जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस (जेएएस )के जनवरी 2021 के अंक में “उत्तर पश्चिम भारत में सिंधु सभ्यता के मिट्टी के बर्तनों में लिपिड अवशेष” शीर्षक से एक शोधपत्र प्रकाशित होगा. जेएएस की वेबसाइट पर उपलब्ध अध्ययन में वर्तमान हरियाणा और उत्तर प्रदेश से मिले मिट्टी के बर्तनों में मांस व्यंजन, जैसे सूअर, मवेशी, भैंस का मांस और डेयरी, पाया गया है. कारवां की एडिटोरियल फेलो अमृता सिंह को दिए ईमेल साक्षात्कार में फ्रांस में पोस्ट-डॉक्टरल शोधकर्ता अक्षिता सूर्यनारायण, जिन्होंने अध्ययन का नेतृत्व किया, ने इन निष्कर्षों की व्याख्या की है.
अमृता सिंह : क्या आप अध्ययन के निष्कर्षों और इसकी प्रक्रिया के बारे में बता सकती हैं?
अक्षिता सूर्यनारायण : अध्ययन उन अवशोषित लिपिड की जांच करता है जो प्राचीन मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों में अंतर्निहित है. मिट्टी के बर्तन में चमक नहीं होती और वे बहुत छिद्रपूर्ण होते हैं और खाद्य पदार्थों को पकाने या प्रसंस्करण की प्रक्रिया से वसा, मोम और अन्य जैव रासायनिक घटक बर्तन की परत पर अवशोषित हो जाते हैं. वसा और तेल कम खराब होते हैं और मिट्टी के बर्तनों के भीतर हजारों वर्षों तक जीवित रह सकते हैं (हालांकि वे बदल जाते हैं और टूट जाते हैं).
अध्ययन में प्रयुक्त तकनीक को लिपिड अवशेष विश्लेषण कहा जाता है. मिट्टी के बर्तनों का एक छोटा सा टुकड़ा साफ किया जाता है और फिर उसे पीस दिया जाता है और मिट्टी के बर्तनों से लिपिड निकालने के लिए सॉल्वैंट्स का उपयोग किया जाता है. अर्क का विश्लेषण गैस क्रोमैटोग्राफी (एक विश्लेषणात्मक तकनीक) और गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (एक विश्लेषणात्मक विधि) के माध्यम से किया जाता है, जिसके जरिए विभिन्न यौगिकों को अलग किया जाता है और उनकी पहचान की जाती है. इसके बाद अर्क के भीतर वसा के कुछ भी समस्थानिक विश्लेषण का उपयोग करके विश्लेषण किया जाता है, जो विभिन्न प्रकार के जानवरों के मांस, जैसे कि जुगाली करने वाले और जुगाली न करने वाले, और डेयरी उत्पाद के बीच अंतर करने में मदद करता है .
यह उत्तर पश्चिमी भारत में सिंधु सभ्यता के ग्रामीण और शहरी स्थलों से मिट्टी के बर्तनों के लिपिड अवशेषों पर पहला व्यवस्थित अध्ययन है. लिपिड अवशेष विश्लेषण दूध उत्पादों, मांस और उत्पादों के संभावित मिश्रण या मिट्टी के बर्तनों में साग-सब्जी के उपभोग के रासायनिक सबूत देता है. डेयरी उत्पादों के लिए आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, जिनमें छिद्रित बर्तन भी शामिल हैं, जो पहले डेयरी उपयोग से जुड़े थे. जुगाली करने वाले मांस उत्पादों के प्रसंस्करण के लिए सबूत हैं लेकिन ये मवेशी भैंस, भेड़ या बकरी या हिरण हो सकते हैं. अधिकांश बर्तनों में सूअरों जैसे जुगाली न करने वाले जानवरों के मांस के प्रसंस्करण का संकेत मिलता है लेकिन परिणाम अभी भी अस्पष्ट हैं और कई व्याख्याएं संभव हैं जिसमें यह भी शामिल है कि यह उत्पादों का मिश्रण या पादप उत्पाद हैं. बस्तियों में बर्तनों के उपयोग में समानताएं हैं, जो सामान्य क्षेत्रीय पाक प्रथाओं का सुझाव दे सकती हैं. शहरीकरण में आई गिरावट के बाद भी ग्रामीण बस्तियों में निरंतर बर्तनों के इस्तेमाल करने के प्रमाण हैं और इस क्षेत्र में बढ़ती अम्लता की शुरुआत के दौरान, यह दर्शाता है कि सांस्कृतिक और पर्यावरणीय परिवर्तनों के बावजूद रोजमर्रे की जिंदगी जारी रही.
अमृता सिंह : क्या यह अध्ययन स्थापित करता है कि प्राचीन भारत में लोग गायों और भैंसों का मांस खाते थे?
अक्षिता सूर्यनारायण : बर्तनों में अवशोषित अवशेष बर्तनों में जुगाली करने वाले जानवरों के मांस पकाने का सबूत देते हैं और जानवरों की हड्डियां सुझाती हैं कि ये जानवर भेड़ या बकरी, मवेशी या भैंस और हिरण हो सकते हैं. प्रजातियों के स्तर की पहचान करना बहुत मुश्किल है लेकिन कुछ बर्तनों में जानवरों के मांस में बहुत सारे सी4 पौधे हैं यानी घास. सिंधु पुरातात्विक स्थलों पर पाए जाने वाले जानवरों की हड्डियों में अधिकांश मवेशी या भैंस की हैं और हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि मवेशी या भैंस ने बहुत सारे सी4 पौधे खाए थे.
कुछ बर्तन ऐसे हैं जिनसे डेयरी उत्पादों का सबूत मिलता है, जो संभवतः मवेशियों या भैंसों से मिलता है. यह अध्ययन यह सुझाव देता है कि प्राचीन दक्षिण एशिया में लोग मांस या मवेशी या भैंस का मांस खाते थे!
सिंधु सभ्यता का अध्ययन करने वाले कई जू-आर्कलॉजिस्टों ने सिंधु स्थलों पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार की जानवरों की हड्डियों की उपस्थिति की सूचना दी है, जिसमें मवेशी, पानी में रहने वाली भैंस, भेड़, बकरी, सूअर, जंगली हिरण और मछली शामिल हैं. इन हड्डियों में से कई पर कसाई के निशान हैं जो इस तरफ इशारा करते हैं कि उनका उपयोग मांस के लिए किया गया था.
अमृता सिंह : क्या इससे यह पता चलता है कि गोमांस खाने का प्रतिबंध हड़प्पा सांस्कृतिक प्रथाओं का हिस्सा नहीं था?
अक्षिता सूर्यनारायण : सिंधु सभ्यता में आहार निषेध के बारे में अभी तक हमारी स्पष्ट समझ नहीं है. हमें सिंधु सभ्यता स्थलों पर बड़ी संख्या में मवेशियों की हड्डियों का पता लगा है जो यह सुझाता हैं कि वे कृषि और देहाती अर्थव्यवस्था का बहुत अभिन्न अंग थे और शायद उन्हें खाया भी जाता था.
अमृता सिंह : अध्ययन में जुगाली न करने वाले जानवरों के वसा की प्रबलता पाई गई है लेकिन सिंधु की बस्तियों में सूअर जैसे जानवरों के अवशेष बड़ी मात्रा में नहीं पाए गए हैं. क्या आप बता सकते हैं कि यह क्या इंगित करता है?
अक्षिता सूर्यनारायण : अध्ययन में उपयोग की जाने वाली तकनीक जुगाली करने वाले यानी घास खाने वाले और जुगाली न करने वाले (सर्वाहारी) जानवरों के बीच अंतर को समर्थ बनाती है. हमें सबसे ज्यादा आश्चर्य इससे हुआ कि हमने पाया कि बर्तनों के अधिकांश अवशेष जुगाली न करने वाले या सर्वाहारी जानवरों के मांस के मूल्यों का प्रदर्शन करते हैं. सिंधु स्थलों पर पाए जाने वाले सर्वाहारी जानवरों के एकमात्र अवशेष सूअर, खरगोश और पक्षी हैं लेकिन घरेलू जुगाली करने वाले जानवरों, जैसे मवेशी और भेड़ या बकरी, से अनुपात में बहुत कम हैं.
जो बात चीजों को अधिक जटिल बनाती है वह यह है कि पौधों के उत्पाद और मिश्रण आइसोटोपिक मूल्यों का उत्पादन करते हैं जो जुगाली न करने वाले उत्पादों के समान हैं. समय के साथ कई पौधों और जानवरों के उत्पादों के लिए बर्तन का बार-बार उपयोग किया जा सकता है और यह उन मूल्यों का निर्माण कर सकता है जिनसे एकल मूल को पकड़ना मुश्किल है. इस प्रकार यह सबूत सिर्फ एक व्याख्या भर के लिए नहीं हैं. इसलिए परिणामों में अनिश्चितता को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है.
अमृता सिंह : क्या आप अपने अध्ययन में जुगाली करने वाले और डेयरी उत्पाद वाले पशुओं के मांस के सीमित साक्ष्य के बारे में विस्तार से बता सकती हैं? यह क्या दर्शाता है?
अक्षिता सूर्यनारायण : सिंधु स्थलों पर पाए जाने वाले जानवरों की हड्डियों से पता चलता है कि मवेशी या भैंस सबसे प्रचुर मात्रा में पाए जाते थे. औसतन 50 से 60 प्रतिशत जानवरों की हड्डियां पाई जाती हैं जिसमें भेड़ या बकरी की 10 प्रतिशत हैं. यही कारण है कि यह आश्चर्यजनक है कि अध्ययन में बर्तनों में डेयरी उत्पादों के ऐसे सीमित प्रत्यक्ष प्रमाण पाए गए हैं और जुगाली न करने वालों की तुलना में जुगाली करने वाले पशुओं के मांस के उत्पादों के लिए कम प्रत्यक्ष प्रमाण हैं.
हालांकि, सिंधु आबादी के लिए उपलब्ध संसाधनों की विविधता को देखते हुए यह संभव है कि बर्तनों को जीवन भर पादप और पशु उत्पादों दोनों खाद्य पदार्थों का निर्माण करने के लिए उपयोग किया गया था. उत्पादों का मिश्रण एकल स्रोत को विघटित करना चुनौतीपूर्ण बनाता है.
अमृता सिंह : अध्ययन में उल्लेख किया गया है, “... हालांकि शहरी और ग्रामीण बस्तियां विशिष्ट थीं और उनमें रहने वाले लोग विभिन्न प्रकार की भौतिक संस्कृति और मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे… हो सकता है कि उन्होंने खाना पकाने की प्रथाओं और खाद्य पदार्थों को तैयार करने के तरीके साझा किए हों.” क्या आप इन प्रथाओं के बारे में बता सकती हैं?
अक्षिता सूर्यनारायण : सिंधु सभ्यता के शहरों में कई अनुसंधान और शोध हुुए हैं. वे निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं पर हालिया शोध सिंधु सभ्यता के ग्रामीण चरित्र की विशिष्टता को उजागर कर रहे हैं. ग्रामीण बस्तियो में खास ढंग के मिट्टी के बर्तन बनाए जाते और विभिन्न फसलें उगाई जाती थीं. साथ ही शहरों और आगे दूर तक भी उनके संपर्क थे.
इस अध्ययन से पता चलता है कि फरमाना कस्बे और राखीगढ़ी के शहर में एक ही क्षेत्र के भीतर, गांवों में बर्तनों में पकाए या उपयोग किए जाने वाले उत्पाद समान थे और इसमें कई प्रकार के पौधे, मांस और डेयरी उत्पाद शामिल थे. यह क्षेत्र के साझा भोजन का संकेत दे सकता है. हालांकि, खाना पकाने के तरीकों या व्यंजनों के विशिष्ट विवरणों को जानना संभव नहीं है.
अमृता सिंह : उत्तर पश्चिम भारत में सिंधु सभ्यता द्वारा खाए गए भोजन पर मौजूदा विमर्श को यह अध्ययन कैसे जोड़ता है? यह प्राचीन मिट्टी के बर्तनों पर किए गए पिछले अध्ययनों से कैसे भिन्न है?
अक्षिता सूर्यनारायण : सिंधु सभ्यता में कई जगहों पर बर्तनों की वास्तविक सामग्री को देखने वाला यह पहला व्यवस्थित अध्ययन है. हमारे पास पौधों के अवशेषों या फसलों और उपयोग किए गए जानवरों पर बहुत सारे शोध हैं लेकिन यह तकनीक हमें खाद्य पदार्थों की और यहां तक कि डेयरी जैसे माध्यमिक उत्पादों की एक झलक पाने में सक्षम बनाती है. परिणाम सिंधु आबादी द्वारा उपयोग किए जाने वाले उत्पादों की विविधता की पुष्टि करते हैं.
प्राचीन मिट्टी के बर्तनों पर किए गए अध्ययनों का जोर आमतौर पर मिट्टी के बर्तनों के उत्पादन तक होता है न कि उनके उपयोग पर. लिपिड अवशेषों पर हुआ एक पुराना अध्ययन नौशारो के एक एकल छिद्रित बर्तन की जांच करता है और सुझाव देता है कि इसका उपयोग डेयरी उत्पादों के लिए किया गया था लेकिन इस अध्ययन से यह पता नहीं चलता है कि छिद्रित बर्तनों का उपयोग डेयरी को संसाधित करने के लिए किया गया था. एक हालिया अध्ययन ने गुजरात के सोरठ हड़प्पा स्थल से बर्तनों की जांच की और जिस तरह के परिणाम हमारे रहे उसी तरह के परिणाम पेश किए लेकिन उसने डेयरी उत्पादों के अधिक प्रमाणों की रिपोर्ट की.
अमृता सिंह : आपको क्या लगता है कि भारतीय अकादमिक जगत इस अध्ययन को किस तरह लेगा? भारत में लिपिड विश्लेषण के लिए क्या इस अध्ययन से रास्ता खुलेगा?
अक्षिता सूर्यनारायण : मुझे उम्मीद है कि इस अध्ययन से दक्षिण एशिया में प्राचीन खाद्य पदार्थों के बारे में अधिक चर्चा होगी! अभी बहुत कुछ खोजा जाना बाकी है. दक्षिण एशिया पर शोध करने वाले अन्य पुरातत्वविद पहले से ही लिपिड अवशेषों के विश्लेषण और दांतों और हड्डी के समस्थानिक विश्लेषण के माध्यम से आहार को लेकर अन्य जांच कर रहे हैं. उम्मीद है पुरातात्विक विज्ञान को तकनीकों के बढ़ते उपयोग से नई अंतर्दृष्टि मिलेगी. हालांकि, इस शोध के साथ एक बड़ी चुनौती यह है कि जैविक अवशेष बहुत अच्छी तरह से जीवित नहीं हैं और यह विस्तृत विश्लेषण को सीमित करते हैं.