वर्तमान राजनीतिक बहसों में नेहरू की भूमिका

1947 में जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. आज उन्हें स्वतंत्र भारत का निर्माता माना जाता है. एएफपी/गैटी इमेजिस

जवाहरलाल नेहरू का नाम लोकसभा में फिर से सुनाई देने लगा है. भले ही उनका निधन लगभग साठ साल पहले हो गया हो लेकिन उनका प्रभाव भारत के राजनीतिक चर्चाओं में सुनाई देता रहता है. भारत के पहले प्रधानमंत्री और उनकी विरासत अक्सर आजकल की राजनीतिक बहसों के केंद्र में होती है. उनके नाम के साथ जुड़ा गर्व और उपहास इस बात पर निर्भर करता है कि उसका आह्वान किसके द्वारा किया गया है. वर्तमान में नेहरू के साथ जुड़ी चर्चाओं और विवाद पर बहुत स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है.

आज, नेहरू को स्वतंत्र भारत के वास्तुकार के रूप में देश की बेहतरी करने और मामलों को बदतर बनाने वाला समझा जाता है. इस उपनाम को हल्के में लेने के बजाय हम जानने की कोशिश करते हैं कि इसका क्या अर्थ है. पेशेवर आर्किटेक्ट, यहां तक ​​कि जाहा हदीद और बालकृष्ण दोशी जैसे बड़े आर्किटेक्ट को भी बहुत तालमेल बैठाना पड़ा: उन्हें ग्राहकों और पड़ोसियों के साथ, नियामकों और मजदूरों के साथ समझौता करना पड़ा. अंतिम उत्पाद पर वास्तुकार की कल्पना की छाप होती है, लेकिन यह सहयोग से निर्मित होता है. वास्तुकार को नेहरू के लिए एक रूपक के रूप में प्रयोग करने का तात्पर्य है कि उस व्यक्ति के पास देश के भविष्य के लिए एक दृष्टि थी, जो उनके पसंदीदा ब्लूप्रिंट, पंचवर्षीय योजना में तैयार की गई थी. उन्होंने बेरोकटोक उस दृष्टि को निष्पक्ष रूप से लागू करने के लिए काम किया.

उनके कुछ आलोचकों के लिए नेहरू द आर्किटेक्ट से नेहरू द ऑथोरिटेरियन तक की कल्पना करना एक छोटा कदम था. दरअसल, नेहरू पर अक्सर अपने व्यक्तित्व को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया. इस तरह के व्यक्तित्व के विकास में एक व्यक्ति को दूसरों से ऊपर रखना और उसके नेतृत्व को रहस्यमयी मानना शामिल है. अपने व्यक्तित्व की नींव को गढ़ने और मजबूत बनाने के लिए सख्त नियमन से नेता से जुड़ी कल्पनाएं और वफादारी की निर्मम मांग की आवश्यकता होती है. उनके प्रधानमंत्री पद के एक संयत मूल्यांकन से पता चलता है कि नेहरू सक्रिय रूप से इस कार्य से बचते थे. नेहरू ने अपनी शक्तियों की सीमाओं को समझा और स्वीकार किया. वह अपने ऊपर बनाए गए चुटकुलों को हल्के में लेते थे और मंच पर उनका प्रतिनिधित्व कैसे किया जाए इस सवाल में बहुत कम रुचि रखते थे. उन्होंने बताया कि उन्हें अपने नाम वाली चीजों से एलर्जी है. उन्होंने अपने विचारों को संक्षिप्त सूक्तियों में रखना पसंद नहीं किया क्योंकि ऐसा करना उन्हें कठोर बना देता और लापरवाही से युक्त वफादारी को आकर्षित करता. वास्तव में, 1957 में जब उनसे उनके भाषणों के अंशों की एक पुस्तक "नेहरूज विजडम" के लिए संपर्क किया गया, तो उन्होंने शीर्षक को आडंबरपूर्ण कहकर खारिज कर दिया. माओ त्से-तुंग से कई साल पहले नेहरू की अपनी "छोटी लाल किताब" यानी उनका एकराज अधिकार हो सकता था, लेकिन उन्होंने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.

यदि नेहरू उस विचारशून्य प्रशंसा से हिचकिचाते थे जो अक्सर उन पर थोप दी जाती थी, तो हम नेहरू को स्वतंत्र भारत के निर्माता के रूप में क्यों मानने लगे हैं? यह एक उपाधि है जो उन्हें उनकी पार्टी द्वारा प्रदान की गई थी. जब उन्होंने 1958 में राजनीति से सन्यास लेने का फैसला किया, तो कांग्रेस ने उन्हें यह कहते हुए इस्तीफा देने से मना कर दिया कि देश उनके नेतृत्व के बिना नहीं चल सकता. अपने जीवनकाल के दौरान नेहरू ने एम.के. गांधी की प्रतिमूर्ति बनने की इच्छा को फिर से पूरा करने का प्रयास किया. लेकिन 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद पूर्व प्रधानमंत्री की छवि गढ़ने की शुरूआत हुई. उनकी तस्वीर वाले सिक्के और टिकट जारी किए गए, सड़कों का नाम बदला गया और नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय के लिए दान करने की एक अपील शुरू की गई. स्मारक सभाओं में, नेताओं ने लोगों को नेहरू के विचारों के प्रति वफादारी रहने की कसमें दिलाईं, यह एक ऐसा काम था जो नेहरू के जीवित रहते असंभव होता. विशेष रूप से हर जन्म और पुण्यतिथि, 14 नवंबर और 27 मई पर कांग्रेस, पहले बयानों में और अब ट्वीटर पर नियमित रूप से भारत के वास्तुकार के रूप में उनकी प्रशंसा करती है. पिछले छह दशकों में जब कांग्रेस का नेतृत्व आत्म-संदेह और लोगों के बीच अपनी कम स्वीकृति से पीड़ित हुआ है, तब यह आह्वान अधिक मजबूत प्रतीत हुआ है.

जबकि इस मिथक को बढ़ावा देने में कांग्रेस की भूमिका साफ है, अन्य राजनीतिक दलों, विशेष रूप से सत्तारूढ़ बीजेपी ने भी भूमिका निभाई है.  ऐसा नहीं है कि नेहरू का आह्वान करने की बीजेपी की रणनीति सुसंगत हो, लेकिन यह बहस की शर्तों को निर्धारित करने और सत्ताधारी दल की आलोचना को दूर करने में प्रभावी रही है.

एक तरफ उन्होंने खुद को कांग्रेस से अलग करने की कोशिश की है, वहीं बीजेपी के सदस्यों ने नेहरू को कांग्रेस की गलतियों के प्रतीक के रूप में पेश किया है. इस तरह व्यक्तित्व का गुणगान करने के चलन ने नेहरू और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच एक प्रतियोगिता शुरू की है. यह लोकलुभावन रणनीति नेहरू को ऊपर उठाने पर निर्भर है, जबकि इसका उद्देश्य उन्हें नीचा दिखाना है. वर्तमान प्रधानमंत्री में सत्ता को केंद्रीकृत करने की रणनीति के हिस्से के रूप में, यह नेहरू को मरणोपरांत, अपने समय की तुलना में अधिक शक्तिशाली दिखाने की कोशिश करता है.

दूसरी ओर, बीजेपी और उसके समर्थक अक्सर अपनी सरकार और नेहरू सरकार के बीच तुलना करते दिखते हैं. इन आरोपों का प्रतिकार करते हुए कि मोदी व्यक्तित्व का एक पंथ बना रहे हैं, उनके समर्थक नेहरू की छवि के उपयोग और चुनाव में उनके व्यक्तिगत प्रयासों को सबूत के रूप में इंगित करते हैं कि पहले प्रधान मंत्री अलग नहीं थे। दोनों ही पक्षों के यह तर्क मोदी के आलोचकों को नेहरू के करीब लाकर उन्हें निरुत्साहित करने का काम करते हैं. जैसे भारत के विभाजन के लिए नेहरू को दोष देना बीजेपी की वर्तमान नीतियों के विभाजनकारी प्रभावों को कम करने का एक तरीका है. इसी तरह, 1962 में चीन के साथ विनाशकारी युद्ध का आह्वान करना 2023 में अपने पड़ोसी देश के साथ भारत की मुश्किल स्थिति से ध्यान हटाने का एक तरीका है. अंत में, उन उदाहरणों को याद करते हुए जिनमें नेहरू की सरकार ने गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों को हटाने के लिए राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल किया या विपक्षी दल के सदस्यों को गिरफ्तार किया, बीजेपी के समर्थक यह विचार सामने रखते हैं कि "उन्होंने भी ऐसा किया और वे और भी बुरे थे!"

इन सारी बातों का मतलब यह निकलता है कि नेहरू की सरकार की विफलताओं और अपर्याप्तताओं के कारण कांग्रेस आज सरकार के योग्य नहीं है. इस बीच, कांग्रेस जनता से जुड़ने के अपने प्रयासों में नेहरू के बचाव को शामिल करते हुए जनता को समझाने का प्रयास करती है कि उन्हें सत्ता में वापस आना चाहिए. यह भारत के जटिल इतिहास का विद्वत्तापूर्ण मूल्यांकन नहीं है. इसके बजाय, सिर्फ उदाहरणों को संदर्भ से अलग करके प्रत्येक पक्ष मिथक पर आधारित तर्क पेश करता है. यह अशोभनीय चर्चा एक ऑक्सफोर्ड यूनियन में होने वाली बहस की शैली में आयोजित की जाती है, जो कि दूसरे पक्ष को शर्मिंदा करके जीत हासिल करने जैसा होता है.

इन सभी मिथकों का परिणाम नेहरू और प्रधानमंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल से जुड़े नीरस तर्कों का एक समूह रहा जो राजनीतिक भाषणों में उपयोग किया जाता है. चर्चा अक्सर तथाकथित नेहरूवादी सहमति के इर्द-गिर्द घूमती है. जिसमें अमूर्त संज्ञाओं का एक सेट जो कथित तौर पर नेहरू युग को परिभाषित करता है, जिसमें गुटनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र और आधुनिकतावाद शामिल हैं. पिछले छह दशकों में राजनीतिक दलों के माध्यम से इन अवधारणाओं और उनके आधार पर चलने वाले कार्यक्रमों के बारे में चलने वाली बहसों में वे अपने मूल संदर्भ से अलग हो गए हैं. उदाहरण के लिए, समाजवाद और गुटनिरपेक्षता को शीत युद्ध की समाप्ति और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ नए अर्थों में उपयोग किया गया है. हिंदू दक्षिणपंथ के उदय के साथ धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या भी बदल गई है. ये शब्द मिथक बन गए हैं क्योंकि स्वतंत्रता के बाद के पहले दो दशकों की हमारी समझ और विचार को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपनी ताकत खो दी है.

अपने सहयोगियों और साथी इतिहासकारों की मदद से, मैं अभिलेखीय स्रोतों को सामने ला रहा हूं जो नेहरू के कार्यकारी वर्षों की नई व्याख्याएं सामने लाते हैं. मेरे शोध का उद्देश्य यह समझना है कि उस समय के लोग उन शब्दों का उपयोग कैसे करते थे जिन्हें हम अब नेहरू के साथ मजबूती से जोड़ते हैं. मैंने पाया कि इक्कीसवीं सदी में लोग तथाकथित नेहरूवादी आम सहमति के आधार को कैसे समझते हैं और नेहरू के समय में इन शब्दों का उपयोग कैसे किया गया, इसके बीच काफी अंतर है. इसके अलावा, 1940, 50 और 60 के दशक के शासक अभिजात वर्ग के पास साझा और सुसंगत विचारधारा नहीं थी. बल्कि उन्होंने अवधारणाओं पर बहस की और उन पर आधारित परियोजनाओं को लेकर असहमति जाहिर की थे. मेरी पुस्तक नेहरूज इंडिया: ए हिस्ट्री इन सेवेन मिथ्स (प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, 2022) का एक उद्देश्य यह पता लगाना है कि कैसे नेहरू काल के अंत तक सरकारी कार्यक्रमों और उस समय के आदर्शों का मूल्यांकन उन लोगों द्वारा किया जाने लगा जो उनके साथ रहते थे. फिर भी एक और उद्देश्य यह पूछने का है कि क्या नेहरू के वर्षों में अमूर्त संज्ञाओं की तुलना में बहुत कुछ और भी था जो इतनी बार लोगों द्वारा याद किया जाता है?

सबसे पहले, वैचारिक समानता के युग में आने से पहले नेहरू युग प्रयोगों का युग होता था. इन प्रयोगों में भारतीयों ने बीसवीं सदी के मध्य के सामाजिक विज्ञान के सभी उपकरणों को लगाया: उन्होंने छोटी और प्राथमिक परियोजनाओं के साथ शुरुआत की; मूल्यांकन के बाद समायोजन किए गए और कार्यक्रम को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया. संविधान का प्रचार होने के बाद अखिल भारतीय नीतियों में बहुत कम बड़े बदलाव हुए. योजना आयोग, सोवियत शैली के कमांड निकाय के रूप में कार्य करने के बजाय, इन प्राथमिक परियोजनाओं की देखरेख करने और विभिन्न कार्यक्रमों की प्रगति का मूल्यांकन करने के लिए महत्वपूर्ण था.  इस प्रायोगिक रवैये ने, गांव के खाद्य उत्पादन से लेकर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तक सरकार की नीति से जुड़े लगभग हर क्षेत्र तक पहुंच बनाई.

दूसरा, हर चीज को छोटे स्तर पर मैनेज करने के बजाय, शायद नेहरू ने कुछ ही समय पहले आजाद हुए देश में जो सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वह उनके  संरक्षक के विचार में निहित हो सकती है. नेहरू के उत्तर-औपनिवेशिक भारत को आकार देने के एक तरीके में उनके आसपास के ऊर्जावान लोगों द्वारा प्रस्तावित की गई सहायक परियोजनाओं को आगे बढ़ाना शामिल था. उत्तर-औपनिवेशिक भारत में अपने स्वयं के प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिए भारत की सामुदायिक विकास परियोजनाओं की अगुवाई करने वाले एसके डे से लेकर दुर्गाबाई देशमुख तक, जिन्होंने देश के कुछ पहले कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना की, प्रधानमंत्री का सम्मान और अभिवादन अर्जित करने वाले प्रतिभाशाली पुरुषों और महिलाओं को प्रोत्साहन और समर्थन दिया गया।। देश में सबसे प्रमुख कार्यालय नेहरू के पास थे और इसलिए उन्हें देखने, उद्घाटन करने, सलाह देने और बाधाओं को दूर करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था इस तरह इन दूरदर्शियों ने अपने संस्थानों का निर्माण किया था. लेकिन उन्होंने ऐसा संरक्षक के रूप में किया, कोई महाराजा बतौर नहीं. दूसरों के माध्यम से शासन करने के हमेशा अच्छे परिणाम नहीं होते थे, उदाहरण के लिए, जम्मू और कश्मीर के प्रधान मंत्री के रूप में शेख अब्दुल्ला को हटाने और 1953 में उनकी जगह अधिक विनम्र बख्शी गुलाम मोहम्मद को लाने का निर्णय. उनके संरक्षण से लाभान्वित होने वालों की अपनी परियोजनाओं पर कभी-कभी अपव्यय या भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था.

उद्योगपति जेआरडी टाटा, परमाणु भौतिक विज्ञानी होमी जे भाभा और जवाहरलाल नेहरू. नेहरू का कार्यकाल प्रयोगों का काल था. वह पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अपने आस-पास के लोगों को उनके संस्थान खड़ा करने के लिए सशक्त बनाया. दिनोदिया फोटोज / गैटी इमेजिस

तीसरा, इस अवधि में भारत ने अपना अंतर्राष्ट्रीयवाद विकसित किया, जिसके कई पहलू थे. शुरुआत करने के लिए, नेहरू और अक्सर बेलगाम राजनयिकों की उनकी बड़ी टीम ने एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए एक साझा विचार तैयार किया, जो साम्राज्यवाद और उसकी विरासत को कमजोर करने पर केंद्रित था. उनके कार्यक्रम में नियम पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित करने में मदद करके शांति को बढ़ावा देना शामिल था. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अल्पसंख्यकों सहित लोगों पर ध्यान देने के लिए यह अद्वितीय था. भारतीय अंतर्राष्ट्रीयता गुटनिरपेक्षता की तुलना में अधिक रचनात्मक और अधिक महत्वाकांक्षी थी. उसी समय, अनुशासनहीन राजनयिकों, जिनकी आपस में एक जैसी समझ थी और जिन्होंने अक्सर नई दिल्ली से निर्देश प्राप्त करना भी टाल दिया, के माध्यम से जटिल शाही विरासत को खत्म करने के प्रयास किए गए और जो हमेशा सुसंगत और सफल विदेश नीति का निर्माण नहीं कर पाए थे.

भारतीय अंतर्राष्ट्रीयतावाद महत्वाकांक्षी था क्योंकि देश ने खुद को उपनिवेशवादी दुनिया में एक नेता के रूप में माना. भारत ने अपने प्रयोगों से प्राप्त ज्ञान को एशिया और अफ्रीका के अन्य भागों तक पहुंचाने की कोशिश की. जिसे देखकर लगता है कि जितना संभव हो संयुक्त राष्ट्र के उतने निकायों में नेतृत्व की भूमिका पाने की कोशिश की गई. हंसा मेहता ने मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा का मसौदा तैयार करने में मदद की और उनके गुजर जाने के बाद कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने उनकी जगह ले ली. रामास्वामी मुदलियार और पालमदई एस लोकनाथन, क्रमशः आर्थिक और सामाजिक परिषद के पहले अध्यक्ष और एशिया और सुदूर पूर्व के आर्थिक और सामाजिक आयोग के पहले कार्यकारी सचिव थे. राजकुमारी अमृत कौर ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के संस्थापक सदस्य के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व किया और भौतिक विज्ञानी होमी जे भाभा ने परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग पर पहले संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की अध्यक्षता की. कम पहचाने जाने वाले भारतीयों ने 1952 तक संयुक्त राष्ट्र तकनीकी सहायता प्रशासन में 136 में से 84 स्थानों पर कब्जा कर लिया था. बहुउद्देश्यीय बांधों से लेकर लोकतांत्रिक संस्थानों तक हर चीज के निर्माण पर भारतीय परामर्श और सलाह देने का कम कर रहे थे, उन सभी मिश्रित परिणामों के साथ जिनकी उम्मीद बीसवीं सदी के मध्य की विकास से जुड़ी रणनीतियों से की गई थी.

नेहरू काल की चौथी विशेषता यह थी कि 1950 के दशक की लगभग सभी प्रमुख परियोजनाएं ब्रिटिश राज से विरासत में मिले प्रशासनिक तंत्र से अलग करके बनाई गई थीं. चाहे राजनेता हों या नौकरशाह, भारतीय अपनी औपनिवेशिक विरासत की आलोचना में लगभग एकमत थे. औपनिवेशिक शासन के प्रशासकों की उनके व्यवहार के रूखेपन और पहल करने की कमी के लिए आलोचना की गई थी और उन्हें अपने काम में एक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण विकसित करने की हिदायत भी दी गई थी. इसलिए स्वतंत्रता के बाद के पहले दशक में भारत के नए नेताओं ने रचनात्मक और अक्सर अच्छी तरह से जुड़े व्यक्तियों द्वारा स्थापित स्वायत्त निकायों के माध्यम से शासन करने का प्रयोग किया. यह योजना आयोग, केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड, फरीदाबाद विकास बोर्ड, दामोदर घाटी निगम और कई सार्वजनिक उद्यमों के बारे में सच साबित हुआ. इनमें से सभी सफल नहीं रहे और आजादी के बाद दूसरे दशक में इसका उलटा ही हुआ क्योंकि ये निकाय या तो समाप्त हो गए थे या इन्हें मौजूदा प्रशासन में समाहित कर दिया गया था.

नेहरू काल को परिभाषित करने वाली पांचवी विशेषता है लोकप्रिय लामबंदी को निरंतर महत्व देना. आरोप लगाए जाते हैं कि नेहरू और उनके आसपास के अभिजात वर्ग ने अगुआई करने के कार्य पर एकाधिकार कर लिया और पद त्यागकर जांच नहीं होने देने के राष्ट्रीय आंदोलन को खड़ा किया. राष्ट्र-निर्माण में भाग लेने के लिए आम भारतीयों, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को मनाने के लिए लगभग निरंतर प्रयास किए गए. ये प्रयास एक उत्पाद थे, न केवल उस समय राजकोषीय कमजोरी को दूर करने का जब सरकार को नियमित रूप से भुगतान संकट का सामना करना पड़ा, बल्कि एक विचार यह भी जुड़ा था कि श्रम व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए और इसलिए योग्य नागरिकों के निर्माण के लिए केंद्रीय महत्व रखता था.

चाहे कुएं बनाने की बात हो या स्कूल बनाने की, नागरिकों को अपनी सहायता खुद करने के लिए कहा जाता था. यह पिछले दशकों की उपनिवेश-विरोधी लामबंदी की तुलना में अधिक जटिल कार्य था, क्योंकि सरकार भारतीयों की मांग को आकार देने का प्रयास कर रही थी, यहां तक ​​कि यह उन्हें सरकार और अपने रोजमर्रा के जीवन में अधिक अपेक्षाएं रखने के लिए प्रेरित करने की कोशिश कर रही थी.

राष्ट्र-निर्माण में भाग लेने का यह निमंत्रण निजी उद्यमों को भी दिया गया. 1955 में अवाडी में कांग्रेस की बैठक के तुरंत बाद, जिसमें देश को समाजवादी रास्ते का अनुसरण करने के लिए प्रतिबद्ध किया गया, सरकार के वरिष्ठ लोग भारत के उद्योगपतियों को यह समझाने में सफल हुए कि वे खतरे में नहीं थे. नेहरू ने अपनी वार्षिक बैठक में फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री को आश्वस्त करते हुए कहा, "सिर्फ एक शब्द से भयभीत होने का कोई मतलब नहीं है." इसके बजाय, उन्होंने उनसे खुद को योजना का हिस्सा बनाने के लिए कहा. निजी उद्योग इसे कई तरीकों से कर सकते हैं. वे योजना के लक्ष्यों को देख सकते थे और उन्हें हासिल करने के लिए काम कर सकते थे. उदाहरण के लिए, टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड ने 1956 से 1961 तक दूसरी पंचवर्षीय योजना की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इस्पात उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार के साथ सहयोग किया. बड़े व्यवसायों को भी करों का भुगतान करने और कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए प्रतिबद्ध होने के लिए कहा गया था.

जबकि सरकारी खजाने में भुगतान करने की अपील को काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया था, 1950 के दशक में नागरिक प्रशासन जिसमें आवास, विद्यालय, खेल के मैदान, बिजली शामिल था, कॉर्पोरेट परिदृश्य की एक अधिक नियमित विशेषता थी. बदले में, कंपनियों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से सुरक्षा मिली, लागत में मदद मिली और गुणवत्ता नियंत्रण और विपणन पर मार्गदर्शन मिला. जैसा कि 1966 में कॉर्पोरेट निजी क्षेत्र की संरचना पर आरके हजारी की रिपोर्ट ने स्पष्ट किया, निजी क्षेत्र ने नेहरू के वर्षों में "आर्थिक शक्ति की एकाग्रता में एक स्पष्ट और महत्वपूर्ण वृद्धि" देखी थी.

अंत में, इस युग ने भारत के उच्च-जाति, उच्च-वर्ग के अभिजात वर्ग के लिए सत्ता के शिखर को चिह्नित किया. उन्होंने दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, शहरी गरीबों और आम तौर पर ग्रामीण आबादी के उत्थान में सहायता करने के लिए एक-दूसरे की सहायता करते हुए शैक्षणिक ढंग से काम किया. बेशक, आज हम इस तरह की सहायता की गहरी संरक्षणवादी प्रकृति को पहचानते हैं और भारत के अभिजात वर्ग के लिए इसकी अपील को समझ सकते हैं क्योंकि इसने उनके विशेषाधिकार को मजबूत किया है. लोगों की भागीदारी ने इसे समाप्त करने के बजाय मौजूदा पदानुक्रमों का पुनरुत्पादन किया है. इस वजह से, हालांकि कई आधिकारिक कार्यक्रमों का उद्देश्य असमानता को कम करना था, लेकिन उन्होंने अप्रत्याशित तरीके से खाई को और चौड़ा कर दिया.

वर्तमान समय की राजनीतिक बहसों में नेहरू की इतनी चर्चा अतीत के चतुर मूल्यांकन के अलावा और कुछ भी नहीं है. नेहरू काल की जटिलताओं की नपी-तुली समझ के लिए व्हाट्सएप फॉरवर्ड, ट्वीट या यहां तक ​​कि लोकसभा की बहसों से भी अधिक जानकारी की जरूरत है. हालांकि, एक बात स्पष्ट है: देश से जुड़े अतीत की हमारी व्याख्या पर नेहरू का जो प्रभाव पड़ता है, वह उस अवधि की सफलताओं और असफलताओं को समझने में बाधा बनता है.