कीं कि संघ प्रचारक नानाजी देशमुख 1949 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे और उन्होंने मूर्ति रखने में अहम भूमिका निभाई थी.
इन कहानियों को विश्वसनीयता देने के प्रयास में, वाल्टर के एंडरसन और श्रीधर डी दामले ने अपनी 2018 की किताब, “द आरएसएस: ए व्यू टू द इनसाइड” में बिना कोई सहायक सबूत दिए लिखा कि देशमुख ने दिसंबर 1949 में राम जन्मभूमि स्थल पर "नॉन-स्टॉप भजन का आयोजन किया था.” हालांकि यह संभवतः पहली प्रकाशित सामग्री थी जिसने संघ को, कम से कम नाममात्र ही, मूर्ति की स्थापना के साथ जोड़ा था. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी की हालिया किताब, “हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड” के मामले में इतिहास का निर्माण और अधिक विचित्र रूप लेता है.