हरेन पांड्या हत्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद "गुजरात फाइल्स" टेप की जांच की अपील

'गुजरात फाइल्स' किताब की लॉन्चिग के दौरान लेखक राणा अय्यूब. शाहिद तांत्रे/कारवां

5 जुलाई को, न्यायाधीश अरुण मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के 2011 के एक फैसले को पलट दिया. उच्च न्यायालय ने 2003 में गुजरात के पूर्व गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या के 12 आरोपियों को बरी कर दिया था. बरी करते हुए, अदालत ने इस मामले की केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा की गयी जांच की निंदा भी की थी- एजेंसी ने पांड्या की हत्या का संबंध गुजरात के विश्व हिंदू परिषद के एक नेता की हत्या से जोड़ा था, और कहा था कि ये हत्याएं एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का नतीजा थीं जिसे कथित रूप से हिंदुओं के बीच आतंक फैलाने के लिए एक मुस्लिम धर्मगुरु के नेतृत्व में किया गया था.

उच्च न्यायालय ने कहा था कि, "मौजूदा मामले के रिकॉर्डों से यह साफ पता चलता है कि श्री हरेन पांड्या की हत्या के मामले की जांच को कदम-कदम पर कमजोर किया गया, आंखों पर पट्टी बांध ली गयी और कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ दिया गया. संबंधित जांच अधिकारियों को उनकी अक्षमता और अयोग्यता के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, जिसका नतीजा अन्याय तथा कई संबंधित व्यक्तियों की भारी प्रताड़ना और सार्वजनिक संसाधनों और न्यायालयों के सार्वजनिक समय की बहुत बड़ी बर्बादी के तौर पर निकला है." लेकिन शीर्ष अदालत ने इन टिप्पणियों को खारिज कर दिया. इसने सीबीआई के दावों से प्रभावी रूप से सहमत होते हुए 12 आरोपियों की सजा बहाल कर दी.

न्यायालय ने एक गैर-लाभकारी संस्था ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ द्वारा दायर एक जनहित याचिका को भी खारिज कर दिया, जिसमें नए सबूतों के आलोक में पांड्या की हत्या की दोबारा जांच की मांग की गई थी. यह नई जानकारी हाल की एक गवाही थी जिसने पांड्या की हत्या को गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख से जोड़ा था, जिसे बाद में गुजरात पुलिस ने कथित रूप से मुठभेड़ में मार गिराया था. शेख के एक सहयोगी और मामले में प्रमुख गवाह आजम खान ने 2018 के अंत में मुंबई की अदालत को बताया "सोहराबुद्दीन के साथ चर्चा के दौरान, उसने मुझे बताया कि उसे ...गुजरात के हरेन पांड्या को मारने का ठेका मिला है." सोहराबुद्दीन ने उससे कहा कि "वंजारा ने उसे यह ठेका दिया था." वंजारा, राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान गुजरात पुलिस के पूर्व उप महानिरीक्षक, महानिदेशक थे. गुजरात के पूर्व गृह राज्य मंत्री अमित शाह, जो अब केंद्रीय गृह मंत्री हैं, सोहराबुद्दीन मामले में मुख्य आरोपी थे.

न्यायाधीशों ने सीपीआईएल द्वारा सूचीबद्ध सबूतों को खारिज कर दिया, जिसमें आउटलुक पत्रिका जैसे समाचार संगठनों की पत्रकारीय रिपोर्टें और मेरी 2016 की पुस्तक, “गुजरात फाइल: एनाटॉमी ऑफ ए कवर अप” शामिल थी. पुस्तक में सीबीआई द्वारा पांड्या की मौत की जांच किए जाने से पहले प्राथमिक जांच करने वाले पुलिस अधिकारी वाईए शेख के साथ मेरी बातचीत का प्रतिलेख था. मैंने चुपके से इस बातचीत को टेप कर लिया था. मामले का उल्लेख करते हुए, शेख ने कहा था, “एक बार सच्चाई सामने आने के बाद मोदी घर चले जाएंगे, उन्हें जेल हो जाएगी.” उन्होंने दावा किया था कि पांड्या की हत्या के मुख्य आरोपी असगर अली को हिरासत में प्रताड़ित कर गलत बयान देने के लिए मजबूर किया गया था. शेख ने मुझे बताया था कि "उन्हें किसी भी मुस्लिम व्यक्ति पर दोष लगाना था ...इसलिए उन्होंने असगर अली को फंसा लिया है."

पुस्तक में प्रस्तुत साक्ष्यों को दरकिनार करते हुए और एक पत्रकार के रूप में मेरी निष्ठा पर सवाल उठाते हुए, फैसले में मेरे बारे में कुछ टिप्पणियां भी की गईं. न्यायाधीश मिश्रा द्वारा लिखित निर्णय में मेरी पुस्तक के प्रतिलेख की एक पंक्ति को- और केवल एक ही पंक्ति को- उदृत किया गया.

सुश्री राणा अय्यूब की एक पुस्तक पर भी भरोसा किया गया है जिसमें यह देखा गया है कि हरेन पांड्या का मामला ज्वालामुखी की तरह है. “एक बार सच्चाई सामने आने के बाद, (xxx) घर चला जाएगा. उसे जेल हो जाएगी.” वकील ने आगे हरेन पांड्या के पिता श्री विट्ठल पांड्या के बयान के आधार पर आउटलुक के एक लेख पर भरोसा किया है. ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने वास्तविक हत्यारे के रूप में एक संदेह पर भरोसा किया, लेकिन किसी के खिलाफ बिना किसी सबूत के.

राणा अय्यूब की पुस्तक की कोई उपयोगिता नहीं है. यह शंकाओ, अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित है और सबूत के तौर पर इसका कोई मूल्य नहीं है. किसी व्यक्ति की राय सबूतों के दायरे में नहीं आती है. राजनीति से प्रेरित होने की कोई संभावना नहीं है, इसे खारिज नहीं किया जा सकता है. जिस तरह से गोधरा की घटना के बाद गुजरात में चीजें आगे बढ़ी हैं, ऐसे आरोप और प्रत्यारोप असामान्य नहीं हैं और कई बार लगाए गए हैं. जो बाद में अपुष्ट और मनगढ़ंत पाए गए हैं.

फैसला सुनाए जाने के तुरंत बाद, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों ने अपने ट्वीट में मुझे टैग करना शुरू कर दिया. मेरे पत्रकारीय कार्य को "प्रचार" और मुझे "मूढ़" और "राजनीतिक कुत्ता" के रूप में संदर्भित किया. इनमें से कई ट्विटर अकांउट ऐसे हैं जिनके विशाल फॉलोवर हैं, जिसमें मोदी और शाह भी शामिल हैं. एक दक्षिणपंथी प्रकाशन ओप इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए एक अंश प्रकाशित किया, जिसमें शीर्षक था, "सुप्रीम कोर्ट राणा अय्यूब की गुजरात पुस्तक को रद्दी बताता है, वह कहता है कि यह शंकाओ, अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित है." मेरी टाइमलाइन मेरी पत्रकारिता पर आक्षेप लगाने वाले ट्वीट से भरी हुई थी.

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों और ऑनलाइन प्रतिक्रिया को देखते हुए, मैं सार्वजनिक डोमेन पर कुछ तथ्य प्रस्तुत करना अनिवार्य समझती हूं.

पहली बात तो, गुजरात फाइल्स वास्तव में एक खोजी और पत्रकारिता का कार्य थी. इसमें एक अंडरकवर स्टिंग ऑपरेशन में टेप किए गए वीडियो के प्रतिलेख हैं जो मैंने 2010 की शुरुआत के 8 महीने में किए थे. इस दौरान मैंने गुप्त रूप से गुजरात के पूर्व गृह सचिव, अशोक नारायण, पूर्व पुलिस महानिदेशक, पीसी पांडे; आतंकवाद निरोधी दस्ते के पूर्व प्रमुख राजन प्रियदर्शी; पूर्व एटीएस अहमदाबाद प्रमुख, जीएल सिंघल; पूर्व पुलिस महानिरीक्षक, गीता जौहरी; और वाईए शेख के साथ बातचीत रिकॉर्ड की. मैं मोदी के पास भी पहुंची थी, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. इन अधिकारियों के साथ बातचीत में 2002 के गुजरात के मुस्लिम विरोधी कार्यक्रम, सोहराबुद्दीन और पांड्या की हत्या, साथ ही इशरत जहां और तुलसीराम प्रजापति की हत्या से जुड़े खुलासे भी शामिल हैं, जिनमें से दोनों को अतिरिक्त न्यायिक मुठभेड़ में मार दिया गया था. अधिकारियों द्वारा मुझे दी गयी स्वीकारोक्तियां, जिन्हें मैंने पुस्तक में पुन: प्रस्तुत किया है, उन्हें और साथ ही गुजरात में राज्य के कुछ सबसे शक्तिशाली सदस्यों की अपराध में संलिप्तता को प्रदर्शित करती हैं. गुजरात में हुई तबाही की जांच कर रहे विशेष जांच दल द्वारा पूछताछ के दौरान, यही अधिकारी स्मृतिलोप की समस्या से ग्रस्त दिखाई दिए - उन्होंने दावा किया कि ऐसा कोई विवरण उन्हें याद नहीं है.

मई 2016 में अपनी पुस्तक के प्रकाशन के बाद, मैंने एसआईटी सहित जांच एजेंसियों से टेप की गई बातचीत को देखने का आग्रह किया और बार-बार उन्हें ये रिकॉर्डिंग सौंपने की पेशकश की है.

विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने गुजरात फाइल्स को पत्रकारीय कार्य के रूप में मान्यता दी है. इसे 2017 में जोहान्सबर्ग में “ग्लोबल शाइनिंग लाइट अवार्ड्स” में उत्कृष्टता के प्रमाण के रूप में पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार खतरे में पड़ी खोजी पत्रकारिता को पुरस्कृत करने के लिए दिया जाता है. 2018 में, ‘फ्री प्रेस अनलिमिटेड’ ने मुझे मेरे काम को निष्फल करने के प्रयासों का विरोध करने के लिए हेग के पीस पैलेस में मोस्ट रेसिलिएंट जर्नलिस्ट (सबसे अधिक लचीला पत्रकार) के खिताब से सम्मानित किया.

इस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि पुस्तक में उल्लिखित एक भी अधिकारी या नौकरशाह ने मेरे द्वारा प्रकाशित बयानों को अस्वीकार नहीं किया है, या मुझे मानहानि के लिए अदालत में नहीं ले गए हैं. मैंने अपने जीवन और सुरक्षा को गंभीर रूप से जोखिम में डालकर इन प्रतिलेखों को प्रकाशित किया. तब से, मुझे बार-बार मौत और बलात्कार की धमकी दी गई है, और सोशल मीडिया तथा सार्वजनिक जीवन में मुझे नफरत फैलाने वाले अभियानों का लक्ष्य बनाया गया है. पिछले साल, संयुक्त राष्ट्र के पांच विशेष कार्यवृत लेखकों (बैठकों की कार्यवाही लिखने वाले) ने भारत सरकार को पत्र लिखा था जिसमें मेरी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कहा गया था.

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि गुजरात फाइल्स के परिणाम, मेरे द्वारा पहले उजागर किए गए और पत्रकारिता कार्य के अनुरूप ही थे. इसमें यह सबूत भी शामिल हैं कि सीबीआई ने बाद में प्रजापति और सोहराबुद्दीन मामलों में अपने आरोप-पत्रों का हवाला दिया. 2010 में, तहलका पत्रिका में काम करने के दौरान, मैंने कॉल रिकॉर्ड्स को उजागर करते हुए दिखाया था कि जिस रात प्रजापति की मौत हुई थी, अमित शाह उन अधिकारियों के सीधे संपर्क में थे, जिन्हें बाद में फर्जी मुठभेड़ के लिए गिरफ्तार किया गया था. यही अधिकारी सोहराबुद्दीन की अतिरिक्त न्यायिक हत्या के संबंध में भी शामिल थे और गिरफ्तार किए गए थे. सुप्रीम कोर्ट सीबीआई की जांच की निगरानी कर रहा था, और एजेंसी ने आरोप पत्र में इन्हीं कॉल रिकॉर्ड्स का हवाला दिया, जो उसने शीर्ष अदालत को सौंपे थे.

यह देखते हुए कि मेरी पुस्तक में पांड्या की हत्या पर कोई राय नहीं जाहिर की गई है और यह केवल प्रतिलेखों के रूप में पत्रकारिता का काम है, अदालत की टिप्पणी हैरान करने वाली है. यह और भी अधिक हैरान करने वाला है कि अदालत ने महसूस किया कि मेरी पुस्तक "अनुमान" पर आधारित थी, लेकिन अदालत को एक गवाह, या मुझे बुलाने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई, या मुझे उन टेपों को प्रस्तुत करने के लिए कहने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई जिन्हें मैंने उद्धृत किया था. अदालत ने मेरी किताब को बदनाम करने के लिए वाईए शेख के साथ मेरे साक्षात्कार से एक पंक्ति का उपयोग किया, इस तथ्य के बावजूद कि इसमें पांड्या मामले के अन्य संदर्भ थे, टेप को देखने तक के लिए नहीं कहा.

मेरे काम पर और संदेह जताते हुए, अदालत ने सुझाव दिया कि मेरी पत्रकारिता का एक राजनीतिक मकसद है - यह भी आश्चर्यजनक है, क्योंकि सीबीआई ने संबंधित मामलों में खुद एक बार उसी सबूत सामग्री पर भरोसा किया था, जिसे मैं सार्वजनिक डोमेन में लाई थी.

मैंने एक 26 वर्षीय पत्रकार के रूप में खतरनाक परिस्थितियों में अंडरकवर रहते हुए, सच्चाई को उजागर करने के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर गुजरात फाइल्स की रिपोर्ट की. जब मेरी किताब को प्र​का​शित करने के लिए कोई प्रकाशक नहीं मिला, (संपादकों ने इसे सेंसर करने के लिए राजनीतिक दबाव का हवाला दिया) तो मुझे तंत्रिकावसाद (नर्वस ब्रेकडाउन) का सामना करना पड़ा. इस आदेश के माध्यम से, अदालत ने मेरे भयावह अनुभवों में इजाफा ही किया है, जिससे मुझे बहुत पीड़ा और मानसिक आघात हुआ है.

अपने आदेश में, अदालत ने उसी के सबूत की जांच किए बिना मेरी खोजी पत्रकारिता को दरकिनार कर दिया. 2016 में, इन मामलों की जांच कर रहे जांच आयोगों से निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच सुनिश्चित करने के लिए, स्टिंग आपरेशन के टेपों और हार्ड डिस्क को देखने के लिए मैंने सार्वजनिक रूप से गुहार लगाई थी. मैं इस दलील को अदालत में दोहराना चाहती हूं, मैं यह अनुरोध करती हूं कि मुझे किताब की एक प्रति और स्टिंग वार्तालापों की टेप प्रस्तुत करने दें.

खोजी पत्रकारों को खतरनाक समय का सामना करना पड़ता है- मेरी सहयोगी गौरी लंकेश, जिन्होंने गुजरात फाइल्स का कन्नड़ में अनुवाद किया था, उनकी हत्या दक्षिणपंथी ताकतों के खिलाफ उनके काम के लिए की गई थी. मेरी पुस्तक के बारे में टिप्पणी उन लोगों को उकसाने के लिए काम कर सकती है जिन्होंने मुझे वर्षों से निशाना बनाया है, जिससे उन्हें मेरे काम को बदनाम करने की अनुमति मिली, हालांकि यह सत्तारूढ़ व्यवस्था और विपक्ष दोनों के प्रति आलोचनात्मक है. मैं न्यायालय से यह अधिकार प्रदान करने का अनुरोध करती हूं - मुझे भारत के सर्वोच्च न्यायिक निकाय को तथ्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए.