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भारत में पुलिस थानों और जेलों में नागरिकों के साथ मार-पीट असामान्य बात नहीं है लेकिन तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले के 62 साल के पी. जयराज और उनके 32 साल के बेटे जे. बेनिक्स की पुलिस हिरासत में हुई हत्या के बाद ऐसी घटनाओं को रोकने के तरीकों पर काफी चर्चा होने लगी है.
19 जून को देर तक मोबाइल फोन की दुकान खुली रखने पर जयराज और पुलिस के बीच बहस हुई थी जिसके बाद पुलिस ने जयराज को गिरफ्तार कर लिया. जब बेनिक्स पिता को छुड़ाने थाने पहुंचे तो पुलिस ने उन्हें भी हिरासत में ले लिया. दो दिन बाद दोनों की मौत हो गई. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक, प्रारंभिक जांच में सामने आया है कि दोनों के प्राइवेट पार्टों में गंभीर चोटें थीं.
पुलिस हिरासत में ऐसी घटनाओं को रोकने की चर्चाओं के बीच देश के सर्वोच्च न्यायालय में कांग्रेस पार्टी के नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने डी.के. बसु मामले पर दोबारा बहस की भी मांग की है. डी.के. बसु वह मामला है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर ऐसे निर्देश दिए हैं, जिससे गिरफ्तार किए गए नागरिकों के लिए जेलों और थानों में परिस्थितियां सुरक्षित हो सकें और हिरासत के दौरान पुलिस वालों का व्यवहार नियंत्रित किया जा सके.
लेकिन इस मुद्दे पर कोई भी कानूनी प्रावधान या निर्देश तब तक कामयाब नहीं होगा, जब तक आम जनता और वर्दीधारियों के बीच की गैरबराबरी पर ध्यान नहीं दिया जाता. हमारी न्याय प्रणाली में जहां एक तरफ वर्दीधारियों को अधिकार, वैधता और वरिष्ठता से नवाजा जाता है, वहीं दूसरी तरफ एक नागरिक को “आरोपी” की नजर से देखा जाता है. कई मायनों में एक नागरिक की तुलना में हमारी न्याय प्रणाली वर्दीधारियों पर ज्यादा भरोसा करती है. उदाहरण के लिए, इन्हें नागरिक को केवल शक के आधार पर हिरासत में लेने के अधिकार दिए जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ नागरिक को लगातार जमानत के लिए अर्जियां लगानी पड़ती हैं. ऐसे में दोनों के ओहदों के बीच की इस गैरबराबरी के चलते, वर्दीधारियों की हिरासत में नागरिक पर दुर्व्यवहार और हिंसा होने का खतरा हमेशा मंडराता रहता है.
इसी गैरबराबरी को ध्यान में रखते हुए, भारतीय संविधान में अनुच्छेद 22, विशेष रूप से गिरफ्तारी और नजरबंदी की परिस्थिति में, नागरिकों के लिए कुछ अधिकार निर्धारित करता है. जैसे, गिरफ्तारी के 24 घंटों में नागरिक को नजदीकी मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना. इसी गैरबराबरी के दुरुपयोग को ध्यान में रखकर ही दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में गिरफ्तारी से जुड़े प्रावधानों में समय-समय पर कुछ संशोधन भी किए गए हैं. जैसे, पुलिस हिरासत में पूछताछ के दौरान नागरिक का अपने वकील से मुलाकात करने का अधिकार या नागरिक को उसकी गिरफ्तारी के तुरंत बाद गिरफ्तारी का कारण बताया जाना.
ऐसे ही प्रावधानों के जरिए हमारे संस्थान, जैसे मैजिस्ट्रेट, हिरासत से संबंधित प्रक्रियाओं पर नजर रख सकते हैं. इसके अलावा वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और मानवाधिकार आयोग भी हिरासत में प्रताड़ित नागरिक की शिकायत सुनकर उस पर कार्रवाई कर सकते हैं. फिर भी देखा जाता है कि हमारे संस्थान, न्याय प्रणाली में निहित इस गैरबराबरी को बार-बार नजरंदाज कर देते हैं और पहले से ही विशेष-अधिकारों से लैस वर्दीधारियों का पलड़ा और भारी कर देते हैं. जहां संस्थानों से उम्मीद की जाती है कि वे अपनी हर प्रणाली और फैसले में संविधान के अनुच्छेद 22 में दी गई चेतावनी को ध्यान में रखेंगे, वे लगातार इस उम्मीद को तोड़ते नजर आते हैं. इस बात को परखने के लिए इस लेख में आगे तीन संस्थानों - मैजिस्ट्रेट, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और उच्च न्यायपालिका - के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं.
पुलिस हिरासत में हिंसा पर नजर रखने के लिए पहला पड़ाव मैजिस्ट्रेट के कटघरे से शुरू होता है. जैसा की ऊपर बताया गया है, मैजिस्ट्रेट के सामने पुलिस को गिरफ्तार किए गए नागरिक को 24 घंटों के भीतर पेश करना अनिवार्य होता है. साथ ही गिरफ्तारी से सम्बंधित दस्तावेज और केस डायरी भी पेश करने होते हैं. कानून के अनुसार, इस पड़ाव पर यह मैजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी होती है कि गिरफ्तार नागरिक की मेडिकल रिपोर्ट को पढ़कर यह देखे कि कहीं नागरिक के शरीर पर पिटाई के कोई निशान तो नहीं पाए गए. मैजिस्ट्रेट को यह भी परखना होता है कि कहीं गिरफ्तारी के दौरान किसी प्रक्रिया का उल्लंघन तो नहीं हुआ और क्या नागरिक को आगे हिरासत में रखने का कोई ठोस कारण है भी या नहीं. पर अक्सर, मजिस्ट्रेट इस महत्वपूर्ण दायित्व को निभाने में खरे नहीं उतरते. यहीं से हिरासत में होने वाली हिंसा को रोकने में ढील की शुरुआत होती है.
इस संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता खालिद सैफी का मामला देखिए. नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के विरोध के सिलसिले में 26 फरवरी 2020 को दोपहर 2.30 बजे उन्हें दिल्ली पुलिस ने उठाया. उनको पुलिस ने थाने में बेरहमी से पीटा. जब उस रात उन्हें स्थानीय मजिस्ट्रेट के सामने व्हीलचेयर पर लाया गया, तो इसमें कोई शक नहीं था कि उनके साथ क्या सलूक किया गया था. सैफी ने मजिस्ट्रेट को अपनी आपबीती भी सुनाई. यह उम्मीद थी कि मैजिस्ट्रेट तुरंत सैफी का पूरा बयान रिकोर्ड कर, संदिग्ध पुलिसवालों के नाम लिखते. साथ ही, मेडिकल रिपोर्ट को पढ़कर चोटों का कारण व समय संज्ञान में लेकर, हालात पर अपनी टिप्पणी दर्ज करते. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्होंने खुद मामले की जांच टालते हुए संबंधित एसीपी को जांच के निर्देश दे दिए. इसके बाद एसीपी से पलटकर फिर दोबारा कोई जवाबदेही भी नहीं मांगी.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) जैसी संस्थाओं ने भी अपराधियों को प्रोत्साहित करने में कम योगदान नहीं किया है. वर्ष 2017-18 में एनएचआरसी ने जेल अधिकारियों की हिरासत में मौतों के 1945 मामलों और पुलिस हिरासत में मौतों के 205 मामलों में फैसला सुनाया. आयोग के अधिकारों के मुताबिक अगर जांच के बाद किसी सरकारी अफसर द्वारा मानवाधिकारों का हनन करना पाया जाता है, तो उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने और पीड़ित के लिए मुआवजे की सिफारिश कर सकता है. इसके अलावा मामले को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायलय के संज्ञान में लाकर उचित निर्देशों की मांग भी कर सकता है. पर आयोग के अनुसार 2017-18 में जहां इसने 757 मामलों में मुआवजे की सिफारिश की, वहीं केवल 38 में आंतरिक कार्यवाही और उससे भी कम दो मामलों में अभियोजन की मांग की. कानून के मुताबिक हिरासत में मौत के हर मामले में एफआईआर दर्ज कर आपराधिक कार्यवाही अनिवार्य है. फिर भी आयोग इसे सुनिश्चित करने की जगह, मुआवजे के निर्देश देकर खुद को जिम्मेदारी से मुक्त कर लेता है. दुखद बात तो यह है कि इन 757 मामलों में भी मार्च 2018 तक 606 मामलों में पीड़ितों को मुआवजा नहीं मिला था.
भोपाल केंद्रीय जेल में बंद 21 कैदियों को मुआवजा मिलना तो दूर, किसी और तरीके की राहत भी नहीं दी गई. इन कैदियों पर मुख्य आरोप यह है कि ये प्रतिबंधित संगठन स्टुडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के सदस्य हैं. इन कैदियों के पिछले तीन सालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के साथ संघर्ष से पता चलता है कि अविलंब कार्यवाही के अभाव में जवाबदेही-प्रक्रियाएं कैसे निरर्थक हो सकती हैं. इन कैदियों ने हिंसा और प्रताड़ना की शिकायत आयोग को 2016 से भेजनी शुरू कर दी थी. कई महीनों की देरी के बाद जून और दिसंबर 2017 में आयोग ने अपनी एक जांच टीम को भोपाल जेल में दौरे पर भेजा. टीम की जांच के बाद इस बात की पुष्टि हुई कि शारीरिक मार-पिटाई के अलावा, कैदियों को जेल में बिना पंखे वाले एकांत कारावास में रखा जा रहा था, इस्लाम-विरोधी नारे लगाने पर मजबूर किया जा रहा था, दाढ़ियां खींची जा रही थीं, नींद और भोजन से वंचित रखा जा रहा था और मुलाकातों के दौरान उनके परिवार एवं वकीलों को परेशान किया जा रहा था. इस जांच की प्रक्रिया में आयोग ने जेल अधिकारियों का पक्ष भी सुना और राज्य सरकार के जवाब की समीक्षा भी की. अंत में आयोग इस नतीजे पर पहुंचा की कैदियों के खिलाफ हिंसा का आरोप सच है और इस लिए जेल अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए. साथ ही जेल के डॉक्टरों के खिलाफ भी कार्रवाई की सिफारिश की, जिन्होंने कैदियों के मेडिकल रिकॉर्ड में चोटों का सही वर्णन नहीं किया था. आज तीन साल बीत जाने के बाद भी आयोग ने अपनी ही टीम की जांच रिपोर्ट पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं की है. सबसे भयावह बात यह है कि आज भी पीड़ित कैदी अपने दोषियों की हिरासत में बंद हैं.
कैदियों पर हो रही हिंसा के बावजूद, आयोग की चुप्पी जेल अधिकारियों के लिए यही संदेश है कि उनके मनमानेपन पर कोई आंच नहीं आएगी. यह चिंताजनक है कि जब आयोग की रिपोर्ट पर मध्य प्रदेश सरकार ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की, तो आयोग स्वयं अपनी रिपोर्ट और मांगें लेकर उच्च न्यायालय क्यों नहीं गया. जेल अधिकारियों के बचाव में लगी राज्य सरकार पर कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाने का इससे बेहतर कोई और तरीका नहीं है. अगर आयोग इस प्रकार अपनी शक्तियों का प्रयोग करे तो निश्चित रूप से यह जेल अधिकारियों के लिए सबक होगा कि अधिकारियों को बंदियों पर हिंसा करने का अधिकार नहीं मिल जाता. उदाहरण के लिए 22 मई 1987 का हाशिमपुरा हत्याकांड मामला देखें. इस मामले में 42 मुसलमानों को प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) बलों ने गैरकानूनी रूप से हिरासत में लेकर गोली मार दी थी. मुकदमे के अंत में निचली अदालत ने 16 पुलिसकर्मियों को दोषमुक्त घोषित कर दिया था. तब मानवाधिकार आयोग ने ना केवल दिल्ली हाईकोर्ट में अपनी तरफ से निचली अदालत के फैसले का विरोध दर्ज कराया, बल्कि उस मामले में ठोस सबूत भी हासिल करवाए. दिल्ली हाईकोर्ट ने सभी पुलिसकर्मियों को हिरासत में हिंसा करने का दोषी पाया और सजा भी सुनाई. लेकिन भोपाल मामले में मानवाधिकार आयोग बिना किसी उचित कारण देर करता नजर आ रहा है.
हाशिमपुरा हत्याकांड मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उच्च न्यायपालिका के सख्त रवैय्ये के प्रभाव को दिखाता है. इस मामले में निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था, “हमारी कानून प्रणाली बर्बर मानवाधिकार हनन के इस मामले में अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने में असफल रही है”. उच्च न्यायपालिका की कार्यवाहियों और कथनों का प्रभाव इस बात पर जरूर पड़ता है कि हिंसा को अंजाम देने के बाद भी वर्दीधारी अपना वर्चस्व कायम रख पाते हैं या नहीं. पर अगर उच्च न्यायपालिका के समक्ष आने वाले चंद मामलों में भी सख्त कार्रवाई ना की जाए या वर्दीधारियों के पक्ष में कोई टिप्पणी कर दी जाए, तो इससे हिरासत में हिंसा करने वाले वर्दीधारी अपराधियों का मनोबल कई गुनाह बढ़ जाता है.
उदाहरण के लिए, 2008 में मुंबई के आर्थर रोड जेल का मामला लीजिए. कैदियों की जेल अधिकारियों ने केवल इसलिए पिटाई कर दी क्योंकि वे दूर की जेल में भिजवाए जाने का विरोध कर रहे थे. कैदियों ने इस बात की शिकायत करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दर्ज की. बॉम्बे हाई कोर्ट ने निचली अदालत के एक न्यायाधीश को जांच का जिम्मा सौंपा और उनकी रिपोर्ट के आधार पर माना कि जेल प्रशासन ने कैदियों के खिलाफ हिंसा की थी. घायल कैदियों को चिकित्सिक सहायता भी नहीं दी गई थी और उनका जाली मेडिकल रिकॉर्ड बना दिया गया था. लेकिन जेल प्रशासन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने के निर्देश ना देकर बॉम्बे हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को विभागीय कार्यवाही करने को ही कहा.
जेल अधिकारियों का पक्ष लेते हुए राज्य सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के ही खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल कर दी. सर्वोच्च न्यायालय ने ना सिर्फ हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया, बल्कि जांच रिपोर्ट को प्रारंभिक बताते हुए खारिज कर दिया. कार्यवाही के किसी भी फैसले को पूरी तरह से उसी राज्य सरकार पर छोड़ दिया जो अपील दायर कर, पहले ही अपना पक्ष जाहिर कर चुकी थी. कैदियों के जले पर नमक छिड़कते हुए, शीर्ष अदालत इस ओर भी इशारा कर बैठी कि “चरमपंथी” अपराधों में बंद ऐसे “तत्वों” से निपटने में अधिकारियों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. उच्च न्यायपालिका का यह सुरक्षात्मक रवैय्या उन कानूनी प्रावधानों के समान है, जो वर्दीधारियों पर मुकदमा चलाने से पहले सरकार से ही स्वीकृति अनिवार्य बना देते हैं. ये वही प्रावधान हैं, जो कथित रूप से “अच्छी मंशा” से किए गए कार्यों के लिए वर्दीधारियों को अभियोजन से बचाते हैं.
तमिलनाडु मामले के बाद हिरासत में हिंसा को काबू करने में नाकामयाब मौजूदा प्रणाली की व्यापक आलोचना हुई. यह आशा है कि इस घटना के बाद हमारे संस्थान नागरिक और वर्दीधारियों के बीच मौजूद निहित गैरबराबरी को कम करने में सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाएंगे. तमिलनाडु का मामला इस गैरबराबरी की एक ऐसी प्रवृत्ति की ओर भी इशारा करता है जिस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है. निरस्त कर देने पर भी यह गैरबराबरी वापस अपनी जगह बनाने का प्रयास करती है. उच्च न्यायालय द्वारा स्वयं मामले का संज्ञान लेने के बावजूद भी, सथनकुलम पुलिस स्टेशन के तीन अधिकारियों ने मैजिस्ट्रेट की जांच में बाधा डालने का प्रयास किया था, जिसके बाद उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करनी पड़ी. मामले की जांच को किसी और टीम को सौंपना पड़ा. ऐसे में आज हमारे संस्थानों के सामने दरअसल असली चुनौती यह है कि वे वर्दी की आड़ में लगातार अपनी जगह बनाती इस गैरबराबरी को पहचानें और इस पर हमेशा नजर रखें.
लेकिन उपरोक्त घटनाओं की समीक्षा से पता चलता है कि हमारे संस्थानों का रुझान वर्दीधारियों को दी गई शक्तियों का संरक्षण करने के पक्ष में अधिक है. अपने कृत्यों से इन्होंने संतुलन बिठाने की जगह, हिरासत में कैद नागरिक को और ज्यादा असहाय बना दिया है. क्या मजिस्ट्रेटों से यह अपेक्षा करना उचित नहीं है कि वे किसी भी नागरिक को पुलिस की मनमानी का शिकार ना होने दें? उनके मनोबल की चिंता करने से बेहतर होगा कि उच्च न्यायपालिका वर्दीधारियों को यह याद दिलाए कि उनको दी गई शक्तियों का इस्तेमाल संवैधानिक दायरों के बाहर नहीं किया जा सकता. क्या यह न्यायसंगत नहीं कि दोषी अधिकारियों पर जल्द से जल्द कार्रवाई कर उनका यह भ्रम दूर किया जाए कि उन पर नवाजी गई वैधता शक्तियों का गलत इस्तेमाल करने का लाइसेंस नहीं है? और कितनी मौतों के बाद हमारे संस्थानों को यह एहसास होगा कि वर्दीधारियों से पहले वे खुद ही संविधान के उल्लंघन के दोषी हैं?
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