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उम्मती का निकाह बिहार के सीमांचल में पड़ने वाले अररिया जिले के डुमरिया गांव के अब्दुल रकीब के साथ साल 1994 में हुआ था. उम्मती धनाढ्य परिवार से आती हैं, लेकिन अब्दुल रकीब भूमिहीन हैं. आर्थिक हैसियत खराब होने के बावजूद पिछले 26 साल में कभी ऐसे हालात नहीं बने कि उम्मती को मजदूरी करने के लिए बाहर निकलना पड़ा हो. लेकिन, शनिवार 4 अप्रैल को उन्हें मजदूरी करने के लिए खेत में जाना पड़ा.
57 वर्षीय रकीब दिल्ली के बुरारी में पिछले 25 साल से भवन निर्माण साइटों पर मिस्त्री का काम करते हैं. पिछले साल दिसंबर में वह गांव आए थे और फरवरी में दोबारा दिल्ली लौट गए. पिछले 25 मार्च से शुरू हुए तीन हफ्ते के लॉकडाउन में वह फंस गए हैं. काम बंद है, तो कमाई नहीं हो रही है, इसलिए घर पैसा नहीं भेज पा रहे हैं.
उम्मती के 6 बच्चे और एक सास है. उधार लेकर उन्होंने कुछ दिन घर का चूल्हा जलाया, लेकिन जब लोगों ने पैसा और दुकानदारों ने सामान देना बंद कर दिया, तो उम्मती को हंसिया उठा कर घर की दहलीज से बाहर जाना पड़ा.
उन्होंने मुझे फोन पर बताया, "खेत के मालिक ने कहा था कि पुलिस लोगों को पकड़ रही है, इसलिए डरते-डरते खेत में गई और छिप-छिपकर गेहूं काटा. लेकिन, गेहूं कटनी की मजदूरी अभी नहीं मिलेगी. जब पूरा खेत कट जाएगा और दौनी हो जाएगी तो 10 किलो गेहूं पर एक किलो मुझे मिलेगा. गेहूं मिलते-मिलते पांच दिन तो गुजर ही जाएगा."
"वह (अब्दुल रकीब) घर पर होते थे तो खेतों में काम करते थे. और जब शहर जाते थे तो वहां से कमा कर भेज देते थे. उनकी कमाई से परिवार चल जाता था, इसलिए मुझे काम करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी. जब लॉकडाउन हुआ तो उन्होंने कह दिया कि पैसा नहीं भेज पाएंगे. छह बच्चे, सास और अपना पेट पालने के लिए मुझे पहली बार मजदूरी करनी पड़ी. छोटे बच्चे खाने के लिए रोते रहते हैं. खेत में काम करने नहीं जाते तो क्या करते!," 45 वर्षीया उम्मती मुझे फोन पर रुआंसी होकर कहती हैं. फोन पर बात करते हुए वह लगातार बच्चों के भूख से रोते रहने का जिक्र करती हैं.
बुरारी से रकीब मुझे फोन पर बताते हैं, "मेरा घर जितनी जगह में है, उतनी ही जमीन मेरे पास है. मजदूरी और मिस्री का काम कर घर चलाता हूं. दिल्ली में रहता हूं, तो हर महीने 12-13 हजार रुपए कमा लेता हूं. इसमें से 6000-6500 रुपए घर भेजता हूं. इस बार फरवरी में इधर-उधर से लेकर 4000 रुपए भेजा था, इसके बाद पैसा नहीं भेज पाया. अभी तो मेरे खाने के लिए ही पैसा नहीं है, घर पर पैसा कहां से भेजें? मेरी शादी के 26 साल हो गए, लेकिन कभी उसे मैंने मजदूरी करने नहीं दिया. लेकिन, इस बार उसे रोक नहीं पाया...क्या करें...भगवान की जो मर्जी होगी, वो होगा."
लॉकडाउन के बाद बढ़ी अनिश्चितताओं के चलते पिछले दिनों दिल्ली, मुंबई, हरियाणा से हजारों कामगार बिहार लौटे. लेकिन, रकीब जैसे हजारों कामगार ऐसे भी हैं, जो नहीं लौट पाए. रकीब ने मुझे फोन पर बताया, “हमलोग 400 लोग यहां फंसे हुए हैं. खाने के लिए आटा-चावल नहीं है. एक हफ्ते तक हमलोगों ने एक वक्त का खाना खाकर गुजारा किया. बहुत ज्यादा भूख लगती थी, तो एक पैकेट बिस्कुल खरीद लेते थे और 5-6 लोग उसमें खाते थे. इसके बाद एक आदमी रोज 150 प्लेट खाना भिजवाने लगा. वही खाकर रह रहे हैं. इधर दो दिन से 100 प्लेट खाना ही मिल रहा है. कभी-कभी बासी खाना भेज दिया जाता है.”
लॉकडाउन के बाद रकीब की मां घबराई हुई हैं और अक्सर फोन पर बात करते हुए रोने लगती हैं. उन्होंने मुझे बताया, “लॉकडाउन में मैं कैसे गुजारा कर रहा हूं, ये सोच कर मेरी मां रोती रहती है और यही रट लगाए हुए हैं कि मैं घर चला आऊं. लेकिन, सबकुछ बंद है. कैसे जाऊं? दिल्ली से अररिया की दूरी 1400 किलोमीटर से ज्यादा है. अगर पैदल भी चलूंगा, तो एक महीना लग जाएगा. इस एक महीने मैं रास्ते में खाऊंगा क्या? इसलिए मैं गांव नहीं जा रहा हूं. लेकिन, लॉकडाउन खत्म होते ही गांव चला जाऊंगा.”
हालांकि, गांव में उनके लिए रोजगार के बहुत अवसर नहीं हैं सिवाय फसल कटनी व बुआई के. रकीब ने मुझे बताया, “गांव में कुछ दिन बिताऊंगा और फिर दिल्ली ही लौटूंगा क्योंकि बिहार में साल में दो-तीन महीने ही काम मिलता है. वह भी खेती के सीजन में ही.”
दिल्ली में कोरोनावायरस का पहला मरीज 2 मार्च को मिला था. 20 मार्च तक कोरोनावायरस से पीड़ित मरीजों की संख्या 19 पर पहुंच गई थी. कोरोनावायरस के बढ़ते मरीजों के मद्देनजर दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने राजधानी में कई तरह के प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया था. 16 मार्च को दिल्ली में किसी भी सार्वजनिक जगह पर एकसाथ 50 लोगों के जुटान पर रोक लगा दी थी. कई तरह के प्रतिबंधों के कारण फैक्टरियों का कामकाज ठप होने लगा था.
बेगूसराय जिले के चमथा निवासी 41 वर्षीय अमीर चंद दास दिल्ली में प्लास्टिक की फैक्टरी में पिछले 15 साल से काम कर रहे थे. कोरोना को लेकर बढ़ी हलचल और डर के चलते 21 मार्च को वह घर लौट आए हैं, लेकिन कोरोनावायरस से ज्यादा चिंता उन्हें रोजगार की है. उन्होंने मुझे बताया, “एक तो काम छूटा और अभी लॉकडाउन चल रहा है. चौतरफा आफत है. कर्जा-पानी लेकर घर चला रहे हैं. अभी तक 5 हजार रुपए उधार ले चुके हैं. यहां काम-धंधा तो है नहीं. जब तक लॉकडाउन है, घर पर हैं. लॉकडाउन खत्म होगा, तो फिर उसी फैक्टरी में काम करने जाएंगे.”
लॉकडाउन के कारण फैक्टरियां बंद हो जाने के बाद अलग-अलग राज्यों से हजारों कामगार बिहार लौटे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में बताया है कि 1 लाख 74 हजार 470 लोग दूसरे राज्यों से बिहार लौटे हैं. हालांकि, बिहार लौटने वाले कामगारों की असल संख्या इससे ज्यादा मानी जा रही है.
साल 2019 में जारी हुई प्रवास रिपोर्ट के मुताबिक, राजधानी दिल्ली में लगभग 11 लाख, महाराष्ट्र में 5.68 लाख, उत्तर प्रदेश में 10.74 लाख, पश्चिम बंगाल में 11.04 लाख, गुजरात में 3.61 लाख, पंजाब में 3.53 लाख और असम में 1.47 लाख बिहारी कामगार रहते हैं.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पापुलेशन साइंसेज ने पिछले साल बिहार से पलायन पर एक शोध किया था. शोध के मुताबिक, बिहार के हर दूसरे घर से एक आदमी बाहर रहता है. इसके आधार पर अगर आंकड़ा निकाला जाए, तो बिहार के लगभग एक करोड़ लोग बाहर रहते हैं. अगर इसका 10 प्रतिशत हिस्सा भी बिहार लौटा है, तो इसका मतलब है कि लगभग 10 लाख लोग आए हैं. बिहार से पलायन करने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाहर जाता है.
जर्नल आफ सोशल एंड इकोनॉमिक स्टडीज के जुलाई-अगस्त, 2012 के अंक में "आउट माइग्रेशन फ्रॉम बिहार: कॉज एंड कंसिक्वेंसेज" शीर्षक से छपे एक शोधपत्र में एनएसएसओ के आंकड़ों का हवाला देते हुए लिखा गया है कि बिहार से जो आबादी पलायन करती है, उनमें से 27 प्रतिशत आबादी रोजगार की तलाश में, 20.8 प्रतिशत आबादी बेहतर रोजगार की तलाश में घर छोड़ती है.
पश्चिमी चम्पारण के सिक्ता तहसील के बेहरा गांव के रहने वाले 21 वर्षीय राज कुमार को नौकरी के लिए बिहार छोड़ना पड़ा. वह फिलहाल गाजियाबाद में हवाई जहाज का रखरखाव करने वाली एक कंपनी में काम करते थे, जहां उन्हें 12000 रुपए माहवार मिलते थे. लॉकडाउन हुआ, तो उन्होंने वहीं रहने का निर्णय लिया. लेकिन, कंपनी ने जब हाथ खड़े कर लिए, तो वह अपने 10 साथियों के साथ बोरिया-बिस्तर समेट कर घर के लिए रवाना हो गए.
उन्होंने मुझे बताया, "कंपनी प्रबंधन ने हमसे साफ शब्दों में कह दिया था कि अगर उसे ऊपर से पैसा मिलेगा, तभी हमारे लिए खाने की व्यवस्था की जाएगी. बाद में कंपनी प्रबंधन ने हमें बताया कि ऊपर से पैसा नहीं मिला है इसलिए वह हमलोगों के लिए खाने पीने का इंतजाम नहीं कर पाएगा. इस बीच हमारा राशन भी कम हो रहा था. फिर एक दिन पता चला कि फंसे हुए लोगों को उनके राज्यों तक पहुंचाने के लिए आनंद विहार से बसों का इंतजाम किया गया है, तो हमलोग पैदल ही आनंद विहार बस स्टैंड पहुंच गए. लेकिन, बस स्टैंड पर इतनी बड़ी भीड़ होगी, इसका अंदाजा हमें बिल्कुल नहीं था. वहां पांच लाख लोगों का हुजूम था और बसें लगभग 500 ही थीं. बसों में, बच्चे, बुजुर्ग, महिलाओं को भेड़ बकरियों की तरह ठूंसा जा रहा था."
उन्होंने बताया, "भीड़ देखकर बस में चढ़ने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन गाजियाबाद लौटते भी तो खाते क्या? इसलिए हमलोग पैदल ही निकल पड़े कि किसी तरह घर पहुंच गए, तो वहां कैसे भी गुजारा हो जाएगा."
आनंद विहार से बेहरा तक का राज कुमार का सफर कई तरह की कठिनाइयों से भरा रहा. अव्वल तो खाने के लाले रहे और दूसरा रास्ते में एक-दो बार ट्रक के सिवा कोई गाड़ी नहीं मिली. कभी दो बिस्कुट खाकर तो कभी खाली पेट ही चलते हुए उन्होंने सफर पूरा किया.
अपनी इस लंबी और कठिन यात्रा का अनुभव मुझसे साझा करते हुए राजकुमार कहते हैं, "आनंद विहार से बरेली तक (करीब 250 किलोमीटर) का सफर हमने पैदल तय किया. इसमें दो दिन लग गए. रास्ते में हमलोग बहुत कम सोते थे. बरेली पहुंच कर हमलोगों ने एक पिकअप भाड़ा किया. 200 रुपए लेकर पिकअप ने लखनऊ उतार दिया. लखनऊ से एक ट्रक मिल गई जिसने हमें सुबह-सुबह गोरखपुर पहुंचा दिया. गोरखपुर से गोपालगंज (लगभग 120 किलोमीटर) हमलोग पैदल पहुंचे. वहां (गोपालगंज) हमने हल्का-फुल्का नाश्ता लिया और फिर पैदल ही अपने गांव (गोपालगंज से लगभग 80 किलोमीटर) के लिए निकल पड़े."
उन्होंने मुझे बताया, "सुबह-शाम बिस्कुट खाकर और पानी पीकर गुजारा किया. हां, रास्ते में कुछ जगहों पर लोगों ने हमारी मदद की. किसी ने खिचड़ी दी, किसी ने पानी तो किसी ने बिस्कुट दिया."
31 मार्च को घर पहुंचते-पहुंचते राज कुमार के पैरों में छाले पड़ गए थे. वह दो-तीन दिन बिस्तर पर पड़े रहे. डॉक्टर से दवाई ली. पैर के घाव भरने पर उन्होंने नजदीकी अस्पताल में जाकर पहले कोरोनावायरस की जांच कराई. राज कुमार ने मुझे बताया, "तीन बार सरकारी अस्पताल जाकर चेकअप कराया और अब भी हर तीन दिन पर अस्पताल में जाकर कोरोनावायरस का चेकअप कराता हूं."
राजकुमार ने बीटेक किया है और गाजियाबाद जाने से पहले वह भोपाल में गारमेंट फैक्ट्री में काम करते थे. ग़ाज़ियाबाद गए हुए दो महीने ही बीते थे. उन्होंने कहा, "सोचा था कि कुछ महीने यहां काम करूंगा, लेकिन दो महीने में ही लौटना पड़ा. मार्च की तनख्वाह मिलनी अभी बाकी है. आगे काम होगा भी कि नहीं, पता नहीं. कंपनी की तरफ़ से बताया गया है कि कान्ट्रेक्ट मिला, तो फिर बुलाएंगे."
उन्होंने मुझ से कहा, "बिहार में नौकरी है ही नहीं, वरना कौन अपना गांव, अपना राज्य छोड़कर जाना चाहता है. अभी लाकडाउन है, तो यहां हूं. लाकडाउन खत्म होगा, तो फिर काम करने दूसरे राज्य में ही जाना होगा."
राज कुमार की तरह तमाम तरह की दुश्वारियों का सामना कर बिहार लौटे लाखों कामगार हालात सामान्य होने पर फिर दूसरे राज्यों का ही रुख करेंगे क्योंकि बिहार में उनके लिए अवसर नहीं है.
एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर डीएम दिवाकर ने मुझे बताया, "बिहार में रोजगार देने वाला सबसे बड़ा सेक्टर कृषि है, लेकिन कृषि वृद्धि दर कभी 1 प्रतिशत, कभी 2 प्रतिशत तो कभी शून्य से नीचे रही है. दूसरा सेक्टर उद्योग है, लेकिन बिहार में पिछले दशकों में कोई बड़ी फैक्टरी नहीं लगी, तो रोजगार पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता है."
उन्होंने कहा, "पिछले वर्षों में सरकार ने बिहार में रोजगार पैदा करने की कोशिश नहीं की. अलबत्ता ये जरूर कहती रही कि बिहार से पलायन कम हुआ है. लेकिन अब जब रिवर्स माइग्रेशन हुआ है और हजारों की तादाद में लोग लौट रहे हैं, तो ये साबित हो रहा है कि पलायन कम होने का सरकार का दावा खोखला था."
गरीबों को 100 दिनों का रोजगार सुनिश्चित करने वाली महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) भी एक विकल्प हो सकता था, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि बिहार में मनरेगा को लेकर लोगों की प्रतिक्रिया बहुत उत्साह बढ़ाने वाली नहीं रही है. ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में अब तक 180.64 लाख जाब कार्ड जारी हुए हैं, लेकिन 51.76 लाख जाब कार्ड ही सक्रिय हैं. आंकड़े ये भी बताते हैं कि बिहार में 254.57 लाख कामगार पंजीकृत हैं जिनमें से महज 60.48 लाख कामगार ही सक्रिय हैं. ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि साल दर साल श्रमदिवस में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन अनुसूचित जातियों के श्रमदिवस में कमी आई है. वित्त वर्ष 2017-2018 में 817.2 लाख, वित्त वर्ष 2018-2019 में 1233.58 लाख और वित्त वर्ष 2019-2020 में 1415.52 लाख श्रमदिवस तैयार हुए. वित्त वर्ष 2017-2018 में तैयार हुए 817.2 लाख श्रमदिवस में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 21.17 प्रतिशत थी, जो 2018-2019 में घट कर 19.83 प्रतिशत और वित्त वर्ष 2019-2020 में 15.68 प्रतिशत पर आ गई.
डीएम दिवाकर का मानना है कि रिवर्स माइग्रेशन (विपरित पलायन) का बिहार में दो-तीन तरह का प्रभाव पड़ेगा. उन्होंने मुझे बताया, "जो लोग लौटे हैं, उनमें से जिनके पास जमीन होगी, वे उस पर खेती करना शुरू करेंगे. दूसरा असर ये होगा कि पुरुषों के बाहर रहने पर जो महिलाएं खेतों में काम करती थीं, वो अब दोबारा घर संभालेंगी और पुरुष खेतों में काम करने जाएंगे. लेकिन, खेतों में वे पुरुष ही काम करेंगे, जो दूसरे राज्यो में भी खेती ही किया करते थे. जो फैक्ट्रियां में, कंपनियों में और कंस्ट्रक्शन साइट्स पर काम करते थे, वे हालात सामान्य होने का इंतजार करेंगे. इन लोगों के सामने रोजगार का बड़ा संकट होगा. इनमें से एक बड़ा तबका वो है, जिसका राशन कार्ड नहीं है. इस तबके को सरकारी मदद भी नहीं मिलेगी. ऐसे में ये भी होगा कि वे लोग कर्ज के दलदल में फंस जाएंगे."
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पापुलेशन साइंसेज के प्रोफेसर डॉ आरबी भगत ने इस लॉकडाउन और रिवर्स माइग्रेशन को लेकर एक दूसरी चिंता की तरफ इशारा किया. उन्होंने मुझे बताया, “इसका प्रभाव बिहार के स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और खेती पर भी पड़ेगा. बिहार से बाहर जाने वाले लोग कमा कर जो पैसा भेजते हैं, उसे उनका परिवार बच्चों की पढ़ाई, दवाई, खेती और खाने-पीने पर खर्च करता है. जो नहीं लौट पाए हैं उनकी कमाई रुकी हुई है और जो लौटे हैं, वे कमाई नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में उनका परिवार शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती आदि पर पैसा खर्च नहीं कर पाएगा. बिहार सरकार को अभी चाहिए कि प्रभावित परिवारों के खातों में नकद ट्रांसफर करे.”
मधुबनी के समीरूल दिल्ली के रामबाग में दो दशक से ठेला चलाकर गुजारा करते हैं. रूम किराए पर नहीं लिया है. पे एंड यूज टायलेट में नहाते-धोते हैं और ठेले पर ही सो जाते हैं. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के एक दिन बाद यानी 23 मार्च तो वह ठेला लेकर ही गांव के लिए निकल पड़े. 10 दिन में समीरूल मधुबनी जिले में अपने गांव सोठगांव पहुंचे हैं. वह दिल्ली से 1500 रुपए लेकर चले थे. घर पहुंचते-पहुंचते 500 रुपए बचे.
उन्होंने मुझे फोन पर बताया, "वहां रहते, तो खाते कहां से? एक रुपए का गुटका पांच रुपए में मिलने लगा था. राशन लाने दुकान जाते, तो पुलिस मारती थी, इसलिए चार-पांच लोगों ने प्लान बनाया और हमलोग निकल गए. रास्ते में जहां छांव मिलती, वहां कुछ घंटे आराम करते. रास्ते में जगह-जगह लोग मिलते, जो खाना-पानी बांट रहे थे. उनसे हमें हौसला मिला. 10 दिन के सफर में हमलोग एक दिन ही नहा पाए."
बीजेपी के वरिष्ठ नेता बलवीर पुंज ने मजदूरों के पलायन को लेकर 27 मार्च को एक ट्वीट किया था कि मजदूर छुट्टियां मनाने के लिए घर जा रहे हैं. इस सवाल पर समीरूल उखड़ गए और कहा, "जो कपड़ा पहने हुए थे, वही पहन कर घर आए हैं. छुट्टियां मनाने आते, तो कपड़ा-लत्ता जहां तहां छोड़ कर आते?"
बिहार सरकार ने लॉकडाउन के कारण लोगों की जीविका पर आफत के मद्देनजर 100 करोड़ रुपए जारी करने और जून तक राशनकार्ड धारकों को फ्री राशन देने का ऐलान किया है. लेकिन, इनके लिए रोजगार का विकल्प उपलब्ध कराने पर किसी तरह की कोई चर्चा नहीं हुई है. मैंने इस संबंध में बिहार के श्रममंत्री विजय कुमार सिन्हा को फोन किया, तो फोन उनके किसी कर्मचारी ने उठाया और कहा कि मेरा मैसेज मंत्री तक पहुंचा दिया जाएगा. खबर लिखे जाने तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया है.
अक्टूबर, 2018 में जब गुजरात में बिहारी कामगारों पर हमले हुए थे, तब इसी तरह लाखों लोग अपने घर लौट आए थे. उस वक्त मैंने गुजरात से लौटने वाले कई मजदूरों से बात की थी, तो उनका कहना था कि हालात सुधरेंगे तो वे लोग दोबारा वहां जाएंगे. इसी तरह जब जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया गया था और कर्फ्यू लागू किया गया था, तब भी वहां से हजारों की संख्या कामगार बिहार लौटे थे. कई कामगारों से मैंने पटना जंक्शन पर बात की थी. उन्होंने मुझे बताया था कि हालात सामान्य हो जाएंगे तो कश्मीर लौट जाएगा या फिर किसी दूसरे राज्यों का रुख करेंगे. अब जब देशव्यापी लॉकडाउन के कारण वे फिर एक बार अपने घरों की ओर लौट रहे हैं, तो रोजगार के सवाल पर उनका एक ही जवाब है - पलायन.
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