जुलाई की शुरुआत से ही सीतामढ़ी के कांटा चौक में भीड़भाड़ होने लगी है. हर दिन बिहारी श्रमिकों से भरी लगभग 25 बसें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब या उन राज्यों के लिए निकलती हैं जहां रोजगार के अवसर मौजूद हैं. इसलिए लोग इस चौक को दिल्ली मोड़ भी कहते हैं. पिछले चार महीनों में दिल्ली मोड़ से हर दिन एक हजार से ज्यादा श्रमिकों ने बस पकड़ी है. मई में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वादा किया था कि वह बिहार लौटने वाले हर श्रमिक को राज्य में ही रोजगार उपलब्ध कराएंगे. उन्होंने आश्वासन दिया था कि राज्य के लोगों को फिर कभी पलायन नहीं करना पड़ेगा. राज्य के जमीनी हालात उस वादे की भीषण असफलता बता रहे हैं.
बिहार में 28 अक्टूबर को हुए पहले चरण के विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी के मुद्दे पर जमकर चर्चा हुई. केंद्र सरकार द्वारा कोरोनावायरस महामारी से लड़ने के लिए कहकर जल्दबाजी में लगाए गए लॉकडाउन के चलते 32 लाख 60 हजार से ज्यादा प्रवासी मजदूर प्रदेश वापस लौटे हैं. राज्य में ही नौकरी के वादे को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (ग्रामीण) को मजबूत करने, गरीब कल्याण रोजगार अभियान के अंतर्गत नई नौकरियां देने, राज्य में कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम चालू करने और कुशल और अर्ध कुशल प्रवासी मजदूरों को काम का अवसर देने के लिए छोटे उद्यम लगाने की बात की.
ये सभी योजनाएं असफल साबित हुई हैं. बहुसंख्यक मजदूरों को मनरेगा के तहत काम नहीं मिला है और इसके लिए आंशिक रूप से व्यवस्था में भ्रष्टाचार जिम्मेदार है. इस बीच गरीब कल्याण रोजगार अभियान में लक्षित खर्च का 50 फीसदी ही खर्च हो पाया है और यह स्पष्ट नहीं है कि इससे कितना रोजगार निर्माण हुआ है. अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मैंने पाया कि कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों और छोटे उद्यमों को लगाने जैसी बातें केवल कागजों तक सीमित हैं और इनसे कोई विश्वसनीय परिणाम हासिल नहीं हुआ है. जुलाई और अगस्त में आई प्रलयंकारी बाढ़ से भी राज्य में बहुत से लोग प्रभावित हुए हैं. इस बाढ़ ने खेतों और घरों को तहस-नहस कर दिया और लोगों की बची-कुची बचत भी खत्म कर दी. इसका मतलब यह हुआ है कि कई श्रमिकों के समक्ष रोजगार की तलाश में राज्य से बाहर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. बहुत से तो बिहार चुनाव से पहले ही राज्य से बाहर चले गए हैं.
स्थिति तो यह है कि राज्य से बाहर जाना भी मजदूरों के लिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि उन्हें बड़े शहरों में जाने के लिए पैसे उधार लेने पड़ रहे हैं. पश्चिमी चंपारण जिले के श्रम अधिकार कार्यकर्ता सिद्धार्थ कुमार ने मुझे यह बात बताई और कहा, “बहुत से लोगों को अपना आत्मसम्मान गिरवी रखना पड़ा है. लॉकडाउन के दौरान जिस तरह का बुरा बर्ताव और अपमान उन्होंने झेला था तो अधिकांश मजदूर बड़े शहरों में दोबारा जाना नहीं चाहते थे लेकिन उन्हें जाना पड़ रहा है. कोई आदमी आजीविका के साधन के बिना घरों में कितने दिनों तक रह सकता है?”
जुलाई में अलायंस फॉर दलित राइट्स ने एक सर्वे किया था जिसमें पता चला था कि महामारी शुरू होते वक्त ही ग्रामीण बिहारियों के घरों की आर्थिक स्थिति, खासकर सीमांत समुदायों की, बहुत खराब थी. इन लोगों ने 14 राज्य के 112 गांव में 1400 दलित और आदिवासी परिवारों का सर्वे किया था. 27 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन की घोषणा के वक्त एक पैसा नहीं था, जबकि 36 प्रतिशत परिवारों के पास थोड़ी बचत थी. सर्वे में पता चला कि केवल 5 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन जैसी आपातकालीन स्थिति में जिंदा रहने लायक पैसे थे. 85 फीसदी परिवार दैनिक मजदूरी पर आश्रित थे, जबकि बाकियों में से अधिकांश प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले पैसे पर निर्भर थे. महामारी ने आय के सभी साधनों को समाप्त कर दिया जिस वजह से बिहार के गरीब लोग बिना किसी निश्चित आय, भोजन और सरकारी सहायता के आजीविका से वंचित हो गए.
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