कोरोना लॉकडाउन : रिवर्स माइग्रेशन के बाद बिहारी कामगारों के भविष्य का सवाल

10 अप्रैल 2020
23 मार्च को बिहार सरकार के लॉकडाउन के पहले दिन पटना के मीठापुर बस स्टेंड के पास लोगों की भीड़. केंद्र सरकार ने 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की जिसके बाद देशभर के करोड़ो मजदूरों ने बड़े शहरों से अपने गांवों-कस्वों की ओर पलायन किया.
संतोष कुमार/हिंदुस्तान/टाइम्स गैटी इमेजिस
23 मार्च को बिहार सरकार के लॉकडाउन के पहले दिन पटना के मीठापुर बस स्टेंड के पास लोगों की भीड़. केंद्र सरकार ने 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की जिसके बाद देशभर के करोड़ो मजदूरों ने बड़े शहरों से अपने गांवों-कस्वों की ओर पलायन किया.
संतोष कुमार/हिंदुस्तान/टाइम्स गैटी इमेजिस

उम्मती का निकाह बिहार के सीमांचल में पड़ने वाले अररिया जिले के डुमरिया गांव के अब्दुल रकीब के साथ साल 1994 में हुआ था. उम्मती धनाढ्य परिवार से आती हैं, लेकिन अब्दुल रकीब भूमिहीन हैं. आर्थिक हैसियत खराब होने के बावजूद पिछले 26 साल में कभी ऐसे हालात नहीं बने कि उम्मती को मजदूरी करने के लिए बाहर निकलना पड़ा हो. लेकिन, शनिवार 4 अप्रैल को उन्हें मजदूरी करने के लिए खेत में जाना पड़ा.

57 वर्षीय रकीब दिल्ली के बुरारी में पिछले 25 साल से भवन निर्माण साइटों पर मिस्त्री का काम करते हैं. पिछले साल दिसंबर में वह गांव आए थे और फरवरी में दोबारा दिल्ली लौट गए. पिछले 25 मार्च से शुरू हुए तीन हफ्ते के लॉकडाउन में वह फंस गए हैं. काम बंद है, तो कमाई नहीं हो रही है, इसलिए घर पैसा नहीं भेज पा रहे हैं.

उम्मती के 6 बच्चे और एक सास है. उधार लेकर उन्होंने कुछ दिन घर का चूल्हा जलाया, लेकिन जब लोगों ने पैसा और दुकानदारों ने सामान देना बंद कर दिया, तो उम्मती को हंसिया उठा कर घर की दहलीज से बाहर जाना पड़ा.

उन्होंने मुझे फोन पर बताया, "खेत के मालिक ने कहा था कि पुलिस लोगों को पकड़ रही है, इसलिए डरते-डरते खेत में गई और छिप-छिपकर गेहूं काटा. लेकिन, गेहूं कटनी की मजदूरी अभी नहीं मिलेगी. जब पूरा खेत कट जाएगा और दौनी हो जाएगी तो 10 किलो गेहूं पर एक किलो मुझे मिलेगा. गेहूं मिलते-मिलते पांच दिन तो गुजर ही जाएगा."

"वह (अब्दुल रकीब) घर पर होते थे तो खेतों में काम करते थे. और जब शहर जाते थे तो वहां से कमा कर भेज देते थे. उनकी कमाई से परिवार चल जाता था, इसलिए मुझे काम करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी. जब लॉकडाउन हुआ तो उन्होंने कह दिया कि पैसा नहीं भेज पाएंगे. छह बच्चे, सास और अपना पेट पालने के लिए मुझे पहली बार मजदूरी करनी पड़ी. छोटे बच्चे खाने के लिए रोते रहते हैं. खेत में काम करने नहीं जाते तो क्या करते!," 45 वर्षीया उम्मती मुझे फोन पर रुआंसी होकर कहती हैं. फोन पर बात करते हुए वह लगातार बच्चों के भूख से रोते रहने का जिक्र करती हैं.

उमेश कुमार राय पटना के स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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