हिरासत में हिंसक घटनाओं को रोकने के लिए नागरिक और वर्दीधारियों के बीच मौजूद गैरबराबरी को मिटाना जरूरी

08 अगस्त 2020
26 जून 2020 को ली गई इस तस्वीर में 62 साल के जयराज और उनके 32 साल के बेटे बेनिक्स के ताबूत को कंधा देने लोग जमा हुए हैं. पुलिस के ऊपर दोनों को हिरासत में यातना देने का आरोप है. दोनों की पुलिस हिरासत में हुई हत्या के बाद ऐसी घटनाओं को रोकने के तरीकों पर बहस शुरू हो गई है. 
एसटीआर/ एएफपी/ गैटी इमेजिस
26 जून 2020 को ली गई इस तस्वीर में 62 साल के जयराज और उनके 32 साल के बेटे बेनिक्स के ताबूत को कंधा देने लोग जमा हुए हैं. पुलिस के ऊपर दोनों को हिरासत में यातना देने का आरोप है. दोनों की पुलिस हिरासत में हुई हत्या के बाद ऐसी घटनाओं को रोकने के तरीकों पर बहस शुरू हो गई है. 
एसटीआर/ एएफपी/ गैटी इमेजिस

भारत में पुलिस थानों और जेलों में नागरिकों के साथ मार-पीट असामान्य बात नहीं है लेकिन तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले के 62 साल के पी. जयराज और उनके 32 साल के बेटे जे. बेनिक्स की पुलिस हिरासत में हुई हत्या के बाद ऐसी घटनाओं को रोकने के तरीकों पर काफी चर्चा होने लगी है. 

19 जून को देर तक मोबाइल फोन की दुकान खुली रखने पर जयराज और पुलिस के बीच बहस हुई थी जिसके बाद पुलिस ने जयराज को गिरफ्तार कर लिया. जब बेनिक्स पिता को छुड़ाने थाने पहुंचे तो पुलिस ने उन्हें भी हिरासत में ले लिया. दो दिन बाद दोनों की मौत हो गई. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक, प्रारंभिक जांच में सामने आया है कि दोनों के प्राइवेट पार्टों में गंभीर चोटें थीं. 

पुलिस हिरासत में ऐसी घटनाओं को रोकने की चर्चाओं के बीच देश के सर्वोच्च न्यायालय में कांग्रेस पार्टी के नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने डी.के. बसु मामले पर दोबारा बहस की भी मांग की है. डी.के. बसु वह मामला है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर ऐसे निर्देश दिए हैं, जिससे गिरफ्तार किए गए नागरिकों के लिए जेलों और थानों में परिस्थितियां सुरक्षित हो सकें और हिरासत के दौरान पुलिस वालों का व्यवहार नियंत्रित किया जा सके. 

लेकिन इस मुद्दे पर कोई भी कानूनी प्रावधान या निर्देश तब तक कामयाब नहीं होगा, जब तक आम जनता और वर्दीधारियों के बीच की गैरबराबरी पर ध्यान नहीं दिया जाता. हमारी न्याय प्रणाली में जहां एक तरफ वर्दीधारियों को अधिकार, वैधता और वरिष्ठता से नवाजा जाता है, वहीं दूसरी तरफ एक नागरिक को “आरोपी” की नजर से देखा जाता है. कई मायनों में एक नागरिक की तुलना में हमारी न्याय प्रणाली वर्दीधारियों पर ज्यादा भरोसा करती है. उदाहरण के लिए, इन्हें नागरिक को केवल शक के आधार पर हिरासत में लेने के अधिकार दिए जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ नागरिक को लगातार जमानत के लिए अर्जियां लगानी पड़ती हैं. ऐसे में दोनों के ओहदों के बीच की इस गैरबराबरी के चलते, वर्दीधारियों की हिरासत में नागरिक पर दुर्व्यवहार और हिंसा होने का खतरा हमेशा मंडराता रहता है. 

इसी गैरबराबरी को ध्यान में रखते हुए, भारतीय संविधान में अनुच्छेद 22, विशेष रूप से गिरफ्तारी और नजरबंदी की परिस्थिति में, नागरिकों के लिए कुछ अधिकार निर्धारित करता है. जैसे, गिरफ्तारी के 24 घंटों में नागरिक को नजदीकी मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना. इसी गैरबराबरी के दुरुपयोग को ध्यान में रखकर ही दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में गिरफ्तारी से जुड़े प्रावधानों में समय-समय पर कुछ संशोधन भी किए गए हैं. जैसे, पुलिस हिरासत में पूछताछ के दौरान नागरिक का अपने वकील से मुलाकात करने का अधिकार या नागरिक को उसकी गिरफ्तारी के तुरंत बाद गिरफ्तारी का कारण बताया जाना. 

बलजीत कौर एनएलयू दिल्ली के प्रोजेक्ट 39 ए के साथ काम करती हैं.

मेघा बहल दिल्ली में आपराधिक मामलों में वकालत करती हैं.

Keywords: custodial violence police brutality police excesses police reform
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