लॉकडाउन में जिनकी फोटो हुई थी वायरल उन रामपुकार को अब तक नहीं मिला रोजगार

बिहारी प्रवासी श्रमिक रामपुकार पंडित, जिनकी फोटो मई में सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी, अपने परिवार के साथ बेगूसराय जिले में अपने घर पर. उमेश कुमार राय

बिहार के नेताओं ने रामपुकार पंडित से लाखों की मदद का वादा किया था. 45 साल के पंडित प्रवासी मजदूर हैं. वह पांच महीने पहले लॉकडाउन के कारण गांव वापस आ गए हैं और तब से बहुत गरीबी में जी रहे हैं. मई में दिल्ली के निजामुद्दीन पुल पर फूट-फूट कर रोते रामपुकार की तस्वीर वायरल हो गई थी. उनकी तस्वीर उन हजारों प्रवासी मजदूरों का प्रतीक बन गई जो निर्मम लॉकडाउन में देश के महानगरों में भूखे, गरीब और बेघर हो गए थे. तस्वीर के वायरल होने के बाद रामपुकार के गृह राज्य के तमाम नेताओं में उन्हें आश्वासन देने की होड़ लग गई. सब ने वादा किया कि उनकी और उनके परिवार की मदद करेंगे. बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने उनसे नौकरी और पैसों की मदद का वादा किया. भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) के सत्तारूढ़ गठबंधन ने सरकारी योजनाओं का हवाला देकर भरोसा दिलाया कि लौटे प्रवासियों को राज्य में ही रोजगार दिया जाएगा. लेकिन रामपुकार को मदद नहीं मिली. आज भी वह गरीबी में ही जीने को अभिश्पत हैं.

रामपुकार ने मुझे बताया कि वह मार्च की शुरुआत में, होली के आसपास, काम करने के लिए दिल्ली गए थे. बिहार के बेगूसराय जिले के अपने पैतृक गांव बरियारपुर पुरवी में उनके पास कोई औपचारिक रोजगार नहीं था. बेगूसराय से भारतीय जनता पार्टी के गिरिराज सिंह लोकसभा सांसद हैं और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम राज्य मंत्री हैं. रामपुकार भूमिहीन है लेकिन वह अपने पिता के मिट्टी के बर्तनों के काम को नहीं कर पाते थे क्योंकि बचपन में उनका पैर टूट गया था. उन्होंने मुझे समझाया, "मिट्टी के बर्तन बनाने में बहुत सारा काम पैरों से किया जाता है. आपको मिट्टी तैयार करनी होती है और चक्के को अपने पैरों से चलाना होता है. मेरा पैर इस कदर टूटा था कि अब भी जब पुरबी हवा चलती है तो वह दर्द करता है.”

पहले रामपुकार काम की तलाश में बेंगलुरु गए थे. उनके पिता उत्तम पंडित ने भी काम के लिए पलायन किया था. मार्च की शुरुआत में रामपुकार को दिल्ली के बाहरी इलाके नजफगढ़ में एक निर्माण स्थल पर काम मिला. उस काम के उन्हें प्रतिदिन 250 रुपए मिलते थे.

इस साल मई में रामपुकार की पत्नी बिमल देवी ने उन्हें फोन पर बताया कि उनका एक साल का बेटा बीमार हो गया है. 11 मई को लॉकडाउन के कड़े प्रतिबंधों के चलते उन्हें बिहार वापस जाने के लिए कोई सवारी नहीं मिली और उन्होंने अपने गांव की एक हजार किलोमीटर से अधिक की दूरी पैदल ही तय करने का फैसला किया. रामपुकार ने बताया, "मैं सुबह 5 बजे दिल्ली में निर्माण स्थल से निकला और दोपहर में निजामुद्दीन पुल पर पहुंचा. जब मैंने निजामुद्दीन पुल को पार करने की कोशिश की तो पुलिस ने हमें रोका और गालियां देने लगे. जब मैं पुल के पास था तभी मेरी पत्नी ने मुझे फोन किया और बताया कि वह बेटे का इलाज नहीं करा पा रही हैं. उसने मुझसे कहा कि मेरे आने, न आने का मतलब नहीं हैं क्योंकि बेटा बचेगा नहीं.”

रामपुकार ने मुझे बताया कि उनका दिल टूट गया और वह जहां थे वहीं बैठ कर रोने लगे. ठीक उसी पल प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के फोटो पत्रकार अतुल यादव ने रामपुकार की फोटो ले ली. फोटो में रामपुकार अपने कान में फोन लगाए हुए हैं. काले रंग का मास्क उनकी ठोड़ी पर चढ़ा है. उनके बाल अस्त-व्यस्त हैं और उनके माथे की नसें दिखाई दे रही हैं. वह तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब शेयर की गई. देखते ही देखते वह फोटो उन 23.6 लाख प्रवासियों का प्रतीक बन गई जो बिहार लौटने की कोशिश में थे.

रेडिफ न्यूज के साथ एक साक्षात्कार में फोटोग्राफर अतुल ने कहा था, “उनके चेहरे पर दिखाई दे रहे दर्द को देखकर मैं बेचैन हो गया था. मुझे लगा कि मुझे सिर्फ एक तस्वीर लेकर आगे नहीं बढ़ जाना चाहिए. मैंने रामपुकार से पूछा? ‘कहां?’ उन्होंने पुल की ओर जाने वाली सड़क की ओर इशारा किया और कहा, 'वहां.’”

रामपुकार ने मुझे बताया कि अतुल ने फोटो क्लिक करने के बाद उन्हें बिस्कुट और पानी दिया और निजामुद्दीन पुल पार करने में मदद की.

ए​क दिन पैदल चलने के बाद रामपुकार गाजीपुर पुल पर पहुंचे. उन्होंने मुझे इस बारे में बताया, “मेरे 5500 रुपए बदमाशों ने छीन लिए थे.” गाजीपुर पुल पर उनकी मुलाकात सामाजिक कार्यकर्ता सलमा फ्रांसिस से हुई. फ्रांसिस ने उनकी व्यथा सुनने के बाद बेगूसराय जाने के लिए उन्हें पैसों की मदद की. फ्रांसिस ने फोन पर मुझे बताया कि पुलिस पुल के पास किसी को भी रुकने नहीं दे रही थी. उनके ही शब्दों में, “मैंने उन्हें पुल के पिलर के पीछे छिप जाने को कहा. वह दो दिनों तक पुल के नीचे ही रहे. मैं उन्हें खाना ला देती थी और अपनी कार उनके पास ही रोकती थी ताकि कोई उन्हें परेशान न करे. आखिरकार, 13 मई को मुझे उनके लिए रेल का टिकट मिल गया और रामपुकार ने निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से बिहार की ट्रेन पकड़ ली.” फ्रांसिस ने बताया कि उन्होंने रामपुकार को 5500 रुपए भी दिए. जब मैं रामपुकार के घर का गया, तो उन्होंने मुझे एक टिकट और सौ रुपए का नोट दिखाया जिसे उन्होंने लेमिनेट करा कर रखा है. "मैंने इसे उनकी (फ्रांसिस की) याद में सुरक्षित रखा है," उन्होंने बताया.

कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान 11 मई को दिल्ली के निजामुद्दीन पुल पर अपने मोबाइल फोन पर अपने घरबात करते वक्त रामपुकार पंडित फूट-फूट कर रो पड़े. अतुल यादव / पीटीआई

घर जाने से पहले रामपुकार कुछ दिनों तक क्वारंटीन केंद्र में रहे. जब तक वह घर पहुंचे उनके बेटे राम परवेश की मौत हो चुकी थी. देवी ने बताया, “जब उसकी तबीयत खराब हुई और सांस लेने में कठिनाई होने लगी, तो मैं किसी तरह उसे एक निजी अस्पताल ले गई. उसे भर्ती कराने में मुझे थोड़ी देर हो गई क्योंकि उसके इलाज के लिए पैसे की व्यवस्था करने में समय लगा. मेरे पति ने केवल 2000 रुपए भेजे थे. वह खुद कठिनाइयों का सामना कर रहे थे.” देवी ने मुझसे कहा, “मेरी तीन बेटियों के बाद एक प्यारा बेटा था, अब वह भी चला गया. तीनों भी तो परेशान ही हैं.”

जब तक रामपुकार दुख में डूबे अपने परिवार के पास पहुंचते तब तक अतुल ने जो फोटो ली थी वह वायरल हो चुकी थी. तेजस्वी यादव ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से रामपुकार से बात की और उन्हें पैसे और नौकरी देने का आश्वासन दिया. रामपुकार जिस कुम्हार समुदाय से हैं, राज्य में उसका अच्छा खासा वोट है. नवंबर में बिहार के विधानसभा के चुनावों के मद्देनजर रामपुकार की कहानी में राज्य के सभी नेता अपनी-अपनी भूमिका खोज रहे थे.

2019 में ग्रामीण आवास के लिए केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के तहत रामपुकार को घर बनाने के लिए ऋण दिया गया था लेकिन धन जल्दी ही खत्म हो गया. परिवार के पास छत बनाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, तो उन्होंने घर को एस्बेस्टस की चादर में ढंक दिया. चूंकि घर सरकारी नियमों को पूरा नहीं करता था इसलिए उन्हें पीएमएवाईजी ऋण की अंतिम किस्त नहीं दी गई. नागरिक समाज के सदस्यों ने उन्हें पैसे दान किए तब जाकर छत का काम पूरा हो पाया. घर में अभी भी प्लास्टर नहीं हुआ है.

25 मई को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मजदूरों को भरोसा दिलाया कि उनकी सरकार राज्य में ही उनके लिए काम का इंतेजाम करेगी. उनका वादा था कि मजदूरों को बिहार से बाहर जाने की जरूरत नहीं होगी. 20 जून को मोदी ने बिहार सहित छह राज्यों के लिए गरीब कल्याण रोजगार अभियान की शुरुआत की. यह अभियान बेगूसराय के पड़ोस के खगड़िया जिले के तेलिहार गांव से शुरू हुआ. इस अभियान का मुख्य उद्देश्य उन मजदूरों को तत्काल रोजगार प्रदान करना था जो दूसरे राज्यों से अपने घरों को लौटे थे. जीकेआरवाई योजना अक्टूबर में समाप्त होने वाली है और बिहार सरकार ने योजना के लिए आवंटित 17000 करोड़ रुपए का केवल 50 प्रतिशत ही अब तक खर्च किया है. 5 जुलाई को तेजस्वी यादव ने वादा किया कि अगर वह सत्ता में आए तो दस लाख स्थायी नौकरियां देंगे.

जीकेआरवाई जिनके लिए शूरू की गई थी रामपुकार उसी समुदाय के हैं लेकिन उन्हें अभी तक कोई काम नहीं मिला है. इतने सारे वादों के बाद भी उनकी हालत में कोई बदलाव नहीं आया है. पत्नी देवी ने बताया, ''परिवार चलाना बहुत मुश्किल है. अगर हमें कोई काम मिले तो हम कर लें लेकिन हमें कोई काम नहीं मिल रहा है. जब से वह घर लौटे हैं, हम तब से ही घर पर बैठे हैं. हमें एक भी काम नहीं मिला. "

रामपुकार निराश और लाचार हैं. उन्होंने कहा, “मैं पूरे दिन अपने घर में ही रहता हूं क्योंकि मेरे पास कोई काम नहीं है." तेजस्वी यादव ने उनसे कहा था कि अगर परिवार को किसी तरह की कोई ​पेरशानी हो तो वह उन्हें फोन कर लें. उन्होंने बताया, "मैंने कई बार फोन किया लेकिन हर बार उन्होंने कहा कि मेरे लिए काम की व्यवस्था कर रहे हैं."

राज्य और केंद्र सरकार के वादों के बावजूद बिहार में पहले से ही विकराल बेरोजगारी के कारण राज्य से फिर से पलायन शुरू हो गया है.

जब मैं रामपुकार के घर गया तो वह उस वायरल फोटो से बिलकुल अलग शख्स लग रहे थे. परिवार का पेट भर न पाने की बेचैनी ने उन्हें गमगीन और कमजोर कर दिया था. उन्होंने मुझे बताया कि दिल्ली से लौटने के बाद उनके पास खाने के लिए सिर्फ वही बचा था जो सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उन्हें दिया था. "मैंने अपनी तीन बेटियों के लिए नए कपड़े खरीदे और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए पैसों से अपने दैनिक खर्चों को पूरा किया. यहां लौटने के बाद मैं बीमार पड़ गया. मुझे इलाज पर खर्च करना पड़ा. अब मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैंने साहूकार से पांच प्रतिशत मासिक ब्याज पर 3000 रुपए लिए थे जिसमें से 2000 रुपए गेहूं पर खर्च हो गए. मुझे डॉक्टर ने चावल खाने से मना किया है.”

जिस स्कूल में रामपुकार की बेटियां पढ़ती थीं वह बंद है. कक्षाएं ऑनलाइन हो रही हैं लेकिन उनके बच्चों के पास डिजिटल पढ़ाई करने का जरिया नहीं है. उन्होंने मुझे बताया कि वह बड़ी मुश्किल से ट्यूशन की फीस जुटा पाए हैं ताकि बच्चे पढ़ाई में पिछड़ न जाएं.

रामपुकार की पत्नी ने मुझे बताया कि वह उन्हें फिर कभी बाहर नहीं जाने देगी. देवी ने मुझे बताया, “पहले जब वह गए थे तब नोटबंदी हो गई थी और उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. इस बार वह दिल्ली गए तो तालाबंदी हो गई और हमारे बेटे की मौत हो गई. अब मैं उन्हें बाहर जाकर काम करने नहीं दूंगी. अगर हमें यहां कोई काम मिलेगा, तो हम मिलकर करेंगे. हम नमक-रोटी खा कर जी लेंगे.”

उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें यकीन है कि अगर रामपुकार घर पर होते तो उनका बेटा बच जाता. “अगर वह यहां रहते तो वह मेरे बेटे को जरूर बचा लेते. वह कहीं से भी उधार मांग कर ला देते. मैं एक औरत हूं. मैं कैसे इलाज के लिए उधार जुटा पाती?” रामपुकार अपनी पत्नी से सहमत लगे. रामपुकार ने कहा, “अब मैं बिहार में रहूंगा और यहीं मरूंगा. अगर मुझे काम नहीं मिला, तो मैं भीख मांग कर ​जिंदा रहूंगा लेकिन बिहार से बाहर नहीं जाऊंगा."