लंबे समय से यह एक पहेली बनी हुई है कि ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ शीर्षक वाली विवादास्पद पुस्तक के लेखक एम. एस. गोलवलकर हैं या यह हिंदुत्व विचारधारा के प्रसिद्ध सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर की मराठी पुस्तक का महज़ एक अनुवाद है. पुस्तक के लेखक से संबंधित यह कोई मामूली विवाद नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में गोलवलकर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है. वह इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक थे और इस पद पर 1940 से 1973 तक बने रहे. ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ पुस्तक 1939 में उनके नाम से प्रकाशित हुई थी और इसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर उन्हें एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया और इसने संघ की विचारधारा को पहली बार व्यवस्थित ढंग से व्याख्यायित किया. एडोल्फ हिटलर से प्रेरणा लेते हुए इस पुस्तक में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि भारत हिंदुओं का देश है और यहां के अल्पसंख्यकों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा नाज़ियों ने यहूदियों के साथ किया था. इस पुस्तक ने असंदिग्ध रूप से संघ को नाज़ी जर्मनी की फासिस्ट विचारधारा के साथ जोड़ दिया.
15 मई 1963 को विनायक दामोदर सावरकर के अस्सीवें जन्म दिवस के अवसर पर, जिसे उनके अनुयायियों ने ‘सैन्यवाद सप्ताह’ का नाम दिया था, मुंबई में आयोजित एक समारोह में गोलवलकर ने दावा किया कि वह पुस्तक वस्तुतः गणेश सावरकर की पुस्तक ‘राष्ट्रमीमांसा वा हिंदुस्तानचें राष्ट्रस्वरूप’ का एक संक्षिप्त अनुवाद है. गणेश सावरकर, जिन्हें बाबाराव सावरकर के नाम से भी जाना जाता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांच संस्थापक सदस्यों में से एक थे. ‘राष्ट्रमीमांसा’ नामक पुस्तक, जिसके शीर्षक का अनुवाद राष्ट्रों के सिद्धांत और हिंदुस्तान का रूपांतरण होगा, ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ के प्रकाशन से पांच वर्ष पूर्व 1934 में हुआ था .
डी. आर. गोयल लिखित संघ के इतिहास के अनुसार, गोलवलकर के इस रहस्योद्घाटन को किसी ने तवज्जो नहीं दी और उनके भाषण का यह अंश अन्य किसी अख़बार में भी देखने को नहीं मिला. लेकिन 1990 के दशक के उत्तरार्ध में, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी, सत्ता में आई तो उसने अपने को साफ़-सुथरा दिखाने के लिए और नाज़ियों के साथ संघ के घनिष्ठ संबंध होने से संबंधित असहज सवालों से ख़ुद को बचाने के लिए इसे एक ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया. उस समय से ही बीजेपी, संघ और उनके समर्थकों ने ख़ुद को और गोलवलकर को नाज़ी विचारधारा से दूर रखने के लिए इस दावे का इस्तेमाल किया है.
गोलवलकर के इस दावे की कभी किसी ने गंभीरता से छानबीन नहीं की. इसका मुख्य कारण यह था कि बाबाराव की मराठी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद से ही चलन से बाहर हो गई थी, उसका कभी पुनर्मुद्रण नहीं हुआ और उसे काफ़ी पहले भुला दिया गया था. वैसे भी गोलवलकर के इस दावे से लगभग दो दशक पहले ही 1945 में बाबाराव का निधन हो चुका था. नतीजतन किसी भी समकालीन शोधकर्ता या आलोचक ने दोनों पुस्तकों की तुलना का प्रयास नहीं किया.