जनरल विश्वनाथ शर्मा भारत के ऐसे पहले सेनाध्यक्ष थे जिनका करियर स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ था. 90 साल के शर्मा 1990 में सेवानिवृत्त हुए थे. लेफ्टिनेंट जनरल के रूप में जून 1987 से मई 1988 तक पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ थे. उनका कार्यकाल चीन के साथ वांगडुंग घटना के लिए याद किया जाता है. जून 1986 में शुरू हुई इस घटना का नाम अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के सुमदोरोंग चू क्षेत्र के एक छोटे से गांव के नाम पर रखा गया है और इसे तीसरा चीन-भारत सैन्य संघर्ष माना जाता है. वांगडुंग थगला रिज के करीब है. 1962 के पहले चीन-भारत युद्ध की एक वजह रिज पर भारतीय सेना की मौजूदगी भी थी. रिज में इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक सहायक चौकी थी. 1986 की गर्मियों में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने वांगडुंग पर कब्जा कर लिया था.
16 सितंबर को पत्रकार और पूर्व सैन्य अधिकारी सुशांत सिंह ने जनरल शर्मा से उनके दिल्ली आवास पर बातचीत की. शर्मा ने सिंह को बताया कि क्यों उन्होंने सेना के कमांडर के रूप में भारतीय सेना द्वारा पीएलए से कब्जाई अग्रिम चौकियों से पीछे हटने के आर्मी हेडक्वार्टर्स और तत्कालीन सीओएएस जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी के आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया था.
सुशांत सिंह : 1980 के दशक में वांगडुंग और सुमदोरोंग चू क्षेत्र में क्या हुआ था जहां भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच गतिरोध वर्षों तक चला था?
जनरल वीएन शर्मा : 1986 में हुआ यह कि सुमदोरोंग चू क्षेत्र में लगभग चार खेत झोपड़ियों (पुआल से बनी अस्थायी झोपड़ियों) का एक छोटा-सा गांव है वांगडूंग. इसके बारे में कोई बहुत ज्यादा नहीं जानता है. तिब्बती याक वहां आया करते, चरते, गर्मियों में चरवाहे फूस की छोटी सी झोपड़ी बनाते थे और रात में उसमें रहते थे. हमारे पास वहां इंटेलिजेंस ब्यूरो की चौकी (लिसनिंग पोस्ट) थी. 1986 की सर्दियों वहां बर्फ ही बर्फ हो जाने के बाद आईबी पोस्ट, जिसमें दो से तीन पुरुष और एक रेडियो सेट शामिल था, वहां से दूर आ गए. जून या जुलाई 1986 में उन्होंने वांगडुंग गांव क्षेत्र में वापस जाने की कोशिश की तो देखा कि वह चीनी सेना के कब्जे में आ गया है और वहां एक कंपनी चीनी सैनिक मौजूद हैं. उन्होंने कहा, "यहां से चले जाओ, यह चीनी क्षेत्र है." वे (आईबी) वहां से लगभग तीस किलोमीटर आगे दक्षिण में वापस आ गए जहां खिनजेमेन में हमारी एक ब्रिगेड थी. खिनजेमेन की कमान फिफ्थ गोरखा राइफल्स के ब्रिगेडियर भूपी मलिक संभाले हुए थे. मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानता था क्योंकि जब मैं मेजर जनरल के रूप में एमओ (सैन्य-संचालन) निदेशालय में था, तो वह मेरे अधीन कोलोनल थे.
कॉम्बैट कॉलेज (मध्य प्रदेश के महू में) से, जहां मैं उस समय कमांडेंट था, मैंने उन्हें फोन किया, ''भूपी, क्या हुआ? और तुमने क्या किया है?” उन्होंने समझाया और कहा, "लेफ्टिनेंट जनरल नरहरि के आदेशों के अनुसार मैंने पाया है कि चीनी सैनिक वहां हैं इसलिए मैंने तुरंत पैदल सेना की एक कंपनी भेजी और हमने लैंग्रो ला रिज पर कब्जा कर लिया (रिज दर्रे पर हैं जहां से सुमदोरोंग चू घाटी दिखाई देती है और नरहरि तत्कालीन आईवी वाहिनी के कमांडर थे जो पूर्वी कमान के अंतर्गत आती है). लगभग जुलाई 1986 में जब बारिश रुक गई तो चीनी (वांगडंग की) नीचली ढलान से होकर लैंगरो ला रिज, लैंग्रो ला दर्रे तक कब्जा करने के लिए आने लगे लेकिन गोरखा पहले से ही जगह बनाए बैठे थे. उन्होंने खंदक खोद ली थी और उनके पास ओवरहेड सुरक्षा भी थी. 1986 में यही स्थिति थी.
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