फुर्सत के नायाब पल में पांच दिसंबर 1956 की रात भीमराव आंबेडकर दिल्ली के अलीपुर रोड स्थित अपने किराए के मकान में रेडियोग्राम पर बज रही बौद्ध प्रार्थना को सस्वर दोहरा रहे थे, “बुद्धम शरणं गच्छामि, धम्म शरणं गच्छामि, संघम शरम् गच्छामि” कि तभी उनका रसोइया डिनर के लिए आने को कह कर उनका ध्यान-भंग करता है. उन्हें थोड़ा-सा चावल खाने के लिए बहुत मान-मनौव्वल करना पड़ता था. डाइनिंग टेबल तक आने के दौरान आंबेडकर अपनी लाइब्रेरी के पास ठिठक जाते और रात में पढ़ने के लिए कुछ किताबें चुनते. केंद्र सरकार के एक स्टाफ नानकचंद रततू, उनके सचिवालय के काम में सहयोग करते रहे थे, देर रात तक ही वहां से रुखसत हो पाते थे. 1952 में केंद्रीय विधि मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद उनका सरकारी स्टाफ उनके पास नहीं रह गया था. आंबेडकर ने रत्तू को निर्देश दिया कि वह टाइप किए गए कागजात को अगली सुबह ही प्रकाशन के लिए भिजवा दें. इन कागजातों में उनकी शीघ्र प्रकाशित होने वाली किताब ‘दि बुद्धा एंड हिज धम्मा’ की प्रस्तावना और परिचय भी संलग्न था.
आंबेडकर की दूसरी पत्नी सविता अपनी आत्मकथा में याद करती हैं कि वह “अपने जीवन के अंतिम क्षण तक” लेखन में तल्लीन थे. चूंकि उस समय तक फोटोकॉपी की सुविधा नहीं थी, वह बताती है, उन्हें अपने शोध अनुसंधान के लिए दुर्लभ किताबों की हाथ से लिखी या टाइप की हुई कॉपी पर निर्भर रहना होता था. “उन्हें लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी से कुछ किताबों की टंकित प्रतियां मिल गई थीं,” सविता आंबेडकर लिखती हैं, “ज्ञान के लिए उनकी अधीरता आवेशपूर्ण थी और इसका कोई सानी नहीं था.”
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, गिरती सेहत और बेशुमार राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की तमाम व्यस्तताओं के बावजूद आंबेडकर अपने लिखने के लिए थोड़ा समय निकाल ही लेते थे और अपनी चार महत्वाकांक्षी किताबों के ड्राफ्ट को दोहराते थे. बाद में ये किताबें, दि बुद्धा एंड हिज धम्म्, बुद्धा एंड कार्ल मार्क्स, रिवॉल्यूशन एंड काउंटर रिवॉल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया और रिडल्स इन हिंदुइज्म के नाम से प्रकाशित हुईं. सविता आंबेडकर ने ऐसी 18 किताबों की एक सूची दी है, जिनकी तैयारी किसी न किसी स्तर पर चल रही थी. उन्होंने कहा, “कुछ तो बिना शीर्षक के किताबों के अध्याय हैं, जबकि कुछ आलेख उनके श्रृंखलाबद्ध विचारों के आधार पर तैयार किए गए हैं.” वह अपनी आत्मकथा के लगभग 80 पेज लिख चुके थे. इसका शीर्षक थावेटिंग फॉर ए वीजा. यह किताब उनकी जन्म शताब्दी (1990) के अवसर पर प्रकाशित की गई. आंबेडकर ज्योतिराव फुले, सायाजीराव गायकवाड और मोहनदास गांधी पर भी किताबें लिखने की योजना बना रहे थे.
वह अक्सर रात में देर तक लिखने-पढ़ने का काम करते रहते. रत्तू ने इस अवधि के अपने संस्मरण लास्टफ्यू ईयर्स ऑफ आंबेडकर में लिखें हैं. इसमें उन्होंने आंबेडकर को अपनी किताबों की पांडुलिपियों पर घंटों काम करने के तनावों और फिर इनके प्रकाशनों के लिए संभावित प्रकाशकों से संपर्क करने के निरंतर प्रयासों के बारे में बताया है. रत्तू के मुताबिक, बुद्धा एंड हिज धम्म-जिसका मौलिक शीर्षक “बुद्धा एंड हिज गॉस्पल” था- उनकी पहली वरीयता थी और वह इसे अपने जीवनकाल में प्रकाशित होते देखना चाहते थे. इसको तैयार करना एक “जबर्दस्त और काफी दुष्कर काम था, जिसको मुझे अकेले ही करना था. मैं हमेशा आधी रात के बाद ही घर लौट पाता था.” रत्तू लिखते हैं, “टाइप की गई किताब में सुधार किया गया, दोबारा सुधार किया गया, उनका पेज नंबर दिया गया, संशोधन के बाद बढ़े हुए पृष्ठों के नंबर फिर से बदले गए, पैराग्राफ के नंबर दिए गए, संशोधन के बाद फिर उस नंबर को बदला गया. कभी-कभी कुछ पंक्तियां या किसी पैराग्राफ को कैंची से काटा गया और उन्हें इसके उपयुक्त स्थानों पर चिपकाया गया.”
रत्तू याद करते हैं, किस तरह हुआ वह रोजाना 25 किलोमीटर साइकिल चलाकर अपने घर से ऑफिस और फिर अलीपुर रोड जाते थे. चाहे जाड़ा हो, गर्मी, बरसात, आंधी-तूफान, बिजली कड़क रही हो या बादल गरज रहे हों, मुझे हर हाल में अपना ऑफिस करने के बाद पहुंचना ही पड़ता. रविवार और छुट्टी के दिन भी सुबह-सुबह ही वहां पहुंचना पड़ता और उनकी किताबों के लिए हाथ से लिखे ढेर के ढेर कागजों को टाइप करना पड़ता, उनकी चिट्ठियों का जवाब देना पड़ता, रोजमर्रे के ऑफिस के काम के बाद, इन सब के अलावा उनकी देखभाल भी करनी पड़ती थी. 5 दिसंबर की रात वह 5 दिनों में पहली बार अपने घर गए थे.
पांच साल के कठिन परिश्रम के बाद दि बुद्ध एंड हिज धम्म किताब मार्च 1956 में पूरी हो गई थी लेकिन आंबेडकर इसके प्रकाशन पर होने वाले 2000 रुपए का खर्च जुटा नहीं सके. उन्होंने इतनी रकम के इंतजाम के लिए मुंबई के दोराबजी टाटा ट्रस्ट को बार-बार चिट्ठी लिखी, जो इस किताब के संभावित प्रकाशक थे. “मिस्टर टाटा अब लौट आए हैं और इसीलिए आपको उनसे बातचीत करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है,” आंबेडकर ने 17 मार्च को मिस्टर मसानी को एक चिट्ठी लिखी, जो उस समय टाटा इंडस्ट्रीज के चेयरमैन थे, “मैं बहुत जल्दी में हूं” इसलिए अगर मेरे अनुरोध को टाटा ने मानने से इनकार कर दिया तो फिर “अपना कटोरा ले कर दूसरे दरवाजे पर जाना पसंद करूंगा.” मसानी ने इसका जवाब दिया कि ट्रस्ट इस किताब को नहीं छाप सकता. अलबत्ता ट्रस्ट इसके लिए आर्थिक सहायता देगा. इसके दो महीने बाद आंबेडकर को 3000 रुपए का एक चेक मिल गया.
जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने उस साल गौतम बुद्ध की 2500वीं जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में कुछ कार्यक्रमों को आयोजित करने के लिए एक कमेटी का गठन किया था. इसके मद्देनजर आंबेडकर ने नेहरू को अपनी किताब ‘दि बुद्ध एंड हिज धम्म’ की 500 प्रतियां खरीदने और उन्हें राज्यों के पुस्तकालयों और भारत आने वाले विश्व के नेताओं को भेंट स्वरूप यह पुस्तक देने के लिए एक पत्र लिखा. नेहरू ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. उन्होंने लिखा, “हमने गौतम बुद्ध की जन्मशताब्दी पर प्रकाशित करने के लिए कुछ निश्चित राशि का ही आवंटन किया है, वह सब खर्च हो गई है बल्कि उससे ज्यादा ही खर्चा हो गया है.” आखिरकार इसके एक साल बाद आंबेडकर की वह किताब पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी (पीईएस) द्वारा प्रकाशित की गई, जिसकी स्थापना स्वयं आंबेडकर ने 1945 में की थी और इसकी देखरेख का जिम्मा पीईएस द्वारा संचालित सिद्धार्थ कॉलेज के लाइब्रेरियन एसएस रेगे को सौंप दिया था.
डॉ आंबेडकर की 6 दिसंबर 1956 को सोई हुई अवस्था में ही मृत्यु हो गई. उनके निधन के बाद उनके अप्रकाशित लेखन के विशाल भंडार को यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ा. उनकी पांडुलिपियां वर्षों उनके अलीपुर बंगले में पड़ी रहीं, जब तक कि सविता आंबेडकर को उन कागजातों के साथ वहां से बेदखल नहीं कर दिया गया. फिर यह धरोहर सरकार की निष्ठुर निगहबानी में रही. आंबेडकर के सगे-संबंधियों और उनके समर्थकों, जैसे जीबी वनसोड और जेवी पवार ने सरकार और न्यायपालिका में दरखास्त देकर उन दस्तावेजों को देश के सामने लाने की अपील की. तब कहीं जा कर महाराष्ट्र सरकार ने डॉ बाबा साहेब आंबेडकर के निधन की चौथाई सदी बाद उनके लेखों और भाषणों के संग्रह-संकलनों की डॉ बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज (बीएडब्ल्यूएस) श्रृंखला 1982 में जारी करना शुरू किया. इस धारावाहिक प्रकाशन का तात्पर्य आंबेडकर की उन पुस्तकों को सामने लाना था, जिन्हें वह अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं कर सके थे. साथ ही, पहले से प्रकाशित किताबों और लेखों के संग्रह जो पहले से पाठकों के बीच मौजूद तो थे, लेकिन उनकी प्रतियां धीरे-धीरे खत्म हो रही थीं, वे एक-एक कर मुद्रण से बाहर हो रही थीं और इसलिए उनका पुनर्प्रकाशन करना आवश्यक था. यह काम अधूरा पड़ा हुआ है.
केंद्र सरकार ने गांधी के चुने हुए लेखों का पहला संग्रह उनकी हत्या के एक दशक बाद, 1958 में प्रकाशित किया था और 100 खंडों में उनके संपूर्ण वांग्मय को 1994 में प्रकाशित किया था. पंडित जवाहरलाल नेहरू के 1964 देहावसान के तत्काल बाद ही उनके संपूर्ण कृतित्व की संरक्षा के लिए नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एवं लाइब्रेरी (एनएमएमएल) की स्थापना कर दी गई. यह संस्था गांधी के भी अधिकांश लेखन-कार्यों की संरक्षक बन गई और इसके अलावा, अन्य असंख्य लोगों को गणतंत्र के संस्थापक पिताओं के रूप में मानते हुए उनके लेखन-भाषण को संरक्षित किया. संविधान के मुख्य वास्तुविद्, जाति एवं पितृसत्ता से जूझने वाले, लाखों लोगों के आईकन और श्रमिकों के अधिकारों के रक्षक आंबेडकर का लिखा हुआ महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग की टेबल पर आज भी पड़ा हुआ है, जिसकी देखभाल का जिम्मा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त कमेटी को दिया गया है. अभी तक इस कमेटी ने आंबेडकर के काम को 22 खंडों में प्रकाशित किया है, जिनमें अंतिम खंड का प्रकाशन एक दशक पहले किया गया था. यह स्पष्ट नहीं है कि आंबेडकर का कितना काम अप्रकाशित रह गया है.
यद्यपि आंबेडकर के विचारों ने पूरी दुनिया के लोगों की कई पीढ़ियों प्रभावित किया है, प्रेरित किया है, लेकिन उसका प्रचार-प्रसार सरकार की इच्छा या प्रयासों के चलते नहीं, बल्कि उसके न करने के बावजूद हुआ है. आंबेडकर के लिखे हुए के प्रति सरकारी उपेक्षा के अनेकानेक कारण हैं, जिनमें हिंदुत्व के प्रति उनका कटु आलोचक होना ही एकमात्र कारण नहीं है. बीएडब्ल्यूएस (BAWS) के खंडों ने धीरे-धीरे ही सही, भारतीय विचार दर्शन पर आंबेडकर की गहरी छाप छोड़ी है, यद्यपि उनकी पांडुलिपियों के बारे में और उन्हें प्रकाशित किए जाने को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है. नौकरशाही की उदासीनता और बौद्धिक संपदा को लेकर उत्पन्न विवादों के बीच, आंबेडकरवादी व्यक्तियों के, कमेटी के अंदर और बाहर किए गए कठिन परिश्रम का काफी योगदान रहा है, जिन्होंने आंबेडकर के काम को प्रकाशित रूप में सुरक्षित रखना सुनिश्चित किया और अब वे उनको शाश्वत रखने के लिए डिजिलीटाइज कर रहे हैं.
बदलती राज्य सरकारों के साथ कमेटियां भी बदलती रही हैं, जिन्होंने आंबेडकर के रचना-संसार के प्रकाशन पर अपनी छाप छोड़ी है. एक नौकरशाह और आंबेडकर-समर्थक वसंत मून ने कमेटी के अस्तित्व में आने के पहले दो दशकों तक उसका नेतृत्व किया था. मून ने ही आंबेडकर के लेखन को 22 खंडों में प्रकाशित कराया था. उनके उत्तराधिकारियों की प्रकाशन में अनावश्यक देरी करने, उनके ज्ञान की कमी और आंबेडकर की पुस्तकों एवं उनके विचारों के प्रचार-प्रसार में कोताही करने के लिए कभी-कभी आलोचना की जाती है. कुछ लोगों ने यह भी आरोप लगाया कि कमेटी से आंबेडकरवादी साहित्य के कितने ही विद्वानों को हटा दिया गया है. यह भी आरोप है कि कमेटी में उन लोगों को शामिल किया गया, जिनका जुड़ाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ है. शिवसेना, जिसका दलितों के विरुद्ध हिंसा का एक अपना इतिहास रहा है और जिसने आंबेडकर की लिखी एक किताब रिडल्स इन हिंदुइज्म के प्रकाशन पर 1987 में प्रदर्शन का नेतृत्व किया था, आज उसके नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने उस कमेटी को बर्खास्त कर दिया है, जिसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गठित किया था. उसने करीब एक साल से अधिक समय के बाद भी नई कमेटी का गठन नहीं किया था.
आंबेडकर की विरासत के लिए संघर्ष बहुत लंबा और काफी कठिन है और यह कहीं खत्म होता दिखाई नहीं देता है. “बाबासाहेब को आज तक न्याय नहीं मिला है,” आंबेडकर की रचनाओं के प्रकाशक और नागपुर आधारित भारतीय दलित पैंथर्स के अध्यक्ष प्रकाश बनसोड ने कहा, “हम कार्यकर्ता बाबासाहेब की रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन इसके प्रति न्याय करने वाला कोई नहीं है.”
जिस सुबह आंबेडकर का निधन हुआ, उस दिन वह अपनी किताब द बुद्धा एंड हिज धम्मा को प्रकाशन के लिए भेजने से पहले रत्तू के साथ उसकी प्रस्तावना और परिचय का फाइनल प्रूफ को पढ़ने वाले थे. इस प्रस्तावना को न तो पीईएस के संस्करण में जोड़ा गया है और न ही महाराष्ट्र सरकार द्वारा 1979 में पुनर्प्रकाशित किए गए पुस्तक में ही इसे शामिल किया गया है. इसे आखिरकार आधी शताब्दी बाद, कोलंबिया के प्रोफेसर फ्रांसिस डब्ल्यू प्रिटचेट ने आंबेडकर की रचनाओं को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के एक वेब आर्काइव कार्यक्रम “सर्वाधिक प्रभावकारी पीएचडी” के तहत प्रकाशित किया. प्रो. प्रिटचेट लिखते हैं, जिसने “सभी को सामाजिक न्याय दिलाने की तरफ कानून के पहिए को मोड़ने का प्रयास किया.” आंबेडकर ने 6 अप्रैल 1956 को अपनी प्रस्तावना में लिखा है कि उन्होंने इस किताब को तैयार करने में पांच साल लगाए हैं, इस दौरान “मेरी सेहत कई बार बिगड़ी और सुधरी. एक समय तो मेरी स्थिति इस कदर गंभीर हो गई कि डॉक्टरों ने मुझे एक बुझती हुई लौ तक कह दिया.” उन्होंने अपनी “बुझती हुई लौ को सफलतापूर्वक लहकाए रखने” का सारा श्रेय पत्नी सविता आंबेडकर और चिकित्सक डॉक्टर माधव मालवंकर को दिया.
आंबेडकर ने आगे कहा कि दि बुद्धा एंड हिज धम्मा “उनकी तीन किताबों में से एक है, जो बौद्ध धर्म को बेहतर तरीके से समझने के लिए एक पूरे सेट का निर्माण करेगी.” उनके यह कहने का मतलब था कि इस किताब को बाकी उनकी दो किताबों के साथ मिलाकर ही पढ़ा जाना चाहिए, जिस पर उस समय वे काम कर रहे थे. वे किताबें थीं- बुद्धा एंड कार्ल मार्क्स और रिवॉल्यूशन एंड काउंटर रिवॉल्यूशन इन अंसिएंट इंडिया. इनमें आंबेडकर बुद्ध के धर्मशास्त्र को जाति व्यवस्था के विरुद्ध एक सामाजिक क्रांति के संदर्भ में रख रहे थे, बौद्ध धर्म जिसका प्रतिनिधित्व करता है. आंबेडकर के अध्येता विद्वान रावसाहेब कसबे ने कहा कि आंबेडकर ने “बुद्ध को एक क्रांतिकारी रूप में देखा था. एक ऐसा बुद्ध जो पूरे विश्व को बदल देगा. लेकिन चूंकि तब तक प्रस्तावना प्रकाशित नहीं हुई थी, इसलिए कोई भी बुद्ध की इस क्रांतिकारी छवि को नहीं समझ सका. आप देखिए कि एक भूल का क्या नतीजा होता है.”
कसबे ने कहा कि तब सविता आंबेडकर को लेकर हुए वितंडावाद का ही नतीजा था पुस्तक में प्रस्तावना का नहीं जोड़ा जाना. रत्तू कहते हैं कि चूंकि आंबेडकर प्रस्तावना को दोबारा पढ़ना या उसमें संशोधन करना चाहते थे, जो किताब छपने के 8 महीने पहले ही लिखी गई थी. इससे यह “अनुमान लगाना सुरक्षित है कि वे या तो इसे (प्रस्तावना को) हटा देना चाहते थे या इसमें संशोधन के लिए इच्छुक थे,” सविता और मालवंकर को धन्यवाद देने वाला हिस्सा तो उस सुबह का है, जब वे इस पर चर्चा कर रहे थे.
आंबेडकर ने जनवरी 1948 में डॉक्टर मालवंकर से अपने पांवों में तेज दर्द रहने की शिकायत की, जो उनके डायबिटिक होने की वजह से होता था. तब डॉक्टर शारदा कबीर भी मुंबई में मालवंकर की क्लीनिक में ही प्रैक्टिस करती थीं, लिहाजा उन्हें आंबेडकर को देखने का जिम्मा दिया गया. डॉक्टर कबीर ने मालवंकर से आंबेडकर को यह सुझाव देने के लिए कहा कि वह उनके साथ एक महीने दिल्ली में रह कर उनके इलाज के लिए तैयार हैं.
“आपका यह विचार कि एक महिला सहयोगी के रूप में मेरी देखभाल करें, मुझे माफ कीजिए, मैं इस विचार का बिल्कुल स्वागत नहीं करता हूं,” आंबेडकर ने कबीर को लिखे एक पत्र में कहा. “ मैं एक अति नैतिक और धार्मिक वातावरण में पला बढ़ा हूं,” उन्होंने कहा कि वह इस विचार का कतई समर्थन नहीं कर सकते, “यह ऐसा प्रस्ताव है, जो बेमेल संबंध के रूप में सार्वजनिक टिप्पणियों को जन्म देगा.”
आंबेडकर की पहली पत्नी रमा बाई थीं, जिनका 1935 में ही देहांत हो गया था. इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे दूसरी शादी नहीं करेंगे. उन्होंने लिखा कि हालांकि उनका यह निर्णय उनके मित्रों को नहीं जचा. “इसके बावजूद, मुझे यह बोध कराया जाने लगा कि सेहत के ख्याल से मुझे अपने फैसले के बारे में फिर से सोचना होगा और मेरे अपने ही लोग मुझे माफ नहीं करेंगे अगर मैंने एक महिला को एक ऐसी सहायिका के रूप में अपने जीवन में शामिल करने की उनकी यह बात न मानी कि जो मेरी बिगड़ती सेहत को ध्यान में रखते हुए ऐसा करना बिल्कुल अपरिहार्य है,” आंबेडकर ने लिखा. “अगर ऐसा करना एकदम अपरिहार्य हो, तो ऐसी एक औरत वैधानिक रूप से उनकी ब्याहता पत्नी ही हो सकती है, कोई नर्स या सहायिका नहीं.”
आंबेडकर ने शारदा कबीर से कहा कि “एक ऐसी औरत, जो मेरे लिए एक संतोषजनक पत्नी साबित हो सके, उसको खोजने में लंबा वक्त लग सकता,” लेकिन अपने करीबी सहायक कमलकांत चित्रे को जनवरी में लिखे एक पत्र में उनके बारे में संकेत दिया था, वह वही है. मैंने दो प्रख्यात डॉक्टरों से अपना मर्ज दिखाया है, जिन्होंने कहा कि अगर मेरी स्थिति में तत्काल सुधार नहीं होता है तो मेरा मर्ज क्रॉनिकल हो जाएगा और फिर उसका इलाज मुश्किल हो जाएगा. अब मैं तुम्हारी इस सलाह पर विचार कर रहा हूं कि कोई तो होना चाहिए जो मेरी सेहत की अधिक सहानुभूति से देखभाल कर सके. इसलिए अब मैं इसे पहले करने के लिए तैयार हूं. मैंने डॉक्टर कबीर से विवाह करने का निर्णय किया है. वह मेरे लिए एक बेहतरीन जोड़ी हो सकती है. अब गलत या सही मैंने तय कर लिया है. आने वाले सप्ताहों में, जबकि आंबेडकर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमिटी की अध्यक्षता करने में व्यस्त रहने लगे, उनमें और कबीर के बीच पत्रों का एक तेज सिलसिला शुरू हो गया. हालांकि डॉक्टर कबीर उनकी शादी के प्रस्ताव से चकित रह गई थीं, लेकिन फिर उन्होंने उनका प्रस्ताव मान लिया. आंबेडकर ने 12 फरवरी को लिखे पत्र में अपनी शादी के प्रसंग में एक गंभीर मसले को उठाया. डॉक्टर कबीर एक सारस्वत ब्राह्मण थीं. उन्होंने आंबेडकर से कहा था कि उनकी शादी होने तक इसकी सूचना उनके सगे-संबंधियों को न दी जाए. आंबेडकर ने लिखा, “इसका कारण मैं समझता हूं कि आपके रिश्तेदार मेरे जन्म के कारण ही आपसे शादी करने पर एतराज करेंगे. मेरा मूल वही रहेगा, जो है. मैं इसे बदल नहीं सकता हूं और कोई भी नहीं बदल सकता है.” उन्होंने आगे लिखा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं उनके संबंधी एक दलित से शादी करने की बात स्वीकार करेंगे और वे खुद भी इसके लिए उनसे नाराज हो सकती हैं. “मुझे ऐसी पत्नी नहीं चाहिए जो मेरे जन्म के कारण मुझे तुच्छ समझें और लोगों के बीच मेरे साथ घूमने-फिरने में शर्म महसूस करें क्योंकि उसमें से कोई भी व्यक्ति उनकी निम्न जाति में पैदा होने पर उंगली उठा सकता है.”
इसके अलावा भी कुछ अन्य समस्याएं भी थीं. आंबेडकर डॉक्टर कबीर से 15 साल बड़े थे और शादी बाद दिल्ली शिफ्ट करने पर उनकी मेडिकल प्रैक्टिस रुक जाती और इस तरह उन्हें काफी आर्थिक नुकसान उठाना होता. आंबेडकर ने लिखा था, “उचित यह है कि आपको अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए एक मौका दिया जाए. आपको सभी पक्षों पर अवश्य ही विचार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि मेरी पत्नी होने के लिए आप में कितनी बलवती इच्छाएं हैं. अपना दिल टटोलें, आसपास देखें, आप और समय लें. फिर एक निश्चित निर्णय पर पहुंचे, जो ठंडे मन से लिया गया और सुविचारित हो.”
कबीर ने अपना मन नहीं बदला और दोनों ने 15 अप्रैल 1948 को दिल्ली में आंबेडकर के निवास पर परिणय सूत्र में बंध गए. कबीर ने अपना नाम बदलकर सविता आंबेडकर रख लिया. विवाह से पहले ही, उनके जीवनी लेखक धनंजय कीर डॉ बाबासाहेब आंबेडकर लाइफ एंड मिशन में लिखते हैं, आंबेडकर अपने एक साथी द्वारा यह कहे जाने पर चिंतित हो गए थे कि कबीर और यशवंत के बीच परेशानियों के बीज अंकुरित हो गए हैं. यशवंत उनकी पहली पत्नी के लड़के थे. “मैं जो कुछ भी कर रहा हूं उसमें कोई नैतिक नीचता को नहीं देखता हूं,” आंबेडकर ने चित्रे को लिखा. यह भी बताया कि उन्होंने अनावश्यक कानाफूसी को रोकने के लिए शादी की तिथि को और पहले करने का फैसला किया है. किसी को भी शिकायत करने का कोई आधार नहीं है, यशवंत को भी नहीं. यशवंत को एक घर देने के अलावा 30000 भी दिया है. आज उस घर की कीमत कम से कम 80000 रुपए है. मैं मुत्तमईन हूं कि कोई भी पिता इससे ज्यादा अपने बेटे के लिए नहीं कर सकता है, जो मैंने किया है.”
आंबेडकर ने शादी से पहले शारदा कबीर को अपने बेटे यशवंत और भतीजे से मिलवाया था. “मैंने आपको अपने बच्चों के बारे में लिखा था क्योंकि मैं जानता हूं सौतेले बेटे और सौतेली माताओं के संबंध हमेशा सुखद नहीं रहते,” बाद में उन्होंने इसकी कैफियत दी. “यह खिन्न संबंध पूर्वाग्रह से शुरू होता है और पूरी तरह दुश्मनी में खत्म होता है, जो सारी खुशियों को नाश कर देता है. मैं नहीं चाहता कि यह हो.” जब आंबेडकर सार्वजनिक कार्यों में अति व्यस्तता के कारण यशवंत की शादी में शरीक नहीं हो पाए थे तो कबीर वहां मौजूद रही थीं.
सविता आंबेडकर ने अपने पति के खराब शारीरिक स्वास्थ्य के दौरान उनकी सेवा-शुश्रुषा करने के अलावा, उनके अंतिम दिनों में बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य का भी ख्याल रखा था. देश में 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में जब आंबेडकर हार गए थे, तब सविता ने चित्रे से राज्यसभा से उनका निर्वाचन सुनिश्चित करने के लिए कहा था क्योंकि “राजनीति डॉक्टर के अस्तित्व के लिए जरूरी थी, यह उनकी मानसिक और शारीरिक सेहत के लिए एक बेस्ट टॉनिक की तरह थी,” कीर इसका संक्षिप्त विवरण देते हैं. “हालांकि उन्होंने वर्तमान की पराजय को ठीक से सहन कर लिया था. सविता बताती रहीं थीं कि विगत की राजनीतिक घटनाओं ने ही उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाया था.”
कीर इस अवधि के दौरान आंबेडकर की चिंताओं को याद करते हुए लिखते हैं. “आंबेडकर स्वभाव से चक्रवाती थे. हल्के से उकसावे पर वे आगबबूले हो उठते थे. अपनी मेज पर रखी किताबों में जरा-सी फेर-बदल होने पर चिड़चिड़े हो जाते और गरज पड़ते : कहां हैं पेपर, किताबें कहां हैं? उन्हें किसने यहां से हटाया?’ डॉक़्टर पत्नी और नौकर डर से कांप जाते.” किसी ने कभी साहस कर उनसे पूछ लिया कि वे किस किताब के बारे में बात कर रहे थे, फिर तो उसके मिलने तक खोज जारी रहती. “जब इस किताब को ढूंढ़ कर उनके सामने लाई जाती तो वे बोल उठते, ‘ओह ! यही है वह. कहां थी यह?’ अगले ही पल उनका क्रोध शांत हो जाता.” कीर ने यह भी नोट किया कि किसी को भी “आंबेडकर की लाइब्रेरी में कोई किताब लेना तो दूर उसे छूने की भी इजाजत नहीं थी. उन्होंने एक बार कहा था कि अगर किसी दिन दुर्भाग्य घटित हो गया औऱ एक सरकारी करिंदा उनकी लाइब्रेरी को अपने कब्जे में लेने के लिए आएगा तो इसके पहले कि वह उनकी पहली किताब को हाथ लगाए, वे उसे वहीं काट डालेंगे.”
सविता के ब्राह्मणवादी संस्कारों और विशेषाधिकारों ने आंबेडकर के नजीदीकी सहयोगियों के बीच घुलने-मिलने में एक अवरोध पैदा किया, जो आंबेडकर से उनकी निकटता के चलते खुद को कटा-छंटा हुआ महसूस करते थे. सविता के प्रति उनके मन में अविश्वास बढ़ता गया और आंबेडकर के निधन के बाद षड्यंत्र की एक थियरी में इस अपार क्षति के लिए उन्हें ही कसूरवार ठहराया जाने लगा. इसको खूब फैलाया गया और इस पर लोगों ने भरोसा भी किया. रत्तू ने अपने संस्मरण में सविता आंबेडकर से अपनी बातचीत को याद किया है. उन्होंने लिखा है कि आंबेडकर के देहावसान के अगले दिन सुबह उन्हें अलीपुर बंगले पर बुलाया गया. दोनों लोगों ने एक दूसरे को ढांढस बंधाने की कोशिश की. इसके बाद, मावलंकर के कहने पर सविता ने उनसे कहा कि वे बाकी लोगों को यह बताएं कि वे (रत्तू) उस रात (निधन की रात) आंबेडकर के बंगले पर ही रुके थे. सविता ने जाहिर तौर पर यह जोड़ा कि वही “अब एकमात्र व्यक्ति हैं, जो मुझे आंबेडकर के अनुयायियों के प्रचंड कोप से बचा सकते हैं.”
रत्तू लिखते है कि उन्होंने सविता आंबेडकर पर किए गए शुरुआती शक-शबह से अपना ध्यान हटा लिया. उन्होंने कई कारण गिनाए कि क्यों आंबेडकर समर्थक अपने नेता की अकस्मात मृत्यु के लिए उन पर लांछना लगाते हैं, जिसमें 6 दिसंबर को उनकी मृत्यु के बाद अभियान के नेताओं को इसकी सूचना न देना, आंबेडकर के नौकर को भी उस दिन उनके कमरे में घुसने से मना कर देना और आंबेडकर का अंतिम संस्कार जितनी जल्दी हो सारनाथ में संपन्न करने का उतावलापन दिखाना, बजाए मुंबई में समारोहपूर्वक उनके अंतिम संस्कार के लिए इंतजार करने के जबकि अभियान को यह कहीं अधिक मुफीद लगता था. आखिरकार सविता बम्बई पर राजी हो गईं और दादर की चैत्य भूमि में आंबेडकर का अंतिम संस्कार कर दिया गया.
आंबेडकर का इलाज अन्य डॉक्टर से न कराने के सविता के इनकार को रत्तू ने अपनी तरह से समझने की कोशिश की. चूंकि खुद सविता और मालवंकर को उनकी बीमारी के इलाज में थोड़ी सफलता मिली थी. वह लिखते हैं, उनका (सविता का) हठ अशांत कर देने वाले अनेक तर्क गढ़ रहा था, जिसका अंत अक्सर उनकी इस बात से होता कि ‘‘आंबेडकर भोजन लेने से इनकार कर रहे थे.” वह लिखते हैं, “उन्हें (सविता को) भय था कि किसी भी अन्य डॉक्टर के इलाज से उनके निरोग हो जाने पर डॉ. आंबेडकर की नजर में डॉ. मावलंकर की विश्वसनीयता सदा के लिए समाप्त हो जाएगी.”
आंबेडकर की मृत्यु में सविता का कथित रूप से हाथ होने की अफवाह कई दशकों तक उनका पीछा करेगी. अनेक इश्तेहारों और किताबों की विषय-वस्तु बनेगी. तीन आंबेडकरवादी विधायकों ने नेहरू को एक ज्ञापन दिया और ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन ने एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से आंबेडकर की मृत्यु की परिस्थितियों की जांच कराए जाने के लिए एक कमेटी गठित किए जाने की मांग की. आखिरकार नेहरू को इस जांच का आदेश देना पड़ा, जिसमें आंबेडकर की स्वभाविक मृत्यु होने की बात कही गई थी. लेकिन सरकार ने पूरी जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया, जिससे यह मुद्दा आगे भी जीवित रहा. 1993 में, आंबेडकरवादियों के एक समूह ने संयुक्त राष्ट्र को आवेदन दिया कि वह भारत सरकार पर आंबेडकर की मृत्यु की जांच-रिपोर्ट को सार्वजनिक करने तथा सविता आंबेडकर और मावलंकर पर मुकदमा चलाने के लिए दबाव डाले.
आंबेडकर ने अपनी कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी. उनके अंतिम संस्कार के बाद यशवंत आंबेडकर दिल्ली लौटे और सत्र अदालत में एक याचिका दायर कर अपने को डॉक्टर आंबेडकर का एकमात्र वारिस घोषित किए जाने की मांग की. इस पर अदालत ने संपत्ति के विवाद का हल होने तक अलीपुर रोड के बंगला के सभी साजो-समान-कागजात समेत-सील करने का आदेश दे दिया. यशवंत ने बाद में इस मामले को दिल्ली से बाम्बे हस्तांतरित करा लिया और दिल्ली उच्च न्यायालय ने आंबेडकर के तमाम कागजातों को अपनी कस्टडी में लेने का आर्डर तात्कालीन राज्य (जिसे तब बाम्बे प्रांत कहा जाता था ) सरकार को दे दिया. सविता आंबेडकर अलीपुर रोड के बंगले में ही रहीं. “10 कमरों के इस बंगले में, दो कमरों में डॉक्टर आंबेडकर का बेशकीमती सामान रखा हुआ था, जो अब बाम्बे के एडमिनिस्ट्रेटिव जनरल के अधिकार में था, जो डॉ आंबेडकर की परिसंपत्तियों के कस्टोडियन थे.” रत्तू लिखते हैं, “श्रीमती आंबेडकर 2 कमरों में ही रहती थीं. बाकी कमरे खाली पड़े थे.” अलीपुर का यह बंगला सिरोही के महाराजा का था. आंबेडकर के निधन के एक दशक बाद 1966 में, इस संपत्ति को किसी मदनलाल जैन ने खरीद लिया. उन्होंने सविता आंबेडकर को आश्वस्त किया कि वह जब तक चाहें यहां रह सकती हैं.
हालांकि, जैन ने इस बंगले का कुछ हिस्सा अपने दामाद और एडीशनल सेशन जज जे एन वर्मा को भाड़े पर दे दिया. 17 जनवरी 1967 को जैन ने उस बंगले से सविता की बेदखली का आदेश ले लिया. इसके तीन दिन बाद, सविता राजस्थान के अलवर के दौरे पर गई थीं, हालांकि इसकी वजह मालूम नहीं है. उनकी गैरहाजिरी में, जैन के भेजे कुछ आदमियों ने मकान को अपने कब्जे में ले लिया और आंबेडकर का सारा सामान वहां से हटा दिया. जब वह शाम में लौट कर आईं तो उन्हें बंगले में घुसने से मना कर दिया गया. रत्तू की मदद से सविता आंबेडकर ने अलीपुर बंगले से अपनी बेदखली के खिलाफ स्टे आर्डर ले आईं. उन्होंने आपराधिक अतिक्रमण और चोरी का एक मुकदमा भी थाने में दर्ज करा दिया.
सविता ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंतराव बलवंत राव चौहान और दिल्ली के तत्कालीन उप राज्यपाल एएन झा से मदद मांगी. वह जब बंगले पर पहुंचीं तो उन्होंने पाया कि अनेक बेशकीमती सामान गायब हैं और टूटे हुए हैं. रत्तू लिखते हैं, इसके अलावा, “उन्होंने बहुमूल्य दस्तावेजों और अहम कागजातों को हटा दिया था, जिन्हें एक बड़े स्टोर रूम में लगे अनेकों रैकों में बेहद करीने से रखा गया था. इन सामानों को (बंगले में) शेड के सामने खुले गलियारे में शर्मनाक तरीके से जहां-तहां फेंक दिया गया था. इनकी अहमियत का जरा भी ख्याल नहीं किया गया था.”
इन कागजातों में आंबेडकर के भाषणों की पांडुलिपियां और पाठों समेत 1927 से ही सहेज कर रखी गईं कई-कई अखबारों की कतरनें थीं. रत्तू बताते हैं कि इन खास दस्तावेजों में ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों रैमसे मैकडोनाल्ड और विंस्टन चर्चिल के साथ हुए पत्राचार; वंचित वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र की मांग के दौरान गांधी और अन्य हिंदू नेताओं के साथ हुए पत्र व्यवहार; रियासतों के आजाद भारत में विलय के लिए राजाओं, जिन्हें इसके लिए आंबेडकर ने प्रेरित किया था, के साथ हुए पत्राचार और हैदराबाद के निजाम एवं अन्य धार्मिक नेताओं के खत भी शामिल थे, जो उन्होंने आंबेडकर को अपने-अपने धर्मों-इस्लाम, ईसाइयत, सिख या बौद्ध धर्म को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए लिखे गए थे. रत्तू लिखते हैं, “यह सारा कुछ सालों साल से सहेज कर रखा गया था. बेशक उन पर धूल पड़ जाती थीं और कभी-कभार उन्हें धूप भी दिखाई जाती थी. उनका किसी तरह से नुकसान न हो, इसलिए मैं उनके रख-रखाव पर विशेष ध्यान देता था, क्योंकि वे बेशकीमती खजाना थीं जिन्हें राष्ट्रीय अभिलेखागार, विश्वविद्यालयों या अन्य संस्थानों को दिया जा सकता था, जो लेखकों, रिसर्च स्कॉलर्स तथा इतिहासकारों के लिेए ज्ञान के भंडारगृह के रूप में काम आता. लेकिन ओह! ये सब लापरवाही से रखे जाने और उसी रात बरसात होने के कारण नष्ट हो गया और कबाड़ में बदल गया.” रत्तू ने “इस बहुमूल्य भंडार” को सुरक्षित न रखने के लिए सविता आंबेडकर पर “आपराधिक लापरवाही” बरतने का आरोप लगाया.
अलीपुर के उस बंगले को गिरा कर अपार्टमेंट्स के लिए जगह बनाई गई है. “चूंकि यह बंगला साहेब द्वारा पवित्र-पुनीत किया गया था, मेरी दिली ख्वाहिश थी कि इसे बेचा नहीं जाना चाहिए, इसे गिराया भी नहीं जाना चाहिए. इसे एक राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाना चाहिए,” सविता आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है. “मैं इसके लिए संसद के लगभग प्रत्येक सदस्य से जा कर मिलीं. मैं उन नेताओं से भी मिलीं जो अपने को आंबेडकर की विरासत का उत्तराधिकारी मानते थे. लेकिन किसी ने भी इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई और यहां तक कि इसकी तरफ जरा-सी भी तवज्जो भी नहीं दी.”
नरेन्द्र मोदी सरकार ने आखिरकार उस जगह पर आंबेडकर की याद में एक स्मारक बनाया, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2018 में स्वयं उसका उद्घाटन किया. यह स्मारक दो एकड़ में फैला हुआ है और इसके निर्माण में 100 करोड़ रुपए की लागत आई है. आंबेडकर को एक राष्ट्रीय आदर्श के रूप में दर्शाने वाला यह एकमात्र स्मारक है. इसमें जाति विरोधी उनके संघर्षों का कम उल्लेख किया गया है. एक समय वहां खड़े उस बंगले के सिवा उनकी याद को बेहतर तरीके से नहीं संजोया जा सकता था.
सविता आंबेडकर ने वह बंगला अगस्त 1967 में खाली कर दिया था. वह थोड़े दिन के लिए रत्तू के साथ रहीं और बाद में एक फार्म हाउस महरौली में खरीद लिया. यह इलाका तब दिल्ली के शहरी विस्तार से भरा-पूरा नहीं था. उससे इतना अलहदा था कि सविता के परिवार को उनकी सुरक्षा की चिंता सताने लगी. 1970 के दशक के कुछ समय पहले वह अपने भाई के घर रहने दादर चलीं गईं. यहां वह लगातार अपने को जनता की नजरों से दूर रखती थीं.
एक आंबेडकरवादी दामोदर बाविसकर जो उनके पड़ोस के मकान में रहते थे, अक्सर उन्हें ताड़ते रहते थे. वे उन्हें नियमित रूप से अपने नए घर के दरवाजे पर बैठी हुई मिल जातीं. दामोदर ने उन्हें एक तस्वीर से पहचान लिया, लेकिन सविता ने कह दिया कि वह आंबेडकर की पत्नी नहीं हैं. तब उन्होंने आंबेडकर के प्रति अपनी निष्ठा की दुहाई दी. इसके बाद वे एक दूसरे के घर लगातार आने-जाने लगे.
इस घटना का विवरण डॉ बाबासाहेब आंबेडकरांचया सालवलिचा संघर्ष (डॉ आंबेडकर के साए का संघर्ष)- मराठी पुस्तक में आंबेडकर से विवाह के बाद सविता के जीवन-वृतांत में दिया गया है. यह किताब रत्तू की तुलना में सविता के प्रति ज्यादा हमदर्द है. यह उनके खिलाफ लगाए इल्जामातों से बचाव करती है और दस्तावेजों एवं खतों के जरिए आंबेडकर की जिंदगी और उनके नजरिए के प्रति में उनकी देन का प्रतिबिंबित करती है. इसके लेखक विजय सुरवाडे हैं, जो बाविसकर के निवास पर सविता से तब मिले थे, जब वह 19 वर्षीय छात्र थे, जो आंबेडकर की तस्वीरें जुटाने में लगे थे. अपनी किशोरवस्था की लापरवाही में सुरवाडे ने उनसे बेखटके पूछ दिया, “माईसाहेब, हमारे समाज-समुदाय में कहा जाता है कि आपने बाबासाहेब आंबेडकर को जहर देकर मार दिया. इस बारे में आपका क्या कहना है?” थोड़ी देर के लिए वहां सन्नाटा छा गया, फिर सविता हंस पड़ी. सविता ने कहा, “ अरे, जो आप मुझसे पूछ रहे हैं, उसमें नया कुछ नहीं है. मैं सालों से यह सुनती रही हूं.”
अपने अपार्टमेंट में 19 जून 2019 को सुरवाडे की मेज पर कागजातों के ढेर लगे थे. वह सविता आंबेडकर की आत्मकथा डॉक्टर आंबेडकराचया सहवसत- डॉक्टर आंबेडकर के साथ जीवन-के चौथे संस्करण पर काम कर रहे थे, जिसे उन्होंने छद्म नाम से लिखा था. उनकी हरेक आलमारी आंबेडकर की लिखी या उन पर लिखी गई किताबों से अंटी पड़ी थीं. सुरवाडे को आंबेडकर की दुर्लभ तस्वीरों के सबसे बड़े संग्राहक रूप में जाना जाता है, जिनके पास उनकी उनकी भिन्न-भिन्न भूमिकाओं वाली तस्वीरें हैं. उन्होंने अपना पूरा जीवन आंबेडकर के निजी और राजनीतिक जीवन की डाक्यूमेंटिंग में खपा दिया है. अभिलेख की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्रोतों को इकट्ठा करने के लिए वे अपने खर्चे से लंबी-लंबी दूरी की यात्राएं करते रहे हैं. विजय सुरवाडे आंबेडकरवादी जमात-जगत के सर्वाधिक सम्मानित मौलिक बुद्धिजीवियों में से एक हैं. उनकी दीवार पर फ्रेम में मंढा हुआ एक फोटोग्राफ है, जिसमें वह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आंबेडकर की नौ तस्वीरों का एक एल्बम भेंट करते दिखाई दे रहे हैं. “यह वन मैन शो है,” वह कहते हैं. सविता आंबेडकर के 2003 में निधन होने तक उनसे सुरवाडे का घनिष्ठ संबंध बना रहा था. सुरवाडे ने उन पर लगे इस लोकापवाद का खंडन किया कि उन्होंने अपने पति की पांडुलिपियों के प्रकाशन में कोई पहल नहीं की.
उन्होंने उनकी आत्मकथा में मिले एक प्रासंगिक पत्र के जरिए इस पर प्रकाश डाला है. उन्होंने कहा, 1965 में, उन्होंने अप्रकाशित सामग्री के प्रकाशन का प्रयास किया था. महाराष्ट्र के एडमिनिस्ट्रेटिव जनरल को, जो उस समय आंबेडकर के तमाम कागजातों के कस्टोडियन थे, एक पत्र लिखा गया था. सविता ने उनसे आंबेडकर की रचनाओं के जल्द से जल्द प्रकाशन के लिए पीईएस को अनुमति देने का आग्रह किया था. सविता ने पीईएस के तात्कालीन चेयरमैन डीजी जाधव को भी लिखा था, जिन्होंने इस काम में अपना सहयोग देने के लिए उन्हें आश्वस्त किया था. एडमिनिस्ट्रेटिव जनरल ने इस प्रोजेक्ट में अपनी दिलचस्पी जाहिर की थी और सविता से पीईएस के साथ बातचीत के संदर्भ के बारे में पूछा था. इसके बाद, इस संबंध में आगे कोई पत्राचार नहीं हुआ. यह पूछे जाने पर कि क्यों सविता आंबेडकर ने उस समय बाबासाहेब की रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किया, सुरवाडे ने कहा, “वह उस वक्त अपने विरुद्ध बाहर की परिस्थितियों और वातावरण से बुरी तरह डर हुई थीं. लोग उन पर काफी आक्रोशित थे.”
1975 में, बम्बई के फोर्ट इलाके में बैंक ऑफ इंडिया में काम करने वाले जेवी पवार जो इसके तीन साल पहले ही गठित हुए दलित पैंथर्स के सह-संस्थापक थे. “उसी इमारत में, महाराष्ट्र सरकार का एक ऑफिस भी था. उन्होंने कहा, “उसमें बाबा साहेब की अप्रकाशित रचनाएं पुराने जमाने के बक्सों में बंद पड़ी थीं.” पवार लंच के समय में प्राय: उन ट्रंकों को देखा करते थे, जो कोर्ट रिसीवर के दफ्तर में तब से रखे हुए थे, जब उसकी कस्टडी महाराष्ट्र सरकार को दी गई थी. "ऑफिसर्स कैंटीन उसी इमारत की दूसरी मंजिल पर थी.” उन्होंने आगे कहा, "जब मैं वहां से लौटता, मैं उसके दरवाजे तक जाता और उन रचनाओं पर जहां-तहां कॉकरोचों को रेंगते हुए देखता. जिसका मतलब था कि अप्रकाशित रचनाएं काकरोच का निवाला बन रही थीं, मुझे महसूस होता जैसे कि वे कागज नहीं खा रहे हैं बल्कि मेरे हृदय को कुतर रहे हैं.”
दलित पैंथर के सदस्य और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) के वरिष्ठ नेता अविनाश महातेकर कहते हैं, "उस समय बाबासाहेब की किताबों को लेकर लोगों के पास बहुत कम सूचनाएं थीं." अविनाश देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री भी रहे हैं. वे अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "हम सब यही जानते थे कि आंबेडकर एक सफल लेखक थे." मराठी में शिक्षा-दीक्षा होने के कारण महातेकर को अंग्रेजी में लिखी आंबेडकर की किताबों को पढ़ने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी, जो उनकी पिता के पास थीं. उन्होंने कहा, "उन्होंने दलितों के बारे में जो लिखा, वह दलितों के लिए नहीं था. आंबेडकर ने और सभी लोगों को जागरूक करने के लिए अंग्रेजी में लिखा." अंग्रेजी में लिखने के अलावा, आंबेडकर ने तीन मराठी अखबारों-जनता, मूकनायक और बहिष्कृत भारत- का भी संपादन किया था.
आंबेडकरवादी गहरी चिंता से परिस्थितियों को देख रहे थे क्योंकि महाराष्ट्र सरकार आंबेडकर की अप्रकाशित रचनाओं के प्रकाशन के लिए उद्यम करने के बजाए हाथ पर हाथ धरे बैठ गई थी. दलित पैंथर्स ने 14 अगस्त 1973 को राज्य विधानसभा तक एक मार्च निकाला था, जिसके बाद सरकार को एक ज्ञापन दिया था, जिसमें यह मुद्दा भी अन्य मसलों के साथ शामिल किया गया था. पवार ने कहा कि दलित पैंथर्स के एक अन्य सह-संस्थापक राजा ढाले ने, तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक से कहा, "आप गांधी साहित्य को छाप रहे हैं, लेकिन बाबासाहेब के साहित्य को क्यों नहीं प्रकाशित कर रहे हैं?" नागपुर के एक अधिवक्ता जेबी वनसोड ने बम्बई हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें यह मांग की गई थी कि या तो राज्य सरकार खुद आंबेडकर की रचनाओं का प्रकाशन करे या उन्हें इसकी अनुमति दे.
कोर्ट रिसीवर ऑफिस में बड़े-बड़े बक्सों के बाबत पवार ने नाईक के उत्तराधिकारी मुख्यमंत्री शंकर राव चौहान से मुलाकात की. शंकर राव ने कहा सविता और यशवंत आंबेडकर की सहमति के बाद ही डॉक्टर आंबेडकर का साहित्य प्रकाशित किया जा सकता है. सविता उन दिनों अलग-थलग पड़ी हुई थीं और उनसे बातचीत करना कठिन था. पवार ने कहा, “समाज ने एक तरह से उन्हें बहिष्कृत कर दिया था क्योंकि लोग कह रहे थे कि उन्होंने आंबेडकर को मार दिया है.” फिर यशवंत के साथ उत्तराधिकार को लेकर उनका विवाद और उनका यह कहना कि आंबेडकर की मौत में उनकी भूमिका की जांच की जाए, की वजह से दोनों के रिश्ते में खटास आई हुई थी. लेकिन पवार ने इसका हल निकालने की कोशिश की. उन्होंने कहा, “मैं सविता का एक विश्वसनीय सहायक कार्यकर्ता था. हम आंबेडकर जयंती के अवसर पर पूरे महाराष्ट्र में गए थे और कुछ व्याख्यान भी दिए थे. उनसे हमारा अच्छा संबंध था. इसलिए मैंने सोचा, मैं स्वयं उनसे इस बारे में क्यों न बात करूं?”
पवार सविता आंबेडकर से 1975 में बाविसकर के घर पर अनगिनत बार मिले. उन्होंने सहसा ही अपना मंतव्य जाहिर नहीं किया. एक दिन उन्होंने साहस जुटाया. उन्होंने सविता से कहा, “यह जो साहित्य है, वह आपका स्वयं का या भैयासाहेब का नहीं है”, यशवंत भैया नाम से ही लोकप्रिय थे. “यह साहित्य समाज का है. बाबासाहेब ने इसे समाज के लिए लिखा है.” सविता उनकी बात समझ गई, लेकिन उन्होंने संयुक्त वक्तव्य पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया. पवार ने याद किया, “वह कहीं भी एक साथ आने पर रजामंद नहीं थे. लेकिन मेरी मंशा यह थी कि चाहे जो हो जाए, किताबों को प्रकाशित करना है.”
वह इस मुद्दे को “जब कभी वह अच्छे मूड में होतीं” उनके सामने लाते रहे. आखिरकार सविता ने अपनी रजामंदी दे दी और उन्होंने समझौते का एक ज्ञापन तैयार किया. पवार ने कहा, “यह तय नहीं हुआ था कि कौन प्रकाशित करेगा, सरकार को अदालत में अपनी रजामंदी देनी चाहिए कि यह किताब मुफ्त है और कोई भी इसे प्रकाशित करा सकता है.”
पवार सुरवाडे से इस बात पर सहमत हैं कि रत्तू ने आंबेडकर की रचनाओं को प्रकाशित कराने के प्रति सविता की उदासीनता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया था. पवार ने सविता के 1967 में मकान से बेदखली के वक्त कागजातों-दस्तावेजों के हुए नुकसान के चित्रण के स्तर को लेकर भी अपनी आपत्ति जताई थी. उन्होंने कहा, “माईसाहेब ने जो कुछ भी लिखा है, उसमें कुछ कागजातों को फेंक दिया गया या वे गायब हो गए.”
अब पवार को उस ज्ञापन पर हस्ताक्षर कराने के लिए यशवंत आंबेडकर से मिलना था. उस समय 1977 का आम चुनाव होने वाला था. यशवंत पर सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के समर्थन के लिेए रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के अन्य नेताओं की तरफ से दबाव डाला जा रहा था. आरपीआई को आंबेडकर ने दलितों की एक राष्ट्रीय ताकत के रूप में परिकल्पना की थी, लेकिन उनका सपना अंदरूनी गुटबाजियों से लगातार होने वाले विभाजन की वजह से कभी साकार नहीं हुआ. यशवंत ने कांग्रेस का समर्थन देने से इनकार कर दिया और मुंबई उत्तरी पूर्वीक्षेत्र से निर्दलीय के रूप में चुनाव में खड़े हो गए. उनका एकमात्र चुनावी मुद्दा था, सताई गई जातियों से बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए लोगों को आरक्षण दिया जाए. जो सरकारी सकारात्मक कामों-उपायों के लिए अपात्र समझे जाते हैं.
पवार ने कहा, “40 साल से भी लंबे समय से साथ ही रहे लोगों ने उन्हें (यशवंत) छोड़ दिया” उनमें से कई लोग तो कांग्रेस में शामिल हो गए. “जब मुझे यह खबर मिली कि बाबासाहेब आंबेडकर के बेटे अकेले पड़ गए हैं, तो मैं उनका लेफ्टिनेंट हो गया.” महाराष्ट्र में बढ़ते जातिगत अत्याचार के विरोध में दलित पैंथर्स का गठन किया गया था. पवार ने दलितों के विरुद्ध हिंसा को न रोकने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया था, क्योंकि तब राज्य से लेकर केंद्र तक उसकी सरकारें थीं. सरकार ने दलित पैंथर्स के गठन की प्रतिक्रिया में दमन शुरू कर दिया और पैंथर्स के कई प्रमुख नेताओं के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया. पवार ने कहा “राजा ढाले और मैं कांग्रेस विरोधी था. इसलिए हमने चुनाव में भैयासाहेब का समर्थन किया था.” पर यशवंत चुनाव हार गए.
पवार यशवंत आंबेडकर के साथ रोजाना बैठकें करने लगे. यह सिलसिला सितंबर 1977 में यशवंत के निधन तक जारी रहा था. ऐसी ही मुलाकातों में एक दिन वह मेमोरेंडम लेकर गए थे. पवार ने याद कर बताया कि उन्होंने यशवंत से कहा, “माईसाहेब ने इस पर अपना हस्ताक्षर कर दिया है. अब इस पर दस्तखत करने के अलावा और कोई चारा नहीं है.” 17 जनवरी 1977 को पवार दोनों के संयुक्त हस्ताक्षर वाला यह मेमोरेंडम लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौहान से मिले थे. मुख्यमंत्री ने उन्हें बताया कि सरकार ने आंबेडकर की रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित किया है, क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए निजी रूप से प्रकाशित करने से उस पर वित्तीय भार पड़ेगा.
महाराष्ट्र सरकार ने शिक्षा विभाग के मातहत डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर सोर्स मैटेरियल पब्लिकेशन कमेटी का गठन किया है. वसंत मून, जो राजस्व विभाग के अतिक्रमण डिवीजन में डिप्टी कलेक्टर पद पर तैनात थे, उन्हें इस कमेटी का ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी नियुक्त किया गया, जो इस कमेटी के पहले सदस्य-सचिव होंगे. पवार ने इसे एक “राजनीतिक कमेटी” करार दिया, क्योंकि इसके 24 सदस्यों में आरपीआई के नेता प्रकाश आंबेडकर, बीसी कांबले और आरएस गवई भी शामिल थे. इसने अपनी पहली यात्रा में प्रख्यात साहित्यिक व्यक्तित्व जैसे दया पवार और एसएस रेगे को भी शामिल किया था. इनमें रेगे सिद्धार्थ कॉलेज के लाइब्रेरियन थे, जिन्होंने आंबेडकर की पहली प्रकाशित किताब द बुद्धा एंड हिज धम्मा की देखभाल की थी. पवार को इसमें जगह नहीं मिली. न ही रत्तू को ही शामिल किया गया. “इस कमेटी की सदस्यता महाराष्ट्र के राजनीतिकों और बुद्धिजीवियों तक सीमित रखी गई थी”, भगवान दास, जो अनुसूचित जाति परिषद के सदस्य थे और जिन्होंने आंबेडकर के शोध-सहायक के रूप में काम किया था, ने अपनी किताब इन परस्यूट ऑफ आंबेडकर में यह बात लिखी है. दास को भी इसमें शामिल नहीं किया गया लेकिन उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयास से आंबेडकर के लेखन और भाषणों को लोगों के बीच फैलाने में लगे रहे. 1963 से 1980 के बीच उन्होंने दस स्पोक आंबेडकर (इस तरह बोले आंबेडकर) शीर्षक से धारावाहिक चार खंडों में प्रकाशन किया. हालांकि इसके पांचवां खंड निकालने की योजना कभी पूरी नहीं हुई.
मून ने 1978 में सदस्य-सचिव का कार्यभार संभाला. उन पर लिखे अपने एक आलेख में प्रख्यात लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता आनंद तेलतुंबडे ने मून को “एक विनम्र आंबेडकरवादी प्रकांड पंडित” बताया है. प्रकाशन कमेटी में अपने काम के अलावा, मून ने अपने मौलिक लेखन में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी और आंबेडकरवादी अभियान के एक प्रबुद्ध टिप्पणीकार के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित किया. मून सरकारी सेवा में जहां भी नियुक्त रहे, वहां-वहां से आंबेडकरवादी अभियानों की प्रासंगिक सामग्री को इकट्ठा कर विदर्भ में एक व्यवस्थित आर्काइव का निर्माण किया है.
प्रख्यात अर्थशास्त्री और आंबेडकरवादी विद्वान सुखदेव थोराट लिखते हैं कि मून दलित सरकारी कामगारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक पीढ़ी का हिस्सा थे, जिन्होंने आंबेडकर के निधन के बाद के पहले दो दशकों में देश में सर्वाधिक आंबेडकरवादी विद्वानों को पैदा किया. थोराट लिखते हैं, इस पीढ़ी ने “1980 और 1990 के दशकों में भारतीय विश्वविद्यालयों में पेशेवर दलित अकादमिक अध्येताओं के उद्भव के पहले आम पाठकों को आंबेडकर और उनके सामाजिक आंदोलनों से परिचित कराने का बड़ा ही नेक काम किया था.”
तेलतुंबडे लिखते हैं कि कमेटी में मून की “प्रति-नियुक्ति एक आधिकारिक जवाबदेही” थी लेकिन “उनमें अंतर्निहित एक प्रखर आंबेडकरवादी ने उनके काम को एक मिशन के रूप में रूपांतरित कर दिया. यह कहना अतिरंजित नहीं होगा कि वह अपनी मृत्यु तक इस काम में लगे रहे थे. उन्होंने इसके लिए लगभग अपना पूरा जीवन ही न्योछावर कर दिया था.” चौथे बीएडब्ल्यूएस खंड में परिचय के हिस्से के रूप प्रकाशित आधिकारिक इतिहास के अनुसार,“मून ने डॉक्टर आंबेडकर के कानूनी उत्तराधिकारियों और एडमिनिस्ट्रेटिव जनरल से निजी तौर पर संपर्क किया था. अधिवक्ता श्री बनसोड से भी इस कार्य में सहायता देने का अनुरोध किया था.”
फरवरी 1980 में सविता आंबेडकर ने एडमिनिस्ट्रेटर जनरल को लिखित में सूचित किया कि उनका परिवार कमेटी को तमाम कागजात उपलब्ध कराने देने पर सहमत है. एडमिनिस्ट्रेटर जनरल ने इस सूचना को 1 वर्ष बाद कमेटी के सदस्यों के साथ मीटिंग में साझा किया था. कमेटी की इस कार्यवाही के विवरण के साथ ‘कोई आपत्ति नहीं’ कागज भी हस्ताक्षर के लिए सविता आंबेडकर को भेजा गया था.
कमेटी के तमाम कागजातों को अपने दखल में लिए जाने के पहले सविता आंबेडकर ने मुंबई के सॉलीसीटर को एक पत्र लिखा था. इसमें उन्होंने निर्देशित किया था कि वे एडमिनिस्टर जनरल से पांडुलिपियों की पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कहें. वे कागजातों के इधर-उधर रखे जाने को लेकर काफी चिंतित थीं, उन्होंने कहा कि “कुछ किताबों की पूरी पांडुलिपियों की प्रस्तावना और परिचय किसी भी स्थिति में न बदले जाएं, जैसा पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी द्वारा उनकी किताब ‘द बुद्धा एंड हिज धम्मा’ के प्रकाशन के मामले में किया गया था.” उन्होंने सॉलीसीटर से यह भी कहा कि वह कमेटी में रत्तू के नाम की सिफारिश करें.
आखिरकार उन बक्सों को, सितंबर 1981 में शिक्षा विभाग में ले आया गया. उन कागजातों से गुजरने का काम, न केवल बौद्धिक स्तर पर गहन रूप से श्रमसाध्य था बल्कि उनकी खस्ता हालत को देखते हुए शारीरिक रूप से भी दुष्कर था, आखिर वे सारे कागजात 30 साल से अधिक समय तक ट्रंकों में बंद रहे थे. वे कीटनाशकों के साथ धूमिल पड़ गए थे, जिनके नतीजतन कागजातों से सर्वाधिक विषैली गंध निकल रही थी. इसके चलते श्री मून और उनके स्टाफ की त्वचा एवं आंखों में संक्रमण हो गया. उन्हें उपचार कराना पड़ा था.
तेलतुंबडे लिखते हैं, “सबसे बुरी हालत पांडुलिपियों की थी और उन्हें सावधानी से खोलने की जरूरत थी. उन्हें अधिप्रमाणित करने, जोड़ने और प्रासंगिक बनाए जाने की आवश्यकता थी. यह काम न केवल जीवनी संबंधी गहरे ज्ञान की अपेक्षा करता है बल्कि बाबासाहेब आंबेडकर के बहुआयामी साहित्य से प्रासंगिक परिचय होने की भी मांग करता है. इस काम को आंबेडकर विचार-दर्शन को लेकर केवल एक प्रतिबद्ध छात्र ही कर सकता है.” पहला खंड उनके 12 निबंधों का संग्रह है, जिसमें “कास्ट्स इन इंडिया : देअर मैकेनिज्म, जिनेसिज एंड डवलपमेंट” (भारत में जातियां: तंत्र, उत्पत्ति और विकास) और आंबेडकर का वह प्रसिद्ध अपठित भाषण “अनिहिलेशन ऑफ कॉस्ट” (जाति का विनाश) है, जिसे अगले साल प्रकाशित किया गया था.
सरकार चाहती थी कि दि बुद्धा एंड हिज धम्मा पहले प्रकाशित की जाए लेकिन मून ने जोर दिया कि बीएडब्ल्यूएस का पहला खंड जाति को लेकर होना चाहिए. जैसे ही पहला खंड प्रकाशित हुआ, मून को अस्थाई रूप से कमेटी से हटा दिया गया. सरकार को यह लगने लगा कि वह प्रकाशन की जवाबदेही को एक नौकरशाह की तरह निभाने के बजाए आंबेडकरवादी की तरह कर रहे हैं. मून ने भगवान दास, ज्योतबा गडबोले, आंबेडकरवादियों-कार्यकर्ताओं से संपर्क साधा, जिन्होंने उनको दोबारा कमेटी में स्थापित करने के लिए सरकारी क्षेत्र में कामयाब लॉबिंग की. बाद में उनको इस पद से अस्थिर करने के लिए सरकार अपनी कार्रवाई करती रही, एक समय तो उन्हें सरकारी गाड़ी देने तक से मना कर दिया गया.
“इसका सारा श्रेय केवल उनको जाता है,” मून के बारे में यह कहना है, कमेटी के पूर्व सदस्य-सचिव सुधाकर बोकेफोडे का. “उनके बाद तो हम केवल नकल करते रहे हैं.”बीएडब्ल्यूएस के विभिन्न खंडों के परिचय पांडुलिपियों के संकलन और संपादन में मून की भूमिका के प्रति उदार श्रद्धांजलि है. आंबेडकरवादी इस परियोजना की प्रारंभिक सफलता का श्रेय उन्हें लगातार देते रहे हैं.
यद्यपि सविता आंबेडकर मून के कामकाज से प्रसन्न नहीं थीं. उन्होंने मून को हटाए जाने के लिए 1994 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार को एक पत्र भी लिखा था. उन्हों ने लिखा ,“मैं देखती हूं कि श्री बसंत मून बिना पर्याप्त दिलचस्पी लिए काम को लटका रहे हैं, सिवाए अपनी प्रति-नियुक्ति की अवधि बढ़ाने के. इसीलिए मैं गंभीरता से सोचती हूं कि उनके एक्सटेंशन पर आगे विचार न किया जाए क्योंकि इससे सरकार को कोई सार्थक परिणाम नहीं मिलेगा, जिसके लिए उन्हें (मून को) रिटायर होने के बाद भी वहां बैठाया गया है.” सविता ने पवार को चार नाम सुझाए जो मून की जगह ले सकते हैं : भालचंद्र फड़के, गंगाधर पंतवाने, राजा ढाले और सुरवाडे. मुख्यमंत्री पवार ने जवाब दिया कि वे उनके अनुरोध पर विचार करेंगे, लेकिन मूल उस पद पर अपनी मृत्युपर्यंत बने रहे. 2002 में उनका निधन हो गया. उनके सदस्य-सचिव के कार्यकाल में 22 में से 16 प्रकाशित खंडों को जारी किया गया.
सविता के पत्र लिखे जाने के एक साल बाद, तेलतुंबडे कमेटी ऑफिस में, लंदन रहने वाले आंबेडकरवादी सी. गौतम के साथ मून से मिले थे. उन्हें रेलवे स्टेशन तक छोड़ने आने के दौरान मून ने परियोजना की प्रगति के बारे में बताया. 1995 में शरद पवार को अपदस्थ कर आई शिवसेना और बीजेपी की गठबंधन सरकार ने “कामकाज को लगभग ठप कर दिया था,”तेलतुंबडे लिखते हैं. “लेकिन वह लगन से काम करते हैं और अगले प्रकाशन पर काम शुरू करने के बारे में अधिकारियों को बताते रहते हैं.”
बीएडब्ल्यूएस प्रक्रिया में विलंब होने पर रावसाहेब कसबे कहते हैं,“सरकार हमेशा ऐसे ही काम करती है. उसके आसपास कई दबाव समूह काम करते हैं. प्रत्येक दबाव समूह अपनी भूमिका चाहता है. इसके बावजूद वसंत मून द्वारा किया गया काम सर्वोत्कृष्ट है.”
बीएडब्ल्यूएस का चौथा खंड 1987 में प्रकाशित हुआ था. इसमें रिडल्स इन हिंदुइज्म किताब भी शामिल है. यह उन चार किताबों में से एक है, जिसे आंबेडकर अपनी मृत्यु से पहले प्रकाशित कराना चाहते थे. उन्होंने 1954 में लिखना शुरू किया था. उसके अगले साल के नवंबर तक रत्तू ने “एक मजबूत कागज पर टाइप कर चार प्रेस कॉपी तैयार” कर दी थीं. हालांकि वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इतनी प्रतियों की क्या आवश्यकता है. आंबेकर ने उनसे कहा, “देखो इस किताब शीर्षक क्या है-रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म-जो अपने आप में इसका एक उत्तर है. मेरे पास अपना प्रिंटिंग प्रेस नहीं है और स्वाभाविक है कि इसको छापने के लिए कुछ हिंदू प्रेस को ही दिया जाना है. इसे गायब किया जा सकता है, जलाया जा सकता है, नष्ट किया जा सकता है और इस तरह बरसों का मेरा कठोर परिश्रम बर्बाद हो जाएगा. कोई बात नहीं, चाहे जितना पैसा लगता है. मुझे अतिरिक्त कॉपियां अपने पास अवश्य रखनी चाहिए.”
“रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म’ की पांडुलिपियां अलग-अलग अध्यायों में फाइल के बंडल में एक साथ रखी मिली हैं,” इसे संपादकों ने खंड के परिचय में लिखा है. “इन अध्यायों में सुधार, काट-छांट, बदलाव इत्यादि स्वयं आंबेडकर द्वारा किया गया है. सौभाग्यवश, इस किताब के लिए आंबेडकर द्वारा लिखा परिचय भी उपलब्ध है. हालांकि हमें अफसोस है कि इस खंड की अंतिम रूप से तैयार पांडुलिपि हमें नहीं मिली है.”
कई अध्याय अधूरे थे. दूसरे रिडल के पहले पेज पर, “ओरिजिन ऑफ द वेदाज-दी ब्राह्मणी एक्सप्लैनेशन या एक्सरसाइज इन द आर्ट ऑफ सरकमलोक्यूशन,” एक फुटनोट में राज्य के बारे में शिकायत की गई है, जिसमें कमेटी को कागजात मिले हैं : “हमें ओरिजिन ऑफ वेदाज के 72 पेज मिले हैं. ये पृष्ठ न तो व्यवस्थित हैं और न ही उनके पृष्ठों पर नंबर दिया गया है. या तो खुद लेखक द्वारा नहीं दिया गया है या फिर टाइपिस्ट ने नहीं दिया है.” रत्तू लिखते हैं कि पांडुलिपि की टंकित चारों प्रतियां गायब हो गई थीं. कमेटी को इसके लिए धन्यवाद कि उसने “विभिन्न स्रोतों में बिखरी सामग्री” को एक साथ संकलित करने का काम किया है.
रत्तू लिखते हैं कि रिडल्स का प्रकाशन रोक दिया गया था क्योंकि आंबेडकर इसमें दो फोटोग्राफ्स जोड़ना चाहते थे. इनमें पहला, भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का था, “जब वे बनारस गए थे तो उन्होंने ब्राह्मणों की पूजा की थी, उनके पैर धोए थे और उस पानी को पी लिया था.” दूसरा, नेहरू के 15 अगस्त 1947 का, जब “वे मुक्त और स्वतंत्र भारत के पहले ब्राह्मण प्रधानमंत्री बनाए जाने के उपलक्ष्य में बनारस के पंडितों द्वारा कराए गए यज्ञ की वेदी पर बैठे थे, उन ब्राह्मणों के दिए राजदंड को धारण किया था और उनके लाए गंगाजल का पान किया था.” आंबेडकर ब्राह्मणवादी कर्मकांडों में कांग्रेस के दो बड़े नेताओं की खुशी-खुशी भागीदारी को अपनी इस किताब में दिखाना चाहते थे कि जो कांग्रेस खुद के धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती है, लेकिन जाहिर तौर पर वह कभी जाति विरोधी नहीं रही. रत्तू के अनुसार राजेंद्र प्रसाद की तस्वीर तो किसी स्रोत से उपलब्ध हो गई लेकिन नेहरू की तस्वीर कभी नहीं मिली. इस किताब के महाराष्ट्र सरकार के संस्करण में न तो इसकी तस्वीर ली गई और न उन घटनाओं का उल्लेख ही किया गया.
1987 में औरंगाबाद की मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी को आंबेडकर के नाम पर किए जाने की मांग को लेकर महाराष्ट्र खदबदाया हुआ था. मराठा समुदाय ने इसकी प्रतिक्रिया में दलितों के प्रति हिंसा की. शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने नारा दिया “घरात नहीं पीठ, कशाला हवे विद्यपीठ?” उनके घर में भोजन नहीं है, फिर वे यूनिवर्सिटी क्यों चाहते हैं?
चौथा खंड के जारी होने के तुरंत बाद मराठी समाचार पत्र लोकसत्ता ने अपने संपादक माधव गडकरी का एक कॉलम प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने हिंदू देवताओं राम और कृष्ण की छवि को धूमिल करने के लिए रिडल्स के परिशिष्ट की तीखी आलोचना की. हालांकि पुस्तक के संपादकों ने एक पाद-टिप्पणी में स्पष्ट किया है कि विचाराधीन पाठ “द रिडल्स ऑफ राम एंड कृष्णा” एक अन्य रचना सिंबल ऑफ हिंदुइज्म की पांडुलिपि वाली फाइल में रखी मिली और रिडल्स के “मौलिक विषय अनुक्रम में उसको स्थान नहीं दिया गया है.” हालांकि पाठ के शीर्षक और उसकी विषय वस्तु के आधार पर “यह इस खंड में परिशिष्ट के रूप में शामिल किया गया है.”
इतिहास की अपनी किताब आंबेडकराइट मूवमेंट ऑफ्टर आंबेडकर में, पवार लिखते हैं कि गडकरी के लेख ने एक “वैचारिक तूफान खड़ा कर दिया था. मराठा महासंघ और शिवसेना गलियों में उतरी पड़ी और उस परिशिष्ट को संग्रह से हटाए जाने की मांग करने लगी. ठाकरे ने रिडल्स के विरुद्ध शुद्ध हिंदू रक्त वालों को संघटित होने का आह्वान कर दिया. “इस अपील का आम हिंदुओं में व्यापक प्रभाव पड़ा और आंदोलन बड़ा होता गया. पवार लिखते हैं, “ इसने आंबेडकरवादियों के सामने चुनौती पेश कर दी.”
दलित संगठनों ने अपना विरोध प्रदर्शन किया और आंबेडकर के लिखे को ज्यों का त्यों रहने देने की मांग की. यशवंत के बेटे प्रकाश आंबेडकर ने 2 लाख लोगों के मार्च का नेतृत्व किया. शंकर राव चौहान सरकार ने प्रकाश को आश्वस्त किया कि इस बारे में कोई भी निर्णय 15 जनवरी 1988 तक ले लिया जाएगा. इसी दिन हिंदू संगठनों ने 5 लाख लोगों का जुलूस निकाला और आंबेडकर की उस पुस्तक की हजारों कृतियों को जला डाला. चौहान से एक शिष्टमंडल के मिलने के बाद, शिक्षा मंत्री राम मेघे ने उस परिशिष्ट को हटा दिए जाने की घोषणा की.
आंबेडकरवादी संगठनों ने एक दूसरा विरोध मार्च निकाला और चौहान एवं मेघे के इस्तीफे की मांग की. “समझौते के मुताबिक, हम उनके उत्तराधिकारियों ने, महाराष्ट्र सरकार के साथ दस्तखत किया कि केवल पुस्तक के प्रकाशन का अधिकार उन्हें दिया है” प्रकाश आंबेडकर ने यह बात प्रदर्शन के दौरान सविता की मौजूदगी में कही. उस समय, आंबेडकरवादी नेता राजा ढाले, रामविलास पासवान, रामदास अठावले और नामदेव ढसाल भी मौजूद थे. “हमने कहीं भी इस समझौते में पुस्तक से किसी भी अंश को निकालने का अधिकार नहीं दिया है.” सविता आंबेडकर ने रिडल्स की विषय वस्तु का बचाव किया और रेखांकित किया कि मेरे पति ने उसी पर आधारित अपनी बात कही है जो हिंदू धर्मग्रंथों में पहले से ही कहा जा चुकी है. उन्होंने कहा, “डॉक्टर आंबेडकर की अनुपस्थिति में, स्वतंत्र होकर लिखने के उनके अधिकार से कोई भी उन्हें वंचित नहीं कर सकता.”
इसके एक सप्ताह बाद चौहान ने अपने सरकारी आवास पर दोनों पक्षों के नेताओं की एक बैठक बुलाई. शिवसेना और मराठा महासंघ से परिशिष्ट को लेकर किए जा रहे विरोध को वापस लेने की अपील की और एक समझौता किया गया. “द रिडल ऑफ राम एंड कृष्ण” के अगले संस्करणों में एक फुटनोट प्रकाशित किया जाएगा: “पुस्तक के अध्याय में व्यक्त किए गए विचारों से सरकार की सहमति नहीं है.” इस विवाद पर अपने विवरण में विजय सुरवाडे ने इस समझौते को अनावश्यक बताया. वह लिखते हैं, “यह नोट लिखा रहे अथवा न लिखा रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. किसी भी किताब में या उसके परिशिष्ट में जो भी विचार व्यक्त किया जाता है, वह केवल लेखक का होता है. प्रकाशक का नहीं. महाराष्ट्र सरकार का शिक्षा विभाग केवल प्रकाशक है.”
सूचना के अधिकार के तहत मेरे द्वारा मांगी गई एक सूचना के जवाब में कमेटी ने बताया कि बीएडब्ल्यूएस के चार खंडों में से एक ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ आउट ऑफ प्रिंट हो गया है. कमेटी के मुंबई के बलार्ड एस्टेट स्थित कार्यालय में आगंतुकों के देखने के लिए भी इसकी प्रति नहीं बची है. चरनी रोड के समीप सरकारी प्रेस, जहां, बीएडब्ल्यूएस के सभी खंड प्रकाशित किए जा रहे हैं, वहां के कर्मचारी ने बताया कि जून 2019 में यह खंड “लगभग डेढ़ से दो साल तक” आउट ऑफ प्रिंट रहा था. इसके तुरंत बाद, बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे बीजेपी की देवेंद्र फडणवीस को अपदस्थ कर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने. यह खंड इस साल फरवरी महीने तक चरनी रोड के प्रेस में उपलब्ध नहीं था.
“किसी ने भी इस किताब को नहीं पढ़ा है,” एक दलित लेखक शरणकुमार लिंबाले कहते हैं, जिन्हें फडणवीस सरकार द्वारा प्रकाशन कमेटी में नियुक्त किया गया था, उन्होंनेरिडल्स कंट्रोवर्सी के बारे में कहा. “लोकसत्ता में कॉलम पढ़ने के बाद, प्रत्येक व्यक्ति ने इसके विरोध बोलना शुरू कर दिया.” वे पूछते हैं. “क्या कोई भी प्रभु राम के बारे में ऐसा कुछ लिख सकता है?’ कृष्ण की आलोचना करने पर तो हिंदू इतने नहीं भड़कते हैं.”
मैं लिंबाले से जुलाई 2019 में पुणे में उनके घर पर मिली थी. उन्होंने कहा कि कमेटी में शामिल किए जाने की खबर आज से छह महीने पहले अखबारों के जरिए मिली. तब सुधाकर बोकेफोडे कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे. लिंबाले को यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई कि उनकी नियुक्ति राजनीतिक दृष्टिकोण से की गई थी. कांग्रेस के पृथ्वीराज चव्हाण जब मुख्यमंत्री (2010 से 2014 तक ) नियुक्त किए गए थे तो उन्होंने विद्वान लोगों और अध्येताओं को कमेटी में शामिल किया था. फडणवीस की कमान वाली बीजेपी सरकार ने, “कमेटी में उन्हें शामिल किया जो उनके करीब थे. उन्हें मेरा नाम अवश्य किसी ने सुझाया होगा क्योंकि मैंने उनके साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलता हूं.”
हमारी बातचीत के दौरान लिंबाले की सहानुभूति बीजेपी और आरएसएस के प्रति साफ दिखाई पड़ रही थी. उन्होंने प्रदेश की तात्कालीन सत्ताधारी पार्टी और उसके पैतृक संगठन की आलोचना को जायज नहीं बताया. उन्होंने कहा, “मैं कहूंगा कि बीजेपी सरकार आंबेडकर को लेकर कांग्रेस की कहीं ज्यादा अच्छी है. आंबेडकर हिंदू विरोधी थे, लेकिन बीजेपी और आरएसएस उनके प्रति सकारात्मक है.” कांग्रेस ने दबंग जाति के अभिजात्यों के साथ मिलकर काम किया था, लेकिन बीजेपी ने अन्य जातियों के लोगों का भी स्वागत किया है. आंबेडकर आज के राजनीतिक विमर्शों में पहले से कहीं ज्यादा मौजूद दिखते हैं. लिंबाले ने कहा, “ मैं आजादी के बाद पैदा हुआ था. मैं 15 अगस्त-स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्रियों द्वार दिए जाने वाले भाषणों को नियमित रूप से सुनता रहा हूं. उनमें से किसी ने आंबेडकर पर नरेन्द्र मोदी से अच्छा नहीं बोला.”
आंबेडकर को स्वीकार करना बीजेपी की “एक राजनीतिक और सामाजिक आवश्यकता” है, लिंबाले ने कहा. नरेंद्र मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से ही पार्टी ने कई प्रतीकात्मक भाव-भंगिमाओं के जरिए आंबेडकर की विरासत पर अपनी दावेदारी जताई है. उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले, मोदी ने एक ऑनलाइन पेमेंट एप्प भारत इंटरफेस फॉर मनी का उद्घाटन किया था, जो भीम (BHIM) के नाम से रूढ़ हो गया है. यह विधेयक अर्थशास्त्र के विद्वान रूप में आंबेडकर के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है. 2018 में, उत्तर प्रदेश में बनी नई बीजेपी सरकार ने अपने सभी सरकारी दस्तावेजों में आंबेडकर को “ड़ॉ भीमराव रामजी आंबेडकर” के रूप में संबोधित किए जाने के फैसले की घोषणा की.
दलित बुद्धिजीवियों ने आंबेडकर के मध्य के नाम पर असामान्य रूप से जोर दिए जाने को एक ऐसे व्यक्ति को हिंदू पहचान देने की कोशिश के रूप में देखा है,जिसने इस धर्म एवं इससे जुड़ी पहचान को एक झटके में खारिज कर दिया थ. उन्होंने यह भी मुद्दा उठाया कि मोदी की नजर के सामने दलितों के विरुद्ध लगातार हिंसा की जाती रही है और उनसे भेदभाव किया जाता रहा है: हैदराबाद में युवा शोधार्थी रोहित वेमुला के खिलाफ मामला दर्ज किया गया जिसके चलते उन्होंने खुदकुशी कर ली; मरी हुई गाय की खाल निकालने की एवज में उना में दलित परिवार की पिटाई, जबकि यह उसके पुश्तैनी-पेशे का हिस्सा था; अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम को नरम करने का सरकार का प्रयास आदि घटनाओं को इसी प्रसंग में रखा जा सकता है. इसके अलावा, मोदी सरकार के बृहद निजीकरण की तरफ बढ़ते कदम, स्वास्थ्य और शिक्षा का वस्तुकरण और जातिगत आधारों पर दिए जाने वाले आरक्षण की पात्रता के लिए आर्थिक मानंदडों का समावेश सामाजिक न्याय का कमतर करने का ही एक हिस्सा है.
अलबत्ता, लिंबाले यह मानते हैं कि “लिंचिंग अभियान” में संलिप्त लोगों को मौजूदा सत्ता से “नैतिक ताकत” हासिल होती है, लेकिन इसके लिए आरएसएस के नेताओं को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराए जाने की बात को उन्होंने खारिज कर दिया. उन्होंने इस आशंका को भी खारिज कर दिया कि बीजेपी सरकार आंबेडकरवादी साहित्य के प्रति धूर्तता कर रही है. उन्होंने कहा, “यह सोचना कि केवल दलित और आदिवासी ही आंबेडकर को प्रकाशित कर सकते हैं; कि केवल वही एक अच्छे आंबेडकरवादी हो सकते हैं;कि अच्छा आंबेडकरवादी केवल हम ही दे सकते हैं; तो यह सब एक रूढ़िवादी और संकीर्ण दृष्टिकोण है.” उन्होंने आगे कहा, “आंबेडकर पर हर एक आदमी का अधिकार है. जितना रूढ़िवादियों का अधिकार है, उतना ही प्रगतिशीलों का भी हक उन पर है. ”लिंबाले ने जोर दिया कि आंबेडकर के कार्यों से आरएसएस का जुड़ाव उसकी मानसिकता को बदलने में मदद करेगा. आंबेडकरवादी विचार को एक “बौद्धिक संपदा” मानते हुए उन्होंने आगे कहा, “केवल हमें ही आंबेडकर की तस्वीरों को अपने घरों में नहीं लगाना चाहिए. आंबेडकर केवल हमारी ही संपत्ति नहीं हैं. हमें उनके विचारों को न केवल अपने देश में फैलाना चाहिए बल्कि दुनिया में भी उस उसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए.”
उस समय मैंने जितने भी दलित नेताओं से बातचीत की, वे बोकेफोडे कमेटी के गठन से अनजान थे. जीवी पवार ने कहा, “इनमें से कोई भी आंबेडकरवादी समुदाय में न जाना-पहचाना था और न ही विश्वसनीय था.” तब एक मराठी समाचार की वेबसाइट ने रिपोर्ट की थी कि देवेंद्र फडणवीस सरकार द्वारा नियुक्त किए गए सदस्यों में लिंबाले, राजन गवास और पीजी जोगदंड के अलावा कोई भी आंबेडकर समुदाय में जाना-पहचाना नाम नहीं था.
दिसंबर 2018 में, मून के बाद सदस्य-सचिव बनाए गए हरि नारके ने कमेटी पर आरएसएस के कब्जे के लिए फडणवीस सरकार पर आरोप लगाया. उन्होंने एक ट्वीट में खुलासा किया कि बोकेफोडे कमेटी के 10 सदस्यों, जिनमें लिंबाले भी शामिल हैं, वे आरएसएस के कार्यकर्ता हैं. उन्होंने यह भी बताया कि कमेटी से अनेक प्रसिद्ध है आंबेडकरवादियों को हटा दिया गया है. ई-मेल में भेजे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर में नारके ने बताया कि “कमेटी में 90 फ़ीसदी सदस्य आरएसएस के सक्रिय सदस्य हैं.”
रावसाहेब कसबे ने कहा, “लोग जो जानकार हैं, जो पढ़े-लिखे हैं और जो समय देने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन लोगों को इस कमेटी में शामिल किया जाना चाहिए. आरएसएस से जुड़ा कोई व्यक्ति या मंत्री का सिफारशी वहां क्या काम करेगा?” नियुक्तियों के बारे में की जा रही आलोचनाओं के उत्तर में, तब के शिक्षा मंत्री विनोद तावड़े ने कहा था कि आरएसएस भी “आंबेडकर का प्रशंसक है, जो उनके प्रति श्रद्धा, आदर और प्रेम का भाव रखता है. कोई भी इसकी जांच कर सकता है, उसका स्वागत है.” उन्होंने कहा कि इस मामले में कोई राजनीतिक आग्रह नहीं जुड़ा है और केवल “सक्षम व्यक्ति” को ही इसमें शामिल किया गया है.
नारके सदस्य-सचिव के अपने कार्यकाल में कमेटी के कामकाज को लेकर काफी आलोचक थे, जिसका समापन 2006 में उनके इस्तीफे के साथ हुआ. “इस काम (पुस्तक प्रकाशन) के लिए बेहद आवश्यक प्रूफ रीडर्स, शोध-सहायक और संपादकीय सहायक कभी उपलब्ध नहीं कराए गए,” उन्होंने अपने ई-मेल में कहा. “मुझे वर्षों कर स्थगित वार्षिकी नहीं मिली. मेरे दफ्तर के चपरासी को भी हर महीने 10 से 12 हजार रुपए की पगार मिलती थी, लेकिन मुझे प्रति माह दो हजार रुपए मिलते थे.” उनके कार्यकाल में ही बीएडब्ल्यूएस के अनेक खंड मुद्रण से बाहर हो गए.
जिस तरह बीएडब्ल्यूएस के खंडों के साथ व्यवहार किया गया है, उससे लिंबाले भी प्रसन्न नहीं हैं. लेकिन इसके लिए उन्होंने प्रकाशन कमेटी की बजाए शिक्षा विभाग की आलोचना की. उन्होंने कहा,“एक बार जब सरकार ने खंडों को प्रकाशित करने का फैसला कर लिया, क्रियान्वयन एजेंसी उस कदर प्रगतिशील नहीं थी, चाहे वह शिक्षा विभाग हो, उसका बजट हो, सरकारी प्रेस चलाने वाले हों, प्रूफ रीडर्स, बाइंडर, प्रिंटर्स-वे सब उतनी परवाह नहीं करते थे. वे आंबेडकर की रचनाओं को ऐसे प्रकाशित करते थे, जैसे वे किसी की शादी के कार्ड छाप रहे हों. वे केवल अपनी पगार के लिए काम कर रहे हैं.”
लिंबाले ने पुस्तकों के खंडों के पर्याप्त प्रचार में कमी पर पर दुख जताया, जिसने आंबेडकर के कार्यों के प्रसार-फैलाव को रोक दिया है. उन्होंने कहा, “विज्ञापन का कोई अभियान नहीं है, कोई प्रतिबद्धता नहीं है, बाजार के लिए कोई कार्यनीति नहीं है. कोई भी नहीं जानता कि पुस्तकें छप रही हैं या नहीं छप रही हैं, वे बिक भी रही हैं या नहीं बिक रही हैं. सरकार यह नहीं बता रही है कि अभी तक कितने खंड बिक गए, कितनी प्रतियां प्रकाशित की जा रही हैं, लोगों की कितनी मांगें हैं. वह पारदर्शी नहीं है.” उन्होंने पूछा कि क्यों आंबेडकर की उन प्रतियों को सरकारी सहायता प्राप्त कॉलेजों और पुस्तकालयों में नहीं वितरित कियी जा रहा? लिंबाले कहते हैं इन चीजों को बदलने की शक्ति केवल शिक्षा विभाग की है.
लिंबाले ने बोकेफोडे कमेटी के गठन के बाद से ही कमेटी की किसी भी बैठक में भाग नहीं लिया है, उन्होंने कहा, वे कई गोष्ठी-सेमिनारों में हिस्सा लेने की वजह से बाहर थे. “मुझे अभी-अभी एक फोन कॉल आया है, जिसमें पूछा गया है कि मैं मीटिंग में भाग लेने के लिए आऊंगा या नहीं,” उन्होंने इसे शिकायती लहजे में बताया. “मुझे अभी तक यह भी नहीं सूचित किया गया है कि मुझे इसके लिए कितना भुगतान किया जाएगा.”
वसंत मून और हरि नारके दोनों के कार्यकालों के दौरान कमेटी में काम करने वाले एनजी कांबले ने कहा कि निहित स्वार्थों एवं राजनीतिक आग्रहों ने कामकाज को बुरी तरह प्रभावित किया है. उन्होंने कहा, “प्रकाशन के लिए सामग्री सुनिश्चित करने की भूमिका शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री की है. और उन्हें इसके लिए उन सदस्यों का चयन करना चाहिए, जो आंबेडकरवादी विचार रखते हैं, केवल तभी वे अपना काम करेंगे, ठीक? मैंने पिछले 20 वर्षों में उन सदस्यों का चेहरा तक नहीं देखा है, जिन्हें कमेटी में शामिल किया गया है.”
प्रत्येक वर्ष 3 करोड़ रुपए कमेटी को आवंटित किया जाता है, कांबले ने कहा, लेकिन इस्तेमाल नहीं किए जाने की वजह से वह लैप्स कर जाता है. प्रकाश बनसोड इसकी पुष्टि करते हैं. वह सूचना के अधिकार के प्रकाशनों के जरिए कमेटी की प्रगति पर वर्षों नजर रखते रहे हैं. उन्होंने कहा, “वे उनमें से एक करोड़ रुपए भी नहीं खर्च करते. ऐसा भी वर्ष गुजरा है, जब एक रुपए भी खर्च नहीं किया गया है; पूरा का पूरा 3 करोड़ रुपया बिना खर्च किए हुए वापस चला जाता है.” प्रकाश ने 2014 का एक पत्र साझा किया, जिसमें राज्य के तत्कालीन उच्च शिक्षा निदेशक डीआर गायकवाड ने कमेटी के सदस्य-सचिव अविनाश डोलस को लिखा था कि “वे काम को गंभीरता से लें क्योंकि इसकी जवाबदेही आप पर आएगी.” अगर कमेटी उस वित्तीय वर्ष के लिए आवंटित कोष को खर्च नहीं करती है तो सरकार इसे लेकर विधानसभा में असुविधाजनक सवालों का सामना करेगी. बनसोड ने कहा कि 2019-20 वित्तीय वर्ष के लिए “बीजेपी सरकार ने बजट में से 98.4 फीसदी की कटौती के साथ आंबेडकर, फुले और साहु की कमेटियों को मिला कर 4.8 लाख रुपए आवंटित किए थे.
बोकेफोडे ने कमेटी के कामकाज में किसी तरह की शिथिलता बरते जाने तथा आरएसएस के साथ उसके जुड़ाव संबंधी तमाम आरोपों को पूरी तरह से खारिज कर दिया. उन्होंने इसके लिए नारके को जिम्मेदार ठहराया, उन्होंने कहा, “जिन्होंने इन मामलों को सब तरफ फैलाया है. मुझे किसी की आलोचना नहीं करनी है. मैंने अनेक जगहों के दौरे किए हैं, मैंने व्याख्यान दिए हैं, मैंने भाषण दिए हैं. यह कुछ लोगों की नासमझी है कि मैं आरएसएस से ताल्लुक रखता हूं या यह कमेटी आरएसएस के लोगों से बनी है…यहां कोई राजनीति नहीं है. हर आदमी, मुझ से लेकर यहां के स्टाफ तक, सबको इस काम में दिलचस्पी है और वे पूरे वक्त काम कर रहे हैं.”
बोकेफोडे पुणे में रहते हैं और हफ्ते में एक बार मुंबई के बलार्ड एस्टेट स्थित कमेटी के अस्थाई कार्यालय जाते हैं, जो छत्रपति शिवाजी टर्मिनस की हलचल से एक किलोमीटर ही दूर है. कमेटी का दफ्तर पहले नरीमन प्वाइंट में था लेकिन उधर मेट्रो लाइन के लिए चल रहे निर्माण कार्य की वजह से उसे छोड़ देना पड़ा. बलार्ड के थाकरसे हाउस में यह दफ्तर दो कमरों में चल रहा है. इसी फ्लोर पर प्रकाश आंबेडकर के वंचित बहुजन आघाडी पार्टी का भी दफ्तर है. कमेटी के इस दफ्तर में चार प्रशासनिक कर्मचारी सरकार के पांच छापेखाने के लिए प्रकाशन सामग्री तैयार करते हैं, उनका काम देखते हैं. दफ्तर के टेबुल पर पहले प्रकाशित हुए ग्रंथ रखे हुए हैं, जिन्हें आंगुतकों को वितरित किया जाना है. बोकेफोडे ने अगले बीएडब्ल्यूएस के खंड की तैयारी की कॉपी मुझे दिखाई, जो मराठी अखबार जनता में प्रकाशित आंबेडकर के लेखों का संग्रह है. जनता अखबार को आंबेडकर ने ही 1930 में शुरू किया था. उन्होंने कहा कि इस पुस्तक का पहला भाग प्रेस में भेज दिया गया था.
“चुनाव के पहले, वे जनता को जारी कर देंगे,” पीजी जोगदंड हल्की-सी झुंझलाहट के साथ कहते हैं, जो बोकफोडे कमेटी के सदस्य हैं. यह बात 2019 की है. “यह खंड वहां दिसंबर से ही पड़ा हुआ है. इसके लिए भव्य समारोह होने जा रहा है, जिसमें प्रदेश के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, ये, वो, सब लोग मौजूद रहेंगे.” लेकिन उस अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भी किसी तरह का कोई लोकार्पण समारोह नहीं हुआ. इस बात के दो साल होने को आए लेकिन वह खंड ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है. जोगदंड ने कहा कि जनता के लेखों का संग्रह का काम कमेटी के पूर्ववर्ती सदस्य-सचिव अविनाथ डोलस के कार्याकाल में ही पूरा हो गया था. डोलस औरंगाबाद में समाजशास्त्र के प्रोफेसर थे, जिनकी नवंबर 2018 में निधन हो गया. जोगदंड स्वयं प्रख्यात समाजशास्त्री हैं, जिन्होंने कई किताबें लिखी हैं. वे मुंबई यूनिवर्सिटी के कला संकाय के डीन पद से हाल ही में रिटायर हुए हैं. उन्होंने बीएडब्ल्यूएस के 23वें खंड के लोकार्पण को बीजेपी द्वारा आंबेडकर के उपयुक्त बनाने के प्रयास के हिस्से के रूप में परिकल्पित किया था, जो तब प्रदेश की सत्ता में काबिज थी.
जोगदंड ने कहा कि यह सच है कि बोकेफोडे कमेटी के अधिकतर सदस्य या तो बीजेपी के थे या उसके पैतृक संगठन आरएसएस से संबंद्ध थे. उन्होंने कहा, “मैंने उन्हें बैठकों में देखा है. मैंने पाया कि आंबेडकर के बारे में उन्हें कम ही पता था. बस इधर-उधर से कुछ सूचनाएं जुटा ली थीं.” बोकेफोडे कमेटी की पहली बैठक में 26 सदस्यों ने शिरकत की थी, उन्होंने बताया कि केवल “तीन और चार लोग” अभी हाल ही में, जुलाई में हुई बैठक में भाग लेने आए थे. उन्होंने लिंबाले द्वारा बैठकों से लगातार गैरहाजिर रहने पर अपनी निराशा जताई. उस समय जोगदंड कमेटी के लिए ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ किताब का मराठी में अनुवाद कर रहे थे. उन्होंने कहा, “आपको आंबेडकर की रचनाओं को पढ़ते समय और उसका अनुवाद करते हुए बड़ा सावधान रहना पड़ता है. उनकी भाषा और विषय-वस्तु बहुत महत्वपूर्ण है.” उन्होंने आंबेडकरवादी और हिंदुत्व समूहों की भाषा के उपयोग में फर्क का एक उदाहरण के जरिए पेश किया “हम समता कहते हैं, वे समरसता कहते हैं. इक्वैलिटि माने समता. उनके लिए समरसता का अर्थ है-कांग्रेगेशन, सभी लोगों का एकत्रीकरण. यह भिन्न लक्ष्यार्थ है.”
जोगदंड समिति के भविष्य की योजना में आंबेडकर कोश को रिलीज करना भी शामिल है, जो आंबेडकर की जीवन की घटनाओं पर आधारित एक इनसाइक्लोपीडिया होगा और इसके अलावा मुद्रण से बाहर हुई बहुत सारी किताबों का प्रकाशन किया जाएगा. जोगदंड ने कहा, “ डॉ आंबेडकर का जल संसाधनों, प्रबंधन और बिजली के क्षेत्र में योगदान को सरकार द्वारा नहीं बल्कि अन्य स्रोतों के जरिए प्रकाशित और पुनर प्रकाशित किया गया है. वह अतिरिक्त जल, बाढ़ और नदियों के बारे में कहना चाहते थे. हम उनके अंग्रेजी और मराठी के सभी संग्रहों को प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं.” सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना के जवाब में कमेटी ने कहा की आगामी पुस्तकें जिनमें “डॉ आंबेडकर एंड द मूवमेंट ऑफ अन टचेबल्स” पर स्रोत सामग्री, जनता अखबार में प्रकाशित लेखों का संग्रह-संकलन, आंबेडकर के अखबारों मूकनायक और बहिष्कृत भारत पर खंड, और ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ का मराठी और इंग्लिश में एक “विशेष अंक” लाना चाहती है.
जोगदंड ने बीएडब्ल्यूएस धारावाहिक पुस्तकों प्रकाशन में तेजी लाने में दलित पैंथर्स की भूमिका को स्वीकार किया. जोगदंड ने आगे कहा, “जेवी पवार, नामदेव ढसाल, मैं उनके प्रकाशन के लिए तत्कालीन सरकार पर बहुत जोर डाला था. यही वजह है कि आज 22 खंडों में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो सकी हैं.” उन्होंने पवार को किसी भी कमेटी में शामिल नहीं किए जाने पर आश्चर्य व्यक्त किया. “मैं नहीं जानता कि इसके पीछे क्या राजनीति है. मैं उन्हें वरीयता में पहले स्थान पर रख लूंगा क्योंकि उनके पास बहुत सारी सूचनाएं हैं.”
कमेटी में शामिल किए जाने वाले लोगों में एक अन्य नाम रमेश शिंदे का भी है, जो जोगदंड के मुताबिक, सर्वाधिक सक्षम व्यक्ति हैं. 87 वर्षीय शिंदे आंबेडकरवादी समुदाय में आंबेडकर की लिखी किताबों या उन पर लिखी गई किताबों को प्रकाशित करने के लिए आंबेडकर समुदाय में ज्यादा प्रतिष्ठित हैं. जोगदंड से बातचीत के कुछ हफ्तों बाद जब मेरी उनसे मुलाकात हुई तो शिंदे ने मुझसे कहा कि जहां तक वे याद कर सकते हैं, उन्होंने आंबेडकर के जीवन के बहुआयामों को खोलने वाली विविध किताबों और अभिलेखों को पढ़ते रहे हैं. दो कमरे वाले भाड़े के मकान की हर वॉल और कपबोर्ड किताबों और कागजातों से भरे पड़े थे. जैसे ही वह कोई बात रखते, उसकी तस्दीक करने के लिए संबंधित किताब को लाते और उसमें दिए गए सदस्यों को दिखाते.
मून को शिंदे कमेटी का गठन होने के काफी पहले से जानते थे. उन्होंने कहा, “मैं वसंत मून के साथ तीन साल कमेटी में रहा था. वह (मून) कहते कि शिंदे सर जानते हैं कि क्या अपेक्षित है.” शिंदे दस्तावेजों को लेकर मून के दफ्तर और घर पर अक्सर चले जाते. उन्होंने मून द्वारा किए गए कामों को “बेहतर कार्य” बताते हुए उनकी सराहना की. लेकिन उनके देहावसान के पश्चात कमेटी ने अपनी प्राथमिक दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रही है. “बाबासाहेब ने कई सारे लोगों को पत्र लिखे हैं, केवल बीके गायकवाड को ही नहीं लिखे थे, क्या उन पत्रों को प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए?” उन्होंने यह सवाल आरपीआई के सह-संस्थापक के साथ हुए पत्र-व्यवहार के संदर्भ में किया, जो बीएडब्ल्यूएस के 21वें खंड में छपा है. “बेशुमार दस्तावेज हैं, जो अभी तक अप्रकाशित हैं. यह उनका काम है कि वे उनको इक्ट्ठा करें और उन्हें प्रकाशित कराएं.”
शिंदे ने आगे कहा कि आंबेडकर की थाती रखने वाले व्यक्तियों, जो उनकी विरासत के असली वारिस हैं, तक पहुंच बनाए बगैर कमेटी आंबेडकर की रचनाओं का समग्र संकलन नहीं प्रकाशित कर सकती है. उन्होंने कहा, “जो इसके विशेषज्ञ हैं, जिनके पास ज्ञान है, उनको इस काम में जोड़ा जाना चाहिए. न तो इस सरकार ने और न ही इसकी पूर्ववर्ती सरकारों ने इस तरफ ध्यान दिया है.”
बीएडब्ल्यूएस के आगामी खंडों में किस तरह के दस्तावेज प्रकाशित किए जा सकते हैं, इसके उदाहरण के रूप में शिंदे ने अमेरिका की मशहूर मैगजीन टाइम के मार्च 1936 के अंक में प्रकाशित लेख का एक प्रिंट निकाला. इसमें आंबेडकर को इस रूप में निरूपित किया गया है कि “वह संभवत: एकमात्र जीवित व्यक्ति हैं, जो पोप के साथ प्राइवेट श्रोताओं के बीच से ताव में उठ कर जा सकते हैं.” पोप पायस इलेवन के इस दावे पर आंबेडकर ने अपने को अपमानित महसूस किया था कि भारत के दलित आज अपने प्रति जिन भेदभावों का सामना कर रहे हैं, उन्हें दूर करने में तीन से चार सदियां लग सकती हैं. इस लेख में कहा गया है कि 1935 में हुए वंचित वर्गों के सम्मेलन में हिंदू धर्म का परित्याग करने की घोषणा के बाद आंबेडकर ईसाई धर्म ग्रहण करने पर विचार करने लगे थे. इसमें आंबेडकर को Zion’s Herald के एक रिपोर्टर से यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि “हिंदुत्व एक धर्म नहीं है. यह एक रोग है.” शिंद ने अपने संग्रह में से प्रकाशन लायक एक अन्य कागजात निकाला. वह ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ का एक इंटरव्यू था और वर्डिक्ट ऑन इंडिया किताब थी, जिसे Beverley Nichols 1944 में लिखी थी. इस किताब में एक पूरा अध्याय आंबेडकर को समर्पित किया गया है, जिन्हें निकोलस ने “प्रेरक, रचनाशील और मुद्दे पर लगभग बेबाक बात करने वाले” के रूप में निरूपित किया है.
शिंदे ने कहा कि रचनाओं को क्षेत्रीय भाषाओं में रूपांतरित करने का प्रयास मून के समय से ही शुरू हो गया था,“लेकिन इसे अब तक किसी सरकार ने प्रकाशित नहीं किया है.” एनजी कांबले भी इसकी पुष्टि करते हैं-“खंड-6 जो अर्थशास्त्र पर बाबासाहेब की थीसिस है, उसे मून के कार्यकाल में ही मराठी में अनूदित किया गया था.” उन्होंने कहा, “मून ने इसके प्रकाशन की अनुमति भी दी थी. इसे छापा गया था औऱ यह आज भी तैयार है. प्रिंटिंग ऑर्डर्स तीन-चार बार दिए गए लेकिन इसे कभी नहीं छापा गया. इसमें केवल मुख्यमंत्री एवं शिक्षामंत्री की प्रस्तावना की दरकार है. अगर उनकी इच्छा हो तो वे इसे 15 अगस्त के अवसर पर प्रकाशित कर सकते हैं.” डोलस के मातहत रावसाहेब कसबे प्रकाशन कमेटी का हिस्सा थे और उन्होंने पुस्तक के मराठी-अनुवाद प्रक्रिया का निरीक्षण किया था. वह कहते हैं,“जब बीजेपी सरकार आई, यह परियोजना पीछे धकेल दी गई, किसी ने इस बारे में नहीं सोचा.”
बीएडब्ल्यूएस श्रृंखला में ताजा खंड आंबेडकर की सचित्र जीवनी (फोटोबायोग्राफी) का संग्रह है, जो उनके जीवन का माइलस्टोन संयोजन है. उसे 2010 में प्रकाशन कमेटी के सदस्य-सचिव दत्ता भगत के कार्यकाल में जारी किया गया था. इसका संपादन हरि नारके ने किया था. नारके इसके संपादकीय में लिखते हैं कि महाराष्ट्र सरकार ने 1995 में किताब के प्रकाशन के लिए एक उप-समिति का गठन किया गया. यह उपसमिति आंबेडकर से जुड़ी तस्वीरों के लिए आह्वान किया है, जिसकी अच्छी प्रतिक्रिया हुई थी. नारके ने आगे कहा कि मैंने इस खंड की तैयारी और उनके प्रकाशन के काम को सदस्य-सचिव के अपने कार्यकाल, 2002 में प्राथमिक स्तर पर लिया. उन्होंने इस काम को तय समय पर न छपवाने के लिए अपने उत्तराधिकारी एमएल कासरे को जिम्मेदार ठहराया.
नारके लिखते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान बीएडब्ल्यूएस के 20 और खंडों को प्रकाशित करने के लिए अपने स्तर बेहतर प्रयास किया था. “खराब परिस्थितियां, असहयोग और मानवशक्ति की कमी ने हमें इसे पूरा नहीं करने दिया.” उन्होंने बीएडब्ल्यूएस के खंडों के मराठी भाषा में किताबों के प्रकाशन में देरी की वजह कमेटी के पास एक भी प्रूफरीडर का उपलब्ध न होना बताया. “अगर हमारे पास एक भी प्रूफरीडर होता तो यह काम कब पूरा हो गया होता.”
आंबेडकर की एक फोटोबायोग्राफी का न होना उनके समर्थक-अनुयायियों में निराशा की एक वजह रही है. इसमें अनेक तथ्यात्मक भूलें हैं और शिंदे ने गिनकर बताया कि 703 हिज्जे की गलतियां हैं. उन्होंने मराठी दैनिक महाराष्ट्र टाइम्स में एक लेख लिखकर इन गलतियों को सूचीबद्ध किया. उदाहरण के लिए यह दावा किया गया है कि बर्मा के बौद्ध संन्यासी महास्थविर चंद्रमणि ने 14 अक्टूबर 1956 को आंबेडकर के साथ उनके 60 हजार अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था. दरअसल, आंबेडकर ने महास्थविर से दीक्षा लेने के बाद अपने अनुयायियों को स्वयं ही दीक्षित किया था. इन तथ्यात्मक भूलों की व्यापक स्तर पर आलोचना के बाद डोलस ने इस पुस्तक खंड को अपने कार्यकाल में दोबारा जारी किया. उन्होंने कहा सुरवाडे ने दोनों ही संस्करणों पर अपना असंतोष जाहिर किया. कई भूलें दोबारा जारी किए गए संस्करण में भी रह गईं. उदाहरण के लिए आंबेडकर की सविता के साथ विवाह के चित्र-परिचय में इसे एक भव्य समारोह बताया गया है, जिसमें नेहरू और वल्लभभाई पटेल, जो भारत के पहले गृह मंत्री थे, के शरीक होने की बात कही गई है. इसके विपरीत, सुरवाडे कहते हैं, इस मौके पर “मुश्किल से 12 लोग मौजूद थे.” उन्होंने इस कैप्शन को एक “ऐतिहासिक भूल” करार दिया.
मून के कार्यकाल के दौरान, सुरवाडे को उप-कमेटी में शामिल किया गया था, जिसका मकसद तस्वीरों में आंबेडकर के जीवन को दस्तावेजी शक्ल देना था. यह परियोजना मून के साथ ही मर गई. हालांकि नारके ने सुरवाडे से फोटोबायोग्राफी तैयार करने वाली टीम में शामिल होने के लिए कहा था और वे इसके लिए राजी भी हो गए थे. उन्होंने इस काम के लिए मानदेय लेने से भी इनकार कर दिया था, लेकिन दोबारा उनसे कभी संपर्क नहीं किया गया.
सुरवाडे का डोलस के साथ भी समान अनुभव रहा, जो उनके घर पर आंबेडकर के फोटोग्राफ्स लेने तीन बार गए थे. “उन्होंने मुझे एक लेटर भेजा : ‘ऐसा समझा जाता है कि आपको नागपुर के फुलझेले से एक फोटो संग्रह मिला है.” सुरवडे ने कहा. (सदानंद फुलझेले नागपुर के उपमेयर थे, जब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था. उनका निधन मार्च 2019 में हो गया. सुरवाडे उस पत्र की अजीब निर्वैयक्तिक भाषा से ज्यादा दुखी थे, जबकि दोनों लोगों के बीच संग्रह पर घंटों हुई चर्चा के बाद चिट्ठी की भाषा में आत्मीयता की एक गंध अपेक्षित थी. इस पत्र में उनसे कहा गया था कि वे आंबेडकर की तस्वीरों का अपना पूरा का पूरा संग्रह कमेटी को सौंप दें जिससे उन्हें स्कैन किया जा सके. इसके बाद यह संग्रह उन्हें वापस कर दिया जाएगा. “कौन व्यक्ति देगा, मुझे बताइए?” सुरवाडे ने कहा “ हमने इसे इतनी मेहनत से जुटाया है. इसके लिए मैंने काफी पैसा खर्च किया है, अधिकतम श्रम किया है, इसको एकत्र करने में अधिकतम समय लगाया है. कैसे मैं आपको यह सारा कुछ दे दूं?” उन्होंने डोलस के पत्र का कभी जवाब नहीं दिया.
बीएडब्ल्यूएस की फोटोबायोग्राफी से सुरवाडे की मुख्य शिकायत तस्वीरों के बेतरतीब प्रबंधन को लेकर थी. उन्होंने कहा, “दोनों ही खंडों में, किसी भी क्रोनोलॉजी का पालन नहीं किया गया है. यह ऐसा है, जैसे सब चलता है, किसी तरह इस काम को निपटा दो. और उन्होंने पांडुलिपि को भी साफ नहीं किया. उस पर कितने सारे दाग धब्बे हैं. वे इसे साफ कर सकते थे, नहीं? लेकिन उन्होंने जरा भी जहमत नहीं ली.”
फोटोबायोग्राफी के साथ, नारके की देखरेख में प्रकाशित अन्य किताबों में बाकी रह गई कमियों को लेकर उसकी आलोचना की गई है. शिंदे ने डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के लेखन और भाषणों के संग्रह-समस्याएं और समाधान-की एक प्रति दिखाई, जो उनके अंग्रेजी और मराठी निबंधों का संग्रह है. इसका संपादन और संग्रह प्रकाश बनसोड ने किया है. यह किताब नारके के संपादकीय नेतृत्व की तीखी आलोचना है. “7 सालों के अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने न तो आंबेडकर के साहित्य का संकलन किया और न ही अपने हिसाब से कोई प्रकाशन किया-सिवाय 21वें और 22वें खंडों के प्रकाशन के.” बनसोड अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं. “उन्होंने केवल समय काटने वाली नीति अपनाई और दावा किया कि उन्होंने 17 से लेकर 20 वें खंडों तक की पुस्तकों का प्रकाशन कर दिया है. यह खंड 2003 और 2005 के बीच में प्रकाशित किए गए थे, जिनका संकलन पूर्व के संपादकों जैसे मून, एमएल कसारे, एमजी कांबले और अशोक गोडहाट ने किया था.
बनसोड ने यह भी आरोप लगाया कि नारके 19वें और 20वें खंडों को अपने साथ लंदन ले गए थे, जबकि कमेटी ने तब तक औपचारिक रूप से उसे जारी भी नहीं किया था. एसएन बुसी, जो पीईएस शासी निकाय के पूर्व सदस्य थे, उन्होंने भी फोटोबायोग्राफी के संदर्भ में टिप्पणियों और शुद्धिकरण की बाकायदा एक सूची दी है. वह लिखते हैं, “केवल किसी व्यक्ति के चित्रों की पुनः प्रस्तुति का कोई मतलब नहीं है, अगर फुटनोट्स के रूप में उसके बारे में कोई टिप्पणी न की गई हो.” बुसी बताते हैं कि इस खंड में अनेक स्थानों पर तस्वीरों के स्रोतों का हवाला नहीं दिया गया है. उन्होंने प्रकाशन में देरी का ठीकरा कमेटी के सदस्यों के सिर फोड़ने के लिए नारके की आलोचना की.
फोटोबायोग्राफी पाठकों के लिए एक संदेश होता है. उन्हें प्रकाशक की लिखित पूर्वानुमति के बिना पुस्तक की किसी भी सामग्री को फिर से प्रस्तुत न करने या उसे वितरित न करने के लिए सावधान किया जाता है. इसके बजाय बुसी एक अनोखा निर्देशन दिया हुआ पाते हैं. वह लिखते हैं, “डॉ आंबेडकर पर सरकार द्वारा प्रकाशित किसी भी सामग्री को महाराष्ट्र सरकार की पूर्वानुमति के बिना पुनर्प्रकाशित करने या दूसरों के उद्धरणों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा ताकि डॉ आंबेडकर के दर्शन का व्यापक प्रसार हो सके. इस संदर्भ में, यह रेखांकित करना मौजू है कि ऐसे निषेधों/प्रतिबंधों को पहली बार खंड 19 में दर्ज किया गया था और उसे खंड 20, 21 और 22वें खंडों में यांत्रिक रूप से दोहराया गया.”
शिवसेना की अगुवाई वाली सरकार ने 27 जनवरी 2020 को बोकेफोडे कमेटी को विघटित कर दिया और इसके 14 महीने बीतने के बावजूद किसी भी कमेटी का गठन नहीं किया था. दिसंबर में उच्च शिक्षा मंत्री उदय सामंत ने इसमें हो रही देरी के लिए “तकनीकी कठिनाइयों” को वजह बताते हुए कहा कि जल्दी ही एक नई कमेटी का गठन कर दिया जाएगा. फरवरी में उन्होंने कहा इसकी घोषणा एक हफ्ते के भीतर कर दी जाएगी. “अब राज्य में तीन पार्टियों की मिली जुली सरकार है,” पवार ने शिवसेना और गठबंधन में इसके साथ साझीदार कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का उल्लेख किया. “उनकी विचारधाराएं एक नहीं हैं. उनमें आंबेडकरवादी विरोधी हैं. बुजुर्ग होने के बावजूद आज भी कमेटी में काम करने की मेरी इच्छा है क्योंकि मैं बाबासाहेब के प्रकाशित साहित्य के बारे में बहुत कुछ जानता हूं.”
30 मार्च को, थैकरसे हाउस का ऑफिस खुला हुआ था, लेकिन उसके स्टाफ मीटिंग में भाग लेने गए थे. उस समय दफ्तर में मौजूद एक मात्र जूनियर क्लर्क गीता पारते, कमेटी के कुल दो स्टाफ में से एक हैं, जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गई है, ने फोन पर कहा, “कोई नया काम नहीं हुआ है क्योंकि नई कमेटी अभी नहीं गठित की गई है. तीन से चार दिनों में यह गठित हो जाएगी.” उन्होंने कहा कि जनता वाला खंड तैयार है, जब कमेटी गठित हो जाएगी तो यह छप जाएगा. उस दिन महाराष्ट्र सरकार ने आखिरकार नई कमेटी के गठन की घोषणा कर दी. डॉ कृष्ण कांबले को कमेटी का सदस्य-सचिव बनाया गया, जो कैंसर के डॉक्टर हैं और आंबेडकरवादी हैं. पवार का नाम भी शामिल किया, वैसे ही एनजी कांबले, प्रज्ञा दया पवार और ताराचंद खांडेकर एवं कृषि-आर्थिकी के जानकार भालचंद्र मुंगेकर को भी सम्मिलित किया गया. सामंत, जो कमेटी के पूर्व पदेन सदस्य थे, उनके अलावा, राज्य के ऊर्जा मंत्री एवं कांग्रेस नेता नितिन राउत को भी कमेटी में शामिल किया गया.
प्रकाश बनसोड ने कहा, “फुले के काम के मामले में, इसके केवल पुनर्मुद्रण का काम है, क्योंकि उन्होंने बहुत थोड़ा लिखा है. आंबेडकर कमेटी में सबसे ज्यादा काम है. यहां रहकर आप उनके जहां-तहां बिखरे साहित्य को एकत्र कर सकते हैं और उन किताबों को फिर से छाप सकते हैं, जिनका स्टाक नहीं बचा है. सवाल है कि आपने 45 वर्षों में क्या किया है?” आंबेंडकरवादी साहित्य के प्रति बाद की सरकारों के दुर्व्यवहार ने एक स्वायत्तशासी संस्था की मांग को तेज कर दिया है, जो उनके समग्र रचना संसार का बिना नागा प्रकाशन करता रहे और इसे लेकर बीएडब्ल्यूएस के प्रयासों में भी कोई लापरवाही न हो. दिसंबर 2009 में, तत्कालीन अशोक चव्हाण की कांग्रेस सरकार ने समाज कल्याण विभाग के अंतर्गत नागपुर में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर फाउंडेशन के लिए दो करोड़ रुपए का आवंटन किया था. लेकिन ऐसा लगता है कि उसके बाद से इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है.
एनजी कांबले ने कहा कि मुंबई के बजाए नागपुर का चयन बेहद संवेदनशील था. नागपुर में ऐसे कई आंबेडरवादी हैं, जिनके पास निजी लाइब्रेरी है. उन्होंने कहा, “आपको मुंबई में खंड में प्रकाशित होने वाली रचनाओं की कंपोजिंग में मदद करने वाले लोग नहीं मिल सकते हैं. यह भी एक बात है, कि नागपुर में तीन सरकारी छापाखाने हैं.” महाराष्ट्र विधानसभा ने 2009 में एक विधेयक पारित किया जिसमें प्रति वर्ष दो खंड प्रकाशित करने की अपेक्षा कमेटी से की गई थी. दत्ता भगत ने उसके बाद के वर्ष में प्रकाशित बीएडब्ल्यूएस के 22 वें खंड में लिखा था कि कमेटी ने उनके अभिलेख को खाली कर दिया है. उन्होंने लिखा था,“इस चरण के आगे, कमेटी को डॉ बाबासाहेब के लिखे उनके नए साहित्य की खोज करनी चाहिए.” इस वाकयात के 11 साल बाद भी, किसी नए खंड में उस खोज को सामने नहीं लाया गया है.
शिंदे ने यह पूछने पर कि क्या आंबेडकर के बक्सों में जो था, वह सारा का सारा प्रकाशित हो गया, कहा, “इस बारे में वे जो भी दावा करते हैं, उसे अपनी कमेटी के सदस्यों तक से नहीं दिखाते हैं. जब हम कमेटी के सदस्य थे, तो उन्हें सारी सामग्री हमें दिखानी चाहिए थी, लेकिन नहीं दिखाया.” कांबले ने कहा कि उन बक्सों में बीएडब्ल्यूएस के 100 खंड निकाले जा सकने लायक सामग्री है. उन्होंने ध्यान दिलाया, “बाबासाहेब गोलमेज कॉन्फ्रेंस में पांचवीं-छठी कमेटियों के सदस्य थे. उन बैठकों के ब्योरे को प्रकाशित किया जाना चाहिए, ठीक? जब वे मुंबई में थे, उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए लेख लिखे थे, वे अभी कहां छपे हैं? अपने कार्यकर्ताओं के साथ किया उनका पत्र-व्यवहार कहां छपा है?”
इन सामग्री को “प्रकाशित किए जाने की आवश्यकता है, अगर आप बाबासाहेब के साथ पूरा न्याय करना चाहते हैं तो,” कांबले ने कहा. “कसारे सर और मैंने बाबासाहेब की प्रकाशित की जानेवाली किताबों की एक सूची बना कर कमेटी को सुपुर्द किया था.” नारके की कमान की अपनी आलोचना में, बनसोड ने जोर दिया कि सामग्री की संपदा उपलब्ध है और इसके लिए एक स्वतंत्र फांउडेशन बनाए जाने की आवश्यकता है. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अगर बाबासाहेब के स्वयं के साहित्य को ही इकक्ट्ठा किया जाए तो वे 75 खंडों में आएंगे और 100 खंड स्रोत सामग्री के बनेंगे. उन समस्त 150 खंडों का अगर मराठी, हिंदी और अंग्रजी में अनुवाद कराए जाएं तो यह संख्या लगभग 500 हो जाती है. अगर फाउंडेशन का निर्माण तुरंत नहीं किया गया, तो इस बात की संभावना अधिक है कि आंबेडकर का साहित्य जो अभी कुछेक व्यक्तियों में बिखरा पड़ा है...वह नष्ट हो जाए और फिर उनका कोई उपयोग नहीं होगा.
कांबले जब कमेटी का हिस्सा थे, तो उन्होंने आंबेडकर के लेखन की क्राउड-सोर्सिंग की सिफारिश की थी. उन्होंने बताया, “मैंने कहा कि शुरुआत में पूरे देश के समाचारपत्रों में इस आशय का विज्ञापन दिए जाना चाहिए कि जिस भी व्यक्ति के पास बाबासाहेब से जुडा कोई पत्र हो या उनका लेख हो, उसे कमेटी के पास भेज दे.” लेकिन वह विज्ञापन कभी नहीं छप पाया.
जुलाई 2019 में मैं पुणे में स्थित सरकार द्वारा संचालित प्रेस जिंक यह देखने गया था कि क्या वहां बीएडब्ल्यूएस के चार खंडों में से किसी भी खंड की कोई कॉपी बची है, जो कि चरनी रोड प्रेस में उपलब्ध नहीं है. मैंने पाया कि खंड चार (रिडल्स इन हिंदुइज्म), खंड छह (दि इवोल्यूशन ऑफ फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया एंड प्रॉब्लम ऑफ रुपीज), खंड आठ (पाकिस्तान ऑर दि डिविजन ऑफ इंडिया) और खंड ग्यारह (दि बुद्धा एंड हिज धम्मा) यहां भी उपलब्ध नहीं हैं. उस समय के प्रबंधक संतोष धावले ने कहा कि ये प्रतियां प्रकाशन कमेटी के आदेश के अनुसार प्रकाशित की जाती हैं. “ऑर्डर मिलने पर हमारी क्षमता दो महीने में 25 हजार कॉपियां छापने की है. अब इसकी कितनी प्रतियां छापी जानी हैं और कब छापी जानी हैं, यह तय करना हमारे अधिकार में नहीं है.”
दादर की चैत्य भूमि में, जहां आंबेडकर का दाह संस्कार किया गया, उनकी किताबों का एक स्टाल साल भर लगा रहता है. उनकी महत्वपूर्ण वर्षगांठों (जयंती और निर्वाण दिवस) के मौके पर उन किताबों की बिक्री बहुत बढ़ जाती है, जब हजारों लोग उन्हें अपना श्रद्धा-सुमन अर्पित करने आते हैं. पुस्तक विक्रेता उनकी किताबें जुटाने के लिए नागपुर और औरंगाबाद के स्रोतों का दौरा करते हैं, प्राथमिक रूप से छोटे निजी प्रकाशकों के यहां. उनमें से एक पुस्तक विक्रेता ने बताया, “मैं खुद भी सरकारी प्रेस से किताबें लाता हूं लेकिन उनकी कृतियां इस अवसर पर आउट ऑफ प्रिंट हो जाती हैं.” एक पुस्तक विक्रेता अमर चौधरी भी इस बात से सहमत दिखे. उन्होंने कहा, “किताबों के सेट के दाम काफी कम हैं लेकिन वे बहुत कम उपलब्ध हैं. उनसे पूछने जाओ तो कहेंगे किताबें आएंगी या वे छपने वाली हैं. अगर आप उनके पास अगले 10 साल दो-चार दिन पर जाओ, तो वे यही दोहराते रहेंगे.” उन्होंने आगे कहा, “मैं स्वयं ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ की प्रति तलाश रहा था. एक पुस्तक विक्रेता के पास यह किताब नहीं थी लेकिन उन्होंने तुरंत अपनी निजी कॉपी मुझे यह कहते हुए दे दी कि “इसे पढ़कर आप मुझे वापस कर सकते हैं.”
(कारवां अंग्रेजी के अप्रैल अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद डॉ. विजय शर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)