गणेश नारायण देवी एक साहित्यिक आलोचक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं. देवी ने भाषा विज्ञान, नृविज्ञान और साहित्यिक आलोचना जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम किया है. देवी ने कई किताबें और शोधपत्र लिखे हैं जो ज्ञान और सत्ता के बीच संबंधों और कैसे अभिजात वर्ग ने पूरे मानव इतिहास में ज्ञान को परिभाषित किया है तथा उस पर एकाधिकार रखा है, इसका पता लगाते हैं. वह वड़ोदरा में भाषा अनुसंधान और प्रकाशन केंद्र और गुजरात के तेजगढ़ में आदिवासी अकादमी के संस्थापक हैं, जो आदिवासी शिक्षा पर काम करते हैं. 2010 में, देवी ने पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की अध्यक्षता की, जिसने 780 जीवित भारतीय भाषाओं पर शोध किया और उनका दस्तावेजीकरण किया. वह साहित्य अकादमी पुरस्कार, सार्क साहित्य पुरस्कार, प्रिंस क्लॉज पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय लिंगुआपैक्स पुरस्कार और पद्म श्री पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं.
2015 में, देवी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता, कन्नड़ पुरालेखविद और तर्कवादी एमएम कलबुर्गी की हत्या पर संस्थान की चुप्पी के विरोध में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया. अक्टूबर 2022 में, देवी सहित लगभग अस्सी विद्वानों के एक वैश्विक समूह ने 600 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की, "होलोसीन के बाद भारत : पिछले बारह हजार साल में पर्यावरण, जन, जीवन, विचार, अभिव्यक्ति, गठन, आंदोलन, परंपराएं और परिवर्तन," यह भारतीय इतिहास के 12000 वर्षों का दस्तावेज है.
कारवां के मल्टीमीडिया रिपोर्टर शाहिद तांत्रे ने इस रिपोर्ट के बारे में साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी चुनावी शाखा, भारतीय जनता पार्टी द्वारा भारतीय इतिहास को फिर से लिखने की कोशिशों, वैकल्पिक ज्ञान प्रणाली, दक्षिणपंथ द्वारा बीआर आंबेडकर को कब्जाने, भारतीय भाषाओं और हिंदी को प्रमुखता दिए जाने आदि पर देवी से बात की.
शाहिद तांत्रे : यह देखते हुए कि भारत की अवधारणा अपेक्षाकृत नई है, उपमहाद्वीप के इतिहास के पिछले 12000 वर्ष क्यों महत्वपूर्ण हैं?
गणेश नारायण देवी : उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान जब यूरोप में इतिहास का अध्ययन शुरू हुआ और हमारे लिए इसके उत्तरार्ध में एक ऐसी प्रवृत्ति उभरी जिसने भारतीय अतीत को आधुनिक, मध्यकालीन और प्राचीन इतिहास में विभाजित कर दिया. प्राचीन भारतीय इतिहास उस समय पर रुक गया जब यूरोपीय इतिहास रुक गया. मैक्स मुलर जैसे विद्वानों का कहना है कि वेद हमारे पास हमारे अतीत को सत्यापित करने के लिए उपलब्ध पहली मौखिक गवाही है इसलिए यूरोपीय इतिहासकार वहीं रुक गए. इसी समय, 1830 के दशक में पुरातत्व उभर रहा था और पुरातत्वविदों ने वेदों से पहले अतीत का अध्ययन करना शुरू कर दिया. हमारा इतिहास अध्ययन उपमहाद्वीप में मानव आवास के अनुरूप नहीं था बल्कि समय के अकादमिक विचारों के अनुरूप था.
यह बिल्कुल ठीक है. लेकिन पिछले बीस सालों के दौरान, प्राचीन आनुवंशिकी के अध्ययन ने एक बहुत उन्नत स्थिति ले ली और उसके कारण दक्षिणपंथी इतिहासकारों ने बड़े-बड़े दावे करना शुरू कर दिए कि सिंधु सभ्यता के पुरातात्विक अतीत और वैदिक सभ्यता के ऐतिहासिक अतीत के बीच बहुत निरंतरता है. लेकिन भाषाविज्ञान इसकी इजाजत नहीं देता. 1900 ईसा पूर्व में सिंधु सभ्यता का पतन हुआ, और फिर 1400 ईसा पूर्व में वैदिक सभ्यता धीरे-धीरे उभरी और यह सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में पूरी तरह से फली-फूली. इसके बाद बौद्ध धर्म आता है. तो 500 वर्ष का फासला हो गया. यह कुछ भी साबित नहीं करता कि निरंतरता थी.
इतिहास निरंतरता की कहानी है लेकिन अनिरंतरता की भी कहानी है. सिंधु सभ्यता के अध्ययन को भारतीय प्रागितिहास या भारतीय अतीत की शुरुआत नहीं बनाया जा सकता है क्योंकि सिंधु सभ्यता एक शहरी सभ्यता थी, जो तब तक संभव नहीं हो सकती थी जब तक कि कृषि को धन के संचय की अनुमति देने के लिए पहले विकसित नहीं किया गया होता. लगभग 5000 ई.पू. में कृषि ईरान से भारत आई; 7000 साल पीछे जाना चाहिए. लेकिन लोग, जो शिकारी-संग्रहकर्ता थे, अचानक कृषि की ओर कैसे मुड़े? यह एक और प्रश्न है जिसका उत्तर दिया जाना है. इसके लिए हमें खानाबदोश शिकारी समुदायों के लिए और 1500 साल पीछे जाना होगा और यह हमें एक महान ऐतिहासिक घटना के करीब लाता है.
यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तन था- ठंडी जलवायु बदलने लगी और तापमान में बढ़ोतरी हुई. इससे भारत के लगभग दो-तिहाई भूभाग पर बर्फ की चादर पिघल गई. समय के उस क्षण को होलोसीन यानी अभिनव युग कहा जाता है और वह लगभग 9500 ईसा पूर्व यानी 12000 साल पहले का है. यह देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग समय पर लगातार पलायन, बदलाव, अनिरंतरता और निरंतरता की कहानी है. पंजाब में जो हुआ वह उसी समय ओडिशा या केरल में नहीं हुआ और इसलिए भारत की सभ्यताओं और इसकी बाद की शाखाओं को भारत के कई इतिहासों के संदर्भ में देखना आवश्यक है. यह शैक्षणिक पहलू है.
भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने पिछले 12000 वर्षों के भारतीय अतीत की समीक्षा करने के लिए एक समिति गठित की और उस समिति में केवल उत्तर भारतीय शामिल थे- दक्षिण, पूर्वोत्तर से इसमें कोई नहीं था, कोई महिला नहीं, कोई ईसाई नहीं, कोई मुसलमान नहीं, कोई दलित नहीं और कोई आदिवासी नहीं. ऐसी समिति के उद्देश्य के बारे में संदेह हो जाता है कि यह एनसीईआरटी की किताबों के माध्यम से बच्चों पर क्या थोप सकती है और यह भारत की आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसे विनाशकारी हो सकती है. भारत का 12000 साल का इतिहास कई लड़ाइयों, संघर्षों, त्रासदियों और हिंसक जुनून के कई क्षणों से भरा पड़ा है. फिर भी इसके केंद्र में हमारा सारा अतीत हमें सहिष्णु, दयालु, मानवीय, आत्म-संयमित होना सिखाता है. इस गैर-शैक्षणिक कारण से भी पिछले 12000 वर्षों और उससे भी पहले के भारतीय अतीत को देखना आवश्यक था.
शाहिद तांत्रे : होलोसीन रिपोर्ट के विमोचन के समय आपने अपने भाषण में कहा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय इतिहास के कुछ पहलुओं को संशोधित करने के लिए एक बड़ी योजना के रूप में इतिहास को फिर से लिखने के लिए 2018 में समिति नियुक्त की. "बड़ी योजना" और उन "कुछ पहलुओं" से आपका क्या मतलब है?
गणेश नारायण देवी : बड़ी योजना एक वीरतापूर्ण शासन को दर्शाने की है. वीरतापूर्ण होने के चलते कथित अन्याय होना भी जरूरी है. एक नायक हमेशा अन्याय और गलत कामों का बदला लेता है. अगर कोई यह कह कर इतिहास गढ़े कि हम एक स्वर्ण युग में रहे और फिर ये दूसरे आए जिन्होंने हमारी खुशी छीन ली, हमारी वैज्ञानिक उत्कृष्टता, विचार की उत्कृष्टता को छीन लिया और हम पर केवल विदेशी विचारों को सौंप कर हमें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया, और अब, कोई दावा करे कि मैं आया हूं, इन पिछले पापों का बदला लेने के लिए, भारत को शुद्ध करने और सभी विदेशी विचारों से छुटकारा दिलाने और हमारे समाज को प्रदूषित करने वाले विदेशियों से छुटकारा दिलाने तो वह व्यक्ति एक नायक के रूप में उभरेगा. इसके लिए जरूरत पड़ेगी इतिहास को गलत ढंग से लिखने की.
समिति उस तरह के सत्य का प्रस्ताव करने वाले इतिहास के ग्रंथों को पेश कर सकती है जो इतिहास की सच्चाई से बहुत दूर हों. सच तो यह है कि कोई शासक मुसलमान हो सकता है लेकिन उसका सेनापति हिंदू हो सकता है और कोई शासक हिंदू हो सकता है लेकिन उसका सेनापति मुस्लिम हो सकता है. सच तो यह है कि किसी दरगाह पर हिंदू, मुसलमान और ईसाई सभी पूजा करते थे. सच तो यह है कि एक ही कविता में फारसी और संस्कृत भाषाओं का मेल हो सकता है. दुनिया के सभी हिस्सों से लोग आए और दक्षिण एशिया ने उनका स्वागत किया क्योंकि यह स्थान समावेशी है. लेकिन अगर एक नया इतिहास लोगों को इस जगह को किसी विशेष जगह के तौर पर दिखाता है तो यह संविधान की भावना और भारतीय सभ्यता की भावना का उल्लंघन है.
शाहिद तांत्रे : क्या आपको डर है कि भारत में ऐसा होगा?
गणेश नारायण देवी : अगर यह काबू से बाहर हो जाए, अगर कोई सवाल न खड़े करे, अगर इसका बौद्धिक ढंग से प्रतिकार न किया जाए, तो डर बना रहेगा. इसे चुनौती देने, जांचने और पड़ताल करने की जरूरत है. लेकिन केवल चुनौती देना या सवाल करना ही काफी आलंकारिक हो सकता है. इसलि, विवाद में पड़ने के बजाए, सबसे अच्छा तरीका किताबों का एक ऐसा सेट तैयार करना है, जो 12000 वर्षों के अतीत का वर्णन करता हो, जो इतिहास के विज्ञान, तर्क और स्पष्ट विद्वता पर आधारित हो.
मैं यह नहीं कह रहा कि इतिहास के बारे में केवल मेरा नजरिया ही सही है. मुझे संस्कृति मंत्रालय पर सवाल उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं है, वह अपनी क्षमता के अनुसार अपना काम कर रहा है. मुझे एक विकल्प तैयार करने में दिलचस्पी है, जो उन लोगों के लिए उपलब्ध हो जो अधिक वैज्ञानिक और अधिक तर्कसंगत [इतिहास] चुनना चाहते हैं.
शाहिद तांत्रे : क्या इस कमेटी ने आपसे संपर्क किया है?
गणेश नारायण देवी : नहीं, मैं एक प्रशिक्षित इतिहासकार नहीं हूं, लेकिन वे प्रशिक्षित इतिहासकारों से भी संपर्क नहीं कर रहे हैं. उनके पास या तो विभिन्न सरकारी निकायों के पूर्व अधिकारी हैं या कुछ ऐसे लोग हैं जो नागपुर [आरएसएस] के बहुत करीब हैं.
शाहिद तांत्रे : इतिहास-लेखन या इतिहास कैसे लिखा जाता है, इसकी प्रक्रिया को लेकर बहस होती रही है. जब हम कहते हैं तो इसके क्या मायने होते हैं, भारत का इतिहास या लोगों का इतिहास या राज्य की विचारधारा?
गणेश नारायण देवी : नौवीं या दसवीं शताब्दी में राजशेखर नाम के एक विचारक थे, जिन्होंने काव्य-सिद्धांत पर कई नाटक और एक पुस्तक लिखी. उस पुस्तक में उन्होंने इतिहास को दो भागों में विभाजित किया है. एक प्रकार का इतिहास एकल वीरों का होता है और दूसरा अनेक वीरों का. उन्होंने उदाहरण दिया- रामायण एक नायक की कहानी है और महाभारत अनेक नायकों की. राजशेखर ने कहा कि इतिहास रचने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसे कई नायकों और विविधताओं का इतिहास बना दिया जाए क्योंकि ऐतिहासिक सच्चाई एक सांचे में नहीं बनती. यहां तक कि अगर इतिहास कहता है कि एक कारण और एक परिणाम है, तो कई अपवाद हो सकते हैं और उन अपवादों का विश्लेषण और व्याख्या भी की जानी चाहिए. इतिहास का प्रवाह सीधा नहीं होता है बल्कि सतलुज के प्रवाह की तरह होता है. सतलुज शब्द शतद्रु से बना है, जिसका अर्थ है 100 घोड़े. इतिहास अलग-अलग दिशाओं में 100 घोड़ों की शक्ति के साथ आगे बढ़ता है और इतिहासकारों का काम इन सभी को एक साथ बांधना है, बिना धाराओं को नजरों से ओझल किए.
शाहिद तांत्रे : क्या आपको लगता है कि भारतीय इतिहास को फिर से लिखा जा रहा है? अगर हां, तो क्यों?
गणेश नारायण देवी : यह एक तथ्य है कि सभी इतिहासों को हर समय फिर से लिखा जाता है क्योंकि इतिहास का निर्माण वर्तमान में होता है और यह वर्तमान की मानसिकता से अनुकूलित होता है - सभी लिखित इतिहास अपने समय का एक उत्पाद है. हां, यह फिर से लिखा जा रहा है लेकिन इतिहास के पुनर्लेखन के कई तरीके हैं. एक तरीका यह है कि अतीत की बारीकियों को सामने लाकर समझ को गहरा और व्यापक बनाया जाए. दूसरा तरीका यह है कि वर्तमान में लोगों को सम्मोहित करने के लिए अतीत की बातों को सुधारा जाए और उन्हें सवालों से परे बना दिया जाए. आम तौर पर अकादमिक इतिहासकारों ने समझ का विस्तार किया है और ऐतिहासिक दृष्टि के क्षितिज का विस्तार किया है लेकिन अधिनायकवादी शासन के समय में, इतिहास की समझ अवरुद्ध, संकुचित और शासन के प्रति आज्ञाकारिता की ओर निर्देशित हो जाती है, वफादारी, अत्यधिक राष्ट्रवाद और इसी तरह की चीजें पैदा करती है.
शाहिद तांत्रे : क्या आपको लगता है कि आज देश में "अत्यधिक राष्ट्रवाद" और "आज्ञाकारिता" का संचार हो गया है?
गणेश नारायण देवी : संघवाद की बात करें तो देशद्रोह हो जाता है, विविधता की बात करे तो देशद्रोह हो जाता है, अलग राय की बात करे तो यूएपीए लग जाता है, और सच बोलने की कोशिश करें तो ट्रोल उस व्यक्ति पर टूट पड़ते हैं. चूंकि यह सब कुछ हो रहा है और संविधान में निहित न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों को संकुचित किया जा रहा है, तो किसी वस्तुपरक पर्यवेक्षक के लिए यह पूछने का अच्छा कारण है कि क्या यह अधिनायकवादी शासन नहीं है. मेरे आस-पास के सभी संकेत मुझे यह सवाल पूछने के लिए प्रेरित करते हैं और ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे मैं इस आरोप का खंडन कर सकूं कि राज्य अधिनायकवादी हो गया है.
शाहिद तांत्रे : स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाए जा रहे पाठ्यक्रम को कुछ तरीकों से बदला जा रहा है- स्कूल की पाठ्यपुस्तकों से मुगल इतिहास को हटाना, गुजरात दंगों के संदर्भ और गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध जैसी घटनाओं को हटाना. ऐसा क्यों हो रहा है? इसके पीछे कौन है और वे क्या हासिल करने की उम्मीद करते हैं?
गणेश नारायण देवी : आज ये ताकतें भारतीय अतीत के छह सुनहरे युगों को सावरकर की पुस्तक, सिक्स गोल्डन पेजेस इन द हिस्ट्री ऑफ भारत, के मुताबिक चित्रित करने में रुचि रखती हैं और उसमें मध्यकाल, जिसमें इस्लामी कला, इस्लामी साम्राज्य, इस्लामी उन्नति के वर्चस्व को एक अंधकारमय युग के रूप में देखा जाता है. लेकिन सिर्फ मुगल काल ही नहीं , 1100 ईस्वी से पूरे 1000 वर्ष भारत में महान प्रगति और विकास का काल रहा है- चाहे वह मुसलमानों या हिंदुओं या जैनियों या बौद्धों या सिखों द्वारा किया गया हो लेकिन यह हुआ भारत में ही था. कला, सौंदर्यशास्त्र, वास्तुकला, संगीत, नगर नियोजन के संदर्भ में देखें तो ऐसा हुआ था. शेर शाह सूरी ने देश में पहला भूमि सर्वेक्षण किया, भूमि के स्वामित्व को तर्कसंगत रूप से तैयार किया और इस तरह शोषण को कम किया. पूरे काल को एक अंधकार युग के रूप में चित्रित करना मूर्खतापूर्ण और गलत है.
उदाहरण के लिए, तमिल और कन्नड़ को छोड़कर शायद सभी आधुनिक भारतीय भाषाएं इस अवधि के दौरान विकसित हुईं, चाहे वह बांग्ला, उड़िया , पंजाबी, गुजराती, मराठी, तेलुगु, मलयालम और कश्मीरी हो. इसलिए, अगर आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास होता है; महान संत उभर कर आते हैं और एक गौरवशाली साहित्यिक परंपरा, सूफीवाद और भक्ति का निर्माण करते हैं, वे लोगों को महान मानवतावाद सिखाते हैं; भूमि सुधार पेश किए जाते हैं; उस काल को अंधकार का युग कैसे कहा जा सकता है? देश से मुस्लिम शासकों की स्मृति को मिटा देना एक विपथन है, यह इतिहास नहीं है. इसी तरह बौद्ध धर्म और सनातन धर्म का टकराव हमारे इतिहास का हिस्सा है लेकिन अगर बौद्ध धर्म को किनारे करके सिर्फ सनातन को ही चमकाया जाए तो यह इतिहास का मिथ्याकरण होगा.
इसी तरह, इतिहास के विभिन्न वैज्ञानिक दृष्टिकोण सिंधु सभ्यता के पतन और वैदिक सभ्यता के उदय के बीच की खाई को दर्शाते हैं. हम नहीं जानते कि उन 500 सालों के दौरान वास्तव में क्या हुआ था. हम बाद की सिंधु सभ्यता के बारे में कुछ जानते हैं, एक अलग रूप में, जिसे गांधार काल कहा जाता है. लेकिन अगर कोई यह दावा करने लगे कि संस्कृत भाषा- जो 1400 ईसा पूर्व से पहले भारत में नहीं आई थी- पहले अस्तित्व में थी, कि यह सिंधु सभ्यता की भाषा थी, जो सिंधु सभ्यता के बारे में वैज्ञानिक रूप से स्थापित सभी सत्यों के सामने हवा हो जाती है, जहां हम इसके बारे में बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन हम अभी भी पर्याप्त नहीं जानते हैं.
कोई चाह कर भी इतिहास का पुनर्लेखन नहीं कर सकता. जब कोई विचारधारा उग्र राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की कोशिश करती है, तो वह उस गौरवशाली परंपरा की खामियों या हमारे पूर्वजों की विफलताओं को देखे बिना केवल एक गौरवशाली अतीत को चित्रित करना चाहती है. लेकिन हर पीढ़ी को अतीत से सीखने की जरूरत है-हमारे पूर्वजों ने क्या हासिल किया और कहां असफल रहे. अगर इस तरह के झूठे दावों को छात्रों के गले के नीचे उतारा गया, तो पूरी युवा पीढ़ी को एक झूठी तस्वीर मिलेगी, वह बड़ी होकर इतिहास को गंभीरता से नहीं देख पाएगी. और एक सभ्यता या राष्ट्र जो खुद को आलोचनात्मक रूप से देखना नहीं जानता, विकास करने में विफल रहेगा. लोग केवल कल्पित महिमाओं का आनंद लेंगे और आत्म संतुष्टि की झूठी भावना रखेंगे, जिससे जड़ता पैदा होगी.
कोई इसे पसंद करे या न करे, महात्मा गांधी का नाम हमेशा जिंदा रहने वाला है. यह सच है कि उनकी हत्या हुई. जिस आदमी ने उन्हें मारा, उसका नाम पता है, उसकी मंशा पता है और किस दर्शन ने उस व्यक्ति को गांधी को मार डालने को प्रेरित किया, यह पहले से ही पूरी दुनिया को पता है. भविष्य के बच्चों से इसे छुपाना काफी बचकाना है. इसका कोई शैक्षणिक औचित्य बिल्कुल भी नहीं है.
ऐतिहासिक तथ्यों को अन्य माध्यमों से स्मृति और सतह को बनाए रखने का एक और माध्यम मिल जाएगा. मौखिक परंपराओं में रामायण और महाभारत के वैकल्पिक रूप बच गए हैं. गुजरात दंगों में हजारों परिवार प्रभावित हुए थे और उनमें से ज्यादातर परिवार के सदस्य अब भी हैं. निकट भविष्य में इतिहास में इसका दमन, उपहास किया जाएगा. जब यह सरकार जाएगी और कोई दूसरी सरकार आएगी, तो वह दूसरी सरकार इसे पुनर्जीवित करेगी. इसे स्मृति से मिटाया नहीं जा सकता. जनता की याददाश्त उतनी कमजोर नहीं होती, जितना शासक मानना चाहते हैं. वे चीजों को बहुत लंबे समय तक याद रखते हैं, भले ही वे मुखर न हों.
शाहिद तांत्रे : क्या आपको लगता है कि हिंदू इतिहास को प्राथमिकता दी जा रही है?
गणेश नारायण देवी : सातवीं से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का विकास हुआ और जीवन का एक नास्तिक दर्शन, लोकायत भी भारत में फला-फूला. इसके साथ ही इसके जवाबी विचार भी सामने आ रहे थे यानी दर्शनों की बहुलता थी. इन दर्शनों के बीच संघर्ष था और यह प्राचीन इतिहास में पहली सहस्राब्दी और दूसरी सहस्राब्दी की शुरुआत में जारी रहा. 1100 ईस्वी के आसपास, एक नया आंदोलन शुरू हुआ, जिसे भक्ति आंदोलन के रूप में जाना जाता है, जिसे सूफीवाद से बड़ी ताकत मिली और प्रारंभिक ईसाई धर्म से एक नया आयाम मिला, जो केरल में आया. इसने विभिन्न संप्रदायों और पंथों से जबरदस्त ऊर्जा प्राप्त की और कुछ सदियों बाद सिख धर्म का उदय हुआ. इसके अलावा, 1100 ईस्वी से लेकर लगभग 100 साल पहले तक, भारतीय वनों में एक महान नए जीवन का उदय हो रहा था-आदिवासी, जो अपनी जीवन शैली बनाने और जंगलों पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे थे. उस समय के अधिकांश राजा जनजातीय अधिकारों का सम्मान करते थे और उन्हें सुरक्षित रखते थे.
यह सब भारतीय इतिहास है. हिंदू इतिहास नाम की कोई चीज नहीं होती. यह उन्नीसवीं शताब्दी के अंत के दौरान हुआ, मैक्स मूलर के बाद, यह विचार कि एक हिंदू अतीत है, बहुत मजबूत हो गया. हिंदू शब्द बहुत बड़े पैमाने पर प्रचलन में आया, जिसके कारण 1920 के दशक में आरएसएस का जन्म हुआ. अपने जन्म के समय, आरएसएस के पास हिंदू इतिहास के बारे में कोई विचार नहीं था, उसके पास इतिहास के बारे में एक दृष्टिकोण था जिस पर अतीत का जर्मन दृष्टिकोण हावी था, जो 1920 के दशक में जर्मनी में हिटलर को सत्ता में लाया था. इतिहास का दृष्टिकोण यह था कि किसी राष्ट्र के राष्ट्र होने के लिए उसकी भूमि के साथ-साथ उसकी मूल भावना भी होनी चाहिए और इसलिए हिंदू महासभा और आरएसएस ने पितृभूमि और पुण्यभूमि जैसे शब्दों का उपयोग करना शुरू कर दिया.
पुण्यभूमि यानी हमारी पवित्र भूमि का यह विचार गौतम बुद्ध के समय से अठारहवीं शताब्दी तक जो कुछ हो रहा था, उससे मेल नहीं खाता. अतीत का यह नया तथाकथित हिंदू दृष्टिकोण अतीत का एक मनगढ़ंत दृष्टिकोण है, यह अतीत का हिंदू दृष्टिकोण नहीं है और यह अतीत का भारतीय दृष्टिकोण भी नहीं है. भारतीय दृष्टिकोण बहुसंख्यक और विविधता का है. यही इतिहास हमें बताता है, यही अशोक हमें बताता है, यही अकबर की नीतियां हमें बताती है और आंबेडकर का ज्ञान हमें बताता है.
मैं आपको ऐसे कई विचारकों के उदाहरण दे सकता हूं जिन्हें हिंदू विचारक कहा जा सकता है. उदाहरण के लिए, सौंदर्यशास्त्र के प्रमुख सिद्धांतों में से एक, जो छठी और सातवीं शताब्दी ईस्वी के बाद सामने आया, रीति सिद्धांत है- रीति का अर्थ है किसी की कल्पना को मनाने के कई तरीके. मातंग का संगीत का मूल ग्रन्थ है, जिसे बृहद्देशी कहा जाता है. बृहद अनेक है और देश स्थानीय है, अत: मातंग के अनुसार जिसे हम भारतीय संगीत कह सकते हैं वह अनेक राज्यों का संगीत है. मातंग के लिए, भारत कई राष्ट्र थे, हमारी अनेकता में हमारी एकता थी, जिसे इतिहास के तथाकथित हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण में नकारा गया था. संविधान की भावना भी भारत की अनेकता, बहुलता, संघवाद और विविधता की पहचान कराती है.
शाहिद तांत्रे : क्या आपको लगता है कि पाठ्यपुस्तकों से मुगल इतिहास को हटाना इस शासन द्वारा भारत से मुस्लिम इतिहास को मिटाने का प्रयास है? क्या कोई खास नेरेटिव गढ़ा जा रहा है?
गणेश नारायण देवी : यह कार्रवाई राष्ट्रवाद और राष्ट्र- पितृभूमि और पुण्यभूमि- की उनकी समझ से पैदा हुई है . उनका मानना है कि अगर इस क्षेत्र में ऐसे लोग हैं, जिनके धर्म कहीं और पैदा हुए हैं, तो ऐसे लोगों की इस देश के प्रति वफादारी जरूरत से कम होगी. यह दृष्टिकोण एक अंध विश्वास या रूढ़िवादिता पर आधारित है क्योंकि भारतीय इतिहास बताता है कि मुसलमानों और यहूदियों ने भारतीय समाज के आधुनिकीकरण में उतना ही योगदान दिया है जितना हिंदुओं, पारसियों, सिखों, जैनियों और बौद्धों ने. राष्ट्रवाद का यह विचार कुछ हद तक राष्ट्रवाद के उस विचार जैसा है जो जर्मनी में द्वितीय विश्व युद्ध से पहले था.
यह सर्वविदित है कि आरएसएस का भारतीय इतिहास पर एक दृष्टिकोण है जिसमें बौद्ध धर्म को उचित स्थान नहीं दिया गया है; तर्कसंगत विचारकों को उनका हक नहीं दिया जाता है; इस्लामी काल को उसका हक नहीं दिया गया है; केवल वैदिक और सनातन दर्शन ही सब कुछ हैं. और औपनिवेशिक इतिहास-लेखन को भी इन्होंने नकारा है. अंत में, सूफीवाद या प्रेम या अहिंसा के किसी भी दर्शन, जैसे कि गांधी को खारिज कर दिया जाता है. क्योंकि उनका मानना है कि भारत को एक मर्दाना राष्ट्र बनाने के लिए हिंदू धर्म का सैन्यीकरण किया जाना चाहिए और यही उनका हिंदू राष्ट्र का विचार है. उनका हिंदू राष्ट्र शांति के दर्शन, प्रेम के दर्शन, करुणा के दर्शन, उन धर्मों के अलावा अन्य धर्मों द्वारा दिखाई गई रचनात्मकता को बाहर करने का इच्छुक है जो वर्तमान भारत की भौगोलिक सीमाओं में सीधे पैदा हुए थे. यह एक अजीब तरह की विचारधारा है, जिसे आधुनिक समय में केवल एक दकियानूसी विचारधारा के रूप में वस्तुनिष्ठ रूप में देखा जा सकता है क्योंकि एक राष्ट्र की, लोगों की यह विचारधारा संविधान द्वारा वर्णित भावना पर आधारित नहीं है. यह एक राजनीतिक दर्शन है जो आधुनिक और सभ्य दुनिया के विचारों से पूरी तरह बेमेल है.
शाहिद तांत्रे : नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की सबसे हानिकारक भ्रांतियां कौन सी हैं?
गणेश नारायण देवी : सबसे हानिकारक धारणाओं में से एक यह है कि यह शासन सोचता है कि वह भारत को अच्छी तरह से जानता है, जबकि मेरी राय में ऐसा नहीं है. यह जनजातीय सोच को नहीं समझता; जिस तरह से महिलाएं सोचती और महसूस करती हैं क्योंकि यह एक बहुत ही मर्दाना शासन है; यह समझ में नहीं आता कि अनुसूचित जातियां इस देश में कैसे रहती हैं और पुनर्जनम के पूरे विचार के कारण उन्होंने क्या झेला है, जो भगवद गीता जैसे ग्रंथों द्वारा संरक्षित है जो कर्म और उसके पतन [परिणाम] का विचार पेश करता है. मुझे नहीं लगता कि जो लोग भविष्य की ओर देख रहे हैं, वे उस दिशा में सोच रहे हैं.
यह शासन लोगों के लालच को समझता है लेकिन उनकी आकांक्षाओं को नहीं. यह लालच को समझता है और यह भी जानता है कि केवल कुछ व्यक्तियों के लालच को कैसे पूरा किया जाए जो इसके प्रचार में योगदान देंगे. यह शासन प्रचार की शक्ति को समझता है और यह प्रचार का सबसे प्रभावी ढंग से उपयोग करता है. यह हमारी अंतरराष्ट्रीय हैसियत के बारे में घटिया दावे करके अपनी पीठ थपथपाता है, जैसे कि यह सब कल ही शुरू हुआ हो और 2014 से पहले कुछ भी नहीं था. मैं जो कहता हूं वह बहुत से लोगों को पसंद नहीं आ सकता है, लेकिन अब से दशकों या सदियों बाद, मैं जो कहता हूं उसे वर्तमान शासन के बारे में वस्तुगत सत्य के रूप में माना जाएगा.
शाहिद तांत्रे : अक्टूबर 2022 में संसद की राजभाषा समिति ने सिफारिश की कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की राजभाषाओं में से एक होनी चाहिए. केवल हिंदी पर जोर क्यों है, जबकि जैसा कि आपने कहा है, लगभग 780 भाषाएं हैं?
गणेश नारायण देवी : पिछली जनगणना के अनुसार भारत की 42 प्रतिशत जनसंख्या हिंदी बोलती है और मतों की दृष्टि से यह बहुत बड़ी संख्या है, इसलिए हिंदी को बढ़ावा दिया जा रहा है. दूर के भविष्य में, अगर तमिल भारत में बहुसंख्यक भाषा बन जाती, तो यह मनोविज्ञान तमिल को एकमात्र भाषा के रूप में दावा कर सकता था. मेरा मानना है कि भाषा की विविधता मानव विकास के लिए अच्छी है और यह उन वैज्ञानिकों द्वारा एक ज्ञात तथ्य है, जो विकास की प्रक्रिया का अध्ययन करते हैं कि विविधता विकासवादी प्रक्रिया को आगे बढ़ने की अनुमति देती है. अगर इसे दबा दिया जाता है, तो विकासवादी प्रगति धीमी हो जाती है.
हिंदी, अभी तक आरएसएस की सोच में एक पसंदीदा जगह बनाए हुए है. अंग्रेजी को शत्रु की भाषा के रूप में देखा जाता था, लेकिन एक कारण और भी है. भारत में अंग्रेजी भाषा के आने से पहले, फारसी एक तरह से एक राष्ट्रव्यापी भाषा थी, जिसे कर्नाटक, कश्मीर, असम और गुजरात में समझा जाता था और उस समय काम करने वाला कोई भी व्यक्ति शायद अंग्रेजी नहीं बल्कि फारसी, अंग्रेजी नहीं बल्कि हिंदुस्तानी का प्रस्ताव करता, जैसे गांधी ने किया.
शाहिद तांत्रे : चूंकि आपने भाषाई विविधता पर व्यापक रूप से काम किया है, क्या आप हिंदुत्व के इतिहास के प्रचार और हिंदी भाषा के प्रचार के साथ निरंतरता देखते हैं? क्या आपको लगता है कि इतिहास और भाषा एक हो गए हैं?
गणेश नारायण देवी : हिंदी संस्कृत से ली गई है. इतिहास का हिंदुत्व दृष्टिकोण, हालांकि इतिहास के बारे में हिंदुत्व नजरिया जैसी कोई चीज नहीं है- संस्कृत पर बहुत अधिक निर्भर करता है. वे सोचते हैं कि संस्कृत भारत के अधिकांश विचारों, भाषाओं और सभ्यताओं की नींव है. संस्कृत ने एक प्रमुख भूमिका निभाई है, लेकिन यह एकमात्र भाषा नहीं है जिसने एक प्रमुख भूमिका निभाई है - पाली भाषा भी है जिसका उपयोग गौतम बुद्ध ने किया था; महावीर जैन या गुरु नानक ने संस्कृत का प्रयोग नहीं किया; कबीर ने संस्कृत का प्रयोग नहीं किया; और तुकाराम ने भी नहीं किया. हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण में, संस्कृत केंद्रीय स्थान लेती है और यह दृष्टिकोण भाषाई रूप से सही नहीं है, यह राजनीतिक रूप से जुनूनी है.
हिंदी भाषा और इतिहास का हिंदुत्व दृष्टिकोण अन्योन्याश्रित नहीं हैं, और उनका कोई सीधा संबंध नहीं है. आसान संचार के लिए हिंदी भाषा का प्रचार एक ऐसा विचार है जो राष्ट्रवाद को पसंद है क्योंकि एक भाषा होने पर यह माना जाता है कि राष्ट्र की एकता की रक्षा होगी लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह सच नहीं है. अंग्रेजी भाषा होने के बावजूद अमेरिका और इंग्लैंड दो अलग-अलग राष्ट्र हैं. एक भाषा और कई राष्ट्र हो सकते हैं और इसका उलट भी हो सकता है. राष्ट्र-भाषा घटाटोप राष्ट्रवाद का एक काल्पनिक विचार है, लेकिन यह ऐसा विचार नहीं है जो राजनीतिक या भाषाई रूप से सही हो.
शाहिद तांत्रे : आप भारत के आदिवासी समुदायों के प्रति आरएसएस और बीजेपी के दृष्टिकोण को कैसे देखते हैं?
गणेश नारायण देवी : वे इन लोगों को वनवासी कहते हैं, दूसरे उन्हें आदिवासी कहते हैं. आदिवासी का अर्थ होता है स्वदेशी और वनवासी का अर्थ होता है निर्वासित या जंगल में रहना. आरएसएस आदिवासियों को हिंदू मोर्चे का विस्तार बनाना चाहता है. लेकिन आदिवासियों के अपने धर्म, विश्वास और मान्यताएं हैं और उन्हें राम या कृष्ण या वेद या उपनिषद से कोई लेना-देना नहीं है. हिंदुओं ने बंद दरवाजे के मंदिरों का निर्माण किया जहां भगवान को एक संरचना के अंदर रखा गया है, उनका [ आदिवासी ] भगवान हमेशा खुले में, आसमान के नीचे, पहाड़ियों में रहा है. जवाहरलाल नेहरू ने आदिवासियों के लिए एक दर्शन प्रस्तावित किया था, जिसे पंचशील कहा जाता है, जिसे [आदिवासी कार्यकर्ता और मानवविज्ञानी वेरियर] एल्विन द्वारा डिजाइन किया गया था, जिन्होंने आदिवासियों का अध्ययन किया था. एल्विन ने जो पांच सिद्धांत प्रस्तुत किए और नेहरू ने स्वीकार किया, उनमें से एक यह था कि आदिवासियों को अपनी लय में विकसित होने दिया जाए.
जब पहली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार सत्ता में आई, तो उन्होंने [सितंबर 1999 में] जनजातीय मामलों के मंत्रालय का गठन किया, जो पहले मौजूद नहीं था. एक मंत्रालय होना अच्छा था, लेकिन उस मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया कि आदिवासियों को मुख्य धारा में लाया जाना चाहिए- अगर उन्हें सबसे अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल वगैरह मिल जाए तो कोई नुकसान नहीं है. लेकिन मैं उनकी संस्कृति को दबाने के विचार के खिलाफ हूं. अगर वे अपनी संस्कृति त्यागने का फैसला करते हैं, तो यह उनकी पसंद है, लेकिन हमें उन्हें जानबूझ कर इसे खोने के लिए नहीं कहना चाहिए. यह पूरे समाज के लिए प्रतिकूल होगा. दुनिया की स्वदेशी आबादी में से सबसे बड़ा हिस्सा भारत में रहता है. उनकी अपनी परंपराएं हैं और उन्होंने दुनिया को हम में से कई लोगों से ज्यादा देखा है. उनसे सीखने के लिए बहुत कुछ है; यह उन्हें नष्ट करने के बजाय उनसे सीखने का समय है. यह समय उनके मतभेदों को आत्मसात करने के लिए मजबूर करने के बजाए उनकी प्रशंसा करने का है.
शाहिद तांत्रे : आपने वैकल्पिक ज्ञान प्रणालियों का उल्लेख किया, उनका क्या अर्थ है और वे हमें क्या दिखाती हैं?
गणेश नारायण देवी : दिक, काल, मनुष्यों के अंतिम गंतव्य, पृथ्वी से हमारे संबंध की प्रकृति के बारे में कुछ मूलभूत धारणाएं हैं. जब ये मूल धारणाएं बदल जाती हैं, तो इन स्थानांतरित धारणाओं से उत्पन्न ज्ञान वह बन जाता है जिसे ज्ञान की वैकल्पिक प्रणाली कहा जाता है. उदाहरण के लिए, अगर हम सभी सोचते हैं कि पृथ्वी हमारी है, तो यह भूमि का टुकड़ा मेरा है और वह टुकड़ा किसी अन्य व्यक्ति का है. अगर हम यह सोचने लगें कि पृथ्वी हमारी नहीं है, बल्कि हम उसके हैं, तो हम पृथ्वी को जीवित रखने के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों के बारे में सोचने लग सकते हैं. यह अर्थव्यवस्था की प्रकृति, पृथ्वी और अन्य पशु प्रजातियों के साथ संबंधों, और यहां तक कि पड़ोसियों को भी बदल देगा-हमें राष्ट्रों, या क्षेत्र के विचार की भी आवश्यकता नहीं हो सकती है. हम सभी मनुष्यों को धरती माता से संबंधित स्पेक्ट्रम के हिस्से के रूप में सोच सकते हैं. आदिवासियों का जमीन से यही नाता है. इसका मतलब यह नहीं है कि उनके पास कुछ महान अविष्कार हैं जिनके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं है, वैकल्पिक ज्ञान का मतलब है कि बुनियादी क्रियाएं और नींव जिन पर ज्ञान आधारित है, अलग हैं.
शाहिद तांत्रे : आपको कैसे लगता है कि फेक न्यूज या गलत सूचना आजकल ज्ञान को बदल रही है?
गणेश नारायण देवी : बहुत शुरुआती समय से, समाचार में सच्चाई और समाचारकर्ता या समाचार देने वाले की धारणा का एक अनिश्चित मिश्रण रहा है. कल्पना का एक छोटा सा तत्व सत्य के साथ जुड़ जाता है, ठीक वैसे ही जैसे वास्तविकता के किसी भी पुनरुत्पादन में विकृति का एक तत्व होता है. लेकिन जब यह कल्पना सच्चाई पर हावी होने लगती है, तो यह खतरनाक हो जाता है क्योंकि समाचार का मूल उद्देश्य खो जाता है. अगर उद्देश्य दूर की कहानियों और तथ्यों को लोगों के करीब लाना है, तो फेक न्यूज लोगों और तथ्यों के बीच विभाजन कर देती है. फेक न्यूज खबर के बिल्कुल विपरीत है, एक एंटीथिसिस है.
एक लोकतांत्रिक, सभ्य समाज में, लोग चाहते हैं कि राज्य के पास कुछ नियंत्रण और संतुलन होना चाहिए और इसी के लिए देशों के संविधान बनाए गए हैं. मीडिया राज्य को लेकर जांच की एक पारंपरिक प्रणाली है. फेक न्यूज मीडिया की शक्ति पर नियंत्रण रखने की क्षमता को छीन लेती है. फेक न्यूज सच्चाई का इतना उल्लंघन नहीं है, लेकिन यह मीडिया के लोकतांत्रिक दायित्व का एक बड़ा उल्लंघन है.
शाहिद तांत्रे : तर्कवादी आन्दोलन क्या है और भारतीय सन्दर्भ में यह अब क्यों महत्वपूर्ण है?
गणेश नारायण देवी : भारत में तर्कवादी आंदोलन की शुरुआत प्रारंभिक इतिहास में लोकायत जैसे नास्तिकों के साथ हुई, जो भौतिकवादी और तर्कवादी थे, जिन्होंने विभिन्न सनातन दर्शन पर सवाल उठाए लेकिन अब उनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, केवल संदर्भ मिलते हैं. यह सिलसिला लगातार जारी है और मध्ययुगीन काल में बहुत से संत व्यक्तियों ने भगवान की अंधविश्वासी सनातनी और ब्राह्मणवादी व्याख्याओं पर सवाल उठाया. बौद्ध विद्वान धारणा और ज्ञान को देखने के एक तर्कवादी तरीके के बहुत करीब पहुंच रहे थे - मीमांसा नामक दर्शन का एक स्कूल, दर्शन का एक विश्लेषणात्मक स्कूल बना. हालांकि उन्हें तर्कवादी नहीं कहा जा सकता था, लेकिन सवाल पूछने का तत्व बहुत मजबूत था.
आधुनिक शब्दों में, उन्नीसवीं शताब्दी ने भारत में तर्कवादी विचारकों और दृष्टिकोणों का उदय देखा. डार्विनवादी सिद्धांत के बाद, यूरोप में, उन्नीसवीं सदी के मध्य में, भारत में उस रवैये की अधिक अपील थी और बीसवीं सदी के शुरुआती भाग में, कलकत्ता, बॉम्बे और दक्षिण भारत में विभिन्न छोटे समूह उभरे. पेरियार जैसे विचारकों और एक हद तक आंबेडकर के प्रभाव में स्थापित धार्मिक रूढ़िवादों पर सवाल तेज हो गए. स्वतंत्रता के बाद के भारत में, नरेन्द्र दाभोलकर और गोविंद पानसारे जैसे विचारकों के अधीन तर्कसंगतता के माध्यम से उत्तरों की खोज के उत्साह ने पाठकों और विचारकों की नई पीढ़ी के लिए एक बड़ी अपील हासिल की. मार्क्सवादी और वामपंथी विचार के माध्यम से एक अलग धारा भी आ रही थी, जिसने मानव क्षेत्र के बाहर से आने वाले सत्य और सार के विचारों पर सवाल उठाया- उन्होंने ईश्वर के विचार को खारिज कर दिया और इसी तरह एमएन रॉय जैसे लोगों ने तर्कवादी सोच को प्रोत्साहित किया और द क्वेस्ट जैसी पत्रिकाओं ने तर्कवाद के कारण को बढ़ावा दिया.
लेकिन तर्कवाद और तार्किकता, जो विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की बुनियाद हैं, एक बात है जबकि तार्किकता और विज्ञान के नाम पर और जाहिर तौर पर वैज्ञानिक पद्धतियों के इस्तेमाल के नाम पर दुनिया में बहुत विनाश भी हुआ है. आधुनिक समय में यूरोप की तरह- इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण अल्पसंख्यकों को मारने के लिए एडॉल्फ हिटलर का विज्ञान का उपयोग है.
यह आज के भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण है क्योंकि जब असत्य सार्वजनिक विमर्श पर हावी हो जाता है, तो सत्य के लिए प्रश्न करना महत्वपूर्ण हो जाता है. जब अतीत जानबूझकर गलत व्याख्या करना शुरू कर देता है, एक दृष्टिकोण के अनुरूप जानबूझकर गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है और जानबूझकर तोड़—मरोड़ दिया जाता है, तो इतिहास को प्रस्तुत करने या प्रस्तुत करने के वैज्ञानिक तरीकों पर वापस जाना आवश्यक है, और इसलिए इतिहास का एक तर्कसंगत दृष्टिकोण महत्व प्राप्त करता है. दूसरे, वर्तमान शासन द्वारा भारत में ही विज्ञान पर सुनियोजित हमला किया जा रहा है. भारत में पिछले वैज्ञानिक विकासों के बारे में बहुत सारे झूठे सिद्धांतों को लोकप्रिय बनाया जा रहा है और विज्ञान की पवित्रता और गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन की रक्षा के लिए, तर्कसंगतता का पालन करना आवश्यक है.
शाहिद तांत्रे : क्या आपको लगता है कि आरएसएस आंबेडकर को हथियाने की कोशिश कर रहा है ? अगर हां, तो क्यों?
गणेश नारायण देवी : कुछ परंपराएं बौद्धिक रूप से कमजोर परंपराओं के रूप में पैदा होती हैं, लेकिन जब वे प्रभुत्वशाली स्थान ग्रहण कर लेती हैं, तो वे बौद्धिक परंपराओं पर बेहतर दावा करना पसंद करती हैं और यहीं पर अतीत के विभिन्न प्रतीकों को प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है. यह ऊपरी तौर पर है लेकिन बीजेपी के लिए डॉ आंबेडकर पर दावा करने की शायद एक वास्तविक राजनीतिक आवश्यकता है. आरएसएस का मूल दर्शन ब्राह्मणों के अलावा अन्य लोगों की ज्यादा परवाह नहीं करता है, लेकिन बीजेपी की राजनीतिक आवश्यकता हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों से समर्थन प्राप्त करना है और यहीं आंबेडकर पर दावा आवश्यक हो जाता है.
(अनुवाद- पारिजात)