लॉकडाउन में मानेसर : मेहनत करने वाले मजदूर मांग कर खाने को मजबूर, राहत शिवर में फंसे लोगों में बढ़ रही निराशा

08 अप्रैल 2020
मानेसर से करीब 5 किमी की दूरी पर स्थित बाबा न्याराम साद्ध गौशाला में बनाए गए राहत शिविर में बहुत से मजदूर रह रहे हैं. यहां जगह इतनी कम है कि लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर सकते.
साभार : अमन गुप्ता
मानेसर से करीब 5 किमी की दूरी पर स्थित बाबा न्याराम साद्ध गौशाला में बनाए गए राहत शिविर में बहुत से मजदूर रह रहे हैं. यहां जगह इतनी कम है कि लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर सकते.
साभार : अमन गुप्ता

हरियाणा के गुरुग्राम जिले का औद्योगिक क्षेत्र मानेसर लॉकडाउन के बाद से सूना पड़ा है. परिसर में न मजदूरों की चहल-पहल है और न ही मशीनों का शोर. यहां की औद्योगिक इकाइयों में मारुति, होंडा, हीरो जैसी कई बड़ी और छोटी फैक्ट्रियां हैं, जो 25 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद से शांत पड़ी हैं. मानेसर के पास मेरी मुलाकता जयनारायण से हुई जो यहां की फैक्ट्रियों में मजदूरों की सप्लाई करने वाले ठेकेदार हैं. वह मानेसर के पास नहारपुर गांव में रहते हैं. जयनारायण ने मुझे बताया, “अपनी जिंदगी में ऐसा पहले कभी नहीं देखा कि यहां सभी फैक्ट्रियां एक साथ बंद हुई हों. मानेसर तो हर बेरोजगार को काम देने के लिए जाना जाता है. ऐसा पहली बार हुआ है, जब एक साथ इतने मजदूर यहां से वापस गए हों.”

तीन दिन से भूख से जूझ रहीं बेगम खातून ने मुझे बताया, “घर में राशन नहीं है. जहां से खरीदते थे, उसने उधार देने से मना कर दिया. ऐसे में क्या बनाएं और क्या खाएं? इंसानियत के नाते कुछ लोग यहां खाना बांटने आ रहे हैं, लेकिन उनके पास भी 100-150 लोगों से ज्यादा का खाना नहीं होता है, जबकि यहां हजारों मजदूर फंसे  पड़े हैं. जिनको मिल रहा है, वह उनके लिए ही बहुत कम है, तो उनसे मांगा भी नहीं जा सकता.” पश्चिम बंगाल के मालदा जिले की बेगम खातून मानेसर की एक फैक्ट्री में सफाई का काम करती थीं. चार साल पहले उनके पति की मौत हो गई थी लेकिन खातून मालदा वापस नहीं गईं. उन्होंने बताया, “अभी यहां अकेली हूं, बच्चे गांव में मेरी मम्मी के पास हैं. लॉकडाउन से सब बर्बाद हो गया है. जब लॉकडाउन खत्म हो जाएगा, तो शायद यहां से वापस चली जाऊं.” मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें सरकारी मदद नहीं मिल रही है? खातून ने “न” में सिर हिलाते हुए कहा, “चलिए, रसोई देख लीजिए, खाली पड़ी है.”

उत्तरी दिनाजपुर की रहने वाली मौंसूरा नौमी जान बेगम भी अचानक हुए लॉकडाउन की वजह से अपने गांव-घर नहीं जा पाईं. उन्होंने बताया, “हम लोगों के खाने का सहारा अब बस समाजसेवी संस्थाओं की मदद ही है, जो कभी मिल पाती है, कभी नहीं. राशन खत्म हो चुका है, अब दोबारा खरीदने का पैसा नहीं है. जब बंदी की घोषणा हुई, तब महीने का आखिर चल रहा था. उस वक्त तक बहुत पैसा बचता नहीं है. जितना था, उससे कुछ दिन का सामान खरीद लिया था, जो खत्म हो गया और सैलरी आई नहीं! ऐसे में क्या करें? दुकानदार ने उधार देने से मना कर दिया, दाम अलग बढ़ा दिए तो भूखे रहने के सिवाय और क्या कर सकते हैं?”

काम की तलाश में इस तरफ आने वाले और काम करने वाले ज्यादातर लोगों का ठिकाना मानेसर के आसपास बसे गांवों में होता है. ऐसा ही एक गांव है नहारपुर, जहां मजदूरों की बड़ी आबादी रहती है. यहां पहुंचने पर पता चला कि गांव में रहने वाले आधे से ज्यादा लोग अपने गांव लौट गए हैं. उसके बाद भी जो हजारों लोग नहीं लौट पाए, वे अभी भी यहां फंसे होने के बाद भूख से संघर्ष कर रहे हैं. बचे हुए लोगों में से ज्यादातर बिहार, झारखंड और बंगाल के हैं. दूरी ज्यादा होने की वजह से ये राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मजदूरों की तरह पैदल निकल जाने की हिम्मत नहीं कर पाए. हालांकि इनकी बातों से यही लगा कि ये भी किसी कीमत पर अपने गांव-शहर पहुंचना चाहते थे.

नहारपुर में फंसे मजदूरों का हाल यह है कि चार अप्रैल की दोपहर जब मैं यहां पहुंचा तब गलियां इस कदर सूनी थीं कि ऐसा लग रहा था मानो यहां रहने वाले लोग सामूहिक रूप से पलायन कर गए हैं. मगर थोड़ी ही देर बाद नजारा बिल्कुल अलग हो गया. जैसे ही हमारे पहुंचने की खबर लगी, उसके बाद यहां भीड़ अचानक से बढ़ गई. हर किसी को लग रहा था कि हम लोग भी कुछ मदद बांटने आए हैं. जब उन्हें पता चला कि हम बस उनका हाल जानने आए हैं, तो निराश हो गए.

अमन गुप्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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