गांवों में नहीं मिला काम तो मजबूर होकर दिल्ली लौटने लगे प्रवासी कामगार

10 अगस्त को दिल्ली वापस लौटते प्रवासी कामगार. संचित खन्ना/ हिंदुस्तान टाइम्स/ गैटी इमेजिस

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

भारत में कोविड-19 के मामलों चिंताजनक स्तर पर इजाफा हो रहा है. भारत ब्राजील को पीछे छोड़ कर अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा कोविड मामलों वाला देश बन गया है और राजधानी दिल्ली में इसके मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इस बीच बिहारी कामगार काम की तलाश में वापस दिल्ली लौटने लगे हैं. मई में दिल्ली के खिजराबाद इलाके में रहने वाले 300 से ज्यादा मजदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार लौट गए थे. अब तीन महीने बाद इनमें से कई मजदूर बिहार में काम हासिल करने में नाकामयाब हो कर दिल्ली वापस आ गए हैं. बिहार के सारण जिले के गरखा खंड के दिनेश राय ने मुझे बताया, “गांव में आर्थिक तनाव झेल रहे परिवार की परेशानी को देखते हुए भूखे मरने से अच्छा है काम करते हुए मरना. वही सोच कर मैं वापस आया हूं.”

मई के शुरुआत में रेल मंत्रालय ने देश भर के अलग-अलग शहरों में फंसे मजदूरों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई थी. बिना सोचे समझे और बहुत खराब योजना के साथ अचानक लगाए गए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से जब इन मजदूरों की स्थिति बिगड़ने लगी तब मंत्रालय ने ये ट्रेंने चलाईं थी. मैंने कारवां की एक रिपोर्ट में बताया था कि इन ट्रेनों को उसी हड़बड़ी में चलाया गया है जैसी हड़बड़ी का प्रदर्शन भारत ने महामारी के लिए अपनी अकुशल प्रतिक्रिया में किया था जिसके चलते इन मजदूरों को बिना पानी और अनिश्चित हालत में अपने गांवों की यात्रा करनी पड़ी थी. गांव पहुंचकर इन मजदूरों को पता चला कि बिहार के स्वास्थ्य विभाग की महामारी से लड़ने की कोई तैयारी नहीं है और इन मजदूरों में से एक राजनाथ यादव की कोविड-19 के लक्षणों के साथ मौत हो गई जबकि उन्हें पहले सरकारी क्वारंटीन केंद्र में रखा गया था. लेकिन जो लोग बचे उनकी घर वापसी भी उनकी परेशानियों का अंत कतई नहीं थी.

राय ने मुझसे कहा, “उनकी मौत ने कोविड-19 के प्रति हम लोगों के भीतर डर तो भर दिया लेकिन भूख ने हमें वापस यहां लौटने और जिंदा रहने के लिए काम करने को विवश कर दिया. हमारे पास दिल्ली आकर अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करने के लिए काम करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प मौजूद नहीं था.” उन्होंने कहा, “हम लॉकडाउन के दौरान संकट में थे और दो महीने तक संकट में रहे. फिर हम रेल में बैठकर अपने घर जा रहे थे तो भी हम संकट में थे, जब हम कोविड-19 से संघर्ष करते हुए अपने गांवों में में पहुंचे तो वहां भोजन के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब भी हम संकट में थे. इसलिए हम लोगों ने तय किया कि हम संकट का सामना करते हुए रोजी-रोटी कमाएंगे.”

राय ने बताया कि उन्हें गांव में काम नहीं मिला और वह कर्ज लेकर गुजारा कर रहे थे. उन्होंने कहा, “गांव की स्थिति अच्छी नहीं है. मैंने अपने ग्राम प्रधान से कहा था कि वह मेरे लिए कुछ काम का इंतजाम करें लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. मई के आखिरी हफ्ते से अगस्त के आखिरी हफ्ते तक मैंने 14000 रुपए का कर्जा लिया है और मैंने पैसों के लिए अपनी पत्नी की कान की बालियां तक गिरवी रखी दी है.”

राय को दिल्ली आने के लिए बस का टिकट खरीदने तक के पैसे उधार लेने पड़े. उन्होंने मुझसे कहा, “सारण और दिल्ली के बीच चलने वाली प्राइवेट बसें 1500 से 1800 रुपए भाड़ा ले रही हैं.” उन्होंने टिकट के लिए 1500 रुपए उधार लिए थे. राय ने कहा कि बसों में बहुत भीड़ रहती है और वहां कोई सामाजिक दूरी के नियम का पालन नहीं करता. “बस में आना बहुत दर्दनाक था क्योंकि बस वाले अपनी सीटों की तुलना में डबल और ट्रिपल पैसेंजर भर रहे थे. हम लोगों ने जाते हुए भी बहुत कुछ झेला और आते हुए भी. परेशानी ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.”

राय 28 अगस्त को दिल्ली लौट आए थे और तीन-चार दिन काम की तलाश करने के बाद उन्हें “अस्थायी घर पुताई का काम मिला है.”

श्रमिक स्पेशल ट्रेन में राय के साथ सारण जिले लौटे धर्मवीर साहा और दिनेश साहा भी काम की तलाश में खिजराबाद वापस आ गए हैं. लेकिन ये दोनों ट्रेन से ही लौटे हैं. इन तीनों ने मुझे बताया कि उन्होंने गांव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के अंतर्गत काम ढूंढा था लेकिन उन्हें काम नहीं मिला. दिनेश साहा ने मुझसे कहा, “मैं वापस नहीं आना चाहता था और गांव में ही रह कर कुछ काम करना चाहता था. मैं अपने ग्राम प्रधान से मिला और मैंने एक फॉर्म भी भरा. मैंने अपना आधार कार्ड, बैंक खाते का विवरण और अन्य दस्तावेज भी जमा कराए लेकिन कुछ नहीं हुआ. मेरे अलावा गांव में 20-25 लड़के हैदराबाद से वापस आए थे लेकिन उन्हें भी काम नहीं मिला. हम गरीब लोग संकट में रह रहे थे इसलिए हमारे पास यहां लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था.”

दिल्ली पहुंचने के बाद धर्मवीर साहा और दिनेश साहा को कई दिनों तक काम नहीं मिला. धर्मवीर ने बताया कि लॉकडाउन से पहले उन्हें महीने में 30 दिन काम मिल जाता था लेकिन अब स्थिति यह है कि एक महीने में अगर 10 दिन का काम भी मिल जाए तो गनीमत मानिए. “मैं 24 जुलाई को दिल्ली पहुंचा था और 4 सितंबर तक मुझे सिर्फ 15 दिनों का काम मिला है.”

धर्मवीर ने आगे बताया, “अभी तो काम अनिश्चित है लेकिन हमें उम्मीद है कि स्थिति पहले की तरह सामान्य हो जाएगी. “हमें काम चाहिए और इसलिए हमें यहां रहना होगा.” उन्होंने बताया कि उन्हें पैसों की जरूरत सिर्फ रोजाना के खर्च निकालने के लिए नहीं है बल्कि उन्हें उन महीनों का भी किराया चुकाना है जिनमें वह यहां नहीं थे क्योंकि उन्होंने मकान खाली नहीं किया था. “हमें मकान मालिक को 15000 रुपए चुकाने हैं.” धर्मवीर ने आगे कहा, “लेकिन अभी काम के अवसर बहुत कम हैं और मुझे लॉकडाउन के जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.”

इन लोगों को लॉकडाउन हटाने के सरकारी नियमों से पैदा हो रही समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है. राय ने बताया कि हालांकि उन्हें थोड़ा काम मिला है लेकिन उन्हें काम की जगह पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर से ज्यादा का सफर करना पड़ता है और रास्ते में कई तरह के कड़े प्रतिबंधों के अलावा दिल्ली की बसों में यात्रियों की संख्या पर भी अंकुश लगा है. उन्होंने कहा, “काम की जगह पहुंचने के लिए मैं ऑटो ले रहा हूं और 150 रुपए दे रहा हूं. मुझे मेरे रूट पर जाने वाले दो और लोगों की जरूरत पड़ती है ताकि भाड़ा बांट सकूं.” उन्होंने आगे समझाया, “मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि डीटीसी बसों में सफर करने पर कई पाबंदियां हैं क्योंकि इन बसों में कम यात्रियों को बैठाया जा रहा है. मुझे काम की जगह टाइम पर पहुंचना पड़ता है और इसलिए मजबूरी में मुझे ऑटो रिक्शा लेना पड़ रहा है.”

इसका आर्थिक बोझ भी इन लोगों पर पड़ रहा है. “अगर मैं एक दिन में 400 रुपए भी कमाता हूं तो भी 100 रुपए तो आने-जाने में ही खर्च हो जाता है. इसके अलावा मुझे हर हफ्ते 50 रुपए की सैनिटाइजर की शीशी खरीदनी पड़ती है. बहुत सारी ऐसी अतिरिक्त समस्याएं हैं और खर्चे हैं जिनसे हमारे लौटने के बाद हमारी स्थिति बहुत कठिन हो गई है.”

इन कामगारों ने मुझे बताया कि भोजन अब भी सबसे बड़ी समस्या है. उनके पास बहुत कम पैसे हैं और कमाई का जरिया अनिश्चित है जिसके चलते भोजन का इंतेजाम कर पाना मुश्किल हो गया है. भोजन के लिए उन्होंने न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के उस समूह से संपर्क किया जिसने लॉकडाउन के समय उनकी मदद की थी.

न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी की मौलश्री जोशी ने मुझे बताया, “लोग भोजन के लिए भीख मांगने तक को तैयार हैं. लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि जो परेशानी वे झेल रहे हैं क्या वह कभी खत्म होगी. दिहाड़ी मजदूरी करने वालों ने मुझे बताया कि उन्हें आजकल एक हफ्ते में केवल एक या दो दिन ही काम मिल रहा है और कभी-कभी तो वह भी नहीं मिलता है और वह भी कम दिहाड़ी में. लौट कर आने वालों के चेहरों पर आप उनके कड़वे अनुभवों को पढ़ सकते हैं. शहर ने उन्हें अनाथ कर दिया और गांव ने उन्हें कोई सहारा नहीं दिया. यह बात उनके लिए सदमे जैसी है.”

जोशी ने आगे बताया कि आज की स्थिति 2016 में नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा अचानक लगाई गई नोटबंदी से बहुत अलग है. 2016 की नोटबंदी के वक्त स्थिति के सामान्य हो जाने का भरोसा था. इस बार सिर्फ उदासी हैं क्योंकि इससे निकलने का रास्ता नजर नहीं आ रहा. जिनकी मैं बात कर रही हूं वे लोग दक्षिण दिल्ली की बस्ती में रहने वाले लोग हैं. ये लोग झुग्गियों में रहने वाले नहीं है और ना ही ये बेगरबार लोग हैं. इनमें से कई लोगों के घरों में कमाने वाला सिर्फ एक आदमी है और बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं. खिजराबाद के लोगों से ज्यादा बुरी हालत में जीने वालों के बारे में तो सोच कर ही डर लगता है.” जोशी ने जोर देकर कहा कि कामगार बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाल पा रहे हैं. “इनकी जिंदगी एक कमजोर धागे से लटक रही है और अगर कोई एक आदमी बीमार हो जाए या उसकी नौकरी चले जाए तो पूरा परिवार भूखे मरने के कगार में पहुंच सकता है.”

हेमा भधवार मेहरा जो न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में ही रहती हैं और जोशी के साथ मदद के काम में सक्रिय हैं ने बताया कि केंद्र या राज्य सरकार से कामगारों को कोई मदद नहीं मिली. उन्होंने कहा, “हम सिविल सोसाइटी वाले जितना हो सकता है कर रहे हैं लेकिन प्रशासन या सरकार नदारद है. यह गंभीर चिंता की बात है और सरकार को इनकी मदद करनी चाहिए. ऐसा देख कर दुख होता है और यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि कई बार संपर्क करने के बावजूद जनता के प्रतिनिधियों ने इस मामले में कुछ नहीं किया. ऐसा लगता है कि प्रवासी मजदूरों की उन्हें कोई चिंता ही नहीं है. लोगों की नजरों से ये लोग एकदम गायब हैं और सिर्फ एनजीओ और छोटे प्राइवेट समूह इन लोगों के लिए कुछ करने का प्रयास जारी रखे हुए हैं.”

धर्मवीर के अनुसार, खिजराबाद से बिहार जाने वाले आधे से ज्यादा लोग 9 सितंबर तक काम की तलाश में दिल्ली वापस आ गए हैं. उन्होंने कहा, “लोग रोजाना लौट रहे हैं. ये लोग हमसे हालात के बारे में पूछ रहे हैं और वापस आने की योजना बना रहे हैं. बिना काम के कितने दिन रहा जा सकता है.”

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute