गुरुजी का झूठ

नाजीवाद के साथ आरएसएस और एमएस गोलवलकर के अकाट्य संबंध

इलस्ट्रेशन : सुक्रुती अनह स्टैनली
25 August, 2021

लंबे समय से यह एक पहेली बनी हुई है कि वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड शीर्षक विवादास्पद पुस्तक के लेखक एमएस गोलवलकर हैं या यह हिंदुत्व विचारधारा के प्रसिद्ध सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर की मराठी पुस्तक का महज एक अनुवाद है. पुस्तक के लेखक से संबंधित यह कोई मामूली विवाद नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में गोलवलकर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है. वह इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक थे और इस पद पर 1940 से 1973 तक बने रहे. वी ऑर आवर... पुस्तक 1939 में उनके नाम से प्रकाशित हुई जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंदर उन्हें एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया और इसने संघ की विचारधारा को पहली बार व्यवस्थित ढंग से व्याख्यायित किया. एडोल्फ हिटलर से प्रेरणा लेते हुए इस पुस्तक में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत हिंदुओं का देश है और यहां के अल्पसंख्यकों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा नाजियों ने यहूदियों के साथ किया था. इस पुस्तक ने असंदिग्ध रूप से आरएसएस को नाजी जर्मनी की फासिस्ट विचारधारा के साथ जोड़ दिया.

15 मई 1963 को विनायक दामोदर सावरकर के 80वें जन्म दिवस के अवसर पर, जिसे उनके अनुयायियों ने "सैन्यवाद सप्ताह" का नाम दिया था, मुंबई में आयोजित एक समारोह में गोलवलकर ने दावा किया कि वह पुस्तक वस्तुतः गणेश सावरकर की पुस्तक राष्ट्रमीमांसा वा हिंदुस्तानचें राष्ट्रस्वरूप का एक संक्षिप्त अनुवाद है. गणेश सावरकर, जिन्हें बाबाराव सावरकर के नाम से भी जाना जाता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांच संस्थापक सदस्यों में से एक थे. राष्ट्रमीमांसा नामक पुस्तक का प्रकाशन, जिसके शीर्षक का अनुवाद 'राष्ट्रों के सिद्धांत और हिंदुस्तान का रूपांतरण' होगा, वी ऑर आवर... के प्रकाशन से पांच वर्ष पूर्व 1934 में हुआ था.

डीआर गोयल लिखित संघ के इतिहास के अनुसार गोलवलकर के इस रहस्योद्घाटन को किसी ने तवज्जो नहीं दी और उनके भाषण का यह अंश अन्य किसी अखबार में भी देखने को नहीं मिला. लेकिन 1990 के दशक के उत्तरार्ध में, जब राष्ट्रीय स्वयं संघ का राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो उसने अपने को साफ-सुथरा दिखाने के लिए और नाजियों के साथ संघ के घनिष्ठ संबंध होने से संबंधित असहज सवालों से खुद को बचाने के लिए इसे एक ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया. उस समय से ही बीजेपी, आरएसएस और उनके समर्थकों ने खुद को और गोलवलकर को नाजी विचारधारा से दूर रखने के लिए इस दावे का इस्तेमाल किया है.

गोलवलकर के इस दावे की कभी किसी ने गंभीरता से छानबीन नहीं की. इसका मुख्य कारण यह था कि बाबाराव की मराठी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद से ही चलन से बाहर हो गई थी, उसका कभी पुनर्मुद्रण नहीं हुआ और उसे काफी पहले भुला दिया गया था. वैसे भी गोलवलकर के इस दावे से लगभग दो दशक पहले ही 1945 में बाबाराव का निधन हो चुका था. नतीजतन किसी भी समकालीन शोधकर्ता या आलोचक ने दोनों पुस्तकों की तुलना का प्रयास नहीं किया.

1934 की प्रकाशित वह पुस्तक पिछले वर्ष अक्टूबर में मुझे मुंबई के प्राचीनतम पुस्तकालयों में से एक मराठी ग्रंथ संग्रहालय मे मिली. वी ऑर आवर... की तुलना बाबाराव की पुस्तक से करने के बाद एक बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती है : गोलवलकर का 1963 में किया गया दावा पूरी तरह झूठा था. वी ऑर आवर... में उन्होंने नाजी जर्मनी के प्रति अपने प्रेम का जो प्रदर्शन किया था और भारत को नाजियों के रास्ते पर चलने की जो सिफारिश की थी वैसी कोई भी बात राष्ट्रमीमांसा नामक पुस्तक में नहीं थी.

1930 और 1940 के उत्तरार्ध में आरएसएस के अनेक सदस्य यूरोप के फासिस्टों पर बहुत ज्यादा मुग्ध थे. उस समय के विवरणों से पता चलता है कि गोलवलकर आरएसएस को नाजियों के संगठन की तरह एक मिलीशिया का रूप देना चाहते थे जिसका उद्देश्य आगे चल कर अपने आप को फ्यूरर के रूप में स्थापित करना था. 1963 से पहले खुद गोलवलकर के लेखन को और उनके जीवन से संबंधित विवरण को अगर देखें तो उनका यह दावा गलत साबित होता है कि उनकी वी ऑर आवर...पुस्तक महज एक अनुवाद थी.

फ्यूरर बनने की गोलवलकर की योजना उस समय मटियामेट हो गई जब 1948 में आरएसएस के एक सदस्य ने मोहनदास गांधी की हत्या कर दी और फिर सरकार को इस संगठन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी पड़ी. जैसे-जैसे नाजियों और आरएसएस के प्रति लोगों की नफरत बढ़ती गई, गोलवलकर ने अपनी छवि को दूसरा रूप देना चाहा और खुद को एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में चित्रित करना शुरू किया. इसी संदर्भ में उन्होंने 1963 में अपनी लिखी पुस्तक से दूरी बनानी शुरू की. लेकिन जैसा कि अनेक शोधकर्ताओं और पत्रकारों ने विभिन्न दस्तावेजों के जरिए प्रमाणित किया है, वी ऑर आवर... और इसके विचार अभी भी आरएसएस की विश्व दृष्टि के और भावी भारत की इसकी उम्मीद के अभिन्न अंग हैं.

1963 में, गोलवलकर ने अपनी पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, जिसमें उन्होंने जर्मन नाजियों की प्रशंसा की थी और भारत में नाजी शैली की सरकार का सुझाव दिया ​था, के बारे में दावा किया यह उनकी अपनी रचना नहीं थी, बल्कि गणेश सावरकर की राष्ट्रमीमांसा का अनुवाद था. यह एक झूठ था.

गोलवलकर ने निश्चित तौर पर राष्ट्रमीमांसा से प्रेरणा ली और इसे अपने एक मुख्य स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया. उन्होंने वी ऑर आवर... की प्रस्तावना में बाबाराव के प्रभाव को स्वीकार किया है. गोलवलकर लिखते हैं, "इस कार्य को तैयार करने में मुझे अनेक स्रोतों से मदद मिली- इतने ज्यादा स्रोतों से जिनका उल्लेख करना संभव नहीं है. मैं उन सबको दिल से धन्यवाद देता हूं तो भी मैं देशभक्त जीडी सावरकर के प्रति अलग से अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने से खुद को रोक नहीं सकता. मराठी में लिखी उनकी कृति राष्ट्रमीमांसा से मैंने मुख्य रूप से प्रेरणा ली और मदद ली. इसका अंग्रेजी अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है और मैं इस अवसर का लाभ उठाते हुए पाठकों से चाहूंगा कि वे इस विषय पर और भी व्यापक अध्ययन करें."  इस प्रकार हम देखते हैं कि अपनी पुस्तक लिखते समय गोलवलकर को इसके रचयिता को लेकर किसी तरह का भ्रम नहीं था. वह बाबाराव की पुस्तक के बारे में जानते थे और इसे उन्होंने स्वीकार भी किया है लेकिन यह स्पष्ट किया है कि वी ऑर आवर... उनकी खुद की रचना है न कि अनुवाद. गोलवलकर ने बाद के 25 वर्षों से भी अधिक समय तक न तो कभी अपनी पुस्तक में, न अपने किसी भाषण अथवा लेखन में यह दावा किया कि उनकी यह कृति राष्ट्रमीमांसा का अनुवाद है.

राष्ट्रमीमांसा पढ़ते समय मैंने पाया कि वी ऑर आवर... में प्रस्तुत सभी आलोचनात्मक सूत्रीकरण पूरी तरह गोलवलकर के हैं--खासतौर पर नाजी यहूदी विरोधी भावना के तर्ज पर हिंदू संस्कृति को बढ़ावा देने का प्रोजेक्ट और भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए पूरी तरह आत्मसात्करण या नस्ली सफाए का उनका नुस्खा. राष्ट्रमीमांसा में इन सूत्रों को कोई स्थान नहीं दिया गया है हालांकि गोलवलकर और बाबाराव वैचारिक तौर पर एक ही धरातल पर खड़े थे.

गोलवलकर लिखते हैं, "नस्ल की और इसकी संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने सामी नस्लों अर्थात यहूदियों का देश से सफाया करके सारी दुनिया को चौंका दिया. यहां नस्ल को लेकर गर्व भावना अपने सर्वोच्च रूप में दिखाई देती है. जर्मनी ने यह भी दिखाया कि नस्लों और संस्कृतियों को, जिनकी जड़ों में ही भेदभाव है, किसी समग्रता में समाहित करना लगभग असंभव है. हिंदुस्तान में हम लोगों को इससे सबक लेना चाहिए और इसका लाभ उठाना चाहिए."

गैर हिंदुओं को विदेशी नस्ल का घोषित करने और न केवल नाजियों द्वारा यहूदियों के नरसंहार से बल्कि अल्पसंख्यकों से निपटने के मामले में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों के तरीकों से प्रेरणा लेते हुए गोलवलकर आगे लिखते हैं :

इस दृष्टिकोण से, जिसे चतुर पुराने राष्ट्रों के अनुभव की स्वीकृति मिली है, हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म के प्रति आदर और सम्मान करना सीख लेना चाहिए, हिंदू नस्ल और संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले विचारों को अपना लेना चाहिए और अपने पृथक अस्तित्व को हिंदू नस्ल में पूरी तरह मिला लेना चाहिए, या पूर्ण रूप से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहते हुए देश में टिके रहना चाहिए और ऐसा करते समय उन्हें न तो किसी तरह का दावा करना होगा, न किसी तरह का उन्हें विशेषाधिकार मिलेगा और किसी तरह के सुविधाप्राप्त व्यवहार की तो बात दूर, उन्हें एक नागरिक का भी अधिकार प्राप्त नहीं होगा. उनके सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं है. हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं और हमें उन विदेशी नस्लों के साथ, जिन्होंने रहने के लिए हमारा देश चुना है, वही करना चाहिए जो प्राचीन राष्ट्र करते रहे हैं.

पुस्तक में एक अन्य स्थान पर गोलवलकर नाजियों और इटली के फासिस्टों की इस बात के लिए प्रशंसा करते हैं कि उन्होंने नस्ली श्रेष्ठता का एक स्वरूप स्थापित किया. वह लिखते हैं, "इटली को देखिए. भूमध्य सागर के आसपास के समूचे क्षेत्र पर विजय पाने की प्राचीन रोमन नस्ली चेतना इतनी प्रबल थी कि उसने खुद को जागृत किया और उसी के अनुरूप नस्ली-राष्ट्रीय आकांक्षाओं को आकार दिया. वह प्राचीन नस्ली भावना, जिसने जर्मन लोगों को समूचे यूरोप को रौंदने के लिए प्रेरित किया था, आधुनिक जर्मनी में एक बार फिर पैदा हो गई जिसका नतीजा यह हुआ कि वह राष्ट्र उन्हीं आकांक्षाओं को पूरा करने में लगा है जिसे उसके पूर्वजों ने परंपराओं के रूप में स्थापित कर दिया था. हमारे यहां भी ऐसी स्थिति देखी जा सकती हैः हमारी नस्ली भावना ने खुद को एक बार फिर जगा दिया है और प्रमाण के तौर पर इसे हम अपने यहां के आध्यात्मिक दिग्गजों की नस्ल में देख सकते हैं जो आज समूचे विश्व में भव्यता के साथ चल रहे हैं."

नाजियों के प्रति गोलवलकर इतने ज्यादा मुग्ध हैं कि उन्होंने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर नाजियों के उस दावे का समर्थन किया जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध को शुरू करने में प्रमुख भूमिका निभाई थीः

आधुनिक जर्मनी ने संघर्ष किया और काफी हद तक उसने वह हासिल कर लिया जिसके लिए वह संघर्ष कर रहा था. एक बार फिर उसने समूचे क्षेत्र को एक कर दिया जो वंशानुगत तौर पर जर्मनों के स्वामित्व में था लेकिन राजनीतिक विवादों के चलते अलग-अलग राज्यों के अधीन अलग-अलग देशों के रूप में जिसका विभाजन हो चुका था. मिसाल के तौर पर आस्ट्रिया महज एक प्रांत था जो प्रशिया, बवारिया तथा अन्य रियासतों के बराबर था जिनसे मिलकर जर्मन साम्राज्य का अस्तित्व था. तार्किक तौर पर देखें तो आस्ट्रिया को स्वतंत्र राजशाही नहीं होना चाहिए था बल्कि उसे शेष जर्मनी के साथ मिल जाना चाहिए था. यही स्थिति उन भागों की भी थी जहां जर्मन बाशिंदे रहते थे और जिन्हें प्रथम विश्वयुद्ध के बाद गठित नए राज्य चेकोस्लोवाकिया में शामिल कर लिया गया था. जर्मनी के लोग एक निश्चित देश होने के नाते अपनी पितृभूमि पर गर्व करते हैं... वे जगे और अपने ‘पुरखों के क्षेत्र पर’ अतुलनीय और निर्विवादित जर्मन साम्राज्य की स्थापना करने के लिए उन्होंने सारी दुनिया में एक नया तूफान खड़ा करने का जोखिम उठाया.

तीन भाई- विनायक, नारायण और गणेश सावरकर (बाएं से दाएं) - सभी प्रसिद्ध हिंदुत्व नेता थे.

राष्ट्रमीमांसा की जड़ें उस सैद्धांतिक अवधारणा में हैं जिन्हें हम वी.डी. सावरकर की 1923 की पुस्तक हिंदुत्वः हू इज ए हिंदू? में देखते हैं. अपने भाई की ही तरह बाबाराव की दलील है कि अपनी नस्ली, धार्मिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विशिष्टताओं की वजह से भारत हिंदुओं का है और विदेशी नस्ल का होने की वजह से मुसलमानों का इस पर कोई दावा नहीं है. उन्होंने राजकाज में धर्म की प्रभुत्वकारी भूमिका पर भी विचार किया है और इंग्लैंड, जर्मनी, आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, रूस, पोलैंड, द फ्री सिटी ऑफ दानजिग, एस्टोनिया और फिनलैंड सहित कुछ चुने हुए यूरोपीय इलाकों में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर भी चर्चा की हैः

जर्मनी में राजाओं का शासन हुआ करता था. उन दिनों एक धार्मिक शपथ का चलन था. जनतांत्रिक राष्ट्र होने के बाद इसने राष्ट्रपति के नाम शपथ के साथ-साथ धार्मिक शपथ की परंपरा को भी कायम रखा. इस प्रकार जर्मनी की राजनीतिक प्रणाली में भले ही बहुत छोटे स्तर पर ही क्यों न हो, धर्म के लिए भी स्थान सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया. राइखस्टॉग ने वैधानिक तौर पर रविवार को तथा कुछ खास त्योहार के दिनों को अवकाश घोषित किया. इन अवकाशों का उद्देश्य लोगों को मनोरंजन और आध्यात्मिक खुशहाली प्रदान करना था.

यूरोप के देशों में मुख्य रूप से ईसाई लोग रहते हैं. कुछ मुसलमान और यहूदी भी यूरोप में रहते हैं लेकिन छुट्टियों का निर्धारण ईसाई धार्मिक प्रणाली के आधार पर किया गया है. यह बात ध्यान देने योग्य है कि इन छुट्टियों के दिनों के कारणों का उल्लेख करते हुए खासतौर पर ‘आध्यात्मिक खुशहाली’ का उल्लेख किया गया है. इससे यह स्पष्ट होता है कि ईसाइयत राज्य द्वारा प्रायोजित धर्म है... अल्पसंख्यकों को देश के उन हिस्सों में, जहां उनका जमावड़ा है, व्यक्तिगत तौर पर एक-दूसरे से संवाद आदि स्थापित करने के लिए अपनी भाषा के इस्तेमाल की छूट है. इस अधिकार के प्रयोग में जर्मनी के कानून और प्रशासन द्वारा किसी तरह की बाधा नहीं पहुंचाई जाती.

राष्ट्रमीमांसा में नाजी शासन के बारे में या यहूदियों के प्रति इसके व्यवहार के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा गया है. ऐसा हो ही नहीं सकता कि हिटलर के सत्ता में आने के महज एक वर्ष बाद 1934 में प्रकाशित इस पुस्तक के लेखन के समय बाबाराव को नाजियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. हालांकि नाजियों ने यहूदियों के स्वामित्व वाले व्यापारों का बहिष्कार शुरू कर दिया था और 1933 में ही सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में भेदभावपूर्ण कानूनों को लागू कर दिया था लेकिन यहूदियों के जान-माल पर पूरी ताकत के साथ हमला 19 अगस्त 1934 के बाद ही शुरू हुआ जब हिटलर ने खुद को फ्यूरर घोषित करते हुए देश के राष्ट्रपति और चांसलर का संयुक्त रूप से कार्यभार संभाल लिया. जर्मन सेना का पुनर्निर्माण और समूचे यूरोप में तीसरे राइख का विस्तार, जिसमें आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया की तरफ आक्रमण शामिल था जिसका गोलवलकर उल्लेख करते हैं, राष्ट्रमीमांसा के प्रकाशित होने के एक वर्ष बाद 1935 में शुरू हुआ.

राष्ट्रमीमांसा में बाबा राव ने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया का जो विवरण प्रस्तुत किया है वह गोलवलकर के वी ऑर आवर... से पूरी तरह भिन्न है. आस्ट्रिया के बारे में बाबाराव लिखते हैं कि जर्मन को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त थी और अपने निजी संवादों में अल्पसंख्यक लोग अपनी खुद की भाषा का इस्तेमाल कर सकते थे. उन्होंने लिखा कि, "विदेशी धार्मिक संप्रदाय अथवा विदेशी संस्कृति की गैर मौजूदगी में ऐसे कानून की कोई जरूरत नहीं है जो अल्पसंख्यकों के कामकाज में किसी तरह की रुकावट डाले."

इसी प्रकार बाबाराव ने यह संकेत दिया है कि चेकोस्लोवाकिया आंतरिक गड़बड़ी से इसलिए मुक्त था क्योंकि चेक भाषा को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता मिली थी और रोमन कैथोलिकवाद को राज्य का समर्थन प्राप्त था. बाबाराव आगे लिखते हैं-- "चेकोस्लोवाकिया दरअसल जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और पोलैंड के बीच फंसा हुआ देश है. इन देशों में मुख्य रूप से रोमन कैथोलिक लोग बसे हुए हैं और चेकोस्लोवाकिया में इस धर्म को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता प्राप्त है. यहां चेक भाषा हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है." गोलवलकर के विपरीत ऐसा लगता है कि बाबाराव आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर नाजियों के दावों के बारे में अनभिज्ञ हैं और इसी वजह से उन्होंने इस मुद्दे पर कुछ भी नहीं लिखा.

इस प्रकार वी ऑर आवर... में जर्मनी के बारे में जो लिखा गया है वह स्पष्ट तौर पर इसके लेखक का मौलिक सूत्रीकरण है भले ही इस सूत्रीकरण के लिए उसे उन दिनों देश में हो रही घटनाओं से प्रेरणा क्यों न मिली हो. वी ऑर आवर... के प्रकाशित होने से एक वर्ष पूर्व 1938 में क्रिस्टलनाख्त नरसंहार के साथ यहूदियों के प्रति नाजियों की शत्रुता एक नाजुक दौर में पहुंच गई. इस नरसंहार में समूचे जर्मनी में यहूदियों के घरों, पूजागृहों, अस्पतालों और स्कूलों को तहस-नहस किया गया. सैकड़ों की तादाद में यहूदी मारे गए और हजारों की संख्या में उन्हें गिरफ्तार कर यातना शिविरों में भेज दिया गया. इन घटनाओं ने आने वाले वर्षों में भारी संख्या में यहूदियों के मारे जाने का रास्ता साफ कर दिया था.

गोलवलकर की पुस्तक और आरएसएस की मानसिकता कभी भी एक दूसरे के लिए बाधक नहीं थी. दरअसल संघ में उनकी विश्वसनीयता बढ़ने के साथ ही इस पुस्तक ने आरएसएस में गोलवलकर के लिए एक प्रमुख स्थान का निर्माण किया जैसा कि नवंबर 1938 में इस पांडुलिपि के पूरी होने के बाद की घटनाओं से पता चलता है.

10 नवंबर 1938 को पूरे जर्मनी और ऑस्ट्रिया में यहूदी-विरोधी हमलों की एक कड़ी में नाजियों द्वारा विस्बाडेन आराधनालय को जला दिया गया था, जिसे क्रिस्टलनाख्त नरसंहार के रूप में जाना जाता है. 1938 में ऑर आवर... प्रकाशित होने से एक साल पहले, यहूदियों के प्रति नाजी शत्रुता एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंच गई. फ्रेडरिक डब्ल्यू. एल्कान कलेक्सन / विकिमीडिया कॉमन्स

फरवरी 1939 में इस पुस्तक के प्रकाशन से हफ्तों पहले आरएसएस ने नागपुर के निकट सिंदी गांव में एक विशेष बैठक आयोजित की जिसमें इसके महत्वपूर्ण सदस्य शामिल हुए. यह दस दिनों का एक मंथन शिविर था जिसका मकसद संघ की कार्यपद्धति और इसके सांगठनिक ढांचे की समीक्षा करना और इसमें सुधार लाना था. संगठन के खास लोगों के चयन समूह के एक सदस्य के रूप में गोलवलकर ने भी इस बैठक में भाग लिया हालांकि वह संघ के अपेक्षाकृत नए सदस्य थे. दरअसल उन दिनों वह प्रथम सरसंघचालक केबी हेडगेवार के एक तरह से दाहिने हाथ माने जाते थे. इस बैठक से ही आधिकारिक तौर पर आरएसएस की संस्कृत भाषा में प्रार्थना, संघ की शाखाओं में संस्कृत में दिए जाने वाले निर्देशों का मार्ग प्रशस्त हुआ. इसके साथ ही इसे एक सांगठनिक स्वरूप देने और इसकी वार्षिक संघ शिक्षा वर्ग की व्यवस्था प्रणाली भी तैयार की गई. अपनी पुस्तक दि इन्कंपेयरेबुल गुरु गोलवलकर  शीर्षक पुस्तक में रंगा हरि ने लिखाः "सभी प्रतिभागियों ने गुरुजी की अत्यंत विश्लेषणात्मक मेधा, तार्किक दृष्टिकोण, गहन दृष्टि और जबर्दस्त वैचारिक स्पष्टता को महसूस किया."

आरएसएस द्वारा अनुमोदित गोलवलकर की अन्य जीवनियों की ही तरह रंगा हरि की पुस्तक यह बताती है कि इन बैठकों के दौरान ही हेडगेवार ने सबसे पहले यह विचार रखा कि सरसंघचालक के रूप में गोलवलकर को उनका उत्तराधिकारी बनाया जाए. हरि ने इस पुस्तक में संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह (महासचिव) अप्पाजी जोशी के साथ हुई एक बैठक का उल्लेख किया है. आरएसएस के दूसरे शीर्ष नेता के रूप में जोशी खुद को सरसंघचालक पद का संभावित उम्मीदवार समझते थे. रंगा हरि ने लिखा है कि एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान हेडगेवार ने जोशी से पूछा कि गोलवलकर को अगले सरसंघचालक के रूप में नामजद करने के बारे में वह क्या सोचते हैं. हरि के अनुसार- "अप्पाजी जोशी ने फौरन जवाब में एक शब्द कहा- ‘शानदार’.’’  रंगा हरि ने आगे लिखा है कि इस घटना का विवरण अप्पाजी जोशी ने अपने एक संस्मरण में दिया है.

मार्च 1939 में गोलवलकर की पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद आरएसएस के कार्यकर्ताओं के बीच इसकी लोकप्रियता बहुत बढ़ गई. डीआर गोयल लिखते हैं, ‘‘आरएसएस के अधिकांश स्वयंसेवकों को पहली बार उनके बारे में वी ऑर आवर... के लेखक के रूप में ही जानकारी मिली. उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद के आरएसएस सिद्धांत की पहली वैज्ञानिक प्रस्तुति इस पुस्तक में देखी.’’ अगस्त 1939 में पुस्तक के प्रकाशन के पांच महीने बाद हेडगेवार ने अपने वरिष्ठ सहयोगियों के साथ निरंतर विचार-विमर्श करने के बाद गोलवलकर को आरएसएस का सरकार्यवाह नियुक्त किया. हेडगेवार के अनुरोध के अनुसार उनकी मृत्यु से ठीक पहले गोलवलकर को नया सरसंघचालक नियुक्त किया गया. ऐसा करते समय अनेक वरिष्ठ पदाधिकारियों के मुकाबले उन्हें तरजीह दी गई जो वी ऑर आवर... में व्यक्त विचारों को संघ द्वारा स्वीकृति दिए जाने का स्पष्ट संकेत था.

संघ के सिद्धांतों का यह जहरीला विचार कि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता को परिभाषित करने के लिए हिंदुओं को विशेष अधिकार दिए जाने चाहिए, सावरकर के भाई की पुस्तकों में भी किसी न किसी रूप में मौजूद है. गोलवलकर की पुस्तक में बड़े उत्साह के साथ बताया गया है कि यहूदियों के प्रति नाजियों का जो व्यवहार था उसे एक आदर्श के रूप में भारतीय मुसलमानों पर लागू किया जाना चाहिए और इसी विचार को उन्होंने विस्तार के साथ विकसित किया.

ऐसा नहीं है कि आरएसएस को इससे पहले यूरोप के समकालीन तानाशाहों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. इटली की एक विदुषी मार्जिया कासोलारी ने लिखा है कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ‘‘ऐसा लगता है कि हिंदू राष्ट्रवाद बड़ी बेचैनी से अंग्रेजों के साथ समझौतावादी रवैये और तानाशाहों के प्रति हमदर्दी के बीच इधर से उधर डोलता रहा.’’ आरएसएस के सिद्धांत को मानने वाले यूरोप की तानाशाही व्यवस्थाओं को एक रूढ़िवादी क्रांति का उदाहरण मानते थे. यह एक ऐसी अवधारणा थी जिस पर मराठी भाषा के पत्र-पत्रिकाओं में व्यापक तौर पर बहस चल रही थी. अधिकांश हिंदू उग्रपंथियों को फासीवाद के वे पहलू ज्यादा पसंद आए जिनमें समाज के सैन्यीकरण पर जोर दिया गया था और यह कहा गया था कि संगठन का ढांचा अत्यंत केंद्रीकृत होना चाहिए जिसका नेतृत्व कोई दिग्गज नेता करे. वीएस मुंजे हिंदू महासभा के नेता थे जो हेडगेवार के गुरु माने जाते थे और आरएसएस के संस्थापकों में से एक थे. 1931 में उन्होंने इटली की यात्रा की और इस यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात बेनिटो मुसोलिनी से हुई. मुंजे के इटली से वापस आने के बाद आरएसएस ने फासिस्ट शिक्षा प्रणाली के बारे में उल्लेखनीय सामग्री हासिल की. इतना ही नहीं गोलवलकर की पुस्तक ने फासीवाद के प्रति इस आकर्षण को एक नई ऊंचाई तक पहुंचाया.

बर्लिन में क्रिस्टलनाख्त के यहूदी-विरोधी नरसंहार के बाद एक यहूदी दुकान में टूटे शीशे को साफ करता एक कार्यकर्ता. हल्टन आर्काइव / गेट्टी इमेजिस

1940 के दशक के अधिकांश वर्षों में, जब तक गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध नहीं लग गया, इसने खुलकर गोलवलकर के विचारों को प्रचारित किया. अपनी पुस्तक को मार्गदर्शक मानते हुए नए सरसंचालक ने आरएसएस को नाजी सैन्य व्यवस्था के आधार पर रूपांतरित करने का प्रयास शुरू किया. उन्होंने खुद को एक डिक्टेटर का रूप देने की कोशिश की- एक अध्यापक के रूप में, संघ के सर्वोच्च संगठक के रूप में, प्रमुख रणनीतिकार के रूप में और एकछत्र नेता के रूप में. इन सभी बातों की अभिव्यक्ति उन वैचारिक कक्षाओं में होती थी जो संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए आयोजित किए जाते थे. अप्रैल और मई 1942 में पूना मे आयोजित एक शिविर के बारे में खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट में गोलवलकर के भाषणों का विस्तार से उल्लेख मिलता है.

गोलवलकर ने संघ के स्वयंसेवकों को इस शिविर में सात अवसरों पर संबोधित किया. बताया जाता है कि उन्होंने अपने भाषण में कहा, "अभी तक अकेले हिंदू ही देश के प्रति निष्ठावान साबित हुए हैं इसलिए वे ही इस योग्य हैं कि उन्हें संघ में शामिल किया जाए. जो भी व्यक्ति अपनी परंपराओं को भुलाकर दुश्मन के साथ हाथ मिलाता है उसकी हत्या कर देनी चाहिए भले ही वह अपना भाई ही क्यों न हो. ऐसा इसलिए क्योंकि जो अपने सिद्धांतों का पूरी तरह पालन करता है उसे ही अपना वास्तविक भाई माना जाना चाहिए. हिंदुओं की मानसिक उदासीनता दूर की जानी चाहिए और अन्य धर्मों के लोगों के प्रति उनके अंदर नफरत की भावना पैदा की जानी चाहिए. संघ इस काम को पूरी तरह कर रहा है."

खुफिया विभाग की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 3 मई 1942 को गोलवलकर ने ‘‘एक महत्वपूर्ण भाषण दिया जिसमें उन्होंने स्पष्ट तौर पर आरएसएस की सांप्रदायिक और फासिस्ट प्रवृत्ति का खुलासा किया. उन्होंने कहा कि संघ की स्थापना केवल मुस्लिम आक्रमण का मुकाबला करने के लिए नहीं बल्कि इस बीमारी का समूल नाश करने के लिए हुई है. इसीलिए यह जरूरी है कि इसके शीर्ष पर ऐसे उचित व्यक्ति हों जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमेशा अपना ध्यान केंद्रित रखें.’’

पूना शिविर के दौरान यूरोप की तानाशाही व्यवस्थाओं के प्रति आरएसएस के जिस सिद्धांतकार ने सबसे ज्यादा अनुराग दिखाया वह था पी.जी. सहस्रबुद्धे. इन्हें इस बात के लिए ख्याति मिली थी कि अपने भाषणों के जरिए वह स्वयंसेवकों के अंदर तानाशाही समर्थक मानसिकता तैयार करते हैं. इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 4 मई को सहस्रबुद्धे ने "ऐलान किया कि संघ तानाशाही के सिद्धांत को मानता है. जनतांत्रिक सरकार को एक असंतोषजनक शासन व्यवस्था के रूप में उसकी भर्त्सना करते हुए उन्होंने फ्रांस को ऐसी व्यवस्था का एक बुरा उदाहरण बताया और तानाशाही की प्रशंसा करते हुए उन्होंने जापान, रूस, और जर्मनी का उदाहरण दिया. उन्होंने खासतौर पर जर्मनी में फ्यूरर सिद्धांत की प्रशंसा की." इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि 21 मई को दिए गए अपने एक भाषण में "उन्होंने प्रोपेगेंडा यानी प्रचार के महत्व की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए रूस और जर्मनी का उदाहरण दिया और एक बार फिर नेतृत्व के सिद्धांत के लिए प्रशंसनीय गुणों की चर्चा करते हुए मुसोलिनी की सफलता को मिसाल के तौर पर पेश किया." इंटेलीजेंस ब्यूरो के अनुसार शिविर में भाग ले रहे आरएसएस के स्वयंसेवकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया गया कि वे न केवल हेडगेवार, सावरकर और मराठा राजा शिवाजी की जीवनियां पढ़ें बल्कि हिटलर और मुसोलिनी की जीवनियों का भी अध्ययन करें.

इंटेलीजेंस ब्यूरो की एक और रिपोर्ट में, जिसे 1943 में तैयार किया गया है, बताया गया कि "आरएसएस का लक्ष्य भारत के हिंदुओं को एक अधिनायक (गुरु जी) के नियंत्रण के तहत लाना है और राजसत्ता पर कब्जा करने के अंतिम लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए संगठन को ठोस रूप देना है. हिंदुओं के अंदर अनुशासन, सैन्य प्रवृत्ति और स्वस्थ शरीर की भावना विकसित करने की जरूरत है ताकि भारत में अपने जबर्दस्त बहुमत की वजह से शक्ति के मामले में हिंदू राष्ट्र अतुलनीय रहे."

गोलवलकर की 1938 की एक तस्वीर. 1930 और 1940 के दशक के अंत में यूरोपीय फासीवादियों के प्रति आसक्त गोलवलकर ने आरएसएस को नाजी शैली के मिलिशिया में बदलने की कोशिश की, जिसका लक्ष्य अंततः खुद को फ्यूहरर के रूप में स्थापित करना था.

गोलवलकर इस अवधि के दौरान खुद को एक हिंदू फ्यूरर के रूप में ढालना चाहते थे- एक ऐसे तानाशाह के रूप में जो मुसलमानों को अपने अधीन रखकर और यहां तक कि उनका ‘समूल विनाश’ करते हुए हिंदुओं की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए संघर्ष कर सके, ठीक वेसे ही जैसे यहूदियों का सफाया करते हुए जर्मन नस्ल की अपेक्षित सर्वोच्चता को स्थापित करने की हिटलर कोशिश कर रहा था. इस संदर्भ में ऐसा लगता है कि वी ऑर आवर... पहला कदम है- एक वैचारिक प्रारूप है, जिसके जरिए भारत में नाजी मॉडल को स्थापित किया जा सकता है.

जैसे-जैसे आरएसएस के वैचारिक प्रशिक्षण में गोलवलकर के विचारों की भूमिका ने मुख्य रूप लेना शुरू किया, वी ऑर आवर... की मांग बड़ी तेजी से बढ़ी. अपनी पुस्तक हिंदू नेशनलिज्मः ओरिजिन्स, आइडियोलॉजीज ऐंड मॉडर्न मिथ्स  पुस्तक में समाजशास्त्री चेतन भट्ट बताते हैं कि 1940 के दशक में चार बार गोलवलकर की पुस्तक का पुनर्प्रकाशन हुआ.

30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या के बाद स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आ गया. आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जनता के बीच इसकी विश्वसनीयता बेहद कम हो गई और संघ के हजारों सदस्यों के साथ गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया. संघ पर लगे प्रतिबंध को न्यायोचित ठहराते हुए सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति में कहा गया कि आरएसएस "अवांछनीय और यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों में लिप्त संगठन है."

विज्ञप्ति में आगे कहा गया : “यह देखा गया है कि देश के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य निजी तौर पर हिंसा, लूटपाट, डकैती और हत्या और यहां तक कि गैर कानूनी हथियारों को जुटाने में लगे हैं. उन्हें ऐसे पर्चे बांटते हुए पकड़ा गया है जिसमें लोगों को आतंकवादी तरीकों का सहारा लेने, आग्नेय अस्त्रों को जुटाने, सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने और पुलिस और सेना को दुष्प्रेरित करने की बात कही गई है?”

1949 में आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और गोलवलकर को रिहा कर दिया गया लेकिन वह कुछ समय तक बहुत बुरी तरह अस्त-व्यस्त रहे. चूंकि सरकार के कार्यकलापों ने आरएसएस के अस्तित्व को ही चुनौती दे दी थी, वह अब बहुत सोच समझ कर कोई कदम उठाते थे और अपनी छवि के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत हो गए थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की लोकप्रियता और लगभग हर जगह उनकी उपस्थिति को भांपते हुए गोलवलकर ने बहुत नपेतुले ढंग से अपने काम को आगे बढ़ाया. दरअसल प्रशासन के प्रति नेहरू का एक धर्मनिरपेक्ष नजरिया था और हिंदुओं सहित लगभग सभी समुदायों में उनके इस नजरिए को व्यापक तौर पर स्वीकृति प्राप्त थी. इसके अलावा नाजीवाद के आतंक से सारी दुनिया सदमे की हालत में थी और गोलवलकर को इसका आभास हो गया कि उन्होंने वी ऑर आवर... में जो कुछ लिखा है उसके बड़े खतरनाक निहितार्थ हैं. जाहिर सी बात है कि ऐसी स्थिति में अपनी पुस्तक से पल्ला झाड़ना उनके लिए स्वाभाविक था.

उनकी पुस्तक में जिस राजनीतिक परियोजना का उल्लेख किया गया है उसके महत्वपूर्ण होने के बावजूद उन्होंने खुद को एक हिंदू फ्यूरर के रूप में पेश करने का विचार मुल्तवी कर दिया. अब बहुत सावधानीपूर्वक उनके अतीत को धुंधलाने की कोशिश की जाने लगी और एक सात्विक व्यक्ति के रूप में,  हिंदू गुरु के रूप में उन्हें गौरवान्वित करने का प्रयास शुरू हुआ.

फरवरी 1939 में, गोलवलकर की पुस्तक वी प्रकाशित होने के कुछ सप्ताह पहले, आरएसएस ने नागपुर के पास सिंडी गांव में अपने प्रमुख सदस्यों की एक बैठक आयोजित की. गोलवलकर, हालांकि संघ में अपेक्षाकृत नए थे, बैठक में अंदरूनी सूत्रों के एक चुनिंदा समूह के रूप में शामिल हुए.

गोलवलकर ने अपने इस रूपांतरण को व्यापक बनाने के लिए अपने वफादारों से कई जीवनियां लिखवाई जो ऐसा लगता है कि उनकी देखरेख में लिखी गई हैं. पहली दो जीवनियां सरकार द्वारा आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाए जाने के तुरंत बाद सामने आई. 1949 में गंगाधर इंदुरकर द्वारा लिखित जीवनी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर जी का जीवन-चरित्र  प्रकाशित हुई और 1950 में जगत एस ब्राइट की पुस्तक इंडियाज मैन आफ डेस्टिनी  का प्रकाशन हुआ. इन दोनों पुस्तकों को देखने से पता चलता है कि समूची परियोजना को किस तरह आगे बढ़ाया गया. यही बात उनके 50वें जन्म दिवस पर 1956 में प्रकाशित दो अन्य जीवनियों के संदर्भ में भी कही जा सकती है : एनएच पालकर की मराठी पुस्तक मा. स. गोलवलकर  और बी एन भार्गव की श्री गुरुजीः दि मैन ऐंड हिज मिशन. इन सभी जीवनियों में गोलवलकर को एक महान व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है--एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो पूजा के पात्र हैं.

हेमेंद्र नाथ पंडित आरएसएस के एक पूर्व प्रचारक थे जो 1980 में संगठन छोड़ने से पहले तक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के भी सदस्य थे. उन्होंने छवि निर्माण की गोलवलकर की कोशिशों के कुछ पहलुओं पर रोशनी डाली है. उन्होंने लिखा है कि "उनके प्रशंसक आपको बताएंगे कि वह दिन में केवल एक वक्त खाना खाते हैं लेकिन मेरा अनुभव यह है कि नागपुर में कम से कम दो अवसरों पर मैंने उनके साथ दोपहर में 12 बजे और रात में 9 बजे भरपूर भोजन किया है. इसके अलावा नाश्ते के समय चाय और टिफिन भी लिया है."

पंडित ने उन प्रयासों का भी उल्लेख किया है जिसमें "युवा स्वयंसेवकों के अंदर यह विश्वास पैदा किया जाता है कि गोलवलकर स्वयं में भगवान कृष्ण के अवतार हैं." उन्होंने एक प्रचारक की कहानी का जिक्र किया है जिसमें वह पश्चिम बंगाल के स्वयंसेवकों से कहता है कि "महाभारत के माधव" ने एक बार फिर अवतार लिया है "ताकि हिंदुओं को विजय दिला सकें." गोलवलकर     का पहला नाम माधव है जो कृष्ण का पर्यायवाची है. पंडित का कहना है कि महात्मा गांधी के लोकप्रिय भजन रामधुन को आरएसएस ने अपने यहां बदल दिया. "ईश्वर अल्लाह तेरे नाम" को यहां आपत्तिजनक माना गया और इसके स्थान पर कहा गया कि "केशव माधव तेरे नाम." कृष्ण का एक और नाम केशव भी है और हेडगेवार के नाम का पहला भाग भी केशव है.

गोलवलकर की इस कोशिश ने कि उन्हें जबर्दस्त आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का व्यक्ति समझा जाए, अखबारों के प्रति उनके रुख में बदलाव ला दिया. पंडित ने इस बात की चर्चा की है कि कैसे रूपांतरण की इस कवायद से पहले तक गोलवलकर के अंदर एक चाह रहती थी कि उनकी तस्वीरें खींची जाएं और व्यापक तौर पर उनकी तस्वीरें प्रसारित हों. लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी आध्यात्मिक छवि तैयार करनी शुरू की, यह दिखाने की भरपूर कोशिश की कि उन्हें प्रचार से चिढ़ है. मिसाल के तौर पर 9 अप्रैल 1956 को टाइम्स आफ इंडिया में प्रकाशित रिपोर्ट देखी जा सकती है जिसमें गोलवलकर ने ‘‘अपने 51वें जन्म दिवस पर रामलीला मैदान में आयोजित सार्वजनिक सभा में धमकी दी कि अगर प्रेस फोटोग्राफर उनकी तस्वीर खींचने पर जोर देते रहे तो वह सभा छोड़ कर चले जाएंगे.’’

इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1942 के प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने वाले आरएसएस के स्वयंसेवकों को न केवल हेडगेवार, सावरकर और मराठा राजा शिवाजी, बल्कि हिटलर और मुसोलिनी की जीवनी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया था. कीस्टोन-फ्रांस / गामा-कीस्टोन / गेट्टी इमेजिस

गोलवलकर के इस सार्वजनिक रूपांतरण का उनकी पुस्तक के प्रति संघ के दृष्टिकोण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. यहां तक कि 1956 में भी, जब छवि निर्माण की उनकी परियोजना अपने शिखर पर थी, आरएसएस वी ऑर आवर... को ‘राष्ट्रवाद' के सिद्धांत की अकाट्य व्याख्या और हिंदुस्तान के संदर्भ में उसका 'विशिष्ट अनुप्रयोग’ मानता था. यह बात भार्गव ने श्री गुरूजी में लिखी है.

गोलवलकर के कार्य राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से गलत सूचनाएं प्रसारित करने की संघ की प्रवृत्ति के अनुरूप थे. चाहे अपने अतीत की अप्रिय घटनाओं को छिपाने का मामला हो या हिंदुओं के बीच इस्लामोफोबिया पैदा करने के उद्देश्य से इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की बात हो, हर जगह दुष्प्रचार और गलत सूचनाएं प्रसारित करने का सिलसिला जारी रहा. गांधी की हत्या के बाद के वर्षों में आरएसएस ने पहले के मुकाबले और भी बड़े पैमाने पर गलत सूचनाओं को फैलाने और प्रोपगेंडा का काम शुरू कर दिया.

गोलवलकर की जीवनियों में दिए गए विवरण और मई 1963 से पहले उनके खुद के लिखे लेख,  जब उन्होंने अचानक वी ऑर आवर... से पल्ला झाड़ लिया, इस दावे की किसी भी तरह पुष्टि नहीं करते कि वह इस पुस्तक के लेखक नहीं थे. इसके विपरीत इनसे इस बात का और भी प्रमाण मिलता है कि वी ऑर आवर... गोलवलकर की ही रचना थी और राष्ट्रमीमांसा एक अलग पुस्तक थी.

1944 में राष्ट्रमीमांसा का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ जिसमें गोलवलकर की भूमिका थी. यह भूमिका काफी विस्तृत थी. 33 पृष्ठों की इस भूमिका में बाबाराव की पुस्तक के विषय की चर्चा की गई थी. इसमें गोलवलकर ने लिखा, "हमारे राष्ट्र की राजनीतिक परिस्थिति एक बुनियादी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है और राष्ट्रवाद के बुनियादी प्रश्न पर मतभेदों की वजह से राष्ट्र के संबंध में कई प्रकार के विचार सामने आए हैं. यह छोटी पुस्तक इस स्पष्ट उद्देश्य से प्रकाशित की जा रही है कि भारतीयों को पहले से आगाह कर दिया जाए और राष्ट्र के विचार के संदर्भ में सही परिप्रेक्ष्य से उन्हें अवगत कराया जाए."

गोलवलकर ने 1949 में हुबली में एक जनसभा को संबोधित किया. गोलवलकर ने 1940 के अधिकांश समय में भारत के अल्पसंख्यकों के साथ नाजी जर्मनी के यहूदियों की तरह का व्यवहार करने की वकालत की.

इसी भूमिका में एक अन्य स्थान पर उन्होंने अपनी इस बात को जारी रखते हुए कहा है :

"इस तरह की एक गलत अवधारणा फैलाई गई है कि समूची दुनिया में राष्ट्र शब्द को महज भौगोलिक सीमाओं से परिभाषित किया गया है और इसमें नस्ल, धर्म, संस्कृति आदि का कोई स्थान नहीं है. आंखों पर इस गलत अवधारणा की पट्टी चढ़ाकर आधुनिक विचारों वाले तथाकथित लोग उन सिद्धांतों का मजाक उड़ाते हैं जिन्हें अपने असीम और व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर हमारे प्रचीन विद्वानों ने प्रतिपादित किया है... यह पुस्तक ऐसे लोगों की आंखें खोलने में और वास्तविक राष्ट्रीय कार्य का अर्थ समझने के लिए उन्हें सही रास्ते पर लाने में मददगार साबित होगी.”

गोलवलकर ने आगे लिखा, "अपने विश्वास के प्रति दृढ़ रहते हुए इस पुस्तक के लेखक ने हिंदुस्तान-हिंदू राष्ट्र की व्यावहारिक तस्वीर दिखाते हुए सचेत हिंदुओं से कहा है कि वे समर्थ, संगठित और पुंसत्व से भरपूर बनें तथा हमारी पुरातन नस्ल और संस्कृति की भावी संभावनाओं को बढ़ाने के लिए आगे आएं."

गोलवलकर ने इस भूमिका का इस्तेमाल अपने खुद के उन विचारों को सामने लाने के लिए   भी किया है कि कैसे अल्पसंख्यकों से निपटा जाए- ये वही विचार हैं जिन्हें उन्होंने अपनी वी ऑर आवर... में प्रस्तुत किया है लेकिन जो बाबाराव की पुस्तक में नहीं थे. उन्होंने लिखा कि "कभी-कभी ऐसे नेतागण भी, जिनके राष्ट्रप्रेम पर किसी भी तरह का संदेह नहीं किया जा सकता, इस तरह के सवाल करते हैं कि ‘गैर हिंदुओं के साथ आप क्या सुलूक करेंगे?’ या ‘क्या आप उन्हें देश छोड़ने के लिए मजबूर कर देंगे?’ या ‘भारत में अल्पसंख्यकों के लिए किस तरह के प्रावधान होंगे?’ इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह के सभी सवाल ईमानदारी से पूछे जाते हैं.’" गैर हिंदुओं को विदेशी के रूप में उल्लेख करते हुए उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर उन्हें एक चेतावनी दीः "इन विदेशियों से जिस एक बात की उम्मीद की जाती है वह यह कि वे राष्ट्र के प्रति गैर-ईमानदार न रहें और उन्हें राष्ट्रीय विकास के मार्ग में अवरोध पैदा करना बंद करना चाहिए."

निष्कर्ष रूप में गोलवलकर लिखते हैं, "लेखक की इच्छा है कि उसकी यह छोटी पुस्तक हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन को देखने के लिए एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करे और राष्ट्रवाद के सही अर्थ की समझ को बढ़ावा देते हुए हिंदू राष्ट्र के प्रति प्यार की भावना पैदा करे ताकि यह राष्ट्र एकता के सूत्र में बंध सके और दृढ़ता तथा महानता के साथ विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सके. लेखक की यह इच्छा पूरी हो और एक बार फिर देश के हिंदू विश्व के आध्यात्मिक नेता वाली हैसियत प्राप्त कर सकें."

इस प्रस्तावना में गोलवलकर ने हल्का सा भी यह संकेत नहीं दिया है कि 1939 की उनकी पुस्तक राष्ट्रमीमांसा का महज संक्षिप्त अनुवाद थी. वास्तव में प्रस्तावना से यह बात साबित होती है कि वी ऑर आवर... चाहे जो कुछ भी हो लेकिन निश्चित तौर पर यह बाबाराव की कृति का अंग्रेजी संस्करण नहीं है.

यह बात अमेरिकी शोधकर्ता जेए कुर्रन जूनियर द्वारा भी प्रमाणित है जिन्हें आरएसएस के पहली बार विद्वतापूर्ण अध्ययन के प्रयास का श्रेय दिया जाता है. संघ पर लगे प्रतिबंध के हटाए जाने के तुरत बाद 1949 और 1950 के दौरान उन्होंने विभिन्न स्थानों में घूम-घूम कर जो शोध किया उसे आधार बनाते हुए न्यूयार्क स्थित इंस्टीट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन्स के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जिसका शीर्षक था- ‘मिलिटैंट हिंदुइज्म इन इंडियन पॉलिटिक्सः ए स्टडी आफ दि आरएसएस’. इस दस्तावेज के अनुसार गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में आरएसएस के खिलाफ जनता के जबर्दस्त रोष और सरकार द्वारा इस पर लगाए गए प्रतिबंध के बावजूद ‘संघ की वास्तविक विचारधारा’ गोलवलकर की पुस्तक पर आधारित बनी रही. कुर्रन लिखते हैं, "वी ऑर आवर... को आरएसएस की 'बाइबिल' कहा जा सकता है. संघ के स्वयंसेवकों को विचारधारा की घुट्टी पिलाने के लिए यह बुनियादी पोथी है." उन्होंने आगे लिखा कि यद्यपि यह पुस्तक "समकालीन से भिन्न अलग किस्म के राष्ट्रीय संदर्भ में लिखी गई थी लेकिन इसमें व्यक्त सिद्धांतों को संघ के सदस्यों द्वारा अभी भी पूरी तरह लागू करने योग्य माना जाता है."

कुर्रन ने 1949 के उत्तरार्द्ध से दिए गए गोलवलकर के भाषणों में बेहद समझौते वाला भाव देखा लेकिन इन सबके बावजूद वह खुद को इस निष्कर्ष तक पहुंचने से नहीं रोक सके कि अपने भाषणों में गोलवलकर ने चाहे कुछ भी क्यों न कहा हो, उनकी पुस्तक ने समकालीन संघ की "योजनाओं और गतिविधियों"’ की बुनियाद रखने का काम जारी रखा.

गोलवलकर की पुस्तक के संदर्भ में कुर्रन के यह विचार खासतौर पर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह पहले ‘बाहरी’ व्यक्ति थे जिन्हें संघ नेतृत्व ने संगठन तक पूरी तरह पहुंच बनाने की इजाजत दी. इसे उन्होंने अपने दस्तावेज की प्रस्तावना में स्वीकार भी किया हैः

चूंकि गोलवलकर ने एक आध्यात्मिक छवि अपना ली थी, इसलिए उन्होंने प्रचार के प्रति उदासीन दिखने का ध्यान रखा, अक्सर नाटकीय रूप से फोटो खिंचवाने से इनकार करते रहे.

अपने शोध में आरएसएस के सदस्यों द्वारा मिले सहयोग के प्रति लेखक आभारी है और इसे बहुत बढ़ाचढ़ा कर नहीं कहा जा सकता. इस संगठन के हर स्तर पर शीर्ष नेता गोलवलकर से लेकर नए से नए सदस्य के स्तर तक आमतौर पर कहानी एक जैसी है. योजनाओं और गतिविधियों के बारे में अनेक सवाल पूछने के तथा साथ ही संघ के कार्यकलापों को देखने के लगातार अवसर दिए गए. इस अध्ययन का प्रमुख अंश आरएसएस के साथ प्रायः डेढ़ वर्षों के संबंधों पर आधारित है.

गोलवलकर के प्रति निष्ठा रखने वालों द्वारा 1956 में लिखी गई दोनों जीवनियों में से किसी ने भी वी ऑर आवर... के लेखक के मुद्दे पर कोई विवाद नहीं खड़ा किया. 1939 के आसपास के गोलवलकर के जीवन के बारे में चर्चा करते हुए वीएन भार्गव ने लिखा :

इस अवधि के दौरान उन्होंने एक और अमूल्य योगदान किया. एक साफ सुथरी छोटी पुस्तक में उन्होंने बड़ी कुशलता के साथ राष्ट्रवाद के दर्शन को प्रतिपादित किया जिसके प्रचार के लिए डॉ. हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना की थी. वी ऑर आवर... राष्ट्रवाद और हिंदूवाद के संदर्भ में इसे खासतौर पर लागू करने के सिद्धांत का बहुत सटीक चित्रण है. बाद की घटनाओं ने किसी संदेह के बिना उनकी इस थीसिस की सत्यता को स्थापित किया है. यह जानना दिलचस्प होगा कि 100 पृष्ठों से भी अधिक की यह पुस्तक तीन दिनों के अंदर लिखी गई और इसके लेखन ने लेखक के रोजमर्रा के कामों में किसी तरह का खलल भी नहीं पैदा किया.

एनएच पालकर ने भी बहुत स्पष्ट शब्दों में दावा किया है कि गोलवलकर ही वी ऑर आवर... के लेखक थे और इस पुस्तक में संघ की विचारधारा का सारतत्व है. उन्होंने लिखा, "इसी समय के आसपास उनकी लिखी पुस्तक वी ऑर आवर... प्रकाशित हुई. यह पूरी तरह डॉ. हेडगेवार के विशुद्ध राष्ट्रवाद की अवधारणा की अभिव्यक्ति थी."

पालकर के विवरणों के अनुसार गोलवलकर ने वी ऑर आवर... में राष्ट्र, धर्म और संस्कृति जैसी अवधारणाओं का विस्तृत विश्लेषण किया और उन्होंने उस तथ्य का पर्दाफाश किया जिसे वह कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति मानते थे. पालकर ने भारत में अल्पसंख्यकों के मसले से निपटने के लिए उन्हें पूरी तरह समाहित करने या नस्ली सफाये की नीति अख्तियार करने के नुस्खे को न्यायोचित ठहराया. इस संदर्भ में पालकर ने लिखा, "उन्होंने लिखा है कि विदेशी नस्ल के लोगों के सामने बस दो ही विकल्प उपलब्ध हैं. पहला, वे प्रभुत्वकारी नस्ल की राष्ट्रीय संस्कृति को स्वीकार कर लें और उसमें पूरी तरह समाहित हो जाएं, और दो, उन्हें राज्य की अनुमति से ही यहां रहना चाहिए और यह अनुमति वापस ले लिये जाने के बाद उन्हें देश छोड़ देना चाहिए." इसी क्रम में पालकर आगे लिखते हैं कि "अल्पसंख्यकों के प्रश्न को देखने का यही एकमात्र उचित तरीका है. यही इस सवाल का न्यायपूर्ण उत्तर भी है. केवल इसके जरिए ही स्थिर और शांतिपूर्ण राष्ट्रीय जीवन को सुनिश्चित किया जा सकता है."

वी ऑर आवर... में लेखक का निम्नांकित विवरण दिया गया हैः "एमएस गोलवलकर, एम.एससी, एलएलबी (पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय)"

एम एस अणे द्वारा गोलवलकर की पुस्तक की प्रस्तावना के संदर्भ में पालकर लिखते हैं:

अल्पसंख्यकों की समस्या के इस विश्लेषण का अणेजी ने भी समर्थन किया है... उन दिनों में इस समस्या का जो तर्कपूर्ण समाधान सुझाया गया था उसकी अनदेखी करने की वजह से ही आज हमें ‘राज्य के अंदर राज्य’ का कड़वा स्वाद लेना पड़ रहा है.

अणे नागपुर के एक कांग्रेसी नेता थे जो हेडगेवार के मित्र थे. वी ऑर आवर... की अपनी प्रस्तावना में उन्होंने हिंदू राष्ट्र के विचार के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की है. पालकर के इस दावे के बावजूद कि उन्होंने गोलवलकर के विश्लेषण को स्वीकृति दी, अणे अल्पसंख्यकों की समस्या के तथाकथित अंतिम समाधान के लिए नाजियों से प्रभावित गोलवलकर के विचारों का खुलकर समर्थन करने की हद तक नहीं जाते. उन्होंने लिखा- "मैंने देखा कि मुसलमानों की स्थिति से जुड़ी समस्याओं से निपटने में लेखक ने हिंदू राष्ट्रीयता और हिंदू संप्रभु राज्य के बीच के विभेद को हमेशा ध्यान में नहीं रखा. एक संप्रभु राज्य के रूप में हिंदू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप वाले हिंदू राष्ट्र से सर्वथा भिन्न है. किसी भी आधुनिक राज्य ने अपने यहां रहने वाली विभिन्न राष्ट्रीयताओं के अल्पसंख्यकों को राज्य की नागरिकता पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया है बशर्ते उनका या तो स्वतः या किसी कानून के जरिए प्रकृतीकरण हो गया हो."

अपनी जीवनी में पालकर ने इस बात का जिक्र किया है कि गोलवलकर ने राष्ट्रमीमांसा का अंग्रेजी में अनुवाद किया लेकिन उन्होंने बहुत साफ शब्दों में यह कहा है कि यह परियोजना पूरी तरह वी ऑर आवर... से भिन्न थी. 1938 का विवरण देते समय वह लिखते हैं, "उस वर्ष की एक और घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा. प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्री बाबाराव सावरकर की पुस्तक राष्ट्रमीमांसा का मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद होना था." अनुवाद का काम बाबाराव के एक संबंधी और घनिष्ठ सहयोगी विश्वनाथ राव केलकर की देखरेख में होना था.

पालकर के अनुसार आरएसएस के वरिष्ठ नेता पीबी दानी ने केलकर को सुझाव दिया कि अनुवाद का काम गोलवलकर को सौंपा जाए. उन्होंने आगे लिखा है कि "केलकर ने गोलवलकर को अपने घर बुलाया और उनसे पूछा कि क्या वह अनुवाद करने के इच्छुक हैं. गुरु जी ने अपनी सहमति दे दी और पुस्तक तथा सादे कागज के कुछ पन्नों को लेकर वापस अपने घर आ गए." पालकर ने आगे बताया है कि गोलवलकर ने इस पुस्तक का अनुवाद महज एक दिन में पूरा कर दिया लेकिन कुछ अज्ञात कारणों से "इस अनुवाद का प्रकाशन नहीं हुआ और अनुवाद की पांडुलिपि केलकर के निवास पर ही पड़ी रही."

गोलवलकर ने भी राष्ट्रमीमांसा के अंग्रेजी अनुवाद के बारे में लिखते हुए वी ऑर आवर... की प्रस्तावना में इसका उल्लेख किया है और पाठकों से कहा है कि "इस विषय पर व्यापक अध्ययन के लिए" वे आने वाले दिनों में इस पुस्तक का इंतजार करें लेकिन उन्होंने कहीं यह रहस्योदघाटन नहीं किया कि उसका अनुवाद खुद उनके द्वारा किया गया है. उस समय उन्हें यह नहीं पता था कि अंग्रेजी अनुवाद कभी भी प्रकाशित नहीं हो सकेगा.

मई 1963 और उसके बाद के वर्षों में दिए गए अपने भाषणों में और लेखन में गोलवलकर ने अपने झूठ को दोहराया नहीं. शायद इससे जुड़ी अनेक विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए वह नहीं चाहते थे कि अपने दावे पर जरूरत से ज्यादा जोर दें. वह इसकी वैधता के स्वतंत्र मूल्यांकन को उकसाने से बचना चाहते थे. 1973 में उनकी मृत्यु के बाद संघ ने उनकी विचारधारा पर नाजीवाद के प्रभाव को नकारने के अनेक प्रयास किए. कुछ समर्थकों ने वी ऑर आवर... पर सार्वजनिक तौर पर पूरी तरह चुप्पी साधे रखी जबकि कुछ अन्य ने गोलवलकर के इस दावे के पक्ष में कि उन्होंने यह पुस्तक नहीं लिखी, बहुत लचर किस्म की दलीलें दीं. 

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की लोकप्रियता और लगभग हर जगह उनकी उपस्थिति को भांपते हुए गोलवलकर ने बहुत नपेतुले ढंग से अपने काम को आगे बढ़ाया.

गोलवलकर की पहली अधिकृत जीवनी उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई जो 1984 में हरि विनायक दाते की लिखी पुस्तक आरती आलोक की  थी. इसमें भी ‘वी...’ और इसके लेखक के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. इसमें 1963 में गोलवलकर के किए गए डिस्क्लेमर का भी उल्लेख नहीं है. यह विश्वास करना असंभव है कि दाते को वी ऑर आवर... और इससे जुड़े विवाद के बारे में जानकारी नहीं रही होगी. गोलवलकर के साथ उनका संबंध काफी पहले से- पुस्तक के प्रकाशन से भी पहले से था. दाते ने लिखा है, "1938 में पहली बार मुझे गुरुजी से भेंट करने का अवसर मिला. वह उन दिनों सालाना होने वाले ऑफिसर्स ट्रेनिंग कैंप के प्रभारी थे." गोलवलकर के एक अन्य काफी पुराने सहयोगी पी जी सहस्रबुद्धे ने गोलवलकर से जुड़े अपने खुद के विवरण लिखते समय दाते की चेतावनी को साझा किया है. उनकी जीवनी श्री गुरूजीः एक जीवन यज्ञ  1987 में प्रकाशित हुई और इसमें भी वी ऑर आवर... से संबंधित कुछ भी उल्लेख न करने का तरीका अपनाया गया.

ऐसा लगता है कि 1998 में जब केंद्र में सरकार की जिम्मेदारी संभालने के लिए भारतीय जनता पार्टी सत्ताधरी गठबंधन का हिस्सा बनी, उसके बाद से आरएसएस के अंदर कुछ आत्मविश्वास पैदा हुआ. अंततः संघ ने वी ऑर आवर... के बारे में एक आधिकारिक स्थिति विकसित करनी शुरू की.

गोलवलकर की पुस्तक की समीक्षा करते हुए, जिसमें उन्होंने पुस्तक का पूरा पाठ भी प्रस्तुत किया है, राजनीतिक विश्लेषक शम्सुल इस्लाम ने बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के शपथ लेने के कुछ दिनों बाद संसद में घटित एक दिलचस्प घटना का जिक्र किया है. 28 मार्च 1998 को विश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने वी ऑर आवर... में व्यक्त फासीवादी विचारों का मामला सदन में उठाया. इस्लाम ने अपने इस लेख में लिखा है कि, "वह इस तथ्य से बहुत परेशान थे कि बीजेपी सरकार आरएसएस के निर्देशों का पालन कर रही है जिसके वैचारिक गुरु ने उपरोक्त पुस्तक लिखी है. शम्सुल इस्लाम के अनुसार इस नई सरकार के गृह मंत्री एलके आडवाणी ने यह कहते हुए हस्तक्षेप किया कि "पुस्तक के लेखक गोलवलकर ने इस पुस्तक से अपनी दूरी बना रखी है और घोषणा की है कि इससे उनका कोई संबंध नहीं है. बेशक, अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वह कोई दस्तावेज नहीं पेश कर सके."

आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ ने 21 मई 1998 के अंक में अमेरिका स्थित एक आरएसएस समर्थक डेविड फ्राले का एक लेख प्रकाशित किया. इसमें कहा गया था- "जो लोग आरएसएस को फासिस्ट संगठन कहते हैं वे अपनी बात को साबित करने के लिए महान भारतीय क्रांतिकारी वीर सावरकर के बड़े भाई वीएस सावरकर की पुस्तक वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड पर जोर देते हैं." इसी लेख में आगे कहा गया है, "गोलवलकर ने, जो आगे चलकर 1940 में आरएसएस के नेता बने, 1938 में इस पुस्तक का अनुवाद किया था."

यह तथ्यों के साथ जबर्दस्त तोड़मरोड़ था क्योंकि वी ऑर आवर... में लेखक का निम्नांकित विवरण दिया गया हैः "एमएस गोलवलकर, एम.एससी, एलएलबी (पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय)".  इसकी प्रस्तावना में गोलवलकर ने इसका लेखक होना स्वीकार किया है. उन्होंने लिखा है, "यह व्यक्तिगत तौर से मेरे प्रति उपकार है कि मेरे इस प्रथम प्रयास को--इस क्षेत्र के लिए अज्ञात एक ऐसे लेखक के प्रयास को लोकनायक एमएस अणे ने अपनी प्रस्तावना से समृद्ध किया."

2006 में आरएसएस के सिद्धांतकार राकेश सिन्हा ने श्री गुरूजी ऐंड इंडियन मुस्लिम्स  शीर्षक पुस्तिका में गोलवलकर की वी ऑर आवर... से दूरी बनाने के लिए थोड़ा घुमावदार रास्ता अख्तियार किया. उन्होंने इसके लिए "इस्लामिक विद्वानों और धर्मनिरपेक्ष समाजविज्ञानियों" को दोषी ठहराया कि वे गोलवलकर के 1963 के दावे पर सवाल खड़े कर रहे हैं और इस प्रकार इस पुस्तक के लेखक के मुद्दे पर विभ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं. राकेश सिन्हा ने आगे लिखा है- "राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर उनके खुले और उदारवादी नजरिए के बावजूद इस्लामिक विद्वानों और धर्मनिरपेक्ष समाज विज्ञानियों ने बहुत नकारात्मक ढंग से उनके प्रति व्यवहार किया है. भारतीय विद्वत जगत में जिस तरह संदर्भों से काटकर चुने हुए अंशों को लेकर उनका दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है वह बेमिसाल है. ये लोग आमतौर पर वी ऑर आवर... का उल्लेख करते हैं जिसका प्रकाशन 1939 में हुआ था. उस समय की छलावा भरी और दुविधाग्रस्त घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय नीति ने निश्चय ही पुस्तक में लिखी बातों को प्रभावित किया."

सिन्हा आगे दलील पेश करते हैं कि वी ऑर आवर... में "न तो परिपक्व गुरुजी के नजरिए का और न आरएसएस के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व है. उन्होंने खुद इसे स्वीकार किया जब यह रहस्योदघाटन किया कि उस पुस्तक में उनके अपने विचार नहीं हैं बल्कि वह जीडी सावरकर की कृति राष्ट्रमीमांसा का संक्षिप्त संस्करण है." इस प्रकार फ्राले की ही तरह सिन्हा इस बात पर  जोर देते हैं कि गोलवलकर पर यकीन किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने ऐसा कहा. उन्होंने उन विसंगतियों के बारे में कुछ भी नहीं कहा जिनकी वजह से गुरुजी का दावा एक अबूझ पहेली बन गया है. उन्होंने अपनी बात के समर्थन में कोई प्रमाण भी नहीं दिया.

कारवां के जुलाई 2017 के अंक में पत्रकार हरतोष सिंह बल ने गोलवलकर का व्यक्ति चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखा कि "संघ के भीतर या स्वयंसेवकों के बीच इस बात को लेकर कोई भ्रम नहीं है कि यह पुस्तक किसने लिखी." हरतोष सिंह बल जब रामटेक में गोलवलकर के पारिवारिक गृह गए, जिसे संघ के जिला मुख्यालय के साथ-साथ एक स्मारक का भी रूप दे दिया गया है, राहुल वानखेड़े नामक एक स्वयंसेवक उन्हें भवन की पहली मंजिल पर ले गया और उनसे बताया कि, "मैंने सुना है कि गुरुजी ने यहीं वी ऑर आवर... का लेखन किया. उन्होंने एक रात में और एक बैठकी में यह काम पूरा कर दिया.”

(अंग्रेजी कारवां के अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)