"बीजेपी एक कल्ट है", बीजेपी नेता राम माधव के पूर्व सहयोगी शिवम शंकर सिंह

साभार : शिवम शंकर सिंह

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2013 में शिवम शंकर सिंह ने, जो तब कॉलेज के छात्र थे, 2014 में होने वाले राष्ट्रीय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान में मदद की. उन्होंने 2015 में कॉलेज से स्नातक किया और 2016 में आधिकारिक रूप से बीजेपी के लिए काम करना शुरू किया. सिंह बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष विचारक राम माधव के सानिध्य में काम करते थे. सिंह ने डेटा एनालिटिक्स और सोशल मीडिया जैसे क्षेत्रों में काम किया. मार्च 2018 में उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. एक ब्लॉग पोस्ट में सिंह ने बताया कि उन्होंने विपक्ष और मीडिया के खिलाफ पार्टी के भ्रामक बयानों, राजनीतिक असंतोष, फर्जी खबरों के प्रसार और हिंदू बहुमत के जानबूझकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सहित अन्य कारणों से पार्टी छोड़ दी है.

भारतीय राजनीति का रूप तेजी से दक्षिणपंथी होता जा रहा है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पहले दक्षिणपंथी संगठनों के सदस्य थे लेकिन अब वाम खेमे में आ गए हैं या कम से कम दक्षिणपंथ से दूर हुए हैं. ऐसा क्यों होता है? कौन सी घटनाएं, परिस्थितियां और विचार उनके निर्णयों को आकार देती हैं? शिकागो विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट के छात्र अभिमन्यु चंद्रा ने कारवां के लिए इंटरव्यू की एक श्रृंखला में इन बदलावों का पता लगाने का प्रयास किया है. चंद्रा ने सिंह से उन निर्णायक कारणों के बारे में जिसके चलते अंतत: उन्होंने इस्तीफा दे दिया और बीजेपी के भीतर रहते हुए सरकार से मोहभंग के बारे में बात की.

अभिमन्यु चंद्रा: आपको बीजेपी से इस्तीफा दिए दो साल हो गए हैं. क्या अब पार्टी के बारे में आपकी राय में कोई बदलाव आया है या वही है?

शिवम शंकर सिंह: मैं तो यही कह सकता हूं कि बीजेपी ने पिछले दो सालों में व्यवस्था के भीतर अधिक घुसपैठ कर ली है. शुरू में बीजेपी सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी थी. अब यह मामला नहीं है. अब वह केवल एक राजनीतिक पार्टी [होने] से आगे बढ़ गई है. न्यायपालिका जिस तरह के फैसले सुना रही है उससे आपको अंततः जो देखने को मिलता है वह यह है कि एक राजनीतिक दल ने देश को अपने कब्जे में कर लिया है.

न्यायपालिका, बीजेपी के अंदर और बाहर, मीडिया द्वारा घुटने टेक देने की परिघटना नई है. यह 2019 के बाद की परिघटना है. अगर आप कोरोनोवायरस के हालात को देखें, जिस तरह से यह सब घट रहा है, मोदी जी की जिस तरह की फैन फॉलोइंग है, वह एक राजनीतिक पार्टी की बजाए एक कल्ट की तरह है.

अभिमन्यु चंद्रा : अपने इस्तीफे में आपने बीजेपी में जो कुछ "अच्छे", "बुरे" और "बेहूदगी" के रूप देखे उनका हवाला दिया है. पार्टी के भीतर संतुलन कब बदलने लगा इस बारे में बताइए?

शिवम शंकर सिंह : आज हम इससे आगे बढ़ चुके हैं. आज के समय में बीजेपी के पास वास्तव में जिस हद तक सत्ता है, उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता और इसका विरोध बहुत कम हो रहा है. राजनीतिक रूप से बहुत कम हो रहा है, न्यायपालिका में बहुत कम हो रहा है. एक निरपेक्ष भाव यह है कि ज्यादातर लोग जो (बीजेपी के विरोध) के बारे में कुछ कर सकते थे, उन्होंने हथियार डाल दिए हैं. इस समय लोगों के सामने कोई वास्तविक विकल्प नहीं है.

अभिमन्यु चंद्रा : तो क्या आप यह कह रहे हैं कि पिछले दो वर्षों में प्रतिमान ऐसा बदल गया है कि बीजेपी को अच्छे-बुरे-बेहुदे के संदर्भ में नहीं आंका जा सकता है?

शिवम शंकर सिंह : बिल्कुल.

अभिमन्यु चंद्रा : फिर भी आपके विचार में बीजेपी अच्छे की ओर या बेहुदे की ओर बढ़ी है?

शिवम शंकर सिंह : दिल्ली के दंगों के संबंध में आप देखें जो हो रहा है, जिस तरह के लोग गिरफ्तार किए गए हैं, हर कोई अच्छे से समझता है कि क्या हो रहा है. कोई भी यह नहीं सोचता है कि छात्रों को गिरफ्तार करना, सड़कों पर विरोध कर रहे लोगों को गिरफ्तार करना, उन्हें तीन महीने के लिए जेल भेज देना ठीक बात है.

सबको पता था कि जो हो रहा है वह गलत है. बहुत सारे लोग, यहां तक कि बीजेपी के भीतर भी, यह समझते हैं कि चुन-चुन कर शिकार बनाया जा रहा है. लेकिन मसला यह है कि इस एकदम साफ चीज के लिए भी, इसके खिलाफ कोई वास्तविक सार्वजनिक गुस्सा नहीं है. विपक्ष वास्तव में बहुत कुछ नहीं कर सकता था. आम आदमी पार्टी ने कुछ नहीं कहा, कांग्रेस ने कुछ नहीं कहा. मीडिया ने वास्तव में कोई परवाह नहीं की कि किसे गिरफ्तार किया जा रहा है. सफूरा जरगर गर्भवती थीं, इसलिए (मीडिया में) एक-दो दिनों के लिए उनका मामला चला कि एक गर्भवती महिला जेल में है.

लेकिन एक गर्भवती महिला से परे, तर्क यह होना चाहिए कि लोगों ने सरकार के खिलाफ विरोध किया और अब उन्हें दंगे में फंसाया जा रहा है. लेकिन कोई भी यह तर्क नहीं दे रहा है. इसलिए मैं कहूंगा कि बीजेपी अब भी वैसी ही है जैसी पहले थी. अच्छा, बुरा और बेहुदा वास्तव में इतना नहीं बदला है. यह वैसी ही है जैसी थी. बस दूसरा पक्ष अब पूरी तरह से गायब हो गया है.

हर्ष मंदर जैसे लोगों को दंगों में फंसाया गया है. विरोधी दलों को एक साथ आना चाहिए और कहना चाहिए कि यह गलत है. वास्तव में प्रतिरोध के स्वर अब है ही नहीं. जब तक ऐसा नहीं होता, मुझे नहीं लगता बीजेपी के नैरेटिव को चुनौती दी जा सकती है. यदि मंदर जैसे किसी व्यक्ति पर आरोप लगाए जाते हैं और उन्हें गिरफ्तार किया जाता है तो और भी अधिक लोग अलग-थलग पड़ जाएंगे, पीछे हट जाएंगे. और भय अधिक बढ़ जाएगा. लेकिन इससे भी अधिक (असहमति के लिए स्थान के मामले में) लोग महसूस करेंगे कि हालात असंभव हैं, कुछ भी नहीं किया जा सकता है.

जब जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) का मुद्दा (2016 में) चल रहा था, तब भी आप आम आदमी पार्टी को बोलते हुए देख सकते थे, कांग्रेस बोलती थी. आपने देखा कि कन्हैया कुमार जैसे लोग आवाज उठाने वाले लोगों में उभरे हैं. दिल्ली के दंगों में मैंने यह नहीं देखा.

अभिमन्यु चंद्रा : 2016 के जेएनयू के मामले में आपको क्या लगता है? आप उस समय पार्टी में सक्रिय थे?

शिवम शंकर सिंह : सच कहूं तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी "क्या मूर्खता है. सरकारी तंत्र आखिर एक विश्वविद्यालय से क्यों परेशान है? सब बेतुका था. अगर आप ऐसा नहीं कर रहे हैं तो आप उस ब्रांडिंग को नहीं देख पाते हैं, जब तक कि वह इतने बड़े दायरे में नहीं होने लगती कि दिखाई देने लगे. ये बातें बहुत तुच्छ, बहुत मूर्खतापूर्ण लगती हैं और आपको लगता है कि शायद पार्टी में किसी कोने में बैठा बेवकूफ किस्म का इंसान या कोई बेवकूफ नौकरशाह ऐसा करवा रहे हैं. आप उनके बारे में इस तरह से सोचते हैं.

यह समझने में थोड़ा समय लगता है कि इसका परिणाम क्या होने वाला है, कि "टुकड़े-टुकड़े," "राष्ट्र-विरोधी", ये शब्द इतनी बड़ी बात बन जाएंगे. इस निष्कर्ष पर पहुंचने में लंबा समय लगता है. एक निश्चित समय के बाद, आपको यह पता चलता है कि यह कैसे संचालित होता है. फिर उन्होंने कुछ समय के लिए इस नैरेटिव पर काम किया. उन्होंने इसे कम्युनिस्ट के साथ, मुस्लिम के साथ और कई अधिक चीजों के साथ जोड़ा. इस तरह यह नैरेटिव तैयार हुआ.

2017 के मध्य और 2018 के आसपास इस तरह की स्पष्टता आ गई थी. जो कोई भी सरकार के खिलाफ मुद्दा उठाता है, उदाहरण के लिए, रवीश कुमार की तरह, उसका बहिष्कार और ब्रांड किया जाएगा. वह स्पष्ट हो रहा था. तब तक, आपको अभी भी कुछ उम्मीद थी. सरकार अभी बनी है, कुछ होगा. सभी ने यह विश्वास किया कि भारत नई महाशक्ति बनने जा रहा है, देश के लिए कुछ अद्भुत होने वाला है.

अभिमन्यु चंद्रा : आपने मार्च 2019 में बीजेपी छोड़ दी, जबकि जेएनयू का मसला फरवरी 2016 में शुरू हुआ था. 2017 में, आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया, उनके उन्मादी हिंदू-राष्ट्रवादी रिकॉर्ड को देखते हुए बीजेपी के अंदर भी कई लोगों को अचंभित किया. विशेष रूप से आपने पार्टी क्यों छोड़ी? अंतिम झटका क्या था?

शिवम शंकर सिंह : मैं 2018 के त्रिपुरा चुनावों के लिए काम से जुड़ा था और जाने से पहले उसे पूरा करना चाहता था. मैंने तय कर लिया था कि यह आखिरी परियोजना है जो मैं बीजेपी के लिए काम कर रहा था.

ब्रेकिंग पॉइंट (2018 विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान) कर्नाटक और अन्य जगहों पर दिए गए मोदीजी के भाषण थे. कर्नाटक में वह जो करने की कोशिश कर रहे थे, जिस तरह के भाषण दे रहे थे उन्हें देखते हुए यह बहुत साफ हो गया कि विकास, भ्रष्टाचार-विरोध, बेहतर भारत का निर्माण उनका एजेंडा नहीं होने वाला, जो कि 2014 में था.

अगर आप 2014 को देखें तो बीजेपी अभी भी कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोध पर ध्यान केंद्रित थी, उन्होंने विकास पर ध्यान केंद्रित किया, उन्होंने अच्छे दिन आने वाले हैं पर ध्यान केंद्रित किया, उन्होंने मूल्य वृद्धि पर ध्यान केंद्रित किया. अभी भी कुछ मूलभूत मुद्दे थे जिनके बारे में आप वास्तव में बात कर सकते थे. लेकिन 2019 तक, यह बहुत साफ हो गया था कि इसमें से कुछ भी नहीं होने वाला है.

अभिमन्यु चंद्रा : आपने कर्नाटक में प्रधान मंत्री के भाषणों का उल्लेख किया है - किस संदर्भ में किन विशिष्ट भाषणों ने आपको झकझोरा?

शिवम शंकर सिंह : मैंने कर्नाटक का जिक्र किया क्योंकि यह मेरे लिए बहुत ही अजीब अनुभव था. एक निश्चित स्तर पर, आप ध्रुवीकरण देखने लगते हैं. कर्नाटक के बारे में अनोखी बात यह थी कि प्रधानमंत्री ने गलत बयान दिया. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू या भगत सिंह से जुड़ी कुछ चीजों के बारे में झूठ बोला. मुझे ठीक से याद नहीं है कि वह क्या था लेकिन वह मंच पर चढ़ गए और कहा कि भगत सिंह से जेल में कोई नहीं मिला. ऐतिहासिक रूप से यह तथ्य पूरी तरह से गलत था और सोशल मीडिया पर सभी ने कहना शुरू कर दिया कि प्रधानमंत्री को इतिहास के बारे में नही पता.

मुझे इस बात की बुनियादी समझ है कि एक राजनीतिक भाषण के पीछे कितना काम किया जाता है और मैं जानता हूं कि इस तरह की तथ्यात्मक गलती ऐसे ही नहीं हो जाती. तब आपको यह एहसास होता है कि बीजेपी जानती है कि कोई नैरेटिव किस तरह से तैयार करना है. उस समय तक, (2018 के कर्नाटक) चुनावों में नैरेटिव येदियुरप्पा के खिलाफ था. वह भ्रष्टाचार के बारे में था, बेल्लारी बंधुओं के बारे में था. कर्नाटक की स्थानीय राजनीति में इन बातों पर चर्चा की जा रही थी. मोदी जी के एक गलत बयान देते ही सब ठंडा हो गया.

यह मेरे लिए एक बड़ा सबक था - कि ये लोग इस हद तक जा सकते हैं.

अभिमन्यु चंद्रा : ऐसा लगता है कि आप आश्चर्यचकित थे कि बीजेपी कुछ ऐसा करने के लिए तैयार थी, जिसकी आपने उम्मीद नहीं की थी.

शिवम शंकर सिंह : मैं यह नहीं कहूंगा कि मुझे आश्चर्य हुआ. राजनीति में सब कुछ एक स्पेक्ट्रम पर काम करता है. आप जानते हैं कि कोई भी पार्टी बिल्कुल अच्छी या बिल्कुल खराब नहीं होती है. बीजेपी को भी बहुत से लोगों ने 2014 में उम्मीद के साथ वोट दिया था. 2017 के मध्य और 2018 तक बहुत सारे लोगों को विकास की उम्मीद थी.

धीरे-धीरे मैंने देखा कि यह उम्मीद पूरी तरह से गायब हो गई और यह एक उन्मादी किस्म की चीज में बदल गई. इसलिए मैं इसे "पंथ" की तरह का कहता हूं, और यही हो रहा है. एक नेता है जो कल्ट आफ पर्सनेलिटी से शासन करता है. यह अब मुद्दों पर आधारित नहीं है, इस पर आधारित नहीं हैं कि देश के भविष्य का क्या होगा. इसलिए मैं आखिरकार इस हद पर पहुंच गया कि बस मैं अब ऐसा नहीं कर सकता. बहुत हुआ.

अभिमन्यु चंद्रा : अपना इस्तीफा प्रकाशित करने के तुरंत बाद आपने एक कॉलम में लिखा था कि राजनीति में आपकों "इस तरह विशेषाधिकार हासिल थे कि अपनी प्रतिबद्धताएं दफ्न नहीं करनी पड़ी." विशेषाधिकार प्राप्त होने से आपका यहां विशेष रूप से क्या मतलब है? क्या आप वर्ग, या जाति, या लिंग की बात कर रहे थे या कुछ और?

शिवम शंकर सिंह : असल में हर तरह का है. पहली बात तो मुझे असल में नौकरी की जरूरत नहीं थी. मैं ऐसी पृष्ठभूमि से आता हूं कि मैं वेतन कमा सकता हूं; मैं बीजेपी में जितना कमा रहा था उससे अधिक वेतन पा सकता हूं. दूसरा मेरे लिए लिंग और उच्च हिंदू जाति से होना भी एक विशेषाधिकार है. हालांकि, कितनी भी आलोचना हो जाए, एक हद तक ही मेरा तिरस्कार किया जा सकता है, है ना? मैं कहूंगा कि एक बहुत बड़ा विशेषाधिकार यह है कि बीजेपी में बहुत सारे लोग मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं. क्योंकि पार्टी के भीतर मेरे दोस्त हैं इसलिए मैं समझता हूं कि आखिरकार कोई जबरदस्त प्रतिक्रिया नहीं आएगी.

अभिमन्यु चंद्रा : मानिए अगर आप एक औरत या मुस्मिल होते और बाकी सारी पृष्ठभूमि उसी तरह होती तो इस्तीफा देने की उनकी क्षमता, मुखर होने और प्रतिक्रिया के मामले में क्या बदलाव होता?

शिवम शंकर सिंह : पहले तो मुझे यकीन है कि ट्रोलिंग बहुत ज्यादा होती. दूसरा अगर कोई मुस्लिम है, तो उसका इतने लंबे समय तक वहां टिक जाना ही बहुत अजीब होता. मुझे नहीं लगता कि ऐसा होता भी.

अभिमन्यु चंद्रा : पार्टी के विकसित होने की राजनीति को देखते हुए क्या आप यह कह रहे हैं कि जिस पद पर आप पार्टी में इतने समय तक आप रहे कोई मुसलमान उन पदों पर नहीं रहेगा?

शिवम शंकर सिंह : हां, या कहें कि इस पद तक तो वह आ ही नहीं सकते थे. संगठन में मेरा कोई मुस्लिम सहयोगी नहीं है. आईटी सेल में मुझे ज्यादा मुसलमान नहीं मिले. ऐसा होता ही नहीं है. औरतों के मामले में भी ऐसा ही है. अगर आप बीजेपी आईटी सेल को देखें, तो यह उस लिहाज से बहुत समावेशी संगठन नहीं है और कुछ हद तक, यह बात सभी राजनीतिक दलों के लिए सच है. सभी राजनीतिक दल काफी हद तक पुरुष प्रधान हैं.

अभिमन्यु चंद्रा : आपने कॉलम में भी लिखा है कि आपके इस्तीफे को कई पाठकों का समर्थन मिला था. क्या पार्टी की आंतरिक प्रथाओं के बारे में शिकायत करते हुए, बीजेपी के भी कुछ लोग आपसे सहमत थे? क्या और लोगों ने इस्तीफा दिया?

शिवम शंकर सिंह : आमने-सामने मिलने पर लगभग हर कोई [इस्तीफे की] मूल बातों से सहमत है. कुछ असहमति हो सकती हैं, जैसे "और क्या विकल्प है" कि "कांग्रेस भी बेकार है" कि "वह हमसे ज्यादा बुरी न भी हो तो उतनी ही बुरी है." लेकिन मूल रूप से हर कोई बहुत सी चीजों पर सहमत है और मुख्य रूप से यदि आप अभी किसी से बात करते हैं तो कोई भी यह नहीं कहेगा कि बीजेपी अर्थव्यवस्था पर अच्छा कर रही है. मैंने जिससे भी बात की हर किसी ​को यह एहसास है कि 20 लाख करोड़ रुपए का पैकेज (महामारी और उसके बाद के लॉकडाउन के जवाब में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा घोषित) पर्याप्त नहीं है.

अभिमन्यु चंद्रा : क्या आप कह रहे हैं कि बीजेपी के भीतर के लोग यह कहेंगे?

शिवम शंकर सिंह : हां. आमने-सामाने तो लगभग सभी को पता है कि सरकार अच्छी तरह से काम नहीं कर रही है और लगभग सभी को यह भी पता है कि वे विकास के मुद्दों पर नहीं जीत सकते हैं. उन्हें दूसरे मुद्दों पर जीत हासिल करनी है और मैं तो यही समझता हूं कि हर बार एक नया मुद्दा बन जाएगा. पिछली बार पुलवामा, बालाकोट मिल गया इसलिए यह पाकिस्तान विरोधी हो गया. अगला चुनाव में कुछ और ​मुद्दा मिल जाएगा. लेकिन कुल मिलाकर सबकुछ भावनात्मक मुद्दे पर हो रहा है. बहुत सारे लोग (पार्टी के भीतर) इसे समझते हैं.

लेकिन जिन लोगों ने एक राजनीतिक पार्टी के भीतर अपनी राजनीति का निर्माण करने में सालों लगाए हैं, उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है (मुझसे कहीं ज्यादा). एक इंसान जो एक सीट पाने की कोशिश में दस साल से राजनीति कर रहा है, बीजेपी और आरएसएस में पंद्रह-बीस साल बिताने के बाद जो संगठन में उठ पाया है, उसके लिए इस मौके की कीमत इतनी ज्यादा है कि अधिकांश लोग वास्तव में तब तक अपना पक्ष नहीं बदलते हैं जब तक कि इससे उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ न हो.

जो लोग आसानी से ऐसा कर सकते हैं वे ऐसे लोग हैं असल में जिनकी जिंदगी और आजीविका राजनीति पर निर्भर नहीं है, जिनके लिए राजनीति पूरा पेशा नहीं है. अगर विपक्ष ने कोई ऐसा मंच बनाया होता तो अन्य लोगों के पास दल बदलने का विकल्प होता. उदाहरण के लिए, बीजेपी ने एक ऐसा मंच बनाया है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा कोई व्यक्ति, जो कांग्रेस से नाखुश है, उसे छोड़ सकता है. दूसरा पक्ष पेशेवर राजनेताओं के लिए कोई मंच बनाने में सक्षम नहीं है जो इस तरह से कुछ करने में सक्षम हो.

अभिमन्यु चंद्रा : इसका मतलब यह है कि जो लोग बीजेपी छोड़ चुके हैं, चाहे आप या यशवंत सिन्हा या प्रद्युत बोरा, वे लोग हैं जो विशेषाधिकार प्राप्त आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं? जो लोग छोड़ सकते हैं, और नहीं छोड़ सकते, उनके बीच क्या सामान्य विशेषताएं हैं?

शिवम शंकर सिंह : मैं कहूंगा कि सबसे आम विशेषता है कि वे लोग हैं जो (आजीविका के लिए) राजनीति पर निर्भर नहीं हैं. और यह भी आपको यह पता लगाना होगा कि आप जीवन में और क्या करना चाहते हैं. क्योंकि बीजेपी को छोड़ना और यह जानना कि कोई वास्तविक विपक्ष नहीं है जो बहुत कुछ कर रहा है, आपके फैसले का मतलब है कि राजनीति से पूरी तरह बाहर हो जाना.

अभिमन्यु चंद्रा : जब लोग बीजेपी छोड़ते हैं, तो कभी-कभी बीजेपी को समर्थन देने के लिए उनकी वामपंथ की ओर से आलोचना की जाती है. क्या आपको लगता है कि उदारवादी लोग खुले हैं और उन लोगों का स्वागत कर रहे हैं जो बीजेपी छोड़ना चाहते हैं, या इस बिंदु पर मोदी का समर्थन करने के लिए अधिक आलोचना हो रही है? आपका व्यक्तिगत अनुभव क्या था?

शिवम शंकर सिंह : मैं कहूंगा कि सामान्य तौर पर बीजेपी और आरएसएस (दूसरे समूहों को छोड़ कर आए) लोगों को शामिल करने का बेहतर काम करते हैं. सामान्य रूप से वे संगठन, विशेष रूप से, आरएसएस आपको संगठन में लाने के लिए बनाया गया है और आपको समुदाय के एक हिस्से की तरह महसूस कराता है. उनका पूरा उद्देश्य जितना संभव हो उतना बड़ा बनना है. यही उनका घोषित उद्देश्य है.

इस तरह की बात वामपंथ में मौजूद नहीं है क्योंकि वह कोई वास्तविक संगठन नहीं है. सब अपनी-अपनी बात कर रहे हैं. अभी बीजेपी के खिलाफ लोगों के विभिन्न समूहों के बीच बहुत कम समानता है. वामपंथियों में दंभ है कि "आपको बेहतर पता होना चाहिए था," या कि "आपने एक बार उनका समर्थन किया था तो आप हमारे पाले में हो ही नहीं सकते." लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई संगठन या राजनीतिक पार्टी ऐसा कह रही है, बस ऐसा है.

अभिमन्यु चंद्रा : अपने अतीत को देखते हुए क्या आपको बीजेपी के साथ काम करने का पछतावा होता है?

शिवम शंकर सिंह : नहीं, बिल्कुल नहीं. मुझे लगता है कि एक निश्चित समय में बीजेपी का समर्थन करना महत्वपूर्ण था क्योंकि कोई भी वास्तव में 2014 में कांग्रेस का समर्थन नहीं कर सकता था. जिन लोगों ने उस उम्र में राजनीति को समझना शुरू किया था वे समझ गए थे कि कांग्रेस को खत्म करना होगा. भ्रष्टाचार और निष्क्रियता का नैरेटिव उनके सामने था. यह समझने के लिए कि नैरेटिव सही है या नहीं एक हद तक का अनुभव और परिपक्वता चाहिए. लेकिन जब आप वोट देने की उम्र में पहुंच रहे हैं और तब जो नैरेटिव गढ़ा जाता है उसमें आप बह जाते हैं.

(बीजेपी में) हमने अभियानों के डिजाइनिंग और निर्माण पर हमने इसी बात पर काम किया, इसलिए मैं समझता हूं कि यह कैसे होता है. यह कहना आसान हो सकता है कि प्रचार का आप पर असर नहीं हो सकता या विज्ञापन का आप पर असर नहीं हो सकता. लेकिन असल में कोई भी इससे बच नहीं सकता.

अभिमन्यु चंद्रा : लेकिन इस तथ्य के बारे में आप क्या कहेंगे कि जो नैरेटिव सामने आए हैं, वे निराधार हैं?

शिवम शंकर सिंह : अब जब मैंने राजनीति में इतने लंबे समय तक काम किया है, तो अब मुझे पता है कि आप लोगों को भीड़ कैसे जुटा सकते हैं. मुझे पता है कि भीड़ कैसे इकट्ठा होती है, भीड़ कैसे संचालित होती है. अब, मैं किसी भीड़ को देख कर आसानी से बता सकता हूं कि कितने लोगों को जुटाया गया हैं और कितने अपने दम पर आए हैं. एक बार जब आप चुनावों में काम कर चुके होते हैं कि नैरेटिव कैसे तैयार किए जाते हैं, तो आप देखते हैं कि प्रोपगेंडा कैसे काम करता है, यह बताना काफी आसान है.

लेकिन सिर्फ बाहर से देखने पर, मुझे पूरा विश्वास है कि (जो नैरेटिव पेश किया गया है) वह इतना शक्तिशाली है कि लगभग कोई भी उसमें बह जाए. और हमने इसे कई बार होते देखा है. हमने इसे बालाकोट और पुलवामा में होते देखा. हम इसे अभी चीन के बारे में होता देख रहे हैं. हम इसे कोरोनावायरस के मामले में देख रहे हैं, थाली-वाली बाजने की नौटंकी के साथ जो शुरू हुआ था. इस तरह की चीजें और वे कैसे फैलती हैं, यह आपको देखने को मिलता है. और एक बार जब आप इसे अंदर से देखते हैं, तो सारा जादू गायब हो जाता है.

अभिमन्यु चंद्रा : आपने जि​क्र किया कि बीजेपी छोड़ने का फैसला करना कुछ हद तक राजनीति छोड़ने जैसा है, आपके विचार में, विकल्पों की कमी है. मार्च 2018 में बीजेपी छोड़ने के बाद आप क्या कर रहे हैं?

शिवम शंकर सिंह : मैं दो कंपनियों के साथ काम कर रहा हूं : एक डेटा एनालिटिक्स कंपनी, रिप्ली एनालिटिक्स और एक मीडिया कंपनी, जिसका नाम पब्लिक रिलेशन और एडवोकेसी ग्रुप है.

अभिमन्यु चंद्रा: क्या आपकी किसी पार्टी या राजनीतिक आंदोलन में शामिल होने की योजना है?

शिवम शंकर सिंह : मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि जब तक कि आपके पास बैंक बैलेंस न हो आप इस देश में किसी भी हद की सम्मानजनक राजनीति नहीं कर सकते. राजनीति में आपकी बात का वजन आपकी वित्तीय हैसियत तय करती है.

अभिमन्यु चंद्रा : क्या आप अभी इस पर काम कर रहे हैं?

शिवम शंकर सिंह : हां और यही सलाह मैं दूसरों को देता हूं क्योंकि मुझे राजनीति में आने के इच्छुक बहुत से लोगों के फोन कॉल आते हैं. मैं कहता हूं पॉलिटिकल बनो, राजनीतिक रूप से सक्रिय रहो लेकिन तुरंत चुनाव लड़ने की उम्मीद मत करो क्योंकि भले ही ऐसा हो जाए लेकिन आपको पार्टी नेतृत्व के अधीन होना पड़ेगा. लेकिन इससे पार पाने का केवल एक ही तरीका है कि आप अपना साम्राज्य खड़ा करो और इसके बाद वह करो जो आप चाहते हो.

 

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