हरियाणा के गुरुग्राम जिले का औद्योगिक क्षेत्र मानेसर लॉकडाउन के बाद से सूना पड़ा है. परिसर में न मजदूरों की चहल-पहल है और न ही मशीनों का शोर. यहां की औद्योगिक इकाइयों में मारुति, होंडा, हीरो जैसी कई बड़ी और छोटी फैक्ट्रियां हैं, जो 25 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद से शांत पड़ी हैं. मानेसर के पास मेरी मुलाकता जयनारायण से हुई जो यहां की फैक्ट्रियों में मजदूरों की सप्लाई करने वाले ठेकेदार हैं. वह मानेसर के पास नहारपुर गांव में रहते हैं. जयनारायण ने मुझे बताया, “अपनी जिंदगी में ऐसा पहले कभी नहीं देखा कि यहां सभी फैक्ट्रियां एक साथ बंद हुई हों. मानेसर तो हर बेरोजगार को काम देने के लिए जाना जाता है. ऐसा पहली बार हुआ है, जब एक साथ इतने मजदूर यहां से वापस गए हों.”
तीन दिन से भूख से जूझ रहीं बेगम खातून ने मुझे बताया, “घर में राशन नहीं है. जहां से खरीदते थे, उसने उधार देने से मना कर दिया. ऐसे में क्या बनाएं और क्या खाएं? इंसानियत के नाते कुछ लोग यहां खाना बांटने आ रहे हैं, लेकिन उनके पास भी 100-150 लोगों से ज्यादा का खाना नहीं होता है, जबकि यहां हजारों मजदूर फंसे पड़े हैं. जिनको मिल रहा है, वह उनके लिए ही बहुत कम है, तो उनसे मांगा भी नहीं जा सकता.” पश्चिम बंगाल के मालदा जिले की बेगम खातून मानेसर की एक फैक्ट्री में सफाई का काम करती थीं. चार साल पहले उनके पति की मौत हो गई थी लेकिन खातून मालदा वापस नहीं गईं. उन्होंने बताया, “अभी यहां अकेली हूं, बच्चे गांव में मेरी मम्मी के पास हैं. लॉकडाउन से सब बर्बाद हो गया है. जब लॉकडाउन खत्म हो जाएगा, तो शायद यहां से वापस चली जाऊं.” मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें सरकारी मदद नहीं मिल रही है? खातून ने “न” में सिर हिलाते हुए कहा, “चलिए, रसोई देख लीजिए, खाली पड़ी है.”
उत्तरी दिनाजपुर की रहने वाली मौंसूरा नौमी जान बेगम भी अचानक हुए लॉकडाउन की वजह से अपने गांव-घर नहीं जा पाईं. उन्होंने बताया, “हम लोगों के खाने का सहारा अब बस समाजसेवी संस्थाओं की मदद ही है, जो कभी मिल पाती है, कभी नहीं. राशन खत्म हो चुका है, अब दोबारा खरीदने का पैसा नहीं है. जब बंदी की घोषणा हुई, तब महीने का आखिर चल रहा था. उस वक्त तक बहुत पैसा बचता नहीं है. जितना था, उससे कुछ दिन का सामान खरीद लिया था, जो खत्म हो गया और सैलरी आई नहीं! ऐसे में क्या करें? दुकानदार ने उधार देने से मना कर दिया, दाम अलग बढ़ा दिए तो भूखे रहने के सिवाय और क्या कर सकते हैं?”
काम की तलाश में इस तरफ आने वाले और काम करने वाले ज्यादातर लोगों का ठिकाना मानेसर के आसपास बसे गांवों में होता है. ऐसा ही एक गांव है नहारपुर, जहां मजदूरों की बड़ी आबादी रहती है. यहां पहुंचने पर पता चला कि गांव में रहने वाले आधे से ज्यादा लोग अपने गांव लौट गए हैं. उसके बाद भी जो हजारों लोग नहीं लौट पाए, वे अभी भी यहां फंसे होने के बाद भूख से संघर्ष कर रहे हैं. बचे हुए लोगों में से ज्यादातर बिहार, झारखंड और बंगाल के हैं. दूरी ज्यादा होने की वजह से ये राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मजदूरों की तरह पैदल निकल जाने की हिम्मत नहीं कर पाए. हालांकि इनकी बातों से यही लगा कि ये भी किसी कीमत पर अपने गांव-शहर पहुंचना चाहते थे.
नहारपुर में फंसे मजदूरों का हाल यह है कि चार अप्रैल की दोपहर जब मैं यहां पहुंचा तब गलियां इस कदर सूनी थीं कि ऐसा लग रहा था मानो यहां रहने वाले लोग सामूहिक रूप से पलायन कर गए हैं. मगर थोड़ी ही देर बाद नजारा बिल्कुल अलग हो गया. जैसे ही हमारे पहुंचने की खबर लगी, उसके बाद यहां भीड़ अचानक से बढ़ गई. हर किसी को लग रहा था कि हम लोग भी कुछ मदद बांटने आए हैं. जब उन्हें पता चला कि हम बस उनका हाल जानने आए हैं, तो निराश हो गए.
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के रहने वाले आदेश कुमार फंसे हुए मजदूरों में से हैं. वह बताते हैं, “24 तारीख की रात जब लॉकडाउन की घोषणा हुई, उसी समय लोगों ने यहां से निकलना शुरू कर दिया. वे कुछ दूर तक निकल भी गए थे, लेकिन रास्ते में पुलिस ने पकड़ लिया और वापस यहीं छोड़ गई. मैं मारुति की एक सहयोगी कंपनी में काम करता था लेकिन मालिक ने 22 तारीख को बिना वेतन दिए छुट्टी कर दी. अभी तक बकाया वेतन नहीं मिला है. वेतन के लिए मालिक को फोन करने पर वह ‘मिल जाएगा’, ‘खाते में भेज देंगे’, ‘खाते में डाल दिए हैं’ कह कर फोन काट देता है. बार-बार फोन करने पर उठाता नहीं है. समझ नहीं आ रहा कि पेट कैसे पालें. पता नहीं, यह बीमारी और बंदी कितनी लंबी खिंचने वाली है. तब तक भगवान जाने क्या होगा?”
बिहार के भभुआ जिले के संजीव कुमार, जो मानेसर की फैक्ट्री में मजदूर हैं, ने बताया, “शुरुआत में तो अपने बचे हुए पैसे से खा रहे थे. उसके बाद कुछ दुकानदार से उधार लिया, लेकिन अब उसने भी देना बंद कर दिया. कहता है पैसा हो, तो हमारी दुकान से लेना, नहीं तो जाकर दूसरी दुकान से लो. कभी-कभी कोई खाना बांटने आता है, लेकिन उसमें भी बहुत मुश्किल होती है क्योंकि बांटने वाले के पास खाना कम और यहां खाने वाले लोग ज्यादा हैं. जो भी खाना बांटने आता है, वो अक्सर पहले से तैयार एक लिस्ट लेकर आता है, बस उन्हीं लोगों को खाना मिलता है. बाकी ज्यादातर लोग देख कर इंतजार करते हैं कि शायद उनके लिए भी कोई खाना लेकर आएगा.”
नहारपुर की लाल बिल्डिंग एक लैंड मार्क है पूरे इलाके के मजदूरों का पता लगाने के लिए. इस बिल्डिंग में करीब 200 मजदूरों का ठिकाना है. यहां रहने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी फैक्ट्री में काम करते हैं. इतने मजदूरों को छत उपलब्ध कराने वाली इस लाल बिल्डिंग के सामने एक मकान मालिक जयलाल यादव से मुलाकात हुई, जिनकी दो बिल्डिंग किराए पर लगी हुईं हैं. उनका कहना है कि उन्होंने अपने किराएदारों का किराया माफ कर दिया है और अपनी दुकान से उनकी जरूरत का सामान भी उधार दे रहे हैं, लेकिन उनकी बिल्डिंग में किराए पर रहने वाले परवेज आलम ने इस बात से साफ इनकार करते हुए मुझे बताया, “मकान मालिक झूठ बोल रहा है. उसकी ही दुकान है. लॉकडाउन की घोषणा के बाद जरूरी चीजों के दाम सबसे पहले हमारे मकान मालिक ने ही बढ़ाए थे.” दूसरे किराएदार संतोष ने बताया, “मकान मालिक कहता है कि अगर कमरे में रहना है, तो सामान मेरी ही दुकान से खरीदना होगा, तभी कमरा किराए पर दूंगा, नहीं तो दूसरी जगह देख लो. नगद पैसे लेकर आओ तब सामान दूंगा, नहीं तो दूसरी दुकान से ले लो.”
नहारपुर या उसके आसपास के गांवों में हर दस कदम पर कोई मिल जाता था जो भूखे होने की दुहाई देकर खाना मांगता था. वहां से जब मैं लौट रहा था तो एक औरत ने मेरे पास आकर कहा, “साहब, दो दिन से कुछ नहीं खाया है, कुछ हो तो दे दीजिए.”
जयपुर दिल्ली हाइवे पर मानेसर से करीब 5 किमी की दूरी पर बाबा न्याराम साद्ध गौशाला में एक राहत शिविर स्थापित किया गया है. शिविर की हालत इतनी खराब है कि देखकर समझना कठीन होता कि इसे लगाया किस लिए गया है. हॉल में चारों तरफ बिखरे जूते-चप्पल, बिस्तर के नाम पर दीवार से सटाकर बिछाई गई दरियां हैं, जिनमें 150 के आसपास लोग यहां-वहां बिखरे हुए हैं. जिसको जहां जैसी जगह मिली, उसी में बैठा-लेटा हुआ है. इन सबके बीच जगह इतनी कम है कि न चाहते हुए भी एक दूसरे से हाथ-पैर छू जा रहे हैं. कोरोना से लड़ने की बुनियादी शर्त ही डिस्टेंसिंग है और इसी का यहां मानो मखौल उड़ाया जा रहा है.
जब मैं वहां पहुंचा तो शिविर के एक कोने में कुछ औरतें बैठी हुई थीं. उनमें से एक औरत जिसका नाम रजौल था, ने मुझे बताया, “यहां दिन बिताना बहुत मुश्किल है. यहां कोई काम तो है नहीं और कोई बात करने वाला भी नहीं है. ऐसे में क्या करें? दिन भर पड़े रहते हैं. हमको छतरपुर जिले के गौरहार गांव तक जाना है. हमारे साथ 30-35 लोगों का काफिला था. कुछ लोगों की चाल तेज थी, सो वे हमसे आगे निकल गए और हम यहां फंस गए. काफिले के कई लोग चले गए. 10-11 बचे हैं, जिनमें ज्यादातर मर्द हैं. अब उनसे क्या बोलें और बताएं?”
थोड़ी ही दूरी पर बैठी भानमति ने बताया, “और सब तो ठीक है, लेकिन इतने मर्दों के बीच रहते-सोते हुए अच्छा नहीं लगता है. हम लोग कहीं बाहर आ-जा नहीं सकते. सरकार इतना खर्चा कर रही है, इससे अच्छा तो एक साधन कर दे और हमको घर भिजवा दे. कम से कम वहां अपनी मर्जी से रह तो लेंगे.”
शिवर में मौजूद एक 12-13 साल की लड़की ने बताया,, “यहां अच्छा नहीं लगता. सब घूरते हैं. हर वक्त एक डर लगा रहता है कि कुछ हो न जाए. यहां सब अजनबी हैं, किस पर भरोसा करें? कैम्प में रहने वाले लड़के ही कई तरह के इशारे करते हैं. आपस में उल्टी-सीधी बातें करते हैं, गंदी गालियां देते हैं, उनसे डर लगता है.”
शिविर में कई छोटे-छोटे बच्चे उछल कूद कर रहे थे. उनके पास पहनने के लिए न तो साफ कपड़े हैं और न ही मुंह ढंकने के लिए मास्क. इक्का-दुक्का लोग ही मास्क में नजर आ रहे थे.
प्रशासन और समाजसेवी लोगों के सहयोग से चल रहे इस शिविर में रह रहे लोगों के रूटीन चेकअप के लिए डॉक्टरों की एक टीम रोज यहां आती है. वह बुखार, जुकाम, खांसी का चेकअप करती है, लेकिन अभी तक किसी का भी कोविड-19 चेकअप नहीं कराया गया है. जबकि कई लोगों में ऐसे लक्षण दिख रहे हैं, जो कोरोना के लक्षण जैसे हैं.
45 साल के शिवराम को सोनीपत से पैदल चलकर मध्य प्रदेश के छतरपुर तक जाना था. लेकिन गुरुग्राम में पुलिस ने उन्हें और उनके काफिले को रोक लिया और लाकर शिविर में छोड़ दिया. उन्होंने मुझे बताया, “यहां सुबह-शाम चाय और बिस्कुट और दोपहर-शाम खाना मिलता है. खाने में जो भी मिल रहा है, वह ठीक ही है. दोपहर में चावल के साथ कोई सब्जी या दाल और शाम को रोटी-सब्जी मिलती है. कुछ भी न मिलने से तो बेहतर है कि जो मिल रहा है उससे ही काम चलाया जाए. शिवराम सोनीपत में दिहाड़ी पर बेलदारी का काम करते थे. लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो सोचा कि गांव में कटाई का मौसम है. वहां चलकर कुछ काम कर लेंगे, लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था, जो यहां पड़े हुए हैं. जमीन पर पड़ी दरी पर लेटे-लेटे पीठ पर निशान बन गए. कुछ कह भी नहीं सकते कि ये निशान अभी कितने गहरे होंगे और कब मिटेंगे.”
शिवराम को जुकाम और खांसी है. बातचीत के दौरान ही उन्हें खांसी और छींक का एक दौरा भी पड़ा. पूछ्ने पर उन्होंने कहा, “तीन-चार दिन से ऐसा है. डॉक्टर ने खांसी-जुकाम की दवा दी है, उसे खा रहे हैं.” कोरोना की जांच हुई कि नहीं? इस पर वे कहते हैं, “नहीं. केवल जुकाम, खांसी और बुखार की जांच की जा रही है.”
शिविर में मौजूद एक व्यक्ति ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, मुझे बताया कि वह अपने निजी काम से गुरुग्राम गांव आए लेकिन लॉकडाउन की घोषणा हो गई और यहां फंस गए. उन्होंने बताया, “खेतों में कटने के लिए फसल खड़ी है. अगर समय से नहीं पहुंचा तो साल भर की मेहनत बर्बाद हो जाएगी. यहां पर मौजूद अधिकारियों से बात की लेकिन कोई भी जाने देने के लिए तैयार नहीं है. सब कहते हैं कि वे रिस्क नहीं ले सकते. ऐसे में क्या करूं? पता चला कि रिस्क लेकर यहां से निकलूं और पुलिस दूसरे कैम्प में रहने के लिए मजबूर कर दे. पास के लिए आवेदन किया है. एक- दो दिन में पहुंच जाएगा, तब यहां से निकलूंगा.”
गुरुग्राम की मानेसर तहसील के तहसीलदार जगदीश विश्नोई का कहना है, “सरकार के आदेश पर गुरुग्राम जिले में कई होम शेल्टर बनाए गए हैं. मानेसर तहसील में भी दो शेल्टर होम काम कर रहे हैं, जिसमें से एक गौशाला में और दूसरा सेक्टर-8 में है. इन शेल्टर होम में रास्ते में आ रहे या फिर फंसे हुए लोगों के रुकने और खाने की सुविधा मुहैया कराई जा रही है. सरकार के अलावा मारुति, होंडा जैसी बड़ी कम्पनियां भी अपने किचन में खाना बनवाकर लोगों के बीच बांट रही हैं.” शिविर के बुरे हालात पर सवाल करने पर उन्होंने बताया कि सीमित संसाधन में जितना हो पा रहा है, किया जा रहा है.” उन्होंने आगे कहा, “गुरुग्राम में एक भी आदमी भूखे पेट नहीं सो रहा है. हरियाणा सरकार भी पूरा प्रयास कर रही है कि प्रदेश में कोई भी भूखे पेट न सोए.”
नहारपुर में फंसे मजदूरों को सरकार की तरफ से क्या मदद दी जा रही है? इस सवाल के जवाब में विश्नोई ने बताया, “नहारपुर हो या और कोई भी गांव, प्रधान अपने स्तर पर और सामूहिक प्रयासों के तहत गांव में रसोई बनवा रहे हैं. सरकार की तरफ से भी सहायता दी जा रही है.” विश्नोई ने बताया कि वे अपने तहसील ऑफिस के अंदर करीब 1500 लोगों का खाना बनवा कर बांट रहे हैं. तहसील के भीतर क्यों बनवा रहे हैं? इस पर वे कहते हैं, “जहां संसाधन कम हैं या लोग ज्यादा हैं, ये उन गांवो की मदद के लिए है. ऑफिस के अंदर लगातार खाना बनता रहता है, जब 500 लोगों का खाना तैयार हो जाता है तब हम प्रधान को फोन कर देते हैं वह आकर खाना ले जाते हैं.” बना हुआ खाना वितरित करना कितना व्यावहारिक है, जबकि जरूरतमंद लोगों को कच्चा राशन वितरित कर समस्या को बेहतर तरीके से हल किया जा सकता है? इस सवाल पर विश्नोई कहते हैं, “हमारे पास लोग कम हैं और कच्चे राशन की पैकिंग, फिर उसके वितरण के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत होती है. फिर अनुमान भी नहीं है कि वास्तव में कितने लोग हैं, जिनको जरूरत है.”
मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठन वर्कर्स यूनिटी के कार्यकर्ता श्यामवीर शुक्ला ने मुझे बताया, “शासक वर्ग मजदूरों को इंसान नहीं मानता. अगर मानता होता तो इनके खाने की व्यवस्था करता. इनके एक महीने के राशन की व्यवस्था करता.” वर्कर्स यूनिटी उन शुरुआती संगठनों में से है जो कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन में यहां फंसे मजदूरों को जरूरत के सामान मुहैया करा रहा है. शुक्ला ने बताया, “ये सभी ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं. इनकी सैलरी खाते में नहीं आती, ठेकेदार इनकी सैलरी देता है.” उन्होंने आगे कहा, “सरकारी सुविधा के लिए सबसे जरूरी राशन कार्ड होता है, लेकिन दिक्कत यह है कि एक जगह का राशन कार्ड दूसरी जगह पर मान्य नहीं होता. ऐसे में सरकार को अस्थायी राशन कार्ड की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे मजदूर राशन पा सकें. सरकार द्वारा की गई घोषणाओं का फायदा इन मजदूरों को नहीं मिल रहा है. सरकार के पास फंड है, शुरुआत में उसे इन मजदूरों के लिए राशन की व्यवस्था करनी ही चाहिए, बाकी बाद की चीजें हैं, जिन्हें सहूलियत के हिसाब से पूरा करना चाहिए.”
इससे पहले मैं पिछले साल सितंबर में मजदूरों पर उस वक्त जारी मंदी की मार पर रिपोर्ट करने मानेसर आया था. उस वक्त कई फैक्ट्रियों ने नए-पुराने हजारों कामगारों को एक झटके में नौकरी से निकाल दिया था. शटडाउन जैसी स्थिति में रोजी-रोटी का संकट मुंह बाए खड़ा था और मजदूरों के मायूस चेहरे सवाल पर सवाल कर रहे थे. उस दिन वापसी के वक्त एक मजदूर ने मुझसे कहा था, “कहीं नौकरी दिला दीजिए, वरना आत्महत्या कर लूंगा.” तब मुझे लगा था कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा. तब यह किसको मालूम था कि इस बार मजदूरों पर मंदी से भी बड़ी मार बंदी की पड़ेगी. उस मंदी का सबसे ज्यादा असर केवल ऑटोमोबाइल और कपड़ा-सिलाई के क्षेत्रों पर ही था पर जारी बंदी की जद में आकर देश भर के मजदूरों की तरह मानेसर के मजदूरों की भी जान पर बन आई है. इस बार जब में लौट रहा था तो मानेसर के सेक्टर 10 में स्थित चमड़े के बैग बनाने वाली कंपनी में बैग सिल कर अपना और परिवार का पेट भरने वाले अब्दुल राशिद ने अपने अंदर का डर बयां करते हुए मुझसे कहा, “कोरोना से तो शायद बाद में मरेंगे. लगता है, पहले भूखों मर जाएंगे.”