जनरल विश्वनाथ शर्मा भारत के ऐसे पहले सेनाध्यक्ष थे जिनका करियर स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ था. 90 साल के शर्मा 1990 में सेवानिवृत्त हुए थे. लेफ्टिनेंट जनरल के रूप में जून 1987 से मई 1988 तक पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ थे. उनका कार्यकाल चीन के साथ वांगडुंग घटना के लिए याद किया जाता है. जून 1986 में शुरू हुई इस घटना का नाम अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के सुमदोरोंग चू क्षेत्र के एक छोटे से गांव के नाम पर रखा गया है और इसे तीसरा चीन-भारत सैन्य संघर्ष माना जाता है. वांगडुंग थगला रिज के करीब है. 1962 के पहले चीन-भारत युद्ध की एक वजह रिज पर भारतीय सेना की मौजूदगी भी थी. रिज में इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक सहायक चौकी थी. 1986 की गर्मियों में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने वांगडुंग पर कब्जा कर लिया था.
16 सितंबर को पत्रकार और पूर्व सैन्य अधिकारी सुशांत सिंह ने जनरल शर्मा से उनके दिल्ली आवास पर बातचीत की. शर्मा ने सिंह को बताया कि क्यों उन्होंने सेना के कमांडर के रूप में भारतीय सेना द्वारा पीएलए से कब्जाई अग्रिम चौकियों से पीछे हटने के आर्मी हेडक्वार्टर्स और तत्कालीन सीओएएस जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी के आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया था.
सुशांत सिंह : 1980 के दशक में वांगडुंग और सुमदोरोंग चू क्षेत्र में क्या हुआ था जहां भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच गतिरोध वर्षों तक चला था?
जनरल वीएन शर्मा : 1986 में हुआ यह कि सुमदोरोंग चू क्षेत्र में लगभग चार खेत झोपड़ियों (पुआल से बनी अस्थायी झोपड़ियों) का एक छोटा-सा गांव है वांगडूंग. इसके बारे में कोई बहुत ज्यादा नहीं जानता है. तिब्बती याक वहां आया करते, चरते, गर्मियों में चरवाहे फूस की छोटी सी झोपड़ी बनाते थे और रात में उसमें रहते थे. हमारे पास वहां इंटेलिजेंस ब्यूरो की चौकी (लिसनिंग पोस्ट) थी. 1986 की सर्दियों वहां बर्फ ही बर्फ हो जाने के बाद आईबी पोस्ट, जिसमें दो से तीन पुरुष और एक रेडियो सेट शामिल था, वहां से दूर आ गए. जून या जुलाई 1986 में उन्होंने वांगडुंग गांव क्षेत्र में वापस जाने की कोशिश की तो देखा कि वह चीनी सेना के कब्जे में आ गया है और वहां एक कंपनी चीनी सैनिक मौजूद हैं. उन्होंने कहा, "यहां से चले जाओ, यह चीनी क्षेत्र है." वे (आईबी) वहां से लगभग तीस किलोमीटर आगे दक्षिण में वापस आ गए जहां खिनजेमेन में हमारी एक ब्रिगेड थी. खिनजेमेन की कमान फिफ्थ गोरखा राइफल्स के ब्रिगेडियर भूपी मलिक संभाले हुए थे. मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानता था क्योंकि जब मैं मेजर जनरल के रूप में एमओ (सैन्य-संचालन) निदेशालय में था, तो वह मेरे अधीन कोलोनल थे.
कॉम्बैट कॉलेज (मध्य प्रदेश के महू में) से, जहां मैं उस समय कमांडेंट था, मैंने उन्हें फोन किया, ''भूपी, क्या हुआ? और तुमने क्या किया है?” उन्होंने समझाया और कहा, "लेफ्टिनेंट जनरल नरहरि के आदेशों के अनुसार मैंने पाया है कि चीनी सैनिक वहां हैं इसलिए मैंने तुरंत पैदल सेना की एक कंपनी भेजी और हमने लैंग्रो ला रिज पर कब्जा कर लिया (रिज दर्रे पर हैं जहां से सुमदोरोंग चू घाटी दिखाई देती है और नरहरि तत्कालीन आईवी वाहिनी के कमांडर थे जो पूर्वी कमान के अंतर्गत आती है). लगभग जुलाई 1986 में जब बारिश रुक गई तो चीनी (वांगडंग की) नीचली ढलान से होकर लैंगरो ला रिज, लैंग्रो ला दर्रे तक कब्जा करने के लिए आने लगे लेकिन गोरखा पहले से ही जगह बनाए बैठे थे. उन्होंने खंदक खोद ली थी और उनके पास ओवरहेड सुरक्षा भी थी. 1986 में यही स्थिति थी.
वहां का इंचार्ज एक कप्तान था और उसे कहा गया था कि वह चीनी सेना को वहां न आने दे. जब चीनी ब्रिगेडियर ऊपर पहुंचा तो उसने देखा कि उन्होंने दर्रे पर भारतीय हैं तो उसने दुभाषिए की मदद से उनसे कहा, “यह जमीन छोड़ दो, यह जमीन चीन की है.” उस कप्तान ने जवाब दिया, “मुझे खेद है कि आप गलत हैं. यह भारतीय क्षेत्र है और आप आगे न आएं." चीनी ने कहा, “नहीं, यहां तुम चले जाओ. नक्शा गलत है. तुमने अपने नक्शे पर जो कुछ भी चिह्नित किया है वह गलत है. तुम चीनी क्षेत्र में हो और हम चीनी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों को स्वीकार नहीं कर सकते हैं. तुम्हारी सरकार ने पहले ही तुमको यहां न रहने का आदेश दिया है. तो कृपया वापस चले जाओ. हम तुमसे लड़ाई नहीं करना चाहते हैं लेकिन कृपया चीनी क्षेत्र से दूर चले जाओ."
कप्तान ने कहा, "माफ करें हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं." लेकिन चीनी आगे बढ़ते रहे. जब वे उससे लगभग पचास गज नीचे थे, तो उन्होंने एलएमजी गनर को आंख से इशारा किया, जिसने चीनी ब्रिगेडियर के सिर से लगभग दो फीट ऊपर से एक गोली चला दी. यहां तक कि उनकी टोपी उड़ गई और खड्डे में लुढ़क गई और इससे उन्हें झटका लगा क्योंकि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि भारतीय सैनिक डटे रहेंगे. वह वापस चला गया और यह एक कूटनीतिक घटना बन गई.
उन्होंने अपने मुख्यालय को सूचना दी कि ये लोग वहां खड़े हैं और उन्होंने हम पर गोलीबारी की और चीनी विदेश मंत्रालय ने भारतीय विदेश मंत्रालय से संपर्क किया और भारतीय विदेश मंत्रालय ने भारतीय सेना प्रमुख से संपर्क किया. सेना प्रमुख ने पूर्वी कमान से संपर्क किया और वहां से वापस कोर कमांडर नरहरि और डिवीजनल कमांडर को कहा गया, "आपको अपने लोगों को बताना चाहिए. हमारे हुकुम के मुताबिक आपसे उम्मीद की जाती है कि आप चीनियों पर गोली नहीं चलानी चाहिए और वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार नहीं करना चाहिए. वापस आइए."
यह तर्क जुलाई-अगस्त 1986 में शुरू हुआ था. अक्टूबर आते-आते बर्फ कम होने लगी इसलिए बात यहीं पर जम गई. इस बीच नरहरि डिवीजनल कमांडर, सामरिक मुख्यालय और एक या दो ब्रिगेड को तवांग ले जा चुके थे. मेजर जनरल जेएम सिंह (भारतीय सेना के फिफ्थ माउंटेन डिवीजन के डिवीजनल कमांडर) ने तवांग में अपना मुख्यालय स्थापित किया और उनके पास सैनिकों की एक ब्रिगेड थी. नरहरि तेजपुर (चतुर्थ कोर का मुख्यालय) में थे और आते-जाते रहे. इस स्थिति में मैं जून (1987) के आसपास पूर्वी कमान में आया.
सुशांत सिंह : आप जून 1987 में पूर्वी कमान में जाने से पहले महू में कॉलेज ऑफ कॉम्बैट में थे. पूर्वी कमान में जाने से पहले आपने क्या तैयारियां की थीं?
जनरल वीएन शर्मा : लेफ्टिनेंट जनरल जेके पुरी वहां के कमांडर थे (1986 में) और मैं जेके पुरी का बहुत अच्छा दोस्त था. वह मुझसे सिर्फ छह महीने सीनियर थे. जून (1987) से पहले मैंने अपने जवानों को पूरी कमांड को फिर से जोड़ने के लिए उच्च कमान कोर्स से भेजा था. कॉम्बैट कॉलेज के कमांडर के रूप में सितंबर-अक्टूबर (1986) में मैं नरहरि के पास गया. वहां उनसे मुझे एक हेलीकॉप्टर मिला और जेएम सिंह से मुलाकात करने तवांग चला गया. मैं चीनियों की स्थिति का लेआउट देखना चाहता था. उन्होंने हेलीकॉप्टर चीता और अपने एक अधिकारी को मेरे साथ क्षेत्र समझाने के लिए भेज दिया और मैंने चीनी चौकियों के ऊपर उड़ान भरी.
हमारे पास गोरखाओं की एक बटालियन थी जिसे नरहरि और जेएम सिंह ने आगे लगा रखा था. लेफ्टिनेंट कर्नल पठानिया गोरखाओं की कमान संभाले हुए थे. मैंने पठानिया से बात की और उसने कहा, "हम तो यहां आगे निकले हुए. हम यहां से चले गए हैं. हम मैकमोहन रेखा को पार नहीं करने वाले थे (1914 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत और भारत के बीच सीमांकित सीमा को परिभाषित किया. भारत इस रेखा की अपनी व्याख्या को चीन के साथ अपनी कानूनी सीमा मानता है लेकिन चीनी मैकमोहन रेखा को स्वीकार नहीं करते हैं). पठानिया की बटालियन उच्च महत्व के बुम ला पास और तवांग से थोड़ा उत्तर पश्चिम में लैंग्रो ला रिज लाइन के बीच थी.
योजना क्या थी? योजना यह थी कि अगर गुत्थमगुत्था की स्थिति होगी तो फिर हम चीनियों से बेहतर स्थिति में होंगे. वे एक कंपनी के साथ घाटी में थे और हमारे पास लैंगरो ला रिज पर लगभग पूरी बटालियन थी और हमारे पास तवांग में बुम ला पास तक लोग थे. सामरिक रूप से हम कहीं बेहतर स्थिति में थे. आर्टिलरी गन बहुत उपयोगी नहीं थी क्योंकि हमारे पास 105 मिमी की भारतीय फील्ड गन थी और जबकि इसकी रेंज काफी अच्छी है लेकिन यह सपाट प्रक्षेपवक्र है. इसलिए यह वास्तव में घाटी तक पहुंचने में सक्षम नहीं थी. लेकिन उन्होंने दो बोफोर्स तोपें भेज दीं. हमने इन दोनों तोपों को तवांग पहुंचा तो दिया लेकिन अभी भी चीनी रेंज से बाहर थे. तोपों की रेंज तीस किलोमीटर तक है लेकिन उच्च कोण पर रेंज थोड़ी कम है इसलिए वे चाहते थे कि तोपों को पांच से छह किलोमीटर और आगे लगाया जाए. सैपर्स को एक ट्रैक का निर्माण करने के लिए कहा गया था जिस पर तोपें अपने अपने इंजन पर पांच-छह किलोमीटर चल लें और वांगडुंग उनकी रेंज में आ आए. जेएम सिंह अक्टूबर (1986) तक ऐसा करने की प्रक्रिया में थे और उन्होंने कहा, "सर्दी बीतेगी और अगला मानसून खत्म होगा तो हम फिर से युद्ध की स्थिति में आ जाएंगे. हम यही करेंगे."
जेएम सिंह ने एक योजना बनाई थी कि चीनियों को वापस लौटने की इजाजत नहीं दी जाएगी. अगले साल अगर उन्हें मंजूरी मिल जाती है तो वह चीनियों की उस लगभग 110 जवानों की एक कंपनी को नष्ट कर देंगे. विचार था कि गोरखा पूर्वी छोर पर न्यामजंग चू के पूर्व में रिज लाइन एक्सटेंशन से आगे बढ़ेंगे. हमें पता था कि वहां कोई चीनी टुकड़ी नहीं है. गोरखा उस दर्रे पर कब्जा कर लेंगे जिससे चीन सेना की कंपनी थगला रिज लाइन के पार आई थी. विचार था कि वहां कब्जा कर लिया जाए ताकि उत्तर से आने वाले किसी भी अतिरिक्त चीनी टुकड़ी को न्यामजंग चू में रोका जा सके. हमने सोचा था कि अगर बोफोर्स तोपें वहां चली गईं तो हमें नहीं हटना पड़ेगा क्योंकि चीनियों के पास वहां तोपें नहीं थीं. उनके पास थगला रिज के दूसरी तरफ तोपें थीं लेकिन वे हम तक मार नहीं कर सकती थीं. मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई और मैंने इसे प्रोत्साहित किया.
इस बारे में नरहरि से मेरी चर्चा हुई. उन्होंने कहा, "हमें यहां से हटने के आदेश मिले हैं." जेके पुरी को सेना मुख्यालय से पीछे हटने के लिखित आदेश मिले थे और हमें वास्तव में पता नहीं था कि क्या करना है. हम सेना के कमांडर को उस आदेश को नहीं मानने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि अगर हम यहां से हट गए तो चीनी तवांग तक चले आएंगे. मैंने कहा, "देखो मैं तो बस कॉम्बैट कॉलेज का कमांडर हूं और मेरा करियर आगे बढ़ रहा है. यह बहुत मजबूत स्थिति है और हम इससे पीछे नहीं हटना चाहिए. पूर्वी सेना के आदेश के विपरीत मुझे लगता है कि अगर आप पीछे हटते हैं तो मैं आप लोगों के खिलाफ गंभीर कार्रवाई करूंगा. वे सभी मेरे दोस्त थे इसलिए वे सब हंस दिए क्योंकि वे वही सुनना चाहते थे. मैंने फिर एक हेलीकाप्टर लिया और पठानिया और उसकी बटालियन का दौरा किया.
सुशांत सिंह : जब आप पूर्वी सेना के कमांडर बने उसके बाद क्या हुआ?
जनरल वीएन शर्मा : जेके पुरी ने कमांड मुझे सौंप दी और मैंने मई (1987) या इसके अंत से ठीक पहले पदभार संभाला. मैंने सभी कमांडरों को सूचित किया कि कोई पीछे नहीं हटेगा. लेकिन सेना मुख्यालय से लिखित आदेश थे. उन्होंने पैठ की एक सीमा तय की थी (जिसे गश्ती रेखा के रूप में जाना जाता है, यह उस विशिष्ट सीमा को परिभाषित करता है जिसमें आपसी समझौते के आधार पर दोनों तरफ से गश्त की अनुमति है). भीतर आने की यह सीमा मोटे तौर पर तवांग की रेखा के साथ थी.
आर्मी हेडक्वार्टर यह कह रहा था लेकिन उन्होंने इस इलाके को नहीं देखा था. यह बात चाइना स्टडी ग्रुप और सुंदरजी (1986 से 1988 तक सीओएएस) ने कही थी. इसमें विभिन्न नौकरशाह और मंत्री शामिल थे और उन्होंने तय किया कि वे चीन के साथ इन परिस्थितियों में युद्ध नहीं चाहते हैं. उन्होंने कहा कि भीतर घुसने की एक सीमा निर्धारित है और इसके आगे किसी भी गश्ती दल को जाने की अनुमति नहीं दी जाएगी.
इसलिए पूर्वी सेना को दोषी ठहराया जा रहा था कि उन्होंने बिना इजाजत भीतर घुसने की सीमा को पार कर लिया है जैसा कि उन्होंने आदेश दिया था. "आप वहां क्यों हैं, आप वापस आइए." उन्होंने कहा, "आप गश्ती की सीमा तक वापस आइए. अगर कोई समस्या होती है तो आप वापस जाइए."
लेकिन वह काम नहीं कर रहा था. पहाड़ों में उच्च क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए दो से तीन रिज लाइनों को पार करना पड़ता है इसलिए इन स्थानों तक पहुंचने में दो या तीन दिन लगते हैं. जबकि चीनियों के पीछे पठार है. वे बहुत तेजी से आ सकते हैं. ज्यादा से ज्यादा एक दिन में.
जेके पुरी ने हमारी बात (सेना मुख्यालय) को समझाने की कोशिश की लेकिन वह बहुत ही शालीन स्वभाव के हैं. वे आदेशों का पालन करते हैं जैसा एक अच्छे सैनिक को करना चाहिए. उन्होंने मुझसे कहा, "आप बहुत पेचीदा समस्या में फंस गए हैं. आपने जो कहा मैं उससे सहमत हूं लेकिन आप जानते हैं कि ये सेना मुख्यालय और स्वयं प्रधानमंत्री के आदेश हैं." मैंने कहा, "ठीक है, आप जा रहे हैं आराम से जाओ वाइस चीफ बनिए."
इसलिए जब मैंने पदभार संभाला तो मैंने बीसी जोशी को टेलीफोन पर यह बता दिया, जो डीजीएमओ (सैन्य संचालन महानिदेशक) थे और बाद में दक्षिणी सेना के कमांडर और फिर प्रमुख बने. मैंने उनसे कहा, "हम वापस नहीं आ रहे हैं." उन्होंने कहा, "सर ये आदेश हैं." मैंने कहा, "ये सही आदेश नहीं हैं."
मैंने बीसी जोशी से कहा, “यह बहुत जरूरी है. कोशिश करिए और इसके बारे में सोचिए. अगर हम जहां हैं वहां कायम नहीं रहेंगे तो चीनी इन रेखाओं पर कब्जा कर लेंगे और फिर हम उन्हें तवांग पर कब्जा करने से रोक नहीं सकते. एक बार जब वे इन पर कब्जा कर लेंगे तो इन्हें वापस पाना आसान नहीं होगा. उन्होंने कहा, "नहीं ये आदेश हैं और आप चीफ के साथ इस मामले पर चर्चा करें."
चीफ (जनरल सुंदरजी) ने कहा कि आप पहले आदेश का पालन करें और फिर हम इस मुद्दे पर चर्चा करेंगे. इसलिए मुझे एक संकेत (मिलिट्री कम्युनिकेशन) मिला जिसमें कहा गया था कि आपको भीतर घुसने की सीमा के दक्षिण से वापस आना होगा. उन्हें जवाब चाहिए था.
हमने वापस उत्तर दिया, “आपने हमें मैकमोहन रेखा के रूप में सीमा प्रदान की है. आप सेना मुख्यालय हैं. सेना मुख्यालय में एक विशेष शाखा है जो मैपिंग करती है. सीमा को मैकमोहन रेखा के साथ चिह्नित किया गया है और चीनी पहले ही मैकमोहन रेखा को पार कर चुके हैं. इसलिए जरा सोचिए, क्या मुझे भारत की रक्षा करने का आदेश है या क्या अब आप मुझे वहां से पीछे हटने के लिए कहने की कोशिश कर रहे हैं जहां से दुश्मन आगे बढ़ता दिख रहा है और जो पहले ही लाइन पार कर चुका है और यह सब इसलिए क्योंकि आप भीतर घुसने की एक सीमा चाहते हैं? मौजूदा परिस्थितियों में हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि यह एक व्यावहारिक सुरक्षा स्थिति नहीं है.”
मैंने यह भी कहा, ''अगर आपको याद हो तो 1962 में आपने पीछे हटने के आदेश दिए थे और चीनी बोमडिला तक आ गए थे. उनके वापस जाने का एकमात्र कारण यह था कि वे आश्चर्यचकित थे कि भारतीय सेना ने लड़ाई नहीं की.”
मैंने कहा, "हम यहां से हटने वाले नहीं हैं क्योंकि यह एक और 62 होगा और अगर आप कहते हैं कि मैकमोहन रेखा गलत है तो लिखित रूप में कहें क्योंकि उसके बाद में वापस हो जाऊंगा और फिर सेना मुख्यालय और चाइनीज स्टडी ग्रुप आगे आकर भारत की रक्षा कर लेना. लेकिन आप पहले कहें हैं कि आप चीनी दृष्टिकोण से सहमत हैं कि मैकमोहन रेखा गलत है."
हमें इसका जवाब नहीं मिला.
मैंने यह भी उल्लेख किया कि यह जरूरी है कि एक सेना अधिकारी के तौर पर मैं अपने वरिष्ठ अधिकारियों की आज्ञा का पालन करूं. मैंने कहा, "यह एक कानून सम्मत आदेश नहीं है. इसलिए इस आदेश की वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है क्योंकि इसका मतलब होगा अपना देश, अपनी धरती को छोड़ देना. "
हमें कोई जवाब नहीं मिला लेकिन सुंदरजी ने मुझे फोन किया और मुझे फोन पर खूब खरी-खोटी सुना. अगर मैं एक जूनियर अधिकारी हूं और अगर मेरा चीफ मुझसे कह रहा है कि मैं गधा हूं जो शायद मैं हूं. मुझे मानना ही पड़ेगा.
सुशांत सिंह : और फिर प्रधानमंत्री ने तवांग का दौरा किया?
जनरल वीएन शर्मा : हमने पीछे हटने से इनकार कर दिया. चीनी विदेश मंत्रालय के साथ राजनयिक गुफ्तगू हुई लेकिन हम पीछे नहीं हटे. राजीव गांधी को तब पता चला कि सेना प्रमुख का उनकी पूर्वी सेना पर बहुत अधिक नियंत्रण नहीं है इसलिए उन्होंने खुद तवांग का दौरा करने का फैसला किया. सुंदरजी ने कहा, "आप अपनी बात कह चुके हैं. यह कितना भी जरूरी क्यों न हो लेकिन अब प्रधानमंत्री तवांग आ रहे हैं इसलिए आप वहां जाएं और उन्हें समझाएं कि आप उनके और मेरे आदेशों से असहमत क्यों हैं." राजीव गांधी हेलिकॉप्टर से तवांग पहुंचे और मैंने जेएम सिंह को निर्देश दिया कि एक टीम बनाकर कुछ अन्य अधिकारियों से प्रधानमंत्री को मिलने दें. मैंने कहा कि प्रधानमंत्री से मिलने वाली टीम में गोरखा रेजिमेंट से एक अधिकारी, लेंगरो ला रिज में तैनात गोरखा बटालियनों के कुछ अधिकारी और कुछ कप्तानों को रख लो.
एक हवलदार ने प्रधानमंत्री से साफ-साफ पूछा, "अगर हमारा विदेश मंत्रालय बोल दे कि वह पांच किलोमीटर पीछे चले जाए तो क्या आप भी पांच किलोमीटर पीछे चले जाओगे?" जेएम के एक अधिकारी ने कहा, "सर अगर वे पांच किलोमीटर पीछे जाते हैं तो वे चार घंटे में इन स्थानों पर वापस आ सकते हैं. अगर हम पांच किलोमीटर पीछे जाते हैं तो हमें वापस आने में तीन दिन लगेंगे. विदेश मंत्रालय को सपाट नक्शा दिख रहा है जिसे देख कर वह कहता है कि चीनी पांच किलोमीटर जाते हैं तो हम भी पांच किलोमीटर पीछे जाएंगे लेकिन आपको इसकी गणना यहां पहुंचने के लिए लगने वाले समया को ध्यान में रख कर करनी होगी. आप उनसे कहिए कि एक दिन में हम केवल आधा रिज लाइन पर वापस जाएंगे और वे पंद्रह या बीस किलोमीटर.”
तब एक हवलदार ने कहा, "प्रधानमंत्री जी, आपको क्या चीनियों से डर लगता है? हमें उनका जाके ल्हासा पकड़ना है फिर उनसे बात करेंगे.” प्रधानमंत्री काफी प्रभावित हुए.
इस बीच सुंदरजी ने मुझे बुलाया और मुझे बताया कि आर्मी में मेरा समय पूरा हो गया है क्योंकि मैंने दिल्ली के आदेशों की अवज्ञा की है. मैंने उनसे कहा कि ठीक है मैं भी यहां से जाने वाला नहीं हूं. मैंने निर्देश दिया कि कोई भी पीछे नहीं हटेगा और चीनियों को धमकी दी गई कि आने वाली गर्मियों में हम उन्हें यहां से खदेड़ देंगे. इससे वहां अफरा-तफरी मच गई. वह अलग कहानी है.
अब 1987 में हुई घटना के बारे में. अर्जुन सुब्रमण्यम जैसे कुछ लेखकों ने सुंदरजी के ऑपरेशन चेकरबोर्ड (चीन-भारतीय शत्रुता में उत्तर-पूर्व हिमालयी क्षेत्र में भारत की लड़ाकू क्षमताओं को परखने के लिए एक उच्च ऊंचाई वाला सैन्य अभ्यास) के बारे में बात की है. वे कहते हैं कि उन्होंने ब्रिगेड और केंद्रित सैनिकों को स्थानांतरित किया. यह सब बकवास है क्योंकि चेकरबोर्ड, पहले चरण के ब्रासस्टैक्स की तरह एक दूरसंचार और मुख्यालय अभ्यास था. इसे पूर्वी कमान ने अलग से चलाया था. धरातल पर कुछ नहीं था. मैंने अर्जुन को भी बताया लेकिन वह इसे लिखना नहीं चाहते थे क्योंकि यह विवादास्पद था.
सुशांत सिंह : राजीव गांधी के तवांग आने के बाद सरकार की ओर से दबाव नहीं आया? क्या राजनीतिक नेतृत्व ने आपके खिलाफ इसका इस्तेमाल नहीं किया?
जनरल वीएन शर्मा: मेरे बाद बीसी नंदा आए जो जनरल करियप्पा (फील्ड मार्शल केएम करियप्पा भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ थे) के रिश्तेदार हैं. मैं बीसी नंदा का बहुत सम्मान करता हूं. वह उत्तरी सेना के कमांडर थे. सुंदरजी चाहते थे कि वह अगले प्रमुख बनें और उन्होंने मुझे यह बताया. उन्होंने कहा, “सरकार आपको पसंद नहीं करती क्योंकि आप बहुत ज्यादा बोलते हैं और बीसी नंदा पर विचार किया जा रहा है." मैंने कहा, "वह एक अच्छे अधिकारी हैं." मैं एक लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में सेवानिवृत्त होने के लिए तैयार था लेकिन उन्होंने मुझे जनरल बना दिया. मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी.
सुशांत सिंह : जब आप सेना प्रमुख बने तब अरुणाचल प्रदेश में चीन के साथ बातचीत चल रही थी थे. बातचीत में आपने क्या प्रभाव डाला?
जनरल वीएन शर्मा : जब मैं सेना प्रमुख बना तो मैं उसी दिन प्रधानमंत्री से मिलने गया. उन्होंने मुझसे कहा, "मुझे दो समस्याएं दिख रही हैं. एक, सुंदरजी और स्टाफ का कहना है कि हमें सियाचिन ग्लेशियर से हट जाना चाहिए. वे कहते हैं कि सैनिक तंग आ चुके हैं.” जाहिरा तौर पर डीजीएमओ ने उनका दौरा किया है. सैनिक तंग आ चुके हैं. वहां जीवन बहुत कठिन है और यही सब. “इसलिए मैं चाहता हूं कि आप मुझे अपना विचार सुनाएं. अगर आपको लगता है कि सेना इसे सहन नहीं कर सकती है तो हम पीछे हट जाएंगे. मैंने कहा, "लेकिन यह हमारा देश है और अगर हम पीछे हटते हैं तो पाकिस्तानी इसे हथिया लेंगे."
उन्होंने कहा, "यह सच है लेकिन अगर सेना तंग आ चुकी हो तो मुझे क्या करना चाहिए?" मैंने उनसे पूछा, "आपको किसने कहा कि सेना तंग आ चुकी है?" उन्होंने कहा, "आपके डीजीएमओ ने चीफ से ऐसा कहा और उन्होंने खुद मुझसे यह कहा." मैंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि यह सच है. सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि सभी डीजीएमओ ने कहां का दौरा किया. अगले दो दिनों मैं खुद दौरा करूंगा. मैं लोगों के साथ जांच करूंगा और आपको बताउंगा."
उन्होंने कहा कि दूसरा मुद्दा है, "देंग शियाओपिंग (तब चीनी प्रीमियर) ने चीन आने का निमंत्रण दिया है और मेरा विदेश मंत्रालय कहता है कि मुझे वहां बिल्कुल नहीं जाना चाहिए क्योंकि पूर्व में जो कुछ हुआ उसकी वजह से वहां मेरा अपमान होगा.” फिर राजीव गांधी ने पूछा, "चीफ, आपका क्या विचार है?" मैंने कहा, "आपको जाना चाहिए. मुझे विदेश मंत्रालय के बारे में पता नहीं है. बहुत समझदार लोग हैं. मुझसे ज्यादा समझदार. लेकिन यह तथ्य कि हम अपनी सीमाओं पर कायम हैं. यह आपकी जीत है. आप इसे पसंद करें या न करें लेकिन सच है कि हम बिना युद्ध के ही वहां टिके रहने में कामयाब रहे हैं. इसका श्रेय आपको है. देंग ने आपको बातचीत करने के लिए आमंत्रित किया है. हमें जरूर बातचीत करनी चाहिए. बातचीत करना हुल्लड़ करने से बेहतर है. आपको जरूर जाना चाहिए.”
राजीव गांधी ने कहा, "क्या आपको यकीन है कि मेरा अपमान नहीं होगा?" मैंने कहा, “भले ही आपका अपमान हो, हम भारतीयों की खाल मोटी है. अपमान हुआ तो क्या? कम से कम आपको पता होगा कि आप कहां खड़े हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि आपका अपमान होगा. आपको देंग ने आमंत्रित किया है. इसलिए उसे आपको एक अतिथि के रूप में मानना होगा और चीनी अपने मेहमानों के साथ बहुत अच्छे से पेश आते हैं. चाहे वे उन्हें पसंद करें या न करें. इसलिए मुझे लगता है कि आपको जाना चाहिए." और वह चले गए. और तब जाकर चीनी अंतरराष्ट्रीय सीमा का सीमांकन करने पर सहमत हुए. गोलियां चलाते रहने की तुलना में बातचीत करते रहना बेहतर है.
सुशांत सिंह : आप 1947 के बाद सेना में शामिल होने वाले पहले अधिकारी थे और फिर आपने देखा कि आपके स्कूल के दोस्त अलग-अलग तरह से पाकिस्तान चले जाते हैं. तो फिर भारतीय सेना लोकतांत्र के पक्ष में क्यों रही जबकि पाकिस्तानी सेना ऐसा नहीं कर पाई?
जनरल वीएन शर्मा : मैं 1990 में सेवानिवृत्त हुआ था और एक ब्रिटिश अखबार का रिपोर्टर मेरे सेवानिवृत्त होने के लगभग पांच साल बाद मेरे पास आया. उन्होंने कहा, वह यहां यह समझने के लिए आया है कि पाकिस्तानी सेना ने लोकतांत्र को सम्मान क्यों नहीं दिया. "आपकी तरह उन्हें अंग्रेजों ने लोकतंत्र सिखाया था. आप इसका पालन कर रहे हैं लेकिन वे नहीं. ऐसा क्यों है कि भारतीय सेना ने देश पर कब्जा नहीं किया जबकि आपके पास राजनेताओं के तौर पर बेढंगे लोग हैं?
मैंने कहा, “नहीं, यह सच नहीं है. हम भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों का बहुत सम्मान और आदर करते हैं. चाहे वह गांधी हों या नेहरू या सरदार पटेल. उन्होंने किसी भी अधिकारी से बेहतर इस देश को चलाया” और इसलिए करियप्पा ने बहुत स्पष्ट नियम बनाए थे कि आप सरकार के संवैधानिक प्रमुख के आदेश का पालन करेंगे. आप भारत के संविधान की रक्षा करेंगे जो 1950 में अस्तित्व में आया है. आप संविधान की रक्षा करेंगे. आप सरकार हाथ में लेने का प्रयास नहीं करेंगे. आपको भारत के लोगों द्वारा चुनी गई सरकार के चुने हुए प्रमुखों के कानूनी आदेशों को स्वीकार करना होगा. जब हम अकादमी में कैडेट थे तभी से यह हमारे भीतर था क्योंकि मैं 1948 में भारतीय सैन्य अकादमी में शामिल हुआ था. यह कहानी है. इससे ज्यादा कुछ नहीं.