दलित समाज के भंवर मेघवंशी 1980 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सदस्य हो गए थे और उसके हिंदू राष्ट्र के विचार के हिमायती बन गए. बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों के हाथों उन्हें जातिवादी भेदभाव का सामना करना पड़ा और वह संगठन को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने लगे. मेघवंशी ने 2019 में प्रकाशित अपनी किताब, मैं एक कारसेवक था, में आरएसएस में रहते हुए अपने अनुभवों के बारे में बताया है.
भारतीय राजनीति का रूप तेजी से दक्षिणपंथी होता जा रहा है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पहले दक्षिणपंथी संगठनों के सदस्य थे लेकिन अब वाम खेमे में आ गए हैं या कम से कम दक्षिणपंथ से दूर हुए हैं. ऐसा क्यों होता है? कौन सी घटनाएं, परिस्थितियां और विचार उनके निर्णयों को आकार देती हैं? शिकागो विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट के छात्र अभिमन्यु चंद्रा ने कारवां के लिए इंटरव्यू की एक श्रृंखला में इन बदलावों का पता लगाने का प्रयास किया है. चंद्रा ने मेघवंशी से बात की कि किस वजह से वह संघ से जुड़े जबकि उनके पिता कांग्रेस समर्थक थे और उन्हें किन बातों ने संघ त्याग देने के लिए प्रेरित किया.
अभिमन्यु चंद्रा : क्या आप मुझे राजस्थान में अपने बचपन के बारे में बता सकते हैं? अपनी पुस्तक में आपने लिखा है कि आपके पिता लंबे समय तक कांग्रेस के समर्थक थे. किस वजह से वह पार्टी के समर्थक थे?
भंवर मेघवंशी : मेरा परिवार कबीरपंथी है. हमारी पृष्टभूमि सूफीवादी थी यानी एक ऐसा माहौल जहां सभी विचारों के लिए जगह थी. हमारे यहां सामंती स्थिति रही है. सामंतवाद इतना मजबूत था कि दलित बंधुआ मजदूरी करते थे. हजारों वर्षों से दलित एक दमित समाज रहा है. मेरे दादाजी ने यह सब देखा है.
मेरे पिता के बारे में कहूं तो राजस्थान में, राजनीतिक स्तर पर, अगर किसी ने हम दलितों को राजनीतिक रूप से प्रभावित किया था तो वह कांग्रेस पार्टी थी. जब (स्वतंत्रता) आंदोलन शुरू हुआ तो हरिजनों के लिए गांधी के प्रयासों की शुरुआत हुई. इसकी आलोचना की जा सकती है लेकिन सामंतवाद के खिलाफ जो आवाज उभरी वह कांग्रेस की आवाज थी. (हरिजन एक अपमानजनक शब्द है जिसका इस्तेमाल अनुसूचित जाति के लिए किया जाता है. 2017 में सर्वोच्च न्यायालय इस शब्द को अपमानजनक माना था.) यहीं से हमें हमारे अधिकार मिले थे. मेरे पिता के लिए, आज भी कांग्रेस में हुए सभी परिवर्तनों के बावजूद वह अभी भी "गांधीजी की कांग्रेस" है.
उस समय की कांग्रेस अपने सामाजिक सुधार कार्यों से वास्तव में हमारे लोगों को प्रभावित करती थी. मैंने पहली बार दलित कॉलोनी में बीजेपी का झंडा 1995 के बाद देखा था. चुनाव का अर्थ (कांग्रेस) का प्रतीक चिन्ह था. जब इंदिरा गांधी की मृत्यु हुई तो हमारा पूरा गांव शोक में था जैसे कि हमारा अपना मर गया हो.
अभिमन्यु चंद्रा: आप बचपन में किस तरह के मीडिया से जानकारी पाते थे? क्या आपके आस-पास अखबार, किताबें, टीवी थे?
भंवर मेघवंशी : मेरे घर में दो किताबें थीं. एक तंत्र-मंत्र की किताब थी- मेरे पिता तांत्रिक भी थे और कुछ दूर के रिश्तेदारों ने धर्म परिवर्तन कर लिया था इसलिए एक नया नियम (न्यू टेस्टामेंट) थी. अखबार नहीं आते थे. रेडियो था और उस पर पिताजी बीबीसी वगैरह सुनते थे.
गांव में टीवी केवल ठाकुर के घर पर पर था, जो कांग्रेसी भी था. 1988 के आसपास टीवी पर रामायण चल रहा था. हर रविवार को हम लोग उसे देखने जाते थे. वह अपना घर सबके लिए खोल देता था. वह और उसकी पत्नी भी देखते थे. वह हम दलित बच्चों को भी घर के अंदर आने की अनुमति देता था.
इससे पहले मैंने रामायण कभी नहीं पढ़ी थी और न ही देखी थी. पारंपरिक रूप से हम कबीर के अनुयायी हैं. हमारी पृष्ठभूमि में राम भक्ति नहीं थी.
रामानंद सागर की रामायण ने लोगों को राम जन्मभूमि आंदोलन के लिए तैयार किया. पहली बार सभी को राम से मिलवाया गया. विशेष रूप से दलितों, किसानों, आदिवासियों-के बीच इसका व्यापक प्रभाव था, इसने उनमें राम की स्थापना की, राम की स्वीकृति को बनाया. राम के नाम पर लोगों को जुटाना सागर का काम था.
अभिमन्यू चंद्रा: कोविड-19 लॉकडाउन के बीच राष्ट्रीय टेलीविजन पर इस कार्यक्रम को फिर से दिखाया गया. अगर ऐसा था तो लोगों को किस चीज के तैयार किया जा रहा था?
भंवर मेघवंशी : यह 1995 के बाद की पीढ़ी को राम से मिलाने का प्रयास इसलिए हुआ क्योंकि लोग घर पर थे. आज के युवा उसे उसी पागलपन से देख रहे थे जिसके साथ हमने इसे देखा था और उनके पास कोई विकल्प नहीं था क्योंकि घर से कहीं नहीं जा सकते थे.
सरकार के लिए यह कार्यक्रम आंशिक रूप से 5 अगस्त को (अयोध्या में राम मंदिर की) आधारशिला रखने के लिए एक माहौल बनाने का एक तरीका था. यह लोगों को गहरे स्तर पर तैयार करने- नई पीढ़ी को तैयार करने - के लिए था कि वे आदर्श रामराज्य के लिए खुद को तैयार रखें क्योंकि भारत में उस राम राज्य के बनने की शुरुआत हो रही है. लोग इसके असर में आते जा रहे हैं.
अभिमन्यू चंद्रा : जैसा कि आपने किताब में जिक्र किया है कि एक तरह से राजनीतिक तौर पर आपके पिता ने आपको प्रभावित किया. दूसरी तरफ आपके स्कूल के भूगोल शिक्षक - जो आरएसएस से भी जुड़े थे- का आपके बचपन के दौरान आप पर परस्पर विरोधी प्रभाव था. आपने इन नजरियों के बीच कैसे तालमेल बैठाया? आरएसएस की विचारधारा से आप कैसे आकर्षित हुए?
भंवर मेघवंशी : जब तक मैं आरएसएस में नहीं चला गया तब तक मेरे पिता का प्रभाव मुझ पर था. आरएसएस ने खेलों से शुरुआत की. कोई विचारधारा नहीं थी. हम बस खेलने के लिए वहां जाते थे. लेकिन फिर विचारधारा सामने आने लगी. हमें बताया जाने लगा कि गांधी और अशोक (मौर्य वंश के सम्राट जिन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था) की अहिंसा कायरता है. सातवीं कक्षा में मैंने आरएसएस का हिंदी मुखपत्र पांचजन्य पढ़ना शुरू किया. मैं आरएसएस की किताबें पढ़ा करता था.
मैं संतुलन की स्थिति में नहीं था. एक समय आया जब विभाजन, कश्मीर, मुस्लिम तुष्टिकरण के मुद्दों पर, मैं सोचने लगा कि मेरे पिता राष्ट्र के इन गद्दारों के साथ हैं. मुझे लगा कि कांग्रेस ने मेरे पिता और दादाजी के दिमाग को खराब कर दिया है - वे सोचने नहीं सकते हैं. मुझे लगा कि वे हिंदुओं के बारे में, देश के बारे में सोचने के लायक नहीं हैं.
मेरे भाई और मैंने अपने घर के दरवाजे पर कांग्रेस के स्टिकर के ऊपर दो स्टिकर चिपका दिए. कांग्रेस के पंजे के स्टीकर के ऊपर हमने "गर्व से कहो हम हिंदू हैं'' वाला स्टिकर चिपका दिया. जब भी कोई कांग्रेसी नेता घर आता, मेरे पिता कहते, "थोड़ा पानी ले ओ," "कुछ चाय लाओ", लेकिन हमने सोचा, "ऐसे लोगों के लिए चाय क्यों लाएं?" इस हद तक मेरा दिमाग कांग्रेस का विरोध भर दिया गया था.
अभिमन्यु चंद्रा : ऐसा लगता है कि आपके पिता अपनी राजनीति को सीधे जाहिर कर रहे थे, जबकि आरएसएस अपनी विचारधारा को अधिक बहुआयामी, अप्रत्यक्ष तरीके से प्रस्तुत कर रहा था. क्या आप इस अंतर को समझा सकते हैं?
भंवर मेघवंशी : मेरे पिता की सोच उनके अपने जीवन की, उनके अपने पिता की सोच, उनके सामने आने वाले कड़वे अनुभवों की विरासत थी. ऐसा कोई समूह ही नहीं था जो उन्हें एक विचारधारा सिखा सके, या एक ऐसा समूह जिसके पास एक कैडर हों या कुछ नियमित शिक्षा प्रदान करे. क्योंकि कांग्रेस ने उनके लोगों के जीवन को बदला इसलिए वह उससे जुड़े हुए थे.
आरएसएस में हर दिन कुछ हो रहा था. व्यायाम, खेल, शाखा आदि. पहले थोड़ा व्यायाम, फिर थोड़ा खेल और फिर हमें बताना कि यह देश किसका है और तमाम दूसरी बातें. हमें बताया गया कि हम शुद्ध आर्य हैं, कि हम सबसे श्रेष्ठ हैं, कि हम विश्व गुरु हैं.
हम सबसे श्रेष्ठ हैं यानी दूसरे श्रेष्ठ नहीं हैं. "भारत माता को विभाजित करने के लिए कौन जिम्मेदार है?" "गांधी नोवाखली में मुसलमानों के लिए गए और उनके साथ खड़े हुए और नेहरू कश्मीर से थे, वह कश्मीर के मसले पर शामिल थे." इसलिए ऐसी कहानियों के जरिए (आरएसएस ने अपना संदेश पहुंचाया). हमारे पास वास्तव में कुछ भी जांचने की क्षमता नहीं है और यही बात पांचजन्य और आरएसएस की पुस्तकों में भी प्रकाशित होती हैं. प्रशिक्षण में भी यही सिखाया गया. जब हम अखबार पढ़ने की उम्र में पहुंचे तो शाहबानो का मामला चल रहा था. रामानंद सागर की रामायण चल रही थी. सब कुछ एक-दूसरे से ताल मिलाकर चल रहा है, एक-दूसरे को साबित कर रहा है.
शाखा में, शिक्षक वास्तव में आपको प्रभावित करता है. वह शिक्षक आपके नाम के साथ "जी" लगाना शुरू करता है, जो बात आपको प्रभावित करती है. हर रोज एक घंटे ऐसा होता है. दूसरी विचारधाराएं छह महीने में एक बार, पांच साल में एक बार आपके सामने आतीं. मेरी पूरी पंचायत में कोई मुसलमान नहीं था. फिर भी मेरे दिमाग में यह भर चुका था कि मुसलमान सबसे बुरे लोग हैं.
कम उम्र के बच्चों तक पहुंचने के लिए आरएसएस के पास एक बहुत ही व्यवस्थित प्रक्रिया है. कहा जाता है, "हम एक साफ स्लेट पर लिखते हैं." मेरे भूगोल शिक्षक (एक सरकारी माध्यमिक स्कूल में) स्कूल के घंटों के बाद पूरी तरह से आरएसएस से जुड़े हुए थे. मेरे सात या आठ शिक्षकों में से पांच आरएसएस में थे. आज भी, स्कूल के शिक्षकों पर आरएसएस का भारी प्रभाव है. यह यह बढ़ता ही जा रहा है. हिंदी भाषा के क्षेत्रों में, प्राथमिक शिक्षक, यहां तक कि माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक, और इससे भी बढ़कर अधिकांश लैक्चरार आरएसएस से जुड़े हैं. उनका पूरा ध्यान बच्चों पर है.
अभिमन्यु चंद्रा : जैसा कि मैंने आपकी किताब से समझा है कि कुछ घटनाओं ने, जो झटके की तरह घटीं, आपको आरएसएस छोड़ने के लिए प्रेरित किया. पहले आप आरएसएस का प्रचारक बनना चाहते थे? लेकिन आपको बताया गया कि आपकी जाति के कारण यह अनुचित है. उन्होंने कहा कि "हम एक प्रचारक चाहते हैं, न कि विचारक." एक अन्य घटना में आरएसएस के सदस्यों ने आपके घर पर पका हुआ खाना खाने से इनकार कर दिया और उसे सड़क पर फेंक दिया. क्या ऐसी अन्य घटनाएं भी थीं जिन्होंने आपको आरएसएस छोड़ने के लिए प्रेरित किया?
भंवर मेघवंशी : मुझे पढ़ने और चर्चा करने में बहुत मजा आता था और मैं अक्सर आरएसएस के कार्यक्रमों में, शाखा में सवाल पूछता. वे चिढ़ जाते थे.
सवाल करना सराहनीय नहीं है. वहां आपसे यही उम्मीद की जाती है कि आप बस विश्वास करो. वहां चीजों को जानने की इच्छा करने की कोई सोच ही नहीं थी. मुझे एक बार कहा गया था कि, "आप अपने सिर से तो मजबूत हैं लेकिन आप नीचे कमजोर हैं." मतलब था कि अपने दिमाग को बहुत ज्यादा कसरत न करांए, अपने शरीर को मजबूत बनाएं.
वे बताते कि बहुत ज्यादा सोचना अच्छा नहीं है. आलोचनात्मक सोच के लिए वहां कोई जगह नहीं है. इसे खत्म करने के निरंतर प्रयास होते हैं. प्रचारक जो भी कहे उसे मान लो. श्रद्धा से उसके आगे झुक जाओ और उसके उपदेश को सुनो. वह कुछ तथ्यात्मक कहे या न कहे, आप सवाल नहीं कर सकते. तो मेरी छवि एक विद्रोही टाइप व्यक्ति की थी.
खाने वाली घटना एक महत्वपूर्ण मोड़ था. वे कहेंगे कि यह छोटी सी बात थी. लेकिन मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी. मई 1991 से अप्रैल या मई 1993 तक इस मुद्दे का कोई हल नहीं निकला.
सभी ने सोचा कि मैं मानसिक रूप से परेशान हो गया हूं. मैं एक ही चीज पर फंस गया हूं. और वास्तव में मैं फंस गया था. मैं एक हिंदू राष्ट्र के लिए मरने के लिए तैयार था लेकिन मैंने सोचा, “ये लोग मेरे घर पर खाना नहीं खाना चाहते हैं. यह किस तरह का हिंदू राष्ट्र है?” धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि यह मेरे समुदाय के खिलाफ भेदभाव का बड़ा मुद्दा है और एक बड़े सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है.
अभिमन्यु चंद्रा : आपने अपनी किताब में जिक्र किया है कि आपने चूहा मारने की दवा से आत्महत्या करने की कोशिश की. क्या आप अपनी जिंदगी के उस वक्त के बारे में बता सकते हैं?
भंवर मेघवंशी : जहर खाने की घटना मई-जून 1991 में भी हुई थी, जब वे मेरी बात नहीं सुन रहे थे. एक छोर पर एक हिंदू राष्ट्र के लिए प्रतिबद्धता थी. दूसरी ओर जिन लोगों को मैंने अपना नायक माना ... यह उस समय की बात है जब आपके दिमाग में कोई आदर्श बन जाता है और जब वह बिखर जाता है. सब कुछ टूट गया था.
ये वे लोग थे जिनके साथ मैं रोजाना समय बिताता था, उनमें से कई मेरे दोस्त थे. मैं उनके साथ उनके कार्यालय में जाकर बहस किया करता. मैंने सोचा था कि जो लोग दोषी हैं उनके खिलाफ कुछ कार्रवाई होगी, शायद उन्हें हटा दिया जाएगा. लेकिन उन्हें कभी हटाया नहीं गया. उनमें से कुछ आज प्रमुख पदों पर हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : आरएसएस में आपके मित्रों और सहकर्मियों की प्रतिक्रिया कैसी थी? क्या किसी ने आपसे माफी भी मांगी?
भंवर मेघवंशी : आरएसएस में ज्यादातर लोगों की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं थी. कुछ लोग निजी तौर पर कहेंगे कि जो हुआ वह सही नहीं था. लेकिन उनमें आरएसएस में रहते हुए ये कहने की हिम्मत नहीं थी.
कुछ दोस्त थे. पुरुषोत्तम नाम के मित्र, जिन्होंने मुझे पहली बार बताया था कि इन लोगों ने खाना फेंक दिया था, मेरे साथ ही रहे. वह एक संवेदनशील व्यक्ति हैं.
जब भी मैं कुछ दलित स्वयंसेवकों से मिलता, वे जातिगत भेदभाव के अपने अनुभव साझा करते. लेकिन वे कहते, "किसी को मत बताना." कुछ संघ में प्रगति करना चाहते थे, कुछ राजनीति में.
अभिमन्यु चंद्रा : आपने महसूस किया कि आपके साथ धोखा हुआ और आपने यह बात कह दी. लेकिन ऐसी ही स्थितियों में कई लोग आरएसएस में काम करना जारी रखते हैं. आपको क्या लगता है कि उन्होंने क्यों नहीं आरएसएस छोड़ दी?
भंवर मेघवंशी : मुझे कभी-कभी लगता है कि मुझे सवाल पूछने के परिणाम भुगतने पड़े. जिन लोगों ने सवाल नहीं उठाया वे आरामदायक जीवन जीते थे. उन्होंने अपना करियर बनाया है. मेरे समय के स्वयं सेवक संगठन के पदों पर हैं. कुछ राजनीति में हैं, विधायक हैं.
उन्हें पता है कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. वे जातिवाद को महसूस करते हैं. लेकिन वे चुप रहते हैं. मैंने कुछ लोगों से पूछा : "आप चुप क्यों रहते हैं?" उन्होंने कहा, “ये चीजें समाज में, स्कूल में होती हैं, हम तब भी चुप रहते हैं. इसलिए हम आरएसएस में भी चुप रहते हैं.” वे कहते हैं कि इस तरह की बाते आम हैं.
मौन की यह संस्कृति बहुत कुछ संचालित करती है. पहले से ही हमें (आरएसएस में) सवाल पूछने के लिए हतोत्साहित किया जाता था. उन्हें पता है कि आरएसएस को चुनौती देने का क्या मतलब होगा. वे कहते हैं, “संगठन ऊपर से नीचे तक शक्तिशाली है. हम कैसे लड़ेंगे?” उन्हें लगता है कि उनका जीवन इस तरह से चलता रहेगा. उनके दिमागों को भरा गया है. वे यह नहीं सोचते कि उनकी अपनी जिंदगी में क्या हो रहा है, उनके समुदाय के साथ क्या हो रहा है. अंदर कोई प्रतिरोध, विरोध संघर्ष नहीं होता है. उन्हें लगता है कि ऐसे शब्द आतंकवादियों की भाषा है.
यदि कोई व्यवसायी है, तो उसकी अपनी कमजोरियां हैं, यदि कोई प्रशासन में है, तो उसकी अपनी बाधाएं होंगी. इसलिए लोग लड़ने में सक्षम नहीं हैं. मुझे लगता है कि संघर्ष की कमी है.
उनमें से कुछ सोचते हैं, "हमें इतना सम्मान मिल रहा है." जिन लोगों को गांव के आम मंच में बैठने की अनुमति नहीं थी अगर उन्हें जिला या तहसील-स्तरीय मंच पर बैठने के लिए बुलाया जा रहा है और बहुत सारे लोग उनके सामने बैठे हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य हासिल कर लिया. सभी की अपनी स्थिति है. लेकिन हर कोई पीड़ित है, हर कोई इसको लेकर बात भी करता है.
मेरी किताब सामने आने के बाद, बहुत से लोगों ने आरएसएस छोड़ने की, उससे लड़ने की अपनी कहानियां मेरे साथ साझा कीं. मुझे हाल ही में उत्तराखंड से किसी का फोनकॉल आया, हमने एक घंटे तक बात की. वह 12 वर्षों से आरएसएस में सक्रिय थे. लेकिन 2 अप्रैल 2018 को अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के विरोध में उत्तराखंड में दलितों के खिलाफ आरएसएस की भूमिका के बाद, अब संगठन के खिलाफ बहुत सक्रिय हो गए हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : आपका क्या अनुमान है कि हाल के वर्षों में आरएसएस छोड़ने वाले दलितों की संख्या कितनी है?
भंवर मेघवंशी : हजारों लोगों ने आरएसएस छोड़ दी होगी. मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूं जिन्होंने संघ छोड़ा हैं. मैं एक व्यक्ति से मिला जो तर्कों में आरएसएस प्रचारक की बखिया उधेड़ना देता था. ऐसे कई लोग हैं जो आरएसएस से सीधे टकराए. लेकिन निकलने के बाद लोग शांत रहते हैं. वे अपने तंह कुछ लोगों को अपनी कहानियां सुना सकते हैं. लेकिन वे अपने कड़वे अनुभवों को सामने लाने में असमर्थ हैं. सबकी कहानियां हैं. कुछ मुझ से भी खतरनाक होंगी.
केरल में सुधेश मिन्नी (लगभग 15) वर्षों तक आरएसएस के प्रचारक रहे. उन्होंने आरएसएस छोड़ दी और एक मलयालम किताब लिखी जो अंग्रेजी में भी है (सेलर्स आफ इंफॉर्मेशन : एक आरएसएस प्रचारक का इकबालिया बयान). अब वह केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के साथ है. वह बहुत सक्रियता से बात करते हैं. लेकिन क्योंकि दक्षिण भारत को जैसे बाकी लोग भारत नहीं मानते इसलिए आरएसएस इस बात की परवाह नहीं करते कि वहां क्या हो रहा है.
अभिमन्यु चंद्रा : आरएसएस छोड़ने वाले और बोल पाने वाले दलित कौन हैं? क्या इसका लिंग, वर्ग, उप-जातियों या ऐसे अन्य कारकों से कुछ लेना-देना है?
भंवर मेघवंशी : आरएसएस में अधिकांश दलित वे हैं जो मध्यम वर्ग के हैं, अमीर हैं, नौकरियों वाले, शहरी, शिक्षित, दलितों के बीच का कुलीन वर्ग- वे पूरी तरह से आरएसएस के साथ हैं. वे विरोध नहीं करते. ऐसा संस्कृतिकरण के चलते है जैसा कि (समाजशास्त्री) एमएन श्रीनिवास का कहना है.
विरोध उन लोगों से आता है जो बचपन से वैचारिक रूप से वामपंथी समूहों या ऐसे अन्य समूहों से जुड़े हैं. साथ ही जिन लोगों ने आंबेडकर या अन्य (जाति-विरोधी नेताओं) को पढ़ा है. वे धीरे-धीरे आरएसएस छोड़ देते और फिर दृढ़ता से मुखर हो जाते, वैचारिक रूप से आरएसएस के खिलाफ मजबूत हो जाते.
जो लोग संगठन छोड़ देते हैं और बोलते हैं वे ज्यादातर दलित उप-जातियों से हैं जो बड़ी संख्या में हैं. जैसे उत्तर प्रदेश में जाटव, राजस्थान में मेघवाल, दक्षिण में अरुंथथियार. ऐसे समुदायों के लोगों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करने से पहले आरएसएस सोचेगा क्योंकि वह यह सोच कर परेशान हो जाएगा कि उस समुदाय में कोई गलत संदेश न चला जाए.
कोई समुदाय जो संख्या में बड़ा है उस समुदाय के सदस्यों में साहस होगा कि सैकड़ों लोग उनके साथ खड़े होंगे. लेकिन उन समुदायों में जहां संख्या केवल 500 या 1000 है और लोग बिखरे हुए हैं जब वे आरएसएस छोड़ते हैं तो वे खामोश ही रहते हैं.
अभिमन्यु चंद्रा: आरएसएस के दलित सदस्यों तक जाति-विरोधी नेताओं की आवाज कैसे पहुंचती है? पहुंचती भी है, तो किस हद तक? आपके जिस माहौल का जिक्र किया है उसमें, वह व्यक्ति इस तरह की आवाज़ों के लिए कैसे खुला रहता है?
भंवर मेघवंशी : आरएसएस में आंबेडकर सिर्फ होठों पर हैं काम में नहीं. यह तो इसी बात से स्पष्ट हो जाता है जब आपका कैडर सोशल मीडिया पर आंबेडकर को गाली देता है, आरक्षण का विरोध करता है. तब दलित स्वयंसेवक को पता चलता है कि हकीकत कुछ और है और आरएसएस ने दलित उत्पीड़न पर एक सभा भी नहीं की है.
फिर उनका दिमाग खुलता है. वे असली आंबेडकर की तलाश करते हैं. वे पूछते हैं कि उनका खुद का क्या मूल्य है और पाते हैं कि यहां (आरएसएस में) कुछ भी नहीं. उन्हें एहसास होता है कि "हम दंगों जैसी चीजों के लिए, दूसरों को डराने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं." जब लोग इस पाखंड को समझ जाते हैं, तो वे छोड़ने में सक्षम हो जाते हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : आपके भाई बद्रीलाल भी आरएसएस में थे. जब आपने छोड़ा क्या तब उन्होंने भी छोड़ दिया?
भंवर मेघवंशी : वह कभी भी शाखा में नहीं गए और विचारधारा के मुद्दों में बहुत दिलचस्पी नहीं रखते थे. उनकी दिलचस्पी पिता की मदद करने और अगर ट्रैक्टर जैसी कोई चीज होती तो उसे चलाने में थी.
वह आरएसएस में शामिल हो गए क्योंकि हमारे क्षेत्र में कृषि पर्यवेक्षक ने हमें कारसेवा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया (बाबरी मस्जिद के स्थल पर मंदिर बनाने के लिए आंदोलन का जिक्र करते हुए). मेरे भाई को भी ये पसंद था. मैं शाखा में था इसलिए मैं वैसे भी अयोध्या जाना चाहता था. लेकिन उन्होंने (पर्यवेक्षक) मेरे भाई को तैयार किया. घर से किसी को बताए बिना हम दोनों अयोध्या के लिए रवाना हो गए. हमारे लौटने के बाद भी वह आरएसएस में बहुत दिलचस्पी नहीं लेते थे. जब मैंने उन्हें खाने वाली घटना के बारे में बताया तो उन्हें वास्तव में यह नहीं लगा कि यह कोई बड़ा मामला है. जब मैंने आत्महत्या की कोशिश की तब उन्होंने महसूस किया कि मैं कितना प्रभावित हुआ था. वह उनसे नाराज हो गए, उन्होंने कृषि पर्यवेक्षक के साथ लगभग मारपीट की.
वह ट्रैक्टर से संबंधित किसी काम के लिए मुंबई चले गए थे. राजस्थान के हमारे गांव से उनका जुड़ाव कम हो गया और उनकी जिंदगी मुझसे अलग हो गई. वह कभी भी वैचारिक मामलों में शामिल नहीं हुए थे.
बाद में एक ठेकेदार के तौर पर, व्यावसायिक कारणों से, उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के विधायक के साथ अच्छे संबंध बनाए. इसका विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था. यह विशुद्ध रूप से व्यवसाय था. यहां तक कि वह बीजेपी के सदस्य भी बन गए. इसलिए मैं पूरी तरह से आरएसएस-बीजेपी का विरोध कर रहा था और उनके घर के बाहर बीजेपी का झंडा लगा हुआ था. यह 10-15 साल पहले की बात है.
पिछले पांच वर्षों में जैसे ही उनके बच्चों ने मेरे लेखन को पढ़ना शुरू किया, बड़े हुए, उनमें काफी बदलाव आया. वे आरएसएस की विचारधारा के इतने खिलाफ हो गए कि उन्होंने उसे प्रभावित किया. झंडे को हटा दिया गया. बच्चों ने उनके साथ चर्चा करना शुरू की कि "जिस विचारधारा का आप समर्थन करते हैं वह हमारे खिलाफ है." उन्होंने आंबेडकर को पढ़ना शुरू कर दिया.
वह अब दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के जिला अध्यक्ष हैं. एक-दूसरे के साथ हमारा रिश्ता हमेशा बहुत अच्छा रहा है. अब उन्होंने मेरे काम और विचार का खुलकर समर्थन किया है. वह एक आंबेडकरवादी और धर्मनिरपेक्ष हैं. अब वह आरएसएस-बीजेनी की विचारधारा के विरोधी हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : क्या आप बता सकते हैं कि अभी आप क्या काम कर रहे हैं? इसके अलावा, अब जब आप आरएसएस विरोधी आवाज हैं, तो आप उन लोगों को कैसे राजी कर सकते हैं, जिनके विचार संगठन और उसकी विचारधारा के बारे में आपके विरोधी हैं?
भंवर मेघवंशी : मैं मानवाधिकार समूहों के साथ जुड़ा हुआ हूं, विशेष रूप से पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज. मैं उसका राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य हूं. हमने एक अभियान शुरू किया है जिसका नाम है : डगर : दलित आदिवासी एवं घुमंतू अधिकार अभियान राजस्थान. डगर का अर्थ रास्ता भी होता है. हम एक रास्ता खोजने की कोशिश कर रहे हैं, लोगों को कैसे जुटाना है. एक पत्रकार के रूप में मैं औसत लोगों के मुद्दों, संघर्ष की उनकी कहानियों पर लिखता रहता हूं. मेरा एक छोटा सा यूट्यूब चैनल और वेबसाइट है, shunyakal.com नाम से.
अन्य सवालों पर मैं तथ्यों के साथ जनता के बीच जाकर बोलता हूं. मैं सवाल पूछता हूं, मसलन “आरएसएस के 95 साल के इतिहास में कोई दलित या आदिवासी आरएसएस का सरसंघचालक क्यों नहीं बना?” मैं चिल्लाता नहीं हूं, आराम से बोलता हूं और अहम बात यह कि मैं उन लोगों से बातचीत बंद नहीं करता जिनसे मैं असहमत हूं.