फरवरी 2015 में प्रद्युत बोरा ने भारतीय जनता पार्टी से इस्तीफा दे दिया. बोरा भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के संस्थापक हैं और बीजेपी के वरिष्ठ नेता एल. के. आडवाणी और राजनाथ सिंह के साथ काम कर चुके हैं. पार्टी से इस्तीफा देने के बारे में बोरा ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी बहुत केंद्रीकृत हो गई है. बोरा ने बताया कि दोनों के राजनीति करने के अलोकतांत्रिक स्टाइल के कारण उन्होंने इस्तीफा दिया था. इस्तीफा देने के बाद बोरा ने असम में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के स्थापना की.
शिकागो यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रहे अभिमन्यु चंद्रा ने कारवां के लिए बोरा से बात की और उनकी राजनीतिक आकांक्षा, मोदी और शाह के नेतृत्व में बीजेपी और भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के भविष्य पर बात की.
अभिमन्यु चंद्रा : आप बताते हैं कि बहुत सारे पेशेवर लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल के आखिरी दिनों में और यूपीए सरकार के शुरुआती वक्त में बीजेपी की सदस्यता ली थी और आप भी उन में से एक थे. क्या आप की तरह अन्य लोग भी मोदी और शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी से निराश होकर पार्टी से अलग हुए हैं या वे अब तक पार्टी में बने हुए हैं?
प्रद्युत बोरा : मुझे संख्या तो याद नहीं लेकिन छुटपुट जानकारियां हैं जिनसे यह कहा जा सकता है कि पुराने लोगों में से बहुत से लोग पार्टी से अलग हो गए हैं. ऐसे ही लोगों में से एक हैं संजीव बिखचंदानी जो naukri.com के मालिक हैं. अब वह मोदी के कटु आलोचक हैं. एक समय था जब वह भी समर्थक थे. वह भारत के सबसे सफल डॉट कॉम उद्यमी हैं. बहुत से लोग वाजपेयी के जमाने के शांत कार्यकाल से आकर्षित हुए थे. हमें लगता था कि भारत के राष्ट्रपति एक पेशेवर आदमी हैं. उस समय एपीजे अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति थे और ऐसा लगता था कि यह पुनरुत्थानशील भारत (रिसरजेंट इंडिया) है, एक नया भारत है और इस भारत में तमाम लोगों के लिए जगह है. समाजवादी नेता और प्रख्यात ट्रेड यूनियनिस्ट, ईसाई जॉर्ज फर्नांडिस हमारे देश के रक्षा मंत्री थे. उस सरकार में ममता बनर्जी कैबिनेट मंत्री थीं. राजनीतिक रूप से वह कई दलों का गठबंधन था. हमें लग रहा था कि इस सरकार को सत्ता में दोबारा आना चाहिए. मैं सितंबर 2004 में बीजेपी में शामिल हुआ और तीन महीने बाद ही बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई. मेरे दिमाग में यह बात थी कि इस सरकार को वापस सत्ता में आना चाहिए और इसके लिए मुझे भी कुछ करना चाहिए. मुझे लगता है कि बहुत से लोग भी इसी तरह सोच रहे थे. मेरा अनुभव है कि मेरे जैसे बहुत से लोग अब आगे बढ़ गए हैं.
मैंने बीजेपी की सदस्यता ली थी और मेरे पास आधिकारिक पद था. संजीव के पास आधिकारिक जिम्मेदारियां नहीं थी लेकिन वह भी बहुत करीब से पार्टी से जुड़े हुए थे. ऐसे ही दूसरे व्यक्ति हैं नेटकोर के संस्थापक राजेश जैन. उन्होंने अपनी वेबसाइट इंडिया वर्ल्ड 500 करोड़ रुपए में बेची थी. भारत के डॉटकॉम काल के मूल पोस्टर बॉय राजेश ही थे. वह भी बीजेपी में शामिल हो गए थे लेकिन अब पार्टी से निकल गए हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : बीजेपी में आज भी कई पेशेवर पृष्ठभूमि के लोग हैं. मिसाल के लिए उसके आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय और सांसद जयंत सिन्हा. आप सभी लोग एक जैसी पृष्ठभूमि के हैं तो ऐसा कैसे होता है कि एक आदमी बीजेपी समर्थक से बीजेपी आलोचक बन जाता है लेकिन दूसरे ऐसा नहीं करते?
प्रद्युत बोरा : अलग-अलग लोगों के पास अलग-अलग कारण होते हैं. मेरा मामला एकदम साफ था. वाजपेयी के जमाने में इसकी संभावना लग रही थी वह सेंट्रिस्ट पार्टी बन सकती है या कम से कम दक्षिण की ओर झुकी हुई सेंट्रिस्ट पार्टी. इसीलिए कल के अन्य लोगों की तरह मुझे भी लगा भारत को ऐसी पार्टी की जरूरत है. मेरे लिए वाजपेयी की सबसे आकर्षक बात यह थी कि मुझे लगा यह एक ऐसा आदमी है जो तमाम विचारधाराओं के बीच में विराजमान है. यह एक ऐसा आदमी है जो जॉर्ज फर्नांडिस, एपीजे अब्दुल कलाम जैसे लोगों को साथ ला सकता है और इसी तरह की राजनीति की जरूरत भारत को है. मतलब एक सेंट्रिस्ट राजनीति की या दक्षिणपंथ की ओर झुकी सेंट्रिस्ट राजनीति की.
मोदी के आने के बाद मुझे एहसास हुआ कि बीजेपी चरम रूप से दक्षिणपंथी पार्टी बन गई है. मेरा पार्टी से दूर होने का कारण विशुद्ध वैचारिक था. मैं मोदी के सत्ता में आने के शुरुआती दिनों में ही, फरवरी 2015 में, पार्टी से अलग हो गया. बहुत से अन्य लोग भी पार्टी से अलग हुए. शौरी ने पार्टी छोड़ी, यशवंत सिन्हा ने पार्टी छोड़ी, और भी बहुत सारे लोगों ने पार्टी छोड़ी.
अभिमन्यु चंद्रा : अरुण शौरी और सिन्हा सार्वजनिक जीवन में काफी मुखर हैं लेकिन उनसे कम नामचीन लोगों ने पार्टी क्यों छोड़ी?
प्रद्युत बोरा : इसके कई कारण है. कुछ लोग कहेंगे कि मिलकर फैसला लेने वाली बीजेपी अब कहां रही. दूसरी मुख्य वजहें भी हैं. एक वजह है कि पार्टी मध्य से धुर दक्षिणपंथ की तरफ बढ़ गई है. दूसरी वजह है कि वह बहुत निरंकुश और केंद्रीकृत रूप से निर्णय लेने वाली पार्टी बन गई है. तीसरी बात है कि पार्टी बहुत ज्यादा वादे करती है. उसने राजनीति को तमाशा बना दिया है. लोग इससे थक गए हैं. हर रोज आप एक नया विचार, एक नया तमाशा पेश करते हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : बीजेपी के अंदर के लोगों ने या कहें कि उसके अंदर मौजूद उदारवादी लोगों ने पार्टी छोड़ने के आपके फैसले पर क्या कहा?
प्रद्युत बोरा : पहले तो उन्हें झटका लगा क्योंकि मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पांच सबसे नौजवान सदस्यों में से एक था. बीजेपी में मेरी काफी अच्छी तरक्की हुई थी. बहुत कम उम्र में मुझे कई जिम्मेदारियां दी गई थीं और अक्सर लोग जिम्मेदारी ना मिलने पर इस्तीफा देते हैं यानी जब टिकट ना मिले या जिम्मेदारी वाले पद ना मिले तभी इस्तीफा देते हैं. जब आपको सब कुछ मिल रहा है तो आप बाहर क्यों जाना चाहते हैं. फरवरी 2015 में जब मैं पार्टी से निकला, मोदी लोकप्रियता के शिखर पर थे.
लेकिन मेरे पार्टी छोड़ने के फैसले को चीजों ने तीव्रता दे दी. पहली वजह थी वह किताब जिसने मेरी जिंदगी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. उस किताब का नाम है प्रोफाइल्स इन करेज. इसे लिखा था जॉन एफ कैनेडी ने. मैंने यह किताब 11 साल की उम्र में पढ़ी थी. इसमें तकरीबन 12 अमेरिकी सीनेटरों के बारे में बताया गया है जिन्होंने अपने जीवन में ऐसी नीतियों की मुखालफत की थी जिनका जनता समर्थन कर रही थी लेकिन वह निजी रूप से समझते थे कि वे देश हित में नहीं हैं. और ऐसा करते हुए इन सीनेटरों ने बड़ा राजनीतिक खतरा मोल लिया और उन्हें राजनीतिक रूप से नुकसान हुआ. नेता लोग ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते जिससे उन्हें राजनीतिक नुकसान हो. कोई भी राजनीतिज्ञ राजनीति में घाटे का काम नहीं करता लेकिन यदि आपको कोई चीज ठीक लगती है और आप उसके लिए राजनीतिक घाटा उठाने को तैयार हैं तो ऐसा करने के लिए आपको बड़ी हिम्मत चाहिए.
दूसरी बात, मैंने बीजेपी में रहते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में पढ़ा था जो जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट के सदस्य थे. नेहरू की कश्मीर नीति का विरोध करते हुए उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और भारतीय जनसंघ की स्थापना की. उस दौर में नेहरू और कांग्रेस लोकप्रियता के शिखर पर थे और कांग्रेस से बाहर होकर एक वैकल्पिक राजनीतिक पार्टी का सपना देखना आसान बात नहीं थी.
पीछे मुड़कर देखूं तो मैं यही कहूंगा कि इन दो बातों ने मुझे हिम्मत दी और मैंने सोचा कि मेरे पास खोने के लिए रखा ही क्या है.
अभिमन्यु चंद्रा : जब आपने पार्टी से इस्तीफा दिया तो क्या लोगों ने आपका मजाक बनाया?
प्रद्युत बोरा : मुझे नहीं लगता है कि जो लोग राजनीति में हैं उन्हें किसी तरह की अग्नि परीक्षा की जरूरत होती है. ज्यादा से ज्यादा आपको मतदाताओं को अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है. मैं किसी उदारवादी बुद्धिजीवी के सर्टिफिकेट को तवज्जो नहीं देता.
राजनीति की प्रकृति ही है कि इसमें निरंतर बातचीत और समझौते की एक प्रक्रिया चलती रहती है. जरूरी है कि आप लचीले और यथार्थवादी हों. आप एकदम शुद्धतावादी नहीं रह सकते. आप हमेशा विशुद्ध वामपंथी या विशुद्ध दक्षिणपंथी नहीं रह सकते. आपको बहुत से प्रतिस्पर्धी हितों को देखना होता है. उनमें संतुलन बनाना होता है. इसलिए राजनीति में आप विशुद्ध उदारवादी या मार्क्सवादी या पूंजीवादी नहीं रह सकते.
इसीलिए मुझे लगता है कि किसी भी राजनीतिज्ञ को इस तरह की परीक्षा नहीं देनी चाहिए और उसे अपनी सोच बड़ी रखनी चाहिए. उसे स्वयं के प्रति सच्चा रहना चाहिए. आखिर में आप अपनी अंतरात्मा के लिए जवाबदेह हैं किसी और के लिए नहीं.
अभिमन्यु चंद्रा : आपने बताया कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी धुर दक्षिणपंथी हो गई जो आपके लिए स्वीकार्य नहीं था. क्या आप ऐसा कोई कारण बता सकते हैं जो आपके और पार्टी के संबंधों के लिए ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ हो और जिसके बाद आपने फरवरी 2015 में पार्टी छोड़ दी?
प्रद्युत बोरा : मैं अपना इस्तीफा उसी दिन देना चाहता था जिस दिन मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया यानी 2013 के आखिर में. मेरी कुछ शंकाएं थीं. सुषमा स्वराज, एलके आडवाणी सहित बहुत से लोगों ने मोदी की नियुक्ति का विरोध किया था. बीजेपी के अंदर से ही मोदी का बहुत विरोध हो रहा था. 2002 के गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका, उनका केंद्रीकृत प्रशासन और जिस तरह से गुजरात बीजेपी में उन्होंने अपने पहले के लोगों को खत्म किया, उसको लेकर उनका विरोध हो रहा था.
बीजेपी में सामूहिक नेतृत्व की परंपरा होती थी. पार्टी का एक नारा था, “अध्यक्ष अध्यक्षता करते हैं और टीम फैसला लेती है.” वाजपेयी का यही स्टाइल था. वह अपने साथियों के विचार को महत्व देते थे. पार्टी की यही संस्कृति थी और मुझे एहसास हुआ कि गुजरात के इस आदमी के नेतृत्व में सामूहिक नेतृत्व पूरी तरह खत्म हो गया है.
भाई-भतीजावादी पूंजीवाद का बहुत खराब रूप दिखाई दिया. इसकी जड़ें गुजरात में तैयार हुई थीं और मुझे लगा कि इस आदमी को आगे बढ़ाना बीजेपी के लिए अच्छा नहीं है. इसलिए मैं पार्टी छोड़ देना चाहता था लेकिन जिस किसी से मैंने बात की, मेरे दोस्तों से, मेरे परिवार वालों से और अन्य तमाम लोगों से, उन्होंने मुझे ऐसा ना करने का सुझाव दिया.
उनका कहना था कि लोग बदलते हैं. वे कहते थे, “हां, उसने गलती की है लेकिन उसे एक मौका और दिया जाना चाहिए.” लोगों ने दावा किया कि दिल्ली गांधीनगर नहीं है. दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट है. वहां राष्ट्रीय मीडिया है और उनके कामों पर लोगों की नजर रहेगी. हां यह भी कहा कि जब लोग शीर्ष पर पहुंच जाते हैं तो उनका बर्ताव भी बदल जाता है और इसलिए मोदी प्रधानमंत्री के रूप में मुख्यमंत्री मोदी से अलग होंगे. मैं जिन लोगों पर विश्वास करता था, उन्होंने मुझे ऐसी सलाह दी.
प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद एहसास हुआ कि मेरा डर सच होने जा रहा है. उसके बाद बहुत सारे ऐसे कांग्रेसी जो भ्रष्ट थे, जिन पर भ्रष्टाचार का आरोप था और जिनकी बीजेपी पहले आलोचना करती थी, वे सजा से बचने के लिए बीजेपी में शामिल होने लगे और वह आखिरी वजह थी जिससे मैंने पार्टी छोड़ देने का निर्णय कर लिया. मैंने कहा, ‘बहुत हुआ, बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत चाहती थी लेकिन सारे कांग्रेसियों को बीजेपी में शामिल कर कांग्रेस मुक्त भारत नहीं बन सकता.
अभिमन्यु चंद्रा : क्या लोगों ने आपसे कहा कि मोदी को एक चांस दीजिए और उनका समर्थन करते रहिए?
प्रद्युत बोरा : अभी तक तो ऐसा कहने वाले सारे लोग असंतुष्ट हो चुके हैं, लेकिन फरवरी 2015 में ये लोग थोड़ा संशय की स्थिति में थे. लेकिन अब वे मोदी और बीजेपी के खिलाफ हो गए हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : अक्सर लोगों के बचपन के अनुभव बड़े होने पर उनको और उनकी राजनीति को दिशा देते हैं. क्या आप उस वक्त के वैचारिक चरित्र के बारे में हमें बताएंगे जिसमें आप बड़े हुए?
प्रद्युत बोरा : मेरे मां-बाप असम के आम सरकारी मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि के थे. मेरे पिताजी सरकारी अधिकारी थे और मां सरकारी स्कूल में टीचर थीं. दोनों ने असम आंदोलन में भाग लिया था और इसलिए उनके भीतर असमी राष्ट्रवाद की भावना कूट-कूट के भरी थी.
लेकिन मैं बहुत छोटी उम्र से घर के बाहर चला गया था. 1985 में, जब मैं 11 साल का था, मैंने असम छोड़ दिया था और में देहरादून के राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज में हाई स्कूल करने आ गया था. इसके बाद मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ा और मैंने आईआईएम अहमदाबाद से अपना एमबीए पूरा किया. मैंने अपना प्रोफेशनल करियर दिल्ली में शुरू किया और इसलिए मेरे अंदर कई तरह के प्रभाव रहे.
अभिमन्यु चंद्रा : असम पर आरएसएस-बीजेपी की विचारधारा का क्या असर हुआ है?
प्रद्युत बोरा : असम पर इसका गहरा असर हुआ है. वहां पर असम की पहचान को पूरी तरह बदल कर, उसे हिंदू पहचान देने का प्रयास किया जा रहा है.
असम में असमी उपराष्ट्रवाद की गहरी भावना है. जैसा तमिल उपराष्ट्रवाद की है. हमारे अपने आदर्श हैं. पर अब वहां भौगोलिक और सांस्कृतिक आधार पर बनी इस पहचान को बदलकर धार्मिक पहचान देने का प्रयास किया जा रहा है. हर तरफ से संस्थागत आक्रमण किए जा रहे हैं और इसलिए हम एक बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं. हम यहां सिर्फ राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं.
अभिमन्यु चंद्रा : क्या आप अपनी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की विचारधारा के बारे में संक्षिप्त में बता सकते हैं?
प्रद्युत बोरा : हम लोग आर्थिक और सामाजिक दोनों रूपों से उदारवादी हैं. वामपंथ आर्थिक रूप से बहुत संकीर्ण रहा है और सामाजिक रुप से उदार. बीजेपी आर्थिक रूप से उदार और सामाजिक रुप से संकीर्ण है. हम दोनों ही रूपों में उदार हैं.
एलडीपी में डी का मतलब सोशल डेमोक्रेसी से है. हमें राजनीतिक लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह भारत के संविधान में निहित है. हर आदमी वोट देता है. लेकिन हमें सामाजिक लोकतंत्र और ज्यादा बराबरी वाले समाज के लिए लड़ाई लड़ने की जरूरत है. हमारा उद्देश्य है कि हम उदारवाद को सामाजिक लोकतंत्र से जोड़ें. हमारे सामने जो सबसे नजदीकी विजन है वह है स्कैंडिनेवियन मॉडल का. स्कैंडिनेवियन देश बहुत धनी हैं लेकिन इन देशों में अमेरिका या पूर्वी यूरोप के देशों से कहीं बेहतर बराबरी है. इन देशों में पालने से लेकर कब्र तक आपका ध्यान रखा जाता है और इसलिए लोगों को ज्यादा टैक्स भरने में झिझक नहीं होती. इसके अलावा एलडीपी की सोच एचएसबीसी की टैगलाइन जैसी है जो कहती है “दुनिया का लोकल बैंक.” वे लोग कहते हैं कि हम बहुराष्ट्रीय कंपनी हैं लेकिन हम हर देश में इस तरह काम करते हैं जैसे हम उस देश के लोकल बैंक हों. एलडीपी पार्टी के लिए हमारा विजन भी भारत की लोकल पार्टी बनाने का है जो मध्यममार्गी होगी. असम में यह असमी पार्टी होगी, पश्चिम बंगाल में बंगाली पार्टी, महाराष्ट्र में मराठी पार्टी और तमिलनाडु में तमिल पार्टी होगी. हमारी योजना है कि एक दिन, जल्द ही, हम असम से बाहर फैलेंगे. इंशाल्लाह किसी दिन हम राष्ट्रीय पार्टी बन जाएंगे.
अभिमन्यु चंद्रा : अल्पसंख्यकों के अधिकार के बारे में आपकी पार्टी की धारणा क्या है?
प्रद्युत बोरा : अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित होने चाहिए. इससे कोई समझौता नहीं हो सकता. लोकतंत्र की आखिरी परीक्षा इस बात में है कि आप अपने अल्पसंख्यकों से, विरोधियों से और असहमति रखने वालों से कैसे बर्ताव करते हैं. अल्पसंख्यकों को सुरक्षा, सम्मान और उनका स्थान दिया जाना चाहिए. हम हिंदुत्व के खिलाफ हैं, खासकर उस हिंदुत्व के जिसका आज प्रयोग किया जा रहा है, जैसा आज हिंदुत्व के नाम में किया जा रहा है. वाजपेयी के शब्दों में कहें तो, “हम अपना राजधर्म नहीं भूल सकते.”
अभिमन्यु चंद्रा : आपकी पार्टी अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा कर राम मंदिर के निर्माण का समर्थन करती है या विरोध?
प्रद्युत बोरा : सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि को समस्याग्रस्त बना दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने उसे वैधानिकता दी है. अब आप अगर इसका विरोध करते हैं तो आपको कहना होगा कि आप सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नहीं मानते. हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानते हैं, यही हमारी आधिकारिक लाइन है.
अभिमन्यु चंद्रा : कल्पना कीजिए कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आया होता और तब राम जन्मभूमि का मामला एक वैचारिक सवाल होता, ना कि कानूनी तब क्या आपकी पार्टी राम जन्मभूमि आंदोलन के दावों को स्वीकार करती?
प्रद्युत बोरा : यदि आप मुझसे यह सवाल सुप्रीम कोर्ट का फैसले आने के पहले पूछते तो मैं आपको बताता कि इस पर मेरी मान्यता क्या है. हम लोग एक निष्पक्ष वैचारिक स्पेस पर नहीं खड़े हैं. हम लोग एक जीता जागता यथार्थ हैं. हम नियमों के भीतर काम करते हैं. हमने हमेशा से कहा है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला आएगा हम उसे मानेंगे. सुप्रीम कोर्ट का जवाब आने से पहले यदि यह सवाल पूछा जाता तो मैं आपको दूसरा जवाब देता. लेकिन कृपया कर समझने की कोशिश कीजिए कि मैं इस फैसले की आड़ में बचने की कोशिश नहीं कर रहा हूं. जजमेंट आने से पहले से ही हमारी पार्टी का स्टैंड रहा है कि यह मामला लोगों को बांटने वाला है और हमें इसका अंत करना ही चाहिए था.
इस मामले को समाप्त करने के कई तरीके थे लेकिन सबसे अच्छा तरीका सुप्रीम कोर्ट का फैसला था क्योंकि इसके अलावा आप जो भी करते उसमें आरोपों और प्रत्यारोपों की संभावनाएं रहतीं. इसलिए हमने कहा था कि सबसे अच्छा तरीका होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस मामले को समाप्त कर दे और हमारी पार्टी फैसले को मानेगी. यह हमने फैसला आने से पहले कहा था और फैसला आने के बाद मैं अपना स्टैंड नहीं बदल सकता.