एक भूली हुई त्रासदी

अकाल स्मृति : 77 साल बाद चश्मदीद की नजरों में बंगाल अकाल

1943 के बंगाल के अकाल में अनुमानित 30 लाख लोग मारे गए. विलियम वांडिवेट / द लाइफ पिक्चर कलेक्शन / गैटी इमेजिस
Kushanava Choudhury कलर फोटो : Soumya Sankar Bose
23 June, 2020

1.

साल 2018 की सर्दियों में कोलकाता यात्रा के दौरान मैं आदतन कॉलेज स्ट्रीट के पड़ोस में बनी किताब की दुकान पर गया. हमेशा की तरह ही मुझे इस दुकान में कुछ बेहद दिलचस्प हाथ लग जाने की उम्मीद थी. वहां रखी किताबों में से मैंने तिमाही निकलने वाली एक छोटी सी बंगाली पत्रिका 'गंगचिल पत्रिका' का जुलाई 2018 का अंक उठाया. यह पत्रिका इससे पहले शरणार्थियों, पोर्नोग्राफी और नक्सल आंदोलन समेत कई विषयों पर अपने अंक निकाल चुकी थी. इस बार के अंक का विषय था- अकाल. इस अंक में छपे आलेखों में एक आलेख में 16 वाचिक इतिहासों का संकलन था जिनके साथ “मोनोन्तरे साक्खी,” या “अकाल के गवाहों” की पूरे पृष्ठ की तस्वीरें भी प्राकशित की गई थीं जिन्हें पत्रिका के संपादक सलिन सरकार ने संग्रहित किया था. ये सभी तस्वीरें बंगाल के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले उन बेहद साधारण लोगों के जीवन की थीं जिन्होंने साल 1943 के बंगाल अकाल को देखा था और जो इस विभीषिका से बच गए. बंगाल के इस अकाल में 30 लाख लोगों की मौत हो गई थी.

हर बयान के साथ बेहद सादा और करीब से लिया हुआ ब्लैक एंड व्हाइट पोट्रेट भी था. इसे सरकार ने अपने फोन के कैमरे से लिया था. हर बयान की शुरुआत में ही उन लोगों के नाम, उम्र और रिहाइश का ज़िक्र था. इनमें से ज्यादातर महिलाओं और पुरुषों की उम्र नब्बे साल से ज्यादा थी. सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने बताया कि उनकी उम्र 112 साल है. उनके गाल पिचके हुए थे- पुरुषों का चेहरा धूसर बालों से ढका हुआ था और महिलाओं की साड़ी उनके सिर से लिपटी हुई थी. शायद ही किसी तस्वीर में कोई मुस्कुरा रहा था. कभी ना भूलने वाली उनकी आंखें सीधे कैमरे को देख रही थीं. मुझे ऐसा लग रहा था कि उनकी आंखें जैसे कोई सवाल पूछ रही हों, ऐसे सवाल जो मैं खुद से पूछना नहीं चाहता था.

हर इंटरव्यू में सरकार ने शुरुआत में कुछ बातों का जिक्र किया. जैसे कभी उन लोगों के रहने की जगहों के बारे में लिखा और कभी यह बताया कि उनकी सरकार से मुलाकात कैसे हुई. बंगाल का अकाल देख चुके इन लोगों ने कई बार साल 1942 में दुर्गा पूजा के दौरान आए चक्रवात को भी याद किया जिसमें एक ही दिन के भीतर हजारों मर्द, औरत, गाय-भैंस और मछलियां मारी गईं और उनके खेत में खड़ी धान की फसल बर्बाद हो गई. उन्होंने बताया कि कैसे लोग जहां भाग सकते थे वहां भागे, कस्बों में, कलकत्ता, सुंदर बन या हर उस जगह जहां उन्हें खाना मिल सकता था. बहुत से लोगों ने अपना घर छोड़ा और फिर कभी वापस नहीं लौटे. बहुतों ने अपने घरों में ही दम तोड़ दिया. कुछ अपने परिवारों से अलग होकर अपनी झोपड़ियों में भूख के चलते मर गए और कुछ को हैजा और चिकन पॉक्स हो गया. उन्होंने औरतों को वेश्याओं के रूप में बेचने की कहानियां बताईं, उन्होंने बताया कि कैसे परिवारों ने दो मुठ्ठी चावल के लिए अपनी बची-खुची जमीन बेची, कैसे जमींदारों ने भूख से मर रहे लोगों से जमीनें खरीदीं और कैसे मृतकों के घरों को लूटा गया.

जब मैंने इन बयानों को पहली बार पढ़ा तो मुझे लगा कि मैं भूतों से बात कर रहा हूं. ज्यादातर बंगालियों की तरह मुझे भी मालूम था कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान साल 1943 में यहां अकाल पड़ा था और औपनिवेशिक सरकार की नाक के नीचे लाखों लोग मर गए थे. यह बात कोई रहस्य नहीं थी कि यह अकाल ब्रिटिश राज की घोर लापरवाही के चलते पड़ा था. लेकिन यह एक तरह से प्राचीन इतिहास की तरह लगता था. इस अकाल का थोड़ा-बहुत जिक्र स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबों में पूर्व-औपनिवेशिक और औपनिवेशिक काल में अक्सर आने वाली भूकंप, बाढ़ और सूखे जैसी दूसरी दुर्भाग्यपूर्ण आपदाओं के साथ कर दिया जाता है. इसलिए एक भूले हुए अतीत की तरह महसूस होने वाली घटना में जिंदा बचे चश्मदीदों के बारे में जानना मेरे लिए बड़ा झटका था.

मैंने अपना पेशेवर जीवन साल 2000 की शुरुआत में दि स्टेट्समैन कोलकाता अख़बार में रिपोर्टर की तरह किया था. कोलकाता में तब बहुत सी फैक्ट्रियां बंद हो गईं थीं और यह औद्योगिक गतिविधियों के थम जाने के बाद वाला कोलकाता शहर था. मैं यहां साल 2009 में एक किताब के लिए शोध के सिलसिले में दोबारा यहां आया.

जब मैंने इंटरव्यू करने शुरू किए तो कहीं न कहीं बातचीत में अनपेक्षित रूप से 1943 के अकाल का जिक्र आ ही जाता था. ऐसे ही एक इंटरव्यू में ट्रेड यूनियन के नेता मनोज रे चौधरी फैक्ट्रियों के बंद होने और इसके चलते औद्योगिक मजदूर वर्ग में आई गिरावट के बारे में मुझसे बात कर रहे थे. तब तक वह सीलिंग फैन फैक्ट्री बंद हो चुकी थी जिसमें वह काम करते थे और उसकी संपत्ति भारत के सबसे बड़े मॉल और लक्जरी अपार्टमेंट प्रोजेक्ट साउथ सिटी में तब्दील हो चुकी थी. उन्होंने मुझे साल 1940 के दशक की शुरुआत में मेघना नदी के किनारे बिताए गए अपने बचपन के बारे में बताया. एक दिन वह स्कूल से नदी की दूसरी तरफ से आ रहे लोगों को देखने के लिए आए. ये लोग जंगलों से होकर आए थे और भात के भूखे थे. उन्होंने बताया कि कैसे वे लोग खाते और सिर्फ खाते ही रहते थे. उन्होंने बताया कि उनकी उम्र के एक लड़के के घुटने पर रास्ते में भेड़िये ने काट लिया और ऐसे ही आगे बढ़ते हुए वह मर गया.

उस लड़के को मरते हुए देखने की घटना ने उन निर्णयों को प्रभावित किया जो उन्होंने अपनी जिंदगी में बाद में जाकर लिए. वह अपने पिता और चाचा-ताऊ की तरह कांग्रेस में शामिल नहीं हुए. इसके बजाय वह कम्युनिस्ट बन गए और दूसरी दुनिया बनाने के लिए उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना. फैक्ट्री में अपने काम के बारे में उन्होंने कहा, ''बस नौकरी करने के लिए नौकरी करता था. मेरा मन सामाजिक बदलाव लाने में लगा रहता था.''

कलकत्ता में सरकारी सहायता के लिए लाइन में लगीं औरतें. विलियम वांडिवेट / द लाइफ पिक्चर कलेक्शन / गैटी इमेजिस

हम उस पूरी दोपहर यूनियनों और फैक्ट्री के काम के खत्म होने और उस चीज के बारे में बात करते रहे जो उन्होंने अपने जीवन में नाकाम होते हुए देखीं थीं लेकिन फिर भी मेरा ध्यान इस यूनियन लीडर द्वारा बताई गई अकाल की कहानी पर ही अटका रहा. लेकिन मैंने फिर दोबारा ऐसी कहानियों के बारे में उस तरह नहीं पूछा जिस तरह फैक्ट्रियों, लेबर यूनियन या फिर बाद में हुए विभाजन या उसके बाद बने शरणार्थी शिविरों के बारे में पूछा. मैं एक शरणार्थी परिवार में पला-बढ़ा था और हम लोगों की चिंता के दायरे में विभाजन और उससे जुड़ी यादें ही होती थीं. साल 1943 के अकाल का 'हंग्री बंगाल' शीर्षक से नया इतिहास लिखने वाले जनम मुखर्जी ने तर्क दिया हैं कि विभाजन और विभाजन को अवश्यम्भावी बना देने वाले साल 1946 के कोलकाता दंगों को समझने के लिए साल 1943 के बंगाल या और स्पष्ट कहें तो सन 1942-46 के समय को समझना जरूरी है. मुखर्जी का कहना है कि ''बंगाल के अकाल को विशेष अध्ययन का विषय समझने के बजाय बीसवीं सदी के भारतीय इतिहास और यहां तक कि विश्व इतिहास के केंद्रीय तत्व के रूप में समझना चाहिए.''

लेकिन मैंने कभी इसे इस तरह से नहीं समझा. हमारा परिवार विभाजन के चलते पूर्वी बंगाल में अपना घर और जमीन खोकर कलकत्ता आ गया था और हम बहुत कठिन हालातों में किसी तरह बच पाए थे. कोलकाता में मेरे माता-पिता के दोस्तों और मेरे दोस्तों के माता-पिता, कमोबेश सभी का पारिवारिक इतिहास इसी तरह नुकसान, सदमे और पुर्ननिर्माण का था. हम लोग ऐसे परिवारों से ताल्लुक रखते थे जो ज्यादातर सवर्ण या ऊंची जातियों से थे. विभाजन से पहले भी इन परिवारों की पृष्ठभूमि मध्य या उच्च वर्ग की ही रही थी. तब ऐसे परिवारों के पास या तो पूर्वी कोलकाता में जमीनें थीं या ये नौकरीपेशा लोग थे. विभाजन के बाद सब कुछ छिन जाने से ये परिवार निराश्रित हो गए. विभाजन के चलते हुए विस्थापन से जमीन, शिक्षा, वर्ग और जाति भी इनको बचा नहीं सकी.

लेकिन साल 1943 के अकाल की कहानी एकदम अलग थी. मैंने अपनी दादी से भिखारियों के चावल का मांड़ मांगने के किस्से सुने थे. लेकिन मेरे परिवार से कोई भी बंगाल के अकाल में मरा नहीं था. ना ही मैं अपने दायरे में किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में जानता था जिसके रिश्तेदार अकाल में मरे हों. शायद इसी से यह पता चलता है कि क्यों कुछ कहानियां बयान की जाती हैं और कुछ को दरकिनार कर दिया जाता है.

जब मुझे गंगचिल पत्रिका का अकाल पर आधारित अंक मिला तब मैं दिल्ली में रह रहा था. मैं हाल में ही केरल से वापस आया था जहां मैं एक साल से भी ज्यादा वक्त से था और जहां मैं राज्य में बीसवीं सदी में आए सामाजिक रूपांतरण पर एक नई किताब पर काम कर रहा था. इस सिलसिले में मैं घूम-घूमकर इंटरव्यू कर रहा था. इस किताब के लिए मैं जिस तरह के सवालों पर विचार कर रहा था उसने मुझे पश्चिम बंगाल के इतिहास पर भी नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया था. मैंने अकाल से जुड़े 16 बयानों का अनुवाद करना शुरू किया और जब मैं जनवरी 2019 में कोलकाता गया तो मैंने सरकार को फोन किया. उन्होंने मुझे बताया, "मैं कल सुंदरबन जा रहा हूं. आप मेरे साथ ही क्यों नहीं चलते हैं?" और इस तरह हम एक बेहद सर्द सुबह सियालदाह स्टेशन पर सुबह पांच बजे मिले. ठंड के चलते स्कार्फ और ऊनी टोपियां पहने हुए हम बड़े से प्रस्थान बोर्ड के नीचे खड़े होकर लखीकांतपुर जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहे थे.

खाने की तलाश में देहात के भूखे लोग कलकत्ता चले गए. कई लोगों की रास्ते में ही मौत हो गई, या राहत रसोई के बाहर कतारों में इंतजार करते हुए. बेट्टमेन / गैटी इमेसिज

सरकार के बाल कड़े, लहरदार और धूसर थे जो उनके कानों तक आते थे. उनके चेहरे पर दाढ़ी थी और वे चश्मा लगाते थे. उनके बालों से ही उनके चेहरे को आकार मिलता था. वे बहुत हंसमुख थे और हमेशा उत्साह से लबरेज रहते थे. उनकी पीठ पर एक बैग लटका रहता था और उनका बीड़ी का बंडल हमेशा तैयार रहता था. इस तरह सरकार जिन्दगी की पाठशाला के स्थायी छात्र नजर आते थे. संपादक बनने से पहले सरकार एक सरकारी स्कूल में भौतिक विज्ञान के अध्यापक हुआ करते थे. उन्हें अपने विद्यार्थियों को ग्रामीण इलाकों में सैर कराने ले जाना अच्छा लगता था. उन्होंने बच्चों के लिए फुटबॉल टीम भी बनाई थी और वे उन्हें राज्य भर में आयोजित होने वाले टूर्नामेंटों में भी ले जाते थे. अपने इन अनुभवों के चलते उन्होंने पूरा बंगाल घूमा हुआ था और इसी वजह से राज्य भर में लोगों से उनके घनिष्ठ संबंध भी थे.

हम पहले ट्रेन से पश्चिम बंगाल के दक्षिणी छोर पर बसे दक्षिणी 24 परगना जिले के जयननगर स्टेशन पहुंचे. उसके बाद उस दोपहर हम ऑटो, मोटर वैन और नावों जैसे यातायात के अनेक साधनों का इस्तेमाल करते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचे. जिस-जिस जगह भी हम गए, लोगों ने सरकार का ''मास्टरमोशाय'' कहकर स्वागत किया. किसानों ने अपने-अपने घरों में हमारा स्वागत किया जिसमें से कई घर पक्के और कई कच्चे थे.

अहातों में मुर्गियां, बत्तखें और गायें थीं, चारों तरफ नारियल के पेड़ों के झुंड और धान के खेत थे. अगले कुछ दिनों के भीतर सरकार मुझे सुंदरबन के दूरदराज के इलाकों में ले गए जहां गंगा का डेल्टा बंगाल की खाड़ी और के-प्लॉट, एल-प्लॉट और जी-प्लॉट जैसे द्वीपों से मिलता है.

हालांकि जिन जगहों पर हम गए, वे कोलकाता से केवल आधे दिन की दूरी पर ही थीं लेकिन शहर में रहने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए ये धरती के खत्म होने की तरह था. ये ऐसे द्वीप थे जहां एक या दो साल पहले ही बिजली आई थी, जहां अब भी कारें नहीं थीं, जहां लोग अब भी साइकिल या मोटर गाड़ियों के फ्लैटबेड पर चलते हैं, जहां रातें अब भी जीबनानंद दास की कविताओं की तरह खूबसूरत हैं. इन जगहों पर जंगल हमेशा नदी के दूसरी तरफ होते हैं. बाघों के निशान केवल मुलायम मिट्टी पर ही नहीं बल्कि उन लोगों के शरीर पर भी देखे जा सकते थे जिन्होंने एक बार मौत का सामना किया था और जो ये कहानी बताने के लिए जिंदा बच गए थे.

अभी इन द्वीपों पर रहने वाले बहुत से लोग साल 1943 के अकाल के दौरान ही यहां आए थे या यहां अब उस दौरान आए लोगों के वंशज ही रहते हैं. इनमें से ज्यादातर लोग मूल रूप से हुगली नदी के पश्चिम में बसे मिदनापुर जिले के थे. जब वे लोग यहां आए तो इस द्वीप में बाघ और मगरमच्छ ही रहते थे. इन लोगों ने लटदारों और चकदारों के (यानी ऐसे जमींदार जिन्हें इन द्वीपों पर औपनिवेशिक काल में जमीनें दी गई थीं लेकिन जो रहते कहीं और थे) लिए जंगल साफ किए और धान उगाकर ये लोग यहीं बस गए.

के-प्लॉट में हमें बिजॉयकृष्ण त्रिपाठी से मिले. उनके वोटर आईडी कार्ड के अनुसार उनकी उम्र 112 साल थी. साल 1942 में अकाल की पूर्व संध्या पर पूर्वी मिदनापुर में एक सशस्त्र विद्रोह हुआ. थाने जला दिए गए, टेलीग्राफ लाइनें काट दी गईं और बहुत से इलाकों को स्थानीय ताम्रलिप्त जातिया सरकार द्वारा औपनिवेशिक शासन के नियंत्रण से मुक्त घोषित कर दिया गया. इसके साथ ही गार्ड,अदालत और जेल आदि भी स्थानीय सरकार के नियंत्रण में आने की घोषणा कर दी गई.

त्रिपाठी ने बताया कि उन्होंने इस विद्रोह में भाग लिया था. उन्होंने भगबानपुर थाने पर हमला करने और उसके बाद एक वेश्या की मदद से बचकर भागने की बात हमें बताई. उन्होंने मिदनापुर में दुर्गा पूजा के दौरान बाद में आए तूफ़ान की बात याद की. उन्होंने बताया कि कैसे तेज हवा और बारिश ने पेड़ों को जड़ों से उखाड़ दिया था, कच्चे घर, पालतू जानवर और लोग बह गए. जब खाने की कमी हुई तो वह यहां आकर रहने और एक स्थानीय चकदार के यहां उसकी जमीन की देखरेख करने का काम करने लगे. यहां कम से कम मछलियों से भरी नदियां तो थीं. मिदनापुर आपदा क्षेत्र बन चुका था.

ठीक उसी द्वीप पर सरकार ने मुझे मैगजीन में इंटरव्यू किए गए सोलह लोगों में से एक और व्यक्ति खोशेन शेख से मिलवाया. उन्हें पता चला कि वह 91 साल के हैं और अब भी अपनी जमीन पर काम करते हैं. उन्होंने मिदनापुर में बेहद गरीबी में बिताए गए अपने बचपन को याद किया. उन्होंने भी बाढ़ और तूफ़ान की बात याद की. उन्होंने कहा कि उस रात आसमान से एक आवाज आई थी. हवाएं जैसे जोर-जोर से विलाप कर रही थीं और ऐसा लगता था कि दुनिया खत्म हो रही है. सुंदरबन से वापस आकर मैंने अकाल देख चुके और भी लोगों से बात करने के लिए मिदनापुर और नादिया की यात्रा की. यह साफ हो गया था कि यहां भी अकाल ने लोगों के जीवन पर अलग-अलग ढंग से असर डाला था. कुछ परिवारों को इस विपत्ति से फायदा हुआ और कुछ परिवारों का जीवन पहले से भी अधिक दुरूह और अनिश्चित हो गया. उदाहरण के लिए प्रहलादचरण मैती ने सरकार को बताया कि कैसे उसके परिवार को इस अकाल से फायदा हुआ. उसने कहा, " चूंकि हमारे पास पैसा था, इसलिए हमनें उस समय बहुत से लोगों की जमीन बेहद सस्ते दामों पर ही खरीद ली. हमने चावल, दाल और थोड़े से पैसे देकर लोगों की जमीन लगभग मुफ्त ही हासिल कर ली."

पुलिन समंता उन लोगों में से एक थे जो अपनी जान बचाने के लिए भागकर सुंदरबन आ गए ​थे. उन्होंने सरकार को बताया, "हममें से जिन लोगों के पास जमीन या बेचने के लिए जो कुछ भी था, यहां से जाते वक्त सभी ने ही जो कुछ भी उनके पास था वह बेचकर थोड़ा सा चावल खरीद लिया. 'जो कुछ भी' से मेरा मतलब है कि कुछ लोगों ने अपने बच्चों तक को भी बेच दिया."

सरकार ने पहले ही इन जिलों में अकेले यात्रा करते हुए और अपने खर्चे से पचास से अधिक लोगों के इंटरव्यू कर लिए थे. ग्रामीण इलाकों में ऐसे लोगों से मिलना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था. लगभग हर वह व्यक्ति जिसकी उम्र 85 साल थी और जो अब भी बोल सकता था और साथ-साथ जिसकी याददाश्त अच्छी थी, अकाल का गवाह था.

1943 में ब्रिटिश वायसराय और गवर्नर-जनरल आर्चिबाल्ड पर्किवल वेवेल अकाल पीड़ितों के लिए बने रसोई घर के दौरे के बीच रोटरी क्लब रिलीफ कमेटी के अध्यक्ष जेके विश्वास के साथ बातचीत करते हुए. हॉल्टन-ड्यूश कलेक्शन / कॉर्बिस / गेटी इमेजिस

उधर कोलकाता में कोलकाता पुस्तक मेले में वापस कोलकाता में गंगचिल पत्रिका ने हार्डकवर में एक अंक प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था “अकाल के गवाह : साल 1943 के अकाल के 75 साल बाद की 50 गवा​हियां”. मैंने कुछ समय के लिए अपना केरल वाला काम अस्थायी रूप से रोक दिया और इन गवाहियों का अनुवाद करने की जरूरत शिद्दत से महसूस करने लगा. हमारी सामूहिक स्मृतियों में ये आवाजें मौजूद नहीं थीं. इस विचार ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया.

ऐसे बहुत से तरीके हैं जिनके जरिए एक राज्य अपने देश के इतिहास और उसके जीवन को आकार देने वाली घटनाओं के स्मारक बनाता है. दिल्ली में ठीक बीचों-बीच प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सैनिकों की स्मृति में इंडिया गेट बना हुआ है. इससे कुछ ही मीटर दूर आजादी के बाद अलग-अलग युद्धों में मारे गए भारतीय सैनिकों को समर्पित करते हुए हाल में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक बनाया गया है. अमृतसर में साल 1919 में हुए जलियांवाला नरसंहार की जगह, जहां ब्रिटिश सरकार ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलवाईं और जिसमें तीन सौ से एक हजार लोगों को जान चली गई, मौजूदा वक़्त में औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष का सबसे अच्छे ढंग से संरक्षित स्मारक है. कलकत्ता में भी आज़ादी के लिए अपना जीवन दे देने वाले लोगों को अलग-अलग तरह से याद किया जाता है. कलकत्ता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में कभी औकटेरोलोनी मॉन्युमेंट कहे जाने वाले और अब शहीद मीनार के नाम से चर्चित स्मारक की छाया में आजादी के आंदोलन में मरने वालों की स्मृति में आए दिन विशाल राजनीतिक रैलियां होती हैं. खुदीराम बोस और सूर्य सेन जैसे क्रांतिकारी शहीदों के नाम पर मेट्रो स्टेशनों के नाम रखे गए हैं. सुभाषचंद्र बोस को तो एयरपोर्ट से लेकर श्यामबाज़ार के फाइव पॉइन्ट क्रासिंग पर बनी एक मूर्ति तक जैसे सब जगह याद किया जाता है. हालांकि मेरी जानकारी में ऐसा कोई स्मारक नहीं है जो बंगाल अकाल में अपनी जान गंवाने वाले लोगों की स्मृति में बना हो.

बंगाल में साल 1943 के अकाल को पंचेसर अकाल यानी '50 के दशक का अकाल कहा जाता है क्योंकि बंगाली कैलेंडर के अनुसार ये साल 1350 में हुआ था. लेकिन बहुत से शिक्षित बंगाली जिनसे मैंने बात की, वे साल 1943 के इस अकाल को साल '76 का अकाल समझ रहे थे, जो बंगाली कैलेंडर के हिसाब से साल 1176 या ग्रेगोरियन कैलेंडर के हिसाब से साल 1770 यानी औपनिवेशिक शासन शुरू होने के ठीक बाद हुआ था. ब्रिटिश रिकॉर्डों के अनुसार, इस अकाल में भी कुल 30 मिलियन आबादी में से 10 मिलियन लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. शायद इस घटना के बहुत धुंधले से मिथकों के रूप में याद रह जाने की वजह यह भी है कि, अपने उपन्यास आनंद मठ में बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस अकाल के दौरान यानी साल 1770 में हुए असफल सन्यासी विद्रोह का जिक्र किया है. उपन्यास में बंकिम ने इस विद्रोह का आह्वान और चित्रण भारत माता को बचाने के लिए खड़े हुए एक शुद्ध-राष्ट्रवादी विद्रोह के रूप में किया है.

वास्तव में, राष्ट्र के नाम पर दी जाने वाली शहादत और नायकत्व से जुड़े काम ही हमें याद रहते हैं और हम उन्हीं स्मृतियों के स्मारक बनाते हैं. "तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा" की बात कहने वाले और फिर जापान के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज की स्थापना करते हुए और सिंगापुर से लेकर बर्मा से होते हुए पूर्वोत्तर भारत पर हमला करने की बात सोचने वाले सुभाष बोस हमें याद रहते हैं.

1942 में, ब्रिटिश उपनिवेश सिंगापुर और बर्मा दोनों को जापान ने ले लिया, जैसे कि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को ले लिया गया था. तब ऐसा माना जाने लगा था कि जापान कलकत्ता पर हमला कर देगा जो कई मायनों में ब्रिटेन की युद्ध गतिविधियों और तैयारियों का केंद्र था. माना जा रहा था कि बंगाल के जरिए जापान भारत के मुख्य भूभाग में भी प्रवेश कर जाएगा. बोस ने लगातार रेडियो से संदेश प्रसारित करते हुए ये वादा किया कि बंगाल लौटने पर वे बर्मा से अनाज उपलब्ध करवाएंगे. उस समय के कुछ कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि लोगों को बोस के मिदनापुर के स्वायत्त इलाके में जापानी नौ सेना के साथ हुगली नदी के किनारे तक उतरने की उम्मीद थी. ये चर्चा आम थी कि जापान की सेना के साथ मिलकर बोस कलकत्ता पर कब्जा करने लिए कूच करेंगे. उस समय ये बात उतनी विचित्र नहीं लगती थी जितनी आज लगती है. जैसा कि 'चर्चिल्स सीक्रेट वॉर' में मधुश्री मुखर्जी लिखती हैं, उस समय चटगांव से मिदनापुर तक फैले हुए गंगा के बड़े डेल्टा की रक्षा कर पाना लगभग असंभव था और ब्रिटिश शासन को बंगाल के किनारे पर सचमुच नौ सेना हमले की उम्मीद थी.

ब्रिटिश सरकार ने मिदनापुर समेत सभी तटीय इलाकों के लिए 'डिनायल पॉलिसी' लागू कर दी थी जिसके तहत एजेंट्स को गांवों में अतिरिक्त चावल जब्त करने के लिए भेजा गया ताकि जापानी सैनिकों के वहां उतरने की स्थिति में उन्हें खाना ना मिल सके. बंगाल के मुख्यमंत्री और कृषक प्रजा पार्टी के नेता फजलुल हक इस नीति के आलोचक थे और उन्होंने एक आसन्न अकाल की चेतावनी भी दी थी. हक़ ने सबके लिए दाल भात के नारे के साथ एक अभियान भी चलाया.

लेकिन तब तक कांग्रेस नेतृत्व को ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन देने से मना करने और भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करने के चलते जेल में डाल दिया गया था. मुखर्जी लिखते हैं कि लंदन में युद्धकाल की कैबिनेट और भारत में औपनिवेशिक सरकार को युद्ध के अलावा शायद ही किसी चीज की परवाह थी. इस सिलसिले में युद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का दिया गया वह मशहूर बयान बरबस ही याद आ जाता है जिसमें उन्होंने अकाल के लिए स्वयं भारतीयों को दोषी बताते हुए कहा था कि "वे (भारतीय) खरगोशों की तरह तेजी से बच्चे पैदा करते हैं."

मित्र राष्ट्रों के हजारों-हजार सैनिक कलकत्ता पहुंच रहे थे और उनके लिए खाने और कपड़े की जरूरत थी. फैक्ट्रियों, रेलवे और नागरिक सेवाओं समेत बंगाल के उद्योगों को युद्धकालीन मांगों को पूरा करने के लिए दोबारा से तैयार किया गया. औपनिवेशिक शासन ने ऐसी नीतियों को लागू किया जिसके बाद खाने की आपूर्ति को सैनिकों और शहरों और कस्बों में रहने वाले भारतीय सपोर्ट स्टॉफ की ओर मोड़ दिया गया और इन सबके बीच बंगाल के ग्रामीण इलाकों में भूख से मरने वालों की संख्या बढ़ती रही. असल में, और जैसा मुखर्जी भी लिखते हैं, ब्रिटिश सरकार ने केवल उन्हीं लोगों के लिए खाने की आपूर्ति की जो युद्ध के लिहाज से महत्वपूर्ण थे और वह बंगाल की उस बाकी आबादी की जरूरतों के प्रति उदासीन बनी रही जिसके 90 फीसदी लोग ग्रामीण इलाकों में रहते थे. मुखर्जी बताती हैं कि जब अकाल की त्रासदी अपने उफान पर थी तो चर्चिल ने ना सिर्फ बड़ी मात्रा में अनाज आयात करने से मना कर दिया बल्कि चावल को भारत से बाहर निर्यात किया गया. आधिकारिक स्रोतों के अनुसार, साल 1940 के दशक में बंगाल में कोई अकाल नहीं आया था. ब्रिटिश सरकार ने उसे कभी अकाल घोषित ही नहीं किया. क्योंकि अगर ऐसा किया जाता तो अकाल के हालातों को ध्यान में रखते हुए कुछ नियम बनाने पड़ते, उन्नीसवीं सदी के अंत के बाद अकाल जैसे हालातों में राहत पहुंचाने के लिए तय किए गए दिशा-निर्देश लागू करने पड़ते. लेकिन ब्रिटिश राज अपने कार्यकाल के दौरान यह मानता रहा कि उसकी नाक के नीचे लोगों का किसी भी तरह सामुहिक विनाश नहीं हो रहा है.

लेकिन अंत में कलकत्ता पर कुछेक बार जापानी जहाजों द्वारा की गई बमबारी के बावजूद पूरी तैयारी के साथ किसी भी तरह का हमला नहीं हुआ. साल 1943 तक जापान को ख़ुद अपने घर पर ही पराजय का सामना करना पड़ा और इस तरह भारत मे कभी किसी तरह का युद्ध नहीं छिड़ सका. इतिहास की किताबें बताती हैं कि यहां कोई लड़ाई नहीं हुई. यहां युद्ध का कोई भी नायक या शहीद नहीं था. बावजूद इसके, यहां लगभग 30 लाख लोग मर गए जैसे कि भारत में किसी न्यूट्रॉन बम से हमला किया गया हो. इन मृतकों के नाम किसी स्मारक में दर्ज नहीं हैं ना ही इनका जिक्र किसी आर्काइव में किया गया है. बंगाल का यह अकाल भगत सिंह की शहादत या जालियां वाला बाग नरसंहार की तरह हमारे सामूहिक इतिहास और राष्ट्रीय काल्पनिकता को झिंझोड़ नहीं पाता. लेकिन ये बीसवीं सदी के कुछ सबसे बड़े अपराधों में से एक है. इस अकाल में आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा खत्म हो गया जिसके गवाह लाखों-लाख लोग रहे. बंगाल में आए इस अकाल की कहानी का जिक्र किए बिना भारत की आज़ादी और दूसरे विश्व युद्ध के बारे में कुछ भी लिखना मुमकिन नहीं है.

जिस वक्त बंगाल में लोग भूख से मर रहे थे, ठीक उसी वक़्त यूरोप में एक बहुत बड़ी मानवीय विपदा करवट ले रही थी. दूसरे विश्व युद्ध में मारे गए कुल 1 करोड़ बीस लाख लोगों में से साठ लाख लोग मार्च 1942 से फरवरी 1943 के बीच मारे गए. यह लगभग वही अवधि थी जब बंगाल में अकाल पड़ा. यूरोप में मारे गए लोगों में से भी ज्यादातर लोग छोटे कस्बों और पोलैंड के गांवों के थे. इन गांवों में गरीब दस्तकार और मजदूर रहते थे. यूरोप के यहूदियों की बहुत बड़ी आबादी पोलैंड, बेलारूस और रूस में रहती थी और इसी जमीन को जर्मनी अपने लोगों को बसाने के लिए मांग रहा था. नाजी यहूदियों को तबाह करना चाहते थे क्योंकि उन्हें जरूरत से ज्यादा खाने वाला माना जाता था. स्वीडन के इतिहासकार स्वेन लुंडक्विस्ट अपनी किताब ''ऐक्सटर्मिनेट ऑल दि ब्रूटस'' में इस ओर ध्यान खींचते हैं.

इतिहासकार क्रिस्टोफर ब्राउनिंग अपनी किताब ''ऑर्डिनरी मैन'' में लिखते हैं कि जर्मनी में जो पुलिसवाले बहुत बूढ़े हो गए थे या सेना में काम करने के क़ाबिल नहीं रह गए थे, उनको बटालियन में इस काम के लिए भेज दिया गया. ब्राउनिंग ने अपनी किताब में पोलैंड में जर्मन पुलिस बटालियन के ऐसे ही एक आदमी के बारे में बताया है.

ज्यादातर अधेड़ उम्र के ये आदमी गांव-गांव गए और कुछ जगहों पर तो इन्होंने यहूदियों को गोली मार दी और कुछ जगहों पर उन्हें बंधक बनाकर और मवेशियों की गाड़ी में बैठाकर प्रताड़ना शिविरों में ले गए, जहां उन्हें मार डाला गया.

कलकत्ता के घाटों में ले जाने के लिए लाशें जमा करने वाले स्वीपर. विलियम वांडिवेट / द लाइफ पिक्चर कलेक्शन / गैटी इमेजिस

बंगाल में कुछ इस तरह के विवरण भी मौजूद हैं जब पुलिस सरकारी गोदामों के लिए लोगों के घरों से चावल जब्त कर ले गई. कुछ जगहों पर कोई भी चावल लेने नहीं आया. चावल का दाम लगभग आठ और दस गुना बढ़ा और तब तक बढ़ता रहा जब तक गांवों के बाजारों में चावल पूरी तरह खत्म नहीं हो गया. जिस चावल को सरकार जब्त नहीं कर पाई थी, उसे कारोबारियों और कालाबाजारी करने वालों को बेच दिया गया. इस तरह चावल तो जैसे ग़ायब हो गया. यह बाजार के अदृश्य हाथ के पास ही चला गया था. और इस तरह बड़ी संख्या में लोगों को बग़ैर कोई खोज-ख़बर लगे मरने के लिए छोड़ दिया गया.

हालांकि इसके उलट बंगाल अकाल के पीड़ितों को गोली मारे जाने या जहरीली गैस से मारने की जरूरत नहीं थी. ये घटनाएं उन्नीसवीं सदी के अंत में पड़े अकालों से काफ़ी ज्यादा मिलती-जुलती हैं. उस समय भी बाज़ार की ताकतों के चलते भारत के ग्रामीण इलाकों में अनाज खत्म हो गया था जिसके बाद लगभग एक करोड़ बीस लाख से दो करोड़ नब्बे लाख लोग मर गए थे. उस समय भी उदासीन ब्रिटिश सरकार ने पर्याप्त सहायता मुहैया नहीं करवाई और अकाल का कारण प्राकृतिक और देश की जरूरत से ज्यादा बढ़ी आबादी को बताया था. अपनी बहुचर्चित किताब ''लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट'' में इतिहासकार माइक डेविस ने अकाल के दौरान होने वाली इन मौतों की तुलना नाजी शिविरों और हिरोशिमा, नागासाकी और ड्रेसडेन में बड़े पैमाने पर हुई हत्याओं से की है. डेविस लिखते हैं, "औपनिवेशिक काल में आए इन अकालों में भूख से मर रहे लोगों के प्रति साम्राज्यवादी नीति नैतिक रूप से 18,000 फुट की ऊंचाई से गिराए गए बमों के कृत्य के समान ही थी." साल 1943 के अकाल के कुछ शुरुआती अध्ययनों में से एक पॉवर्टी एंड फेमाइंस में अमर्त्य सेन ने लिखा है कि यह "अकालों के उत्कर्ष" का दौर था. वे लिखते हैं कि हर व्यक्ति को खिलाने के लिए चावल तो काफ़ी था लेकिन बहुत कम लोगों के पास इस चावल को खरीदने का पैसा था. सेन आगे लिखते हैं कि दिसंबर 1943 में जब मौतों की संख्या में उछाल आया तो उस साल बंगाल के हालिया इतिहास में सबसे ज्यादा चावल की पैदावार हुई थी. सेन ने भी शांतिनिकेतन में बच्चे के रूप में अकाल को अपनी आंखों से देखा था. सेन लिखते हैं, "भुखमरी का लक्षण यह होता है कि कुछ लोगों के पास खाने के लिए पर्याप्त खाना नहीं है. भुखमरी का लक्षण यह नहीं होता कि खाने के लिए पर्याप्त खाना ही न हो.''

साल 1942 के चक्रवात में अनुमानों के अनुसार पंद्रह हज़ार लोग मरे. इसके चलते मिदनापुर तबाह हो गया और हमारे गवाह भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि बाढ़, सूखे और फसलों के नष्ट हो जाने का असर पूरे बंगाल पर पड़ा. लेकिन जैसा सेन लिखते हैं कि ये सब अकाल का मुख्य कारण नहीं था. मिट्टी के नमूनों का विश्लेषण कर कृषि सूखे से जुड़े रिकॉर्डों को फिर से तैयार करने वाली संस्था जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स के हालिया अध्ययन ने भी इस बात की पुष्टि की है. इसका निष्कर्ष है कि बंगाल का अकाल भारतीय उपमहाद्वीप में पड़े अकालों में से एक मात्र ऐसा अकाल था जिसका कारण सीधे तौर पर मिट्टी में नमी की कमी या फसलों का नष्ट होना नहीं था. यह निष्कर्ष ऐसे किसी भी दावे को खारिज करता है जो अकाल की वजह सूखे या अन्य किसी प्राकृतिक कारण को मानता है.

वास्तव में इसका संबंध उस वक़्त की राजनीतिक अर्थव्यवस्था से है. भारत में सांख्यिकी के पितामह कहे जाने वाले पीसी महालनोबिस की ओर से 1944 में किए गए सैम्पल सर्वे का निष्कर्ष था कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले साढ़े पांच करोड़ लोगों में से केवल 33 लाख या 5 फीसदी लोग ही गैर-उपजाऊ जमीन के मालिक थे. इसका मतलब है कि उनके पास काफी जमीनें थीं जिस पर वे खुद खेती नहीं करते थे. बाकी बचे हुए जमींदारों के पास ठेका श्रमिक या भूमि पट्टे पर लेकर बंटाईदार की तरह काम करते थे. कुछ के पास पांच बीघा या उससे कम की जमीन होती थी जिस पर वे ख़ुद खेती करते थे. लगभग 15 लाख लोग गांवों में दस्तकार की तरह या मछुआरे और नाव चलाने का काम करते थे. इनमें से ज्यादातर लोगों के परिवार इतना चावल नहीं उगा पाते थे कि पूरे साल उनका काम चल जाए. वे जमींदारों से अपने श्रम के बदले चावल लेते थे या अपने कमाए पैसों से चावल खरीदते थे.

जब एक के बाद एक अकाल पड़ा तो अधिकांश बंगाली बहुत हताश और बेचैन हो गए. जिनके पास कुछ अतिरिक्त जमीन थी, उन्होंने उसे बेचकर या गिरवी रखकर चावल खरीद लिया. सर्वे के अनुसार, साल 1943 और 1944 के बीच लगभग एक चौथाई छोटे किसानों ने अपनी जमीन या तो बेच दी या गिरवी रख दी जो क्षेत्रफल के हिसाब से सात सौ हज़ार एकड़ थी.

ज्यादातर जमीन को बाहरी लोगों यानी शहर के उन लोगों ने खरीदा जिनके पास नकद पैसा था. महालनोबिस लिखते हैं, "इस तरह कुछ गिने चुने परिवार बेहद अमीर हो गए और बड़ी संख्या में परिवार गरीब और बेसहारा हो गए. इस तरह 1943 का अकाल बाढ़ या भूकंप की तरह की कोई दुर्घटना नहीं थी बल्कि सामान्य स्थितियों में हो रहे आर्थिक बदलावों का मिला-जुला नतीजा था."

उन्नीसवीं सदी में फ़्रांसीसी लोगों के पास अफ्रीका के अपने भू भागों के एक वर्गीकरण प्रक्रिया थी. वे कुछ भू भागों को उपयोगी और कुछ को अनुपयोगी या बेकार के रूप में वर्गीकृत कर देते थे. ठीक इसी तरह युद्ध के दौरान बंगाल के शहरों और कस्बों को बख्श दिया गया क्योंकि वे युद्ध के लिहाज़ से उपयोगी थे. कारोबारियों और उद्योगपतियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई. अधिकांश सरकारी कर्मचारियों को राशन मिला और उन पर अकाल का कोई असर नहीं पड़ा. नियमित वेतन पाने वाले लोगों ने बढ़ी कीमतों पर भी चीजों को खरीदकर अपना काम चला लिया. जनम मुकर्जी की किताब हंग्री बंगाल बताती है कि कैसे बड़ी संख्या में राजनीतिक एलीटों ने अकाल का राजनीतिकरण या सांप्रदयिकरण कर लाभ उठाया.

शहरों में चावल को जब्त या इकट्ठा करने से लेकर उसको बांटने तक के खेल में कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के समर्थक सब मिले हुए थे. साल 1943 तक ब्रिटिश शासन ने हक़ प्रशासन की सरकार गिराकर मुस्लिम लीग के नेतृत्व में ढुलमुल सरकार बना दी थी. भारत के किसी भी राज्य के मुकाबले बंगाल में मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा थी. ज्यादातर मुसलमान किसान और छोटे दस्तकार थे. लेकिन मुस्लिम लीग मोटे तौर पर मुस्लिम जमींदारों और उस समय उभर रहे छोटे से व्यवसायी और व्यापारी वर्ग की पार्टी थी. सूती और अनाज के व्यापार पर कांग्रेस का समर्थन करने वाले मारवाड़ी हिंदू और जैन व्यापारियों का कब्जा था. इसके अलावा गावों में रहने वाले जमींदार और शहरों के नौकरीपेशा लोग ज्यादातर सवर्ण बंगाली हिंदू थे जो कांग्रेस का समर्थन करते थे.

गस्त 1943 में, द स्टेट्समैन ने युद्धकालीन सेंसर की उस वक्त अवहेलना की जब उसके ब्रिटिश संपादक इयान स्टीफेंस ने कलकत्ता के फुटपाथों पर बिखरे पड़े क्षत-विक्षत लाशों के ढेरों के फोटो प्रकाशित किए. उन तस्वीरों से "1943 का बंगाल का अकाल" शब्द उभरा. फोटो साभार : जनम मुखर्जी

इन्हीं समूहों को युद्धकाल में होने वाली उछाल का लाभ मिला. इन्हीं समूहों को निकट भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य के खत्म होने के बाद लाभ मिलने की उम्मीद थी. मुस्लिम लीग के सत्ता में रहने जे दौरान लोगों को राज्य के एजेंटों पर भरोसा नहीं था. राज्य द्वारा इकट्ठा किए गए अनाज की कालाबाज़ारी, उसके गायब हो जाने और भंडार में अनाज के पड़े-पड़े सड़ने और सरकारी एजेंटों द्वारा अनाज को नदी में फेंक देने से जुड़ी बहुत सी ख़बरें थीं. लीग के विरोधियों ने आरोप लगाया कि ये मुस्लिम व्यापारियों और खासकर मुहम्मद अली जिन्ना के करीबी समझे जाने वाले मिर्ज़ा अहमद इसपहानी का पक्ष ले रही है. अकेले इसपहानी ही सरकार के लिए चावल की ख़रीद का काम करता था. मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार ने बदले में अनाज के व्यापार पर नियंत्रण रखने और कांग्रेस का समर्थन करने वाले मारवाड़ी व्यापारियों पर अनाज की जमाखोरी का आरोप लगाया. प्राइवेट और सरकारी एजेंसियों की ओर से दी जाने वाली राहत के मामले में भी दोषारोपण का यह सिलसिला चलता रहा. कांग्रेस नेतृत्व के जेल में रहते हुए हिंदू महासभा "हिंदू अधिकारों" की मुखर प्रतिनिधि बन गई. उसने मुस्लिम लीग की सरकार पर खाने के वितरण के मामले मुसलमानों के पक्ष में काम करने का आरोप लगाया. लीग के नेताओं ने आरोप लगाया कि "हिन्दू" राहत एजेंसियां केवल हिंदू समुदाय को ही राहत मुहैया करा रही हैं. बंगाल में हिंदू और मुसलमानों के लिए दो पृथक मतदाता मंडल थे और वह धीरे-धीरे राजनीतिक हिंसा, साम्प्रदायिक दंगों और विभाजन की ओर बढ़ रहा था. जैसा कि जनम मुकर्जी लिखती हैं, साल 1943 से 1946 के बीच "हिंदुस्तान-पाकिस्तान" की व्यापक राजनीति का मैदान अकाल ही बना. इसी से यह तय होना था कि ब्रिटिश शासन के जाने के बाद सत्ता और उससे जुड़े फायदों पर किसका हक होगा. वह आगे बताती हैं, "कुछ प्रभावशाली लोगों की किस्मत दूसरे विश्व युद्ध के समय (और अकाल की कीमत पर) बदल गई थी और इसने आजादी के लिए कुछ मुट्ठी भर शक्तिशाली पूंजीवादियों की ओर से की जाने वाली सौदेबाजी के प्रभाव को और मजबूत कर दिया था. इसके अलावा अगर और क़रीब से देखें तो बंगाल के अकाल की एक पहचान स्थानीय स्तर पर घूसखोरी का एकाएक तेजी से बढ़ना भी थी. बंगाल को तबाह और बर्बाद करने में जितनी बड़ी भूमिका नस्लीय और सांस्कृतिक श्रेष्ठता बोध की औपनिवेशिक मान्यता ने निभाई, उतनी ही बड़ी भूमिका मुनाफे की लूट ने भी निभाई.

गहन आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के इस वक़्त में ग्रामीण इलाकों में बिना किसी जमीन, नकद या अपने खाने के लिए धान जमा नहीं कर पाने वाले लोग सबसे ज्यादा असुरक्षित थे. उनके लिए सरकार की ओर से बंटने वाला खाना, चावल की पकी हुई खिचड़ी और गेंहू के उबले दाने थे. ये सब भी उन्हें शायद ही मिल पाता था. वर्ना उनकी किस्मत में खुली सड़कें थीं जहां वे मीलों तक खाने के लिए कुछ मांगते हुए पैदल चलते रहते थे.

ये सारे तथ्य उस समय भी सार्वजनिक दायरे में थे. अगस्त 1943 में तब भारत के सबसे ज्यादा बिकने वाले अख़बार दि स्टेट्समैन, जहां मैंने बाद में रिपोर्टर की तरह काम किया, ने युद्धकाल के लगी बंदिशों को अनदेखा किया और ब्रिटिश मूल के उसके संपादक इयान स्टीफेंस कलकत्ता के फुटपाथ पर बेहद कमजोर पड़ गई लाशों के ढेर वाली एक तस्वीर प्रकाशित की. ये वे लोग थे जो शहर की ओर कुछ खाने के लिए मांगते हुए आए थे और इन्होंने गलियों में ही दम तोड़ दिया था.

दि स्टेट्समैन ने राहत मुहैया कराने में नाकाम रहने के कारण औपनिवेशिक सरकार की कड़ी आलोचना की और लगातार कमियों के कृत्रिम चरित्र को उजागर किया. अफवाहों, आरोपों और सरकार की ओर से सामूहिक मौतों की बात बार-बार नकारने के बावजूद कम से कम दि स्टेट्समैन में अकाल की घटना को तथ्य के रूप में प्रकाशित किया गया.

दि स्टेट्समैन में प्रकाशित तस्वीरों से ही "साल 1943 का बंगाल अकाल" वाक्य सामने आया.

2.

इसकी शुरुआत एक प्राकृतिक तबाही से हुई जिसे शेख़ दुनिया के अंत की तरह याद करते हैं. शायद कोई भी जिला उतना बुरी तरह प्रभावित नहीं हुआ था जितना मिदनापुर. मधुश्री मुकर्जी लिखती हैं कि मिदनापुर में हर कोई अकाल की शुरुआत की तारीख़ इस चक्रवात के आने का दिन यानी 16 अक्टूबर 1942 को ही मानता है. इस चक्रवात के बाद बहुत से लोग पैदल ही मिदनापुर शहर, हावड़ा या कलकत्ता चले गए. सरकार के साक्ष्यों के अनुसार, बहुत से लोग बीच रात में नावों से सुंदरबन चले गए. दुनिया के इस सबसे बड़े डेल्टा के खारे मुहाने पर, एक ऐसी जगह जहां गंगा बंगाल की खाड़ी में गिरती है और जहां सभ्यता और सुनसान बीहड़ के बीचों-बीच बने किनारे पर इन लोगों को आश्रय मिला और इन्होंने एक बेहद संकटपूर्ण जीवन जिया.

मिदनापुर एक आपदा क्षेत्र बन गया था. कई लोग अंधेरे की आड़ में नाव के जरिए भाग गए, और पूरी रात हुगली नदी के किनारे नार खेते हुए शरणार्थियों के ठिकानों की तलाश करते रहे, इसमें सुंदरबन भी शामिल है.

मई 2019 में मिदनापुर के युवा बंगाली फोटोग्राफर सौम्या सरकार बोस और मैं सुंदरबन के दक्षिणपश्चिम सीमांत में बसे द्वीप मैपीठ गए. कुछ-कुछ काली की जीभ की तरह के आकार का और बंगाल की खाड़ी की ओर ढलाव लिए हुए मैपीठ अब तक थोड़ा निर्जन और सुनसान ही है. वहां पहुंचने के लिए हमने K प्लॉट से नाव ली. K प्लॉट के बामुनघाट जाने वाली यात्री नाव का एक चाय की दुकान पर इंतज़ार करते हुए खोसेन शेख ने हमें बताया, मैंने इतिहास देखा है. वह मिदनापुर में बिताए गए अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बहुत भावुक हो रहा था. उसने पूछा, क्या आप मतंगिनी हाज़रा के बारे में जानते हैं जिसे तमलुक पुलिस स्टेशन पर हमला करने के वक़्त गोली मार दी गई थी? हाज़रा साल 1942 के विद्रोह में मारे गए शहीदों में से एक थी. गांधी बूढ़ी के नाम से विख्यात हाज़रा की औपनिवेशिक शासन के दमन के खिलाफ संघर्ष की कहानी बंगाल का बच्चा-बच्चा जानता है. जिस जगह ये घटना हुई थी आज वहां हाज़रा की मूर्ति है. शेख ने इसी तरह का हमला भगबानपुर में भी होते हुए देखा था, जहां वह रहा करता था.

इसके बाद ही शेख़ ने मिदनापुर से सुंदरबन की यात्रा की. जब अकाल पड़ा तो वह K प्लॉट में था. उसने बताया, यहां बहुत सारे लोग मिदनापुर और बाहर से आए थे. कमीज़ औऱ पैंट पहने हुए और पास ही बैठा मेरी ही उम्र का एक लड़का उसकी बातें सुनने के लिए पास आ गया. उसने जानबूझकर कहा, 76' का अकाल. मैंने कहा, दादा, ये 1350 के अकाल की बात कर रहे हैं जो इन्होंने ख़ुद देखा और जो ठीक यहां पड़ा था. शेख बोलता रहा, यहां कोई नहीं मरा था. बहुत से लोग जो बाहरी जगहों से आए थे, दूसरे द्वीपों पर चले गए. उन्होंने बामुनघाट से नाव ली और वे L प्लॉट और I प्लॉट और मैपीठ चले गए. हाल के वक़्त तक भी यहां K प्लॉट और मैपीठ के बीच सीधी नाव नहीं मिलती थी. यहां की स्थानीय और मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी मधु माझी ने एक सीधी नाव चलवाई थी. माझी के शरीर की बनावट बैल की तरह है और उसे ज्यादातर लोग कोहनी और कलाई पर बाघ के काटे हुए निशानों के लिए जानते हैं. घाट पर एक नाव वाले ने हमें बताया, वह साल 2002 में ख़ास ख़बर था. उसका इशारा दूरदर्शन के मशहूर न्यूज़ शो पर आए एक कार्यलर की ओर था. माझी ने अपने निशान दिखाए.

हमारे खुले मुहाने में उतरते ही नाव ने हवा में किसी गुब्बारे की तरह हिचकोले खाने शुरू कर दिये. यह दोपहर के बाद आने वाला ज्वारभाटा था. हमारे चारों तरफ़ द्वीप ही द्वीप थे, एक ओर आबादी वाले इलाके थे तो दूसरी ओर सुंदरबन के बाघ अभ्यारण्य थे. मैं बंकिमचंद्र के उपन्यास कपालकुंडला के बारे में सोच रहा था जिसमें मिदनापुर का एक युवा जमींदार रासुलपुर से एक नाव लेकर हुगली नदी में उतरता है और नदी की लहरें उसे किनारे पर फेंक देती हैं. उसकी नाव डूब जाती है और वह किसी तरह बच जाता है. अकाल के इन साक्षियों ने अपनी आंखों देखी कहानी में खतरों से भरी यात्रा, नदी के बीचों बीच मिलने वाले समुद्री लुटेरों, घोर रात्रि में उफ़ान मार रहे समुद्र के बीच नाव से यात्रा करने और समुद्र की लहरों के थपेड़ों के कारण बाहर फेंक दिए जाने से बचने के लिए नाव के बीच में रस्सी पकड़कर यात्रा करने से जुड़ी बातें बताईं. मांझी की नाव में मोटर थी लेकिन मैंने बिना मोटर के इस नाव में दो दिन और ख़ासकर रात बिताने की कल्पना की. ऐसी स्थिति में आपका जीवन समुद्री हवाओं और लुटेरों की मेहरबानी पर ही निर्भर करेगा. हमारी यात्रा बामुश्किल दिन की रोशनी में आधे घंटे की ही थी लेकिन जब हम मैपीठ में उतरे तो नाव में सवार कई स्थानीय लोगों ने कसम खाई कि वे आगे से कभी मधु माझी के साथ यात्रा नहीं करेंगे.

कई साल पहले तक जरेश्वर दुआरी एक मछुआरे थे. उन्होंने एक ऑटोरिक्शा ख़रीदा था. उनके अनुसार यह इस इलाके का पहला ऑटोरिक्शा था. वह साल 1940 के दशक में आई बाढ़ और अकाल के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे लेकिन उन्होंने एलिया चक्रवात के कारण साल 1978 और फिर साल 2009 में इस द्वीप पर आई बाढ़ को देखा था. हालांकि दुआरी का परिवार मिदनापुर से था और उसे अपने पिता के यहां भूख से परेशान होकर आने की बात याद थी. मैंने सुझाव दिया कि हमें उससे बात करनी चाहिए. लेकिन उसके पिता चालीस साल पहले ही गुज़र गए थे. तब उसने बताया, एक आदमी है जिससे आप बात कर सकते हैं. उनके कहने पर हम गांव के किनारे एक कच्चे घर पहुंचे. यहां चारों तरफ मिट्टी से बने कच्चे घर ही थे. बरामदे में परमेश्वर जना अपने बिस्तर पर लेटे थे. जब किसी ने उसे बताया कि हम आए हैं तो वह अपने बिस्तर से उठा. दुबले-पतले लेकिन मजबूत और खुले सीने वाले जना का जन्म साल 1925 या बंगाली कैलेंडर के हिसाब से 1332 में हुआ था और इस तरह वे 94 साल के थे. जब मैंने 1332 की बाढ़ का जिक्र किया तो उनके जेहन में चक्रवात की उस रात की यादें ताज़ा हो गईं. यह दुर्गा पूजा के दौरान आश्विन का महीना था. वे और उनके भाई मिदनापुर जिले के पास कोंटाई गांव में अपनी दादी के साथ रह रहे थे. उन्हें याद है कि कैसे उनके कच्चे घर की दीवारें हिलने लगी थीं. हवाएं सुबह से चलना शुरू हुयीं थीं और दिन भर चलने के बाद रात को बहुत तेज हो गयीं. तब लगभग मध्य रात्रि में, तीन बार आवाज़ आयी, पलिये जा, पलिये जा, पलिये जा-यानी भाग जाओ, भाग जाओ, भाग जाओ. जना ने बताया, बहुत से लोगों ने इसे भैरवी देवी की आवाज़ कहा. इसके बाद हवाएं रुक गयीं. अगले दिन वे उठे और उन्होंने देखा कि सड़कों पर चारों तरफ पेड़ गिरे हुए हैं. जना ने कहा, कोई भी सड़कों को पार करके ये देख नहीं सकता था कि कौन ज़िंदा है और कौन मर गया. हम बाहर आए और हमने देखा कि पूरा गांव शमशान बन गया है. सड़कों पर पानी भर गया था. मछली के तालाबों से निकलकर हर तरफ़ मछलियां फ़ैली हुई थीं. बाढ़ ने उनकी पांच बीघा जमीन को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था और उनके परिवार को राहत सामग्री से मिलने वाले खाने से गुजर-बसर करना पड़ रहा था. लेकिन जना ने केवल उन सालों की त्रासदी को ही याद नहीं किया, वह साथ-साथ अपने बचपन को भी याद कर रहा था. वह याद कर रहा था कि कैसे नदियों में जब पानी ज्यादा हो जाता था तो वह गांव के तालाबों को भर देता था. उसे मछली पकड़ना बहुत अच्छा लगता था. मैं अपना जाल लेकर जाता था और तालाब के किनारे बैठकर बड़ी मछली पकड़ता था. और उसके बाद इसे अपनी दादी के पास ले जाकर पकाने के लिए कहता था. मछलियां इतनी ज्यादा होती थीं कि कई बार पानी के सूखने के बाद वे मर जाती थीं. हम सारी मछलियों को पकड़कर खा नहीं पाते थे. पानी तकरीबन पंद्रह दिनों तक रहता था.

जना के पिता काशीनाथ उस समय मैपीठ में ही रहते थे. जमीन के अभाव और ग़रीबी के कारण उसके पिता और उनके भाई सभी ने मिदनापुर छोड़ दिया था. उसके पिता ने उन्हें ले जाने के लिए नाव से कोंटई तक की लंबी जलयात्रा की थी. जना ने याद करते हुए बताया कि उसके पिता को यहां पहुंचने में कुछ दिन लग गए थे. जब मेरे पिता यहां नदी के पास पहुंचे तो लाशों के ढेर लगे हुए थे. काशीनाथ ने एक रुमाल लिया, उस पर खुशबू वाला तेल लगाकर अपने मुंह के चारों तरफ बांध लिया और लाशों को पार करके आगे बढ़े. उन्होंने जना को बताया कि लाशों से आ रही बदबू को सहन करना बहुत मुश्किल था. हालांकि काशीनाथ अपनी मां को वह जगह छोड़ने के लिए मजबूर नहीं कर सके. उन्होंने अपनी मां को समझाने की कोशिश की कि मैपीठ में हालात थोड़े बेहतर हैं लेकिन वह तैयार नहीं हुई.

वह वहां रुके रहने के निर्णय पर अड़ी रही, वह अपने ससुराल को छोड़ना नहीं चाहती थी. इसलिए मेरे पिता ने अपने दोनों बेटों को अपने साथ ले लिया. रास्ते में जना ने नदी के रेतीली किनारों पर लाशों का ढेर देखा. उसने बताया कि पुलिस लोगों को सड़कों पर ढूंढते हुए आती थी और लाशों को हटाकर रास्ता साफ कर देती थी. मैंने पूछा कि क्या लोगों को लूटा भी गया? जना ने इसके जवाब में कहा, लोग ख़ुद ही लाशों के ढेर में तब्दील हो गए थे. इसलिये लूटने के लिए बचा कौन था? उसने हालांकि ये भी बताया कि कई औरतों की लाशें नदियों में तैरती हुई मिलीं. कभी-कभी हमनें ये जरूर सुना कि उनकी लाशों से आभूषण चुरा लिए गए.

परमेश्वर जाना ने याद किया कि कैसे 1942 के चक्रवात और बाढ़ ने कोंताई, मिदनापुर में उनके परिवार की पांच बीघा जमीन को नष्ट कर दिया था.

वे उस रात ही नाव लेकर काकद्वीप पहुंचे और फ़िर नाव बदलकर मैपीठ आ गए. काशीनाथ और उनके सभी भाइयों ने अकाल पड़ने से पहले ही मिदनापुर छोड़ दिया था. मैपीठ पहुंचने पर अधिकांश भू-भाग निर्जन था और यहां खेती नहीं होती थी. यहां तक कि जमींदार भी यहां कभी-कभार ही आते थे. इसके बज़ाय उन्होंने जमीन और श्रम के देख-रेख की ज़िम्मेदारी काशीनाथ जैसे लोगों को दे दी. जना ने बताया, मेरे पिता मालिक के लिए बिचारक की तरह थे, इसका मतलब था कि वे एक तरह से मजिस्ट्रेट थे, उनके पास एक बेंत था. अगर कोई चोर चावल चुराकर नहर के आस-पास छिपाने की कोशिश करता था तो मेरे पिता उसे बेंत से मारते थे. उसके पिता द्वारा चावल चुराने वाले लोगों को बेंत से मारने की बात को जना ने बहुत गर्व से याद किया. मैपीठ में उनका परिवार काफी समृद्ध हुआ और उसके पास 100 बीघा ज़मीन थी. परमेश्वर अपने पिता के पांच पुत्रों में सबसे बड़ा था. उसने पढ़ना छोड़कर खेती करना शुरू कर दिया. उसके पास इस समय 18 बीघा जमीन है. उसके पांच लड़के और चार लड़कियां हैं. मैं उसके तीसरे बेटे तपस से मिला जिसने कोंटई में एक कॉलेज से कॉमर्स की पढ़ाई की है. उसकी एक किताबों की दुकान, स्टेशनरी की दुकान और गन्ने का जूस निकालने की मशीन है. दूसरे लड़के की बाज़ार में पान की दुकान है. बाज़ार के किनारे की ज्यादातर जमीन भी जनस की ही है. उसने बताया कि उसका चौथा लड़का पूरी तरह खेती ही करता है. कमल की लुंगी के ऊपर उसका बड़ा पेट दिखाई पड़ता है. उसने मुझे बताया, हम खाने के लिए सभी कुछ जैसे आम, चीकू, और मछली उगाते हैं. इसके अलावा गन्ने और चावल को बेच देते हैं. जब मैंने चारों तरफ देखा तो मुझे एक भरापूरा परिवार दिखा: पोते-पोतियां, फल, सब्जी और जमीन एवं कारोबार वाला एक परिवार. कमल ने बताया कि उसका परिवार की यह अच्छी आर्थिक स्थिति तुलनात्मक रूप से नई है. अभी हमारे पास किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है. लेकिन अपने बचपन में हम बांगलादेश से आया हुआ चावल खाते थे. तब मुजीबुर्रहमान वहां के प्रधानमंत्री थे. झारेश्वर दुआरी कमल की ही उम्र का था. वह याद करता है कि उसे अपनी युवावस्था तक भी राहत सामग्री में मिलने वाला चावल खाना पड़ता था. वास्तव में, इस इलाक़े को चारों ओर से देखकर ये भूलना आसान लगता है कि इसका हालिया इतिहास भूख और अभाव का इतिहास रहा है.

पोते-पोतियां हमारे चारों ओर इकट्ठे होकर अपनी ड्राइंग बुक्स दिखाने लगे. बाग के चीकू और आम हमें प्लेट में परोसे गए. दुआरी ने खाने से मना कर दिया. उसने कहा, मुझे हाई ब्लड शुगर है. इसके बाद परमेश्वर का एक भाई भी वहां खेतों से लौटते समय आ गया. उसकी उम्र अस्सी साल के आस-पास थी लेकिन उसे अकाल के बारे में कुछ भी याद नहीं था. कमल ने कहा, उसे काम के अलावा कुछ नहीं आता. उसके दोनों भाइयों ने कमीज़ नहीं पहनी थी लेकिन उनके शरीर मज़बूत और गठीले थे, उनकी बाहें उनकी रस्सियों की तरह ही कसी हुई थीं. इन दोनों पीढ़ियों के डील-दौल और शरीरिक गठन का अंतर अपने आप में अध्ययन का विषय था. उम्र में कम पुरुषों की हड्डियों पर अच्छा-खासा मांस चढ़ा हुआ था.

मिदनापुर के गांवों में, अधिकारी मवेशियों, बकरियों और इंसानों के बिखरे हुई कंकालों को इकट्ठा किया और उनका एक साथ ढेर लगा देते. कभी-कभी दो मंजीला इमारातों तक ऊंचे ये ढेर, बंगाल के अकाल के अनायास ही बने स्मारक थे.

जिस जगह पर शेख़ अब्दुल जब्बार रहते हैं, उस जगह को बहुत वक़्त पहले हुई एक घटना के चलते हात्मारा यानी पंजा मारना कहा जाता है. इस घटना के अनुसार, बाघ यहां एक आदमी को झपट्टा मारकर उठा ले गया था और उसके बाद वह आदमी कभी दिखाई नहीं दिया. यह इलाका मैपीठ के पूर्वोत्तर छोर पर बने नागेनबाद में आता है. नदी के चारों तरफ जंगल है जहां इंसानों के जाने पर पाबंदी है. साल 2009 में आए चक्रवात एलिया के बाद नागेनबाद में नदी के तटबंध टूट गए और उसके बाद पानी यहां के खेतों और घरों में घुस गया. पिछली बार आई बाढ़ में यह इस द्वीप का सबसे बुरी तरह प्रभावित हिस्सा था. जैसे ही हम पानी के किनारे के साथ-साथ नागेनबाद की ओर बढ़े, एक आदमी हमारे पास से कुछ केकड़े लेकर गुज़रा. हमनें देखा कि केकड़े के पंजे बहुत सावधानी से संदेश के डिब्बों की तरह रस्सियों से बंधे हुए थे. हमनें देखा कि एक पति-पत्नी हांडी में झींगा के अंडे इकट्ठे कर रहे थे. वे इसे घर वापस ले जाकर घर पर उगाने वाले थे. उन्होंने मुझे बताया कि वे कभी-कभी नदी के चारों तरफ़ मछली पकड़ने जाते हैं.

अब सुंदरबन में लकड़ियां ले जाने की अनुमति नहीं है. केवल वही लोग बन में जा पाते हैं जिनके पास शहद इकट्ठा करने की अनुमति होती है. हर साल होने वाले बांबीबी मेले में इन नियमों में छूट दे दी जाती है. इसका आयोजन नदी के चारों तरफ बाघ क्षेत्र कहे जाने वाले बांबीबी मठ पर होता है. बांबीबी की पूजा हिंदू और मुसलमान दोनों करते हैं और माना जाता है कि वह इंसानों की बाघों से रक्षा करती है. इस त्योहार के दौरान पूजा में शामिल लोगों को इंसानों और जानवरों की दुनिया के बीच बनी सीमा को पार करने की इजाज़त होती है. जब हम उनसे मिलने गए तो शेख़ अब्दुल जब्बार ने कहा, लोग यहां आते थे और नमक बनाते थे. वह अपने बरामदे की चौखट पर चढ़कर बैठे हुए थे. वह अपना ज्यादातर वक़्त यहीं बिताते थे. उनकी चौखट से की दूसरी तरफ खेत थे और जंगलों से होकर रास्ता नदी की ओर जाता था. जब्बार ने कहा, यहां इसी तरह जंगल ही था, हालांकि तब जंगल काफ़ी घना था.

जब्बार को इस इलाके में गाय के डॉक्टर के नाम से जाना जाता था. लोग उनके पास गायों के दांत या उनके मुंह में अनिवार्य रूप से आने वाले चकत्तों के इलाज के लिए जाया करते थे. इस बीमारी के बाद गाय कुछ भी खाना-पीना बंद कर देती है और बीमारी से उसकी मौत हो जाती है. आज भी अगर कोई उसकी चौखट पर गाय लेकर आता है तो वह उसका इलाज कर देता है लेकिन वह अपने हर्निया के चलते अपनी जगह से उठकर कहीं जा नहीं पाता है. वह तरह-तरह की दवाइयों की बोतलों से घिरा रहकर और आनंद बाज़ार पत्रिका पढ़ते हुए अपना पूरा दिन बरामदे में बैठे-बैठे बिता देता है.

उसकी पैदाइश दक्षिण 24 परगना के महाबटनगर की है. जब अकाल पड़ा तो वह दूसरी कक्षा में पढ़ाई कर रहा था. इसके बाद वह पढ़ नहीं सका. उसने कहा, अगर उसने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की होती तो उसने आज के जमाने में आठवीं और नौवीं कक्षा तक पढ़ाई करने वालों को सबक सिखा दिया होता. उसने अपने सहपाठियों के नाम ऐसे लिए जैसे उसने उन्हें कल ही देखा हो. उसने अपने शिक्षकों, उनकी पढ़ाई हुई चीजों और उनकी पिटाई को भी बहुत शौक से याद किया. उसने बहुत गर्व से बताया, वे आपको अपनी छड़ी से इतना तेज मारेंगे कि आपकी जांघें गरम हो जाएंगी. अकाल के दिनों के बारे में उसे चावल की बात याद है. उसने बताया कि वह चावल उस सफेद चावल की तरह नहीं है जो हम लोग आम तौर पर खाते हैं और जिसे आप पानी में खौलते हुए दोनों बंगालों के घरों और होटलों में देखते हैं. उसने बताया, वह चावल रंगून से आता था. वह नीला होता था, पेन की स्याही से भी ज्यादा नीला. आप वह चावल खा नहीं सकते थे. अंग्रेज सरकार हमें वह चावल दिया करती थी. यह नाइरा मुंडू राजा के ज़माने की बात है. ऐसा कहते हुए शायद वह जार्ज छठवें की ओर इशारा कर रहा था. उसका सिर चांदी के सिक्कों पर हुआ करता था. लेकिन तब किसी के पास कुछ खरीदने के लिए पैसा कहां था? हमारे पास तेल, मसाले और नमक तक नहीं था. इन सबके लिए पैसे की जरूरत थी. तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नीला चावल देना शुरू किया. यह खाने लायक नहीं था, पर हमनें खाया. मेरे माता-पिता समेत बहुत से साझा खेतीदारों के पास भंडार किया हुआ चावल और नकद नहीं था. लोग जो कुछ भी मिल रहा था, वही खा रहे थे. वे केले के पेड़ के पत्ते और डंठल चबा रहे थे. वे नदी के किनारों पर भारी मात्रा में उगने वाली गिरा की कड़वी पत्तियों की तलाश में घूम रहे थे ताकि उन्हें पकाकर खाया जा सके. बहुत से लोग भूख से मर गए.

के-प्लॉट द्वीप पर, शेख काशम को बाघ से लड़ने वाले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है. "मेरा शरीर औरों की तरह का नहीं है," शेख काशम ने कहा. "मैंने एक बाघ के साथ लड़ाई की और उसकी ताकत ली." काशम 1942 की बाढ़ के दौरान अभी लड़के ही थे. एक बाल्टी में राहत शिविर से मिलने वाला बाजरे का दलिया घर लाते अपने पिता का इंतजार करने को वह याद करते हैं. उन्होंने दस महीने यही खाया, जब तक कि धान की फसल नहीं आ गई. काशम को अभी भी रात में बाघ के सपने आते हैं.

जब्बार ने बताया कि तभी हमले शुरू हुए. जब्बार ने डाकुओं के बारे में बताया जो उसने साधु-सन्यासियों के जरिए देखे थे. कुछ लोग जमा होकर और टार्च लेकर रात में जमींदारों के घर जाते थे और ये कहते हुए उनका दरवाज़ा पीटते थे, तुम्हारे पास खाना है, उसे दे दो, तुम्हारा पास ख़ाना है, उसे दे दो!

उनका गुस्सा इस बात से और बढ़ गया था कि जमींदारों के परिवारों को तीन वक़्त का खाना मिल रहा था जबकि गरीब लोग बामुश्किल एक ही वक़्त का खाना खा पा रहे थे. जिन भी जमींदारों के नाम जब्बार को याद रहे थे, वह उनके बारे में जोर जोर से बता रहा था. वे जबरन धनभनेर ढेंकी यानी फसलों से भूसी निकालने वाली एक भारी लकड़ी जैसी नली या तोप से उनका दरवाजा खोल देते थे. अगर वे खाना नहीं देते थे तो वे टॉर्च को उनके मुंह पर चिपका देते थे और कहते थे कि वे उनका मुंह आग से जला देंगे. मैनें उससे पूछा कि क्या वह जमींदारों पर हमला करने और उनको जलाने के काम को ठीक मानता है. उसने कहा, जब आपका पेट भूख से जल रहा हो तो आप किसी को भी नहीं पहचानते हैं. उसने बग़ैर कोई राय और सही-ग़लत की बात किए बिना उस वक़्त के बारे में बताया. ऐसे वक़्त में किसी को लूटने या उसके सीने पर चाकू रख देने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

बाढ़ आने से पहले एक दोस्त ने उसके पिता को इस द्वीप में एक जगह बची हुई जमीन के बारे में बताया था. उसके पिता ने मैपीठ में जमीन ले ली लेकिन उनका वहां जाने का कोई इरादा नहीं था. चावल की खेती करने के लिए वह जमीन उपयुक्त नहीं थी. हालांकि घना जंगल अब नहीं था, लेकिन जमीन अब भी छोटे पेड़ों और खूंटों से भरी हुई थी. उसने कहा, हमें यहां हमारे पेट की भूख लेकर आई. जब हम यहां पहली बार आए तो यहां कोई फसल नहीं थी. पानी बहुत खारा था. ऐसे पानी में आप फसल कैसे उगा सकते हैं? और अगर आप उगा भी लें तो भी हिरन और जंगली भालू आकर सारी फसल खा जाएंगे. इसके अलावा रात में बाघ आ जाएंगे. इन सबके बावजूद वे यहां आए क्योंकि यहां जमीन और मछलियां थीं और यहां जिया जा सकता था.

सुंदरवन में नदियों में मछलियों की भरमार थी और जो काम कर सकते थे उनके लिए जमीन. इन क्षेत्रों के स्वामित्व वाले जमींदारों ने शायद ही कभी यहां मेहनत की होगी। यहां पहुंचे भूखे लोगों ने, उनके लिए जंगलों को साफ किया और धान उगाना शुरू किया.

हम यहां भूख के चलते आए लेकिन भुखमरी के हालात पांच सालों तक बने रहे. अकाल के दौरान जो लोग भी यहां आए, उनके लिए यह द्वीप आख़िरी सहारा था. इस जगह लोग तब आए, जब उनके पास जाने के लिए कोई और जगह नहीं बची थी. बहुत से लोग ऐसे थे जो यहां कभी नहीं आ पाए, बहुत से लोगों को छोड़ दिया और बेच दिया गया. बाकी जो यहां पहुंचे भी, वे बर्बाद हो गए. उनमें से किसी को भी मृतकों वाला सम्मान तक नहीं मिल सका.

चिंतामणि महापात्र की आंखों में जीते-जी मौत हमेशा साफ-साफ झलकती रही. एक ब्राह्मण पुरोहित के रूप में उसका काम शवों का दाह संस्कार कराना था. उनका यज्ञोपवीत अकाल के महज़ एक साल बाद हुआ था. तब वह 13 वर्ष के थे और इस तरह आज उनकी उम्र 88 साल है. उन्होंने अपना पूरा जीवन इसी द्वीप पर बिताया. उसने बताया, जब बाढ़ द्वीप जे दक्षिणी हिस्से पर बसे बैकुण्ठपुर में आई तो उससे फसल तो नष्ट हुई लेकिन जान-माल का कोई नुकसान नहीं हुआ. पानी और उससे हमारे खेतों में घुस गया लेकिन अगले ही दिन पानी चला भी गया. महापात्र याद करता है कि किस तरह कुछ लोगों ने उस रात को उनके घर रुककर खाना खाया था और उसके बाद ज़िन्दगी पटरी पर लौट आई. बाद में उसकी बहन और उसके जीजाजी काकद्वीप से उसके पास आए.

उनके भी घर और खेत पानी में डूब गए थे. वे छह महीने तक रुके. इसके बाद पश्चिम से भी बड़ी संख्या में लोग इस द्वीप पर आने लगे. जिनके रिश्तेदार यहां रहते थे, वे अपने पालतू जानवर और साजो-सामान भी साथ लाए. बाकी लोग अपने हाथ फैलाते हुए और खाने के लिए याचना करते हुए यहां आए क्योंकि उनके पास कहीं जाने के लिए कोई जगह नहीं थी. उसने बताया, बहुत से लोग मर गए लेकिन कुछ का अंतिम संस्कार किया गया.

हम ईंट और सीमेंट से बने एक दो मंज़िला मकान में बैठे थे. जिस सामने वाले कमरे में हम बैठे थे, वहां पीपों में धान भरा था जो एक परिवार के साल भर खाने के लिए काफी था. महापात्र के पिता मैपीठ में मिदनापुर से आए थे. उसके पिता इस द्वीप पर एक मात्र ब्राम्हण थे. इन हिस्सों में, शायद ही कोई मुकर्जी, बनर्जी, चटर्जी या चकर्बोरती या फिर सेन और दासगुप्ता, मित्रा या बोस वाले उपनाम मिलते हैं. शहर से दूर दक्षिण और उसके अंदरूनी इलाकों की ओर बढ़ने पर कोलकाता के बेहद आम नाम और उपजातियां यहां एकदम नदारद हो जाती हैं. इन इलाकों में गरीब ब्राह्मणों को बावर्ची और पुरोहितों के रूप में काम मिल जाता है.

सबसे पहले उसके पिता एक जमींदार के मैनेज़र के यहां बावर्ची की तरह काम करते थे जो ख़ुद भी एक ब्राह्मण था. लेकिन उसे अपनी मछली को एक ख़ास तरह से तलवाकर खाना पसंद था और उसने एक बार यह सिखाने के लिए उसके पिता की हथेली गर्म कड़ाही पर रख दी. उसके पिता वहां से भाग गए और उन्होंने धार्मिक रीति-रिवाजों से जुड़े काम करने शुरू कर दिए.

मिदनापुर में नईब उसकी तरफ का रहने वाला था और उसने गुजर-बसर करने के लिए महापात्र को पांच कोटा जमीन दी और उस पर खेती करने और साथ-साथ अपने पुरोहित वाले कर्तव्यों को पूरा करने को कहा. उसने 5 कोटा जमीन बढ़ाकर 25 बीघा कर ली जिसमें से अब छह बीघा जमीन महापात्रा की है. जब वह लड़का था और उनकी स्थिति अच्छी थी तो वह अपने पिता के साथ शवों के दाह संस्कार के लिए जाता था और वे लोग अपने काम के बदले कुछ किलो चावल घर ले आते थे. अकाल के वक़्त कुछ लोग केवल मुट्ठी भर चावल ही दे पाते थे. जो इतना चावल भी नहीं दे सके वे अंतिम संस्कार नहीं कर पाए. कुछ ने हालात बेहतर हो जाने के बाद अंतिम संस्कार किया. कुछ ऐसे लोग भी थे जिनका अंतिम संस्कार नहीं किया जा सका क्योंकि कोई भी उनके दाह संस्कार का खर्च नहीं उठा सकता था. कुछ लोग अपने रिश्तेदारों को खोज ही नहीं सके. उनके प्रियजन खाने की तलाश में भटक गए और फ़िर जैसे गायब हो गए. शरीर, परिवार, समुदाय-सब कुछ खत्म हो गया और मृत होने के चलते उन्हें उचित सम्मान भी नहीं दिया गया. इन लोगों के गुजरने का रिकॉर्ड ना तो पुरोहितों के पास है और ना ही राज्य के पास. कोई भी मरने वाले इन लोगों को हिसाब नहीं रख सकता था. मैंने महापात्रा से पूछा कि इतने लोग क्यों मरे. उसने बताया कि तब लोग साल में एक ही फसल उगाते थे. अभी लोग लौकी और सेम जैसी फसलें भी उगा रहे हैं. आप देख सकते हैं कि लोग अब नौकरी के लिए दिल्ली और बाकी जगह भी जा रहे हैं लेकिन उस समय किसी ने इस जगह को नहीं छोड़ा. उस वक़्त पैसा कमाने का कोई और तरीका नहीं था. इसलिए जब बाढ़ से चावल की फसल नष्ट हुई तो भुखमरी की नौबत आ गई.

इस जमीन पर शायद ही कुछ उगाया जा सके. दिन में हिरण और जंगली सूअर आते और मिट्टी में बोए गए बीज खा जाते. रातें बाघों की थीं.

जब मैंने उससे बाढ़ के दिन स्वर्ग से आने वाली आवाज़ के बारे में पूछा, जिसका जिक्र मेरे से बात करने वाले लगभग हर व्यक्ति ने किया था, तो वह कुछ संशय में दिखा. उसने कहा, जब कोई बड़ा तूफ़ान आता है तो कई तरह की आवाज़ें आती हैं. उसने कहा कि एक पल के लिए हवा अचानक से रुक गई और वापस चली गई. लेकिन उसने कोई आवाज़ नहीं सुनी. वे लोग कहते हैं कि उन्होंने जा जा जा जैसी कोई आवाज़ सुनी. कुछ कहते हैं कि ये भोईरबी की आवाज़ थी. लोग ऐसी बातें कहते रहते हैं और हमें उनकी बात माननी पड़ती है. अगर हर कोई बकरी कह रहा है और आपको सामने गाय दिखाई देती है तो आप उसे बकरी मानने के अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं.

अकाल के तीन साल बाद महापात्र मिदनापुर जिले में अपने पिता के गांव रामनगर की यात्रा की. रामनगर से एगरा को जोड़ने वाली एक ही मुख्य सड़क थी. वह रास्ते में पड़ने वाले हर गांव-देपाल, महाराजपुर, जमकि में रुकते हुए और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलते हुए जा रहा था. लगभग हर गांव में हड्डियों के ढेर थे. उसने बताया, हर गांव में पुलिस और कुछ स्वयंसेवी लोगों ने शवों को एक प्लॉट में इकट्ठा कर दो मंज़िला इमारत जितना ढेर बना दिया था. ये सब गायों, बकरियों और इंसानों की लाशों के अवशेष थे. इस ढेर में स्थायित्व था जबकि इन लोगों के घर, शरीर और यहां तक कि स्मृतियां भी गायब हो गई थीं. हड्डियों के ये ढेर बंगाल के अकाल के अनायास ही निर्मित हो गए स्मारक थे.

दुर्गा दास का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि 95 साल पहले उसका जन्म दुर्गा पूजा के दिन हुआ था. उसके हाथ में एक दैवीय छड़ी रहती है और वह अब भी एक मातृत्व की देखभाल करती है. उसने मुझे बताया, मैं एक धनी व्यक्ति की बेटी हूं. हालांकि इस समय सिवाय उसके पहनावे के अलावा कहीं से भी ये पता नहीं चल रहा था. दास की शादी तब हुई थी जब वह केवल नौ साल की थी. जब बाढ़ आई तो उसकी उम्र अट्ठारह साल थी. उन्होंने बचा-खुचा खाना खाया और उन्हें जूट की पत्तियां खाने के लिए उबालनी पड़ीं. उसके ससुर ने चावल खरीदने के लिए एक बीघा जमीन बेच दी और वे किसी तरह बच गए.

हालांकि उनके लिए मुसीबत अकाल पड़ने वाले साल नहीं बल्कि अगले साल आई. दिसंबर 1943 तक बंगाल में बीते सालों में किसी भी साल के मुक़ाबले सबसे ज्यादा फसल थी. अमर्त्य सेन ध्यान दिलाते हैं कि ये वही साल था जब बंगाल में मृत्यु दर सर्वाधिक हो गई थी. लगातार बने हुए भुखमरी के हालातों ने महामारी का रूप ले लिया था. तब तक लोगों के शरीर कमजोर हो गए थे और भूख के चलते लोग स्मॉल पॉक्स, मलेरिया और हैजा जैसी बीमारियों से मरने लगे थे. जब भी इस तरह का संक्रमण परिवार के किसी सदस्य को होता था तो परिवार के बाकी लोग उसे मरने के लिए अकेला छोड़कर भाग जाते थे. बाकी लोग बीमार व्यक्ति को घर या मकान से बाहर निकालकर बहिष्कृत कर देते थे.

1942 में, दुर्गा पूजा के आठवें दिन यानी अष्टमी पर, तूफान के बाद आई बाढ़ से गायों, बकरियों और इंसानों की मौत हो गई.

एक दिन इस तरह के चार लोग दास के पास आए. उसने बताया, मेरे ससुर की बड़ी बहन पाथेर प्रतिमा के तीन और लोगों के साथ मेरे पास आई. उन सबको हैज़ा था. पाथेर प्रतिमा हुगली के पश्चिम में बसा हुआ एक द्वीप था. उन सबको जंगल के किनारे यानी पूर्व की तरफ धकेल दिया गया था. उसके ससुर की बड़ी बहन समेत वे सब मर गए.

इसके बाद मेरे ससुर को उल्टियां शुरू हुईं और उन्हें दस्त होने लगे जो हैजा होने का लक्षण था. उसने बताया, जिस दिन वे मरे, उस दिन उनका झींगा खाने का मन था, लेकिन वे कुछ खा नहीं सके.

कोई भी पुरोहित या पंडित इन लोगों का अंतिम संस्कार करने नहीं आया. कोई भी शमशान नहीं चाहता था कि उन्हें वहां जलाया जाए. उसने और उसके पति ने सभी के शव अपनी ही जमीन पर जलाए. जल्द ही वो दोनों भी बीमार हो गए और अपने घर में अकेले ही झटपटाते रहे. लेकिन कोई भी हमारी मदद करने नहीं आया. कोई भी बाहरी हमारे घर नहीं आया.

भोजन के लिए भीख मांगते हुए मुख्य भूमि से मैपीठ द्वीप तक भीड़ के भीड़ भूखे लोग आए. मैपीठ ब्राह्मण पुजारी चिंतामणि महापात्रा ने कहा, "कई लोग मरे, लेकिन कुछ का ही अंतिम संस्कार हुआ."

लेकिन वे युवा थे और शरीर से अपेक्षाकृत मजबूत थे. इसलिए वे बच गए. शमशान घाट बंजर जमीन का एक टुकड़ा भर ही था. अब उस जमीन पर घास उग आई है. अब वहां देखने के लिए कुछ नहीं बचा है. दास का एक मात्र लड़का लगभग 70 साल का है. वह हमसे मिलने आया और उसने हमें बताया कि हाल में कितने लोग वहां जलाए गए हैं. उसको इस बारे में बिल्कुल नहीं पता था कि उसकी जमीन पर शमशान क्यों था. उसकी दादी समेत इस घर में अकाल के दौरान पांच लोग मर गए थे. अकाल ने उसके जन्म से पहले ही उसके माता-पिता को भी तक़रीबन मार ही दिया था. लेकिन इन बातों से अब उसका कोई लेना-देना नहीं था. आजकल वह जुए में पैसे हार रहा था. उसको अपनी दस बीघा जमीन बेचनी पड़ी थी. वह इन दिनों इस बात की शेखी बघार रहा है कि उसने अपनी धान की फसल स्टेट कंट्रोल बोर्ड को महंगे दामों में बेची. वह हमको भी बताना चाहता था कि वह इस सौदेबाजी में आगे रहा. वह बताना चाहता था कि इस बार वह बाजी पलट देगा.

दुर्गादास के पोते ने हमसे संदेहास्पद ढंग से पूछा, क्या आप सरकार से हैं? वह लगभग मेरी ही उम्र का था. उसका कद लंबा था और उसने लुंगी के सिवाय कुछ नहीं पहना था. वह अपनी बिना बालों वाली छाती दिखा रहा था. वह चेन्नई में कोई छोटा-मोटा काम करता है. मैंने उसे कहा, मैं सरकार से नहीं हूं. मैं तुम्हारी दादी से अकाल के बारे में बात करने आया था.

उसने कहा, हम उस अकाल के बारे में सबकुछ जानते हैं. आप 76' के अकाल के बारे में पूछ रहे हैं.

इन दिनों, द्वीप पर उगाए गए पान से सुंदरबन के दूसरी तरफ बांग्लादेश में काफी अच्छी कीमत मिलती है. युवा किसानों के लिए धान की तुलना में पान उगाना अधिक लाभदायक हो सकता है, जिनके साथ भूख की कोई याद नहीं जुड़ी है.

यह सुबह का वक़्त था और हम मैपीठ के दक्षिणी किनारे की मेढ़ों पर चढ़ते हुए किशोरिमोहनपुर की ओर बढ़ रहे थे. नदी यहां पर सौ गज पीछे हट गई थी और छूटी हुई जगह पर एक नम और हरा-भरा क्षेत्र बन गया था जिस पर किसी का मालिकाना हक नहीं था. मेढ़ के चारों ओर फैले जाल पर फ़ैली बेलों में कुम्हड़े के फ़ूल उगे हुए थे. इस नम और हरी-भरी जमीन के दूसरी तरफ बाघों को दूर रखने के लिए एक जाल और था. जंगल नदी की दूसरी तरफ था. इन जगहों पर जमीन और पानी को अलग-अलग करने वाले किनारे स्थिर नहीं थे. पुराने द्वीप पानी के भीतर चले जाते हैं और उनसे नए द्वीप उभर आते हैं. कुछ जगहों पर पूरे के पूरे मैदान ही नदी में समा जाते हैं और खेती की जमीन के बीघा के बीघा गायब हो जाते हैं. जबकि कई दूसरी जगहों पर पानी के भीतर से नई जमीन बाहर निकल आती है. गांव और जंगल, जीवित और मृत एवं अतीत और वर्तमान की सीमाएं यहां परस्पर बदलते हुए एक दूसरे को आकार देती हुई लगती हैं.

“यहाँ के लाटदारों को देखो- वे सब खत्म हो गए हैं ” बीरेन हालधर ने हंसते हुए कहा. उन्होंने उन जमींदारों को सूचीबद्ध किया जो कभी द्वीप पर सैकड़ों बीघा के मालिक थे, और अब उनके पास केवल कुछ बीघा ही बचा था। "वे अकाल के दौरान लोगों को यहां ये कहकर ले आए कि यहां 'बहुत खेत' हैं. साल में 12 महीने काम करने वाले वे लोग अब ठीक काम कर रहे हैं, जिनके जमींदारों के शासन में पसीने छूट जाते थे." उन्होंने कहा, ''वाम मोर्चे के शासन के दौरान, चकबंदी कानून लागू किए गए थे और शेष भूमि सरकार ने ले ली थी जिसे उन लोगों में बांटा गया जो इस पर खेती करते थे. उनके पास पांच बीघा जमीन थी. "गोतोर खाता" - मेहनत करने के लिए- उन्होंने कहा। "इस तरह जिंदगी बीत गई."

सुभद्रा पात्रा मैपीठ की सबसे पुराने बाशिंदों में से एक हैं. उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन मैपीठ के किशोरिमोहनपुर में ही बिताया है. उनका घर और अहाता आदमियों, औरतों, बच्चों और जानवरों से भरा हुआ था. उसके पोते पान के पत्तों की खेती करते हैं जिनकी जंगल के दूसरी तरफ बसे बांग्लादेश में होने वाली शादियों में भारी मांग होती है औरजिसमें धान के खेती की तुलना में ज्यादा फायदा भी होता है. उनके तालाब मछलियों से भरे हुए हैं. उनके पास पालतू कबूतर भी हैं जो अहाते में शोर मचा रहे थे. पत्रा एक खाट पर बैठीं थीं जो उनके कच्चे घर के बरामदे पर काफी नीचे बिछी हुई थी. वे देख नहीं सकती थीं. वह हमें देखने के बजाय दूर कुछ देखने और किसी हलचल को सुनने की कोशिश कर रही थीं. उनका जन्म बैकुंठपुर में हुआ था. उनकी शादी 11 साल की उम्र में हो गई थी और वे उसके बाद यहां आ गईं थीं. वह कभी स्कूल नहीं गईं. उन्होंने कहा, मैं 19 गायों के झुंड को चराने का काम करती थी. मैं और एक दूसरी लड़की ये काम करते थे और एक औरत हम पर नज़र रखती थी.

उस वक़्त उसके ससुर एक गुनी थे जो मुखेरबेरा यानी अपने मुंह से बोले गए शब्दों की दीवार बनाकर किसी भी जगह को चारों तरफ से सुरक्षित कर सकते थे. बांबीबी का नाम लेकर पढ़े जाने वाले मंत्र किसी भी बाघ को उसके रास्ते में जड़ कर सकते थे.वह उन सबको सुरक्षित करने के लिए हर रात पहरेदार की तरह मुखेरबेरा पढ़ते थे. मैंने उनसे पूछा कि उनकी उम्र कितनी है. उन्होंने कहा, कौन जानता है? मुझे क्या मालूम?क्या आपको मेरे पोते-पोतियां दिखाई नहीं दे रहे?

मेनका घारामी अपने पुस्तैनी घर में अकेली रहती हैं. उनके परिवार के पास सात सौ बीघा जमीन थी, उनके बेटे तीर्थ ने कहा, जिसमें से अब उनके पास नौ बीघा ही है। उनके एक बेटे को उनकी भैंस ने 25 साल पहले मार दिया था, इसके बारे में इलाके में हर कोई जानता है. भैंस नदी पार कर जंगल में चली गई थी. जब यह वापस आया तो यह खून से सना हुआ था और खेतों में भागा. भिडंत में, भैंस ने सिंगों से अपने युवा मालिक को मार डाला. तीर्थ अब आंध्र प्रदेश में कुछ-कुछ काम करता है, जैसे कि इन द्वीपों के बहुत सारे युवा जो जिंदगी कमाने के लिए दक्षिण में चले गए.

मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें बाढ़ के बारे में कुछ याद है. उन्होंने तुरंत जवाब दिया, 49' की बाढ़? वो तो कुछ अलग ही दिन थे. बिल्कुल अलग तरह का वक़्त. जब बाढ़ आई तो वे शादीशुदा थीं लेकिन उसके बावजूद छोटी उम्र की लड़की ही थीं. नदी से पानी आया और अचानक से घर में घुस गया और वे उस पानी में लगभग डूब ही गईं थीं. मिट्टी की दीवारें और लकड़ी के खंभे हिलना शुरू हो गए. तब केवल उसकी चाची घर में थीं. उसके ससुर जंगल गए हुए थे. वह भागकर वापस आए, घर के अंदर गए और उन्होंने उसे बचाया. वह याद करती हैं कि जब पानी धीरे-धीरे कम हुआ तो उनके पास छत पर चावल का सूखा बोरा तो था, लेकिन हमारे पास पीने का पानी नहीं बचा था. चारों तरफ खारा पानी ही था. उनके ससुर उसी खारे पानी में चावल उबालते थे. उन्होंने चावल सादा ही खाया. उनके हिसाब से बाढ़ के दौरान तो कोई नहीं मरा लेकिन लोगों के मरने की ख़बरें बाद में आनी शुरू हुईं. उन्होंने बताया, लोगों ने जैसे ही वो पानी पिया, उनके शरीर में सूजन आ गई और वे मर गए.

यह नाश्ते का वक़्त था और वह स्टील के कटोरे में लेकर मूरी (मुरमुरे) खा रही थी. उसकी बहुओं ने उसे मूरी के साथ फ्राई अंडा दिया था. हम बरामदे के फर्श पर ही बैठ गए और कबूतरों के शोर के बीच वहीं खाते-खाते बात करने लगे.

उसने कहा, उस समय की ग़रीबी के बारे में तो क्या ही कहा जाए, हे भगवान. आख़िर वो साल गुज़रा कैसे! हमें जिंदा रहने के लिए क्या-क्या खाना पड़ा- उन्हें सरकार की ओर से चावल, दाल और सब्जियों का मिलने वाला का मिश्रण यानी घाता खाना पड़ा. या इसके बजाय उन्हें रंगून से आने वाला रंगिनी खुद खाना पड़ा.

उन्होंने बताया, ख़ुद या टूटा हुआ चावल पूरा चावल नहीं होता बल्कि बचे हुए चावल के छोटे-छोटे टुकड़े होते थे. इसे घर लाकर उबालना पड़ता था. इसे एक बार खाने के बाद और भूख लगती थी. उसकी चाची इस ख़ुद चावल को मूरी की तरह भूनकर और उसका पाउच बनाकर छोटी लड़की की कमर पर बांध देती थी क्योंकि वह अपनी गायों के साथ मैदानों में भटकती थी. उसे समझ नहीं आता कि आख़िर उसके बच्चे कैसे धान के बजाय पान की खेती कर लेते हैं, कैसे वे पके चावल को छोड़ देते हैं? उन्होंने कहा, मेरे बेटे प्लेटों में चावल छोड़ देते हैं. वे चावल बिल्लियों को ख़िलाते हैं या इसे जमीन पर गिरा देते हैं. हालांकि हमें एक वक्त के लिए इतना चावल खाने को कभी नहीं मिला. मैंने खारा पानी पिया है.

लाल साड़ी पहने हुए एक सुंदर युवा महिला ने मुझे चौंका दिया. उसने कहा, हम इस घर में '50 में आए अकाल के बारे में सब कुछ जानते हैं. उसने मुझे बताया कि कैसे लोग भूख लगने पर इमली के पत्ते चबाते थे, कैसे वे सरकार की ओर से बांटा हुआ खुद चावल और मक्के का माड़ खाते थे. उसने हंसते हुए कहा कि पता नहीं आज के वक़्त में लोग ये सब कैसे खा पाएंगे. वे दो मंजिला वाले एक लंबे कच्चे घर में रहती हैं. इस घर में बहुत सारी औरतें रहती हैं. घर के लंबे बरामदे में लाइन से चमकीली साड़ियां लटकी हुई हैं. इसी बरामदे में उसकी ददिया सास चपाला गायेन का बिस्तर पड़ा हुआ है जहां वह सोती और बातचीत करती है. आम तौर पर वह आग के लिए लकड़ियां जमा करने के लिए बाहर ही रहती है लेकिन पिछले कुछ दिनों से वह बीमार है. सबको संदेह है कि उन्हें टायफॉइड है. हम बरामदे में गायेन के बिस्तर पर बैठे हुए थे. उन्होंने मेरे चेहरे को छुआ और मेरी बाहों को सहलाया. उनके बात करने के तरीके से मुझे मेरी ख़ुद को दादी की याद आ गयी. गायेन के बिस्तर पर उसके चार पोते-पोतियां भी रहते हैं. वे अपनी दादी से सोते समय भूतों की कहानियां सुनते-सुनते ही बड़े हुए हैं. हाल में ही दसवीं कक्षा पास करने वाली अपर्णा ने बताया कि उसकी दादी दो तरह के भूतों की कहानियां सुनाती हैं: पास के बांस के झुंडों में रहने वाले भूतों की कहानियां और अकाल के बाद घटी घटनाओं से जुड़ी कहानियां.

सुभद्रा पात्रा ने कहा, "मेरे बेटे अपनी प्लेटों पर चावल छोड़ते हैं, वे इसे बिल्लियों को खिलाते हैं, इसे जमीन पर फेंक देते हैं - एक वक्त था जब यह हमें नहीं मिला. मैंने खारा पानी पिया है."

गायेन कभी स्कूल नहीं गईं और उन्हें नहीं मालूम कि उनकी उम्र क्या है. उन्होंने बताया कि उनकी शादी 19 साल की उम्र में हुई थी और इस तरह अकाल आने के वक़्त उनकी उम्र 15 साल के आस-पास रही होगी. उनके पिता बंटाईदार थे और उनके पास अपनी कोई जमीन नहीं थी. उन्होंने याद करते हुए कहा कि अकाल के वक़्त धान की फसल शायद ही पूरी तरह से तैयार हो पाई थी. जो भी था, बाढ़ ने लगभग आधी फसल को नष्ट कर दिया. वही उनकी आजीविका का मुख्य साधन थी. गायेन ने याद करते हुए कहा, हमनें अमीर महिलाओं के लिए चावल से भूसी अलग करके कुछ पैसे कमाए. एक बै चावल भूसी निकालने पर एक रुपया मिलता था. हमें मालिक के घर से बैग लेकर आना होता था और फ़िर भूसी निकालकर उसे वापस मालिक के घर पहुंचाना होता था. कभी-कभी हमें भूसी निकालने के बाद खुद चावल यानी टूटा चावल मिलता था और हम उसे रख लेते थे. हमनें उससे खोए की मिठाई बनाई. मैंने चार या पांच सालों तक भर पेट चावल नहीं खाया.

लेकिन वे भूखे नहीं मरे. उन्होंने उबली हुई और नदी किनारे या जंगल में उगने वाली शिमुल, चपल और गिरा जैसी हरी सब्जियां खायीं. लेकिन पालक और सरसों की तरह किसी ने इनको उगाया नहीं था. कभी-कभी उन्होंने थोड़ा सा चावल खाया और उसके अलावा नदियों और द्वीप के चारों तरफ खाड़ियों में पर्याप्त संख्या में मछलियां और झींगा थीं. अगर हल्दी और नमक होते थे तो वे इसे इनके साथ हल्का सा उबाल लेते थे. इसके अलावा वे तेल की बूंद भी डाल देते थे हालांकि उनके पास शायद ही कभी तेल होता था. वे बड़े केकड़ों को भी इसी तरह खाते थे. कचेरी का मैनेजर उन्हें पानी में घोलकर तैयार की गई खिचड़ी देता था जिसे वे मिट्टी के बर्तनों में ले जाते थे. कभी-कभी बर्तन गिरकर टूट जाता था और उन्हें पूरा दिन भूखा रहना पड़ता था. जिन्हें यह खाना नहीं मिल पाता था, वे बेकार और हानिकारक खाना खाते थे जिसके चलते उनकी मौत हो जाती थी. गायेन ने बताया, ऐसे लोग दो, चार या दस के झुंड में आते थे. सभी बाहरी होते थे और उनके शरीर पर कपड़े का एक रेशा भी नहीं होता था. कोई नहीं जानता था कि वे कहां से आए हैं. उन्हें जो कुछ भी मिल पाया, वही खा लिया. वे रविवार के बाज़ार में कच्ची सब्जियां भी खाते हुए देखे जा सकते थे. वे वहां घास-फूस के बिस्तरों पर ही सो जाते थे. जब वे मरते थे तो उनके शवों को खींचकर नहर के पास ले जाया जाता था जहां से पानी उन्हें बहा ले जाता था. उसने बताया कि तब यहां बहुत सारे लोग नहीं रहते थे. घर भी बहुत दूर दूर थे. एक बार एक आदमी और औरत यहां आए और एक घर के पास जाकर रुक गए. उसने बताया, वे चलते-फिरते कंकाल लग रहे थे. उनके साथ दो बच्चे भी थे. उन्होंने कपड़े तक नहीं पहने थे. वे उन बच्चों को उस घर के पास ही छोड़कर गायब हो गए. वे उसके बाद कभी वापस नहीं आए. बाद में कोई और आकर उन्हें उठाकर ले गया. गायेन ने कहा, ये सब मैंने अपनी आंखों से देखा.

कई लोगों के लिए, यह एक लंबी यात्रा का अंत था. वे कंकालों के रूप में यहां पहुंचे, शायद ही कोई ताकत बची हो. वे भूख और प्यास से चूर हो गए और मर गए. कोई कब्र, कोई समाधि, कोई स्मारक बाद में उन्हें सम्मानित करने के लिए खड़ा किया गया था. उनके शवों को नहरों में खींचकर गायब कर दिया गया.

जब हम बात कर रहे थे तो एक भरा पूरा और स्वस्थ लड़का अहाते में ही खेल रहा था. कुछ ही सालों में वह स्कूल जाना शुरू कर देगा. गायेन अपने बिस्तर से बैठे-बैठे उसे देख रही थी. उसने कहा, वह मेरा परपोता है. यानी लाल साड़ी वाली महिला का बच्चा. गायेन ने बताया कि उसके ग्यारह बच्चों में आठ जिंदा बचे और इस तरह अब उसके पोते-पोतियां और यह परपोता है. चार पीढ़ियों से भी ज्यादा तक जीवन का यह प्रवाह किसी चमत्कार से कम नहीं है. वह अभी तक बची हुई है. उसका वंश अभी तक अवरुद्ध नहीं हुआ है. उसने बताया कि इस तरह की रातों में वह अक्सर उस वक़्त और उस वक़्त के लोगों के बारे में सोचती है. अब तो मैपीठ के उत्तरी छोर को मुख्य जगह से जोड़ने के लिए एक पुल और जयनगर तक के लिए बस सेवा है.

हम मैपीठ के शनिवार बाज़ार में इंतज़ार कर रहे हैं. बस लेट है. हमारे साथ एक डॉक्टर भी था. हालांकि वह कोई प्रशिक्षित एमबीबीएस डॉक्टर नहीं था. इस द्वीप पर कोई प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं हैं. हमारे साथ जो व्यक्ति था उसने डिप्लोमा किया था और उसके हाथ में बैग था. उसने हमें बताया कि उसके पिता एक दिन में दो सौ से ज्यादा मरीज़ों को देखते हैं. जबकि वह ख़ुद यहां और कोलकाता के कुछ और इलाकों में प्रैक्टिस करता है. उसके शरीर की बनावट बिल्कुल शहरों में रहने वाले लोगों की तरह ही थी. उसका शरीर मुलायम और नाजुक था और उसे देखकर पता लगता था कि मैपीठ के माहौल के हिसाब से श्रम नहीं लगाया है. मानसिक रूप से भी उसने इस जगह से ख़ुद को दूर ही रखा हुआ था. उसने हमें बताया कि पहले यहां सभी के पास बंदूक थी और वे एक दूसरे से लड़ते रहते थे. अभी हाल तक भी यहां कोई पुलिस स्टेशन नहीं था. लेकिन उसने बताया कि अब तटीय पुलिस के इस द्वीप पर आ जाने से हालातों में थोड़ा सुधार हुआ है.

बाज़ार में एक छोटा सा चबूतरा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के कॉमरेड के सम्मान में शहीद स्मारक के रूप में बनाया गया है. उन्हें सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया के एक नेता ने मार दिया था. इस तरह के स्मारक पूरे बंगाल में बहुत आम हैं. शरीर एकाएक खत्म हो जाता है और उसके सम्मान में बाज़ार में पत्थर के चबूतरे बना दिए जाते हैं. लेकिन यहां भी भटककर खाने की तलाश में आए कंकालनुमा शरीरों के लिए कोई स्मारक नहीं है. ऐसे लोग जो यहां सोए और यहीं मर गए, जिनके शवों को खींचकर दूर फेंक दिया गया और फ़िर वे ग़ायब हो गए. इसके बजाय उनकी यादें बांस के झुरमुटों और उन लाखों लोगों के स्वपनों और दुःस्वप्नों में भटकती हैं जिन्होंने 1943 के अकाल को देखा और जिया.

3.

मलयालम या बंगाली में किसी ने ख़ाना खाया या नहीं, इस बात को इसी तरह पूछा जाता है. इसका शाब्दिक अर्थ होता है, "क्या आपने चावल खाया है?" आम तौर पर हमारे आहार में चावल का मतलब खाने से ही होता है. जब मैं साल 2000 की शुरुआत में केरल गया तो मुझे ये बात बहुत अच्छी लगी कि आपको वहां किसी भी जगह बेहद कम दामों में चावल खाने को मिल जाएगा. दिन में दो या कभी-कभी तीन बार चावल मिल जाने से ऐसा लगता था जैसे आप घर पर ही हैं.

केरल में एक बाहरी होने के नाते मैंने इस बात पर ग़ौर किया कि आप यहां लोगों के शरीर की बनावट देखकर ये नहीं बता सकते कि वे समाज के किस वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. जबकि बंगाल में मध्य वर्ग के खाए-पिए लोग अपने शरीर की बनावट से पहचाने जाते हैं. कुल मिलाकर ऐसे लोग ऊंची कद-काठी के और अक्सर चौड़े और भारी नजर आते हैं. इसके उलट गरीब अपने शरीर की बनावट में छोटे नजर आते हैं.

शेख अब्दुल जब्बार ने अकाल के दौरान बटाईदारों द्वारा मारे जाने वाले छापों को याद किया. अगर जमींदार खाना नहीं देते, "तो वे उनके चेहरे मशाल से जला देते."

बंगाल और भारत के अन्य हिस्सों में जहां मैं गया हूं, वहां यह अंतर इतना स्वभाविक लगता है कि इस पर ध्यान देना भी ज़रूरी नहीं लगता. हालांकि जब मैं केरल गया तो वहां यह अंतर जैसे ग़ायब हो गया. यहां हर व्यक्ति लगभग एक जैसा खाना खाता है और ऐसा लगता है कि उसने कम से कम आने वाली एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाना खा लिया है.

इन शरीरों में सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया के दौरान समानता के ऐसे निशान दिखाई पड़ते हैं जो देश के बाकी हिस्सों से मेल नहीं खाते. ये कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब ढूंढते हुए मैं लगभग एक दशक बाद इस जगह के बारे में जानने और एक किताब लिखने आया. तब मुझे ये मालूम नहीं था कि अकाल भी इस पूरी कहानी का हिस्सा बन जाएगा. लेकिन 1942 में जब चावल के दाम बढ़े तो भारत के हर हिस्से में ऐसा हुआ. इसका सबसे ज्यादा असर बंगाली और मलयाली लोगों पर पड़ा. हालांकि केरल में बंगाल की तरह कोई तूफ़ान या चक्रवात नहीं आया था लेकिन चावल की कमी के चलते हालात यहां ज़्यादा ख़राब थे. तब केरल ने पचास फ़ीसदी चावल का आयात किया था जबकि बंगाल ने सिर्फ 10 फ़ीसदी चावल ही आयात किया.

केरल में चावल मुख्य रूप से बर्मा से आता था. जब जापानियों ने साल 1942 में बर्मा पर कब्जा किया तो चावल की ये आपूर्ति रोक दी गई. इस चलते बंगाल की तरह ही केरल में भी चावल के दाम कई गुना बढ़े ज़िसके बाद अधिकांश लोगों के लिए चावल खाना नामुनकिन हो गया. इस दौरान लगभग एक करोड़ बीस लाख की आबादी में केवल बड़े जमीदारों, व्यवसायियों और नौकरीपेशा लोगों की केवल पांच लाख आबादी को ही भूख से बचाया जा सका. केरल में तब बड़ी आबादी के पास शायद ही कोई जमीन या चावल का भंडार या नक़द पैसा था. अगर यहां के राज्य ने भी बंगाल की तरह ही काम किया होता तो अधिकांश लोगों की मौत हो गई होती. साल 1942 में केरल के बहुत से हिस्सों में भुखमरी, कुपोषण और हैजा जैसे संक्रमण की ख़बरें थीं. देश के दक्षिणी हिस्से में रहने वाले लोग अपने गांवों को छोड़कर उत्तरी हिस्से में चले गए थे. बाकी लोग सेना में भर्ती हो गए या अन्य जगहों में पलायन कर गए.

बंगाल की तरह ही यह भी संकट था पर यहां अकाल नहीं आया और लाखों लोग नहीं मरे. वे बच गए और इस तरह राज्य बदल और नतीजतन सामाजिक संबंध भी बदल गए. साथ-साथ ये सभी बदलाव अगले सात दशकों के भावी समाज के लिए टेम्पलेट बन गए. साल 1942 में केरल राज्य अस्तित्व में नहीं आ पाया था. साल 1956 में जो मलयाली भाषी क्षेत्र केरल राज्य बना, वह त्रावणकोर और कोचीन की रियासतों और ब्रिटिश शासन वाली मद्रास प्रेसिडेंसी के पश्चिमी किनारे पर स्थित मालाबार जिले के अंतर्गत आता था.

इंसान के रहने की यह आखिरी जगह थी, यहां से परे, सैकड़ों किलोमीटर तक, नदियों और जंगल के अलावा कुछ भी नहीं था. आज भी, नदी पार करते ही जंगल है और हमेशा ही बाघ होते हैं.

इन सभी क्षेत्रों में लोग बच गए क्योंकि यहां उन्हें बचाने के लिए उचित कदम उठाए गए. यह सुनिश्चित किया गया कि बड़े पैमाने पर खाना वितरित हो सके और लोग भुखमरी से जान नहीं गंवाए. इससे पहले त्रावणकोर के महाराज ने स्थानीय स्तर पर कापा और पूला कही जाने वाली और मूल रूप से ब्राजील की फसल टपिओका की बुवाई करवाई. ये एक तरह से भुखमरी से बचने के लिए बीमा कराने की तरह था.

इस फसल की पैदावार बहुत तेजी से हुई और यह कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्रोत थी. दक्षिण में ऐसे बहुत से लोग जो चावल नहीं खा सकते थे, उन्होंने पूला से काम चलाया. उस समय उत्तर के मालाबार में पलायन करके आए क्रिश्चियन समुदाय के लोगों को "पूला ब्रदर्स" कहा जाने लगा. कोचीन के दीवान ने 90 "कोचीन रेस्टोरेंट" चलाए जिनमें उत्तर भारत से लाए गए गेंहू और बाजरा से बना खाना परोसा गया और जिससे एक हज़ार से भी ज्यादा लोगों को खाना मिलता था.

कांग्रेस नेता तब तक भारत छोड़ो आंदोलन के चलते जेल में थे लेकिन साल 1942 के मध्य से कम्युनिस्टों ने मालाबार, कोचीन और त्रावणकोर में राशन की दुकानों और कीमतों को नियंत्रित करने की मांग करने में प्रमुख भूमिका निभाई. पूरा धान राज्य के पास जाने लगा और उसके बाद उसे सीधे लोगों को वितरित किया जाता था. इस तरह इसे जमींदार, व्यापारी या कालाबाजारी करने वाले जमा कर अधिक दामों पर नहीं बेच सकते थे.

साल 1943 की शुरुआत तक त्रावणकोर और कोचीन की रियासतों ने सीमित पैमाने पर चावल के लिए राशन वितरण तंत्र बना दिया था. मालाबार में कम्युनिस्टों ने अनाज के प्रसंस्करण और वितरण पर नज़र रखने के लिए खाद्य समितियां बनायीं. स्थानीय जमींदार इन समितियों में शामिल हुए और अपने भंडारों से चावल वितरित करने पर भी सहमत हुए. इस तरह साल 1943 के मध्य तक जब बंगाल में लोग भूख से मर रहे थे, त्रावणकोर, मालाबार और कोचीन में बड़े पैमाने पर राशन वितरित किया जा रहा था. चावल के वितरण के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था बन गई थी. हालांकि प्रति व्यक्ति को दी जाने वाली मात्रा बहुत कम थी फ़िर भी इससे हरेक व्यक्ति को चावल का वितरण सुनिश्चित किया गया. कम्युनिस्ट नेता ईएस नंबूरीपाद ने बाद नें लिखा कि इन कोशिशों का सभी जाति, वर्ग, पार्टियों और यहां तक कि उन लोगों ने भी समर्थन किया जो कम्युनिस्ट नहीं थे. इस काम को सभी लोगों को सेवा देने वाले काम के रूप में देखा गया.

कई लोग बीबी-बच्चों के बिना ही द्वीपों में पहुंचे. उन्होंने कहा कि उनका परिवार "गायब" हो गया. हर कोई जानता था कि इसका क्या मतलब है.

इतिहासकार रोबिन जेफ्री के अनुसार इसी आदर्श व्यवस्था नेआगे चलकर "केरल मॉडल" का रूप लिया. इस तरह की राशन वितरण प्रणाली ने राज्य को लोगों के बेहद क़रीबी तौर पर संपर्क में रखा: केरल में लगभग हर नागरिक के पास राशन कार्ड था. रॉबिन जेफ्री इससे भी अधिक अहम बात की ओर ध्यान खींचते हुए लिखते हैं: यह विचार, कि राज्य को उसके नागरिकों के लिए काम करना चाहिए और राज्य ही ऐसे कामों को लागू करवा सकता है, जोर पकड़ता चला गया. इन रियासतों के विलय और केरल राज्य बनने के साथ ही युद्ध, अकाल और भुखमरी के ये अनुभव भूमि स्वामित्व, शिक्षा और स्वास्थ्य में हो रहे सामाजिक रूपांतरण का आधार नहीं बन सके. सेन लिखते हैं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अकाल कैसे पड़ा, लेकिन इतना तय है कि इसे खत्म करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बड़े पैमाने पर खाने की आपूर्ति करनी पड़ती है. इसका मतलब यही निकलता है कि राशन के वितरण और कीमतों को नियंत्रित करने की व्यवस्था की जाए पर इसका मतलब यह सुनिश्चित करना भी है कि जो लोग भूखे हैं, उनके अपनी जरूरतों की चीजें ख़रीदने का पैसा हो. दूसरे शब्दों में, इसका मतलब एक ऐसे समाज की कल्पना करना है जिसमें सभी का महत्व हो. हालांकि सरकार की भूमिका केरल के मॉडल की आधी कहानी ही बयान करती है. इस कहानी का बाक़ी हिस्सा व्यापक जनता की उस विस्तृत राजनीतिक सक्रियता से जुड़ा है जिसने सरकारी प्रयासों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया.

अकाल के अगले साल हैजा के साथ चार लोग दुर्गा दास के घर आए. वे सब मर गए.

एक समाज जहां साधारण लोग अपनी अधिकारों की दावेदारी कर सकें और जहां वे ख़ुद से शासित हो सकें, उसे राजाओं, औपनिवेशिक कर्ता-धर्ताओं और अभिजात्य वर्ग की दरियादिली की ज़रूरत नहीं होती. यहां तक कि आज भी जब संक्रमण या बाढ़ के रूप में जब-जब नई आपदा आती है तो हम एक समाज के रूप में संकट से निपटने में केरल से आने वाली प्रतिक्रिया का पैटर्न पूरे भारत से अलग पाते हैं. इस प्रतिक्रिया के पीछे बुनियादी सिद्धांत यही है कि सभी लोगों को एक ही समाज का हिस्सा मानते हुए उनके साथ समान व्यवहार किया जाए, राज्य की सत्ता के जरिए सिर्फ चुनिंदा लोगों को ही नहीं बल्कि हर गांव, हर शहर और मुस्लिम, क्रिश्चियन, हिन्दू, मलयाली, प्रवासी, अमीर और गरीब सभी को बचाया जाए.

"इस घर में 50 के दशक के अकाल के बारे में हम सभी जानते हैं," चपला गायन की पोती ने कहा. गायन अपने पोते-पोतियों को अकाल की भूतिया की कहानियां सुनाती हैं.

यह राजनीतिक परंपरा सत्तर सालों से भी ज्यादा यानी बंगाल के अकाल तक जाती है. मैं सुंदरबन इस उम्मीद में गया था कि वहां मुझे सरकारी लोगों के आने और उनके द्वारा चावल को हड़पने और लूट-खसोट करने के किस्से सुनाई पड़ेंगे. हालांकि इस तरह के किस्से सरकार द्वारा जमा किए गए साक्ष्यों में मौजूद हैं लेकिन यहां की कहानी इससे बिल्कुल अलग थी. यहां राज्य और पुलिस के बीच काफ़ी दूरी थी. यहां सरकार ने मदद के रूप घाटा या खिचड़ी उपलब्ध करवाई. यहां सबसे बड़ा अपराध ये नहीं था कि किसने क्या किया, बल्कि ये था कि कौन क्या करने में नाकाम रहा. यहां इस तरह की संस्थाओं की एक पूरी सेना के बारे में सुनाई पड़ता है जो. यहां युद्ध के लिए जरूरी नहीं रह गए अधिकांश बंगालियों को फालतू मान लिया गया. उनके जीने या मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था. उनकी लाशों को जलाने या दफनाने की बात तो दूर उनकी गिनती तक नहीं की गई. संयोग से कुछ भागकर इस आबादी वाले इलाके के किनारे तक आने में कामयाब रहे और किसी तरह बच गए. जबकि बहुत से ऐसा नहीं कर सके.

मिदनापुर में, 1942 में दुर्गा पूजा की सप्तमी को, एक तूफान के साथ अकाल शुरू हुआ. हवा पूरे दिन चली और रात में और तेज हो गईं. बहुतों को याद है कि जब हवाएं रुकती थीं तो आसमान से एक आवाज सुनाई देती थी. जो कहती थी "अय अय अय," या शायद "जा जा जा." दूसरों ने शब्द सुने: "पृथबी शेश" यह दुनिया का अंत है.

यह अकाल हमारे भद्दे रहस्य की तरह है. इसका कोई स्मारक नहीं क्योंकि इसका इतिहास अब भी सांसे ले रहा है और ज़िंदा लोगों के बीच कहीं खौल रहा है. इसे अब तक खुदीराम बोस की शहादत या सुरजा सेन के सशस्त्र हमले की तरह भविष्य में इस्तेमाल करने के लिए अब तक सुरक्षित नहीं किया जा सका है. उन दिनों के साक्षी रहे और किसी तरह अपनी जान बचाने में सफल रहे लोगों को अब भी वो वक्त डरा जाता है. पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की सीमा के दोनों तरफ 25 करोड़ बंगाली रहते हैं. इन दोनों बंगालों के गांवों में दुनिया के सबसे बड़े डेल्टा के चारों तरफ दुनिया का सबसे बड़ा जीता-जागता आर्काइव है. ऐसी सैकड़ों-हजारों आवाजें हैं, जिन्हें अभी सुना जाना बाकी है. और इनके चारों तरफ शहरों, राजधानियों, ऑफिसों, कॉलेजों, स्कूलों, टेलीविजन और इंटरनेट की दुनिया में बसा हुआ एक और बंगाल है. इस बंगाल में रहने वाले लोगों का शरीर डेल्टा की मिट्टी की तरह ही मुलायम है, जिसने बीती कई पीढ़ियों से श्रम और भुखमरी जैसी चीजों का सामना नहीं किया. एक सरसरी नजर से देखने पर ही इस बात के साक्ष्य दिख जाते हैं.

(कारवां पत्रिका के मई 2020 अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट का अनुवाद अभिनव श्रीवास्तव ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)