एक भूली हुई त्रासदी

अकाल स्मृति : 77 साल बाद चश्मदीद की नजरों में बंगाल अकाल

1943 के बंगाल के अकाल में अनुमानित 30 लाख लोग मारे गए.
विलियम वांडिवेट / द लाइफ पिक्चर कलेक्शन / गैटी इमेजिस
1943 के बंगाल के अकाल में अनुमानित 30 लाख लोग मारे गए.
विलियम वांडिवेट / द लाइफ पिक्चर कलेक्शन / गैटी इमेजिस

1.

साल 2018 की सर्दियों में कोलकाता यात्रा के दौरान मैं आदतन कॉलेज स्ट्रीट के पड़ोस में बनी किताब की दुकान पर गया. हमेशा की तरह ही मुझे इस दुकान में कुछ बेहद दिलचस्प हाथ लग जाने की उम्मीद थी. वहां रखी किताबों में से मैंने तिमाही निकलने वाली एक छोटी सी बंगाली पत्रिका 'गंगचिल पत्रिका' का जुलाई 2018 का अंक उठाया. यह पत्रिका इससे पहले शरणार्थियों, पोर्नोग्राफी और नक्सल आंदोलन समेत कई विषयों पर अपने अंक निकाल चुकी थी. इस बार के अंक का विषय था- अकाल. इस अंक में छपे आलेखों में एक आलेख में 16 वाचिक इतिहासों का संकलन था जिनके साथ “मोनोन्तरे साक्खी,” या “अकाल के गवाहों” की पूरे पृष्ठ की तस्वीरें भी प्राकशित की गई थीं जिन्हें पत्रिका के संपादक सलिन सरकार ने संग्रहित किया था. ये सभी तस्वीरें बंगाल के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले उन बेहद साधारण लोगों के जीवन की थीं जिन्होंने साल 1943 के बंगाल अकाल को देखा था और जो इस विभीषिका से बच गए. बंगाल के इस अकाल में 30 लाख लोगों की मौत हो गई थी.

हर बयान के साथ बेहद सादा और करीब से लिया हुआ ब्लैक एंड व्हाइट पोट्रेट भी था. इसे सरकार ने अपने फोन के कैमरे से लिया था. हर बयान की शुरुआत में ही उन लोगों के नाम, उम्र और रिहाइश का ज़िक्र था. इनमें से ज्यादातर महिलाओं और पुरुषों की उम्र नब्बे साल से ज्यादा थी. सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने बताया कि उनकी उम्र 112 साल है. उनके गाल पिचके हुए थे- पुरुषों का चेहरा धूसर बालों से ढका हुआ था और महिलाओं की साड़ी उनके सिर से लिपटी हुई थी. शायद ही किसी तस्वीर में कोई मुस्कुरा रहा था. कभी ना भूलने वाली उनकी आंखें सीधे कैमरे को देख रही थीं. मुझे ऐसा लग रहा था कि उनकी आंखें जैसे कोई सवाल पूछ रही हों, ऐसे सवाल जो मैं खुद से पूछना नहीं चाहता था.

हर इंटरव्यू में सरकार ने शुरुआत में कुछ बातों का जिक्र किया. जैसे कभी उन लोगों के रहने की जगहों के बारे में लिखा और कभी यह बताया कि उनकी सरकार से मुलाकात कैसे हुई. बंगाल का अकाल देख चुके इन लोगों ने कई बार साल 1942 में दुर्गा पूजा के दौरान आए चक्रवात को भी याद किया जिसमें एक ही दिन के भीतर हजारों मर्द, औरत, गाय-भैंस और मछलियां मारी गईं और उनके खेत में खड़ी धान की फसल बर्बाद हो गई. उन्होंने बताया कि कैसे लोग जहां भाग सकते थे वहां भागे, कस्बों में, कलकत्ता, सुंदर बन या हर उस जगह जहां उन्हें खाना मिल सकता था. बहुत से लोगों ने अपना घर छोड़ा और फिर कभी वापस नहीं लौटे. बहुतों ने अपने घरों में ही दम तोड़ दिया. कुछ अपने परिवारों से अलग होकर अपनी झोपड़ियों में भूख के चलते मर गए और कुछ को हैजा और चिकन पॉक्स हो गया. उन्होंने औरतों को वेश्याओं के रूप में बेचने की कहानियां बताईं, उन्होंने बताया कि कैसे परिवारों ने दो मुठ्ठी चावल के लिए अपनी बची-खुची जमीन बेची, कैसे जमींदारों ने भूख से मर रहे लोगों से जमीनें खरीदीं और कैसे मृतकों के घरों को लूटा गया.

जब मैंने इन बयानों को पहली बार पढ़ा तो मुझे लगा कि मैं भूतों से बात कर रहा हूं. ज्यादातर बंगालियों की तरह मुझे भी मालूम था कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान साल 1943 में यहां अकाल पड़ा था और औपनिवेशिक सरकार की नाक के नीचे लाखों लोग मर गए थे. यह बात कोई रहस्य नहीं थी कि यह अकाल ब्रिटिश राज की घोर लापरवाही के चलते पड़ा था. लेकिन यह एक तरह से प्राचीन इतिहास की तरह लगता था. इस अकाल का थोड़ा-बहुत जिक्र स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबों में पूर्व-औपनिवेशिक और औपनिवेशिक काल में अक्सर आने वाली भूकंप, बाढ़ और सूखे जैसी दूसरी दुर्भाग्यपूर्ण आपदाओं के साथ कर दिया जाता है. इसलिए एक भूले हुए अतीत की तरह महसूस होने वाली घटना में जिंदा बचे चश्मदीदों के बारे में जानना मेरे लिए बड़ा झटका था.

कुशनवा चौधुरी कारवां में बुक एडिटर रह चुके हैं और द एपिक सिटी: द वर्ल्ड ऑन द स्ट्रीट्स ऑफ़ कलकत्ता के लेखक हैं.

Keywords: hunger Partition Second World War West Bengal
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