जवाहरलाल नेहरू का नाम लोकसभा में फिर से सुनाई देने लगा है. भले ही उनका निधन लगभग साठ साल पहले हो गया हो लेकिन उनका प्रभाव भारत के राजनीतिक चर्चाओं में सुनाई देता रहता है. भारत के पहले प्रधानमंत्री और उनकी विरासत अक्सर आजकल की राजनीतिक बहसों के केंद्र में होती है. उनके नाम के साथ जुड़ा गर्व और उपहास इस बात पर निर्भर करता है कि उसका आह्वान किसके द्वारा किया गया है. वर्तमान में नेहरू के साथ जुड़ी चर्चाओं और विवाद पर बहुत स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है.
आज, नेहरू को स्वतंत्र भारत के वास्तुकार के रूप में देश की बेहतरी करने और मामलों को बदतर बनाने वाला समझा जाता है. इस उपनाम को हल्के में लेने के बजाय हम जानने की कोशिश करते हैं कि इसका क्या अर्थ है. पेशेवर आर्किटेक्ट, यहां तक कि जाहा हदीद और बालकृष्ण दोशी जैसे बड़े आर्किटेक्ट को भी बहुत तालमेल बैठाना पड़ा: उन्हें ग्राहकों और पड़ोसियों के साथ, नियामकों और मजदूरों के साथ समझौता करना पड़ा. अंतिम उत्पाद पर वास्तुकार की कल्पना की छाप होती है, लेकिन यह सहयोग से निर्मित होता है. वास्तुकार को नेहरू के लिए एक रूपक के रूप में प्रयोग करने का तात्पर्य है कि उस व्यक्ति के पास देश के भविष्य के लिए एक दृष्टि थी, जो उनके पसंदीदा ब्लूप्रिंट, पंचवर्षीय योजना में तैयार की गई थी. उन्होंने बेरोकटोक उस दृष्टि को निष्पक्ष रूप से लागू करने के लिए काम किया.
उनके कुछ आलोचकों के लिए नेहरू द आर्किटेक्ट से नेहरू द ऑथोरिटेरियन तक की कल्पना करना एक छोटा कदम था. दरअसल, नेहरू पर अक्सर अपने व्यक्तित्व को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया. इस तरह के व्यक्तित्व के विकास में एक व्यक्ति को दूसरों से ऊपर रखना और उसके नेतृत्व को रहस्यमयी मानना शामिल है. अपने व्यक्तित्व की नींव को गढ़ने और मजबूत बनाने के लिए सख्त नियमन से नेता से जुड़ी कल्पनाएं और वफादारी की निर्मम मांग की आवश्यकता होती है. उनके प्रधानमंत्री पद के एक संयत मूल्यांकन से पता चलता है कि नेहरू सक्रिय रूप से इस कार्य से बचते थे. नेहरू ने अपनी शक्तियों की सीमाओं को समझा और स्वीकार किया. वह अपने ऊपर बनाए गए चुटकुलों को हल्के में लेते थे और मंच पर उनका प्रतिनिधित्व कैसे किया जाए इस सवाल में बहुत कम रुचि रखते थे. उन्होंने बताया कि उन्हें अपने नाम वाली चीजों से एलर्जी है. उन्होंने अपने विचारों को संक्षिप्त सूक्तियों में रखना पसंद नहीं किया क्योंकि ऐसा करना उन्हें कठोर बना देता और लापरवाही से युक्त वफादारी को आकर्षित करता. वास्तव में, 1957 में जब उनसे उनके भाषणों के अंशों की एक पुस्तक "नेहरूज विजडम" के लिए संपर्क किया गया, तो उन्होंने शीर्षक को आडंबरपूर्ण कहकर खारिज कर दिया. माओ त्से-तुंग से कई साल पहले नेहरू की अपनी "छोटी लाल किताब" यानी उनका एकराज अधिकार हो सकता था, लेकिन उन्होंने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.
यदि नेहरू उस विचारशून्य प्रशंसा से हिचकिचाते थे जो अक्सर उन पर थोप दी जाती थी, तो हम नेहरू को स्वतंत्र भारत के निर्माता के रूप में क्यों मानने लगे हैं? यह एक उपाधि है जो उन्हें उनकी पार्टी द्वारा प्रदान की गई थी. जब उन्होंने 1958 में राजनीति से सन्यास लेने का फैसला किया, तो कांग्रेस ने उन्हें यह कहते हुए इस्तीफा देने से मना कर दिया कि देश उनके नेतृत्व के बिना नहीं चल सकता. अपने जीवनकाल के दौरान नेहरू ने एम.के. गांधी की प्रतिमूर्ति बनने की इच्छा को फिर से पूरा करने का प्रयास किया. लेकिन 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद पूर्व प्रधानमंत्री की छवि गढ़ने की शुरूआत हुई. उनकी तस्वीर वाले सिक्के और टिकट जारी किए गए, सड़कों का नाम बदला गया और नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय के लिए दान करने की एक अपील शुरू की गई. स्मारक सभाओं में, नेताओं ने लोगों को नेहरू के विचारों के प्रति वफादारी रहने की कसमें दिलाईं, यह एक ऐसा काम था जो नेहरू के जीवित रहते असंभव होता. विशेष रूप से हर जन्म और पुण्यतिथि, 14 नवंबर और 27 मई पर कांग्रेस, पहले बयानों में और अब ट्वीटर पर नियमित रूप से भारत के वास्तुकार के रूप में उनकी प्रशंसा करती है. पिछले छह दशकों में जब कांग्रेस का नेतृत्व आत्म-संदेह और लोगों के बीच अपनी कम स्वीकृति से पीड़ित हुआ है, तब यह आह्वान अधिक मजबूत प्रतीत हुआ है.
जबकि इस मिथक को बढ़ावा देने में कांग्रेस की भूमिका साफ है, अन्य राजनीतिक दलों, विशेष रूप से सत्तारूढ़ बीजेपी ने भी भूमिका निभाई है. ऐसा नहीं है कि नेहरू का आह्वान करने की बीजेपी की रणनीति सुसंगत हो, लेकिन यह बहस की शर्तों को निर्धारित करने और सत्ताधारी दल की आलोचना को दूर करने में प्रभावी रही है.
एक तरफ उन्होंने खुद को कांग्रेस से अलग करने की कोशिश की है, वहीं बीजेपी के सदस्यों ने नेहरू को कांग्रेस की गलतियों के प्रतीक के रूप में पेश किया है. इस तरह व्यक्तित्व का गुणगान करने के चलन ने नेहरू और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच एक प्रतियोगिता शुरू की है. यह लोकलुभावन रणनीति नेहरू को ऊपर उठाने पर निर्भर है, जबकि इसका उद्देश्य उन्हें नीचा दिखाना है. वर्तमान प्रधानमंत्री में सत्ता को केंद्रीकृत करने की रणनीति के हिस्से के रूप में, यह नेहरू को मरणोपरांत, अपने समय की तुलना में अधिक शक्तिशाली दिखाने की कोशिश करता है.
दूसरी ओर, बीजेपी और उसके समर्थक अक्सर अपनी सरकार और नेहरू सरकार के बीच तुलना करते दिखते हैं. इन आरोपों का प्रतिकार करते हुए कि मोदी व्यक्तित्व का एक पंथ बना रहे हैं, उनके समर्थक नेहरू की छवि के उपयोग और चुनाव में उनके व्यक्तिगत प्रयासों को सबूत के रूप में इंगित करते हैं कि पहले प्रधान मंत्री अलग नहीं थे। दोनों ही पक्षों के यह तर्क मोदी के आलोचकों को नेहरू के करीब लाकर उन्हें निरुत्साहित करने का काम करते हैं. जैसे भारत के विभाजन के लिए नेहरू को दोष देना बीजेपी की वर्तमान नीतियों के विभाजनकारी प्रभावों को कम करने का एक तरीका है. इसी तरह, 1962 में चीन के साथ विनाशकारी युद्ध का आह्वान करना 2023 में अपने पड़ोसी देश के साथ भारत की मुश्किल स्थिति से ध्यान हटाने का एक तरीका है. अंत में, उन उदाहरणों को याद करते हुए जिनमें नेहरू की सरकार ने गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों को हटाने के लिए राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल किया या विपक्षी दल के सदस्यों को गिरफ्तार किया, बीजेपी के समर्थक यह विचार सामने रखते हैं कि "उन्होंने भी ऐसा किया और वे और भी बुरे थे!"
इन सारी बातों का मतलब यह निकलता है कि नेहरू की सरकार की विफलताओं और अपर्याप्तताओं के कारण कांग्रेस आज सरकार के योग्य नहीं है. इस बीच, कांग्रेस जनता से जुड़ने के अपने प्रयासों में नेहरू के बचाव को शामिल करते हुए जनता को समझाने का प्रयास करती है कि उन्हें सत्ता में वापस आना चाहिए. यह भारत के जटिल इतिहास का विद्वत्तापूर्ण मूल्यांकन नहीं है. इसके बजाय, सिर्फ उदाहरणों को संदर्भ से अलग करके प्रत्येक पक्ष मिथक पर आधारित तर्क पेश करता है. यह अशोभनीय चर्चा एक ऑक्सफोर्ड यूनियन में होने वाली बहस की शैली में आयोजित की जाती है, जो कि दूसरे पक्ष को शर्मिंदा करके जीत हासिल करने जैसा होता है.
इन सभी मिथकों का परिणाम नेहरू और प्रधानमंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल से जुड़े नीरस तर्कों का एक समूह रहा जो राजनीतिक भाषणों में उपयोग किया जाता है. चर्चा अक्सर तथाकथित नेहरूवादी सहमति के इर्द-गिर्द घूमती है. जिसमें अमूर्त संज्ञाओं का एक सेट जो कथित तौर पर नेहरू युग को परिभाषित करता है, जिसमें गुटनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र और आधुनिकतावाद शामिल हैं. पिछले छह दशकों में राजनीतिक दलों के माध्यम से इन अवधारणाओं और उनके आधार पर चलने वाले कार्यक्रमों के बारे में चलने वाली बहसों में वे अपने मूल संदर्भ से अलग हो गए हैं. उदाहरण के लिए, समाजवाद और गुटनिरपेक्षता को शीत युद्ध की समाप्ति और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ नए अर्थों में उपयोग किया गया है. हिंदू दक्षिणपंथ के उदय के साथ धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या भी बदल गई है. ये शब्द मिथक बन गए हैं क्योंकि स्वतंत्रता के बाद के पहले दो दशकों की हमारी समझ और विचार को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपनी ताकत खो दी है.
अपने सहयोगियों और साथी इतिहासकारों की मदद से, मैं अभिलेखीय स्रोतों को सामने ला रहा हूं जो नेहरू के कार्यकारी वर्षों की नई व्याख्याएं सामने लाते हैं. मेरे शोध का उद्देश्य यह समझना है कि उस समय के लोग उन शब्दों का उपयोग कैसे करते थे जिन्हें हम अब नेहरू के साथ मजबूती से जोड़ते हैं. मैंने पाया कि इक्कीसवीं सदी में लोग तथाकथित नेहरूवादी आम सहमति के आधार को कैसे समझते हैं और नेहरू के समय में इन शब्दों का उपयोग कैसे किया गया, इसके बीच काफी अंतर है. इसके अलावा, 1940, 50 और 60 के दशक के शासक अभिजात वर्ग के पास साझा और सुसंगत विचारधारा नहीं थी. बल्कि उन्होंने अवधारणाओं पर बहस की और उन पर आधारित परियोजनाओं को लेकर असहमति जाहिर की थे. मेरी पुस्तक नेहरूज इंडिया: ए हिस्ट्री इन सेवेन मिथ्स (प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, 2022) का एक उद्देश्य यह पता लगाना है कि कैसे नेहरू काल के अंत तक सरकारी कार्यक्रमों और उस समय के आदर्शों का मूल्यांकन उन लोगों द्वारा किया जाने लगा जो उनके साथ रहते थे. फिर भी एक और उद्देश्य यह पूछने का है कि क्या नेहरू के वर्षों में अमूर्त संज्ञाओं की तुलना में बहुत कुछ और भी था जो इतनी बार लोगों द्वारा याद किया जाता है?
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