जज अरुण मिश्रा के फैसले से कमजोर हुआ भूमि अधिग्रहण कानून

19 अक्टूबर 2019
जुलाई 2018 को दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्रा.
संदीप सक्सेना/द हिंदु
जुलाई 2018 को दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्रा.
संदीप सक्सेना/द हिंदु

15 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्रा ने भरी अदालत में दावा किया, “मेरी ईमानदारी का गवाह मेरा ईश्वर है.” अरुण मिश्रा ने यह टिप्पणी 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून की दो अलग-अलग व्याख्याओं से पैदा हुई असंगति की विवेचना कर रही पांच जजों की संवैधानिक पीठ से खुद को हटा लेने की मांग उठाए जाने पर की थी. इस पांच सदस्यीय पीठ की अध्यक्षता खुद न्यायाधीश मिश्रा कर रहे थे जबकि दोनों फैसलों में से एक उनका लिखा हुआ है. इन दोनों फैसलों का संबंध क्षतिपूर्ति के प्रावधान से है.

इससे एक दिन पहले, मिश्रा ने 2013 के इस कानून में क्षतिपूर्ति से संबंधित प्रावधान के संदर्भ में फैसला सुनाया था. 14 अक्टूबर को शिवकुमार बनाम भारतीय संघ मामले में मिश्रा ने न्यायाधीश एम आर शाह और बी आर गवई के साथ संयुक्त रूप से यह फैसला सुनाया था कि सरकार द्वारा अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद यदि कोई उस भूमि को खरीदता है तो उसे सबसीक्वेंट (बाद वाला) खरीदार माना जाएगा और उसे 2013 के कानून के तहत प्राप्त होने वाले लाभ नहीं मिलेंगे. इस फैसले ने इसी संबंध में 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया. इसके अतिरिक्त अरुण मिश्रा के इस फैसले ने 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर ही नहीं किया बल्कि अदालत की विवेचना में उपस्थित अंतर्विरोधों को भी उजागर कर दिया.

मिश्रा के ताजा फैसले का महत्व समझने के लिए उन दोनों मामलों पर गौर करना जरूरी है, जिनकी वजह से पैदा हुई असंगति के चलते संवैधानिक पीठ का गठन किया गया है. इन मामलों का संबंध भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा पाने का अधिकार और पारदर्शिता अधिनियम, 2013 की धारा 24 से है. इस कानून ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को रद्द कर दिया, जिसे संपत्ति के अधिग्रहण से प्रभावित होने वालों के हितों के संरक्षण के लिए बनाया गया था. इस संबंध में धारा 24 महत्वपूर्ण है. इसमें कहा गया है कि 1894 के कानून के अंतर्गत किसी भी ऐसे अधिग्रहण में जिसमें सरकार ने जमीन नहीं ली है या मुआवजे का भुगतान पांच या अधिक सालों तक नहीं किया है उसे निरस्त समझा जाएगा.

2013 का भूमि अधिग्रहण कानून 1 जनवरी 2014 से लागू हुआ. कानून की विवेचना से संबंधित सबसे पहले मामलों में सवाल था कि यह कब माना जाए कि क्षतिपूर्ति दी जा चुकी है? यह सवाल पुणे नगर निगम बनाम हरकचंद मिस्रीमल सोलंकी केस में उठा था. पुणे नगर निगम ने दावा किया था कि उसने नोटिस जारी कर मुआवजा स्वीकार न करने वाले संपत्ति मालिकों को मुआवजा लेने के लिए आमंत्रित किया था और जब उन्होंने रकम स्वीकार नहीं की तो इस रकम को राज्य के सरकारी कोष में जमा करा दिया गया. नगर निगम ने अपने इस कदम को धारा 24 की आवश्यकता की परिपूर्ति बताया. लेकिन आर एम लोढ़ा, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ की खंडपीठ ने एकमत से यह माना था कि मुआवजे की रकम या तो भूमि मालिकों को दी गई मानी जानी चाहिए या फिर धारा 24 की परिपूर्ति के लिए इसे अदालत में जमा कराया जाना चाहिए.

बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, मिश्रा द्वारा पुणे नगर निगम वाला फैसला सुनाते हुए, पूर्व फैसले को निरस्त करने से रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड को फायदा मिला.

अर्शु जॉन कारवां के सहायक संपादक (वेब) है. पत्रकारिता में आने से पहले दिल्ली में वकालत कर रहे थे.

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