अनूप सुरेंद्रनाथ दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के केंद्र प्रोजेक्ट 39-ए के निदेशक हैं. इस केंद्र का उद्देश्य भारत में आपराध-न्याय प्रथाओं और नीतियों का अध्ययन करना है. इसने भारत में पहली बार मृत्युदंड पर शोध कर 2016 में एक रिपोर्ट जारी की. इसके बाद से केंद्र लगातार देश में मत्युदंड संबंधी तथ्यांक जारी कर रहा है. केंद्र ने पाया है कि भारत में मृत्युदंड पाने वाले अधिकांश लोग गरीब या निचली जातियों से होते हैं.
भारत में अपराधों को नियंत्रित करने के लिए मृत्युदंड कितनी सफल कानूनी व्यवस्था है और संविधान और कानून इसे कैसे परिभाषित करते हैं और इससे संबंधित अन्य विषयों पर कारवां की वैब एडिटर सुरभि काँगा ने अनूप सुरेंद्रनाथ से बातचीत की.
सुरभि काँगा : प्रोजेक्ट 39-ए की पहली मृत्युदंड रिपोर्ट में राज्य-वार मृत्युदंड का डेटा दिया गया था. आपको राज्यों में क्या पैटर्न दिखाई दिया?
अनूप सुरेंद्रनाथ : हमने मई 2016 में जो डेटा प्रकाशित किया था, वह एक निश्चित समय का था और जैसा कि हम देख रहे हैं, चीजें स्पष्ट रूप से बदली हैं. राज्य-वार आंकड़ों में सबसे आश्चर्यजनक यह रहा कि भारत में अशांत क्षेत्रों में मृत्युदंड के बहुत कम मामले सामने आए. चाहे वह जम्मू-कश्मीर हो या मध्य भारत या उत्तर-पूर्व, मृत्युदंड का बहुत कम इस्तेमाल होता है. मृत्युदंड की एक निश्चित श्रमसाध्य प्रकृति होती है इसलिए इसका राज्य के लिए कोई वास्तविक उपयोग नहीं है - राज्य अशांत क्षेत्रों में अन्य प्रकार की हिंसा और हत्याओं में अधिक विश्वास रखता है. सबसे दिलचस्प बात यह है कि आतंकवाद और यौन हिंसा से संबंधित मामलों में मृत्युदंड की लोकप्रियता कम से कम इस दशक में कम है. और उन सभी देशों की तरह जहां मृत्युदंड है, मृत्युदंड का बोझ हमारे समाज के सबसे गरीब और चरम हाशिए पर खड़े लोगों पर पड़ता है.
2018 में कठुआ की घटनाओं और निश्चित रूप से दिसंबर 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले ने इस आम धारणा को मजबूती दी कि कठोर सजा यौन हिंसा का सबसे कारगर जवाब है. (2018 में जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में एक आठ वर्षीय बच्ची के अपहरण, बंदी बनाए जाने, बलात्कार और हत्या के लिए जून 2019 में छह लोगों को दोषी ठहराया गया था.) महिला अधिकार आंदोलन और बाल अधिकार समूहों के विरोध के बावजूद, 2013 और 2018 में, भारतीय दंड संहिता और पॉस्को कानून (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012) में 2019 में संशोधन कर मृत्युदंड का विधायी विस्तार किया गया. मध्य प्रदेश में 2018 में 12 साल से कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार के लिए मौत की सजा का प्रावधान रखने के लिए संशोधन लाया गया. बाद में 2019 की शुरुआत में जब बच्चों के साथ बलात्कार के मामले में पॉस्को में संशोधन कर मौत की सजा देने का प्रावधान किया गया, तो आप देखेंगे कि मध्य प्रदेश मृत्युदंड के मामले में सबसे अव्वल राज्य हो गया.
आप मृत्युदंड को लेकर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अतिउत्साह को देख सकते हैं जिन्होंने इसे राजनीतिक रूप से बहुत ज्यादा प्रोत्साहित किया. मध्य प्रदेश में एक समस्याग्रस्त संवैधानिक प्रथा भी है जहां मृत्युदंड दिलवाले के लिए वकीलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जैसे अगर कोई वकील किसी यौन-हिंसा के मामले में मौत की सजा दिलवाता है उसे अधिक अंक मिलते हैं. उसे सर्वश्रेष्ठ वकील का पुरस्कार मिलता है. वकीलों को स्वतंत्र होना चाहिए, उन्हें अपने विवेक से चलाना चाहिए कि किन मामलों में किस सजा की मांग की जाए. एक बार जब वकील प्रभावित होने लगते हैं तो वे वकील होने की स्वतंत्रता को खोना शुरू कर देते हैं. इससे सुरक्षा का बहुत महत्वपूर्ण अधिकार को छीन जाता है. आप वकीलों को मृत्युदंड की मांग करने की ओर धकेल रहे हैं और उन्हें इसके लिए पुरस्कृत कर रहे हैं.
सुरभि काँगा : ''राजनीतिक रूप से प्रोत्साहित'' करने का क्या अर्थ है? क्या मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने मृत्युदंड दिए जाने की पैरवी की थी?
अनूप सुरेंद्रनाथ : मुझे नहीं लगता कि सिर्फ बीजेपी ही यौन हिंसा के लिए मृत्युदंड के बारे में एकमत है. मृत्युदंड को लेकर कानूनी दायरे के विस्तार पर सभी राजनीतिक दलों के समर्थन से भी यह स्पष्ट होता है. शिवराज सिंह चौहान ने बच्चों के साथ बलात्कार के लिए मौत की सजा का काफी हद तक समर्थन किया. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी ने भी हैदराबाद में हुई घटना के बाद आईपीसी में कुछ अति प्रतिगामी संशोधनों के जरिए ऐसा ही किया. राज्य सभा सांसद जया बच्चन के इस बारे में क्या विचार हैं उसे हम जानते ही हैं. जमीनी सच्चाइयों का सामना करने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति या साहस की जरूरत होती है वह यहां नहीं है. मेरे कहने का मतलब है कि यौन हिंसा महज सजा देकर हल होने वाली समस्या नहीं है.
सभी राजनीतिक दल इस भयानक, काउंटर प्रोडक्टिव बात को आगे बढ़ाने और इस सार्वजनिक उन्माद को भड़काने में समान रूप से शामिल रहे हैं कि यौन हिंसा के अपराधियों को अधिक कठोरता से दंडित करने से ऐसे अपराधों को नियंत्रित किया जा सकता है. चार लोगों या सौ बलात्कारियों को खलनायक बनाना आसान है, बजाये इसके कि हम अपने समाज में यौन हिंसा के बारे में व्यापक और कठिन सवाल पूछें.
सुरभि काँगा : आपने ऐसे सैकड़ों लोगों से बात की है जिन्हें यौन हिंसा और हत्या के लिए मौत की सजा मिली है. क्या खलनायक का यह नैरेटिव आपके फील्डवर्क के दौरान भी सामने आया?
अनूप सुरेंद्रनाथ : खलनायक का नेरेटिव, जैसा कि आप इसे कहती हैं, यह कारगर नहीं है क्योंकि यह इस विचार को गड़बड़ा देता है कि समाज में हिंसा कैसे पैदा होती है. ऐसा नहीं है कि इन लोगों के डीएनए में कुछ बुराई है और इसलिए यह केवल उसी व्यक्ति की समस्या है. यौन हिंसा हमारे समाज में कई जटिल कारकों की पैदाइश है, जिनमें हमारे घरों से लेकर हमारे दोस्तों, हमारे रिश्तेदारों, कार्यस्थल के हमारे सहयोगियों, हमारा मीडिया, हमारे समाचार, हमारे नेताओं और हमारे मनोरंजन के संसाधनों तक की भागेदारी है. जब हम किसी व्यक्ति को खलनायक बना रहे होते हैं तो हम उस समस्या में अपनी भूमिका से बच रहे होते हैं. हम कहते हैं, "हम ऐसे नहीं हैं." लेकिन हम वास्तव में वैसे ही हैं. हम यौन हिंसा के स्पेक्ट्रम में योगदान करते हैं, इसमें शामिल होते है और नियमित रूप से इसे स्वीकार करते जाते हैं.
सुरभि काँगा : क्या आप इस जटिलता के कुछ उदाहरण दे सकते हैं जिन्हें आपने अपने शोध के दौरान देखा है? क्या कोई विशेष मामले हैं जो ध्यान में आते हैं?
अनूप सुरेंद्रनाथ : एक बार एक मामला हमारे पास आया था. ट्रायल कोर्ट ने मौत की सजा दी थी, उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी. समीक्षा याचिका के वक्त वह मामला हमारे पास आया (जब दोषी सुप्रीम कोर्ट में मौत की सजा के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर करता है), जो खारिज हो गई. एक व्यक्ति ने दो साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार करने की कोशिश की. वह उसका बलात्कार नहीं कर सका. बच्ची रोने लगी, वह बस उसका रोना बंद करना चाहता था इसलिए उसने एक पत्थर लिया और उसके सिर पर मार दिया.
समीक्षा याचिका खारिज हो जाने के बाद, हमें दया याचिका दायर करनी पड़ी, हम उस व्यक्ति और उसके परिवार से मिले. लगभग पचास या साठ घंटे के साक्षात्कार के दौरान, गंभीर मानसिक-स्वास्थ्य चिंताओं के कारण, उसके खुद के जीवन में क्रूर हिंसा का इतिहास उभर कर सामने आ गया. बचपन से ही, उसकी मानसिक-स्वास्थ्य समस्याओं को ठीक करने के लिए उसे बहुत सारे आश्रमों में भेजा गया जहां हुए उसके यौन शोषण की बहुत बातें सामने आईं और साथ ही उसके पिता द्वारा उसके साथ मारपीट करने की भी. जैसा कि अक्सर हमारे समाज में होता है कि सभी मानसिक-स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों का हल शादी में देखा जाता है, उसके परिवार ने उसकी शादी करा दी. फिर, शादी के बाद भी उसके पिता उसे उसके पत्नी के सामने पीटते थे.
उसने जो किया, मैं उसे सही ठहराने के लिए यह नहीं बता रहा हूं. यह बात महत्वपूर्ण नहीं है. लेकिन अगर हम पचास लोगों से मिले, जिन्होंने बलात्कार या वयस्कों या बच्चों की हत्या की है, उनमें से हरेक की कोई न कोई कहानी है. भले ही न्यायसंगत नहीं है, लेकिन ये कहानियां बताती हैं कि ये लोग कौन हैं. आप अपने सुकून के लिए ऐसे लोगों को उनकी एक पल की उनकी कमजोरी से परिभाषित कर देते हैं : आखिरकार उस व्यक्ति ने दो साल की बच्ची के साथ बलात्कार करने की कोशिश की और उसकी हत्या की और उसके चेहरे को पत्थर से कुचल दिया. लेकिन बात सिर्फ इतनी तो नहीं हैं. उस व्यक्ति को किसने ऐसा करने के लिए प्रेरित किया, इसका एक जटिल, व्यक्तिगत, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक इतिहास है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि नाबालिग से बलात्कार और हत्या करने वाले हर व्यक्ति के यौन या शारीरिक शोषण का इतिहास होता ही है. प्रत्येक व्यक्ति का अपना खास नैरेटिव होता है जो उन्हें उस ओर ले जाता है. सवाल यह है कि हम इसे समझना चाहते हैं या नहीं.
सुरभि काँगा : क्या हमारी कानूनी और न्यायिक प्रक्रिया में इस पृष्ठभूमि की प्रस्तुति कि जगह है?
अनूप सुरेंद्रनाथ : वास्तव में, हमारा कानून इस बारे में बहुत अच्छा है. इसमें कहा गया है कि आजीवन कारावास ऐसे अपरोधों कि डिफ्लॉट सजा है और अगर आप मौत की सजा मांगना चाहते हैं, तो आपको विशेष कारण बताने होंगे. यह बहुत अच्छी स्थिति है. 1980 में बचन सिंह मामले में (बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड की संवैधानिकता की जांच की) अदालत ने कहा था कि जब न्यायाधीश यह चुनाव करते हैं कि किसी को मौत की सजा दी जानी चाहिए तो उन्हें उत्तेजना पैदा करने वाले और शांत करने वाले दोनों कारकों पर ध्यान देना चाहिए. फैसला कहता है कि न्याय को व्यक्तिगत किया जाना चाहिए. यह ऐसी अद्भुत, प्रगतिशील बात है.
मैं मृत्युदंड रिपोर्ट के अपने निष्कर्षों को बताता हूं. मौत की सजा पाने वाले ज्यादातर लोग अविश्वसनीय हद तक गरीब हैं, जिनके पास ढंग के वकील तक नहीं हैं. यहां तक कि अगर उन्हें कोई अच्छा वकील मिल भी जाता है, तो भी वे उसे इतनी कम फीस दे पाते हैं कि वकील उनके जटिल व्यक्तिगत इतिहास को सामने लाने में रुचि नहीं रखता. वकीलों को इस तरह से प्रशिक्षित किया जाता है कि वे आपसे बस उन चीजों की बात करते हैं जिनकी जरूरत मामले के लिए होती है. हमारे पास एक ऐसी कानूनी प्रणाली है जो बहुत प्रगतिशील कानून की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है.
कानून कहता है कि आपको अपराधी के सुधार की संभवाना पर विचार करना चाहिए. अदालतों ने इस पर कैसे गौर किया है? यह मनमाफिक है, सर्कुलर का तर्क है - कानून कहता है कि जिन लोगों ने जघन्य काम किए हैं, उनके बारे में आपको यह निर्धारित करना होगा कि वे सुधर सकते हैं या नहीं. अदालत का जवाब है, "अगर इस व्यक्ति ने ऐसा किया है, तो आखिर वह सुधर कैसे सकता है?"
अगर आप किसी व्यक्ति का जीवन खत्म करना चाहते हैं, तो क्या यह प्रासंगिक नहीं है कि उस व्यक्ति के बारे में जानें कि वह व्यक्ति कौन था? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस व्यक्ति ने जो किया वह किसी तरह अप्रासंगिक है. लेकिन अगर हम किसी की जिंदगी छीन लेने में इतनी रुचि रखते हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उसमें सुधार हो ही नहीं सकता. आप कह सकते हैं, "ओह, यह व्यावहारिक नहीं है, क्या इस तरह किसी को कभी मौत की सजा मिल पाएगी?" अगर आपको ऐसा कोई नहीं मिलता जिसमें सुधार लाया जा सकता है, तो फिर यह सजा दी जा सकती है. अगर राज्य को किसी की जान लेने में इतनी दिलचस्पी है, तो फिर उसे यह भारी बोझ उठाना होगा. हमारा विचार यह है कि राज्य के लिए किसी की जान लेने को जितना संभव हो उतना कठिन बनाना है. सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले इस बात पर बहुत स्पष्ट हैं.
सुरभि काँगा : यौन हिंसा के मामलों में मौत की सजा की मांग करते हुए वकील किस प्रकार के तर्क देते हैं?
अनूप सुरेंद्रनाथ : उनका सबसे पसंदीदा तर्क यह है कि यह सजा न मिलने से समाज का भरोसा कानून पर से उठ जाएगा. न्यायाधीश भी इस तर्क को अपनाते हैं कि सामूहिक विवेक को चोट पहुंचेगी या जनता का विश्वास चकनाचूर हो जाएगा. किसकी जनता? कौन सी जनता? मैसूर जिले की जनता? दक्षिणी कर्नाटक की जनता? कर्नाटक की जनता? दक्षिण भारत की जनता? भारत की जनता? यह जनता इस नतीजे तक कैसे पहुंच रही है?
मौत की सजा के मामलों में यह हमेश एक मुद्दा रहा है. "सामूहिक विवेक" या "जन आक्रोश" के संदर्भ ऐसे तरीके हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय भी जनता की राय को शामिल कर लेती है. लेकिन अदालत को कानूनी विचारों पर मामलों का फैसला करना है, न कि लोकप्रियता या "न्याय के लिए समाज की दुहाई" के द्वारा. जब पांच न्यायाधीशों ने बचन सिंह मामले में मृत्युदंड की संवैधानिकता का फैसला किया - जिनमें से एक ने असहमति जताई थी - उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि जनता की राय अप्रासंगिक है. बहुमत का फैसले इस बिंदु पर अच्छी तरह से स्पष्ट था, "न्यायाधीशों को सार्वजनिक राय के भविष्यवक्ता या प्रवक्ता बनने की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए."
जरा इस बारे में सोच कर देखिए कि अगर इस देश में भ्रष्टाचार के लिए मृत्युदंड होता तो क्या होता. इसके बाद जो न्यायशास्त्र और विवरण विकसित होता वह हैरान करने वाला होता. अचानक हम पाते कि इन मामलों को देश के सबसे बड़े वकील देख रहे हैं, अचानक न्यायाधीशों को “ड्यू प्रोसेस” तर्कों में वजन दिखाई देने लगता. अगर किसी वरिष्ठ नौकरशाह को मौत की मिलती तो आप इन बड़े वकीलों को कानून सम्मत सजा को कम करने के प्रावधान बताते पाते. लेकिन यही इसकी वास्तविकता है – यह सजा गरीबों को मिलती है, उपेक्षितों को मिलती है और इसलिए कोई इसकी परवाह नहीं करता है.
सुरभि काँगा : आपने कहा है कि दंडात्मक रास्ता काम नहीं करता है तो फिर पीड़ितों को किस तरह न्याय प्राप्त होगा?
अनूप सुरेंद्रनाथ : जब लोग किसी बच्चे के बारे में पढ़ते हैं, जिसके साथ क्रूर यौन दुर्व्यवहार हुआ है, तो आमतौर पर लोग सोचते हैं कि न्याय का अर्थ अपराधी को जेल में डालना है. समाज की सोच के लिहाज से यह सही हो सकता है लेकिन एक पीड़ित के दृष्टिकोण से, मुझे लगता है कि नैरेटिव बहुत अधिक जटिल है. बाल यौन शोषण के मामले इसका सटीक उदाहरण हैं. यौन हिंसा झेलने वाले ज्यादातर बच्चे अपने परिचितों, अपने रिश्तेदारों, अपने दोस्तों, अपने पड़ोसियों के हाथों शिकार होते हैं. बच्चों से बलात्कार के अपराध में जब मौत की सजा दी जा रही थी तो एचएक्यू : सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स और सेंटर फॉर चाइल्ड एंड लॉ (नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बैंगलोर का एक रिसर्च सेंटर) जैसे संगठनों द्वारा किए गए कुछ उत्कृष्ट शोध मुझे प्राप्त हुए. अगर एक मां एक बच्चे की देखरेख कर रही है, जिसके साथ नियमित रूप से पिता दुर्व्यवहार कर रहा है, तो उनके लिए न्याय का अर्थ बहुत अधिक जटिल हो जाता है. मां को अक्सर लगता है कि वह सिर्फ यही चाहती है वह और बच्चा दुर्व्यवहार करने वाले की शारीरिक पहुंच से कहीं दूर चलें जाएं जहां वे सुरक्षित हों और जिंदगी जी सकें. मौजूदा व्यवस्था में, हम उनसे कह रहे हैं कि वे दोषी को सजा या अपने अस्तित्व के लिए खतरा में से एक का चुनाव कर लें.
राज्य कहता है कि जोखिम में पड़े बच्चों की मदद करने की योजना है, लेकिन शोध से पता चलता है कि कोई भी योजना काम की नहीं है. राज्य बच्चों के अनुकूल अदालतों के निर्माण में भी सक्षम नहीं है. यह केवल एक अदालत बना देना और खेल का मैदान होने की बात नहीं है. क्या ऐसे न्यायाधीश पर्याप्त संख्या में हैं जो बच्चों के साथ व्यवहार करने के मामलों में प्रशिक्षित हैं? क्या ऐसे वकील हैं जो बच्चों के साथ बलात्कार मामलों में मुकदमा चलाने के लिए प्रशिक्षित हैं? और क्या सामाजिक कार्यकर्ता ऐसे बच्चों की मदद के लिए प्रशिक्षित हैं?
सुरभि काँगा : जैसा कि आपने कहा कि मृत्युदंड पाए अधिकांश अपराधी एक खास आर्थिक वर्ग से संबंधित हैं. क्या आपके शोध में मृत्युदंड के दोषियों की जातिगत जनगणना भी शामिल है?
अनूप सुरेंद्रनाथ : ट्रायल कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट और दया याचिका और जिनकी दया याचिका खारिज हो चुकी है, जैस-जैसे आप इस पिरामिड पर ऊपर तक जाते हैं, जाति की संरचना सघन रूप से दिखाई देने लगती है. मृत्युदंड पाए लोगों में दलितों की संख्या अधिक है. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कहानियां हैं, लेकिन मृत्युदंड पाए दलितों की संख्या अपनी आबादी के अनुपात में अधिक है. जैसे-जैसे आप व्यवस्था में ऊपर जाते हैं, तो आप पाते हैं कि मृत्युदंड पाने वाले प्रत्येक 100 लोगों में से केवल पांच ही बचते हैं जिनकी सजा माफ नहीं हुई और इनमें ज्यादातर दलित ही होते हैं.
सुरभि काँगा : राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों से पता चला है कि 2017 में दर्ज किए गए बलात्कार के 93.1 प्रतिशत मामलों में पीड़ित आरोपियों को पहले से जानते थे.
अनूप सुरेंद्रनाथ : बिल्कुल. यह कल्पना करना कि भारतीय समाज में बलात्कारी एक खास वर्ग या तबके से आते हैं और वे ऐसे राक्षस हैं जो हम पर हमला करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं यह सच नहीं है. नैतिक रूप से आपको यह सोचकर सुकून मिल सकता है कि यह हमारे घरों में, हमारे कार्यालयों में या जहां हम जाते हैं, वहां बलात्कार नहीं होता है, लेकिन ऐसा होता है. हम इसके बारे में बात नहीं करना चाहते हैं. यहां तक कि यौन हिंसा में भी इस तरह की अलग-अलग घटनाएं होती हैं. आप एक निश्चित तरीके से बलात्कारी और पीड़ित का निर्माण करते हैं. इस तरह के मामलों में जाति, धर्म, यौनिकता, वर्ग और राज्य से दंडमुक्ति के व्यापक संदर्भों में यौन हिंसा की कल्पना करने के लिए बहुत कम जगह है.
सुरभि काँगा : आपकी रिपोर्ट में मौत की सजा की मनमानी प्रकृति के पहलू पर भी प्रकाश डाला गया था. 2016 की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2000 से 2015 के बीच ट्रायल कोर्ट में मिली मौत की सजा में से केवल 4.9 प्रतिशत मामलों की ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुष्टि की गई. ट्रायल कोर्ट मौत की सजा का फैसला कैसे सुनाती हैं?
अनूप सुरेंद्रनाथ : यह एक बहुत ही स्थानीय प्रकिया है. वे कहते हैं, "हम आपको मृत्युदंड दे देंगे, आप इसके लायक नहीं भी हो सकते हो, लेकिन आप अपीलीय अदालतों में जा सकते हो." ट्रायल-कोर्ट के न्यायाधीश अपराध पर नरम नहीं दिखना चाहते. यही कारण है कि आप मौत की सजा का ऐसा अतिरंजित उपयोग देखते हैं.
कभी-कभी यह पूछा जाता है, "क्या यह अच्छा नहीं है कि केवल 5 प्रतिशत की पुष्टि हो रही है?" हमारी व्यवस्था में यह ठीक नहीं है. आपको अधिक चिंतित होना चाहिए कि आपने 95 प्रतिशत मामलों में अनावश्यक रूप से मौत की सजा दी है, आपने लोगों को उस मृत्युदंड के लिए लंबे समय तक मौत का इंतजार करवाया है.
सुरभि काँगा : बलात्कार के हर मामले में अभियुक्त को मृत्युदंड नहीं मिलता है. 2012 का दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला इस संबंध में क्यों प्रमुख हो गया है?
अनूप सुरेंद्रनाथ : पिछले कुछ सालों से मृत्युदंड के मामलों पर नजर रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, मुझे लगता है कि दिसंबर 2012 के पहले हफ्ते के विरोध प्रदर्शन को देखते हुए यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं था इन लोगों को फांसी मिलेगी. मुझे नहीं लगता कि किसी को भी इस पर संदेह था.
इससे एक निश्चित राजनीतिक लाभ भी मिलता है. इसके खिलाफ एक खास तरह का सामाजिक आंदोलन है, आक्रोश है, गुस्सा है. यह यौन हिंसा से निपटने के लिए समाज की अक्षमता का प्रतीक बन गया. दुर्भाग्य से, वह हत्थे चढ़ गए, इन छह ने उस गंदगी का प्रतिनिधित्व किया जिसमें हम हैं. उन्हें खलनायक बनाकर, हम अपनी सामाजिक चेतना को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं कि, “ठीक है, यौन हिंसा हमारे समाज का सच नहीं है, बस यही चार लोग ऐसे हैं. आइए हम इनसे छुटकारा पा लें,'' और हम भूल जाते हैं कि हम ही लोग यौन हिंसा जैसी स्थिति पैदा करते हैं और रोज इस तरह के अपराध करते हैं.
सुरभि काँगा: क्या आप मृत्युदंड प्रक्रिया में दया याचिका का महत्व समझा सकते हैं? कानून में इसकी कल्पना कैसे की जाती है?
अनूप सुरेंद्रनाथ : संविधान राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों को दया प्रकट करने की शक्ति के रूप में स्वीकार करता है. अदालत ने बार-बार कहा है कि यह (एक) सम्राट की तरह परोपकारी कार्य नहीं है, इसका एक निश्चित संवैधानिक आधार है और उस शक्ति का प्रयोग करने का एक संवैधानिक तरीका है. आप इसे मनमाने ढंग से नहीं कर सकते, आपको प्रासंगिक सामग्री को ध्यान में रखना होगा. उस संदर्भ में, राष्ट्रपति कोविंद का कहना है कि जिन लोगों को बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा काने के लिए मौत दी जाती है, उन्हें दया याचिका का विकल्प नहीं दिया जाना चाहिए. यह एकदम असंवैधानिक तर्क है. सर्वोच्च संवैधानिक कार्यालय के वाहक के लिए, अपने मन को प्रकट करना और अपने पूर्वाग्रह को दिखाना, चौंकाने वाला है. अगर कोई दया याचिका उनके सामने आती है जिसमें किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया गया है और उसे बाल बलात्कार और हत्या के लिए मौत की सजा दी गई है तो क्योंकि राष्ट्रपति ने पहले ही अपना विचार बता दिया है, उस कैदी के लिए संवैधानिक प्रावधान क्या बचता है? मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संवैधानिक सवाल है जब अगली बार राष्ट्रपति कोविंद किसी की दया याचिका को खारिज करें जिसे बाल बलात्कार और हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई है, तो उपरोक्त विचार व्यक्त करने के बाद उन्हें दया याचिका पर फैसला नहीं करना चाहिए.
सुरभि काँगा : दया याचिका के संबंध में लोकप्रिय धारणा यह है कि यह परोपकार है. इस विचार से संवैधानिक प्रक्रिया कैसे भिन्न है? इसमें क्या कुछ होता है?
अनूप सुरेंद्रनाथ : कुछ प्रकार की सामग्रियां होती हैं जिन्हें राष्ट्रपति के सामने रखा जाना होता है. जेल का आचरण, स्वास्थ्य आचरण, निर्णय, जिस तरह के आवेदन दायर किए जा सकते हैं, वह सामग्री जो कैदी ने खुद जेल से जमा की हो - यह सब वह सामग्री है जिस पर राष्ट्रपति को विचार करना होता है. राष्ट्रपति या राज्यपाल को राज्य सरकार की राय लेनी पड़ सकती है, बदले में राज्य सरकार को जेल की राय लेनी पड़ सकती है. दोषी द्वारा दायर की गई दया याचिका पर कानूनी कार्यवाही के तहत कुछ चिंताएं उठ सकती हैं, जिस पर राष्ट्रपति को विचार करना पड़ सकता है. राष्ट्रपति ऐसा विचार कर सकते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यह बात नहीं है. मुद्दा यह है कि क्या उन्होंने इस पर विचार किया? क्या इन सामग्रियों को उनके सामने रखा गया? यदि मानसिक-स्वास्थ्य संबंधी चिंता थी, तो क्या वह सामग्री राष्ट्रपति को भेजी गई थी? क्या राज्य ने उस सामग्री को राष्ट्रपति के समक्ष रखा था? दया याचिका के लिए चुनौती यह नहीं है कि इसे देखने के बाद उन्हें एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए था, लेकिन क्या उन्होंने इस पर विचार किया. इसलिए यह व्यक्तिगत कार्य नहीं है. इस संवैधानिक प्राधिकार को इस बात के लिए संवैधानिक आवश्यकताएं हैं कि उन्हें दिए गए विवेक का उपयोग कैसे करना चाहिए.
सुरभि काँगा : हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर भी कई सवाल उठे हैं. आप इसे कैसे देखते हैं?
अनूप सुरेंद्रनाथ : पिछले बारह से चौदह महीनों में, सुप्रीम कोर्ट ने अच्छी खासी संख्या में मृत्युदंड के मामलों में फैसला सुनाया है. भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के तहत ऐसी बेंचों का निर्माण किया गया था, जहां प्राथमिकता में मृत्युदंड के मामलों को निपटाना और काफी संख्या में उन पर निर्णय लिया जाना था. ज्यादातर मामलों में मृत्युदंड की सजा को बदल दिया गया और केवल दो या तीन मामलों में मृत्युदंड की पुष्टि की गई. यह बहुत ही दिलचस्प समय है, जहां मृत्युदंड में सुप्रीम कोर्ट का खुद का विश्वास कम होता जा रहा है, लेकिन मृत्युदंड का विस्तार करने के लिए आपके पास एक हंगामाखेज विधायी शक्ति है. ट्रायल कोर्ट पहले की तुलना में अधिक मौत की सजा दे रहे हैं - साल 2018 में पिछले बीस वर्षों में ट्रायल कोर्ट ने सबसे ज्यादा मृत्युदंड दिए हैं और फिर भी सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि जिस तरह से मौत की सजा दी जा रही है वह संदेहास्पद है. मुझे नहीं पता है कि हैदराबाद और उन्नाव और दिल्ली सामूहिक बलात्कार जैसे मामले मौजूदा स्थिति को कैसे प्रभावित करेंगे. दिल्ली सामूहिक बलात्कार का मामला सुप्रिम कोर्ट के लिए एक दिलचस्प परीक्षा होने जा रहा है कि इसमें वह क्या कार्रवाई करती है जब सभी उपयुक्त विकल्प उसके सामने आते हैं और यह कितनी दृढ़ता से दोषियों के लिए अदालती प्रक्रिया की रक्षा करेगी.
सुरभि काँगा : इस पूरी प्रक्रिया में लाभार्थी कौन है? एक महिला के साथ बलात्कार हुआ और चार लोगों को फांसी दी जाएगी.
अनूप सुरेंद्रनाथ : न तो पीड़ित कोई बेहतर स्थिति में हैं, न ही महिलाएं सुरक्षित हैं, न ही हम उन बलात्कारियों के साथ कुछ कर रहे हैं, जो जेल में हैं और न ही सभी बलात्कारियों को मृत्युदंड ही मिला है. इसलिए उनमें से कुछ किसी दिन बाहर आ जाएंगे. लेकिन हम उनके साथ कुछ सार्थक नहीं कर रहे हैं. जिन लोगों को इसके बारे में कुछ करना चाहिए था, वे इस बारे में कुछ नहीं कर रहे हैं और इस पूरी प्रक्रिया ने उनसे ध्यान हटाने और हमें विचलित करने के लिए उनकी बहुत अच्छी तरह से मदद ही की है. यह राजनीतिक विफलता को ढकने का एक आसान तरीका है. इस पूरी प्रक्रिया का कोई वास्तविक लाभ नहीं है.
आशा देवी और बद्रीनाथ सिंह (2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में पीड़िता के माता-पिता) ने अपनी बेटी की हिंसक मौत के लिए न्याय पाने के लिए अथक लड़ाई लड़ी है. हममें से कोई भी वास्तव में उनकी तकलीफ और दुःख की कल्पना नहीं कर सकता है और न ही हम वास्तव में समझ सकते हैं कि फांसी उनके लिए क्या मायने रख सकती है. मुझे नहीं लगता कि एक समाज के रूप में, हमें यह दिखावा करना चाहिए कि हम उनके लिए यह कर रहे हैं. यह सिर्फ पाखंड होगा क्योंकि एक समाज के रूप में इस दुख का कारण बनने में अपनी भूमिका को स्वीकार करने का साहस हमारे अंदर नहीं है.
सुरभि काँगा : क्या किसी को इससे आर्थिक रूप से फायदा होता है?
अनूप सुरेंद्रनाथ : समाचार चैनलों के लिए फांसी बहुत अच्छा व्यवसाय है - रस्सी कैसे बनाई जाती है, फांसी दिए जाने की तैयारी कैसी है, जल्लाद कहां से आने वाला है, अंतिम क्षणों में दोषियों ने क्या किया. मृत्यु का वह विचित्र दृश्य बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे हर कोई पसंद करता है.