जुलाई की शुरुआत से ही सीतामढ़ी के कांटा चौक में भीड़भाड़ होने लगी है. हर दिन बिहारी श्रमिकों से भरी लगभग 25 बसें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब या उन राज्यों के लिए निकलती हैं जहां रोजगार के अवसर मौजूद हैं. इसलिए लोग इस चौक को दिल्ली मोड़ भी कहते हैं. पिछले चार महीनों में दिल्ली मोड़ से हर दिन एक हजार से ज्यादा श्रमिकों ने बस पकड़ी है. मई में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वादा किया था कि वह बिहार लौटने वाले हर श्रमिक को राज्य में ही रोजगार उपलब्ध कराएंगे. उन्होंने आश्वासन दिया था कि राज्य के लोगों को फिर कभी पलायन नहीं करना पड़ेगा. राज्य के जमीनी हालात उस वादे की भीषण असफलता बता रहे हैं.
बिहार में 28 अक्टूबर को हुए पहले चरण के विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी के मुद्दे पर जमकर चर्चा हुई. केंद्र सरकार द्वारा कोरोनावायरस महामारी से लड़ने के लिए कहकर जल्दबाजी में लगाए गए लॉकडाउन के चलते 32 लाख 60 हजार से ज्यादा प्रवासी मजदूर प्रदेश वापस लौटे हैं. राज्य में ही नौकरी के वादे को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (ग्रामीण) को मजबूत करने, गरीब कल्याण रोजगार अभियान के अंतर्गत नई नौकरियां देने, राज्य में कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम चालू करने और कुशल और अर्ध कुशल प्रवासी मजदूरों को काम का अवसर देने के लिए छोटे उद्यम लगाने की बात की.
ये सभी योजनाएं असफल साबित हुई हैं. बहुसंख्यक मजदूरों को मनरेगा के तहत काम नहीं मिला है और इसके लिए आंशिक रूप से व्यवस्था में भ्रष्टाचार जिम्मेदार है. इस बीच गरीब कल्याण रोजगार अभियान में लक्षित खर्च का 50 फीसदी ही खर्च हो पाया है और यह स्पष्ट नहीं है कि इससे कितना रोजगार निर्माण हुआ है. अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मैंने पाया कि कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों और छोटे उद्यमों को लगाने जैसी बातें केवल कागजों तक सीमित हैं और इनसे कोई विश्वसनीय परिणाम हासिल नहीं हुआ है. जुलाई और अगस्त में आई प्रलयंकारी बाढ़ से भी राज्य में बहुत से लोग प्रभावित हुए हैं. इस बाढ़ ने खेतों और घरों को तहस-नहस कर दिया और लोगों की बची-कुची बचत भी खत्म कर दी. इसका मतलब यह हुआ है कि कई श्रमिकों के समक्ष रोजगार की तलाश में राज्य से बाहर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. बहुत से तो बिहार चुनाव से पहले ही राज्य से बाहर चले गए हैं.
स्थिति तो यह है कि राज्य से बाहर जाना भी मजदूरों के लिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि उन्हें बड़े शहरों में जाने के लिए पैसे उधार लेने पड़ रहे हैं. पश्चिमी चंपारण जिले के श्रम अधिकार कार्यकर्ता सिद्धार्थ कुमार ने मुझे यह बात बताई और कहा, “बहुत से लोगों को अपना आत्मसम्मान गिरवी रखना पड़ा है. लॉकडाउन के दौरान जिस तरह का बुरा बर्ताव और अपमान उन्होंने झेला था तो अधिकांश मजदूर बड़े शहरों में दोबारा जाना नहीं चाहते थे लेकिन उन्हें जाना पड़ रहा है. कोई आदमी आजीविका के साधन के बिना घरों में कितने दिनों तक रह सकता है?”
जुलाई में अलायंस फॉर दलित राइट्स ने एक सर्वे किया था जिसमें पता चला था कि महामारी शुरू होते वक्त ही ग्रामीण बिहारियों के घरों की आर्थिक स्थिति, खासकर सीमांत समुदायों की, बहुत खराब थी. इन लोगों ने 14 राज्य के 112 गांव में 1400 दलित और आदिवासी परिवारों का सर्वे किया था. 27 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन की घोषणा के वक्त एक पैसा नहीं था, जबकि 36 प्रतिशत परिवारों के पास थोड़ी बचत थी. सर्वे में पता चला कि केवल 5 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन जैसी आपातकालीन स्थिति में जिंदा रहने लायक पैसे थे. 85 फीसदी परिवार दैनिक मजदूरी पर आश्रित थे, जबकि बाकियों में से अधिकांश प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले पैसे पर निर्भर थे. महामारी ने आय के सभी साधनों को समाप्त कर दिया जिस वजह से बिहार के गरीब लोग बिना किसी निश्चित आय, भोजन और सरकारी सहायता के आजीविका से वंचित हो गए.
बिहार में रोजगार का सबसे बड़ा साधन मनरेगा है. इस योजना में ग्रामीण परिवार को साल में 100 दिन के काम की गारंटी है. राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा के बाद मनरेगा का काम अधिकारिक रूप से रोक दिया गया. लेकिन कंगाल हो चुके गांवों में 32 लाख 60 हजार मजदूरों के लौटने के बाद उनके लिए जिन्होंने दो सप्ताह का क्वारंटीन पूरा कर लिया था, 27 मई से मनरेगा का काम दोबारा शुरू हुआ. अगर यह योजना ठीक से लागू की जाती तो लाखों संघर्षरत परिवारों के काम आती. लेकिन प्रवासी मजदूरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि योजना में भ्रष्टाचार और धांधली हुई है.
कई परिवारों का पेट मनरेगा से मिलने वाले काम से भरता है. इस काम से ये लोग अपने कर्ज नहीं चुका सकते और न ही परिवार के लिए कपड़े-लत्ते जैसी चीजें खरीद सकते हैं. पश्चिम चंपारण जिले के मझौलिया गांव की 66 साल के अमानुल्लाह मियां ने मुझे बताया, “मई में बाहर काम करने वाले परिवार वालों के लौटने के बाद से हम लोग इसके तहत 60 दिन का काम पा सके.” लेकिन अमानुल्लाह को इसका बहुत सारा हिस्सा दिल्ली में रह रहे परिवार के दो बच्चों को भेजना पड़ा.
अमानुल्लाह ने मुझसे कहा, “अब हम लोग अपने परिवार के उन बच्चों पर पूरी तरह से आश्रित हैं जो जुलाई में काम करने के लिए बड़े शहरों में लौट गए हैं. तीसरा लड़का जो यहां रुका हुआ है वह शहर लौटने के लिए पैसे जोड़ रहा है. मेरा दुर्भाग्य था कि मैंने लॉकडाउन से पहले पक्का मकान बनाने के लिए 50 हजार रुपए का कर्ज ले लिया था. हमारे संयुक्त परिवार में 20 लोग हैं और अब मुझे नहीं पता कि अगर मेरे बच्चे बाहर काम नहीं करेंगे तो मैं कैसे अपना कर्ज चुकाऊंगा.”
लेकिन बाढ़ प्रभावित दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, पश्चिमी चंपारण और पूर्वी चंपारण जैसे जिलों में रहने वाले अधिकतर लोगों का कहना है कि उन्हें अमानुल्लाह के परिवार जितना काम भी मनरेगा के तहत नहीं मिला.
पूर्वी चंपारण के आंबेडकर नगर कॉलोनी के प्रवासी मजदूर नाथूनी बिन ने मुझे बताया से उन्हें इस योजना के तहत एक भी दिन का काम नहीं मिला. उन्होंने कहा, “मैं दिल्ली में दर्जी का काम करता था और लॉकडाउन के बाद काम बंद हो गया तो मुझे घर लौटना पड़ा और अब बाढ़ से मेरे पास बचा-कुचा चावल भी बर्बाद हो गया है. जब मैं कर्ज लिए बिना अपने परिवार को खिला तक नहीं सकता तो मैं दिल्ली लौटने के लिए पैसे का इंतजाम कैसे कर सकता हूं. अब मैं यहीं रहने के लिए मजबूर हूं और मुझे वैकल्पिक रोजगार प्राप्त करने में किसी तरह की मदद नहीं मिल रही है.” बिन ने बताया कि कर्ज लेकर सब्जी और चावल खरीदने के अतिरिक्त उनका परिवार राज्य सरकार द्वारा दिए गए छोटे-छोटे कोविड राहत राशन पर आश्रित है.
अन्य लोग कर्ज प्राप्त करने के मामले में बिन जितने सौभाग्यशाली नहीं रहे और उन्हें भूखे मर जाने का डर सता रहा है. बिन के पड़ोसी विक्रम राम ने मुझे बताया कि उन्हें मनरेगा के अंतर्गत एक भी दिन का काम नहीं मिला. उन्होंने कहा, “इस लॉकडाउन ने हमारी आजीविका के सारे संसाधन छीन लिए और जो कुछ भी हमने अपने खेतों में लगाया था उसे बाढ़ ने बर्बाद कर दिया. अब पहली बार हम लोग भूखे मरने के डर में हैं.” जुलाई से इधर राम की कॉलोनी तीन बार बाढ़ के पानी में समा चुकी है. उनकी तरह आंबेडकर नगर के कई दलित लॉकडाउन के बाद सिर तक कर्ज में डूब गए हैं. राम के धान के खेतों को बाढ़ ने बर्बाद कर दिया और उनका परिवार भोजन खरीदने के लिए मनरेगा पर निर्भर हो गया, लेकिन उन्हें अब तक इस योजना के तहत किसी भी दिन काम नहीं मिला है.
2004 से मनरेगा पर काम कर रही संस्था पीपल सेक्शन फॉर एंप्लॉयमेंट गारंटी बताती है कि जुलाई और अगस्त महीने के दौरान बिहार में मनरेगा काम की प्रगति धीमी रही. इस संस्था के आंकड़ों के मुताबिक 1 अप्रैल से इस देश के 8140000 नए लोगों ने रोजगार कार्ड प्राप्त किए हैं जिनमें से 11 लाख एक हजार कार्ड तो केवल बिहार में ही जारी हुए हैं लेकिन जॉब कार्ड प्राप्त करने के बावजूद बहुत कम लोगों को रोजगार मिला है.
संस्था द्वारा किया गया यह सर्वे बताता है कि पूरे बिहार में केवल 2136 लोगों को ही इस योजना के तहत पूरे 100 दिन का काम मिला है, जबकि यह संख्या बिहार जितने ही पिछड़े राज्य मध्य प्रदेश से बहुत कम है जहां 33000 परिवारों को पूरे 100 दिन का काम मिला है. वहीं राजस्थान में 27000 परिवारों को पूरे 100 दिन का रोजगार इस योजना के तहत मिला है. संस्था के रिकॉर्ड बताते हैं कि जुलाई और अगस्त के बीच बिहार के खगड़िया और सीतामढ़ी जैसे जिलों में मनरेगा के तहत काम की उम्मीद लगाए परिवारों में से एक चौथाई से अधिक को कोई काम नहीं मिला. अररिया, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर और कटिहार जिलों में 20 प्रतिशत परिवारों को काम नहीं मिला. अररिया के चहकपुर गांव के दिहाड़ी मजदूर मोहम्मद अयूब ने मुझे बताया कि उनके गांव के 70 से ज्यादा परिवारों ने मनरेगा के तहत काम के लिए फॉर्म जमा किए थे लेकिन किसी को भी एक भी दिन का काम नहीं मिला.
गया के मानव अधिकार कार्यकर्ता एमके निराला ने लॉकडाउन के बाद वापस लौटे प्रवासी मजदूरों के लिए खाने और अन्य आवश्यक वस्तुओं का इंतजाम करने में मदद की थी. उन्होंने मुझे बताया कि गया में वह ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानते जिसे पिछले महीनों में मनरेगा के तहत काम मिला है. निराला ने कहा कि स्थानीय अधिकारी बार-बार यह दावा करते हैं की बाढ़ की वजह से वे लोग मनरेगा के तहत काम नहीं दे पाए लेकिन मुझे लगता है की बाढ़ की वजह से जमीन का कटाव या मनरेगा के तहत काम अचानक रुक जाना उन लोगों के लिए बहाना भर है जो इस योजना में लोगों को काम दिलवाते हैं. खेती किसानी और मिट्टी खोदने के काम के अलावा बाढ़ प्रबंधन से जुड़े कई काम हैं जिन्हें इस योजना के तहत दिया जा सकता है. जानवरों, सफाई और पेयजल से संबंधित काम मनरेगा के तहत आते हैं और यहां तक कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में भी वे लोग आसानी से कई काम करवा सकते थे.” गया में बाढ़ नहीं आई लेकिन कुछ लोगों को सिर्फ पांच दिन का पाइपलाइन बिछाने और गड्ढे खोदने का काम नल जल योजना के तहत दिया गया है.
वापस लौटे प्रवासी मजदूरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि मनरेगा के तहत काम हासिल करने के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध स्थानीय भ्रष्टाचार है. काम देने का अधिकार पूरी तरह से स्थानीय ठेकेदारों और पंचायत के अधिकारियों के अधीन है. मैंने कई दिहाड़ी मजदूरों से बात की जिन्होंने मुझे बताया कि पंचायत अधिकारी और स्थानीय ठेकेदारों को मनरेगा के तहत श्रमिकों को भुगतान करने का पैसा मिलता है लेकिन वे लोग मशीनों का इस्तेमाल कर तालाब खुदवाते और मिट्टी उठवाते हैं. इससे उन लोगों को पैसा अपनी जेब में भर लेने का मौका मिलता है. सासाराम के सामाजिक कार्यकर्ता अशोक कुमार ने मुझे बताया कि अक्सर ठेकेदार जुलाई से पहले के महीनों में भारी मशीनों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि बारिश हो जाने के बाद इस बात के सबूत मिट जाते हैं कि मशीनों से काम लिया गया, न कि हाथों से. कुमार मजदूर-किसान यूनियन से जुड़े हैं जो दक्षिण पश्चिमी बिहार में सक्रिय है. मैंने बांका जिले के 22 अलग-अलग गांव में इसी तरह की बातें सुनी.
अन्य मामलों में काम बिल्कुल भी नहीं हुआ है और मनरेगा के लिए मंजूर कोष स्थानीय ठेकेदारों ने अपनी जेबों में भर लिया है. मैंने जिन गांवों का दौरा किया उनमें से अधिकांश गांव में इस योजना के अंतर्गत पंजीकृत मजदूरों को यह भी नहीं पता था कि काम के लिए श्रमिकों का चयन किस आधार पर किया जाता है. अक्सर यह निर्णय पंचायत के प्रतिनिधि मनमाने तरीके से करते हैं. ये लोग मनरेगा के तमाम रिकार्डों को गुप्त रखते हैं. कानूनन कांट्रेक्टरों और पंचायत के लिए जरूरी है कि वे बोर्ड में उन श्रमिकों के नाम लिखें जिन्हें काम के लिए चयनित किया गया है और प्रत्येक मजदूर का कितना पैसा पंचायत पर बकाया है यह भी लिखा जाना चाहिए. मैंने देखा कि ऐसा कहीं भी नहीं हो रहा है. सार्वजनिक रिकॉर्ड की कमी का मतलब है कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि मनरेगा के लिए उपलब्ध कितने पैसों का गबन हुआ. जब इस योजना के अंतर्गत जब कोई काम होता है तो छाया के लिए टेंट, दवाइयां या अन्य सुविधाएं अक्सर श्रमिकों को नहीं दी जाती. ये सब कानूनन उन्हें मिलनी चाहिए.
बिरनिया में, जो बिहार के उन गांव में से एक है जहां मनरेगा का पैसा बिचौलियों ने हड़प लिया, मेरी मुलाकात आदिवासी मूल के दिहाड़ी मजदूर इतवारी तुडु से हुई. तुडु को लॉकडाउन के बाद से ही काम नहीं मिला है. उन्होंने मुझे बताया, “मनरेगा का काम कागजों में ज्यादा और यथार्थ में कम दिया जाता है.” मनरेगा को लागू करने वाले अधिकारियों का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि उनकी मिलीभगत होती है जिससे बिचौलियों के लिए लाभार्थियों के नाम के पैसा का गबन करना आसान हो जाता है. मनरेगा में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार के साथ ही तुडु ने मुझे बताया कि स्थानीय अधिकारी स्थानीय जमीन पर खेती करने पर आदिवासियों को सताते हैं. 2006 के वन अधिकार कानून में ऐसी जमीनों पर खेती करने का अधिकार आदिवासियों को दिया गया है. तुडु ने बताया कि स्थानीय लोग इस मामले में 2008 से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन तमाम सरकारों और स्थानीय प्रतिनिधियों ने उनके संघर्ष पर ध्यान नहीं दिया. तुडु ने मुझे बताया कि वह 2020 का विधानसभा चुनाव कटोरिया विधानसभा सीट से लड़ेंगे, जो बिरनिया में आती है. वह नव भारत अभियान के सदस्य के रूप में चुनाव लड़ने जा रहे हैं. यह जमीनी कार्यकर्ताओं की अपंजीकृत पार्टी है और इसके कई जमीनी नेता वन अधिकार कानून, मनरेगा और अन्य ग्रामीण सशक्तिकरण योजनाओं को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं.
20 जून को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गरीब कल्याण रोजगार अभियान की घोषणा की थी जिसका मकसद राष्ट्रवादी लॉकडाउन के दौरान वापस अपने राज्यों में लौटे प्रवासी मजदूरों के लिए आजीविका के अवसर उपलब्ध कराना था. इस योजना में 116 जिले के प्रवासी मजदूरों को 25 विभिन्न क्षेत्रों में काम दिलाने का वादा था. केंद्र सरकार ने इस योजना के तहत काम हासिल करने वालों का लक्ष्य और अनुमान सार्वजनिक नहीं किया. लेकिन 23 मई को मीडिया से बात करते हुए नीतीश कुमार ने दावा किया था कि किसी भी मजदूर को अब राज्य से बाहर काम के लिए नहीं जाना पड़ेगा.
विपक्ष के नेताओं ने कहा है कि गरीब कल्याण रोजगार अभियान मनरेगा को ठीक से लागू न कर पाने की जवाबदेहीता से बचने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. सीपीआईएम नेता वृंदा करात ने समाचार पत्र हिंदू में लिखा है, “पिछले साल मनरेगा के तहत इन 116 जिलों में औसत 43.7 दिन का काम पैदा किया गया जो राष्ट्रीय औसत 50 दिन से कम था. काम दे पाने का खराब रिकॉर्ड इन जिलों में आव्रजन के बड़े कारणों में से एक है. नई योजनाएं बनाने से अच्छा होगा कि मनरेगा को सभी श्रमिकों को काम देने के लिए विस्तार किया जाए. यह एक कानूनी अधिकार है जबकि गरीब कल्याण रोजगार अभियान प्रशासन पर किसी भी तरह का कानूनी दबाव नहीं डालता.” गरीब कल्याण रोजगार योजना अक्टूबर के अंत में खत्म होनी थी और बिहार सरकार ने इस योजना के लिए आवंटित 17000 करोड रुपए का केवल 50 फीसदी ही अब तक खर्च किया है.
बिहार में नौकरी की कमी के मामले को संबोधित करने के लिए राज्य सरकार प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विज्ञापन कर रही है. जुलाई में केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि उद्योग, जल संसाधन, शहरी विकास, सड़क निर्माण, कृषि और छोटे सिंचाई विभाग लौटे मजदूरों के लिए रोजगार के अवसरों का निर्माण करेंगे. ग्रमीण आजीविका को प्रोत्साहन देने वाली सरकार की संस्था जीविका विंग द्वारा 80000 श्रमिकों का कौशल प्रोफइल तैयार कर लेने के बाद वैकल्पिक आजीविका दिलाने के लिए उनके लिए कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत की गई.
राज्य के कृषि मंत्रालय के कृषि विज्ञान केंद्र के एक कनिष्ठ वैज्ञानिक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, “शुरू में हमने श्रमिकों को कृषि क्षेत्र का प्रशिक्षण देना शुरू किया. 35 लोगों के बैच में सीमित लोग ही प्रशिक्षण लेने आए. प्रत्येक बैच के लिए प्रशिक्षण की अवधि तीन दिन रखी गई और इस दौरान मशरूम लगाना, मधुमक्खी पालन, कृषि की आधुनिक तकनीक और वर्मीकंपोस्ट बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था.” कनिष्ठ वैज्ञानिक ने मुझे बताया, “इस प्रशिक्षण से प्रशिक्षुओं को कोई लाभ नहीं हुआ. सरकारी अधिकारी केवल लोगों के नाम कागजों में भरना चाहते थे ताकि चुनाव से पहले बड़े दावे किए जा सकें. मजदूरों की मदद करने की परवाह किसी को नहीं थी. युवा और किसानों को जिस बात ने हतोत्साहित किया वह यह कि इस बात की स्पष्टता नहीं थी कि आत्मनिर्भर बनने के लिए धन या मदद मिलने में कितना वक्त मिलेगा.” कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम में पारदर्शिता या समयावधि नहीं है और यही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है. मैंने इस संबंध में बिहार के कृषि विभाग के निदेशक आदेश तितरमारे से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया.
लघु उत्पादन इकाइयों की स्थापना कर लौटे प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने का सरकारी प्रयास भी विफल हो रहा है. बिहार सरकार के उद्योग विभाग के अधिकारियों ने मुझे बताया कि लघु इकाइयों में काम करने के इच्छुक उम्मीदवारों को आश्वासन की देरी ने हतोत्साहित किया है. एक गजेटेड अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर मुझसे कहा, “एंब्रॉयडरी, सिलाई, वेवर सीमेंट ब्लॉक और गारमेंट के काम के लिए कुशल प्रवासी मजदूरों के इंटरव्यू लेते वक्त दो तरह के प्रमुख अवरोधों का सामना उन्हें हुआ.” उन्होंने आगे कहा, “पटना जिले से जुलाई और अगस्त में कई मजदूरों बुलाया गया. उन मजदूरों को इस बात का आश्वासन चाहिए था कि उन्हें काम कब दिया जाएगा, लेकिन हम में से कोई ऐसा आश्वासन देने की स्थिति में नहीं था. हमें सिर्फ यही बताया गया था कि हमें उन्हें काम के बारे में बताना है.”
यहां तक कि लौटे मजदूरों को काम देने के लिए स्थापित केंद्रों में औजारों की कमी थी और ये वैसे औजार नहीं थे जिनमें मजदूर दक्ष थे. एक अधिकारी ने मुझे बताया कि राज्य सरकार ने वेवर सीमेंट ब्लॉक और रेडीमेड गारमेंट का एक छोटा केंद्र पटना के बाहर खोला था. उन्होंने बताया, “अब तक केवल एक इकाई के लिए ही मशीनें आई हैं. देरी के कारण बहुत सारे मजदूरों ने यहां आना ही बंद कर दिया है. दूसरी चुनौती जो हमारे सामने आई वह थी उन मजदूरों को यहां काम करने के लिए राजी करना क्योंकि इन लोगों ने शहरों में बड़ी कंपनियों में काम किया है. वहां की फैक्ट्रियों में उनका एक निर्धारित काम होता था. लेकिन हमारे विभाग ने जिस तरह की छोटी इकाइयों की योजना बनाई थी उनमें ऐसा नहीं हो सकता था. उदाहरण के लिए, जो दर्जी पतलून में बटन और चेन लगाने के काम में पारंगत है, उससे यहां पूरी पेंट बनाने की उम्मीद की जा रही थी.”
बिहार उद्योग विभाग के निदेशक पंकज कुमार सिंह ने इन इकाइयों के संबंध में मेरे भेजे सवालों का जवाब नहीं दिया. बिहार के श्रम विभाग के मुख्य सचिव मिहिर कुमार ने राज्य में रोजगार पैदा करने के प्रयासों की असफलता के संबंध में पूछे गए मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया और नीतीश कुमार ने नरेगा, गरीब कल्याण रोजगार अभियान, लघु इकाइयों या कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम की विफलता के संबंध में मेरे भेजे सवालों का जवाब नहीं दिया.