मुजीबुर रहमान दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूसिव पॉलिसी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं. प्रशिक्षण से राजनीतिक वैज्ञानिक रहमान का शोध पहचान और विकास की राजनीति पर केंद्रित है. 2018 में उन्होंने राइज ऑफ सैफरन पावर : रिफ्लेक्शंस ऑन इंडियन पॉलिटिक्स नाम से निबंधों का एक संग्रह संपादित किया और फिलहाल वह शिकवा-ए-हिंद, द पॉलिटिकल फ्यूचर ऑफ इंडियन मुस्लिम किताब पर काम कर रहे हैं जो 2021 में प्रकाशित होगी.
भारत राजनीति रूप से तेजी से दक्षिणपंथी होता जा रहा है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पहले दक्षिणपंथी संगठनों के सदस्य थे लेकिन अब वाम खेमे में आ गए हैं या कम से कम दक्षिणपंथ से दूर हुए हैं. ऐसा क्यों होता है? कौन सी घटनाएं, परिस्थितियां और विचार उनके निर्णयों को आकार देती हैं? शिकागो विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट के छात्र अभिमन्यु चंद्रा ने कारवां के लिए इंटरव्यू की एक श्रृंखला में इन बदलावों का पता लगाने का प्रयास किया है. शुरुआती इंटरव्यू उन व्यक्तियों पर केंद्रित थे जो पहले दक्षिणपंथ में थे लेकिन अब उसके आलोचक हो गए. इंटरव्यू श्रृंखला के इस भाग में, चंद्रा ने उन विशेषज्ञों का इंटरव्यू किया है जो इस बात पर टिप्पणी करते हैं कि कब, क्यों और कैसे कुछ लोग दक्षिणपंथी खेमा छोड़ देते हैं.
एक शिक्षक के रूप में उनके अनुभवों के बारे में चंद्रा ने रहमान से बात की. उन्होंने बात की कि किसी मुद्दे पर बुद्धिजीवी बनाम औसत भारतीय के नजरिए में कितना फर्क है. रहमान ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विफलताओं से उनकी अपील तभी कम हो सकती है अगर विपक्षी दल "एक खास असंतोष को एक नई राजनीतिक सोच में बदल" पाएं.
अभिमन्यु चंद्रा : विश्व स्तर पर मोदी सहित प्रमुख दक्षिणपंथी नेताओं की गलतियां, उनके समर्थन को प्रभावित नहीं करती हैं. क्या चीज है जो उनके समर्थकों के मन को बदल सकती है या बदलती है?
मुजीबुर रहमान : अगर कोई मतदान संबंधी व्यवहार के बारे में पारंपरिक साहित्य को देखे, तो मुख्य रूप से तीन प्रकार के मतदाता होते हैं. एक वे हैं जिन्हें "कोर मतदाता" कहा जाता है, जो वफादार हैं. वे लोग जो बीजेपी से संबंधित हैं, जिनके परिवार कांग्रेस से हैं, जिनके परिवार कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन करते हैं. वे अपना विचार नहीं बदलते हैं. फिर हर चुनाव में, हमेशा नए-नए मतदाता शामिल होते हैं. और फिर अस्थायी या स्वतंत्र मतदाता हमेशा होते हैं.
भारत जैसे देश में नए मतदाता बड़े पैमाने पर हैं. बहुत सारे युवा, जो राजनीतिक व्यवस्था में शामिल हो गए, उन्होंने मोदी को इस उम्मीद से वोट दिया कि वह विकास करेंगे. भारत जैसे गरीब देश में इनमें से बहुत से युवा मतदाता वैचारिक नहीं हैं. वे वामपंथ, दक्षिणपंथ जैसी श्रेणियां उस तरह से नहीं जानते जिस तरह कई लोग राजनीति पर चर्चा करते हैं. वे वाम, दक्षिण या उदार दृष्टिकोण से चीजों को नहीं देखते हैं. कुछ नौजवानों को जिनमें से कोई सेंट स्टीफेंस कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय का एक प्रतिष्ठित कॉलेज) से हैं, उनके लिए शायद इस वैचारिक फ्रेमवर्क या बहस के कुछ मायने हो सकते हैं. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली या किसी अन्य तकनीकी कॉलेज में पढ़ने वाला इसके बारे में पूरी तरह से अनजान होगा. और अगर आप किसी छोटे शहर के कॉलेज में जाते हैं तो वहां भी यही हालत होगी. बुद्धिजीवी लोग जिस तरह से वैचारिक विवरण का इस्तेमाल करते हैं, अधिकांश लोग उस तरह से भारत में राजनीति को नहीं देखते हैं.
भारतीय राजनीति में पिछले चार-पांच सालों में जो कुछ हुआ है, वह यह है कि बीजेपी के एक नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी बीजेपी से ऊपर उठकर लोगों की नजरों में अपनी जगह बना पाए हैं. इसलिए ऐसे चुनाव परिणाम आए हैं जहां लोग बीजेपी से नाराज हैं लेकिन वे मोदी से नाराज नहीं हैं. उदाहरण के लिए राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में, विपक्षी दलों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया. (राजस्थान, मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव दिसंबर 2018 में हुए थे, जबकि गुजरात में दिसंबर 2017 में चुनाव हुए थे.) एमपी और राजस्थान में, विपक्षी दलों ने सरकारें बनाईं. और गुजरात में कांग्रेस के साथ करीबी मुकाबला था. लेकिन संसदीय चुनावों में बड़े पैमाने पर मोदी के लिए मामला इकतरफा था. मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इन तीनों राज्यों में मतदाता बीजेपी शासित राज्य सरकारों से बहुत नाराज थे लेकिन मोदी से नाराजगी नहीं थी. इसलिए मोदी इस तरह से खुद को इस स्थिति में लाने में सक्षम रहे हैं.
एक और बात मैं कहना चाहूंगा कि मोदी बीजेपी के कुछ प्रमुख वैचारिक एजेंडों को पूरा करने में सफल रहे हैं. जैसे अनुच्छेद 370 को हटाना, राम मंदिर का निर्माण, तीन तालक विधेयक को पारित करना, जो समान नागरिक संहिता के एजेंडे को पूरा करने की तरफ बढ़ता दिखाई दे रहा है. इसने हिंदू अधिकार के मूल वैचारिक आधार के साथ अपने संबंधों को गहरा किया है. मैं बीजेपी के वरिष्ठ नेता स्वप्न दासगुप्ता के साथ चर्चा कर रहा था. उन्होंने कहा कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि अयोध्या (जहां राम मंदिर बनाया जा रहा है) और धारा 370 हटाना, उनके जीवनकाल में होगा या हो सकता है.
इन सभी ने हिंदू दक्षिणपंथ की नजर में नरेन्द्र मोदी को एक कल्ट की हद तक पहुंचाया है. मेरे अनुमान से आज मोदी अन्य नेताओं की तुलना में ज्यादा बड़ा कल्ट हैं. इस मामले में वह अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी और यहां तक कि सावरकर की तुलना में आगे हैं. अगर आप एक सर्वे करें कि पिछले 100 सालों में सबसे बड़ा हिंदू दक्षिणपंथी नेता कौन है, तो मेरी समझ में मोदी सबसे आगे होंगे.
नरेन्द्र मोदी ठीक उसी तरह के हिंदू दक्षिणपंथी नेता हैं, जिस तरह से वैचारिक संगठन बीजेपी से चाहते थे. कह सकते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के साथ इसका उलटा है, रिपब्लिकन पार्टी में उनकी कोई खास वकत नहीं है. रिपब्लिकन आधार और उनके बीच कोई वैचारिक संबंध नहीं है. वह मुख्य रूप से एक कारपोरेट आदमी हैं. मोदी प्रतिमान हैं, जो आदर्श मामला सामने आया है, वह एक रोल मॉडल है जिसका लगातार (हिंदू दक्षिणपंथी) नेताओं से अनुसरण करने की उम्मीद की जाएगी.
अपने व्यक्तित्व के मामले में मोदी ट्रंप की तुलना में अधिक संरक्षित हैं. उदाहरण के लिए, ट्रंप महिलाओं के बारे में जिस तरह की बातें कहते हैं. आप इसे मोदी के साथ नहीं देखेंगे. मोदी बहुसंख्यवाद की विचारधारा को लेकर बहुत प्रतिबद्ध हैं लेकिन साथ ही वह मुसलमानों के खिलाफ अपमानजनक, अश्लील बयान नहीं दे रहे हैं. वह तब ऐसा कर रहे थे जब वह गुजरात में थे. अब वह और अधिक संभलकर बोलते हैं.
फिर मीडिया ने मोदी सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है क्योंकि वह विज्ञापनों को नियंत्रित करती है और ऐसे कई तरीके हैं जिनके जरिए वह मीडिया को नियंत्रित करती है. द हिंदू, एनडीटीवी, कारवां जैसे कुछ संगठनों को छोड़कर मीडिया का बड़ा हिस्सा सरकारी चैनल की तरह व्यवहार कर रहा है. मीडिया को भी अच्छी तरह से प्रबंधित किया गया है. जैसे कि कोविड पर और बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद उनकी मौत को लेकर बहस को तैयार करना आदि. ताकि ठोस मुद्दे बहस का हिस्सा न बन सकें. एनडीटीवी, द हिंदू की पहुंच बहुत थोड़ी आबादी तक है. मैं ऐसे किसी अन्य लोकतंत्र के बारे में नहीं जानता जहां सत्ता अपने एजेंडे को इतनी अच्छी तरह से निर्धारित कर सका है और अपनी नाकामियाबियों से ध्यान भटका सका है. यह सब मोदी की छवि के पक्ष में काम कर रहा है क्योंकि लोग यह नहीं पूछ रहे हैं कि आपका नेता कुछ नहीं कर रहा है, वे पूछ रहे हैं, "ओह, बॉलीवुड में ड्रग रैकेट चल रहा है."
इसलिए हिंदू दक्षिणपंथ के मूल आधार में किसी भी मुद्दे पर, आने वाले वर्षों में मिलने वाली किसी भी विफलता पर या कहें कि अगर मोदी सुरक्षा के मुद्दों पर या अर्थव्यवस्था पर चीन से बुरी तरह पिछड़ भी जाते हैं तो भी मोदी की खुद की रेटिंग में गिरावट नहीं होने वाली है.
भारत में दक्षिणपंथी मुख्य रूप से इसलिए मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. विपक्षी दल पर्याप्त रूप से संगठित नहीं हैं. जब तक कि राजनीतिक दल जमीनी स्तर पर खास असंतोष को व्यवस्थित करने, जैसे कि हाल के किसानों के विरोध प्रदर्शनों में और एक नई राजनीतिक सोच में बदलने में सक्षम नहीं होते हैं यह संभावना है कि मोदी उन सभी विफलताओं से बहुत प्रभावित नहीं होंगे जो कि हुई हैं और जो आगे और भी होंगी.
एसी : आपने कहा कि मतदाता अक्सर बीजेपी से नाराज होते हैं लेकिन मोदी से नहीं. वह खुद को बीजेपी से अलग और बीजेपी के साथ कैसे कर पाए हैं?
एमआर : आमतौर पर ज्यादातर करिश्माई नेताओं के साथ ऐसा होता है. मोदी वैचारिक रूप से भारतीय इतिहास के बहुत विवादास्पद व्यक्ति हैं. आधुनिक भारतीय इतिहास में दो प्रधानमंत्री सबसे वैचारिक रहे हैं : एक थे जवाहरलाल नेहरू, दूसरे मोदी हैं. नेहरू भारतीय राजनीति को केंद्र के बाईं ओर ले जाना चाहते थे, मोदी हिंदू दक्षिणपंथ की ओर. और वह इसमें बहुत सफल रहे हैं. कुछ इसलिए भी क्योंकि मोदी ब्रांड का निर्माण धीरे-धीरे हुआ है. यह एक दिन का मामला नहीं है.
सबसे पहले उन्होंने "गुजरात मॉडल" के ब्रांड का निर्माण किया. उन्होंने खुद को सबसे कुशल, सबसे सक्षम, विकास से प्रेरित के रूप में प्रस्तुत किया. इस तरह का खास व्यक्तित्व बहुत से मतदाताओं को आकर्षित करने में सक्षम था जिनका हिंदू दक्षिणपंथ से कोई लेना-देना नहीं था. इनमें से बहुत से लोगों ने विकास के लिए उनकी प्रतिबद्धता के कारण उन्हें वोट दिया क्योंकि पिछले 70 सालों में भारतीय राज्य की विफलता, कांग्रेस पार्टी की विफलता को लेकर वे चिंतित थे.
मोदी भारतीय जनता के लिए इस तरह स्वीकार्य नेता के रूप में उभरे इसका एक कारण यह था कि वे भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की विफलता के सुसंगत समालोचना प्रस्तुत करने में सक्षम थे. जब उन्होंने कहा, “देखिए, सत्तर साल में आपकी रेल समय पर नहीं चल रही है. हमें बुलेट ट्रेन चाहिए. पूरी दुनिया में बुलेट ट्रेन हैं और हमारी ट्रेनें इतनी बुरी हालत में हैं.” लोगों ने ट्रेनों में यात्रा करते हुए अपने जीवन में इन चीजों को देखा है. उन्हें भी देर हो जाती है, दुर्घटनाएं हुई हैं. इसी तरह जब उन्होंने सड़कों की स्थिति के बारे में बात की, ऐसा नहीं था कि वह कहानियां बनाने की कोशिश कर रहे थे. जो वह कह रहे थे वह लोग अनुभव कर रहे थे. वह कह रहे थे, "सुनिए, कुछ भी नहीं हुआ है, मैंने इसे गुजरात में किया है. अब मैं इसे आपके लिए करूंगा. ”
अब वह गुजरात मॉडल के बारे में बात नहीं करते हैं क्योंकि गुजरात मॉडल की पोल खुल चुकी है. विपक्ष ने इसकी पोल नहीं खोली. यह पटेल आंदोलन था (2015 में गुजरात के पाटीदार समुदाय द्वारा आरक्षण के लिए एक बड़े आंदोलन की चर्चा करते हुए), हार्दिक पटेल ने गुजरात मॉडल की असलियत सामने लाई.
भारतीय राजनेताओं से लोगों के तंग आ चुकने की एक वजह यह है कि वे व्यक्तिगत रूप से बहुत भ्रष्ट हैं. और वे अपने परिवार और वंश के कारण भ्रष्ट हैं. मोदी पर यह बोझ नहीं है. उनके परिवार के सदस्य, भाई, भतीजे, इन लोगों में से किसी ने भी (जबकि मोदी सार्वजनिक पद पर हैं) मुनाफा नहीं कमाया है. इससे लोगों को लगता है कि यह आदमी अलग है, भले ही बड़े पैमाने पर राजनीतिक भ्रष्टाचार हो रहे हों. बीजेपी आज दुनिया की सबसे अमीर पार्टियों में से एक है. कई अन्य बीजेपी नेता भी भ्रष्ट हैं, जिन्होंने अपने परिवारों के लिए काम किया है. लोग उनसे नाराज हैं. इसलिए लोग इस तरह देखते हैं कि मोदी क्या हैं बनाम अन्य लोग क्या हैं. और उस फर्क ने मोदी की छवि गढ़ने में योगदान दिया है.
और फिर भारत गहराई से एक धार्मिक देश है. यह हमेशा से बहुत धार्मिक रहा है और उन्होंने प्रतीकवाद का इस्तेमाल बहुत बेहतर ढंग से किया है. 2019 के चुनाव में वह हिमालय गए और वहां पर योग किया और उस तस्वीर को जारी किया. ट्रंप के उलट उनकी छवि व्यभिचारी की नहीं है. उनके चरित्र को लेकर कोई सवाल नहीं हैं. लोग उनके बारे में एक ही चीज है जिसके बारे में कुरेद सकते हैं वह यह कि उनकी पत्नी जिन्हें उन्होंने छोड़ दिया अन्यथा वह खुद को एक सभ्य भारतीय व्यक्ति के रूप में पेश करने में सफल हुए हैं.
और फिर लंबे समय तक वह गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. उन्होंने कारपोरेटों की पर्याप्त मदद की. वह अपनी ही पार्टी के लापरवाह लोगों की तरह नहीं हैं जैसे (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) आदित्यनाथ और अन्य, जिनकी कोई कारपोरेट छवि नहीं है. मोदी ने कारपोरेट छवि बनाई थी जिसमें सभी प्रमुख लोगों के साथ मित्रता थी और वह इन सभी के प्रति वफादार रहे हैं. इसलिए कारपोरेट उन्हें खतरा नहीं मानता. हाल ही में कृषि बिल भी कई मायनों में कारपोरेटों के लिए एक उपहार है. चुनाव एक बहुत अधिक महंगा खेल रहा है. वह यह समझने और अपनी पार्टी के लिए उस राशि का इंतजाम करने में सक्षम है और इसने भी उनके पक्ष में काम किया है.
फिर एक व्यक्ति के रूप में मोदी के अलावा एक रणनीतिकार के रूप में अपनी बयानबाजी शक्ति के मामले में मोदी आगे हैं. वर्षों से उन्होंने खुद को एक वक्ता के रूप में सुधारा है. वह बौद्धिक भाषा में बात नहीं करते हैं. वह बहुत ही साधारण भाषा बोलते हैं जो लोगों से जुड़ती है. भले ही जिस जीवन शैली का वह नेतृत्व करते हैं और जो भाषा वह बोलते हैं, उसके बीच एक बड़ा फेर है लेकिन जब वह लोगों के पास जाते हैं, तो वह उन्हें याद दिलाते हैं कि वह उनमें से ही एक हैं, जो जमीनी स्तर से ऊपर आया है. और ये कोई बनी-बनाई कहानी नहीं है. यह एक तथ्य है कि वह एक बहुत मामूली परिवार से आते हैं.
और फिर अति राष्ट्रवाद है जो मानता है कि वही हैं जो पाकिस्तान को चुनौती दे सकते हैं. वह इन चीजों को निभाने और एक नैरेटिव बनाने में काफी हद तक सफल रहे हैं. मिसाल के तौर पर बीजेपी में कौन है जिसे पाकिस्तान को चुनौती देने के मामले में मोदी से अच्छा माना जा सकता है? आप कल्पना करेंगे कि रक्षा मंत्री लेकिन जब पाकिस्तान की बात आती है तो कोई भी रक्षा मंत्री के बारे में बात नहीं करता है. बात मोदी की ही की जाती है.
और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि उन्हें कभी चुनौती नहीं मिली. अगर आप उनकी तुलना इंदिरा गांधी से करते हैं, तो जयप्रकाश नारायण वहां थे, उन्होंने उन्हें चुनौती दी. मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी को चुनौती देने के लिए मौजूद थे. वे सभी नेता बहुत वरिष्ठ नेता थे. इसकी तुलना में, मोदी के पास कोई बड़ी चुनौती नहीं है. जब आपके पास कोई चुनौती नहीं होती है, तो सब कुछ आपके पक्ष में होता है.
लोग जिस मानदंड को अपनाते हैं और जिस मानदंड से बुद्धिजीवी और विश्लेषक किसी नेता का आकलन करने में लगाते हैं वे बहुत अलग होते हैं. हमारे लिए यह एक बड़ा मुद्दा है कि पिछले छह सालों में किसी प्रधानमंत्री ने देश की मीडिया को एक सार्थक इंटरव्यू नहीं दिया है. यह एक बड़ा मुद्दा है कि उन्हें मीडिया को लेकर कोई सम्मान नहीं है. उदाहरण के लिए कोविड लॉकडाउन से पहले, उन्होंने संपादकों के साथ एक कॉन्फ्रेंस कॉल की थी. हमारे मानकों के अनुसार यह एक उल्लंघन है. आप राजनीतिक कार्यकारी के रूप में पत्रकारों को यह नहीं बता सकते हैं कि क्या रिपोर्ट करना है और क्या नहीं. यह हस्तक्षेप और व्यवधान है. औसत भारतीय मतदाता को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि किस तरह यह खराब है. अगर आप उसे बताते हैं कि प्रधानमंत्री कह रहे थे कि यह रिपोर्ट नहीं की जानी चाहिए, तो वह कहेंगे, “उन्होंने सही बात कही, निराशाजनक बातें सुनने में क्या फायदा है? इतने लोग मर रहे हैं अगर आप लोगों को यही बताते रहेंगे तो वे उदास हो जाएंगे. महिलाओं और बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा.” उदार लोकतंत्र की हमारी समझ और एक औसत भारतीय नागरिक की समझ बहुत अलग है. यह उन चीजों में से एक है जिसे मोदी बहुत अच्छी तरह से समझते हैं.
यह किसी भी तरह राजनीतिक तर्कवाद की तुलना में राजनीतिक मनोविज्ञान का मामला है, जो उस फर्क को समझाता है कि बीजेपी के अन्य नेताओं के सापेक्ष उनका कद इतना उंचा और विशिष्ट क्यों है. अन्यथा कई मायनों में बीजेपी किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तरह है. वे हफ्ता वसूली कर रहे हैं, वे सभी चीजें कर रहे हैं जो अन्य स्थानीय नेता करते हैं. बस बहुसंख्यकवादवाद, मुस्लिम विरोधी बयानबाजी और विचारधारा की उच्च खुराक के साथ. और उनके पास ज्यादा पैसा है.
एसी : एक शिक्षक के रूप में क्या आप नैरेटिव और धारणा के व्यापक मुद्दों पर छात्रों की सोच को आकार देने में सक्षम होते हैं? जब लोग तथ्यात्मक रूप से अस्थिर नैरेटिव जैसे मुसलमानों को लेकर करते हैं, तो क्या आप उन नैरेटिवों के जरिए बींध पाते हैं या लोगों ने वैचारिक इंसुलेशन की लगभग बुलेट-प्रूफ जैकेट पहनी होती है?
एमआर : जब मैं व्याख्यान देता हूं तो मैं किसी भी छात्र को मुझसे सहमत होने के लिए नहीं कह रहा होता हूं. मैं कहता हूं कि यह पाठ है, ये मेरे स्रोत हैं और यह मेरा प्रमाण है. अब आप किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए स्वतंत्र हैं. और आप मुझसे सहमत होने, असहमत होने या आंशिक रूप से सहमत होने के लिए, आगे के सुराखों का पता लगाने के लिए भी स्वतंत्र हैं. मेरे लिए यह ज्ञान साझा करने का अनुभव है, चाहे वह धर्मनिरपेक्षता का सवाल हो या वैश्वीकरण का या उदार लोकतंत्र या बहुसंख्यकवाद का.
लेकिन राजनीतिक सोच इस तरह से नहीं बनती है. बहुत सारे लोग तथ्यों से परिचित हैं लेकिन वे अभी भी अपना मन नहीं बदलना चाहते हैं. चीजें तथ्यों के रूप में बहुत स्पष्ट होने के बावजूद अभी भी समाज में राजनीतिक सोच को बदलने में विफल है. इसका एक कारण यह है कि उन्हें पर्याप्त रूप से साझा नहीं किया जाता है.
एक स्पष्ट उदाहरण के रूप में पिछले 40 सालों में बीजेपी की फासीवादी पार्टी के रूप में आलोचना की गई है. अब भारत में किसी भी औसत व्यक्ति के अनुसार फासीवाद खराब है. जब किसी को बताते हैं कि फासीवाद के तहत वे आपकी हत्या कर सकते हैं या वे आपको किसी कंसंट्रेशन कैंप में फेंक सकते हैं या वे इस या उस तरह से आपको खारिज करेंगे. भले ही वह फासीवाद, हिटलर के बारे में नहीं जानते और यह नहीं जानता कि जर्मनी कहां है. क्योंकि वह अपने स्वयं के मानक को लागू करेगा जो सही और गलत है और उसके आधार पर वह कहेगा कि यह बुरा है.
दूसरी ओर आनुभविक रूप से पिछले 40 सालों में बीजेपी का समर्थन आधार बढ़ा है. आज यह 37 प्रतिशत के करीब है (2019 के आम चुनावों में बीजेपी का वोट प्रतिशत 37.4 प्रतिशत था). इसलिए, तार्किक रूप से आप यह निष्कर्ष निकालेंगे कि बीजेपी के खिलाफ फासीवाद के इस तर्क ने काम नहीं किया क्योंकि बीजेपी या मोदी को फासीवादी बताने का कारण लोगों को इस तर्क से डराना था कि वह फासीवादी हैं, कि सत्ता में आने पर वह कुछ बुरा काम करेंगे.
लेकिन आप यह तर्क नहीं दे सकते कि लोग उन्हें इसलिए वोट कर रहे हैं क्योंकि लोग फासीवाद को गले लगा रहे हैं, भले ही आप तार्किक रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं. मेरी अपनी समझ यह है कि यह गलत अनुमान होगा. मैं कहूंगा कि औसत आदमी बस जागरूक नहीं है. वे जोड़ पाने में सक्षम नहीं हैं वे इस समानता को देख पाने में सक्षम नहीं हैं. आप तथ्यों को कैसे प्रस्तुत करते हैं, इसे कैसे प्राप्त करते हैं और किस हद तक राजनीतिक सोच बनाने में मदद करते हैं यह एक बहुत ही जटिल विषय है. मुझे नहीं लगता कि उदारवादी नैरेटिव इसे समझ पाए हैं. कहीं न कहीं संचार में बड़े पैमाने पर टूट हुई है.
अगर आप मुझे इजाजत दें तो मैं इससे मिलती-जुलती एक बात और कहना चाहूंगा. क्या भारतीय समाज में इस्लामोफोबिया में भारी वृद्धि हुई है? मैं कहूंगा कि हां पिछले दस से पंद्रह सालों में हुई है. जिस कारण लिंचिंग वगैरह के खिलाफ ज्यादा विरोध या गुस्सा नहीं हुआ है. लोगों ने बाहर आकर यह नहीं कहा कि "मैं उन्हें वोट नहीं देने जा रहा हूं क्योंकि यह एकमात्र सरकार है जिसमें लिंचिंग हुई है और मैं भारतीय समाज में लिंचिंग नहीं होने देना चाहता." इस्लामोफोबिया बढ़ने का कारण यह है कि यहां बड़े पैमाने पर भीड़ जुटाई गई है, भारत में आरएसएस की गतिविधियां कई गुना बढ़ गई हैं.
मेरे पड़ोस में, मैंने पिछले सात-आठ सालों में देखा है कि औसत लोग, उदाहरण के लिए, कोई सुरक्षा गार्ड, उनकी भाषा बहुत ही इस्लामोफोबिक बन गई है. और वे अर्नब गोस्वामी को नहीं देख रहे हैं. ये लोग सुबह से रात तक काम कर रहे हैं. उनके दिमाग में संचार के अन्य तरीकों से, विभिन्न सामाजिक चैनलों के माध्यम से यह भरा जाता है. संचार के ये तरीके चल रहे हैं, और वे भारतीय समाज की वैचारिक दिशा को आकार दे रहे हैं. भारत हिंदू दक्षिणपंथ की ओर क्यों बढ़ रहा है क्योंकि वही ताकतें काम की रही हैं और उनकी कोई चर्चा नहीं की जाती हैं. लेकिन वे वहां हैं, चुपचाप काम कर रहे हैं.
एसी : हाल के वर्षों में बीजेपी और मीडिया के कुछ हिस्सों ने "शहरी नक्सली" और "जिहादी" जैसे लेबल उछाले हैं और जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के साथ उन्हें जोड़ा है. बहुत सारे लोग इस तरह की बयानबाजी का शिकार हुए हैं और जब वे जेएनयू या जामिया सुनते हैं, तो वे तुरंत उन्हें "शहरी नक्सली" और "जिहादियों" का अड्डा मान लेते हैं. यह सोच कैसे बदलेगी? क्या ऐसा हो सकता है?
एमआर : जेएनयू और जामिया दोनों ही बेढंगे रूप से भारतीय राजनीति में पूरी तरह से चर्चित हैं. इसका एक मुख्य कारण यह है कि भारत एक वैचारिक परिवर्तन से गुजर रहा है और संस्थाएं भारतीय समाज के कुछ खास प्रकार के वैचारिक चेहरों का प्रतिनिधित्व करती हैं. इनमें से एक अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में माना जाता है और दूसरा धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक संस्थान के रूप में. इसलिए उन्हें हिंदू दक्षिणपंथी विचारधारा के लिए खतरे के रूप में देखा जाता है. अस्सी के दशक के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक की शुरुआत में जब अयोध्या आंदोलन चल रहा था, तब एक प्रमुख हिंदू दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ मुरली मनोहर जोशी ने कहा था, "जेएनयू के लोगों को छोड़कर हर कोई हमारे काम की सराहना कर रहा है." इसलिए जेएनयू लंबे समय से रडार पर है अपनी बौद्धिक गतिविधियों के कारण क्योंकि यह एक वामपंथी झुकाव वाला विश्वविद्यालय है जिसके बहुत सारे बुद्धिजीवियों ने बीजेपी के बारे में लिखा और अयोध्या आंदोलन का विरोध किया. इसलिए इसका एक लंबा इतिहास है.
कोई भी औसत व्यक्ति जो जेएनयू या जामिया से बाहर का है वह केवल उन सूचनाओं और तर्कों को गंभीरता से लेता है जो उनकी समझ के आधार पर विश्वसनीय है. अगर उन्हें लगता है कि एनडीटीवी विश्वसनीय है तो एनडीटीवी जो कह रहा है वे उस पर विश्वास करेंगे. अगर उन्हें लगता है कि अर्नब गोस्वामी विश्वसनीय है तो अर्नब गोस्वामी जो कह रहा है वे उसे विश्वसनीय मानेंगे. इसलिए अगर अर्नब गोस्वामी कहता है कि जेएनयू "शहरी नक्सल" है, आईआईटी बॉम्बे "शहरी नक्सल" है तो वे कहेंगे, "बिल्कुल, वे “शहरी नक्सल” ही होंगे." हमें यह पहचाने दें कि इन सभी आरोपों की विश्वसनीयता, इसमें से बहुत इससे संबंधित हैं कि मध्यस्थ संस्थाएं खुद को कैसे प्रस्तुत करती हैं, उनकी विश्वसनीयता क्या है.
अधिक व्यापक रूप से इस देश में मुसलमानों के बारे में बहुत सारे पूर्वाग्रह हैं. जैसे वे पाकिस्तान के प्रति अधिक सहानुभूति रखते हैं, कि ज्यादातर मुसलमान इस या उस तरह के ही हैं. लोगों के दिमाग में ये पूर्वाग्रह बहुत गहरे हैं. यहां तक कि अगर आप हर दिन इसके खिलाफ सबूत देते हैं तो भी इसे उखाड़ पाना मुश्किल हो सकता है. अगर आप एक हिंदू दक्षिणपंथी व्यक्ति को सबूत देते हैं कि आम मुसलमान "लव जिहाद" नहीं करते हैं, वे आतंकवादी नहीं हैं, आप उन्हें हर दिन अब्दुल कलाम और शाहरुख खान और सानिया मिर्जा का उदाहरण देते हैं फिर भी वे मानेंगे कि ये लोग अपवाद हैं. जामिया और जेएनयू हिंदू दक्षिणपंथ के इस वैचारिक आंदोलन का शिकार हो गए हैं.